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Wednesday, December 29, 2010

भारत में चार हजार साल पुराना है कुष्ठ रोग

बालथाल में खुदाई में मिली खोपड़ी। तीर के चिन्ह से इसके कुष्ठ रोग प्रभावित हिस्से को दिखाया गया है। ( फोटो-साभार पीएलओएस )

मानवजाति की महाविपत्ति समझा जाने वाला कुष्ठ रोग ( कोढ़ ) दुनिया के पुराने रोगों में से एक है। आज लाइलाज नहीं है कुष्ठ रोग मगर अभी भी कुष्ठ रोगियों को जाने-अनजाने तिरस्कार झेलना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के मुताबिक पूरी दुनिया में 2007 तक 212000 से 250000 के बीच लोग कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। यह रोग मुख्यत: हाथों और पैरों से शुरू होता है। मवाद के साथ गल रहे हाथ पैर इतने विकृत व घिनौने हो जाते हैं कि इनके आसपास भी कोई फटकना नहीं चाहता।
चार हजार साल पुराना कुष्ठ रोग भारत या अफ्रीका से पूरी दुनिया में फैला
अभी पिछले साल ही फरीदाबाद में अपने मित्र सुरेंद्र प्रसाद सिंह के साथ फरीदाबाद में घूम रहा था तो सुरेंद्र ने कुष्ठ रोगियों की एक बस्ती दिखाई। हम बस्ती के बगल से ही गुजर रहे थे। इस बस्ती को हरियाणा सरकार ने बसाया है। इनहें पूरे शहर में घूमकर भीख मांगने की इजाजत भी नहीं है। जनि किसी को इन्हें कुछ दान करना होता है वे खुद इस बस्ती तक आते हैं और वस्त्र, खाद्यान्न इन्हें दे जाते हैं। यानी बेहतर व्यवस्था हो तो भी इस संक्रमण वाले रोग से ग्रसित लोगों को समाज से बहिष्कृत तो होना ही पड़ता है। अगर फरीदाबाद जैसी व्वस्था में न हों तो हीन जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है। हमारे मिथकीय इतिहास में भी कोढ़ के कारण तमाम लोगों के महाविपत्ति में पड़ने की घटनाएं भरी पड़ी हैं। बचपन हमें भी ऐसी कहानियां या किस्से सुनने को मिलीं कि फलां राजा पाप के कारण कोढ़ी हो गया और राजपाट छोड़कर जंगल में चला गया। पुन: किसी दिव्य प्रताप से ठीक होकर लौटा। यानी कोढ़ को मिथकीय कहानियों में व्यक्ति का पाप बताया गया तो भला ऐसे पापी को समाज में रहने की इजाजत कैसे मिलती? बहरहाल इस पर कभी अलग से चर्चा करूंगा। फिलहाल यहां मैं कोढ़ के सामाजिक प्रभाव पर चर्चा नहीं करने जा रहा हूं बल्कि आपको यह बताने वाला हूं कि कितना पुराना और मूलत: कहां से पूरी दुनिया में फैला है यह कोढ़ रोग। यानी कुष्ठ रोग के इतिहास की जानकारी के साथ इसके नवीनतम शोध की भी जानकारी दूंगा।

भारत या अफ्रीका से पूरी दुनिया में फैला कुष्ठ रोग

इतिसकारों और रोगों पर शोध करने वाले चिकित्साविज्ञानियों की नई खोजों से पता चला है कि भारत में चार हजार साल पुराना है कुष्ठ रोग। पब्लिक लाइब्रेरी साइंस में छपी रिपोर्ट में यह हवाला दिया गया है। इनका दावा है कि भारत में राजस्थान के प्राचीन स्थल बालथाल में खुदाई के दौरान मिली मानव खोपड़ी में कुष्ठ रोग के साक्ष्य मिला हैं। यह खोपड़ी 2000 ईसापूर्व की बताई गई है। यही साक्ष्य ही कुष्ठ रोग को ४००० साल पुराना साबित करता है। इसके साथ ही इस अवधारणा को भी बल मिला है कि भारत या दक्षिण अफ्रीका से एशिया या यूरोप में यह रोग तब फैला होगा जब भारत विजय अभियान के बाद सिकन्दर वापस लौटा होगा। बून के अप्पलचियन स्टेट यूनिवसिर्टी को मानवविज्ञानी ग्वेन राबिंस का मानना है कि बालथाल के साक्ष्य के आधार पर इस रोग के यहां होने का काल ३७०० से १८०० ईसापूर्व माना जा सकता है। हालांकि यह तय कर पाना मुश्किल है कि जिस खोपड़ी में कुष्ठ रोग के साक्ष्य मिले हैं, वह कितना पहले कोढ़ग्रस्त हुआ होगा। इस नवीन खोज ने अबतक की उस अवधारणा पर भी विराम लगा दिया है जिसमें मिस्र और थाइलैंड से मिले साक्ष्य में इसकी तारीख इतिहासकारों ने ३०० से ४०० ईसापूर्व निर्धारित की थी। कुल मिलाकर एशियाई साक्ष्य अब तक इसे 600 ईसापूर्व बताते थे। हालाकि लेप्रेई नामक बैकटीरिया से फैलने वाले कोढ़ रोग के सर्वप्रथम अस्तित्व में आने और पूरी दुनिया में फैलने पर शोध जारी है।

प्राचीन ग्रंथों में कुष्ठ रोग के विवरण

सभ्यता के इतिहास के तानेबाने के साथ जुड़ी है कोढ़ रोग के भी इतिहास की कहानी। कभी लाइलाज समझा जाने वाला यह रोग अब असाध्य रोग नहीं रहा। और न ही कुष्ठ रोगीअछूत रहे। तमाम सामाजिक सेवा संस्थाओं ने कुष्ठ सेवा केंद्र खोलकर और उनकी सेवा में रहकर दिखाया और साबित किया कि कुष्ठ रोगियों को लोगों की मदद की जरूरत है। हालांकि इलाज के स्तर पर ही जागरूकता पैदा हुई है। अभी भी बांग्लादेश,ब्राजील, चीन, कांगो, इथियोपिया, भारत, इंडोनेशिया, मोजाम्बिक , म्यानमार, नेपाल, नाइजीरिया , फिलीपींस और नेपाल के ग्रामीण इलाकों में करीब सवा दो लाख लोग ( आंकड़ा २००७ का है) इस रोग के शिकार हैं।

अभी तक यह भी ठीक से नहीं समझा जा सका है कि इसकी उत्पत्ति कहां और कैसे हुई और कब और कैसे यह पूरी प्राचीन दुनिया में फैला। सबसे प्राचीन लिखित संदर्भ १५५० ईसापूर्व के मिस्र के एबर्स पैपिरस में मिलता है। इसके अलावा प्रथम शताब्दी ईसापूर्व में संस्कृत में लिखे गए अथर्वेद के श्लोक और बाइबिल के नए और पुराने टेस्टामेंट में भी जिक्र है। हालांकि यह साक्ष्य कापी विवादास्पद है। भारत के छठी शताब्दी ईसापूर्व के महत्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थ सुश्रुत संहिता और कौटिल्य के अर्थशास्त्र, चौथी शताब्दी के ग्रीक लेखक नैनजियानोस के विवरण, तीसरी शताब्दी के चानी ग्रन्थ शूईहूदी क्विन जिया और प्रथम शताब्दी के सेल्सस व प्लिनी द एल्डर के रोमन विवरण में कुष्ठ रोग के विवरण हैं। इन सब साक्ष्यों के आधार पर इतिहासकारों ने यह प्रतिपादित किया कि कुष्ठ रोग चौथी शताब्दी ईसापूर्व में भारतीय उपमहाद्वीप में था और यहां से यूरोप में फैला। यह रोग तब तक सामान्य रोग था। मध्यकाल तक यूरोप में आम लोगों के लिए यह महामारी तब बना जब सातवीं शताब्दी में फ्रांस में बेहद गंदी झुग्गी-बस्तियां बढ़ने लगीं। ब्रिटेन, डेनमार्क, इटली, चेक गणराज्य और हंगरी से मध्य यूरोपीय काल के प्राप्त नरकंकालों में खोजे गए कुष्ठ रोग के साक्ष्य ही इसके खतरनाक बीमारी बन जाने की सूचना देते हैं।

तेजी से शहरीकरण ने प्राचीन विश्व में इस रोग के विस्तार में और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अफ्रीका और एशिया में मिले पुरातात्विक साक्ष्य से तो यह पता चलता है कि यहां यह रोग प्राचीन काल से ही मौजूद था लेकिन मानव नरकंकाल में कुष्ठ रोग के पुख्ता साक्ष्य द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व के रोमन काल, प्रथम शताब्दी ईसापूर्व में उजबेकिस्तान, न्यूबिया में पांचवीं शताब्दी ईसापूर्व, थाइलैंड सिरसा में ३०० ईसापूर्व में मिले हैं। सबसे हाल का साक्ष्य पश्चिम एशिया के इजरायल का प्रथम शताब्दी ईसवी का है। इसके पहले का दक्षिण एशिया से कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।

प्राचीन भारत की लोककथाएं और कुष्ठ रोग


भगवान सूर्य से जुड़ी एक लोकथा में कुष्ठ रोग और भगवान सूर्य की पूजा से इस रोग से मुक्ति की एक लोक कथा का विवरण मिलता है। इस हिंदू मिथकीय कथा में बताया गया है कि करीब ३०० साल पहले एक विद्वान हिंदू कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गया। उसने इस रोग से मुक्ति के लिए भगवान सूर्य की आराधना की। भगवान सूर्य से प्रेरणा पाकर उसने संस्कृत में सात श्लोक लिखे। इस श्लोक को सूर्याष्टक के नाम से जाना गया। इस सूर्याष्टक के आखिरी श्लोक तक जाप पूरा होते ही वह पूरी तरह स्वस्थ होगया।

महाभारत काल की एक कथा भी इसी संदर्भ में मिलती है। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शम्ब भी कुष्ठ रोग से पीड़ित थे, जो भगवान सूर्य की आराधना से स्वस्थ हुए। शम्ब ने कृष्ण की पत्नी के स्नानागार में प्रवेश की धृष्टता की थी जिसके कारण कृष्ण ने उन्हें कोढ़ी होने का श्राप दिया था।

आज भी भारत के करोड़ों हिंदुओं की मान्यता है कि सूर्यमंदिर में भगवान सूर्य की पूजा करने से कुष्ठ, दूसरे चर्म रोगों, अंधत्व व बांझपन से मुक्ति मिल जाती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में सर्वाधिक प्रचलित छठपूजा भी इसी अवधारणा का प्रमाण है। मुख्यतः रोगों से मुक्ति व संतान की प्राप्ति के लिए छठ पूजा की जाती है। छठ पूजा भी सूर्यपूजा ही है।

तमिलनाडु का चमत्कारिक मंदिर

भारत में तमिलनाडु ही एक ऐसा राज्य है जहां सभी नवग्रहों के लिए एक मंदिर हैं। तंजौर जिले में स्थित इस जगह को नवग्रहस्थलम कहा जाता है। वहीं पर एक स्थल है- वैथीस्वरन कोइल। यह मंगल ग्रह का मंदिर है। यह चिदम्बरम से २४ किलोमीटर दूर है। वैथास्वरन का अर्थ उस भगवान से है जो लोगों के रोग हर लेते हैं। यह श्री वैद्यनाथस्वामी देवता लोगों को सभी रोगों से छुटकारा दिलाते हैं।

इस मंदिर के संदर्भ में मिथकीय बातें यह है कि मंगल को एक श्राप के कारण कुष्ठ रोग हो गया था। भगवान वैद्यनाथ स्वामी ने मंगल को रोगमुक्त किया। इस मंदिर के पास एक तालाब है। कहा जाता है कि इस तालाब में डुबकी लगाने से सभी तरह के रोगों से छुटकारा मिल जाता है। भगवान राम ने जटायु का अंतिम संस्कार यहीं किया था। यहीं पर भगवान मुरुगन यानी आयुर्वेदिक औषधियों के देवता का मंदिर है और यहां धन्वंतरि की भी पूजा की जाती है। सप्तऋषियों ने भी यहां पूजा की थी। यहां प्रसाद में भस्म और चंदन का लेप दिया जाता है। अवधारणा है कि इससे सभी रोगों से छुटकारा मिल जाता है।

भारत के प्राचीन ग्रंथों में कुष्ठ का उल्लेख
       इस रोग के उदभव और प्रागैतिहासिक अवस्था में फैलने के बारे में ठीक से पता नहीं है। प्रागैतिहासिक काल को इतिहासकारों ने ब्रह्मांड की शुरुआत बताया है। कोढ़ रोग के बारें में यहां प्रागैतिहास का अर्थ मानव के कोढ़ रोग से ग्रसित होने की प्राचीनता से है। इस संदर्भ में अब तक का सबसे प्राचीन लिखित संदर्भ भारत के संस्कृत ग्रन्थ अथर्वेद में मिलता है। इसके एक श्लोक में कोढ़ रोग और उसके उपचार का विवरण है। इसमें कहा गया है कि--
............कोढ़ रोग, जो कि शरीर, हड्डियों और त्वचा को प्रभावित करता है, को मैंने अपने मंत्र से ठीक कर लिया है।.......... इतना ही नहीं सस्कृत में कुष्ठ शब्द और उपचार के निमित्त एक पौधे का उल्लेख है। यह पौधा कुष्ठ और राजयक्ष्मा ( टीबी ) के उपचार में प्रयुक्त होता है। अर्थात उपचार के बारें में भी सबसे प्राचीन लिखित संदर्भ भी अथर्वेद में ही मिलता है।

