गंगा किनारे तुलसीघाट के तुलसी मंदिर से गुरुवार को प्राचीन रामचरित मानस
की हस्तलिखित प्रति चोरी हो गई। मंदिर के एक तरफ के द्वार की कुंडी तोड़कर
चोर ‘रामचरित मानस’ के दो भागों के अलावा एक वाल्मीकि रामायण और चांदी का
एक मुकुट भी साथ ले गए। अपर पुलिस अधीक्षक (नगर) मानसिंह चौहान ने बताया कि
मंदिर के पुजारी दुर्गा शंकर मिश्र की तहरीर पर भेलूपूर थाने में मामला
दर्ज किया गया है। पुजारी के मुताबिक, दिन में दस बजे मंदिर खोलते वक्त एक
द्वार की कुंडी टूटी हुई मिली। पुजारी की सूचना पर जिलाधिकारी रवींद्र और
पुलिस उप महानिरीक्षक राम कुमार भी देर रात मौके पर पहुंचे और घटना की
जानकारी ली। डाग स्क्वाड के साथ पुलिस टीम ने चोरों का सुराग पाने की नाकाम
कोशिश की।वाराणसी, 23 दिसंबर (भाषा)।
Friday, December 23, 2011
Tuesday, December 13, 2011
मिला सबसे पुराना बिस्तर
पुरातत्ववेताओं ने दावा किया है कि उन्होंने बिस्तर के सबसे पुराने साक्ष्य
खोज निकाले हैं। जिसमें गुफा मानव मच्छरों को भगाने वाले पौधों का उपयोग
करते थे। उनका अनुमान है कि इस बिस्तर पर गुफा मानव करीब 77,000 वर्ष पहले
सोया करते थे. डेली मेल की खबर के मुताबिक, जोहान्सबर्ग में यूनिवर्सिटी ऑफ
द विटवाटरसैंड के लीन वाडले के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय दल ने कहा कि
उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में एक गुफा में पत्तों और तनों से बना एक बिस्तर
खोजा है।
सिबुदु खनन क्षेत्र में कम से कम तीन भिन्न सतहों में बिस्तर के साक्ष्य मिले हैं। इस बिस्तरों पर 38 हजार से 77 हजार वर्ष पहले लोग सोया करते थे।
सोने की जगह के अलावा इस बिस्तरों में मच्छर भगाने वाले रसायनों का भी प्रयोग किया गया है ताकि मच्छर दूर रहें।
(साभार-समय लाइव।
सिबुदु खनन क्षेत्र में कम से कम तीन भिन्न सतहों में बिस्तर के साक्ष्य मिले हैं। इस बिस्तरों पर 38 हजार से 77 हजार वर्ष पहले लोग सोया करते थे।
सोने की जगह के अलावा इस बिस्तरों में मच्छर भगाने वाले रसायनों का भी प्रयोग किया गया है ताकि मच्छर दूर रहें।
(साभार-समय लाइव।
Wednesday, November 9, 2011
ढह रही हैं अवध के नवाबों की ऐतिहासिक ईमारतें
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में
अवध के नवाबों की ऐतिहासिक ईमारतों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। अवध
के पहले बादशाह गाजिउद्दीन हैदर ने जो छतरमंजिल बनवाई थी उसका पोर्च
मंगलवार को अचानक ढह गया। आसिफुद्दौला के बनवाए रूमी दरवाजा में दरार आ
गई है तो वाजिद अली शाह के पिता अमजद अली शाह का मकबरा अतिक्रमण का शिकार
है। शाहनजफ इमामबाड़ा के परिसर को शादी ब्याह के लिए भाड़े पर दिया जाता है।
शादी ब्याह और पाटिर्यों के चलते यहां शोर शराबा और खाना पीना भी चलता है।
खाना बनाने के लिए भठ्ठियां सुलगती रहती हैं और धुआं ऐतिहासिक ईमारत को
नुकसान पहुंचता है। इसका निर्माण भी बादशाह गाजिउद्दीन हैदर ने 1816-17 में
करवाया था। बड़ा इमामबाड़ा परिसर से लेकर छोटा इमामबाड़ा परिसर में लोगों ने
मकान से लेकर दुकान तक खोल ली है। यह बानगी है लखनऊ की ऐतिहासिक
ईमारतों की बदहाली की।
मंगलवार को छतरमंजिल का 15 फुट ऊंचा और तीस फुट लंबा पोर्च अचानक गिर जाने के बाद सब की नींद खुली है। यह ऐतिहासिक इमारत है और कई दशक से इसमे सेंट्रल ड्रग रिसर्च सेंटर की प्रयोगशाला चल रही है। उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्त्व निदेशालय के निदेशक राकेश तिवारी के मुताबिक यह इमारत जर्जर हो चुकी है। सीडीआरआई को करीब एक दशक पहले ही इसकी जानकारी दे दी गई थी पर इसे खाली नहीं किया गया। यह बताता है कि किस तरह ऐतिहासिक धरोहरों की अनदेखी की जा रही है। नवाबों के वंशज और अभिनेता जाफर मीर अब्दुल्ला ने जनसत्ता से कहा-सरकार तो चाहती है यह सब ऐतिहासिक इमारते गिर जाएं क्योकि वह तो नया इतिहास बना रहे हैं। उनके स्मारक यहां बन रहे हैं जिनका इस अवध की जमीन से कोई रिश्ता नहीं रहा । जिन लोगों ने अवध का निर्माण किया उनके स्मारक ढह रहे हैं। भारी ट्रैफिक के कारण रूमी दरवाजे में दरार आ चुकी है तो इमामबाड़ा में अतिक्रमण बढ़ रहा है। सिबटेनाबाद इमामबाड़ा के गेट पर तो सरकार ने ही अतिक्रमण कर लिया है।
जाफर मीर अब्दुल्ला ने संयुक्त राष्ट की सांस्कृतिक समिति के सेक्रेट्री जनरल(रिटायर) और स्वीडन में बसे मशहूर वास्तुकला विशेषज्ञ प्रोफेसर सतीश चंद्रा का हवाला देते हुए कहा कि इन ईमारतों का रख रखाव भी ठीक से नहीं हो रहा है। सतीश चंद्रा का भी यही मानना है कि ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण में जो सामग्री इस्तेमाल की जा रही है उससे काफी नुकसान पहुंच सकता है। इन इमारतों को दुरुस्त करने का काम पोटर्लैंड सीमेंट, सुर्खी, चूना और मौरंग आदि की मदद से किया जा रहा है। इनसे इमारतों की पोरेसिटी खत्म हो रही है जिससे संकट और बढ़ रहा है। अब्दुल्ला ने आगे कहा-अवध की इन इमारतों की खास बात यही है कि इन इमारतों में जो पोरेसिटी होती है उसी के चलते दीवारों के कान होते है वाला मुहावरा भी मशहूर हुआ और भूल भुलैया में दीवार के एक छोर पर कोई कागज फाड़े तो दूसरे छोर पर आवाज सुनी जा सकती थी। पर इमारतों की मरम्मत के चलते यह पोरेसिटी खत्म हो रही है जिससे इन इमारतों को नुकसान पहुंच रहा है।
एमिटी विश्विद्यालय के आकिर्टेक्ट विभाग के कुछ छात्रों ने इन इमारतों के हालात का अध्ययन कर कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां जुटाई हैं। अध्ययन के मुताबिक लखनऊ की पहचान रूमी दरवाजा में जो दरार आई है यदि उसे जल्द दुरुस्त नहीं किया गया तो आसिफुद्दौला की यह धरोहर इतिहास के पन्नो से गायब हो जाएगी। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के पिता अमजद अली शाह का मकबरा सिबटेनाबाद हजरत गंज में है। यह शिया लोगों का महत्त्वपूर्ण स्थल है। यह भवन भी भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग के संरक्षित भवनों में से एक है। इस इमामबाड़े पर लोगों ने कब्ज़ा कर रखा है। बाहर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे आप किसी मुहल्ले में खड़े हैं। इमामबाड़े में अंदर जाने पर आपको गैस एजंसी से लेकर चाट की दुकान तक मिल जाएगी। और लोग अतिक्रमण करे तो समझ में आता है सरकारी महकमा भी इस काम में पीछे नहीं है। हजरत गंज को खुबसूरत बनाने के नाम पर पर इस इमामबाड़े के मुख्य गेट पर बड़ा सा फव्वारा बना दिया गया जिससे अब कोई धार्मिक जलूस आदि भी बाहर नहीं आ सकता।
ऐसी ही स्थिति बड़ा इमामबाड़ा की है । इसको अवध के नवाब आसिफुद्दौला ने 1784 में बनवाया था। यहां पर भी लोगों ने कब्ज़ा जमा रखा है। इमामबाड़े के बाहर के हिस्से में एक होटल वाले ने कब्ज़ा कर रखा है। बाहर वह ठेला लगाता है व इमामबाड़े के अंदर की तरफ उसकी रसोई है। इमामबाड़े के अंदर की तरफ, मस्जिद के पीछे की तरफ व नीचे लोगों ने अवैध कब्ज़ा जमा रखा है। छोटा इमामबाड़ा में बाहर- अंदर दोनों जगह लोगों ने कब्ज़ा कर रखा है। यहां बाकायदा इन परिवारों का चौका चूल्हा जलता है। कहने को तो यह भी पुरातत्त्व विभाग का संरक्षित भवन है पर इसकी देख रेख करने वाला कोई है ऐसा देख कर नहीं लगता। करीब दर्जन भर इमारतें जर्जर हो चुकी हैं। ( साभार-जनसत्ता, अंबरीश कुमार )
मंगलवार को छतरमंजिल का 15 फुट ऊंचा और तीस फुट लंबा पोर्च अचानक गिर जाने के बाद सब की नींद खुली है। यह ऐतिहासिक इमारत है और कई दशक से इसमे सेंट्रल ड्रग रिसर्च सेंटर की प्रयोगशाला चल रही है। उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्त्व निदेशालय के निदेशक राकेश तिवारी के मुताबिक यह इमारत जर्जर हो चुकी है। सीडीआरआई को करीब एक दशक पहले ही इसकी जानकारी दे दी गई थी पर इसे खाली नहीं किया गया। यह बताता है कि किस तरह ऐतिहासिक धरोहरों की अनदेखी की जा रही है। नवाबों के वंशज और अभिनेता जाफर मीर अब्दुल्ला ने जनसत्ता से कहा-सरकार तो चाहती है यह सब ऐतिहासिक इमारते गिर जाएं क्योकि वह तो नया इतिहास बना रहे हैं। उनके स्मारक यहां बन रहे हैं जिनका इस अवध की जमीन से कोई रिश्ता नहीं रहा । जिन लोगों ने अवध का निर्माण किया उनके स्मारक ढह रहे हैं। भारी ट्रैफिक के कारण रूमी दरवाजे में दरार आ चुकी है तो इमामबाड़ा में अतिक्रमण बढ़ रहा है। सिबटेनाबाद इमामबाड़ा के गेट पर तो सरकार ने ही अतिक्रमण कर लिया है।
जाफर मीर अब्दुल्ला ने संयुक्त राष्ट की सांस्कृतिक समिति के सेक्रेट्री जनरल(रिटायर) और स्वीडन में बसे मशहूर वास्तुकला विशेषज्ञ प्रोफेसर सतीश चंद्रा का हवाला देते हुए कहा कि इन ईमारतों का रख रखाव भी ठीक से नहीं हो रहा है। सतीश चंद्रा का भी यही मानना है कि ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण में जो सामग्री इस्तेमाल की जा रही है उससे काफी नुकसान पहुंच सकता है। इन इमारतों को दुरुस्त करने का काम पोटर्लैंड सीमेंट, सुर्खी, चूना और मौरंग आदि की मदद से किया जा रहा है। इनसे इमारतों की पोरेसिटी खत्म हो रही है जिससे संकट और बढ़ रहा है। अब्दुल्ला ने आगे कहा-अवध की इन इमारतों की खास बात यही है कि इन इमारतों में जो पोरेसिटी होती है उसी के चलते दीवारों के कान होते है वाला मुहावरा भी मशहूर हुआ और भूल भुलैया में दीवार के एक छोर पर कोई कागज फाड़े तो दूसरे छोर पर आवाज सुनी जा सकती थी। पर इमारतों की मरम्मत के चलते यह पोरेसिटी खत्म हो रही है जिससे इन इमारतों को नुकसान पहुंच रहा है।
एमिटी विश्विद्यालय के आकिर्टेक्ट विभाग के कुछ छात्रों ने इन इमारतों के हालात का अध्ययन कर कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां जुटाई हैं। अध्ययन के मुताबिक लखनऊ की पहचान रूमी दरवाजा में जो दरार आई है यदि उसे जल्द दुरुस्त नहीं किया गया तो आसिफुद्दौला की यह धरोहर इतिहास के पन्नो से गायब हो जाएगी। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के पिता अमजद अली शाह का मकबरा सिबटेनाबाद हजरत गंज में है। यह शिया लोगों का महत्त्वपूर्ण स्थल है। यह भवन भी भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग के संरक्षित भवनों में से एक है। इस इमामबाड़े पर लोगों ने कब्ज़ा कर रखा है। बाहर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे आप किसी मुहल्ले में खड़े हैं। इमामबाड़े में अंदर जाने पर आपको गैस एजंसी से लेकर चाट की दुकान तक मिल जाएगी। और लोग अतिक्रमण करे तो समझ में आता है सरकारी महकमा भी इस काम में पीछे नहीं है। हजरत गंज को खुबसूरत बनाने के नाम पर पर इस इमामबाड़े के मुख्य गेट पर बड़ा सा फव्वारा बना दिया गया जिससे अब कोई धार्मिक जलूस आदि भी बाहर नहीं आ सकता।
ऐसी ही स्थिति बड़ा इमामबाड़ा की है । इसको अवध के नवाब आसिफुद्दौला ने 1784 में बनवाया था। यहां पर भी लोगों ने कब्ज़ा जमा रखा है। इमामबाड़े के बाहर के हिस्से में एक होटल वाले ने कब्ज़ा कर रखा है। बाहर वह ठेला लगाता है व इमामबाड़े के अंदर की तरफ उसकी रसोई है। इमामबाड़े के अंदर की तरफ, मस्जिद के पीछे की तरफ व नीचे लोगों ने अवैध कब्ज़ा जमा रखा है। छोटा इमामबाड़ा में बाहर- अंदर दोनों जगह लोगों ने कब्ज़ा कर रखा है। यहां बाकायदा इन परिवारों का चौका चूल्हा जलता है। कहने को तो यह भी पुरातत्त्व विभाग का संरक्षित भवन है पर इसकी देख रेख करने वाला कोई है ऐसा देख कर नहीं लगता। करीब दर्जन भर इमारतें जर्जर हो चुकी हैं। ( साभार-जनसत्ता, अंबरीश कुमार )
Friday, October 21, 2011
पुरातात्विक स्थल ताराडीह
बिहार के गया शहर स्थित महाबोधि मंदिर के
पश्चिम स्थित पुरातात्विक स्थल ताराडीह का सौंदर्यीकरण होगा. इसके लिए
योजना बना कर पर्यटन विभाग को भेजने का निर्देश दिया गया है।
मगध प्रमंडल के आयुक्त विवेक कुमार सिंह ने भी पिछले दिनों इस पर चर्चा की थी और उसके अनुपालन के लिए पर्यटन और कला-संस्कृति विभाग को निर्देश दिया है। ताराडीह भारत का एक मात्र ऐसा उत्खनन स्थल है जहां नव प्रस्तर काल से वर्तमान काल तक के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अवशेष मिले हैं।
वर्षे बाद शुरू हुआ प्रयास
चार दिसंबर, 2000 को बिहार सरकार के कला,संस्कृति व युवा विभाग ने इसके सौंदर्यीकरण का प्रयास किया था. विभागीय मंत्री अशोक कुमार सिंह बोधगया ताराडीह गौतम वन पुरातत्व परिसर के सौंदर्यीकरण और संरक्षण के कार्ये का शिलान्यास भी किया था, लेकिन 11 वर्ष बीत गये पर किसी ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखायी। श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रेम दासा ने इस पुरातात्विक स्थल के विकास में रुचि दिखायी थी पर 1993 में उनकी हत्या हो जाने के बाद यह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया।
यहां मिले हैं ऐतिहासिक अवशेष
