इतिहास ब्लाग में आप जैसे जागरूक पाठकों का स्वागत है।​

Website templates

Tuesday, March 27, 2012

राम सेतु बने राष्ट्रीय स्मारक, केन्द्र सरकार जवाब दे -उच्चतम न्यायालय

    उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार से कहा कि वह इस बारे में दृष्टिकोण स्पष्ट करे कि क्या राम सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जा सकता है।उच्चतम न्यायालय ने केंद्र से सेतुसमुद्रम परियोजना पर आरके पचौरी की रिपोर्ट छह सप्ताह के अंदर उसके समक्ष रखने को कहा। मालूम हो प्रधानमंत्री ने जुलाई 2008 में पचौरी की अध्यक्षता में छह सदस्यीय समिति का गठन किया था। इस समिति का गठन 2240 करोड़ रुपये के विवादास्पद सेतु समुद्रम शिपिंग चैनल प्रोजेक्ट (एसएससीपी) के समाधान के लिए किया गया था। एसएससीपी में उथले सागर और 'राम सेतु' और एडम्स ब्रिज के नाम से पहचाने जाने वाले द्वीपों की श्रृंखला के जरिए एक नौवहन मार्ग बनाकर भारत और श्रीलंका के बीच पाल्क खाड़ी और मन्नार की खाड़ी को जोड़ने का प्रस्ताव है.

प्रोजेक्ट को 2005 में हरी झंडी दिखाई गई लेकिन बाद में राम सेतु के नष्ट होने के फैसले को लेकर इसका विरोध शुरू हो गया. माना जाता है कि इस सेतु को भगवान श्रीराम ने लंका पहुंचने के लिए बनाया था। कई याचिकाओं में पर्यावरणीय दृष्टिकोण से इसका विरोध किया गया. इनमें से अधिकतर याचिकाओं को मद्रास उच्च न्यायालय से शीर्ष अदालत को भेजा गया था। इक्कीस अप्रैल 2010 में उच्चतम न्यायालय ने एसएससीपी पर अस्थायी रोक लगा दी। अदालत ने कहा कि इसे राम सेतु की बजाय धनुष्कोडी से वैकल्पिक मार्ग की संभावना पर पर्यावरणीय लिहाज से 'पूरे और विस्तृत' विश्लेषण का इंतजार करना होगा।

(सेतु समुद्रम पर विस्तार से जानने के लिए नीचे के लिंक या सामग्री का अवलोकन करिए। यह लेख मेरे ही अन्य ब्लाग कालचिंतन में काफी पहले प्रकाशित हुआ था।)
सेतुसमुद्रम बनाम इतिहास राम के सेतु का
http://chintan.mywebdunia.com/2007/12/06/1196945280000.html?&w_d_=F5EBD1322E16B809E5D96B5EFB5C147A.node1

भारत के दक्षिणपूर्व में रामेश्वरम और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच चूने की उथली चट्टानों की चेन है , इसे भारत में रामसेतु व दुनिया में एडम्स ब्रिज ( आदम का पुल ) के नाम से जाना जाता है। इस पुल की लंबाई लगभग 30 मील (48 किमी ) है। यह ढांचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक दूसरे से अलग करता है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। अनेक स्थानों पर यह सूखी और कई जगह उथली है जिससे जहाजों का आवागमन संभव नहीं है। इस चट्टानी उथलेपन के कारण यहां नावें चलाने में खासी दिक्कत आती है। कहा जाता है कि 15 शताब्दी तक इस ढांचे पर चलकर रामेश्वरम से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था लेकिन तूफानों ने यहां समुद्र को कुछ गहरा कर दिया। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया।

क्या है सेतुसमुद्रम परियोजना

2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया। इसके तहत एडम्स ब्रिज के कुछ इलाके को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक बनाया जाएगा। इसके लिए कुछ चट्टानों को तोड़ना जरूरी है। इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा। तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा और तमिलनाडु के कोस्टल इलाकों में कम से कम 13 छोटे एयरपोर्ट बन जाएंगे। माना जा रहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें, अनुमान है कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे। मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी ही, संभावना है कि जलपोतों का 22 हजार करोड़ का तेल बचेगा। 19वें वर्ष तक परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2000 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।
नासा की तस्वीर
नासा से मिली तस्वीर का हवाला देकर दावा किया जाता है कि अवशेष मानवनिर्मित पुल के हैं। नासा का कहना है , ' इमेज हमारी है लेकिन यह विश्लेषण हमने नहीं दिया। रिमोट इमेज से नहीं कहा जा सकता कि यह मानवनिर्मित पुल है। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने कहा है कि उसके खगोल वैज्ञानिकों द्वारा ली गई तस्वीरें यह साबित नहीं करतीं कि हिंदू ग्रंथ रामायण में वर्णित भगवान राम द्वारा निर्मित रामसेतु का वास्तविक रूप में कोई अस्तित्व रहा है। यह बयान देने के साथ ही नासा ने भाजपा के उस बयान को भी नकार दिया है जिसमें भाजपा ने कहा था कि नासा के पास पाक स्ट्रेट पर एडम्स ब्रिज की तस्वीरें हैं जिन्हें भारत में रामसेतु के नाम से जाना जाता है और कार्बन डेटिंग के जरिए इसका समय 1.7 अरब साल पुराना बताया गया है। नासा के प्रवक्ता माइकल ब्रॉकस ने कहा कि उन्हें कार्बन डेटिंग किए जाने की कोई जानकारी नहीं है।ब्रॉकस ने कहा कि कुछ लोग कुछ तस्वीरें यह कहकर पेश करते हैं कि यह नासा के वैज्ञानिकों द्वारा ली गई हैं लेकिन ऐसे चित्रों की बदौलत कुछ भी साबित करने का कोई आधार नहीं है। गौरतलब है कि अक्टूबर 2002 में कुछ एनआरआई वेबसाइट्स, भारत मूल की समाचार एजेंसियों और हिंदू न्यूज सर्विस के माध्यम से कुछ खबरें आई थीं जिनमें कहा गया था कि नासा द्वारा लिए गए चित्रों में पाक स्ट्रीट पर एक रहस्यमय प्राचीन पुल पाया गया है और इन खबरों को तब भी नासा ने नकारा था। गौरतलब है कि इस पूरे मामले के कारण रामसेतु जिस जगह बताया गया है, भारत और श्रीलंका के बीच बने जलडमरू मध्य के उसी स्थान पर दक्षिण भारत द्वारा प्रस्तावित 24 अरब रुपए की सेतुसमुद्रम नहर परियोजना विवादास्पद हो गई है।