    अथर्ववेद संहिता हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च धर्मग्रन्थ वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात मन्त्र भाग है । इसमें देवताओं की स्तुति के साथ जादू, चमत्कार, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। भूगोल, खगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ, आयुर्वेद, गंभीर से गंभीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गुह्य तत्त्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्यचिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मृत्यु को दूर करने के उपाय, प्रजनन-विज्ञान अदि सैकड़ों लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है। आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का महत्व अत्यन्त सराहनीय है। अथर्ववेद में शान्ति-पुष्टि तथा अभिचारिक दोनों तरह के अनुष्ठन वर्णित हैं। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। सामान्यतः अथर्ववेद में ६००० मन्त्र होने का मिलता है परन्तु किसी-किसी में ५९८७ या ५९७७ मन्त्र ही मिलते हैं।
२००० ईसापूर्व के अथर्ववेद और १५०० ईसापूर्व की मनुस्मृति में विभिन्न चर्म रोगों का उल्लेख मिलता है। जिन्हें कुष्ठ रोग का नाम दिया गया है। मनुसंहिता में तो ऐसे लोगों से संपर्क भी निषिद्ध बताया गया है जो कुष्ठ रोग पीड़ित हैं। इतना ही नहीं इसमें यहां तक कहा गया है कि कि कुष्ठ रोग पूर्वजन्म का पाप होता है। यद्यपि कुष्ठ उन्मूलन अभियान के तहत आज लोगों में जागरूकता लाकर और कुष्ठ को साध्य रोग बताकर पूर्वजन्म के पाप की अवधारणा को खत्म करने की पूरी कोशिश की गई है मगर भारत के धर्मभीरु लोग अभी भी पाप की अवधारणा से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाए हैं।

६०० ईसापूर्व की सुश्रुत संहिता में चालमोगरा वृक्ष के तेल से कुष्ठ रोग के इलाज की बात कही गई है। इस संदर्भ में वर्णित मिथकीय कथा में कहा गया है कि एक कोढ़ग्रस्त राजा को चालमोगरा के बीज खाने की हिदायत दी गई थी। कोढ़ग्रस्त होने के बाद राजा होते हुए समाज से बहिष्कृत होने की स्थिति झेलनी पड़ती थी क्यों कि यह लगभग असाध्य होता था।

दक्षिण भारत के शक्तिशाली चोल राजा राजराज प्रथम ( १००३ ईसवी ) के भारत के शानदार मंदिरों में से एक वृहदेश्वर शिवमंदिर बनवाने के पीछे भी कुष्ठ रोग से मुक्त होने की कहानी है। राजराज प्रथम कुष्ठ रोग से पीड़ित थे और इलाज करके परेशान हो गए थे। तभी उनके धर्मगुरू ने सलाह दी कि वे नर्मदा नदी से शिवलिंग लाएं और मंदिर का निर्माण कराएं। उन्होंने ऐसा ही किया औक रोग से मुक्ति भी मिली।
संदर्भवश यहां यह वर्णित करना समीचीन होगा कि संगठित तौरपर प्राचीन काल के बाद कुष्ठ रोग से लड़ने के क्या प्रयास किए गए। भारत में १८७२ पहली बार इस रोग की जनगणना कराई गई जिसमें प्रति १० हजार की आबादी पर ५४ कोढ़ग्रस्त लोग पाए गए। तब कोढ़ग्रस्त लोगों ती तादाद १०८००० ( यानी एक लाख आठ हजार ) दर्ज की गई। १८७३ में इस रोग के वाहक बैक्टीरिया एम लेप्रेई ( माइक्रोबैक्ट्रीयम लेप्रेई ) की पहचान कर ली गई। १८९८ में लेप्रोसी एक्ट लाया गया और इसके बाद से भारत के आजाद होने के बाद इस रोग के नियंत्रण के अथक प्रयास किए गए हैं। १९५५ में आजाद भारत में राष्ट्रीय कुष्ठ नियंत्रण प्रोग्राम चलाया गया। जब १९८३ में इसके उपचार की माकूल दवा खोज ली गई तो सरकार ने इस अभियान का नाम बदलकर राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन प्रोग्राम कर दिया। इसे १९७७ से लागू करके बड़े पैमाने चलाया गया। नतीजे में २००५ तक आते-आते प्रति १० हजार की जनसंख्या पर सिर्फ एक व्यक्ति कुष्ठ पीड़ित पाया गया। जबकि १९८१ में कुष्ठ रोगियों की तादाद ४० लाख थी।


कुष्ठ रोग की प्राचीनता का नया साक्ष्य

इतिहासकारों को अब नया साक्ष्य मिला है। यह २००० ईसापूर्व का है। लगभग ४००० साल पुराने नरकंकाल में कोढ़ रोग के चिन्ह मिले हैं। यह नरकंकाल भारत में राजस्थान के उदयपुर शहर से ४० किलोमीटर उत्तरपूर्व बालथाल पुरातात्विक स्थल से खुदाई में मिला है। यह पत्थर की एक शिला से ढका हुआ था। और ऊपर से मिट्टी डाली गई थी। जमीन के जिस स्तर से यह नरकंकाल मिला है वह चाल्कोलिथिक काल यानी ३७०० से १८०० ईसापूर्व के बीच का है। इस युग के लोग बालथाल में पहाड़ों के कंदराओं या मिट्टी के ईटों से बने आश्रयस्थल ( घरों ) में रहा करते थे। चाकी पर मिट्टी के बर्तनों का निर्माण भी कर लेते थे। जौ व गेहूं की खेती करते थे। इस युग में तांबे के धारदार हथियार, चाकू, कुल्हाड़ी, भाले का प्रयोग करते थे। यहां १९९४ से १९९७ के बीच की गई खुदाई में दो कब्रें मिलीं हैं। इसके बाद १९९९ से २००२ तक चली खुदाई में तीन कब्रें मिली हैं। जिस नरकंकाल से इतिहासकारों ने कोढ़ रोग की भारत में प्राचीनता निर्धारित की है वह १९९७ की खुदाई में मिली कब्र से ताल्लुक रखता है। जमीन के इस १३वें स्तर की रेडियों कार्बन तिथि करीब ३६२० से ३१०० ईसापूर्व के बीच अनुमानित की गई है। नरकंकाल की रेडियो कार्बन तिथि और बाकी साक्ष्यों के आधार पर यह अवधारणा कायम की गई है कि इसे २५०० से २००० ईसापूर्व के बीच दफनाया गया होगा। बालथाल की पूरी पुरातात्विक खुदाई में जो ४५ रेडियो कार्बन तिथियां निर्धारित की गई हैं उनमें से ३० चाल्कोलिथिक काल की हैं। और इनकी रेडियो कार्बन तिथि ३७०० से १८०० ईसापूर्व के बीच की है। इनमें से खुदाई किए गए गड्ढों में से एफ-४ की तिथि २००० ईसापूर्व हासिल हुई है। इसी तरह डी-४ के स्तर-७ की तिथि २५५० ईसापूर्व हासिल हुई है। इसी आधार पर इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि वह नरकंकाल, जिससे कोढ़ रोग का साक्ष्य मिला है, २५०० से २००० ईसापूर्व के मध्य दफनाया गया होगा। इतिहासकारों ने अपने शोधपत्र में विस्तार से बताया है कि किस अंग के कोढ़ग्रस्त होने के अवशेष मिले हैं। ( पूरा शोधपत्र पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )।

     अब जो भारत में कोढ़ रोग का २००० ईसापूर्व का नवीनतम पुरातात्विक साक्ष्य मिला है, उससे इस रोग के पूरी दुनिया में फैलने के प्रतिपादित मत को बल मिलता है। पूरी दुनिया में कोढ़ रोग के जीवाणु एम लेप्रेई के समानान्तर तौर पर दो प्रकार मिले हैं। एशिया में पहले से मौजूद टाइप-१ और पूर्वी अफ्रीका में टाइप-२ में से टाइप-२ के एशिया में ज्यादा नहीं फैलने व पूर्वी अफ्रीका में ज्यादा फैलने के साक्ष्य के आधार पर यह अवधारणा बनी कि टाइप-२ का कोढ़ रोग ४०,००० ईसापूर्व के पहले पूर्वी अफ्रीका में पनपा होगा। इसके बाद टाइप-१ के तौर पर एशिया और टाइप-३ के तौर पर यूरोप में फैला होगा। यही टाइप-३ ही पश्चिम अफ्रीका और अमेरिका में व्याप्त हुआ। दूसरा प्रतिपादित मत यह है कि टाइप-२ का विकास टाइप-१ से एशिया में काफी बाद में हुआ और इसके बाद यह पूरे एशिया, अफ्रीका और यूरोप में फैला।
    एक और अवधारणा है कि इतिहास के कालक्रमानुसार आखिरी १०००० साल के पृथ्वी के इतिहास, जिसे कि एज आफ मैन यानी मानव युग कहा जाता है, में इस रोग के फैलने की परिकल्पना कोढ़ रोग के जीवाणु के स्वाभविक इतिहास से ज्यादा मेल खाती है। इसमें तीनों किस्म का कोढ़ रोग मानव के संपर्क में आता है और इसके बाद पूर्वी अफ्रीका में शहरीकरण के विकास के साथ फैलता है। तदुपरान्त एक देश से दूसरे देश में व्यापारिक संपर्कों के कारण फैला। खासतौर से सिंधु सभ्यता और मध्य एशिया के व्यापारिक संपर्कों से फैला। ताम्रपाषाणकालीन युग में मध्य व पश्चिम एशिया के बाच राजनैतिक व आर्थिक संपर्कों के बाद कुष्ठ रोग फैला। मुख्यतः सपर्क के ये चार क्षेत्र थे। सिंधु घाटी में मेलुहा, मध्य एशिया में तूरान, मेसोपोटामिया और अरब प्रायद्वीप में मांगन। मेसोपोटामिया से प्राप्त साक्ष्यों के मुताबिक मेलुहा से व्यापारिक संपर्क २९०० - २३७३ ईसापूर्व से हम्मूराबी (१७९२-१७५० ईसापूर्व ) तक होता रहा। हम्मूराबी मेसोपोटामिया सभ्यता का महान शासक था। इस काल में विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक मेसोपोटामिया सभ्यता चरमोत्कर्ष पर थी। इसी तरह मेसोपोटामिया और मिस्र के बाच भी व्यापारिक संपर्क ३०५० से २६८६ ईसापूर्व के मद्य था। यह सब दोनों के पुरातात्विक स्थलों से मिले समान साक्ष्यों से प्रमाणित होता है। हालांकि ४०० ईसापूर्व यूरोप में मौजूद कोढ़ रोग मध्यकाल के बाद ही शहरी क्षेत्रों में तब फैला होगा जब इन शहरों के मध्य व्यापारिक संपर्क तेज हुआ होगा। अगर १०००० हजार पहले हिमयुग के लगभग आखिरी दौर में अगर अफ्रीका में कोढ़ रोग फैला तो काफी बाद यानी होलोसीन युग तक एशिया में फैलकर लोगों के गंभीर बीमारी बन चुका होगा। यानी तीसरी सहस्राब्दी में एशिया व अफ्रीका में एम लेप्रेई किस्म का कोढ़ रोग तब फैला जब दोनों के बीच वृहद व्यापारिक संपर्क बन चुका था। अब आगे उस भौगोलिक स्थान की पहचान की जानी चाहिए जहां से इसके होने का सबसे प्राचीनतम साक्ष्य उपलब्ध होता है। यानी सिंधु घाटी सभ्यता के खोजे गए स्थलों से मिले नरकंकालों की डीएनए जांच और रोगपरीक्षण की जानी चाहिए। इसमें भी २००० ईसापूर्व के सिंधु सभ्यता के शहरी केंद्रों को इस संदर्भ में खास ध्यान में रखना होगा। मालूम हो कि इस शोधपत्र में इसी सिंधु सभ्यता के एक उत्खनन स्थल बालथाल से मिले नरकंकाल में कोढ़ रोग के साक्ष्य ने इस रोग की प्राचीनता २००० ईसापूर्व तक पहुंचा दी है। इतिहासकारों की राय में यह आखिरी साक्ष्य नहीं है इसलिए इसमें आगे भी निरंतर खोज की जरूरत है।
साभार- यह लेख कोढ़ रोग पर छपे एक शोधपत्र का सारसंक्षेप है। यह लेख पब्लिक लाइब्रेरी आप साइंस में छपा है। इस शोधकार्य में शामिल इतिहासकारों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया गया है। छपे लेख का लिंक भी इसी के साथ ही है।

Ancient Skeletal Evidence for Leprosy in India (2000 B.C.)
http://www.plosone.org/article/info%3Adoi%2F10.1371%2Fjournal.pone.0005669