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, बिहार अंचल द्वारा1981-82 में इस पुरातात्विक स्थल का उत्खनन डॉ अजीत कुमार सिन्हा के निर्देशन में शुरू हुआ था. यहां से मिले सामान को बोधगया के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा गया है. यहां सात कालों के अवशेष मिले हैं।
इतने महत्वपूर्ण धरोहर को संरक्षित करने के बजाय उन्हें मिट्टी से भर दिया गया है. आज यह स्थल देखरेख के अभाव में मल, मूत्र त्याग और कूड़ा फेंकने का स्थल बन कर रह गया है। यहां हुई खुदाई में तमाम पुरातात्विक चीजें मिली हैं।
* नव पाषाण युग - पत्थर के मनके, सूई, पत्थर के खिलौने।
* ताम्र युग - धातु की सूई, मनके, बरतन, हांडी।
* कृष्ण-लोहित व कृष्ण मृदभाड - मिट्टी के बरतन, मिट्टी के बने मनुष्य के सिर, मिट्टी की सूई।
* उत्तरी कृष्ण मांजित मृदभांड - हैडल लगे बरतन व चूल्हा।
* कुषाण कालीन - बुद्ध की मूर्ति, पत्थर मनका, धातु की सूई, चूल्हे के अवशेष।
* गुप्त काल - अभिलेखयुक्त बुद्ध की मूर्ति, सिर विहीन मूर्ति, बौद्ध मठ।
* पाल युग - बुद्ध की मूति, बौद्ध मठ । (साभार-प्रभात खबर)
मगध प्रमंडल के आयुक्त विवेक कुमार सिंह ने भी पिछले दिनों इस पर चर्चा की थी और उसके अनुपालन के लिए पर्यटन और कला-संस्कृति विभाग को निर्देश दिया है। ताराडीह भारत का एक मात्र ऐसा उत्खनन स्थल है जहां नव प्रस्तर काल से वर्तमान काल तक के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अवशेष मिले हैं।
वर्षे बाद शुरू हुआ प्रयास
चार दिसंबर, 2000 को बिहार सरकार के कला,संस्कृति व युवा विभाग ने इसके सौंदर्यीकरण का प्रयास किया था. विभागीय मंत्री अशोक कुमार सिंह बोधगया ताराडीह गौतम वन पुरातत्व परिसर के सौंदर्यीकरण और संरक्षण के कार्ये का शिलान्यास भी किया था, लेकिन 11 वर्ष बीत गये पर किसी ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखायी। श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रेम दासा ने इस पुरातात्विक स्थल के विकास में रुचि दिखायी थी पर 1993 में उनकी हत्या हो जाने के बाद यह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया।
यहां मिले हैं ऐतिहासिक अवशेष
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, बिहार अंचल द्वारा1981-82 में इस पुरातात्विक स्थल का उत्खनन डॉ अजीत कुमार सिन्हा के निर्देशन में शुरू हुआ था. यहां से मिले सामान को बोधगया के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा गया है. यहां सात कालों के अवशेष मिले हैं।
इतने महत्वपूर्ण धरोहर को संरक्षित करने के बजाय उन्हें मिट्टी से भर दिया गया है. आज यह स्थल देखरेख के अभाव में मल, मूत्र त्याग और कूड़ा फेंकने का स्थल बन कर रह गया है। यहां हुई खुदाई में तमाम पुरातात्विक चीजें मिली हैं।
* नव पाषाण युग - पत्थर के मनके, सूई, पत्थर के खिलौने।
* ताम्र युग - धातु की सूई, मनके, बरतन, हांडी।
* कृष्ण-लोहित व कृष्ण मृदभाड - मिट्टी के बरतन, मिट्टी के बने मनुष्य के सिर, मिट्टी की सूई।
* उत्तरी कृष्ण मांजित मृदभांड - हैडल लगे बरतन व चूल्हा।
* कुषाण कालीन - बुद्ध की मूर्ति, पत्थर मनका, धातु की सूई, चूल्हे के अवशेष।
* गुप्त काल - अभिलेखयुक्त बुद्ध की मूर्ति, सिर विहीन मूर्ति, बौद्ध मठ।
* पाल युग - बुद्ध की मूति, बौद्ध मठ । (साभार-प्रभात खबर)
Monday, October 10, 2011
ऐतिहासिक कालीन कुत्तों के अवशेष
जीवाश्म वैज्ञानिकों ने पूर्व ऐतिहासिक कालीन तीन कुत्तों के अवशेषों की खोज की है और उनका दावा है कि यह खोज मानव और कुत्ते के बीच की शुरूआती संबंधों को दर्शाने वाला हो सकता है। रायल बेलजियन इंस्टि्टयूट आफ नेचुरल साइंसेज के नेतृत्व वाले दल का दावा है कि मरने के बाद पुरापाषाणकालिक कुत्तों के दिमागों को भी हटाया गया है जो जानवरों की आत्मा को मुक्त करने की मानवीय कोशिश की ओर संकेत करता है।
दिमाग को हटाने के लिए कुत्तों की खोपडि़यों में छेद किया गया है। इस दल के प्रमुख मितजे गेरमोनपरे ने कहा कि उत्तरी क्षेत्र के बहुत सारे लोगों का मानना है मस्तिष्क में आत्मा का निवास होता है। ऐसे ही लोगों में से कुछ व्यक्तियों ने मरे हुए जानवरो की खोपड़ी में छिद्र किया ताकि उसकी आत्मा मुक्त हो सके। डेली मेल के मुताबिक तीसरे कुत्ते के मुंह में बड़ा हड्डी फंसा हुआ है और उसके बारे में जीवाश्म वैज्ञानिकों का मानना है कि मरने के बाद उसके मुंह में किसी व्यक्ति ने रीति रिवाज के तहत ऐसा किया है।
Tuesday, September 20, 2011
कैमूर की पहाड़ियों में मिले मध्य पाषाण काल के कई दुर्लभ अवशेष आज भी उपेक्षित
मानव विकास के इतिहास के साक्षी हैं ये शैल चित्र
मध्य प्रदेश के भीमबेटका के मध्य पाषाण काल के आसपास के शैल चित्रों (रॉक पेंटिंग) पर दुनिया की नजर पड़ने के बाद यूनेस्को ने इसके ऐतिहासिक महत्व को स्वीकार करते हुए इसे विश्व धरोहर का दर्जा दे दिया, लेकिन बिहार के रोहतास जिले की कैमूर पर्वतीय शृंखला में हाल ही में मिले मध्य पाषाण काल के शैल चित्रों सहित न जाने ऐसे कितने दुर्लभ अवशेष है, जो आज भी उपेक्षित हैं।
कैमूर की पहाड़ियों और तलहटियों में कुछ पुरातत्व विज्ञानियों, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के जानकारों ने जिन शैल चित्रों की खोज की है अभी उससे कहीं अधिक धरोहर अनछुई हैं। एक उत्साही इतिहासकार ने हाल में खोज कर उसे दुनिया के सामने लाने का प्रयास किया है।
इतिहासकार डा श्याम सुंदर तिवारी ने रोहतास में नौहट्टा, तिलौथू और आसपास के क्षेत्र में कैमूर पर्वतीय इलाके में दर्जनों शैल आश्रय (रॉक शेल्टर) में शैल चित्रों की खोज की है। बीएचयू के पुरातत्त्ववेत्ता प्रो बीपी सिंह के साथ सेन्हुआर, पैसरा, खैरडही, नरहन और अगियाबीर जैसे स्थानों पर शैल चित्र के शोध कार्य में सहयोग कर चुके तिवारी मानते हैं कि उन्होंने जिन शैल चित्रों को खोजा है, वे मध्य पाषाण से लेकर नव पाषाण काल के हो सकते हैं।
तिवारी के अनुसार ये शैल चित्र धाऊ पत्थर को पीस कर पतले ब्रश से उकेरे गए हैं। इससे उस समय के लोगों के चित्रकला कौशल की भी जानकारी मिलती है। यह बात सही भी है कि मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में विंध्य पर्वत शृंखला में भीमबेटका में खोजे गए शैल चित्र जिस प्रकार चर्चित हुए, देश में इस प्रकार के कई धरोहरों को वैसा सम्मान नहीं मिल पाया। कैमूर पर्वतीय क्षेत्र में खोजे गए शैल चित्र भी उन्हीं श्रेणी के हैं, जिनका वैज्ञानिक अध्ययन जरूरी है।
पुरातत्व विज्ञानियों ने पुरापाषाण, मध्य पाषाण और नव पाषाण काल के अवशेषों के लिए विंध्य कैमूर शृंखला और गंगा के मैदानी इलाकों की मानव सभ्यता के इतिहास के प्रमुख स्थलों के रूप में पहचान की है। कैमूर पर्वतीय क्षेत्र उनमें काफी महत्व रखता है। तिवारी ने जिले के दक्षिणी भाग में कैमूर पहाड़ी पर 21 नए रॉक शेल्टर की खोज की है जो शैल चित्रों के विशाल खजाने साबित हो सकते हैं। कार्बन डेंटिंग पद्धति से कालावधि के बारे में निर्धारण कर इन्हें इनकी सही पहचान देना बहुत जरूरी है। इनके संरक्षण की जरूरत है, क्योंकि इनका लगातार क्षरण हो रहा है।
कैमूर की पहाड़ियों में खोजे गए शैल चित्र मध्य प्रदेश के भीमबेटका में पाए पाषाण चित्रों की तरह अमूल्य है और लगातार इनका क्षरण हो रहा है। ये बिखरे पड़े हैं। इस उत्साही पुरातत्व प्रेमी ने दुर्लभ शैल चित्र वाले रॉक शेल्टर को रोहतास के नौहट्टा के बजरमरवा के धानी बांध जंगल के पास खोज निकाला है।
उन्होंने तिलौथू में फुलवरिया में गड़के और कछुआर की पहाड़ियों में तीन शैल आश्रय में बने शैल चित्रों की खोज की है। इसके अलावा अघौरा प्रखंड के बेचिरागी महाकोल में पांच, बनरमोरा पहाड़ी में दो शैल आश्रयों, दारीहारा में दो, सड़की में तीन, सारोदाग के करमू चौतरा पहाड़ी में दो और तुरवाडीह जंगल में तीन शैल आश्रय मिले हैं।
तिवारी बताते हैं कि शैल आश्रयों में शैल चित्रों का मिलना इस बात का प्रमाण है कि कैमूर की इन पहाड़ियों में प्राचीन काल में बस्तियां बसी थी, जो अब धरोहर और साक्ष्य के रूप में विशाल चट्टानों पर दर्ज हो चुके हैं। इन्हें गुफाओं में रहने के दौरान मानवों ने अंकित किया है। कैमूर के पर्वतीय क्षेत्रों में मिले इन शैल चित्रों में बाघ जैसे पशु को मानव द्वारा पालतू कुत्तों के जरिए घेरते हुए दिखाया गया है। शैल चित्रों में सूअर, बाघ, बैल आदि पालतू जानवरों को दिखाया गया है। सारोदाग में एक गैंडे का चित्र बना है।
धर्मशालामान में हाथी और उसके बच्चों के भागने और हिरण के शिकार को दर्शाया गया है। वहीं दारीहारा में चनैनमान में एक अज्ञात लिपि भी दिखी है। बंधा गांव के दक्षिण में चनैन मान से मिले शैलचित्र में नाच करते महिला पुरुष और पालतू पशुओं को दर्शाया गया है। इससे पहले रोहतास में सेनुवार, सकास, मलांव और कैमूर के अकोढी आदि गांवों में नवपाषाण काल के अवशेषों की खोज बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के इतिहास और पुरातत्व विभाग ने की थी।
प्रो बीपी सिंह के निर्देशन में हुई खुदाई के बाद रेडियो कार्बन डेटिंग पद्धति से जांच के बाद इन अवशेषों के 2200 से 1950 ईस्वी पूर्व के होने के प्रमाण मिले हैं। सारण के चिरांद में पाए गए नव पाषाण युग के अवशेषों से भी पहले के हैं।
डा तिवारी कहते हैं कि कैमूर की पहाड़ियों में फैले इन शैल चित्रों की खोज का काम 1867 में ब्रिटिश काल में हुआ था। उसके बाद बिहार सरकार के पुरातत्व निदेशालय के सदस्यों ने कुछ शैल आश्रय की खोज की। 1999-2000 में कर्नल उमेश प्रसाद की अगुआई में भी कुछ शैल आश्रयों पर नजर पड़ी थी।
नई खोजी गई रॉक पेंटिंग्स के बारे में ध्यान दिलाने पर जिलाधिकारी अनुपम कुमार ने कहा कि हजारों साल पुराने शैल चित्र और शैल आश्रय मानव विकास इतिहास के साक्षी हैं। ये धरोहर हैं। कला संस्कृति विभाग को इनके संरक्षण के बारे ध्यान दिलाया जाएगा। (सासाराम, 19 सितंबर (भाषा)।
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Mesolithic period rock paintings kaimur hills - India
लेबेल :posts, photo
rock painting of kaimur,
कैमूर
Thursday, August 11, 2011
ताजमहल के पहले बना था हुमायूं का मकबरा
मुगल शासक हुमायूं का मकबरे को देखकर लगता है कि इस पर गुजरते वक्त की परछाई नहीं पड़ी है। आज भी इस मकबरे का अनछुआ सौंदर्य बेहद प्रभावशाली है। यह मकबरा ताजमहल की पूर्ववर्ती इमारत है। इसी के आधार पर बाद में ताजमहल का निर्माण हुआ। हुमायूं की मौत 19 जनवरी 1556 को शेरशाह सूरी की बनवाई गई दो मंजिला इमारत शेरमंडल की सीढ़ियों से गिर कर हुई थी। इस इमारत को हुमायूं ने ग्रंथालय में तब्दील कर दिया था। मौत के बाद हुमायूं को यहीं दफना दिया गया।
पुरातत्वविद वाईडी शर्मा के मुताबिक, हुमायूं का मकबरा 1565 में उसकी विधवा हमीदा बानू बेगम ने बनवाया था। मकबरे का निर्माण पूरा होने के बाद हुमायूं के पार्थिव अवशेष यहां लाकर दफनाए गए। पूरे परिसर में सौ से अधिक कब्र हैं जिनमें हुमायूं, उसकी दो रानियों और दारा शिकोह की कब्र भी है। दारा शिकोह की उसके भाई औरंगजेब ने हत्या करवा दी थी। विश्व विरासत स्थल में शामिल इसी स्थान से 1857 की क्रांति के बाद ब्रितानिया फौजों ने अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार किया था। फिर निर्वासित कर बर्मा (वर्तमान म्यामां) भेज दिया था।
इतिहासकारों के मुताबिक, हुमायूं के मकबरे के स्थापत्य के आधार पर ही शाहजहां ने दुनिया का आठवां अजूबा ताजमहल बनाया। इसके बाद इसी आधार पर औरंगजेब ने महाराष्ट्र के औरंगाबाद में ‘बीबी का मकबरा’ बनवाया, जिसे दक्षिण का ताजमहल कहा जाता है। यह इमारत मुगलकालीन अष्टकोणीय वास्तुशिल्प का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इसका इस्लामिक स्थापत्य स्वर्ग के नक्शे को प्रदर्शित करता हैं।
मकबरा परिसर में प्रवेश करते ही दाहिनी ओर ईसा खान की कब्र है। यह कब्र इतनी खूबसूरत है कि अनजान पर्यटक इसे ही हुमायूं का मकबरा समझ लेते हैं। ईसा खान हुमायूं के प्रतिद्वंद्वी शेर शाह सूरी के दरबार में था। इसके अष्टकोणीय मकबरे के आसपास खूबसूरत मेहराबें और छत पर छतरियां बनी हैं। कुल 30 एकड़ क्षेत्र में फैले बगीचों के बीच हुमायूं का मकबरा एक ऊंचे प्लेटफार्म पर बना है, जो मुगल वास्तुकला का शानदार नमूना है। भारत में पहली बार बड़े पैमाने पर संगमरमर और बलुआ पत्थरों का इस्तेमाल हुआ। मकबरे में बलुआ पत्थरों की खूबसूरत जाली से छन कर आती रोशनी मानो आंखमिचौली करती है।
हुमायूं का मकबरा एक विशाल कक्ष में है। इसके ठीक पीछे अफसरवाला मकबरा है। कोई नहीं जानता कि यह मकबरा किसने बनवाया, यहां किसे दफनाया गया। इस मकबरे का हुमायूं के मकबरे से क्या संबंध है। हुमायूं के मकबरे के पास ही अरब सराय है। दीवारों से घिरी इस इमारत में हुमायूं के मकबरे के निर्माण के लिए फारस से आए शिल्पकार रहते थे। सिरेमिक की टाइलों से सजी अरब सराय में कई झरोखे और रोशनदान हैं। ( साभार-नई दिल्ली, 11 अगस्त (भाषा)।
प्राचीन गोवा के 16वीं सदी के एक प्राचीन किले का निर्माण किस राजवंश ने किया ?