इतिहासकारों का विवरण
Gwen Robbins ( Department of Anthropology, Appalachian State University, Boone, North Carolina, United States of America) ,V M.ushrif Tripathy (Department of Anthropology, Deccan College, Deemed University, Pune, India), V. N. Misra (Indian Society for Prehistoric and Quaternary Studies, Deccan College, Deemed University, Pune, India ), R. K. Mohanty, V. S. Shinde (Department of Anthropology, Deccan College, Deemed University, Pune, India ), Kelsey M. Gray ( Department of Anthropology, Appalachian State University, Boone, North Carolina, United States of America) , Malcolm D. Schug (Department of Biology, University of North Carolina Greensboro, Greensboro, North Carolina, United States of America)


इस शोधपत्र की संदर्भ सूची निम्नवत है।-----

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Tuesday, October 12, 2010

हजारों साल पुराने 20 मंदिरों के मिले अवशेष

खबरों में इतिहास ( भाग-९ )
अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१-रायसेन में हजारों साल पुराने मंदिर के मिले अवशेष
२-आदि मानव खाते थे बच्चों का मांस
३-उल्कापिंडों की बारिश से खत्म हुए डायनासोर
४-अर्जेंटीना में 1,300 साल पुराने बर्तन मिले
५-1200 साल पुराने चाँदी के सिक्के

रायसेन में हजारों साल पुराने 20 मंदिरों के मिले अवशेष

मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में हजारों साल पुराने विशाल मंदिर समूह का पता चला है। अब तक इस समूह के 20 मंदिरों के भग्नावशेष मिल चुके हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने इन मंदिरों को फिर से उनके मूल स्वरूप में लाने का बीड़ा उठाया है। संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने इन मंदिरों के भग्नावशेषों का जायजा लेने के बाद बताया कि ये ध्वस्त मंदिर भोजपुर के प्रसिद्ध शिव मंदिर के पास आशापुरी गांव में मिले हैं। शिव मंदिर गुजरात के ऐतिहासिक सोमनाथ मंदिर के काल का है। सोमनाथ मंदिर की तरह भोजपुर के ऐतिहासिक शिवमंदिर का भी जीर्णोद्धार किया गया है। इस मंदिर से पांच किलोमीटर दूर मिले 20 प्राचीन मंदिरों के टुकड़ों को बेशकीमती पुरा संपदा बताते शर्मा ने कहा कि इनके मिलने से पुरातत्व के इतिहास में स्वर्णिम अध्याय जुड़ गया है। इनमें से भूतनाथ मंदिर के भग्न अवशेषों को जोड़कर मंदिर को पुन: मूल स्वरूप में लाने का काम शुरू कर दिया गया है।

   आशापुरी में मिले खंडहरों से साफ हुआ है कि भूतनाथ मंदिर का निर्माण हजारों बरस पहले विशाल जलाशय के तट पर किया गया था। प्रतिहार और परमार राजाओं ने यह जलाशय आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक बनवाया था। जलाशय पर विशाल घाट था जिसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। भूतनाथ मंदिर परमार कालीन स्थापत्य कला का भूमिज शैली में निर्मित उत्कृष्ट मंदिर था। इस पूर्वाभिमुख मंदिर के अवशेषों से पता चला है कि भूतनाथ मंदिर भी भोजपुर के शिव मंदिर की तरह विशाल था। आशापुरी गांव में भूतनाथ मंदिर के अलावा आशापुरी मंदिर, बिलोटा मंदिर, सतमसिया मंदिर आदि मिले हैं। इन मंदिरों में ब्रह्मा, नृवराह, नृसिंह, विष्णु, सूर्य, गणेश, उमा-महेश्वर, नटराज, सदाशिव, कृष्ण, महिषासुर मर्दिनी, नायिकाओं और अप्सराओं की प्रतिमाएं मिली हैं।

आशापुरी क्षेत्र मध्यभारत के मध्यकालीन वटेसर, खजुराहो, कदवाहा आदि की तरह अहम शिल्पकला केंद्र के रूप में विकसित हुआ था। पुरातत्वविद् इसकी शैलीगत विशिष्टताओं का अध्ययन कर रहे हैं। ध्वस्त मंदिरों के पुनर्निर्माण के लिए चार हजार चार सौ शिलाखंडों को भूगर्भ से निकालकर सुरक्षित रखा गया है। शिल्पखंडों को सहेजने का काम भी किया जा रहा है। तीन महीने की मेहनत से भूतनाथ मंदिर काफी हद तक अपने प्राचीन भव्य स्वरूप में खड़ा होने लगा है। प्राचीन मंदिरों में कोई उत्तराभिमुख है तो कोई दक्षिणाभिमुख। कोई पूर्वाभिमुख है तो कोई पश्चिमाभिमुख। कई मंदिरों के आठवीं, नवीं और दसवीं शताब्दी में बनने का अनुमान लगाया गया है। कुछ मंदिर पंचांग शैली में निर्मित हैं। कई प्रतिमाएं शिल्प कला के लिहाज से बेजोड़ मानी गई हैं। ( जनसत्ता ब्यूरो )।


आदि मानव खाते थे बच्चों का मांस

यूरोप में करीब आठ लाख वर्ष पूर्व आदि मानव अपने प्रतिदिन के भोजन के रूप में मानव मांस, खासकर बच्चों के मांस का भक्षण करते थे। स्पेन में मिले हडि्डयों के जीवाश्म के अध्ययन से यह खुलासा हुआ है। वैज्ञानिकों को ग्रान डोलिना की गुफा से बिजोन, हिरण, जंगली भेड़ और अन्य जीवों की हडि्डयों के साथ ही बच्चों और किशोरों के भी कटे हुए अवशेष मिले हैं। सूत्रों ने खबर दी है कि अनुसंधानकताओं को इन हडि्डयों पर कटने या अन्य चोट के निशान मिले हैं जो प्रस्तर के हथियारों के वार से पड़े होंगे। अनुसंधानकर्ताओं का मानना है कि हडि्डयों के बीच की मज्जा को निकालने का प्रसास किया गया है और इस बात के भी प्रमाण है कि उनके मस्तिष्क को भी खाया गया। वैज्ञानिकों का कहना है कि आदि मानव ने अपनी पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने एवं अपने शत्रु पड़ोसियों से निबटने के लिए दूसरे लोगों की हत्या की।

उल्कापिंडों की वर्षा में खत्म हुए डायनासोर

डायनासोर दुनिया से कैसे गायब हुए, इसको लेकर पिछले तीन दशकों से बहस जारी है। अब एक नए अध्ययन में कहा गया है कि साढे़ छह करोड़ साल पहले उल्कापिंड की बारिश में डायनासोर का अंत हो गया। खगोलीय पिंडों की बारिश हजारों साल चली । वैज्ञानिकों ने इससे पहले मैक्सिको की खाड़ी में एक विशाल गड्ढा पाया था जो प्रागैतिहासिक काल में एक उल्का पिंड के टकराने से बना था। डेली टेलीग्राफ में प्रकाशित खबर के मुताबिक, वैज्ञानिकों ने अब ऐसा ही एक और विशाल गड्ढा यूक्रेन में पाया है जो मैक्सिको की खाड़ी वाले गड्ढे से हजारों साल पुराना है और इससे इस बात की संभावना को बल मिला है कि उल्का पिंडो की बारिश में डायनासोरों का अंत हो गया। यूक्रेन के बोत्शि गड्डे की खोज 2002 में हुई थी। आबरदीन विश्वविद्यालय के प्रो. डेविड जोली की अगुवाई में वैज्ञानिकों के दल ने यूक्रेन के उस गड्ढे में एक और गड्ढा पाया जिसके बारे में उनका विश्वास है कि यह किसी और उल्का पिंड के टकराने से बने और उन दोनों उल्का पिंडों के बीच कई साल का अंतर था ।

अर्जेंटीना में 1,300 साल पुराने बर्तन मिले

अर्जेंटीना में एक घर से खुदाई के दौरान लगभग 1,300 साल पुराने बर्तन मिले हैं। समाचार एजेंसी ईएफई के मुताबिक माना जा रहा है कि ये बर्तन जूजू प्रांत के मूल निवासियों से संबंधित हैं। बर्तन फ्रांसो और गोंजालो को उस समय मिले जब वह अपने घर के निर्माण के लिए खुदाई का काम करवा रहे थे। उनके चाचा राबटरे काराजाना ने बताया, "40 सेंटीमीटर खुदाई करने के बाद बर्तन का टुकड़ा बरामद किया गया और बाद में धीरे-धीरे आगे की खुदाई की गई जिसके बाद ये बर्तन बरामद किए गए। हमने पुरातत्तवविदें से संपर्क किया।"

तिलकारा पुरातत्व संस्थान के वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि बर्तनों के अलावा कोई अन्य मूल्यवान वस्तु भी है अथवा नहीं। माना जाता है कि सैकड़ों वर्ष पहले ‘ओमागुआसा इंडियन्स’ समुदाय के इस इलाके में रहते थे।



1200 साल पुराने चाँदी के सिक्के

जर्मनी के अंकलाम शहर में 1200 साल पुराने चाँदी के सिक्के मिले हैं। इन पर अरबी भाषा में खुदाई है, जिससे साबित होता है कि प्राचीन काल में जर्मनी भी अंतरराष्ट्रीय व्यापार में शामिल रहा है। कुछ सिक्कों पर शानदार नक्काशी है। गैर पेशेवर पुरातत्वशास्त्री पीटर डाखनर ने इन सिक्कों को बेहतरीन डिजाइन वाला बताया। उन्होंने कुछ स्वयंसेवियों और ग्रीफ्सवाल्ड यूनिवर्सिटी के साथ मिल कर खुदाई का काम किया। जर्मनी के अंकलाम शहर के पास मेटल डिटेक्टर की मदद से खुदाई में 82 चाँदी के सिक्के मिले हैं। यहाँ चाँदी का बाजूबंद और चाँदी की कुछ सिल्लियाँ भी मिली हैं। ये सभी चीजें 20 से 25 मीटर के दायरे में पाई गईं।

पुरातत्वशास्त्री मिषाएल शाइरेन का कहना है, 'इस जमाने के सिक्के बहुत दुर्लभ हैं। इतनी बड़ी संख्या में उनका यहाँ पाया जाना बड़ी बात है।' सबसे पुराना सिक्का सन 610 का बताया जा रहा है, जबकि यहाँ पाया गया सबसे नया सिक्का 820 एडी का हो सकता है। ग्रीफ्सवाल्ड यूनिवर्सिटी के इतिहासकार फ्रेड रुखोएफ्ट ने कहा, 'बाल्टिक सागर के किनारे अरबी भाषा के अक्षर खुदे हुए सिक्के मिलने से साबित होता है कि यह इलाका 1200 साल से अंतरराष्ट्रीय कारोबार के रूट में रहा है।' ये सिक्के मौजूदा वक्त के ईरान, इराक, अफगानिस्तान या उत्तरी अफ्रीका में ढाले गए हो सकते हैं। समझा जाता है कि काले सागर के कारोबारी रास्ते से होते हुए वे वोल्गा नदी से गुजरकर बाल्टिक सागर के तट तक पहुँचे। सिक्के स्लाविच बस्तियों के पास से मिले हैं। यूरोपीय और एशियाई नस्ल के मिले जुले लोगों की बस्ती स्लाविच बस्ती कही जाती थी। इतिहासकारों का मत है कि स्लाविच और वीकिंग लोगों के बीच कारोबार हुआ होगा। यूरोप के स्कैनडिनेवयाई इलाकों में वाइकिंग लोग रहते थे। यहाँ सिक्के और चाँदी के दूसरे सामान मिले हैं जिनका वजन करीब 200 ग्राम है। उनका मूल्य तो खत्म हो गया होगा, लेकिन चाँदी होने की वजह से उनका महत्व बना रहा होगा। इतिहासकारों का मानना है कि इतनी चाँदी से चार बैल या एक गुलाम खरीदा जा सकता था।

Tuesday, September 28, 2010

अयोध्याः इंतजार एक सार्थक फैसले का





इतिहास गवाह है कि लगभग ढाई हजार वर्षों से विदेशी आक्रांता भारत को लूटते और तोड़ते-फोड़ते रहे उनमें से बाबर भी एक था। जिसने भारत वर्ष में आतंक पैदा किया एवं उसे लूटा तथा तोडा। उक्त विवाद के समाधान हेतु देश के अनेक प्रधानमंत्रियों ने प्रयत्न भी किये लेकिन उनमें सत्य स्वीकार करने की क्षमता न होने के कारण समाधान पर न पहुँच सके। पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने तो व्यवस्थित वार्ताओं के द्वारा वास्तव में समाधान का प्रयास करना चाहा परन्तु कुछ मजहबी हठधर्मियों के असहयोग के चलते नतीजे पर न पहुँच सके। 1936 के बाद से उक्त स्थल पर नमाज अता नही की गयी जिसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। शरियत के अनुसार भी उक्त स्थल मस्जिद नहीं है लेकिन तथाकथित सेकुलरवादियों ने हमेशा उक्त स्थल पर मंदिर होने के साक्ष्य हिन्दुओं से ही मांगे। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है आने वाली पीढ़ी को हमारा धर्मनिरपेक्ष वर्ग क्या देना चाहता है। झूठा इतिहास या भ्रम की स्थिति झूठ में प्रत्यारोपित राष्ट्र या बिखरी संस्कृति। समाधान को लटकाता एवं विकल्प की तलाश में भटकता उक्त वर्ग ही मुख्य जिम्मेदार है उस 6 दिसम्बर, 1992 की दुर्भाग्यशाली घटना का जिसने कभी भी जिम्मेदारी से निर्णायक बात कहने का साहस नही किया  या उन्हें इन्तजार है दूसरे भूचाल का जब लाशों के ढेर पर बैठ वे सत्ता का बंदरबाँट कर सकें।

बहरहाल अब इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने सारी सुनवाई पूरी करके साठ साल पुराने अयोध्या मामले पर फैसला देने की स्थिति में आ गई है। ३० अक्तूबर को आने वाला है फैसला। इस बार ज्यादातर पक्ष कोर्ट का फैसला मानने को तैयार हैं। हालांकि इसमें एक आशंका यह भी जताई जा रही है कि नाखुश होने या राजनैतिक कारणों से यह मामला फिर सुप्रीम कोर्ट में जाकर लटक सकता है ?

इस राजनैतिक खींचतान में ही आया था 6 दिसम्बर, 1992 एक ऐसा दुर्भाग्यशाली दिन। इस दिन धार्मिक विद्वेष का ऐसा गुबार उठा संख्या बल के समक्ष अयोध्या के विवादित धार्मिक स्थल को समाप्त होना पड़ा। विवादित ढॉचा ध्वस्त हो गया परन्तु अभी भी यक्ष प्रश्न है ऐसी स्थिति आयी कैसे । सर्वे भवन्तु सुखिनः को आधार मानने वाला, सर्व धर्म समभाव की सुखद कल्पना लिए वसुधैव कुटुम्बकम् से गौरव की अनुभूति करने वाला, अंहिंसा परमो धर्मा का मूल वैचारिक सहिष्णु कहलाने वाला हिन्दू समाज अचानक आक्रामक कैसे हो गया। गंगा-जमुनी संस्कृति का निर्मल जल रक्त रंजित किन परिस्थितियों में हुआ। आपसी एकता के माध्यम से गुलामी की जंजीर तोड़ने वाले एक दूसरे से क्यों भय खाने लगे, विचारणीय है।

विवाद सुलझाने की बहुत हुई हैं कोशिशें

  यदि हम अपने इतिहास पर गौर करे तो पायेगें कि 1847 से 1857 के बीच नवाब वाजिद अली शाह ने अयोध्या के उक्त विवादित स्थल के झगड़े को समाप्त करने के लिए प्रयास किए। उन्होंने तीन सदस्यीय समिति का गठन किया जिसमें एक हिन्दू एक मुसलमान तथा एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी का सदस्य निष्पक्ष की भूमिका में था। जिस समिति ने उक्त स्थल के बारें में बताया ‘‘मीर बाकी ने किसी भवन की तोड़कर इसे बनवाया था क्योंकि इस पर साफ तौर पर लिखा है यह फरिश्तों के अवतरण का स्थल है। इसमें भवन का मलबा भी लगा है।’’ 1857 के समय अमीर अली तथा बहादुर शाह जफ़र ने फरमान जारी किया जिसके अनुसार ‘‘हिन्दुओं के खुदा रामचन्द्रजी की पैदाइश की जगह जो बाबारी मस्जिद बनी है वह हिन्दुओं को बाखुशी सौप दी जाये क्योंकि हिन्दु मुसलमान ना इन्तफाकी की सबसे बड़ी जड़ यही है’’ सुल्तानपुर गजेटियर के पृष्ठ 36 पर कर्नल मार्टिन ने लिखा है, अयोध्या की बाबरी मस्जिद को हिन्दुओं को (मुसलमानों द्वारा) वापस देने की खबर से हममें (अंग्रेजो में) घबराहट फैल गयी और यह लगने लगा कि हिन्दुस्तान से अंग्रेज खत्म हो जायेंगे। 1857 की क्रान्ति असफल होने के बाद अंग्रेजो ने 18 मार्च, 1858 में कुबेर टीला में इमली के पेड़ पर अमीर अली तथा बाबा राम चरण दास को हजारो हिन्दुओं तथा मुसलमानो के समाने फाँसी दे दी। इस सन्दर्भ में मार्टिन लिखते हैं, जिसके बाद फैजाबाद में बलवाइयों की कमर टूट गयी और तमाम फैजाबाद जिले में हमारा रौब गालिब हो गया। इस प्रकार राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद समाप्त होते होते रह गया। कुछ राष्ट्रवादी मुस्लिम संगठनों ने भी सितम्बर 1992 में विवादित स्थल को 10 किमी दूर ले जाने का प्रस्ताव रखा परन्तु धर्मनिरपेक्ष कांग्रेसी सरकार तक इनकी आवाज नहीं पहुँची। मुस्लिम समाज के साहित्यकारों ने भी उक्त विवादित स्थल को भगवान राम का जन्म स्थान माना। अबुल फलज 1598 ईं में अकबारनामा अइना-ए-अकबरी में उस स्थान को राम का निवास स्थान बताया। 1856 में लखनऊ से प्रकाशित पुस्तक हदीका-ए-शहदा के पृष्ठ 4-7 के अनुसार मथुरा-बनारस-अवध की मस्जिदें, मंदिरों को तोड़कर बनायी गयी थी। 1878 ई.में हाजी मो. हसन ने अपनी पुस्तक जिया-ए-अख्तर के पृष्ठ 38-39 में राजा रामचन्द्र के महल सराय और सीता की रसोई को तुड़वाना वर्णित है। 1885 ई. में मौलवी अब्दुल करीम की पुस्तक गुलगस्ते हालात-ए-अयोध्या अवध के अनुसार भी जन्म स्थान और सीता रसोई भवनों को तोड़कर उस स्थान पर बाबर बादशाह ने एक मस्जिद बनवायी। 1909 के अल्लामा मो. जनमुलगानीखॉ रामपुरी की पुस्तक तारीखे-ए-अवध के अनुसार भी बाबर ने जन्म स्थान को मिस्मार करके मस्जिद बनवायी।

1785 ई. में आस्ट्रेलिया के जेसुइट पादरी जोसेफ टीफेनथेलर जो 1766 से 1771 तक अवध में रहे जिनकी पुस्तक के पृष्ठ 252-254 जिसका अनुवाद श्री शेर सिंह आईएएस ने किया जिसमें भी एक किले जिसे राम कोट कहते थे गिरा तीन गुम्मदों वाली मस्जिद बनवाने का जिक्र है। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ इण्डिया-सर्जन जनरल एडवर्ड वेलफेयर (1858) के अनुसार भी हिन्दुओं के कम से कम तीन पवित्र स्थलों पर मस्जिद बनवाने को जिक्र है जिसमें राम जन्म भूमि शामिल है। 1880 ई. की फैजाबाद समझौता रिपोर्ट में भी बाबर द्वारा 1528 में राम जन्म भूमि पर जिसे तोड़ मस्जिद का निर्माण बताया गया। 1881 की फैजाबाद के इम्पीरियल गजट में भी मुसलमानों द्वारा तीन मस्जिदें बनवाये जाने का जिक्र है। जो जन्म स्थान, त्रेता ठाकुर तथा स्वर्ग द्वार है। इसी प्रकार फाइजाबाद (फैजाबाद) गजेटियर ग्रन्थ एचआर नेविल के अनुसार (1928 ई.) भी 1525 में बाबर का 7 दिन अयोध्या में रूक कर प्रचीन मंदिरों को ध्वस्त करने एवं मस्जिद के निर्माण का जिक्र है। जो पृष्ठ 155 पर अंकित है। 1902 के बाराबंकी जिला गजेटियर में एक रिपोर्ट एच आर नेविल ने भी जन्म स्थान का जिक्र एवं विवाद की बात स्वीकार की।

इसी प्रकार मुस्लिम शायरों तथा विद्वानों ने विवादित स्थल पर राम मंदिर की बात स्वीकारी है। अबुल फजल मुगल काल के एक लेखक थे। जिन्होने आइना-ए-अकबरी में अवध (अयोध्या) को महापुरूष राम की निवास स्थान बताया। ‘‘औरंगजेब आलमगीर’’ में स्पष्ट (पृष्ठ संख्या 623-630) रूप से विस्तार को दिया गया काफिरों (हिन्दुओं) ने इस स्थान (राम जन्म भूमि) की मुक्ति के लिए 30 बार आक्रमण किये 1664 ई0 में ऐसे ही किये गये आक्रमण में दस हजार हिन्दू हताहत हुए। सहीफा-ए-नसैर बहादुर शाही (1700-1800) यह पुस्तक औरंगजेब की पौत्री तथा बहादुर शाह जफ़र की पुत्री बंगारू अमातुज्ज-जोहर ने लिखी है। जिसके अनुसार (पृष्ठ 4-7) मथुरा बनारस और अवध (अयोध्या) में काफिरों (हिन्दुओ) के इबादतगाह है जिन्हें वे गुनहगार व काफिर कन्हैया की पैदाइशखाना, सीता की रसोई व हनुमान की यादगार मानते हैं जिसके बारे में हिन्दू मानते है कि यह रामचन्द्र ने लंका पर फतह हासिल करने के बाद बनवाया था। इस्लाम की ताकत के आगे यह सब नस्तनाबूद कर दिया गया और इन सब मुकामों पर मस्जिद तामीर कर दी गयी। बादशाहों को चाहिए कि वे मजिस्दों को जुमे की नवाज से महरूम न रखे, बल्कि यह लाजमी कर दिया जाय कि वहॉ बुता की इबातद न हो शंख की आवाज मुसलमानों के कानों में न पहुँचे।

बाबरी मस्जिद का विवरण पुस्तक के नवे अध्याय में जिसका शीर्षक ‘‘वाजिद अली और उनका अहद’’ में लिखा है। पहले वक्तो के सुल्तानों ने इस्लाम की बेहतरी के लिए और कुफ्र को दबाने के लिए काम किये। इस तरह फैजाबाद और अवध (अयोध्या) को भी कुफ्र से छुटकारा दिलाया गया। अवध में एक बहुत बड़ी इबादतगाह थी और राम के वालिद की राजधानी थी जहॉ एक बड़ा सा मन्दिर बना हुआ था। वहॉ एक मजिस्द तामीर करा दी गयी। जन्म स्थान का मंदिर राम की पैदाइशगाह थी जिसके बराबर में सीता की रसोई थी। सीता राम की बीबी का नाम था। उसी जगह पर बाबर बादशाह ने मूसा आसिकान की निगहबानी में एक सर बुलन्द मस्जिद तामीर करायी। वह मस्जिद आज भी सीता पाक (सीता की रसोई) के नाम से जानी जाती है।

न्यायिक व्यवस्था के अनुसार भी सन् 1885 में फैजाबाद जिले के न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कर्नल चेमियर ने एक नागरिक अपील संख्या 27 में कहा यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मस्जिद का निर्माण हिन्दुओं के एक पवित्र स्थल पर भवन तोड़कर किया गया है चूँकि यह घटना 356 वर्ष पूर्व की है इसलिए अब इसमें कुछ करना कठिन है। अयोध्या के उक्त विवादित स्थल के मालिकाना हक को लेकर पिछले 60 वर्षों से चल रही सुनवाई लखनऊ उच्च न्यायालय में 26 जुलाई को पूरी हो गयी। जिसका कि फैसला मध्य सितम्बर में आने की पूरी सम्भावना है। इस सन्दर्भ में उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एस.यू. खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल तथा न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा की विशेष पीठ ने 27 जुलाई, 2010 को दोनो पक्षों के अधिवक्ताओं को सिविल संहिता प्रक्रिया की धारा-89 के तहत बुलाकर समाधान के विषय पर बातचीत की परन्तु दुर्भाग्यवश सार्थक हल नहीं निकला था।

Thursday, September 9, 2010

रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का इतिहास

 
अयोध्या में सदियों से चले आ रहे राम जन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद के ऐतिहासिक विवाद का वर्तमान अध्याय 22-23 दिसंबर, 1949 को मस्जिद के अंदर मूर्तियां रखने से शुरू हुआ था।   शुरूआती मुद्दा सिर्फ़ ये था कि ये मूर्तियां मस्जिद के आँगन में क़ायम कथित राम चबूतरे पर वापस जाएँ या वहीं उनकी पूजा अर्चना चलती रहे। मगर 60 साल के लंबे सफ़र में अदालत को अब मुख्य रूप से ये तय करना है कि क्या विवादित मस्जिद कोई हिंदू मंदिर तोड़कर बनाई गई थी और क्या विवादित स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है? वैसे तो हाईकोर्ट को दर्जनों वाद बिंदुओं पर फ़ैसला देना है, लेकिन दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा ये है कि क्या विवादित इमारत एक मस्जिद थी, वह कब बनी और क्या उसे बाबर अथवा मीर बाक़ी ने बनवाया? इसी के साथ कुछ तकनीकी या क़ानूनी सवाल भी हैं। मसलन क्या जिन लोगों ने दावे दायर किए हैं , उन्हें इसका हक़ है? क्या उन्होंने उसके लिए ज़रुरी नोटिस वग़ैरह देने की औपचारिकताएँ पूरी की हैं और क्या ये दावे क़ानून के तहत निर्धारित समय सीमा के अंदर दाख़िल किए गए?