गोवा में विरासतों के संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारियों के बीच इस बात को लेकर मतभेद हैं कि प्राचीन गोवा के 16वीं सदी के एक प्राचीन किले का निर्माण किस राजवंश ने किया। विरासत कार्यकर्ताओं का मानना है कि आदिलशाह महल के प्रसिद्ध द्वार का निर्माण कदंब वंश के हिंदू राजाओं ने करवाया था। लेकिन, एएसआई के अधिकारियों का कहना है कि इसका निर्माण मुसलिम शासक आदिल शाह ने कराया था।
विरासत संरक्षणकर्ता संजीव सरदेसाई का कहना है कि एएसआई ने आदिलशाह महल के द्वार पर इस आशय की एक पट्टिका लगाई है। लेकिन द्वार के दोनों तरफ ग्रेनाइट की जाली में शेर, मोर, फूल और हिंदू देवताओं की आकृति से साफ होता है कि यह हिंदू कदंब राजाओं ने बनवाया है।
पुराने गोवा के सेंट कजेटान चर्च के सामने यह ऐतिहासिक इमारत यूनेस्को के विश्व विरासत स्थलों की सूची में भी शामिल की गई है। एएसआई के अधीक्षण पुरातत्वविद डाक्टर शिवानंदा राव का कहना है कि इस इमारत को पुर्तगाली दौर के समय से अधिसूचित किया गया है। कुछ लोग इसके विपरीत दावा कर रहे हैं। जब तक एएसआई इस जगह की खुदाई नहीं करेगा तब तक कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता।
सरदेसाई ने कहा कि यह अजीब लगता है कि एक मुसलिम शासक अपने किले के प्रवेश द्वार पर हिंदू देवताओं की आकृति बनवाएगा। गोवा हेरिटेज एक्शन ग्रुप के अधिशासी सदस्य और सक्रिय विरासत संरक्षणकर्ता प्रजल शखरदांडे का कहना है कि उन्होंने इस संबंध में अनेक बार एएसआई के अधिकारियों को पत्र लिखा है। लेकिन अधिकारियों ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है। गोवा पर एक समय कदंब वंश का राज था जिसके बाद 1469 से बीजापुर के आदिलशाह ने यहां शासन किया था। ( साभार-पणजी, 11 अगस्त (भाषा)।
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आदिलशाह महल,
हुमायूं का मकबरा
Wednesday, August 10, 2011
दिल्ली के इतिहास का आइना है ‘पुराना किला’
दिल्ली का इतिहास जानने के लिए पुराना किले के उत्खनन में मिले अवशेष महत्त्वपूर्ण रहे हैं। इतिहास के मुताबिक पहले मुगल बादशाह बाबर का बेटा हुमायूं 1530 में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा और तीन साल बाद उसने एक शहर ‘दीनपनाह’ की नींव रखी। छह साल बाद शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा कर लिया और दीनपनाह को नष्ट कर उस स्थान पर नया दुर्ग शेरगढ़ बनवाया। इतिहासकार वाईडी शर्मा ने लिखा है कि 1955 में पुराने किले के दक्षिण पूर्वी भाग में परीक्षण के तौर पर खुदाई हुई, चित्रित भूरे बर्तनों के टुकड़े निकले। इन बर्तनों के बारे में कुछ इतिहासकारों ने अनुमान लगाया कि वे ईसा पूर्व 1000 साल पुराने थे और फिर इस स्थान के महाभारत काल से जुड़े होने की बात को बल दिया गया। सन् 1969 में पूर्वी दीवार में जल द्वार तक जाने वाले रास्ते के साथ उत्खनन फिर शुरू किया गया। यह 1973 तक चलता रहा। इससे मिले चित्रित बर्तन से बस्ती के बारे में तो पता नहीं चला, लेकिन मौर्यकाल से लेकर प्रारंभिक मुगल काल तक के स्तर विन्यास उभरकर सामने आए।
यह भी तथ्य है कि सन् 1913 तक यहां मजबूत दीवारों से घिरा एक गांव था। इस गांव का नाम इंद्रपत था। इसी आधार पर कुछ लोगों ने यह परिकल्पना की कि पुराने किले इंद्र्रप्रस्थ के अवशेषों पर बना है। वैसे पुराने किले के हर कोने पर बुर्ज और पश्चिम में मजबूत दीवार हैं। इसमें तीन द्वार - हुमायूं दरवाजा, तलाकी दरवाजा और बड़ा दरवाजा हैं। आजकल लोग बड़ा दरवाजा होकर ही किले के अंदर जाते हैं। दक्षिण का द्वार हुमायूं दरवाजा कहलाता है। इतिहासकार वाईडी शर्मा के मुताबिक तलाकी दरवाजे की अस्पष्ट लिखावट में हुमायूं का जिक्र है जिससे लगता है कि इस द्वार का निर्माण या मरम्मत हुमायूं ने कराई। किले के अंदर स्थित वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने ‘कला ए कुहना’ मस्जिद को शेरशाह ने बनवाया था। पुराने किले के अंदर अब तक बची कुछ इमारतों में से एक इस मस्जिद का मध्य भाग सफेद संगमरमर से बना है, लेकिन शायद इस पत्थर की कमी की वजह से शेष भाग गहरे लाल बलुआ पत्थरों से बनाया गया।
अंदर मेहराबों वाले पांच द्वार हैं। अंदर ही संगमरमर की एक पट्टिका है जिस पर लिखा है - जब तक पृथ्वी पर लोग रहेंगे तब तक यह जगह किसी के नियंत्रण में न रहे और यहां आ कर लोग हमेशा खुश रहें। शेरशाह ने पास में ही दो मंजिली इमारत शेरमंडल का निर्माण कराया था, जिसे देखकर लगता है कि यह एक आरामगाह थी। शेरशाह से अपनी सल्तनत दोबारा हासिल करने के बाद हुमायूं ने इस इमारत को ग्रंथालय में तब्दील कर दिया था। 19 जनवरी 1556 को इसी ग्रंथालय की सीढ़ियों से गिर जाने से उसकी मौत हो गई थी। शेरमंडल के पश्चिम में विशाल हमाम है।
इतिहासकारों के मुताबिक शेरशाह ने पुराना किले का निर्माण अधूरा छोड़ दिया था और जब हुमायूं ने दोबारा सत्ता हासिल की तो इसे पूरा कराया। पुराना किले के सामने 1561 में निर्मित खैरु ल मंजिल मस्जिद है। यहां जिस कक्ष में नमाज पढ़ी जाती है उसके बीच की मेहराब में एक शिलालेख है जिस पर लिखा है कि यह मस्जिद सम्राट अकबर के शासनकाल में उनकी धाय मां माहम अंगा ने बनवाई थी। खैरुल मंजिल मस्जिद के सामने शेरशाह द्वार है जो शायद शेरगढ़ का दक्षिणी द्वार था। लाल पत्थरों से बने इस द्वार को लाल दरवाजा भी कहा जाता है।(साभार--नई दिल्ली, 10 अगस्त (भाषा)।
सातवीं दिल्ली की स्थापना मुगल बादशाह शाहजहां ने की
भोजीला पहाड़ी पर बनाई गई थी जामा मस्जिद
सातवीं दिल्ली की स्थापना मुगल बादशाह शाहजहां ने की और इसके लिए 1638 में यमुना के पश्चिम में व सलीमगढ़ किले के दक्षिण में एक ऊंचा स्थल चुना गया। इसके पश्चिमोत्तर भाग को झोजीला पहाड़ी और मध्य भाग को भोजीला पहाड़ी कहा जाता था। भोजीला पहाड़ी पर ही प्रसिद्ध जामा मस्जिद बनवाई गई, जो भारत की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है।
पुरातत्व सर्वेक्षण के मुताबिक शाहजहांनाबाद को घेरने वाली प्राचीर 1650 में बनी। इसके निर्माण में चार महीने और डेढ़ लाख रुपए लगे थे। पहले यह दीवार पत्थरों से बनाई गई थी लेकिन मिट्टी की चिनाई के कारण यह पहली बारिश के बाद नष्ट हो गई। बाद में इसका पुनर्निर्माण कराया गया और चिनाई चूने से की गई। 27 फुट ऊंची और 12 फुट चौड़ी इस प्राचीर में 30 फुट ऊंची 27 बुर्जियां भी बनवाई गईं लेकिन इसमें तोप चढ़ाने की व्यवस्था नहीं थी।
शहर की योजना सन 1857 तक अपने मूल रू प में मौजूद रही। लेकिन प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों की जीत के बाद शहर और किले का मूल रू प काफी बदल गया। जब अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा किया तो उन्होंने इस प्राचीर की मरम्मत की और गोलाकार बुर्जियों का आकार बढ़ा कर तोप चढ़ाने की व्यवस्था की गई।
शाहजहां ने व्यवस्थित आवागमन के लिए प्राचीर में कई छोटे बड़े दरवाजे और खिड़कियां बनवाई थीं। 1857 के विद्रोह से पहले तक यहां चौदह दरवाजे थे लेकिन आज इनमें से केवल चार दरवाजे दिल्ली दरवाजा, तुर्कमान दरवाजा, कश्मीरी दरवाजा और अजमेरी दरवाजा ही शेष हैं। इनका नामकरण शहरों की ओर जाने वाले रास्तों के नाम पर किया गया था।
इतिहासकारों के मुताबिक शाहजहां ने प्राचीर के अंदर कई मस्जिदों, बगीचों, हवेलियों और अन्य भवनों का भी निर्माण कराया था। ऊंचे पदाधिकारियों और प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भव्य हवेलियां बनवाईं थीं। प्रमुख हवेलियों में दिल्ली दरवाजे के पास सआदुल्ला खान की हवेली, तुर्कमान दरवाजे के पास मुजफ्फर खान की हवेली, अजमेरी दरवाजे के पास खलीउल्ला खान की हवेली और मीर जुमला की हवेली शामिल थी। शाहजहां की बसाई पुरानी दिल्ली यानी शाहजहांनाबाद को मीर तकी मीर ने ‘आलम ए इंतिखाब’ कहा था। पहले दिल्ली के कई इलाके परकोटों से घिरे थे, जो हमलों से बचाने या शहर से कर एकत्र करने की सुविधा के लिए बनाए गए थे।
सन 1857 में ब्रिटिश सेना विद्रोह को दबाने के लिए सक्रिय हुई। हताशा में सैनिकों ने बहुत तोड़फोड़ की और इस परकोटे का भी बड़ा हिस्सा तोड़ दिया गया। इसके बाद शाहजहांनाबाद एक खुला शहर बन गया। इसका विस्तार पश्चिम में सदर बाजार तक और उत्तर में सिविल लाइंस तक किया गया। रेलवे की योजना बनी तो ट्रेन अंदर आ सके, इसके लिए दीवार का कुछ हिस्सा फिर तोड़ा गया। देश के विभाजन के बाद बड़ी संख्या में शाहजहांनाबाद के लोग पाकिस्तान चले गए और वहां के प्रवासियों ने यहां आ कर उनके मकानों पर कब्जा कर लिया।
आजादी के बाद शाहजहांनाबाद को तेजी से फैलती नई दिल्ली के साथ एकीकृत कर दिया गया। यहां से बिजली का सामान, कपड़ा और अन्य वस्तुएं पूरे उत्तर भारत में जाने लगीं और उन पर ‘द वाल्ड सिटी’ का लेबल लगा होता था। बदलते समय के साथ शाहजहांनाबाद में भी बदलाव हुआ। मकान दुकान में बदले, दुकानें छोटे उद्योगों में बदलीं। हवेलियां हिस्सों में बंट गईं। छोटे-छोटे मकानों और दुकानों के समूह को ‘कटरा’ कहा गया।(साभार-नई दिल्ली, 10 अगस्त (भाषा)।
Tuesday, August 9, 2011
पांचवीं दिल्ली का निर्माण तुगलक शासक फिरोजशाह ने कराया
दिल्ली सल्तनत में तुगलक वंश के शासक फिरोजशाह ने पांचवीं दिल्ली का निर्माण कराया। पूर्ववर्ती बादशाहों की बनाई इमारतों का जीर्णोद्धार कराया और कई शहरों के नए नाम रखे गए। उन्होंने राजस्व प्रणाली में सुधार भी किया। उनके शासनकाल में महामारी नहीं फैलीं और बाहरी आक्रमण नहीं हुए। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुताबिक यमुना तट पर फिरोजशाह तुगलक ने 1354 में पांचवीं दिल्ली ‘कोटला फिरोजशाह’ को स्थापित किया और फिरोजाबाद दुर्ग का निर्माण कराया। उन्होंने 38 साल के शासनकाल में दिल्ली के पास 1200 बाग बगीचे लगवाए। फिरोजशाह को वास्तुशिल्प का शौक था और उनकी तुलना रोम के सम्राट अगस्तस से की जाती है।
फिरोजशाह के मुख्य शिल्पकारों मल्लिक गाजÞी सहना और अब्दुल हक्क द्वारा तैयार ‘कुश्क ए फिरोज’ ही उसकी राजधानी फिरोजाबाद कहलाई। यह राजभवन योजना में बहुभुजाकार था, जो लंबाई में आधा मील और चौड़ाई में एक चौथाई मील है। इसमें निर्मित इमारतों में खासमहल, जनाना महल, महल ए बार ए आम, सहन ए मियांनगी (स्तंभयुक्त बरामदा), अंगूरी महल, शाही महल, जामी मस्जिद और बाउली प्रमुख थे। भवन निर्माण के बारे में फिरोजशाह का कहना था - अल्लाह की नियामत से मुझ जैसे एक अदना से बंदे को बहुत सारे तोहफे मिले हैं, जिसमें से एक लोकहित के लिए भवन निर्माण की इच्छा है। इस कारण मैंने कई मस्जिद, मदरसे और सराय बनवार्इं।
एतिहासिक तथ्यों के मुताबिक सम्राट अशोक के दो स्तंभों को फिरोजशाह तुगलक दिल्ली लाए। पहले स्तंभ को टोपरा (अम्बाला) से लाकर जामी मस्जिद के पास लगवाया, जिसे सुनहरी मीनार भी कहा जाता है। दूसरे स्तंभ को मेरठ के पास से लाकर ‘कुश्क ए शिकार’ पर स्थापित किया गया। इसमें अशोक के पाली, प्राकृत और ब्राही लिपि में सात अभिलेख उत्कीर्ण है। इस पर चौहान शासक बीसलदेव, भद्रमित्र और इब्राहीम लोदी के भी अभिलेख उत्कीर्ण हैं। इस स्तंभ में उत्कीर्ण अशोक की राजाज्ञाओं को सबसे पहले 1837 में जेम्स प्रिन्सेप ने पढ़ा। पहले 27 टन भार वाले स्तंभ की ढुलाई के बारे में समकालीन इतिहासकार अफीक ने लिखा है, जिसे 30 सितंबर 1367 में वर्तमान स्थान पर स्थापित किया गया। फिरोज ने इन्हें लाने के बारे में कहा - अल्लाह के रहम से हम इस विशाल स्तम्भ को लाकर फिरोजाबाद की जामी मस्जिद में मीनार के रूप में स्थापित करेंगे और अल्लाह की इच्छा से यह तब तक रहेगा, जब तक विश्व रहेगा।
फिरोजशाह ने यमुना नदी की दीवार के साथ भव्य मस्जिद बनवाई। यह तीन तरफ खंभेयुक्त गलियारे और पश्चिम की तरफ पूजास्थल से युक्त हैं, जिसमे केवल किबला की दीवार के अवशेष ही बचे हैं। तैमूर इस मजिस्द से इतना प्रभावित हुआ कि उसने समरकंद में 1398 में बीबी खानम की मजिस्द बनवाई जिसके लिए भारत से गए कारीगरों को लगाया गया।
इतिहास गवाह है कि फिरोजशाह तुगलक के 38 साल के शासनकाल के बाद वंशानुगत झगड़ों के कारण उसकी सल्तनत 1398 में तैमूर के हमले की शिकार हो गई, जिसके कारण दिल्ली में भारी तबाही हुई। (नई दिल्ली, 9 अगस्त -भाषा)।
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दिल्ली सल्तनत,
फिरोजशाह तुगलक
Sunday, August 7, 2011
दिल्ली का चौथा नगर ‘जहांपनाह’
खबरों में इतिहास ( भाग-१४ ) अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------। १- दिल्ली का चौथा नगर ‘जहांपनाह’ २--बोथनिया की समुद्रतल पर मिली उड़नतश्तरी ? ३- 4 लाख साल पुराना मानव दांत मिला |
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दिल्ली का चौथा नगर ‘जहांपनाह’
दिल्ली का चौथा नगर ‘जहांपनाह’ पहले दो नगरों ‘किला राय पिथौरा’ और ‘सीरी’ को जोड़ने वाला दीवारनुमा अहाता था। इसका निर्माण मंगोल आक्रमण से बचने के लिए कराया गया था। इसका निर्माण तुगलक वंश के शासक जौना शाह यानी मुहम्मद बिन तुगलक ने कराया था। दिल्ली से लगभग साढ़े 14 किलोमीटर दूर पर ये दीवारें दिल्ली-महरौली सड़क को काटती हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी-दिल्ली) के उत्तर में, बेगमपुरी मस्जिद के उत्तर में, खिड़की मस्जिद के दक्षिण में, चिराग दिल्ली के उत्तर में और सतपुल के निकट इस नगर के अवशेषों को देखा जा सकता है।
इतिहासकार वाईडी शर्मा के मुताबिक, 1964-65 में थोड़े पैमाने पर की गई खुदाई के बाद ‘किला राय पिथौरा’ की पूर्वी दीवार के साथ उसके संधि स्थल पर ‘जहांपनाह’ का एक हिस्सा मिला है। खुदाई से निर्माण और विस्तार के तीन स्थानों का पता चलता है। इसकी बुनियाद खुरदरे छोटे पत्थर हैं और जमीन से ऊपरी दीवार तक का हिस्सा चिनाई का है। बीसवीं सदी में दिल्ली में बढ़ते हुए उपनगरों की जरूरतों के कारण इस शहर की पत्थर से निर्मित दीवारों को अब हटाकर दूर फैला दिया गया है। स्थापत्य के लिहाज से खिलजी शासकों ने बादामी पत्थरों के स्थान पर लाल पत्थरों को तरजीह दी थी। तुगलकों ने इसे पूरी तरह बदल दिया। उनकी इमारतों में भूरे पत्थर के सीधे-सादे और कठोरतल, बड़े बड़े कमरों के ऊपर मेहराबी छत, भीतर की ओर ढालू दीवारें, किनारों की तरफ बुर्ज, चार केंद्रीय मेहराबें और खुले भागों पर सरदल होते थे।
शर्मा के मुताबिक, मिट्टी और र्इंटों से बनी मोटी दीवारों के लिए बाहर की तरफ ढालू बनाना जरूरी था। लेकिन वह पत्थर की दीवार के लिए जरूरी नहीं था। इस पद्धति को तुगलकों ने संभवत: सिंध, पंजाब या अफगानिस्तान से लिया था जहां गारे या र्इंटों का इस्तेमाल होता था। बर्नी के मुताबिक, मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में दिल्ली के कोषागार में सबसे अधिक कर संग्रह किया। सुल्तान ने दिल्ली में रहने के दौरान कृषि उत्पादन को बढ़ाने का प्रयास किया और अकाल के दौरान कुंओं का निर्माण करवाया। कृषि के लिए अलग विभाग ‘दीवान-ए-अमीरकोट’ की स्थापना की।
तुगलक को भारतीय उपमहाद्वीप का एक विशाल क्षेत्र शासन करने को प्राप्त हुआ था। उसे राजधानी दक्षिण के दौलताबाद ले जाने और मुद्रा नीति के लिए जाना जाता है। महत्वाकांक्षी सुल्तान ने तुगलकाबाद के दक्षिण पूर्व में 1327 में एक छोटी पहाड़ी पर आदिलाबाद के किले का निर्माण कराया था। इस किले का नाम मुहम्मदाबाद था। लेकिन बाद में इसे आदिलाबाद नाम से जाना जाने लगा। पुरातत्वविदों के मुताबिक, इसकी प्राचीर की सुरक्षा तीन स्तरों बाह्य दुर्ग प्राचीर, गलियारा और अंतर्कोट में थी। इसका निर्माण विशुद्ध रूप से स्थानीय शैली में किया गया है। केंद्र में निर्मित तल का विन्यास आयताकार है। चारों ओर से अनगढ़ पत्थरों की प्राचीर से घिरा हुआ है। ( नई दिल्ली, 7 अगस्त -भाषा)।
बोथनिया की समुद्रतल पर मिली उड़नतश्तरी?