अदालत को ये भी तय करना है कि क्या इसी मसले पर क़रीब सवा सौ साल पहले 1885 – 86 में अदालत के ज़रिए दिए गए फ़ैसले अभी लागू हैं। उस समय हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने मस्जिद से सटे राम चबूतरे पर मंदिर बनाने का दावा किया था, जिसे अदालत ने यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि ऐसा होने से वहाँ रोज़- रोज़ सांप्रदायिक झगड़े और ख़ून- ख़राबे का कारण बन जाएगा। अदालत ने ये भी कहा था कि हिंदुओं के ज़रिए पवित्र समझे जाने वाले स्थान पर मस्जिद का निर्माण दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन अब इतिहास में हुई ग़लती को साढ़े तीन सौ साल बाद ठीक नही किया जा सकता।

मामले को हल करने के लिए सरकारों ने अनेकों बार संबंधित पक्षों की बातचीत कराई, लेकिन कोई निष्कर्ष नही निकला। लेकिन बातचीत में मुख्य बिंदु यह बन गया कि क्या मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई अथवा नही।

सुप्रीम कोर्ट ने भी 1994 में इस मामले में अपनी राय देने से इनकार कर दिया कि क्या वहाँ कोई मंदिर तोड़कर कोई मस्जिद बनाई गई थी। गेंद अब हाईकोर्ट के पाले में है। मसला तय करने के लिए अदालत ने ज़ुबानी और दस्तावेज़ी सबूतों के अलावा पुरातात्विक खुदाई करवाकर एक रिपोर्ट भी हासिल कर ली है, जिसमें मुख्य रूप से ये कहा गया है कि विवादित मस्जिद के नीचे खुदाई में मंदिर जैसी एक विशाल इमारत , खम्भे , एक शिव मंदिर और कुछ मूर्तियों के अवशेष मिले हैं।

लेकिन मुस्लिम पक्ष ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की इस रिपोर्ट पर कड़ी आपत्ति करते हुए उसे सबूतों में शामिल न करने की बात कही है, जबकि हिंदू पक्ष इस रिपोर्ट के अपने दावे की पुष्टि में प्रमाण मानते हैंÜ

अदालत में मुख्य रूप से चार मुक़दमे विचाराधीन हैं, तीन हिंदू पक्ष के और एक मुस्लिम पक्ष का. लेकिन वादी प्रतिवादी कुल मिलाकर मुक़दमे में लगभग तीस पक्षकार हैं।

सरकार मुकदमे में पक्षकार है, लेकिन उसकी तरफ़ से कोई अलग से पैरवी नही हो रही है. सरकार की तरफ़ से शुरुआत में सिर्फ़ ये कहा गया था कि वह स्थान 22/ 23 दिसंबर 1949 तक मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है।

इसी दिन मस्जिद में मूर्तियाँ रखने का मुक़दमा भी पुलिस ने अपनी तरफ़ से क़ायम करवाया था, जिसके आधार पर 29 दिसंबर 1949 को मस्जिद कुर्क करके ताला लगा दिया गया था।

इमारत तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम की सुपुर्दगी में दे दी गई और उन्हें ही मूर्तियों की पूजा आदि की ज़िम्मेदारी भी दे दी गई। आरोप हैं कि तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट केके नैयर भीतर- भीतर उन लोगों का साथ दे रहे थे, जिन्होंने मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखीं. इसीलिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के कहने के बावजूद मूर्तियां नहीं हटवाईं। जनवरी 16, 1950 को हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता गोपाल सिंह विशारद ने सिविल कोर्ट में ये अर्ज़ी दायर की कि मूर्तियों को वहाँ से न हटाया जाए और एक राम भक्त के रूप में उन्हें वहाँ पूजा अर्चना की अनुमति दी जाए।

सिविल कोर्ट ने ऐसा ही आदेश पारित कर दिया. अदालत ने पूजा आदि के लिए रिसीवर की व्यवस्था भी बहाल रखी. इस मुक़दमे में सरकार को नोटिस देने की औपचारिकता पूरी नही की गई थी.। संभवतः इसीलिए कुछ दिन बाद ऐसा ही एक और दावा दिगंबर अखाड़ा के राम चंद्र दास परमहंस ने दायर किया, जो उन्होंने बाद में 1989 में वापस ले लिया। फिर 1959 में हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने अदालत में तीसरा मुक़दमा दर्ज करके कहा कि उस स्थान पर सदा से राम जन्म स्थान मंदिर था और वह निर्मोही अखाड़ा की संपत्ति है, इसलिए रिसीवर हटाकर इमारत उसे सौंप दी जाए।

निर्मोही अखाड़ा का तर्क है कि मंदिर को तोड़ने के प्रयास किए गए पर वह सफल नही हुए और हिंदू वहाँ हमेशा पूजा करते रहे. उनका यह भी कहना है कि 1934 के दंगों के बाद मुसलमानों ने डर के मारे वहाँ जाना छोड़ दिया था, और तब से वहाँ नमाज़ नही पढ़ी गई। इसलिए हिंदुओं का दावा पुख़ता हो गया।

दो साल बाद सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमानों ने चौथा मुक़दमा दायर करके कहा कि बादशाह बाबर ने 1528 में यह मस्जिद बनवाई थी और 22/ 23 दिसंबर, 1949 तक यह मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है। इतने लंबे समय तक उनका कब्ज़ा रहा। इसे मस्जिद घोषित कर उन्हें क़ब्जा दिलाया जाए।

मुस्लिम पक्ष का तर्क है कि निर्मोही अखाड़ा ने 1885 के अपने मुक़दमे में केवल राम चबूतरे पर दावा किया था, न कि मस्जिद पर और वह अब उससे पलट नही सकता. मुस्लिम पक्ष का कहना है कि अदालत का तत्कालीन फ़ैसला अब भी बाध्यकारी है।

मुस्लिम पक्ष राम चबूतरे पर हिंदुओं के क़ब्ज़े और दावे को स्वीकार करता है।

मुस्लिम पक्ष तर्क में यह तो मानता है कि वर्तमान अयोध्या वही अयोध्या है जहां राम चन्द्र जी पैदा हुए, लेकिन बाबर ने जहाँ मस्जिद बनवाई, वह ख़ाली जगह थी।

क़रीब चार दशक तक यह विवाद अयोध्या से लखनऊ तक सीमित रहा. लेकिन 1984 में राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति ने विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग से जन्म भूमि का ताला खोलने का ज़बरदस्त अभियान चलाकर इसे राष्ट्रीय मंच पर ला दिया. इस समिति के अध्यक्ष गोरक्ष पीठाधीश्वर हिंदू महासभा नेता महंथ अवैद्य नाथ ने और महामंत्री कांग्रेस नेता तथा उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना इसमें शामिल थे।
एक स्थानीय वकील उमेश चंद्र पाण्डे की दरख़ास्त पर तत्कालीन ज़िला जज फ़ैज़ाबाद के एम पाण्डे ने एक फऱवरी 1986 को विवादित परिसर का ताला खोलने का एकतरफ़ा आदेश पारित कर दिया, जिसकी तीखी प्रतिक्रिया मुस्लिम समुदाय में हुई।

इसी की प्रतिक्रिया में फ़रवरी, 1986 में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन हुआ और मुस्लिम समुदाय ने भी विश्व हिंदू परिषद की तरह आन्दोलन और संघर्ष का रास्ता अख़्तियार किया।

ताला खोलने के आदेश के ख़िलाफ़ मुस्लिम समुदाय की अपील अभी भी कोर्ट में लंबित है।

मामले में एक और मोड 1989 के आम चुनाव से पहले आया जब विश्व हिंदू परिषद के एक नेता और रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने एक जुलाई को भगवान राम के मित्र के रूप में पांचवां दावा फ़ैज़ाबाद की अदालत में दायर किया।

इस दावे में स्वीकार किया गया कि 23 दिसंबर 1949 को राम चबूतरे की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखी गईं. दावा किया गया कि जन्म स्थान और भगवान राम दोनों पूज्य हैं और वही इस संपत्ति के मालिक।

इस मुक़दमे में मुख्य रूप से ज़ोर इस बात पर दिया गया है कि बादशाह बाबर ने एक पुराना राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई। दावे के समर्थन में अनेक इतिहासकारों, सरकारी गज़ेटियर्स और पुरातात्विक साक्ष्यों का हवाला दिया गया है। यह भी कहा गया कि राम जन्म भूमि न्यास इस स्थान पर एक विशाल मंदिर बनाना चाहता है। इस दावे में राम जन्म भूमि न्यास को भी प्रतिवादी बनाया गया। श्री अशोक सिंघल इस न्यास के मुख्य पदाधिकारी हैं।



इस तरह पहली बार विश्व हिंदू परिषद भी परोक्ष रूप से पक्षकार बना।

याद रहे कि राजीव गांधी ने 1989 में अपने चुनाव अभियान का श्रीगणेश फ़ैज़ाबाद में जन सभा कर राम राज्य की स्थापना के नारे के साथ किया था। चुनाव से पहले ही विवादित मस्जिद के सामने क़रीब दो सौ फुट की दूरी पर वीएचपी ने राम मंदिर का शिलान्यास किया, जो कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय की नाराज़गी का कारण बना।



विश्व हिंदू परिषद ने 1989 में शिलान्यास से पूर्व इस मामले में कोर्ट आदेश के पालन की बात कही थी, पर अब वह संसद में कानून बनाकर मामले को हल करने की बात करती है, क्योंकि उसके मुताबिक़ अदालत आस्था के सवाल पर फ़ैसला नही कर सकती। निर्मोही अखाड़ा और विश्व हिंदू परिषद अदालत की लड़ाई में एक दूसरे के विरोधी हैं।



जगदगुरु स्वामी स्वरूपानंद की राम जन्म भूमि पुनरुद्धार समिति भी 1989 में इस मामले में प्रतिवादी बनी। उनका दावा है कि पूरे देश के सनातन हिंदुओं का प्रतिनिधित्व यही संस्था करती है। उसके तर्क निर्मोही अखाड़ा से मिलते जुलते हैं। हिंदुओं की दो और संस्थाएं हिंदू महासभा और आर्य प्रादेशिक सभा भी प्रतिवादी के रूप में इस स्थान पर सदियों से राम मंदिर होने का दावा करती हैं।

इनके अलावा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने कई अन्य हिंदुओं को उनकी निजी हैसियत से भी प्रतिवादी बनाया हैं। इनमे हनुमान गढ़ी के धर्मदास प्रमुख हैं। धर्मदास और निर्मोही अखाड़ा की पुरानी लड़ाई है और वह विश्व हिंदू परिषद के क़रीब हैं।

निर्मोही अखाड़ा ने कई स्थानीय मुसलमानों को प्रतिवादी बनाया है। मुसलमानों की ओर से सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड मुख्य दावेदार है। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने हाशिम अंसारी समेत कई स्थानीय मुसलमानों को अपने साथ पक्षकार बनाया है।

उसके अलावा जमीयत-ए-उलेमा हिंद, शिया वक़्फ़ बोर्ड, आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस संस्थागत रूप से प्रतिवादी हैं। मुस्लिम पक्षों का सबका दावा लगभग एक जैसा है सिवा आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस के जिसने पहले यह कहा था कि अगर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की बात साबित हो जाए तो मुलिम अपना दावा छोड़ देंगे।

शुरू में इस मुक़दमे में कुल 23 प्लाट शामिल थे, जिनका रक़बा बहुत ज़्यादा था. लेकिन छह दिसंबर को विवादित मस्जिद ध्वस्त होने के बाद 1993 में केंद्र सरकार ने मामला हल करने और मंदिर मस्जिद दोनों बनवाने के लिए मस्जिद समेत 70 एकड़ ज़मीन अधिग्रहित कर ली।

ज़मीन अधिग्रहण क़ानून को वैध ठहराते हुए 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट को अब केवल उस स्थान का मालिकाना हक़ तय करना है जहाँ पर विवादित मस्जिद थी।

इस तरह अब मात्र क़रीब आधा बिस्वा ज़मीन का मुकदमा बचा है। जीतने वाले पक्ष को अगल-बग़ल की अधिग्रहीत भूमि ज़रुरत के मुताबिक मिलेगी। कहने को यह आधा बिस्वा ज़मीन का मामला है लेकिन करोड़ों हिंदुओं और मुसलमानों की भावनाएं अब इससे जुड़ गई हैं। अदालत और समूची न्यायपालिका की प्रतिष्ठा इससे जुडी है. अदालत के फ़ैसले को लागू कराना सरकार का दायित्व होगा। इसलिए सब मिलाकर यह मामला पूरे भारतीय समाज और संवैधानिक-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए चुनौती बन गया है। (साभार बीबीसी )

Sunday, August 22, 2010

नालंदा विश्वविद्यालय - बख्तियार खिलजी ने नष्ट किया, अब बख्तियारपुर का नीतिश इसे जिंदा करेगा !

नालंदा में सारिपुत्त स्तूप का अवशेष। नालंदा में प्राचीन विश्वविद्यालय के स्थल पर कुछ बौद्ध भिक्षु ( सभी फोटो विकीपीडिया से साभार ।

  भारत में दुनिया के सबसे पहले विश्वविद्यालय तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना सातवीं शताब्दी ईसापूर्व यानी नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना से करीब १२०० साल पहले ही हो गई थी। यह नालंदा भारत का दूसरा प्राचीन विश्वविद्यालय है, जिसका पुनर्निर्माण किया जा रहा है। विश्वविद्यालय की स्थापना से काफी पहले यानी करीब १००० साल पहले गौतम बुद्ध के समय (५०० ईसापूर्व ) से ही नालंदा प्रमुख गतिविधियों का केंद्र रहा है।


तमाम बौद्ध साक्ष्यों में उल्लेख है कि गौतमबुद्ध नालंदा में कई बार आए थे। वहां एक आम के बगीचे में धम्म के संदर्भ में विचार विमर्श किया था। आखिरी बार गौतमबुद्ध नालंदा आए तो मगध के सारिपुत्त ने बौद्ध धर्म में अपनी आस्था जताई। यह भगवान बुद्ध का दाहिना हाथ और सबसे प्रिय शिष्यों में एक था। केवत्तसुत्त में वर्णित है कि गौतमबुद्ध के समय नालंदा काफी प्रभावशाली व संपन्न इलाका था। शिक्षा का बड़ा केंद्र बनने तक यह घनी आबादी वाला जगह बन गया था। विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद दुनिया के सबसे लोकप्रिय जगहों में शुमार हो गया। बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय में यहां अकाल पड़ने का भी उल्लेख है। गौतमबुद्ध का शिष्य सारिपुत्त तो नालंदा में ही पैदा हुआ और यहीं इसका निधन भी हुआ ( सारिपुत्त के निधन की जगह नालका की पहचान की इतिहासकारो ने नालंदा से की है।

बौद्ध अनुयायी सम्राट अशोक ( २५० ईसापूर्व ) ने तो सारिपुत्त की याद में यहां बौद्ध स्तूप बनवाया था। नालंदा तब भी कितना महत्वपूर्ण केंद्र था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह जैन धर्मावलंबियों के लिए भी महत्वपूर्ण केंद्र था। जैन तीर्थंकर महावीर ने जिस पावापुरी में मोक्ष प्राप्त किया था, वह नालंदा में ही था। नालंदा पाचवीं शताब्दी में आकर शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र में तब्दील हो गया।

  अब पुनः अपनी स्थापना से करीब १५०० साल बाद विश्वप्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के फिर से दुनिया का वृहद शिक्षाकेंद्र बनाने की नींव पड़ गई है। आज राज्यसभा ने इससे संबंधित विधेयक को मंजूरी दे दी। गुप्तराजाओं के उत्तराधिकारी और पराक्रमी शासक कुमारगुप्त ने पांचवीं शताब्दी में इस विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। गुप्तों के बाद इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी। सातवीं शती में जब ह्वेनसांग आया था उस समय १०००० विद्यार्थी और १५१० आचार्य नालंदा विश्वविद्यालय में थे। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। ( प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का ऐतिहासिक विवरण देखने के लिए यहां क्लिक करें।)
   दुनिया के सबसे बड़े बौद्ध शिक्षाकेंद्र के तौर पर पहचान बन चुके इस विश्वविद्यालय को अंततः    मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने ११९९ ईसवी में जलाकर नष्ट कर दिया। अब बख्तियारपुर के नीतिश कुमार, जो अभी बिहार के मुख्यमंत्री हैं, के प्रयासों से फिर नालंदा विश्वविद्यालय अस्तित्व में आ गया है। १६ देशों की मदद से इसके निर्माण की प्रक्रिया शुरू की जाएगी। भारत के नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की देखरेख में इसकी रूपरेखा तय की जा रही है। यह तो तय है कि प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की तरह यह सिर्फ बौद्ध शिक्षा का केंद्र नहीं रहेगा लेकिन इस विश्वविद्यालय के पुनर्जीवित करने के विधेयक को मंजूरी दे चुके राज्यसभा सदस्यों को उम्मीद है कि प्रस्तावित नालंदा विश्वविद्यालय एक बार फिर दुनिया में भारत का नाम उसी तरह रोशन करेगा जैसा कि प्राचीन काल में था। इसी उम्मीद के साथ नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक 2010 को राज्यसभा में सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया है।

    लंबे अंतराल के बाद शनिवार को राज्यसभा में एक सार्थक और सारगर्भित चर्चा देखने को मिली। सभी दलों के सदस्यों ने इस विश्वविद्यालय के तमाम पहलुओं पर अपनी राय जाहिर की। सांसदों के सुझावों में विश्वविद्यालय की इमारत के वास्तुशिल्प से लेकर इसमें पढ़ाए जाने वाले विषय भी शामिल थे। यह विधेयक गत 12 अगस्त को राज्यसभा में पेश किया गया था।

बिहार की राजधानी पटना से करीब 90 किलोमीटर दूर स्थित बड़ा गांव में आज भी नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष मौजूद हैं। राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में बड़ा गांव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं।अपनी ऐतिहासिक प्रमाणों के मुताबिक पांचवीं सदी में दुनिया के तमाम देशों के करीब 10 हजार विद्यार्थी वहां शिक्षा ग्रहण करते थे। कहा जाता है कि तत्कालीन नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय काफी समृद्ध था। उसकी इमारत नौ मंजिल की थी।

    विधेयक के मुताबिक नया नालंदा विश्वविद्यालय परिसर 441 एकड़ में बनेगा। विदेश राज्यमंत्री परनीति कौर के मुताबिक इस विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में इतिहास, व्यापार प्रबंधन, भाषा, पर्यावरण एवं अंतरराष्ट्रीय संबंधों जैसे महत्वपूर्ण विषयों को शामिल किया जाएगा। इसकी इमारत के वास्तुशिल्प का चयन अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के जरिए किया जाएगा।

   वरिष्ठ सदस्य डा. कर्ण सिंह ने चर्चा के दौरान कहा कि इतिहास बताता है कि नालंदा विश्वविद्यालय में चीन, जापान, मंगोलिया, अफगानिस्तान, तिब्बत एवं अन्य देशों से शोधार्थी आते थे। उन्होंने उम्मीद जताई कि नया नालंदा विश्वविद्यालय ऑक्सफर्ड एवं अन्य विदेशी विश्वविद्यालयों से ज्यादा बेहतर होगा। सीताराम येचुरी ने इतिहास का उल्लेख करते हुए कहा कि यह दिलचस्प है कि नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी ने नष्ट करवाया था। आज उसको पुन: जीवित कराने में बख्तियारपुर के ही एक व्यक्ति (मुख्यमंत्री नीतीश कुमार) की महत्वपूर्ण भूमिका है।

बीजेपी के बाल आप्टे का सुझाव था कि इस विश्वविद्यालय को विदेश मंत्रालय के बजाय शिक्षा मंत्रलाय के अधीन होना चाहिए था। बीएसपी के युवा सदस्य प्रमोद कुरील का सुझाव था कि नए विश्वविद्यालय का वास्तुशिल्प पुराने विश्वविद्यालय जैसा ही होना चाहिए। ताकि यह अहसास हो कि ज्ञान का प्राचीन केंद्र पुनर्जीवित हो रहा है।

नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास


नालंदा विश्वविद्यालय

Tuesday, August 17, 2010

एक हजार साल का हुआ तंजौर का बृहदीश्वर मंदिर

खबरों में इतिहास ( भाग-८)
अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१-एक हजार साल का हुआ तंजौर का बृहदीश्वर मंदिर
२-हिम युग के समय जीवित बच सकते थे मानव
३-दस करोड़ साल पहले धरती पर थे बिल्ली जैसे घड़ियाल
४-डेढ़ अरब साल पुराना है जीवन का इतिहास
५-3500 साल पुराना कंगन मिला


तमिलनाडु के ऐतिहासिक तंजौर कस्बे में स्थित चोल राजवंश के समय के एक विशाल मंदिर को एक हजार साल पूरे हो गये हैं और यहां महोत्सव की तैयारी चल रही है। राज्य सरकार विशालकाय बृहदीश्वर मंदिर के एक हजार साल पूरे होने पर अनेक सांस्कृतिक आयोजन करने जा रही है। यह मंदिर अब यूनेस्को के ‘ग्रेट लिविंग चोला मंदिरों’ में शामिल है। 26 सितंबर से शुरू हो रहे दो दिन के उत्सव के दौरान तंजौर सांस्कृतिक केंद्र की तरह बन जाएगा, जहां पूरे शहर भर में कलाकार प्रस्तुति देंगे। इसके अलावा 100 ओडुवर :मंदिर में गायन प्रस्तुति देने वाले: पवित्र पुस्तक तिरुमुरई का पाठ पढ़ेंगे, जिसमें भगवान शिव के लिए तमिल में गीत और मंत्र लिखे हैं। इस मौके पर जानीमानी नृत्यांगना पद्मा सुब्रमण्यम के निर्देशन में एक हजार कलाकार नृत्य प्रस्तुति देंगे। ( भाषा )।

  देश के सबसे विशालकाय मंदिरों में से एक बृहदेश्वर अथवा बृहदीश्वर मन्दिर तमिलनाडु के तंजौर में स्थित एक हिंदू मंदिर है। इसे तमिल भाषा में बृहदीश्वर के नाम से जाना जाता है । इसका निर्माण 1003-1010 ई. के बीच चोल शासक राजाराज चोल एक ने करवाया था । उनके नाम पर इसे राजराजेश्वर मन्दिर का नाम भी दिया जाता है । चोल शासकों ने मंदिर को राजराजेश्वरम नाम दिया था, लेकिन बाद में तंजौर पर चढ़ाई करने वाले मराठा और नायक शासकों ने इसे बृहदीश्वर मंदिर नाम दिया।


 यह मंदिर काफी बड़े परिसर में फैला है तथा तंजौर के किसी भी हिस्से से इसे देखा जा सकता है। इसके अलावा भगवान शिव की सवारी के रूप में मान्य ‘नंदी’ की भी यहां बहुत बड़ी मूर्ति है।मंदिर के गर्भगृह में दुर्लभ पेंटिंग्स हैं, जिनके बारे में कुछ दशक पहले तक जानकारी न के बराबर थी। दरअसल पेंटिंग्स की हालत बहुत खराब होने के कारण इन तक पहुंच पाना मुश्किल था। राज्य सरकार मंदिर के ढांचे में सुधार के लिए 25.19 करोड़ रुपये खर्च करने वाली है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसकी मरम्मत की जिम्मेदारी ली है।

     यह अपने समय के विश्व के विशालतम संरचनाओं में गिना जाता था । इसके तेरह (13) मंजिले भवन (सभी हिंदू अधिस्थापनाओं में मंजिलो की संख्या विषम होती है ।) की ऊंचाई लगभग 66 मीटर है । मंदिर भगवान शिव की आराधना को समर्पित है । यह कला की प्रत्येक शाखा - वास्तुकला, पाषाण व ताम्र में शिल्पांकन, प्रतिमा विज्ञान, चित्रांकन, नृत्य, संगीत, आभूषण एवं उत्कीर्णकला का भंडार है। यह मंदिर उत्कीर्ण संस्कृत व तमिल पुरालेख सुलेखों का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इस मंदिर के निर्माण कला की एक विशेषता यह है कि इसके गुंबद की परछाई पृथ्वी पर नहीं पड़ती। शिखर पर स्वर्णकलश स्थित है। जिस पाषाण पर यह कलश स्थित है, अनुमानत: उसका भार 2200 मन ( 80 टन) है और यह एक ही पाषाण से बना है। मंदिर में स्थापित विशाल, भव्य शिवलिंग को देखने पर उनका वृहदेश्वर नाम सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होता है। मंदिर में प्रवेश करने पर गोपुरम्‌ के भीतर एक चौकोर मंडप है। वहां चबूतरे पर नंदी जी विराजमान हैं। नंदी जी की यह प्रतिमा 6 मीटर लंबी, 2.6 मीटर चौड़ी तथा 3.7 मीटर ऊंची है। भारतवर्ष में एक ही पत्थर से निर्मित नंदी जी की यह दूसरी सर्वाधिक विशाल प्रतिमा है।
डेढ़ अरब साल पुराना है जीवन का इतिहास

पश्चिम अफ्रीका से वैज्ञानिकों ने एक ऐसा जीवाश्म खोजा है जिसने इस बात की संभावना जगाई है कि धरती पर बहुकोशिकीय जीवन का इतिहास कम से कम डेढ़ अरब साल से भी अधिक पुराना है। नए पाए गए जीव की संरचनात्मक जटिलता एक नई बहस छेड़ सकती है। गैबन की पहाड़ियों से पाया गया यह जीव साधारण आँखों से देखा जा सकता है और इसने विकास की कहानी को थोड़ा पीछे धकेल दिया है। अध्ययन को अंजाम देने वाले पोइटियर्स विश्वविद्यालय के अब्दुल रज्जाक अल अल्बानी ने बताया कि काफी समय से माना जाता रहा है कि जटिल बहुकोशिकीय जीवन की उत्पत्ति 60 करोड़ साल से ज्यादा पुरानी नहीं है, लेकिन यह 2.1 अरब साल पुरानी है। इस खोज को प्रतिष्ठित विज्ञान जर्नल ‘नेचर’ में प्रकाशित किया गया है।