लंदन। बोथनिया की खाड़ी में स्वीडन के एक व्यापारी जहाज के मलबे की खोज के दौरान अभियानकर्ताओं ने सोनार किरणों के माध्यम से एक ऐसी रहस्यमय चीज का मलबा खोजने का दावा किया है, जो अज्ञात उड़न तश्तरी (यूएफओ) हो सकती है।
इस रहस्यमय आकार के यूएफओ की खोज स्वीडन और फिनलैंड के बीच स्थित समुद्री हिस्से में करीब 100 मीटर गहराई पर की गई। इस खोज के आधार पर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दूसरे ग्रह के लोग धरती पर आते रहे हैं।
समाचार पत्र 'डेली मेल' के अनुसार यूएफओ की खोज करने वाले खोजी दल की राय है कि कीचड़ से सने इस वस्तु ने समुद्रतल से हटने का प्रयास किया होगा क्योंकि उसके आसपास हिलने-डुलने के निशान पाए गए हैं।
शराब और शैम्पेन से लदे स्वीडन के डूबे जहाजों की खोज में लगे स्वीडिश विशेषज्ञ पीटर लिंडबर्ग ने इस यूएफओ के मलबे की खोज की। कुछ लोगों का मत है कि इस यूएफओ का आकार स्टार वार्स श्रृंखला की फिल्मों में दिखाए जाने वाली मिलेनियम फाल्कन उड़न तश्तरी से मिलता है, जिसका आकार गोलाकार था।
लिंडबर्ग ने कहा कि यह 60 फुट बड़ा है और इसे आसानी से देखा जा सकता है। बकौल लिंडबर्ग, " इस पेशे में हम अक्सर अजीबोगरीब चीजें देखते हैं लेकिन अपने 18 वर्ष के पेशेवर करियर के दौरान मैंने इस तरह की चीज पहले कभी नहीं देखी।"
4 लाख साल पुराना मानव दांत मिला
तेल अवीव। तेल अवीव विश्वविद्यालय ने अपनी वेबसाइट पर मंगलवार को लिखा कि इजराइली शहर रोश हाइन में एक गुफा में चार लाख साल पुराना मानव दांत मिला है। यह प्राचीन आधुनिक मानव का सबसे पुराना प्रमाण है।समाचार एजेंसी डीपीए के मुताबिक वेबसाइट पर इसके साथ ही लिखा गया कि अब तक मानव के जिस समय काल से अस्तित्व में होने की बात मानी जा रही थी, यह मानव उससे दोगुना अधिक समय पहले जीवित था। यह दांत 2000 में गुफा में मिला था।
इससे पहले आधुनिक मानव का सबसे प्राचीन अवशेष अफ्रीका में मिला था, जो दो लाख साल पुराना था। इसके कारण शोधार्थी यह मान रहे थे कि मानव कि उत्पत्ति अफ्रीका से हुई थी।सीटी स्कैन और एक्स रे से पता चलता है कि ये दांत बिल्कुल आधुनिक मानवों जैसे हैं और इजरायल के ही दो अलग जगहों पर पाए गए दांत से मेल खाते हैं। इजरायल के दो अलग जगहों पर पाए गए दांत एक लाख साल पुराने हैं।
गुफा में काम कर रहे शोधार्थियों के मुताबिक इस खोज से वह धारणा बदल जाएगी कि मानव की उत्पत्ति अफ्रीका में हुई थी।गुफा की खोज करने वाले तेल अवीव विश्वविद्यालय के अवि गाफेर और रैन बरकाई ने कहा कि चीन और स्पेन में मिले मानव अवशेष और कंकाल से हालांकि मानव की अफ्रीका में उत्पत्ति की अवधारणा कमजोर पड़ी थी, लेकिन यह खोज उससे भी महत्वपूर्ण है।
Thursday, July 7, 2011
पद्मनाभ मंदिर में 5 लाख करोड़ का खजाना
केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर से अब तक मिला खजाना कितने मूल्य का है, यह अभी तक सस्पेंस ही बना है। मीडिया में तहखाने से मिली चीजों की कीमत 1 लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा बताई जा रही है। लेकिन केरल के पूर्व मुख्य सचिव सीपी नायर ने दावा किया है कि खजाना करीब पांच लाख करोड़ रुपये का हो सकता है। ऊपर से नीचे के क्रम में चित्रों के परिचय दिए गए हैं। सभी चित्र सहारा समय से साभार लिए गए हैं। चित्र संख्या 1- केरल के तिरुवनंतपुरम स्थित पद्मनाभस्वामी मंदिर से सोने का अब तक का सबसे बड़ा भंडार मिला है. मंदिर से अब तक 1 लाख करोड़ का खजाना मिलने की बात कही जा रही है. फिलहाल खजाने की लिस्ट बनाने का काम जारी है.
चित्र संख्या 2- हिंदुओं के पद्मनाभस्वामी मंदिर में भगवान विष्णु की उपासना होती है. इसके तहखाने में छुपाए गए सोने के खजाने के मिलने के बाद श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर दुनिया का सबसे अमीर धार्मिक स्थल बन गया है.
चित्र संख्या 3- यह मंदिर त्रावणकोर राजाओं के शासनकाल में 1772 में राजा मार्तण्ड वर्मा ने बनवाया था। इस शासन के नियमों के अनुसार मंदिर की संपत्ति पर केंद्र या राज्य सरकार का हक नहीं बनता है.
चित्र संख्या 4- खजाने का पता चलने के बाद से मंदिर के आसपास सुरक्षा बढ़ा दी गई है. पद्मनाभस्वामी मंदिर के कुल 6 तहखानों में से 5 तहखाने खोले जा चुके हैं. इनमें से सोना, हीरे, जेवरात, मर्तियां और सिक्के मिले हैं. इनकी कीमत लगभग 1 लाख करोड़ आंकी गई है.
चित्र संख्या 5- अब इस बात पर बहस हो रही है कि मंदिर से मिले खजाने को कहां रखा जाए. सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से खजाने का स्रोत और प्राचीनता का पता लगाने का आदेश दिया है.
चित्र संख्या 6- सरकारी अफसर मंदिर के खजाने की गिनती करने के लिए जा रहे हैं. मंदिर में मिली संपत्ति में भगवान विष्णु की हीरे, पन्ने और रूबी जड़ी 3.5 फुट ऊंची मूर्ति है. इसके अलावा 35 किलों की 18 फुट लंबी एक चेन भी बरामद हुई है. तहखाने में से 1 फुट लंबी एक और मूर्ति भी मिली है.
चित्र संख्या 7- सरकारी अफसर मंदिर के खजाने की गिनती करने के लिए जा रहे हैं. मंदिर में मिली संपत्ति में भगवान विष्णु की हीरे, पन्ने और रूबी जड़ी 3.5 फुट ऊंची मूर्ति है. इसके अलावा 35 किलों की 18 फुट लंबी एक चेन भी बरामद हुई है. तहखाने में से 1 फुट लंबी एक और मूर्ति भी मिली है. राज परिवार के सूत्रों का कहना है कि चेंबर बी के मुख्य द्वार पर सांप का बना होना यह दर्शाता है कि इसे खोलना अशुभ होगा. सूत्रों ने कहा जांच कमेटी भी इसे नहीं खोलेगी क्योंकि इसके साथ मंदिर की काफी मान्यताएं जुड़ी हुई हैं. एक मान्यता के अनुसार चेंबर बी के नीचे एक सुरंग है जो समुद्र तक जाती है. इस बीच मंदिर और इसके आसपास 24 घंटे का पहरा जारी है.
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Monday, June 20, 2011
सैटेलाइट ने ढूँढे 17 और पिरामिड
खबरों में इतिहास ( भाग-14 ) अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------। 1-सैटेलाइट ने ढूँढे 17 और पिरामिड 2-बूढ़ा हो गया है चुनारगढ़ में चन्द्रकांता का किला! 3- 500 साल बाद मिली मोनालीसा की मॉडल की खोपड़ी 4-लक्ष्मी विलास पैलेस है बकिंघम पैलेस से 4 गुना बडा़! |
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सैटेलाइट ने ढूँढे 17 और पिरामिड
सैटेलाइट के ज़रिए किए गए एक नए सर्वेक्षण से लुप्त हो चुके 17 पिरामिडों और एक हज़ार से अधिक ऐसे मक़बरों का पता चला है जिसकी अब तक खुदाई नहीं की गई है.ये सर्वेक्षण नासा के सहयोग से एक अमरीकी प्रयोगशाला की ओर से किया गया है.इसमें उच्च स्तरीय इंफ़्रा-रेड तकनीक का उपयोग किया गया जिससे भूमिगत वस्तुओं की तस्वीरें हासिल की जा सकती हैं.मिस्र के अधिकारियों का कहना है कि इस तकनीक के उपयोग से प्राचीन स्मारकों को बचाने में सहायता मिलेगी क्योंकि इसके ज़रिए ये पता लगाया जा सकता है कि उनकी खुदाई करके वहाँ लूट तो नहीं हो गई है.
अलाबामा यूनिवर्सिटी की एक टीम ने सैटेलाइट से लिए गए उन तस्वीरों का अध्ययन किया जो इंफ़्रा-रेड कैमरों की मदद से खींची गई थीं.इससे ज़मीन के भीतर मौजूद चीज़ों का पता लगाया जा सकता है.शोध कर रही टीम ने जिस सैटेलाइट का उपयोग किया वह पृथ्वी की सतह से 700 किलोमीटर ऊपर परिक्रमा कर रहा है लेकिन इसके कैमरे इतने शक्तिशाली हैं कि वे पृथ्वी की सतह पर एक मीटर के व्यास में मौजूद चीज़ों की तस्वीरें ले सकते हैं.सैटेलाइट पुरातत्वविदों ने मिट्टी से बने कई इमारतों का पता लगाया है जिनमें पिरामिड के अलावा कुछ मिस्र के पुराने मकान हैं, धर्म स्थल हैं और मक़बरें हैं.उनका कहना है कि आसपास की मिट्टी से ज़्यादा घनत्व वाले ढाँचों के आधार पर इनकी पहचान की गई है.अब तक एक हज़ार से ज़्यादा मक़बरे और तीन हज़ार पुरानी इमारतों का अब तक पता लगाया जा चुका है.
आरंभिक खुदाई से इस शोध में मिली कुछ जानकारियों की पुष्टि भी हो गई है.जिसमें सक़्क़ारा में ज़मीन में दबे गए दो पिरामिड शामिल हैं.जब शोध कर रहा दल वहाँ पहुँचा था तो कम ही लोगों को भरोसा था कि वहाँ कुछ मिलेगा लेकिन खुदाई शुरु हुई तो इन पिरामिडों का पता चला. अब संभावना व्यक्त की जा रही है कि ये मिस्र के सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्मारकों में से एक साबित हो सकते हैं. डॉ सारा पारकैक बरमिंघम और अलाबामा स्थित प्रयोगशालाओं में नासा के सहयोग से इस परियोजना पर काम कर रही हैं.
उन्होंने सैटेलाइट से मिली तस्वीरों की मदद से पुरातात्विक सर्वेक्षण के काम की शुरुआत की है. वे कहती हैं, "हम एक साल से भी अधिक समय से शोधकार्य में लगे हुए थे. मैं सैटेलाइट से मिल रही जानकारियों को देख रही थी लेकिन 'वाह' कहने वाला क्षण उस समय आया जब हमने एक क़दम पीछे हटकर सारी सामग्री को देखा. हमे सहसा विश्वास नहीं हुआ कि हमने मिस्र में इतनी चीज़ों का पता लगा लिया है."
वे मानती हैं कि ये तो शुरुआत भर है. वे कहती हैं, "जिसका हमने पता लगाया है वो तो सतह के क़रीब हैं. इसके अलावा हज़ारों ऐसे स्थान हो सकते हैं जो नील नदी की गाद में दब गए होंगे." डॉ सारा पारकैक कहती हैं कि सबसे अद्भुत क्षण तानिस में आया. वे बताती हैं कि खुदाई में एक तीन हज़ार साल पुराना मकान निकला जिसका पता सैटेलाइट की तस्वीरों से मिला था और सब चकित रह गए जब मकान और तस्वीर में समानता मिली.
बूढ़ा हो गया है चुनारगढ़ में चन्द्रकांता का किला!
http://khabar.ibnlive.in.com/news/54017/9
मिर्जापुर। उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर के चुनार में रहस्य, रोमांच, विस्मय और जादू की रोमांचक दास्तानों से भरपूर किवदंतियों एवं लोककथाओं के लिए विख्यात देश का अनोखा चन्द्रकांता का चुनारगढ़ का किला बूढ़ा हो गया है। गढ़ की दीवारें, प्राचीरें और चट्टानी जीवट वाले बुर्ज शताब्दियों से समय के निर्मम थपेड़ों की चोट झेलते-झेलते अब जर्जर हो चुकी है। समय के साथ अब इसकी चोट सहने की शक्ति लगभग खत्म हो रही है।
राजा भर्तहरी की तपोस्थली व हिन्दी के पहले उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की तिलिस्म स्थली चुनारगढ़ अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है और इस ओर किसी का ध्यान नही है। उत्तर भारत के शासकों के जय-पराजय का हमराज किसी समय ध्वस्त हो सकता है। हिन्दुओं की पवित्र धार्मिक नगरी वाराणसी जाने के लिए गंगा के लिए मार्ग प्रशस्थ करने वाले विंध्य पर्वत पर चरण आकार वाले इस किले का प्राचीन नाम चरणाद्रिगढ़ रहा है।
यदि विंध्याचल पर्वत नहीं होता तो गंगा वाराणसी की ओर न जाकर दक्षिण दिशा की ओर जाती। गंगा पर पुस्तक लिखने वाले विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में इसका उल्लेख किया है। इतिहासकारों के अनुसार उत्तर भारत के प्रत्येक शासकों की दिलचस्पी चुनार के किले पर कब्जा जमाने की रही है। जिस विजेता का शासन दिल्ली से बंगाल तक हो जाता था उसके लिए चुनार का किला एक महत्वपूर्ण पड़ाव हो जाता था। इसके अतिरिक्त जलमार्ग से इस किले तक पहुंचना भी काफी आसान होता था।
मिर्जापुर के तत्कालीन कलक्टर द्वारा 18 अप्रैल सन 1924 को दुर्ग पर लगाये एक शिलापत्र पर उत्कीर्ण विवरण के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद इस किले पर 1141 से 1191 ई. तक पृथ्वीराज चौहान, 1198 में शहाबुद्दीन गौरी, 1333 से स्वामीराज, 1445 से जौनपुर के मुहम्मदशाह शर्की, 1512 से सिकन्दर शाह लोदी, 1529 से बाबर, 1530 से शेरशाहसूरी और 1536 से हुमायूं आदि शासकों का अधिपत्य रहा है। शेरशाह सूरी से हुए युद्ध में हुमायूं ने इसी किले में शरण ली थी।
जहां तक इस किले के निर्माण का सम्बंध है कुछ इतिहासकार 56 ईपू में राजा विक्रमादित्य द्वारा इसे बनाया गया मानते हैं। कुछ इतिहासकार इसके निर्माण वर्ष पर अपनी मान्यता प्रदान नहीं करते। शेरशाह सूरी ने चुनार के दुर्ग का महत्व बेहतर समझा। चुनार से बंगाल तक सूरी के शासनकाल में कोई अन्य किला नहीं था। हालांकि बाद में शेरशाह ने बिहार के सासाराम में एक किले का निर्माण खुद कराया।
शेरशाह सूरी के पश्चात 1545 से 1552 तक इस्लामशाह, 1575 से अकबर के सिपहसालार मिर्जामुकी और 1750 से मुगलों के पंचहजारी मंसूर अली खां का शासन इस किले पर था। तत्पश्चात 1765 ई. में किला कुछ समय के लिए अवध के नवाब शुजाउदौला के कब्जे में आने के बाद शीघ्र ही ब्रिटिश आधिपत्य में चला गया। शिलापट्ट पर 1781 ई में वाटेन हेस्टिंग्स के नाम का उल्लेख अंकित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस किले पर उत्तर प्रदेश सरकार का कब्जा है।
किले की ऐतिहासिकता का विवरण अबुलफजल के चर्चित आईने अकबरी में भी मिलता है। फजल ने इसका नाम चन्नार दिया है। लोकगाथाओं में पत्थरगढ़, नैनागढ़, चरणाद्रिगढ़ आदि नामों से जाने जानेवाला यह किला किवंदतियों के अनुसार विक्रमादित्य ने अपने भाई भतृहरि के लिए बनवाया था। विलासिता व भोग के जीवन से विरक्त भतृहरि ने यही तप साधना की थी। दुर्ग में आज भी उनकी समाधि बनी हुई है। हालांकि तमाम इतिहासकार इसे मान्यता नहीं देते हैं पर मिर्जापुर गजेटियर में इसका उल्लेख किया गया है।
गजेटियर में संदेश नामक राज का सम्बन्ध का भी उल्लेख है। माना जाता है कि महोबा के वीर बांकुरे आल्हा का विवाह इसी किले में सोनवा के साथ हुआ था। सोनवा मण्डप आज भी किले में मौजूद है। ऐतिहासिक एवं रहस्य रोमांच का इतिहास अपने हृदय में समेटे इस किले का इस्तेमाल फिलहाल पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र के रुप में किया जा रहा है। लिहाजा पर्यटक इस किले के दीदार से वंचित रह जाते हैं।
पर्यटन को बढ़ावा देने का ढिढोरा पीटने वाली सरकारों का इस ओर ध्यान नही है दुर्ग जगह-जगह से दरक रहा है। यह ऐतिहासिक धरोहर किसी भी समय ध्वस्त हो सकता है। भले ही चन्द्रप्रकाश द्विवेदी के लोकप्रिय धारावाहिक चन्द्रकांता के बाद इसी नाम से एक और टेलीविजन धारावाहिक का प्रदर्शन शुरू होने वाला हो पर सरकार का ध्यान इस किले को बचाने की ओर नहीं है।
500 साल बाद मिली मोनालीसा की मॉडल की खोपड़ी
फ्लोरेंस। पुरातत्वविदों को इटली के फ्लोरेंस शहर में एक खोपड़ी का कंकाल मिला है। ऐसा माना जा रहा है कि यह खोपड़ी उसी महिला की है जो चित्रकार लियोनार्दो दा विंची की मोनालीसा कृति के लिए उनकी मॉडल बनी थी। यह कंकाल 500 साल पुराना है।
समाचार एजेंसी एकेआई के मुताबिक रेशम व्यापारी फ्रासेंस्को डेल गियोकोंडो की पत्नी लीसा ज्योर्जियो का शव सेंट ऑरसोला में दफनाया गया था। उनकी जुलाई 1542 में 63 वर्ष की आयु में मौत हो गई थी। पुरातत्वविदों ने पिछले महीने ही सेंट ऑरसोला में खुदाई शुरू की थी। बोलोग्ना विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद ज्योर्जियो ग्रुपियोनी का कहना है कि एक कब्र की खुदाई की गई थी, जिसमें एक महिला की खोपड़ी व श्रोणी के हिस्से मिले।
जब इस खोपड़ी के टूटे हुए हिस्सों को जोड़ा गया तो जो आकृति बनी वह मोनालीसा की विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग से मिलती-जुलती है। अब इतिहासकार इस महिला के डीएनए की तुलना फ्लोरेंस के सैंटिसिमा एनुन्जिएंटा गिरजाघर में दफनाए गए उसके दोनों बच्चों के डीएनए से करेंगे।
ज्यादातर आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि लियोनार्दो की विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग मोनालीसा के लिए ज्योर्जिया ही मॉडल बनी थी, जो बाद में अपने पति की मौत के बाद नन बन गई थीं। वैसे कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि लियोनार्दो की यह कृति कई चेहरों का सम्मिलित रूप थी।
लक्ष्मी विलास पैलेस है बकिंघम पैलेस से 4 गुना बडा़!
वडोदरा। वडोदरा के गायकवाड़ राजपरिवार को पूरे गुजरात में काफी सम्मान से देखा जाता है। अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद इस राजपरिवार ने वडोदरा के विकास से लेकर सामाजिक और आर्थिक सुधारों से जुड़े कई कार्यक्रम चलाए।
वडोदरा के लक्ष्मी विलास पैलेस का निर्माण 1890 में महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ के वक्त हुआ था। तब से लेकर अभी तक राजपरिवार का मुख्य ठिकाना यही है। एक जमाने में वडोदरा स्टेट पर गायकवाड़ राजपरिवार की हुकूमत चलती थी। लक्ष्मी विलास पैलेस और उसके आसपास के 700 एकड़ का इलाका राजपरिवार के नाम है। बताया जाता है कि लक्ष्मी विलास पैलेस ब्रिटिश राजघराने के महल बकिंघम पैलेस से 4 गुना बडा़ है। इस महल के दायरे में एक म्यूजियम, एक क्रिकेट ग्राउंड, इनडोर टेनिस कोर्ट और बैडमिंटन कोर्ट मौजूद है।
महल के पास की जमीन पर एक गोल्फ कोर्स और चिड़ियाघर भी बनाया गया है। राजपरिवार के बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल से लेकर लक्ष्मी विलास पैलेस तक एक रेल लाइन बिछाई गई थी। फिलहाल इस राजपरिवार के सबसे बड़े भाई रंजीत सिंह यहां अपने परिवार के साथ रहते हैं। उनको इस राजघराने में महाराजा का दर्जा हासिल है। लक्ष्मी विलास पैलेस के अलावा वडोदरा में दो और महल- मकरपुर पैलेस और प्रताप विलास पैलेस इस मराठा राजपरिवार के नाम है।
भारत की आजादी से पहले इस राजपरिवार ने वडोदरा स्टेट में शिक्षा और टेक्सटाइल इंडस्ट्री के विकास में अहम भूमिका निभाई थी। बाल विवाह पर रोक, छूआछूत मिटाने और संस्कृत के विकास में भी वडोदरा राजपरिवार का खास योगदान माना जाता है। 1908 में बैंक ऑफ बड़ौदा की नींव भी इसी राजपरिवार के सहयोग से डाली गई थी जो आज भी देश के बड़े बैंकों की सूची में शामिल है।
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Sunday, April 17, 2011
कोलकाता की खोज करने वाले जाब चार्नक का मकान खंडहर में तब्दील
खबरों में इतिहास ( भाग-13 ) अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------। १-चार्नक का मकान खंडहर में तब्दील २-नेपाल ने भारत में बुद्ध के जन्म स्थान होने की बात खारिज की 3-10 करोड़ में नीलाम हुआ जहाँगीर का चित्र |
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जाब चार्नक का मकान खंडहर में तब्दील
मान्यता थी कि कोलकाता के संस्थापक जाब चार्नक थे। कोलकाता हाईकोर्ट में इतिहासकारों की दायर एक याचिका में अदालत ने साक्ष्यों के आधार पर संस्थापक की मान्यता पर रोक लगा दी। ( पूरा विवरण इस पीडीएफ से पढ़ें -बेदखल हुए जाब चार्नाक )
अब भी लोग कोलकाता की खोज का श्रेय उन्हें ही देते हैं। कोलकाता की खोज करने वाले जॉब चार्नक तीन सौ साल पहले हावड़ा जिले के उलबेड़िया पहुंचे थे। तब यहां मुगल साम्राज्य कायम था। इतिहास का ज्यादातर हिस्सा भले ही नष्ट हो गया हो, लेकिन लोग आज भी कोलकाता के साथ चार्नक को जरूर याद करते हैं। हालांकि हावड़ा वालों को और खास करके उलबेड़िया के लोगों को यह याद नहीं है कि कभी इतिहास पुरुष चार्नक उनके इलाके में भी रहते थे। महीनों तक हावड़ा जिले में रहने वाले चार्नक के मकान की दशा देख कर खंडहर भी सोचेगा कि उसकी हालत कुछ बेहतर है।
मकान के तौर पर महज ढाई टूटे हुए खंभे और कुछ ईट-पत्थर ही शेष बचे हैं। पास में रहने वाले गोपाल दास के मुताबिक किसी जमाने में साहेब बाड़ी के तौर पर प्रसिद्ध मकान को लोग नीली कोठी के नाम से जानते थे। बचपन में सुना था कि वे यहां रहते थे। इससे ज्यादा कुछ पता नहीं है। मकान के आसपास जरूर दूसरे भवन बन चुके हैं।
उलबेड़िया के इतिहासकार असित हाजरा के मुताबिक हेमेंद्र बनर्जी के हावड़ा इतिहास और सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि 1687 में चार्नक उलबेड़िया आए थे। वे यहां औद्योगिक केंद्र की स्थापना करना चाहते थे। इस बारे में ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल काउंसिल को सिफारिश भी की थी।
उनका कहना है कि इतिहास के पन्नों से यह जानकारी भी मिलती है कि व्यापारिक कारणों से नवाब के लठैतों ने चार्नक को जमकर पीटा भी था। इसके बाद 24 अगस्त 1690 की दोपहर उन्होंने इलाके को सदा के लिए अलविदा कह दिया और यहां से कूच कर गए। तीन साल तक अंग्रेज बहादुर इलाके में रहे और इसके लिए उन्होंने एक मकान बनवाया था,जिसे लोग साहेब बाड़ी भी कहते थे। लगभग 20 साल पहले यहां एक विशाल दीवार और दरवाजे के हिस्से दिखाई देते थे, लेकिन अब सब कुछ गायब हो गया है। उनका कहना है कि यहां से वे सूतानूटी गए। अगर यहीं बस जाते तो आज कोलकाता नहीं होता और उसकी जगह उलबेड़िया ही विश्व व्यापार का केंद्र बन चुका होता।
स्थानीय लोगों की बात तो छोड़िए उलबेड़िया नगरपालिका के चेयरमैन देवदास घोष यह सुनकर हैरत में पड़ जाते हैं कि सचमुच चार्नक उनके इलाके में आकर ठहरे थे। इसी तरह हाटकालीगंज इलाके में चार्नक के मकान से महज 50 मीटर की दूरी पर रहने वाले एक दुकानदार सवाल पूछते हैं कि सचमुच चार्नक कभी यहां रहते थे, ऐसा तो उन्होंने कभी किसी से नहीं सुना जबकि वे सालों से यहां रह रहे हैं। (साभार-जनसत्ता)।
यह भी पढ़िए- कोलकाता को किसने बसाया
भारत में बुद्ध के जन्म स्थान होने की बात खारिज की
नेपाल ने पड़ोसी भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी की अनुकृति बनाए जाने की खबरों को खारिज किया है और कहा कि जापान और युनेस्को द्वारा शुरू की गई संरक्षण परियोजनाओं के कारण नेपाल में बुद्ध के पवित्र जन्म स्थान की मान्यता बरकरार रहेगी।नेपाल के संस्कृति मंत्रालय के सचिव मोद राज दोत्तेल ने कहा कि युनेस्को ने 1997 में लुम्बिनी को बुद्ध की जन्मस्थली बताते हुए इसे विश्व धरोहर का दर्जा दिया है। उन्होंने कहा कि भारत युनेस्को के घोषणा पत्र को मानने वाले 200 देशों में से एक है। बुद्ध भला दो स्थानों पर जन्म कैसे ले सकते हैं। नेपाल का लुम्बिनी ही वह स्थान है, जहां उनका जन्म हुआ था। पुरातत्वविदों का कहना है कि बुद्ध के दक्षिणी नेपाल के राजवंश में पैदा लेने का सबसे बड़ा प्रमाण भारतीय सम्राट अशोक द्वारा 249 ईसा पूर्व में लुम्बिनी की यात्रा के दौरान यहां स्थापित किए गया शिलालेख है, जिसपर लिखा है, "ईश्वर के प्रिय राजा पियादशी (अशोक) ने अपने राज्याभिषेक के 20वें वर्ष में खुद बुद्ध साक्यमुणि के जन्मस्थान की राजकीय यात्रा की, उन्होंने यहां शिला लगवाई.. और लुम्बिनी गांव पर लगने वाला कर घटा दिया।"
लुम्बिनी के बुद्ध का जन्म स्थान होने का एक अन्य ऐतिहासिक प्रमाण वह पाषाण चित्र है, जो नेपाली राजा रिपु मल्ला के आदेश पर बनाया गया था। रिपु मल्ला ने 1312 ईस्वी में लुम्बिनी की तीर्थयात्रा के समय इस चित्र बनाने का आदेश दिया था। इसमें बुद्ध की माता और महारानी एक हाथ से एक पेड़ को पकड़ी हुई है, जबकि उसके बगल में एक नवजात शिशु एक कमल की पंखुड़ी पर खड़ा है। यह पाषाण शिल्प अपने निर्माण के समय से ही इस स्थान पर लगा हुआ है। यहां आने वाले करोड़ों श्रद्धालु सम्राट अशोक द्वारा लगवाए गए शिलाओं और पाषाण चित्र को दूध और जल से नहलाते हैं। जापान सरकार के खर्च पर इन शिलाओं और पाषाण शिल्प के संरक्षण की एक परियोजना चलाई जा रही है। माना जाता है कि बुद्ध का जन्म 623 ईसा पूर्व में हुआ था, लेकिन 624 ईसा पूर्व से 560 ईसा पूर्व के बीच कुछ और तिथियों का भी उल्लेख मिलता है।
लुम्बिनी में अभी अनेक बौद्ध मठ चल रहे हैं और यह वर्तमान दक्षिणी नेपाली जिला रुपनदेही में स्थित है। यहां से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तिलौराकोट को बुद्ध के समय के कपिल वस्तु की राजधानी माना जाता है। इधर कुछ रिपोर्टों में हालांकि उत्तर प्रदेश के पिपराहवा को तत्कालीन कपिलवस्तु की राजधानी बताया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के एक जिले का नाम सिद्धार्थ नगर होने और यहां लुम्बिनी तथा तिलौराकोट की अनुकृति बनाने की खबरों से नेपाल के नागरिकों को चिंता हो रही है कि इससे तीर्थयात्रियों में यह भ्रम फैल सकता है कि बुद्ध का जन्म भारत में हुआ था। ( काठमांडो-एजंसियां )
10 करोड़ में नीलाम हुआ जहाँगीर का चित्र
मुगल शासक जहाँगीर का आदमकद चित्र 10 करोड़ रुपए में नीलाम हुआ। यह अब तक के ज्ञात बड़े मुगल चित्रों में एक है। सत्तरहवीं सदी का यह चित्र बोन्हमास इंडियन एवं इस्लामिक नीलामी घर में मंगलवार को नीलाम हुआ। स्वर्ण एवं वाटरकलर से बने इस चित्र में जहांगीर ने स्वर्णजड़ित सिंहासन पर आसीन हैं।
नीलामीघर क प्रमुख एलीस बेली ने कहा कि यह 17 वीं सदी का दुलर्भतम एवं वांछित चित्र है और इस काल का ऐसा कोई चित्र नहीं है जो नीलाम हुआ हो। इस प्रकार की कोई दूसरी कलाकृति ज्ञात नहीं है और इसके महत्व को कम करके नहीं आँका जा सकता है। यह कलाकृति मध्य पूर्व के संग्रहालय द्वारा खरीदी गई।
बेली ने कहा कि इस चित्र से के असाधारण विवरण और जटिलता दर्शकों को मोह लेती है। हम इसे बेचकर गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि यह 1617 के आसपास की तस्वीर है और जब जहाँगीर मांडू में थे तब इसे चित्रकार अबुल हसन ने बनाया था। ( नई दिल्ली, बुधवार, 6 अप्रैल 2011 -भाषा )
मान्यता थी कि कोलकाता के संस्थापक जाब चार्नक थे। कोलकाता हाईकोर्ट में इतिहासकारों की दायर एक याचिका में अदालत ने साक्ष्यों के आधार पर संस्थापक की मान्यता पर रोक लगा दी। ( पूरा विवरण इस पीडीएफ से पढ़ें -बेदखल हुए जाब चार्नाक )
अब भी लोग कोलकाता की खोज का श्रेय उन्हें ही देते हैं। कोलकाता की खोज करने वाले जॉब चार्नक तीन सौ साल पहले हावड़ा जिले के उलबेड़िया पहुंचे थे। तब यहां मुगल साम्राज्य कायम था। इतिहास का ज्यादातर हिस्सा भले ही नष्ट हो गया हो, लेकिन लोग आज भी कोलकाता के साथ चार्नक को जरूर याद करते हैं। हालांकि हावड़ा वालों को और खास करके उलबेड़िया के लोगों को यह याद नहीं है कि कभी इतिहास पुरुष चार्नक उनके इलाके में भी रहते थे। महीनों तक हावड़ा जिले में रहने वाले चार्नक के मकान की दशा देख कर खंडहर भी सोचेगा कि उसकी हालत कुछ बेहतर है।