अब तक वैज्ञानिकों की यह समझ रही है कि 60 करोड़ साल से पहले दुनिया पर एककोशिकीय जीवाणु का वर्चस्व था, लेकिन बस्तियों में रहने वाले इस नए जीव की खोज से मालूम होता है कि जटिलता की ओर विकास जल्द ही शुरू हो गया था। (भाषा)

दस करोड़ साल पहले धरती पर थे बिल्ली जैसे घड़ियाल

दस करोड़ साल पहले धरती पर डायनोसोरों के साथ बिल्ली जैसे दिखने वाले घड़ियाल रहा करते थे। इस नई खोज ने जीवन के विकास के कुछ अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बिल्ली के आकार के पकासुचुस कपिलीमई के पैर अपेक्षाकृत लंबे होते थे और उनकी नाक कुत्तों जैसी होती थी। इन प्राणियों की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनके दाँत स्तनधारी जीवों की भाँति होते थे, जिससे उन्हें चबाने की शक्ति मिलती थी। तंजानिया के तट से मिले साढ़े करोड़ साल पुराने घड़ियाल के जीवाष्म को उतने ही पुराने साढ़े करोड़ साल पुराने पत्थरों से वैज्ञानिकों ने प्राप्त किया। ओहाइयो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने बताया कि अफ्रीका के मैदान में यह पानी से दूर रहते थे और कीट-पतंगे खाते थे। प्रो. पैट्रिक ओकोन्नोर ने इस खोज की अगुवाई की। उन्होंने बताया क पहली नजर में यह घड़ियाल स्तनधारी जैसा लगता है। उसका सर आपकी हथेली में समा जाएगा। अगर आप उसके दाँत देखेंगे तो आपको लगेगा नहीं कि वह घड़ियाल था। वह विचित्र तरह का सरीसृप था। (भाषा)

हिम युग के समय जीवित बच सकते थे मानव

वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि हिम युग के समय अगर मानव ने अफ्रीका के दक्षिणी तट ‘गार्डन ऑफ ईडन’ में शरण ली होती तो वे शायद जीवित बच सकते थे। वैज्ञानिकों को दक्षिण अफ्रीका के शहर केपटाउन से लगभग 240 मील पूर्व में अलग-अलग गुफाओं से मानव-निर्मित कलाकृतियाँ मिली हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह जगह धरती पर एकमात्र स्थान था जहाँ हिमयुग के दौरान भी जीवन के लिए अनुकूल स्थिति मौजूद थी। वैज्ञानिकों का कहना है कि लगभग 195,000 वर्ष पहले दुनिया का तापमान जब अचानक बदला और हिम युग आया तब इस क्षेत्र में रहने वाले लोग खुद को बचाने में सफल हुए होंगे। ‘डेली मेल’ की खबर के मुताबिक, कुछ वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक मानना है कि हिमयुग के दौरान मानव आबादी घटकर बहुत कम बची होगी और ये वे लोग रहे होंगे, जो इस क्षेत्र में थे। (भाषा)

3500 साल पुराना कंगन मिला

उत्तरी इजरायल में एक पुरातात्विक खुदाई के दौरान कांस्य बार हुआ है कि उत्तरी इजरायल में 3,500 साल पुराने गांव का पता चला है। अभी तक उस क्षेत्र में तेल मेगिड्डो या तेल हजोर जैसे बड़े शहरों के बारे में ही पता चल पाया था। खुदाई कार्य का नेतृत्व करने वाली प्रमुख पुरातत्वविद कारेन कोवेलो परान ने बताया, "खुदाई में मिला कांस्य युगीन कंगन असाधरण तरीके से सुरक्षित है और इस पर नक्काशी है। उसके ऊपरी हिस्से पर एक सींग जैसी संरचना भी है।" उन्होने बताया "उस युग में सींग पवन देवता का प्रतीक था और वह शक्ति, उत्पादकता और कानून के प्रतीक थे।" कॉवेलो परान ने बताया है, "देश के उत्तरी क्षेत्र में खुदाई के दौरान हमें प्राचीन ग्रामीण इलाकों के जीवन की एक पहली झलक मिली है।" उन्होंने बताया, "ऐसा कंगन जो पहनता रहा होगा, वह निश्चित रूप से संपन्न रहा होगा और ग्रामीण परिवेश से संबंध रखता रहा होगा।

Thursday, July 29, 2010

दिल्ली के थानों में कैद हैं जैन, हिंदू और बौद्ध धर्म के देवी-देवताओं की बेशकीमती मूर्तियां


दिल्ली पुलिस के मालखानों में विभिन्न धर्म के देवी.देवताओं की अनेक बेशकीमत मूर्तियां जमा हो गयी हैं और पुलिस इनमें से अधिकतर के मूल स्थान के बारे में जानकारी हासिल नहीं कर पायी है। दूसरी तरफ अदालत के आदेश के बाद कुछ मूर्तियों को इनके मूल स्थान पर पहुंचाया गया है।

सूचना के अधिकार कानून के तहत दाखिल एक अर्जी के जवाब में यह बात सामने आयी है कि दिल्ली पुलिस के विभिन्न थानों के मालखानों में जैन, हिंदू और बौद्ध धर्म के देवी-देवताओं की कई मूर्तियां रखी हुई हैं। इनमें भगवान राम, शिव, गणेश के साथ भगवान महावीर और गौतम बुद्ध की प्रतिमाएं शामिल हैं।

दिल्ली निवासी सलेक चंद जैन द्वारा गत छह अप्रैल को दाखिल आरटीआई अर्जी के जवाब में यह बात सामने आयी कि कुछ मूर्तियों को अदालत के आदेश पर इनके मूल स्थान या मंदिरों में पहुंचा दिया गया है, जबकि कुछ के बारे में दिल्ली पुलिस जानकारी हासिल नहीं कर सकी है। ऐसी मूर्तियों को संबंधित थानों के मालखानों में ही रखा गया है।

मसलन, आईजीआई हवाईअड्डे के उपायुक्त कार्यालय के 14 मई को भेजे जवाब के अनुसार भगवान शंकर और गणेश की एक.एक मूर्ति अदालत में रखे जाने के बाद मालखाने भेज दी गयीं।
हालांकि पूर्वी दिल्ली जिले के जन सूचना अधिकारी द्वारा 15 मई को भेजे गये जवाब के अनुसार अदालत में पेश की गयीं 44 मूर्तियों में से 34 को मूल स्थानों पर पहुंचा दिया गया है। इनमें से शेष 10 मूर्तियां संबंधित थानों के मालखानों में ही रखी गयी हैं।

इसी तरह कमला मार्केट थाने में दो, दक्षिण पूर्वी जिले के ग्रेटर कैलाश थाने में एक, मध्य दिल्ली के थानों के मालखानों में दो, दक्षिण दिल्ली के थानों में छह, सराय रोहिल्ला थाने के अनुसार पांच मूर्तियां हैं, जो अदालत में पेश किये जाने के बाद संबंधित थानों के मालखानों में रखी गयीं। उत्तरी दिल्ली जिले के जन सूचना अधिकारी कार्यालय ने बताया कि पांच मूर्तियों में से अदालत के आदेश के बाद तीन को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सौंप दिया गया और दो को संबंधित थानों के मालखानों में रखा गया। जवाब में यह भी बताया गया कि इन्हें रखने के बारे में अदालत फैसला करती है।

इससे पहले जैन ने गत वर्ष 14 सितंबर को पुलिस के सीपीआईओ के समक्ष आरटीआई अर्जी दाखिल की थी, जिसके जवाब में दिल्ली के विभिन्न थानों के मालखानों में सौ से अधिक बहुमूल्य मूर्तियां होने का पता चला था। इनमें सर्वाधिक मूर्तियां दक्षिण पूर्वी दिल्ली जिले के थानों में रखी बतायी गयीं। इनमें हजरत निजामुद्दीन थाने में 52 और गौतम बुद्ध की एक प्रतिमा कालकाजी थाने में रखी बतायी गयीं।
वहीं 14 मई के जवाब में दक्षिण पूर्वी दिल्ली के ही उपायुक्त कार्यालय ने बताया था कि केवल एक प्रतिमा अदालत के सामने रखी गयी और इसे ग्रेटर कैलाश थाने के मालखाने में रखा गया है। जैन का कहना है 14 अक्तूबर को दिये गये जवाब में जहां उन्हें 53 मूर्तियों के बारे में बताया गया, वहीं दक्षिण पूर्वी दिल्ली पुलिस के ही गत 29 मई के जवाब में बताया गया कि थानों में केवल 46 ही मूर्तियां हैं। अन्य सात के बारे में जानकारी नहीं दी गयी।

जवाब के अनुसार उत्तर पश्चिम दिल्ली में अलग अलग धर्म की 30 मूर्तियां, उत्तरी जिले के थानों में सात मूर्तियां होने की जानकारी दी गयी। पुलिस के संबंधित पीआईओ द्वारा पिछले साल सितंबर.अक्तूबर में भेजे गये जवाबों के अनुसार इन मूर्तियों में अष्टधातु समेत बेशकीमती मूर्तियां भी शामिल हैं और जैन धर्म, हिंदू धर्म की प्रतिमाएं हैं।

बहरहाल पूर्वी दिल्ली जिला पुलिस के 22 अक्तूबर के जवाब के अनुसार 33 मूर्तियां संबंधित मंदिरों में पहुंचा दी गयी थीं। जैन ने पिछले साल और इस साल अप्रैल में दायर अपनी आरटीआई अर्जियों के जवाब मिलने के बाद गत 25 मई को कंद्रीय गृह सचिव, दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष को पत्र लिखकर मांग की है कि पकड़े गये चोरों या तस्करों से जानकारी मिलने के बाद तत्काल जांच के आधार पर इन प्रतिमाओं को मालखानों में जमा कराने के बजाय इनके मूल स्थानों पर पहुंचाने की व्यवस्था की जानी चाहिए या इन धर्मों की संस्थाओं को सौंप देना चाहिए। उन्होंने यह अनुरोध भी किया है कि संबंधित धर्म की भावनाओं का ख्याल रखते हुए मालखानों में मूर्तियों को सम्मान के साथ रखा जाना चाहिए। इसके लिए जैन ने एक समिति बनाने का सुझाव दिया है। (वैभव माहेश्वरी )

कारोबार बन गया है मूर्ति और प्राचीन धरोहरों की चोरी

खबरों में इतिहास ( भाग-८)
अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।

१-मूर्ति और प्राचीन धरोहरों की चोरी
२-2700 साल पुराने कंकाल बरामद

कारोबार बन गया है मूर्ति और प्राचीन धरोहरों की चोरी

अपराध की दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा कारोबार संगठित रूप ले चुका है। ये कारोबार है मूर्ति और प्राचीन धरोहरों की चोरी। इसका सालाना टर्न ओवर दस हजार करोड़ रुपये है और इस कारोबार ने अपना नेटवर्क देश भर में फैला लिया है।
भगवान शिव की एक मूर्ति को हाल ही में दिल्ली पुलिस ने बरामद किया। 6 करोड़ रुपये की कीमत वाली ये मूर्ति दक्षिण भारत से चोरी की गई थी। दिल्ली में इसे बेचने के लिए लाया गया मगर तस्करों के हाथ पड़ने से पहले ये मूर्ति दिल्ली पुलिस के हाथ लग गई। ये और ऐसी 1200 प्राचीन धरोहरें देश के विभिन्न हिस्सों से एक साल में चोरी कर ली गईं। 2008 का ये आंकड़ा राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का है। दुनिया के बाजार में इनकी कीमत कम से कम 500 करोड़ है।
वाराणसी सहित पूरे पूर्वांचल से पिछले एक साल में सौ करोड़ की मूर्तियां चोरी हो चुकी हैं। अकेले यूपी में पिछले दो सालों के दौरान नौ शहरों से 75 करोड़ की मूर्तियां बरामद की गईं और 50 लोग गिरफ्तार किए गए। मगर मूर्ति चोरी का ये रैकेट बदस्तूर जारी है। सिर्फ यूपी में ही नहीं हर उस राज्य से जहां प्राचीन धरोहर हैं सैकड़ों की संख्या में मूर्ति या धरोहरों की चोरी हो रही है। मूर्तियों के लिए मशहूर मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा चोरी हो रही है। दूसरे नंबर पर राजस्थान है।
मूर्ति चोरी के तेजी से बढ़ रहे आंकड़ों की दूसरी सबसे बड़ी वजह है सुरक्षा के नाकाफी इंतजाम। बिहार के 72 हैरिटेज स्थलों में से सिर्फ 3 नालंदा, बोधगया और सासाराम ही पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की तरफ से संरक्षित किए गए हैं। पूरे राजगीर इलाके में सिर्फ 12 सुरक्षाकर्मी हैं। पुरातत्व विभाग ने केंद्र सरकार से 500 अतिरिक्त सुरक्षाकर्मियों की मांग की है जो अभी लंबित है। हमारे देश में राष्ट्रीय महत्व की 3675 इमारतें दर्ज हैं। रामनिवास मिर्धा कमेटी ने 9000 प्राचीन इमारतों की देखभाल के लिए चौकीदार आदि की व्यवस्था का निर्देश दिया था जिसमें से बमुश्किल 4000 इमारतों पर ही यह व्यवस्था हो पाई है।
समस्या ये है कि सिर्फ चौकीदारों की तैनाती से मूर्तियों की सुरक्षा संभव नहीं क्योंकि निहत्थे चौकीदारों की हत्या कर मूर्ति चोरी के कई मामले हुए हैं। जिस तरीके से मूर्ति तस्करों का नेटवर्क मजबूत दर मजबूत होता जा रहा है उसके मुकाबले चौकीदार नाकाफी ही रहेंगे। (आईबीएन-7 )