मकान के तौर पर महज ढाई टूटे हुए खंभे और कुछ ईट-पत्थर ही शेष बचे हैं। पास में रहने वाले गोपाल दास के मुताबिक किसी जमाने में साहेब बाड़ी के तौर पर प्रसिद्ध मकान को लोग नीली कोठी के नाम से जानते थे। बचपन में सुना था कि वे यहां रहते थे। इससे ज्यादा कुछ पता नहीं है। मकान के आसपास जरूर दूसरे भवन बन चुके हैं।
उलबेड़िया के इतिहासकार असित हाजरा के मुताबिक हेमेंद्र बनर्जी के हावड़ा इतिहास और सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि 1687 में चार्नक उलबेड़िया आए थे। वे यहां औद्योगिक केंद्र की स्थापना करना चाहते थे। इस बारे में ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल काउंसिल को सिफारिश भी की थी।
उनका कहना है कि इतिहास के पन्नों से यह जानकारी भी मिलती है कि व्यापारिक कारणों से नवाब के लठैतों ने चार्नक को जमकर पीटा भी था। इसके बाद 24 अगस्त 1690 की दोपहर उन्होंने इलाके को सदा के लिए अलविदा कह दिया और यहां से कूच कर गए। तीन साल तक अंग्रेज बहादुर इलाके में रहे और इसके लिए उन्होंने एक मकान बनवाया था,जिसे लोग साहेब बाड़ी भी कहते थे। लगभग 20 साल पहले यहां एक विशाल दीवार और दरवाजे के हिस्से दिखाई देते थे, लेकिन अब सब कुछ गायब हो गया है। उनका कहना है कि यहां से वे सूतानूटी गए। अगर यहीं बस जाते तो आज कोलकाता नहीं होता और उसकी जगह उलबेड़िया ही विश्व व्यापार का केंद्र बन चुका होता।
स्थानीय लोगों की बात तो छोड़िए उलबेड़िया नगरपालिका के चेयरमैन देवदास घोष यह सुनकर हैरत में पड़ जाते हैं कि सचमुच चार्नक उनके इलाके में आकर ठहरे थे। इसी तरह हाटकालीगंज इलाके में चार्नक के मकान से महज 50 मीटर की दूरी पर रहने वाले एक दुकानदार सवाल पूछते हैं कि सचमुच चार्नक कभी यहां रहते थे, ऐसा तो उन्होंने कभी किसी से नहीं सुना जबकि वे सालों से यहां रह रहे हैं। (साभार-जनसत्ता)।
यह भी पढ़िए- कोलकाता को किसने बसाया
भारत में बुद्ध के जन्म स्थान होने की बात खारिज की
नेपाल ने पड़ोसी भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी की अनुकृति बनाए जाने की खबरों को खारिज किया है और कहा कि जापान और युनेस्को द्वारा शुरू की गई संरक्षण परियोजनाओं के कारण नेपाल में बुद्ध के पवित्र जन्म स्थान की मान्यता बरकरार रहेगी।नेपाल के संस्कृति मंत्रालय के सचिव मोद राज दोत्तेल ने कहा कि युनेस्को ने 1997 में लुम्बिनी को बुद्ध की जन्मस्थली बताते हुए इसे विश्व धरोहर का दर्जा दिया है। उन्होंने कहा कि भारत युनेस्को के घोषणा पत्र को मानने वाले 200 देशों में से एक है। बुद्ध भला दो स्थानों पर जन्म कैसे ले सकते हैं। नेपाल का लुम्बिनी ही वह स्थान है, जहां उनका जन्म हुआ था। पुरातत्वविदों का कहना है कि बुद्ध के दक्षिणी नेपाल के राजवंश में पैदा लेने का सबसे बड़ा प्रमाण भारतीय सम्राट अशोक द्वारा 249 ईसा पूर्व में लुम्बिनी की यात्रा के दौरान यहां स्थापित किए गया शिलालेख है, जिसपर लिखा है, "ईश्वर के प्रिय राजा पियादशी (अशोक) ने अपने राज्याभिषेक के 20वें वर्ष में खुद बुद्ध साक्यमुणि के जन्मस्थान की राजकीय यात्रा की, उन्होंने यहां शिला लगवाई.. और लुम्बिनी गांव पर लगने वाला कर घटा दिया।"
लुम्बिनी के बुद्ध का जन्म स्थान होने का एक अन्य ऐतिहासिक प्रमाण वह पाषाण चित्र है, जो नेपाली राजा रिपु मल्ला के आदेश पर बनाया गया था। रिपु मल्ला ने 1312 ईस्वी में लुम्बिनी की तीर्थयात्रा के समय इस चित्र बनाने का आदेश दिया था। इसमें बुद्ध की माता और महारानी एक हाथ से एक पेड़ को पकड़ी हुई है, जबकि उसके बगल में एक नवजात शिशु एक कमल की पंखुड़ी पर खड़ा है। यह पाषाण शिल्प अपने निर्माण के समय से ही इस स्थान पर लगा हुआ है। यहां आने वाले करोड़ों श्रद्धालु सम्राट अशोक द्वारा लगवाए गए शिलाओं और पाषाण चित्र को दूध और जल से नहलाते हैं। जापान सरकार के खर्च पर इन शिलाओं और पाषाण शिल्प के संरक्षण की एक परियोजना चलाई जा रही है। माना जाता है कि बुद्ध का जन्म 623 ईसा पूर्व में हुआ था, लेकिन 624 ईसा पूर्व से 560 ईसा पूर्व के बीच कुछ और तिथियों का भी उल्लेख मिलता है।
लुम्बिनी में अभी अनेक बौद्ध मठ चल रहे हैं और यह वर्तमान दक्षिणी नेपाली जिला रुपनदेही में स्थित है। यहां से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तिलौराकोट को बुद्ध के समय के कपिल वस्तु की राजधानी माना जाता है। इधर कुछ रिपोर्टों में हालांकि उत्तर प्रदेश के पिपराहवा को तत्कालीन कपिलवस्तु की राजधानी बताया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के एक जिले का नाम सिद्धार्थ नगर होने और यहां लुम्बिनी तथा तिलौराकोट की अनुकृति बनाने की खबरों से नेपाल के नागरिकों को चिंता हो रही है कि इससे तीर्थयात्रियों में यह भ्रम फैल सकता है कि बुद्ध का जन्म भारत में हुआ था। ( काठमांडो-एजंसियां )
10 करोड़ में नीलाम हुआ जहाँगीर का चित्र
मुगल शासक जहाँगीर का आदमकद चित्र 10 करोड़ रुपए में नीलाम हुआ। यह अब तक के ज्ञात बड़े मुगल चित्रों में एक है। सत्तरहवीं सदी का यह चित्र बोन्हमास इंडियन एवं इस्लामिक नीलामी घर में मंगलवार को नीलाम हुआ। स्वर्ण एवं वाटरकलर से बने इस चित्र में जहांगीर ने स्वर्णजड़ित सिंहासन पर आसीन हैं।
नीलामीघर क प्रमुख एलीस बेली ने कहा कि यह 17 वीं सदी का दुलर्भतम एवं वांछित चित्र है और इस काल का ऐसा कोई चित्र नहीं है जो नीलाम हुआ हो। इस प्रकार की कोई दूसरी कलाकृति ज्ञात नहीं है और इसके महत्व को कम करके नहीं आँका जा सकता है। यह कलाकृति मध्य पूर्व के संग्रहालय द्वारा खरीदी गई।
बेली ने कहा कि इस चित्र से के असाधारण विवरण और जटिलता दर्शकों को मोह लेती है। हम इसे बेचकर गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि यह 1617 के आसपास की तस्वीर है और जब जहाँगीर मांडू में थे तब इसे चित्रकार अबुल हसन ने बनाया था। ( नई दिल्ली, बुधवार, 6 अप्रैल 2011 -भाषा )
Friday, March 18, 2011
देश की सबसे ऊंची बौद्ध प्रतिमा
खबरों में इतिहास(भाग-12) अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------। १-देश की सबसे ऊंची बौद्ध प्रतिमा का अनावरण २-खुदाई में मिले अवशेषों से स्पाइस रूट की पुष्टि 3-सबसे बड़े शाकाहारी डायनासोर |
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खुदाई में मिले अवशेषों से स्पाइस रूट की पुष्टि
केरल के प्राचीन बंदरगाह शहर विझिनजम में एक खुदाई स्थल पर मिले अवशेषों से सदियों पहले बाहरी दुनिया से व्यापार के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले स्पाइट रूट की पुष्टि हुई है। इसके लिहाज से इसे यूनेस्को से धरोहर का दर्जा दिलाने के प्रदेश के प्रयास को बल मिलेगा।
हिंद महासागर क्षेत्र में व्यापार में दो हजार सालों से केरल प्रमुख भूमिका निभाता रहा है। इसके कारोबारी साझेदारों में रोमन साम्राज्य, अरब खाड़ी और सुदूर पूर्व शामिल हैं। केरल के मसालों के लिए प्राचीन दुनिया के लगाव के कारण ये व्यापारी प्रदेश में आते थे। विझिनजम का जिक्र मध्यकालीन दस्तावेजों में मिलता है। यह एक समय दक्षिण केरल में आठवीं से दसवीं सदी में एवाय राजवंश की राजधानी रहा था। केरल विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के अजीत कुमार ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के राबर्ट हार्डिंग के साथ विझिनजम में खुदाई का काम शुरू किया ताकि शहर के सांस्कृतिक महत्त्व को समझा जा सके।(भाषा)।
देश की सबसे ऊंची बौद्ध प्रतिमा का अनावरण
सारनाथ स्थित थाई मंदिर में गांधार शैली में बनी देश की सबसे ऊंची (80 फुट) प्रतिमा का बुधवार को थाईलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री जनरल सूरावेद चुल्लानाट ने अनावरण किया। इसके साथ ही भगवान बुद्ध की उपदेश स्थली सारनाथ के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया। बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि से गुंजित वातावरण में थाईलैंड के प्रमुख भिक्षु सुथी सहित एक दर्जन अनुयायियों ने दीप जलाकर पंचशील पाड्ग किया।
थाई बौद्ध विहार परिसर में बौद्ध परंपरा के मुताबिक विधिपूर्वक पूजा अर्चना की गई। उसके बाद विशाल बुद्ध प्रतिमा के सामने रखी प्रतीक छोटी प्रतिमा का पर्दा खींचकर अनावरण कार्यक्रम संपन्न हुआ। जनरल चुल्लानाट ने इस मौके पर कहा कि भगवान बुद्ध की प्रतिमा भारत और थाईलैंड के बीच मैत्री का प्रतीक है। भारत गुरुभूमि है। यहीं से भिक्षु थाइलैंड गएऔर बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया। कई एकड़ क्षेत्र में फैले मंदिर परिसर के संस्थापक व बौद्धधर्म के प्रमुख प्रचारक भदंत शासन रश्मि का यह ड्रीम प्रोजेक्ट लगभग 14 साल में पूरा हुआ। बामियान (अफगानिस्तान) में गौतम बुद्ध की प्राचीन व विशाल प्रतिमाओं को तालिबानियों के खंडित करने से आहत होकर भदंत शासन ने इस प्रतिमा के निर्माण की परिकल्पना की थी। लगभग दो करोड़ रुाए में बनकर तैयार हुई प्रतिमा में 20 फीट ऊंची आधार स्तंभ व 60 फुट प्रतिमा की ऊंचाई है। इसके निर्माण में चार लाख 89 हजार किलोग्राम वजन के कुल 815 पत्थर लगे हैं।
बैजनाथ धाम (बिहार) निवासी शिल्पकार मोहन राउत के तैयार माडल को चुनार निवासी मूर्तिकार जीउत कुशवाहा नेकुशल कारीगरों की सहायता से विशाल बुद्ध प्रतिमा का रूप दिया। प्रसिद्ध वास्तुकार अनुराग कुशवाहा के निर्देशन में प्रतिमा की आधारशिला व तकनीकी ढ़ांचों का निर्माण हुआ, जबकि मुंबई के वरिष्ठ इंजीनियर पीपी कल्पवृक्ष के मार्गदर्शन में प्रतिमा स्थापित की गई। इस बीच पूर्व घोषणा के विपरीत प्रतिमा अनावरण के बाद मंदिर परिसर में ही भदंत शासन रश्मि का दाह संस्कार क्षेत्रीय नागरिकों के विरोध के चलते नहीं किया जा सका। 22 दिसंबर 2010 को देहांत के बाद उनके पाथर्व शरीर को उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार प्रतिमा के अनावरण तक मंदिर में रखा गया था। थाई बौद्ध विहार समिति के सचिव डा. धर्मरश्मि गौतम ने बताया कि दंत भदंत शासन रश्मि का अंतिम संस्कार कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया गया है। उनका शव तब तक मंदिर परिसर में ही रखा जाएगा। (भाषा)।
सबसे बड़े शाकाहारी डायनासोर
वैज्ञानिकों को खुदाई में धरती पर मौजूद सबसे बड़े शाकाहारी डायनासोर का जीवाश्म मिला है। समझा जाता है कि यह धरमी पर करीब नौ करोड़ वर्ष पहले विचरण करता था। अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक दल को इस डायनासोर का जीवाश्म अंगोला में में मिला। उनका मानना है कि इसका आकार धरती पर मौजूद आज तक के सबसे बड़े माँसाहारी डायनासोर ‘टी-रेक्स’ से भी बड़ा था। यह लंबी गर्दन वाला जीव पौधे और अन्य वनस्पति खाता था । डेली मेल के रिपोर्ट अनुसार इसे अंगोलाटाइटन एडामास्टोर नाम दिया गया है। जहाँ इसके जीवाश्म मिले हैं वह नौ करोड़ वर्ष पहले पानी के अंदर रहा होगा। समझा जाता है कि मछली और शार्क के दाँत के साथ मिले उसके अवशेष बहकर समुद्र में चले और शार्कों ने उसके टुकडे-टुकड़े कर दिए। (भाषा
केरल के प्राचीन बंदरगाह शहर विझिनजम में एक खुदाई स्थल पर मिले अवशेषों से सदियों पहले बाहरी दुनिया से व्यापार के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले स्पाइट रूट की पुष्टि हुई है। इसके लिहाज से इसे यूनेस्को से धरोहर का दर्जा दिलाने के प्रदेश के प्रयास को बल मिलेगा।
हिंद महासागर क्षेत्र में व्यापार में दो हजार सालों से केरल प्रमुख भूमिका निभाता रहा है। इसके कारोबारी साझेदारों में रोमन साम्राज्य, अरब खाड़ी और सुदूर पूर्व शामिल हैं। केरल के मसालों के लिए प्राचीन दुनिया के लगाव के कारण ये व्यापारी प्रदेश में आते थे। विझिनजम का जिक्र मध्यकालीन दस्तावेजों में मिलता है। यह एक समय दक्षिण केरल में आठवीं से दसवीं सदी में एवाय राजवंश की राजधानी रहा था। केरल विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के अजीत कुमार ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के राबर्ट हार्डिंग के साथ विझिनजम में खुदाई का काम शुरू किया ताकि शहर के सांस्कृतिक महत्त्व को समझा जा सके।(भाषा)।
देश की सबसे ऊंची बौद्ध प्रतिमा का अनावरण
सारनाथ स्थित थाई मंदिर में गांधार शैली में बनी देश की सबसे ऊंची (80 फुट) प्रतिमा का बुधवार को थाईलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री जनरल सूरावेद चुल्लानाट ने अनावरण किया। इसके साथ ही भगवान बुद्ध की उपदेश स्थली सारनाथ के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया। बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि से गुंजित वातावरण में थाईलैंड के प्रमुख भिक्षु सुथी सहित एक दर्जन अनुयायियों ने दीप जलाकर पंचशील पाड्ग किया।
थाई बौद्ध विहार परिसर में बौद्ध परंपरा के मुताबिक विधिपूर्वक पूजा अर्चना की गई। उसके बाद विशाल बुद्ध प्रतिमा के सामने रखी प्रतीक छोटी प्रतिमा का पर्दा खींचकर अनावरण कार्यक्रम संपन्न हुआ। जनरल चुल्लानाट ने इस मौके पर कहा कि भगवान बुद्ध की प्रतिमा भारत और थाईलैंड के बीच मैत्री का प्रतीक है। भारत गुरुभूमि है। यहीं से भिक्षु थाइलैंड गएऔर बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया। कई एकड़ क्षेत्र में फैले मंदिर परिसर के संस्थापक व बौद्धधर्म के प्रमुख प्रचारक भदंत शासन रश्मि का यह ड्रीम प्रोजेक्ट लगभग 14 साल में पूरा हुआ। बामियान (अफगानिस्तान) में गौतम बुद्ध की प्राचीन व विशाल प्रतिमाओं को तालिबानियों के खंडित करने से आहत होकर भदंत शासन ने इस प्रतिमा के निर्माण की परिकल्पना की थी। लगभग दो करोड़ रुाए में बनकर तैयार हुई प्रतिमा में 20 फीट ऊंची आधार स्तंभ व 60 फुट प्रतिमा की ऊंचाई है। इसके निर्माण में चार लाख 89 हजार किलोग्राम वजन के कुल 815 पत्थर लगे हैं।
बैजनाथ धाम (बिहार) निवासी शिल्पकार मोहन राउत के तैयार माडल को चुनार निवासी मूर्तिकार जीउत कुशवाहा नेकुशल कारीगरों की सहायता से विशाल बुद्ध प्रतिमा का रूप दिया। प्रसिद्ध वास्तुकार अनुराग कुशवाहा के निर्देशन में प्रतिमा की आधारशिला व तकनीकी ढ़ांचों का निर्माण हुआ, जबकि मुंबई के वरिष्ठ इंजीनियर पीपी कल्पवृक्ष के मार्गदर्शन में प्रतिमा स्थापित की गई। इस बीच पूर्व घोषणा के विपरीत प्रतिमा अनावरण के बाद मंदिर परिसर में ही भदंत शासन रश्मि का दाह संस्कार क्षेत्रीय नागरिकों के विरोध के चलते नहीं किया जा सका। 22 दिसंबर 2010 को देहांत के बाद उनके पाथर्व शरीर को उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार प्रतिमा के अनावरण तक मंदिर में रखा गया था। थाई बौद्ध विहार समिति के सचिव डा. धर्मरश्मि गौतम ने बताया कि दंत भदंत शासन रश्मि का अंतिम संस्कार कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया गया है। उनका शव तब तक मंदिर परिसर में ही रखा जाएगा। (भाषा)।
सबसे बड़े शाकाहारी डायनासोर
वैज्ञानिकों को खुदाई में धरती पर मौजूद सबसे बड़े शाकाहारी डायनासोर का जीवाश्म मिला है। समझा जाता है कि यह धरमी पर करीब नौ करोड़ वर्ष पहले विचरण करता था। अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक दल को इस डायनासोर का जीवाश्म अंगोला में में मिला। उनका मानना है कि इसका आकार धरती पर मौजूद आज तक के सबसे बड़े माँसाहारी डायनासोर ‘टी-रेक्स’ से भी बड़ा था। यह लंबी गर्दन वाला जीव पौधे और अन्य वनस्पति खाता था । डेली मेल के रिपोर्ट अनुसार इसे अंगोलाटाइटन एडामास्टोर नाम दिया गया है। जहाँ इसके जीवाश्म मिले हैं वह नौ करोड़ वर्ष पहले पानी के अंदर रहा होगा। समझा जाता है कि मछली और शार्क के दाँत के साथ मिले उसके अवशेष बहकर समुद्र में चले और शार्कों ने उसके टुकडे-टुकड़े कर दिए। (भाषा
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Wednesday, March 16, 2011
प्रलय की ओर बढ़ रही दुनिया !
पहले इंडोनेशिया, फिर चीन, ब्राजील, श्रीलंका और अब जापान। पूरी दुनिया पर कुदरत का कहर टूट रहा है। आए दिन सुनामी, भूकंप, ज्वालामुखी फटने, बाढ़ और बर्फबारी जैसे धरती पर मंडराते खतरों के चलते दुनिया के खत्म होने की चर्चाएं भी जोर पकड़ने लगी हैं। हाल के वर्षों की कुछ घटनाओं ने इस शंका को प्रबल कर दिया है। प्रलय की पौराणिक मान्यताओं को वैज्ञानिक भी सही साबित कर रहे हैं।
नासा की चेतावनी
अमेरिकी अंतरिक्षण अनुसंधान केंद्र नासा के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि 2012 में धरती पर भयानक तबाही आने वाली है। इन वैज्ञानिकों ने पिछले साल अगस्त में सूरज में कुछ अजीबोगरीब हलचल देखी। नासा के उपग्रहों से रिकॉर्ड करने के बाद वैज्ञानिकों ने इन आग के बादलों से धरती पर भयानक तबाही की चेतावनी दी। इनका दावा है कि सूरज की तरफ से उठा खतरा धरती की तरफ चल पड़ा है। वैज्ञानिक इसे सुनामी कह रहे हैं। आग की ये लपटें सूरज की सतह पर हो रहे चुंबकीय विस्फोटों की वजह से पैदा हुईं और लावे का ये तूफान धरती की तरफ रुख कर चुका है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये तूफान सूरज से धरती के रास्ते में है और कभी भी धरती से टकरा सकता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर सोलर सुनामी धरती से टकराती है तो जबर्दस्त रोशनी पैदा होगी। दुनिया के बड़े हिस्से में अंधकार छा जाएगा। सेटेलाइटों को नुकसान पहुंच सकता है। संचार उपकरण ठप हो जाएंगे। मोबाइल फोन काम करना बंद कर देंगे। विमानों के उड़ान में मुश्किलें पैदा होंगी। नासा के वैज्ञानिकों ने 2013 में सौर तूफान की चेतावनी पहले ही दे दी थी। वे इस बारे में लगातार शोध कर रहे हैं।
प्रलय से जुड़े मिथ, धार्मिक ग्रंथों में प्रलय का जिक्र
प्रलय शब्द का जिक्र लगभग हर धर्म के ग्रंथों में मिलता है। करीब 250 साल पहले महान भविष्यवक्ता नास्त्रेस्देमस ने भी प्रलय को लेकर घोषणा की है हालांकि इसमें उसके समय को लेकर कोई घोषणा नहीं है।
महाभारत - महाभारत में कलियुग के अंत में प्रलय होने का जिक्र है, लेकिन यह किसी जल प्रलय से नहीं बल्कि धरती पर लगातार बढ़ रही गर्मी से होगा। महाभारत के वनपर्व में उल्लेख मिलता है कि सूर्य का तेज इतना बढ़ जाएगा कि सातों समुद्र और नदियां सूख जाएंगी। संवर्तक नाम की अग्रि धरती को पाताल तक भस्म कर देगी। वर्षा पूरी तरह बंद हो जाएगी। सबकुछ जल जाएगा, इसके बाद फिर बारह वर्षों तक लगातार बारिश होगी। जिससे सारी धरती जलमग्र हो जाएगी।
बाइबिल - इस ग्रंथ में भी प्रलय का उल्लेख है जब ईश्वर, नोहा से कहते हैं कि महाप्रलय आने वाला है। तुम एक बड़ी नौका तैयार करो, इसमें अपने परिवार, सभी जाति के दो-दो जीवों को लेकर बैठ जाओ, सारी धरती जलमग्र होने वाली है।
इस्लाम - इस्लाम में भी कयामत के दिन का जिक्र है। पवित्र कुरआन में लिखा है कि कयामत का दिन कौन सा होगा इसकी जानकारी केवल अल्लाह को है। इसमें भी जल प्रलय का ही उल्लेख है। नूह को अल्लाह का आदेश मिलता है कि जल प्रलय होने वाला है, एक नौका तैयार कर सभी जाती के दो-दो नर-मादाओं को लेकर बैठ जाओ।
पुराण - हिदू धर्म के लगभग सभी पुराणों में काल को चार युगों में बाँटा गया है। हिंदू मान्ताओं के अनुसार जब चार युग पूरे होते हैं तो प्रलय होती है। इस समय ब्रह्मा सो जाते हैं और जब जागते हैं तो संसार का पुन: निर्माण करते हैं और युग का आरम्भ होता है।
नास्त्रेस्देमस की भविष्यवाणी - नास्त्रेस्देमस ने प्रलय के बारे में बहुत स्पष्ट लिखा है कि मै देख रहा हूँ,कि एक आग का गला पृथ्वी कि ओर बाद रहा है,जो धरती से मानव के काल का कारण बनेगा। एक अन्य जगह नास्त्रेस्देमस लिखते हैं, कि एक आग का गोला समुन्द्र में गिरेगा और पुरानी सभ्यता के समस्त देश तबाह हो जाएंगे।
प्रलय को लेकर वैज्ञानिकों के बयान - केवल धर्म ग्रंथों में ही नहीं, बल्कि कई देशों में वैज्ञानिकों ने भी प्रलय की अवधारणा को सही माना है। कुछ महीनों पहले अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने घोषणा कि है कि 13 अप्रैल 2036 को पृथ्वी पर प्रलय हो सकता है। खगोलविदों के अनुसार अंतरिक्ष में घूमने वाला एक ग्रह एपोफिस 37014.91 किमी/ प्रति घंटा) की रफ्तार से पृथ्वी से टकरा सकता है। इस प्रलयंकारी भिडंत में हजारों लोगों की जान भी जा सकती है। हालांकि नासा के वैज्ञानिकों का कहना है कि इसे लेकर घबराने की कोई जरूरत नहीं है।
माया कैलेंडर की भविष्यवाणी
माया कैलेंडर भी कुछ ऐसी ही भविष्यवाणी कर रहा है। साउथ ईस्ट मेक्सिको के माया कैलेंडर में 21 दिसंबर 2012 के बाद की तिथि का वर्णन नहीं है। कैलेंडर उसके बाद पृथ्वी का अंत बता रहा है।
माया कैलेंडर के मुताबिक 21 दिसंबर 2012 में एक ग्रह पृथ्वी से टकराएगा, जिससे सारी धरती खत्म हो जाएगी। करीब 250 से 900 ईसा पूर्व माया नामक एक प्राचीन सभ्यता स्थापित थी। ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडुरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में इस सभ्यता के अवशेष खोजकर्ताओं को मिले हैं। ऐसी मान्यता है कि माया सभ्यता के काल में गणित और खगोल के क्षेत्र उल्लेखनीय विकास हुआ था। अपने ज्ञान के आधार पर माया लोगों ने एक कैलेंडर बनाया था। कहा जाता है कि उनके द्वारा बनाया गया कैलेंडर इतना सटीक निकला है कि आज के सुपर कम्प्यूटर भी उसकी गणनाओं में 0.06 तक का ही फर्क निकाल सके और माया कैलेंडर के अनेक आकलन, जिनकी गणना हजारों सालों पहले की गई थी, सही साबित हुए हैं।
चीन के धार्मिक ग्रंथ ‘आई चिंग’ व ‘द नेशनल फिल्म बोर्ड ऑफ कनाडा’ ने भी इन मतों को बल दिया है। लेकिन विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता व हिंदू मान्यताओं के प्रतीक 5123 वर्ष पुराने टांकरी कलेंडर ने इस बात को पूरी तरह से नकार दिया है।
वेब पर साजिशों की खोज करते रहने वालों ने दावा किया है कि वैब-बॉट्स यानी वैब रोबोट्स ने 11 सितंबर के हमलों और 2004 की सुनामी के बारे सटीक भविष्यवाणी की थी। अब उनका कहना है कि 21 दिसंबर 2012 को कोई आफत धरती को मटियामेट कर देगी। वैब-बॉट् एक तरह से ‘स्पाइडर’ जैसा सॉफ्टवेयर होता है जिसे 1990 में स्टॉक मार्केट के बारे भविष्यवाणी करने के लिए विकसित किया गया था।
प्रलय के संकेत?
जलवायु परिवर्तन का खतरा: हमारी औद्योगिक प्रगति और उपभोक्तावादी संस्कृति, तापमान में विश्वव्यापी वृद्धि, वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ता स्तर। यानी कुल मिलाकर जलवायु परिवर्तन की वजह से धरती के अस्तित्व पर खतरा है। बढते औद्योगीकरण के चलते जलवायु परिवर्तन का खतरा कई रूपों में सामने आ रहा है। गत क्रिसमस के समय यूरोप तथा अमेरिका में बर्फीली हवाओं और जबरदस्त हिमपात के कारण तापमान में आई भारी गिरावट से सैकड़ों लोगों की मौत हो गई। हिमपात और बर्फबारी की वजह से कई दिनों तक सड़क, रेल और हवाई यातायात ठप रहा था। लंदन, गेटविक और स्टैनस्टड से संचालित होने वाली सभी उड़ानें कई दिनों तक बाधित रहीं। ब्रिटिश एयरवेज ने 2000 से ज्यादा फ्लाइटें निरस्त की। वर्जीनिया, मैरीलैंड, पश्चिम वर्जीनिया और डेलावेयर प्रांतों में आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी। वहीं ऑस्ट्रिया, फिनलैंड और जर्मनी में तापमान शून्य से 33 डिग्री सेल्सियस नीचे पहुंच गया। अमेरिका और यूरोपीय देशों में ऐसी बर्फबारी पहले कभी नहीं देखी गई थी।
जर्मनी में पोट्सडाम के जलवायु शोध संस्थान के वैज्ञानिक और जर्मन सरकार के जलवायु सलाहकार डॉ.स्तेफान राम्सटोर्फ के शब्दों में कहें तो हवा में कार्बन डाइऑक्साइड का घनत्व 1970 वाले दशक की तुलना में दोगुना हो गया है। जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक समिति IPCC के आंकड़ों के अनुसार धरती का मौजूदा औसत तापमान पिछले एक हजार वर्षों की तुलना में सबसे अधिक है। पिछली पूरी शताब्दी में धरती का औसत तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस ही बढ़ा था, जबकि अब वह 0.74 डिग्री की दर से बढ़ रहा है। राम्सटोर्फ का कहना है कि इस बढ़ोतरी को 2050 तक के अगले 40 वर्षों में कुल मिलाकर दो डिग्री की वृद्धि से नीचे ही रखना होगा, नहीं तो इसके बेहद गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
इस समय औसत वैश्विक तापमान लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है। अगले चार दशकों में उस में दो डिग्री तक की भी बढ़ोतरी नहीं होनी चाहिए, नहीं तो प्रलय आ जाएगा। सबसे बड़ी बात यह है कि तापमान मामूली-सा बढ़ने से भी समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ेगा और एक बार बढ़ गया तापमान सदियों, शायद हजारों वर्षों तक नीचे नहीं उतरेगा। स्टैनफोर्ड के कृषि वैज्ञानिक डेविड लोबेल और अंतरराष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र के अनुसंधानकर्ताओं ने आगाह किया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते अनाज के उत्पादन पर भी असर पड़ेगा और इससे दुनियाभर में खाद्यान्न की किल्लत हो सकती है।
बढ़ते समुद्र स्तर से डूब जाएंगे तट: हाल में कोपनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर आयोजित इंटरनेशनल साइंटिफिक कांग्रेस में यह बात सामने आई कि सन् 2100 तक समुद्र के जलस्तर में करीब एक मीटर तक बढ़ोतरी हो सकती है। संभावना है कि यह बढ़ोतरी एक मीटर से भी अधिक हो सकती है। यदि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर तत्काल रोक नहीं लगाई गई तो समुद्री तट के किनारे वाले इलाकों पर इसका असर साफ दिखेगा और दुनिया की आबादी का दस प्रतिशत इससे प्रभावित होगा।
इस सिलसिले में हुए एक नए अनुसंधान में चेतावनी दी गई है कि पहले की तुलना में समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ सकता है। यह कहा गया है कि वर्ष 2100 तक समुद्र का पानी 75 से 190 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है।
सेंटर फॉर ऑस्ट्रेलियन वेदर एंड क्लाइमेट रिसर्च के डॉ. जॉन चर्च ने इस सम्मेलन में कहा, ‘सैटेलाइट और जमीनी उपकरणों से ली गई ताजा तस्वीरों से साफ है कि 1993 के बाद से समुद्र के जलस्तर में हर साल तीन मिलीमीटर की बढ़ोतरी हो रही है जो पिछली शताब्दी के औसत से अधिक है। हिमालय, ग्रीनलैंड तथा उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर की बर्फ पिघलने से भी धरती पर का तापमान और समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, क्योंकि बर्फ जिस सूर्यप्रकाश को आकाश की तरफ परावर्तित कर देती है, वह उसके पिघल जाने से बनी सूखी जमीन सोखने लगेगी।’ साभार-दैनिक भाष्कर
Sunday, January 16, 2011
जलवायु अस्थिरता से हुआ सभ्यताओं का उत्थान-पतन
खबरों में इतिहास ( भाग-११ ) अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------। १-जलवायु अस्थिरता से हुआ सभ्यताओं का उत्थान-पतन २- दस हजार साल पुरानी 35 किलोमीटर लंबी रॉक पेंटिग |
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जलवायु अस्थिरता से हुआ सभ्यताओं का उत्थान-पतन
पेड़ों के तने पर बने रिंग या वलयों पर हुए एक विस्तृत शोध से पता चलता है कि पुरानी सभ्यताओं के उत्थान और पतन का संबंध जलवायु में हुए अचानक होने वाले परिवर्तनों से हो सकता है। इस दल ने शोध के लिए पिछले 25 सौ सालों की क़रीब नौ हज़ार लकड़ियों की कलाकृतियों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि गर्मियों के जो मौसम गर्म के अलावा बारिश वाले रहे उन दिनों समाज में समृद्धि आई और जिन दिनों जलवायु में अस्थिरता रही उन दिनों राजनीतिक हलचलें तेज़ रहीं। शोध के नतीजे 'जनरल साइंस' की वेबसाइट पर प्रकाशित किए गए हैं। इस शोध के सहलेखक उल्फ़ बंटजेन ने इस बेबसाइट से कहा, "अगर हम पिछले 25 सौ सालों के इतिहास पर नज़र डालें तो ऐसे उदाहरण हैं जब जलवायु परिवर्तन ने मानव इतिहास को प्रभावित किया है।"बंटजेन स्विस फ़ेडरल रिसर्च इंस्टिट्यूट में मौसम परिवर्तन से जुड़े वैज्ञानिक हैं।
छाल का इतिहास
इस शोध के लिए दल ने एक ऐसी प्रणाली का उपयोग किया जिससे कि खुदाई के दौरान मिली चीज़ों के समय काल का पता चल सकता है। प्रकाशित शोध पत्र में कहा गया है, "पुरातत्वविदों ने मध्य यूरोप के ओक या बलूत के पेड़ों के तनों पर बने वलयों की एक अनुक्रमणिका तैयार की जो लगभग 12 हज़ार साल के इतिहास की जानकारी देती थी. फिर इसके आधार पर उन्होंने कलाकृतियों, पुराने घरों और फ़र्नीचरों के समय काल के बारे में अध्ययन किया।"