मेक्सिको में 2700 साल पुराने कंकाल बरामद

मेक्सिको में पुरातत्वविदों ने लगभग 2,700 वर्ष पुराने मानव कंकाल बरामद करने का दावा किया है।
एक समाचार एजेंसी के अनुसार मेक्सिको के चियापास प्रांत के जोक्यी इलाके में पुरातत्वविदों ने एक गुंबद का पता लगाया, जिससे 2,700 वर्ष पुराने चार कंकाल बरामद किए गए। पुरात्व मामलों के विशेषज्ञों के अनुसार जिस गुंबद का पता लगाया गया है वह मिजोअमेरिका युग का सबसे प्रचीन हो सकता है। इससे ओलमेक और माया संस्कृतियों के घटनाक्रम का पता लगाया जा सकता है। इस प्राचीन गुंबद का पता चियापा डी कोजरे पुरातत्व परियोजना से जुड़े सदस्यों ने नेशनल ऑटोनोमस यूनीवर्सिटी ऑफ मेक्सिको (यूएनएएम) और ब्रिगेम यंग यूनीवर्सिटी की सहायता से लगाया।

विशेषज्ञों के अनुसार गुंबद से बरामद चार कंकाल 700-500 ईसापूर्व के हैं हालांकि अभी इसकी पुष्टि नहीं हुई है। इसके लिए कार्बन 14 डेटिंग और हड्डियों की डीएनए जांच होगी, इसके बाद ही इन कंकालों की अवधि का पता चल पाएगा। एजेंसी के अनुसार गुंबद में अंतिम संस्कार करने के लिए एक कक्ष बना है जिसके साथ एक कमरा भी है। इसमें छह-सात मीटर लंबा पिरामिड और ऊपरी हिस्से में एक मंदिर भी है। एजेंसी के मुताबिक गुंबद के भीतर जो चार कंकाल बरामद किए गए, उसमें एक 50 वर्षीय व्यक्ति, एक वर्षीय लड़का, एक लड़की और एक महिला का कंकाल प्रतीत होता है। पुरातत्वविदों का कहना है कि जिस गुंबद का पता लगाया गया है वह 20वीं शताब्दी के मध्य में ला वंटा टाबेस्को से बरामद गुंबद की तरह प्रतीत होता है। प्राचीन काल में यह क्षेत्र ओलमेत संस्कृति का गढ़ माना जाता था।

Wednesday, May 12, 2010

अविवाहित थे तुलसी दास ?

खबरों में इतिहास: भाग-७
अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१-क्या अविवाहित थे तुलसी दास ?
२-बत्तीस सौ साल पुराना किला

अविवाहित थे तुलसी दास ?

 पिछले कई दशकों से तुलसी के जन्म स्थान के विवाद को हल करने में जुटे सनातन धर्म परिषद के अध्यक्ष स्वामी भगवदाचार्य ने कहा कि हिंदी साहित्य के इतिहास में कुछ तथ्यों पर भ्रम बना हुआ है। उन्होंने कहा कि मध्य युग में तुलसी नाम के चार साहित्यकार पैदा हुए। पहले तुलसी गोण्डा जनपद के सूकरखेत राजापुर ग्राम में पैदा हुए, जिन्होने रामचरित मानस समेत 12 ग्रंथों की रचना की। दूसरे तुलसी एटा जिले के सोरों में हुए, तीसरे तुलसी हाथरस जिले में पैदा हुए और चौथे तुलसी बलरामपुर जिले के वर्तमान तुलसीपुर तहसील के देवीपाटन गांव में पैदा हुए थे, जिन्होंने जानकी विजय, गंगा कथा, लवकुश कांड और हनुमान चालीसा की रचना की। उन्होंने कहा कि इतिहासकार इन चारों रचनाकारों की जीवन गाथा को भिन्न-भिन्न समझने की बजाए इन्हें एक ही तुलसीदास समझने की भूल कर बैठे, जिससे मानस के रचियता तुलसीदास के बारे में अनेक भ्रांतियां पैदा हो गर्इं। उन्होंने कहा कि हमें इन चारो तुलसीदास को अलग-अलग रूप में जानने कोशिश करने का प्रयास करना होगा।

स्वामी भगवदाचार्य के अनुसार मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास(1556-1605) सम्राट अकबर महान के समकालीन थे। उन्होंने कहा कि एक अकबर द्वितीय भी हुआ, जो शाह आलम द्वितीय का पुत्र था। उसका समय 1806 से 1837 था। अकबर द्वितीय के समय में लिखे गए गजेटियर में जिस तुलसी का उल्लेख है, वह राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास नहीं थे। उन्होंने कहा कि बांदा के जिला गजेटियर में उल्लेख है कि तुलसी यमुना पार करके आए और यहां उन्होंने साधना की। इससे यह सहज साबित हो जाता है कि कोई तुलसी नाम का विद्वान वहां गया होगा, लेकिन वहां वह पैदा कोई नहीं हुआ। इंपीरियल गजेटियर आफ इंडिया, कलकत्ता के अनुसार तुलसी ने बांदा जिले में राजापुर ग्राम बसाया था। इससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस नाम के गांव को किसी ने बसाया हो, वह उसी नाम के गांव में पैदा कैसे हो सकता है?

मानस लिखने वाले तुलसीदास का जन्म स्थान गोण्डा जनपद का राजापुर गांव ही असली जन्म स्थान होने बारे में कुछ अकाट्य तथ्य प्रस्तुत करते हुए स्वामी भगवदाचार्य ने कहा कि राजस्व अभिलेखों में यहां पर आत्मा राम के नाम एक टेपरा गोचर भूमि आज भी दर्ज है। आत्मा राम दुबे, गोस्वामी जी के पिता का नाम बताया जाता है। ये सरयूपारी ब्राह्मण थे। इस गोत्र के ब्राह्मण सरयू नदी के आसपास इसी इलाके में ही पाए जाते हैं। यहीं पर पसका के निकट सरयू और घाघरा नदियों के संगम पर सूकरखेत भी है। गोस्वामी जी के गुरु नरहरि दास का आश्रम भी पास में ही है। गोस्वामी जी ने अपनी रचनाओं में अवधी भाषा का प्रयोग किया है। उनकी एक रचना है राम लला नहछू। नहछू नामक संस्कार केवल अवध क्षेत्र में ही प्रचलित है। यह प्रदेश के किसी अन्य हिस्से में नहीं होता है। इस रचना के गीत गोण्डा तथा आसपास के जनपदों में आज भी विवाह के अवसरों पर उसी भाषा में गाए जाते हैं।

डॉ भगवदाचार्य के मुताबिक श्रीराम चरित मानस के बालकांड में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सो सूकर खेत। नहिं समझेउ कछु बाल मन तब मैं रहेंउ अचेत। अर्थात बाल्यकाल में उन्होंने सूकरखेत स्थित गुरु नरहरिदास के आश्रम में आकर शिक्षा प्राप्त की और बहुत दिन तक यहां रहे भी। उन्होंने इन संदर्भों का हवाला देते हुए यह सवाल उठाया कि बाल्य काल में कोई बालक अकेले बांदा जिले से गोण्डा तक कै से आ सकता है। निश्चित रूप से वह स्थान गोण्डा जिले का राजापुर गांव ही है, जहां से सूकरखेत स्थित गुरु नरहरि दास की कुटी चंद कदमों की दूरी पर है। सभी विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि उनकी माता का निधन बचपन में ही हो गया था। उनका लालन-पालन चुनिया नाम की एक महिला ने किया था। कुछ दिनों बाद उनके पिता की मृत्यु भी हो गई और इस तरह वे एक अनाथ बालक की तरह भटकते हुए नरहरिदास के आश्रम पर आ गए थे। उन्होंने कहा कि अपनी रचनाओं में गोस्वामी जी ने पौराणिक स्थलों का छोड़कर मौजूदा नाम वाले किसी भी शहर के नाम का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन उन्होंने बहराइच का उल्लेख जरूर किया है, जो गोण्डा के बगल में ही है।

स्वामी भगवदाचार्य ने कहा कि पिछले साल लखनऊ विश्वद्यिालय के हिंदी विभाग की ओर से आयोजित राष्टÑीय संगोष्ठी में भी बहुमत से यह सिद्ध हुआ कि बांदा और एटा का दावा निराधार है। उन्होंने कहा कि इससे पहले दिसंबर 2005 में काशी विद्यापीठ वाराणसी में आयोजित चौथे विश्व तुलसी सम्मेलन में भी सर्वसम्मति से यही प्रस्ताव पारित किया गया कि गोस्वामी तुलसीदास की जन्मस्थली राजापुर (सूकरखेत) गोण्डा ही है। उन्होंने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास को अविवाहित साबित करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। उन्होंने कहा कि तुलसी नाम के जो चार साहित्यकार हुए, उनमें से सोरों और बलरामपुर में जन्मे तुलसी दास की पत्नियों का नाम रत्नावली था। स्वामी भगवदाचार्य के मुताबिक मानसकार तुलसी आजीवन अविवाहित और एकांत साधक रहे। स्वामी भगवदाचार्य ने सूकरखेत (राजापुर)को पर्यटन स्थल घोषित करने, तुलसीदास के नाम पर एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करने और एक पुलिस चौकी कायम करने की मांग की है।

सर्वमान्य कथा तुलसीदास के बारें में जो हम जानते हैं, उसका अवलोकन इस लिंक से करें। हिंदी विकीपीडिया ने इसे विस्तार से छापा है।

गोस्वामी तुलसीदास [१४९७ (१५३२?) - १६२३] एक महान कवि थे। उनका जन्म राजापुर, (वर्तमान बाँदा जिला) उत्तर प्रदेश में हुआ था। अपने जीवनकाल में तुलसीदासजी ने १२ ग्रन्थ लिखे और उन्हें ...


32 सौ साल पुराना निकला जाजमऊ टीला


    कानपुर को लखनऊ से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 25 पर स्थित जाजमऊ के विशाल प्राचीन टीले की खुदाई में सैकड़ों वर्ष पुराने पुरातात्विक अवशेष मिले हैं। अवशेष ने जाजमऊ की पूर्व अनुमानित प्राचीनता [लगभग 600-700 ईसा पूर्व] को लगभग 600 वर्ष और पीछे [लगभग 1200-1300 ईसा पूर्व] खिसका दी है। इस तरह 3200 साल पुराना टीला माना जा रहा है।

उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व निदेशालय के निदेशक राकेश तिवारी के अनुसार यहा चार साल से उत्खनन कार्य चल रहा था। खुदाई में लगभग दो हजार उत्तरी चमकदार पालिश वाले पात्र [बर्तन], पुराने सैकड़ों सिक्कों का जखीरा, बर्तन बनाने में प्रयोग किया जाने वाला पकी मिट्टी से बना ब्राह्माी लेखयुक्त [पुरानी लिपि] उपकरण तथा कच्ची और पकी ईटों से निर्मित मौर्य और पूर्व मौर्य कालीन इमारतों के अवशेष मुख्य रूप से पाए गए हैं।

गंगा के किनारे वाले हिस्से में डा. राजीव कुमार त्रिवेदी द्वारा कराये गये उत्खनन में एक अत्यन्त चमकदार पात्र में रखे चांदी के सिक्कों का जखीरा मिला है। इन सिक्कों पर सूर्य, चक्र, वेदिका में वृक्ष, अर्ध चन्द्र, मेरु [पर्वत] आदि चिन्ह अंकित हैं। यह जखीरा दुर्लभ उपलब्धि है। पुरातात्विक खुदाई में ऐसा जखीरा पहली बार मिला है। तिवारी के अनुसार जाजमऊ के उत्खनन से अस्थि-निर्मित तीखे बाणाग्र [तीर के आगे हिस्सा], पकी मिट्टी और उप रत्‍‌नों से बनी गुड़िया [मनके], मिट्टी और शीशे के कई कंगन, मिट्टी के खिलौने और मूर्तिया, मुद्रा-छाप [सीलिंग], धातु-उपकरण, मिट्टी के बने विभिन्न तरह के बर्तनों के टुकड़े, सोप स्टोन से बने पात्र [बर्तन] व और उनके ढक्कन, पकी मिट्टी की सुसज्जित चकरियों [डिस्क] के तमाम उदाहरण समकालीन इतिहास के महत्वपूर्ण स्त्रोत होंगे।

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