पुरातत्वविदों ने जो सूची तैयार की है उसके अनुसार वर्तमान में मौजूद और पुराने समय के ओक पेड़ों के वलयों के अध्ययन से यह पता चल सकता था कि गर्मियों के दौरान और सूखे के दौरान उनकी प्रवृत्ति कैसी होती है।
शोध टीम ने अध्ययन किया कि पिछली दो सदियों में मौसम ने पेड़ों के तनों के वलयों के विकास में कैसी भूमिका निभाई। उन्होंने पाया कि जब अच्छा मौसम होता है, जिसमें पानी और पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं, पेड़ों में बनने वाले वलयों की चौड़ाई बहुत अधिक होती है। लेकिन जब मौसम अनुकूल नहीं होता तो वलय की चौड़ाई तुलनात्मक रुप से कम होती है।इसके बाद वैज्ञानिकों ने कलाकृतियों में मौजूद छालों के अध्ययन के आधार पर पुराने मौसमों के बारे में एक अनुमान लगाया।
जब उन्होंने 25 सौ सालों के मौसम की सूची तैयार कर ली तो फिर उन्होंने उन वर्षों में समाज में समृद्धि के बारे में अनुमान लगाना शुरु किया। टीम का कहना है कि जिस समय गर्मियों में तापमान ठीक था और बारिश हो रही थी रोमन साम्राज्य और मध्ययुगीन काल में समृद्धि थी. लेकिन 250 से 600 ईस्वी सदी का समय, जब मौसम में तेज़ी से परिवर्तन हो रहा था उसी समय रोमन साम्राज्य का पतन हुआ और विस्थापन की प्रक्रिया तेज़ हुई।शोध में कहा गया है तीसरी सदी में सूखे मौसम के संकेत मिलते हैं और यही समय पश्चिमी रोमन साम्राज्य के लिए संकट का समय माना जाता है। इसी समय गॉल के कई प्रांतों में हमले हुए, राजनीतिक हलचल रही और आर्थिक अस्थिरता रही। डॉक्टर बंटजेन का कहना है कि उन्हें इन आंकड़ों की जानकारी थी लेकिन उन्होंने इसका नए तरह से अध्ययन किया और इसका संबंध जलवायु से जोड़कर देखा। ( बीबीसी से साभार-http://www.bbc.co.uk/hindi/science/2011/01/110115_trees_civilisation_vv.shtml )
दस हजार साल पुरानी 35 किलोमीटर लंबी रॉक पेंटिग
विभाजन के बाद सियालकोट से बूंदी में आकर बस गए ओमप्रकाश शर्मा कुक्की ने 35 किलोमीटर लंबी रॉक पेंटिग खोजने का दावा किया है। उन्होंने बताया कि खोज किए गए शैल चित्र करीब दस हजार साल पुराने हैं तथा मिसोलेथिक युग से संबंध रखते हैं।
परचून की दुकान करने वाले और पुरा अन्वेषण खोज को शौकिया तौर पर अपनाने वाले ओम प्रकाश उर्फ कुक्की ने बूंदी जिले के गरहडा क्षेत्र के बांकी गांव से भीलवाड़ा जिले के मॉडल तक फैली करीब 35 किलोमीटर लंबी रॉक पेंटिंग खोजने का दावा किया है। उन्होंने कहा कि 35 किलोमीटर लंबी राक पेंटिग्स पर करीब बतीस रंगीन रॉक पेंटिग बनी हुई है। उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत में बने शैल चित्र नक्काशी कर उकेरे गये हैं, जबकि बूंदी के गरहडा क्षेत्र में पाए गए शैल चित्र रंगों से बनाए गए हैं। कुक्की बताते हैं कि यहां बने शैल चित्रों में हल्का लाल, गहरा लाल, सफेद, काला, पीला व गहरे हरे रंग का विलक्षण प्रयोग किया गया है। इन चित्रों में मानव आकृतियां, पशु जीवन, बाघ, औजार आदि की आकृतियां है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) भोपाल के परियोजना समन्वयक डा. नारायण व्यास ने कहा कि कुक्की की यह खोज बेमिसाल है। लेकिन यह विश्व की सबसे लंबी रॉक पेंटिग नहीं है।
कुक्की ने कहा कि बूंदी जिले में की गई पुरा महत्व की खोजों को इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्टस, नई दिल्ली व इंडियन रॉक आर्ट रिसर्च सेंटर नाशिक द्वारा संरक्षित किया गया है। उन्होंंने दावा किया कि बूंदी जिले में उनके द्वारा खोजी गए 78 पुरा अन्वेषक स्थल हैं। कुक्की ने कहा-मैं अपने परिवार का पालन पोषण परचून की दूकान से कर रहा हूं। साथ ही समय निकालकर पुरा महत्व की खोज में जुटा रहता हूं। इसके बावजूद सरकार ने आज तक मुझे कोई आर्थिक मदद देना मुनासिब नहीं समझा। सरकार पर्यटन को बढ़ावा देने और न जाने कितनी मदों में लोगों की मदद कर रही है। मगर सरकार की नजर मेरी ओर नहीं जा रही है। जबकि मैंने बूंदी जिले की पुरासामग्री को खोज निकाला है जो दबी हुई थी।
कुक्की का कहना है कि राजस्थान सरकार विशेष रूप से पर्यटन विभाग बूंदी से भीलवाड़ा जिले तक फैली 35 किलोमीटर लंबी रॉक पेंटिग को प्रचारित करे तो पहले से ही पर्यटन मानचित्र पर उभरे बूंदी की तस्वीर बदल सकती है। उन्होंने कहा कि उन्होंने पर्यटन मंत्री बीना काक को राक पेंटिग समेत बूंदी जिले की पुरा सामग्री को संजोने और पर्यटकों को दिखाने के लिए प्रस्ताव भेजे हैं लेकिन अभी तक जवाब नहीं मिला है। इधर, जयपुर में राजस्थान पर्यटन विकास निगम सूत्रों ने कुक्की के बूंदी पर्यटन विकास को लेकर भेजे गए किसी प्रस्ताव पर अनभिज्ञता जताई है। (बूंदी, 12 जनवरी (भाषा)।
Sunday, January 2, 2011
'आदि मानव शाकाहारी भी थे'
खबरों में इतिहास ( भाग-१० ) अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------। १-चार लाख साल पुराना मानव दांत मिला २-'आदि मानव शाकाहारी भी थे' ३-200 साल पुरानी एक सुरंग ४-24 सौ साल पुराना 'सूप' मिला |
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चार लाख साल पुराना मानव दांत मिला
http://thatshindi.oneindia.in/news/2010/12/29/20101229240847.html
तेल अवीव विश्वविद्यालय ने अपनी वेबसाइट पर मंगलवार को लिखा कि इजराइली शहर रोश हाइन में एक गुफा में चार लाख साल पुराना मानव दांत मिला है। यह प्राचीन आधुनिक मानव का सबसे पुराना प्रमाण है।समाचार एजेंसी डीपीए के मुताबिक वेबसाइट पर इसके साथ ही लिखा गया कि अब तक मानव के जिस समय काल से अस्तित्व में होने की बात मानी जा रही थी, यह मानव उससे दोगुना अधिक समय पहले जीवित था। यह दांत 2000 में गुफा में मिला था। इससे पहले आधुनिक मानव का सबसे प्राचीन अवशेष अफ्रीका में मिला था, जो दो लाख साल पुराना था। इसके कारण शोधार्थी यह मान रहे थे कि मानव कि उत्पत्ति अफ्रीका से हुई थी।सीटी स्कैन और एक्स रे से पता चलता है कि ये दांत बिल्कुल आधुनिक मानवों जैसे हैं और इजरायल के ही दो अलग जगहों पर पाए गए दांत से मेल खाते हैं। इजरायल के दो अलग जगहों पर पाए गए दांत एक लाख साल पुराने हैं।
गुफा में काम कर रहे शोधार्थियों के मुताबिक इस खोज से वह धारणा बदल जाएगी कि मानव की उत्पत्ति अफ्रीका में हुई थी।गुफा की खोज करने वाले तेल अवीव विश्वविद्यालय के अवि गाफेर और रैन बरकाई ने कहा कि चीन और स्पेन में मिले मानव अवशेष और कंकाल से हालांकि मानव की अफ्रीका में उत्पत्ति की अवधारणा कमजोर पड़ी थी, लेकिन यह खोज उससे भी महत्वपूर्ण है।
'आदि मानव शाकाहारी भी थे'
http://thatshindi.oneindia.in/news/2010/12/28/neanderthalvegskj.html
निएंडरथल मानव सब्ज़ियां भी खाया करते थेआदि मानवों पर किए गए एक नए शोध के अनुसार आदिमानव (निएंडरथल) सब्ज़ियां पकाते थे और खाया करते थे.अमरीका में शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्हें निएंडरथल मानवों के दांतों में पके हुए पौधों के अंश मिले हैं.यह पहला शोध है जिसमें इस बात की पुष्टि होती है कि आदिमानव अपने भोजन के लिए सिर्फ़ मांस पर ही निर्भर नहीं रहते थे बल्कि उनके भोजन की आदतें कहीं बेहतर थीं.
यह शोध प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडेमी ऑफ साइंसेज़ में छपा है.आम तौर पर लोगों में आदि मानवों के बारे में ये धारणा रही है कि वो मांसभक्षी थे और इस बारे में कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी मिल चुके हैं. अब उनकी हड्डियों की रासायनिक जांच के बाद मालूम चलता है कि वो सब्ज़ियां कम खाते थे या बिल्कुल ही नहीं खाते थे.इसी आधार पर कुछ लोगों का ये मानना था कि मांस भक्षण के कारण ही हिमकाल के दौरान बड़े जानवरों की तरह ये मानव भी बच नहीं पाए. हालांकि अब दुनिया भर में निएंडरथल मानवों के अवशेषों की जांच रासायनिक जांच से मिले परिणामों को झुठलाता है. शोधकर्ताओं का कहना है कि इन मानवों के दांतों की जांच के दौरान उसमें सब्ज़ियों के कुछ अंश मिले हैं जिसमें कुछ तो पके हुए हैं.निएंडरथल मानवों के अवशेष जहां कहीं भी मिले हैं वहां पौधे भी मिलते रहे हैं लेकिन इस बात का प्रमाण नहीं था कि ये मानव वाकई सब्ज़ियां खाते थे. जॉर्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एलिसन ब्रुक्स ने बीबीसी न्यूज़ से कहा, ‘‘ हमें निएंडरथल साइट्स पर पौधे तो मिले हैं लेकिन ये नहीं पता था कि वो वाकई सब्ज़ियां खाते थे या नहीं. हां लेकिन अब तो लग रहा है कि उनके दांतों में सब्ज़ियों के अंश मिले हैं तो कह सकते हैं कि वो शाकाहारी भी थे.’’
200 साल पुरानी एक सुरंग
http://hindi.webdunia.com/samayik/deutschewelle/dwnews/1010/20/1101020084_1.htm
भारत की आर्थिक राजधानी में 200 साल पुरानी एक सुरंग मिली है। इतिहासकारों का कहना है कि निर्माण कार्य के दौरान अनायास इस सुरंग के मिलने से मिट्टी में दबे पड़े अतीत से जुड़े तमाम महत्वपूर्ण नए तथ्यों का पता चलेगा। मुंबई में डाक विभाग की ओर से की जा रही खुदाई के दौरान मजदूरों को इस सुरंग का पता चला। यह सुरंग दक्षिण मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल इलाके में स्थित डाक घर के नीचे मिली है।डाक विभाग की निदेशक आभा सिंह ने बताया कि इस जगह पर अब तक झंडारोहण होता था और किसी को इसके ठीक नीचे मौजूद सुरंग के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी। मजदूरों ने जब पामस की नाली को साफ करने के लिए मामूली सी खुदाई की तो कुछ सीढ़ियाँ दिखाई दीं। इनको साफ करने पर देखा गया कि सीढ़ियाँ सुरंग की ओर जा रही थी। इससे पहले बीते शुक्रवार को एक अखबार के रिपोर्टर ने भी सीढ़ियों की तरफ डाक विभाग का ध्यान आकर्षित किया था। उसकी सूचना पर ही मजदूरों को कूड़ा करकट से अटी पड़ी सीढ़ियों की तरफ खुदाई करने को कहा गया। मोटी दीवारों और पिलर के सहारे बनाई गई इस सुरंग में नीचे एक बड़ा सा हॉल पाया गया जिसके फर्श पर बिखरी पड़ी गंदगी के बीच कुछ अनजान पौधे मिले हैं जिनपर सुंदर फूल भी पाए गए। इसके अलावा भी तमाम पुरानी चीजें बिखरी पाई गई। मुंबई में पुरातत्व अधिकारी दिनेश अफजालपुरकर ने बताया कि इस सुरंग का दौरा कर इसके पुरातात्विक महत्व का पता लगाया जाएगा। इसके बाद ही इसके संरक्षण और उपयोग संबंधी भविष्य की रूपरेखा तय की जाएगी।
24 सौ साल पुराना 'सूप' मिला
http://thatshindi.oneindia.in/news/2010/12/14/chinasoupap.html
माना जा रहा है कि ये चीन का पहला 'बोन सूप' है.चीन की राष्ट्रीय मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक देश के भूगर्भशास्त्रियों को एक ऐसा कटोरा हाथ लगा है जिसमें मौजूद सूप 24 सौ साल पुराना हो सकता है.ये सूप कांसे के एक बर्तन में सुरक्षित रखा था और इस बर्तन का ढक्कन ऊपर से बंद था.बंद बर्तन के अंदर सूप का तरल पदार्थ और उसमें हड्डियाँ सुरक्षित पाई गई हैं.
ये बर्तन एक खुदाई के दौरान चीन के प्राचीन शहर सियान में मिला.चीन के मशहूर मिट्टी के लड़ाके यानि 'टेराकोटा वारियर्स' इसी शहर के हैं.अब इस तरल पदार्थ की जाँच ये पता करने के लिए हो रही है कि ये बना किससे था और इसमें किन चीज़ों का इस्तेमाल हुआ था.इस खुदाई के दौरान बिना किसी गंध वाला एक और तरल पदार्थ मिला जिसके बारे में माना जा रहा है कि वो एक किस्म की शराब, वाइन है।
स्थानीय एयरपोर्ट तक जाने के लिए एक उपमार्ग बनाने के उद्देश्य से की जा रही खुदाई के दौरान ये बर्तन एक कब्र की खुदाई के समय मिले.चीन की मीडिया में कहा गया है कि ये चीन के इतिहास में पहले 'बोन सूप' की खोज है.चीन की मीडिया के मुताबिक ये खोज 475-221 ईसा पूर्व के मध्य देश में रह रहे लोगों के बारे में, उनकी सभ्यता और खान-पान वगैरह के बारे में पता लगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
वैज्ञानिकों ने कहा है कि जिस कब्र से सूप और उसका मर्त्तबान मिला है, वो या तो किसी ज़मींदार या फिर निम्न स्तर के किसी सैनिक अधिकारी का रहा होगा.सियान 11 सौ साल से ज़्यादा लंबे समय तक चीन की राजधानी रहा थाचीन के पहले बादशाह, किन शिहुआंग की कब्रगाह के स्थल पर 1974 में इसी शहर में चीन की मशहूर 'टेराकोटा आर्मी' मिली थी। 221 ईसा पूर्व में किन शिहुआंग ने चीन के एकीकरण का नेतृत्त्व किया था उन्होंने 210 ईसा पूर्व तक चीन पर शासन किया था।
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