रामसेतु मिथक है या...

वाल्मीकि रामायण कहता है कि जब श्री राम ने सीता को लंकापति रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद मांगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता मांगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया। डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्री राम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। यही हुआ भी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। इसी पुल को बाद में एडम्स ब्रिज का नाम मिला।

धर्मग्रंथों में जिक्र है सेतुबंधन का

पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरा पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के डांस ड्रामा में सेतु बंधन का जिक्र किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का जिक्र आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्री राम के सेतु का जिक्र किया गया है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में इसे एडम्स ब्रिज के साथ-साथ राम सेतु कहा गया है।

कितना पुराना है रामसेतु

राम सेतु की उम्र को लेकर महाकाव्य रामायण के संदर्भ में कई दावे किए जाते रहे हैं। कई जगह इसकी उम्र 17 लाख साल बताई गई है, तो कुछ एक्सपर्ट्स इसे करीब साढ़े तीन हजार साल पुराना बताते हैं। इस पर भी कोई एकमत नहीं है। इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण सवाल उठता रहा है कि आखिर 30 किलोमीटर तक लंबा यह छोटे-छोटे द्वीपों का समूह बना कैसे?
1) राम सेतु करीब 3500 साल पुराना है - रामासामी कहते हैं कि जमीन और बीचों का निर्माण साढ़े तीन हजार पहले रामनाथपुरम और पंबन के बीच हुआ था। इसकी वजह थी रामेश्वरम और तलाईमन्नार के दक्षिण में किनारों को काटने वाली लहरें। वह आगे कहते हैं कि हालांकि बीचों की कार्बन डेटिंग मुश्किल से ही रामायण काल से मिलती है, लेकिन रामायण से इसके संबंध की पड़ताल होनी ही चाहिए।
2) रामसेतु प्राकृतिक तौर पर नहीं बना - जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व निदेशक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टैक्नोलॉजी के सदस्य डॉ. बद्रीनारायण कहते हैं कि इस तरह की प्राकृतिक बनावट मुश्किल से ही दिखती है। यह तभी हो सकता है, जब इसे किसी ने बनाया हो। कुछ शिलाखंड तो इतने हल्के हैं कि वे पानी पर तैर सकते हैं।
3) ज्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने विस्तृत सर्वे में इसे प्राकृतिक बताया था - देश के इस जाने माने इंस्टीट्यूट ने राम सेतु के आसपास 91 बोरहोल्स बनाकर वहां से सैंपल लिए थे और उनकी पड़ताल की थी। इन्हें सेतु प्रोजेक्ट के दफ्तर में रखा गया था।
4) नासा कहता है कि रामसेतु प्राकृतिक तौर पर बना - अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का कहना है कि भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरूमध्य में मौजूद ढांचा किसी भी हालत में आदमी का बनाया हुआ नहीं है। यह पूरी तरह प्राकृतिक है। सेतुसमुद्रम कॉपरेरेशन लि. के सीईओ एनके रघुपति के मुताबिक उन्हें नासा के जॉन्सन स्पेस सेंटर की ओर से मिले ईमेल में नासा ने अपने पक्ष का खुलासा किया है। नासा की तस्वीरों को लेकर काफी होहल्ला पहले ही मच चुका है।

श्रीरामसेतु के टूटने का मतलब

भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित श्रीरामसेतु अगर भारत में न होकर विश्व में कहीं और होता तो वहां की सरकार इसे ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर संरक्षित करती। भारत में भी यदि इस सेतु के साथ किसी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रमुख महापुरूष का नाम होता तो इसे तोड़ने की कल्पना तो दूर इसे बचाने के लिए संपूर्ण भारत की सेक्युलर बिरादरी जमीन आसमान एक कर देती। यह केवल यहीं संभव है कि यहां की सरकार बहुमत की आस्था ही नहीं पर्यावरण, प्राकृतिक संपदा, लाखों भारतीयों की रोजी-रोटी और राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा कर रामसेतु जैसी प्राचीनतम धरोहर को नष्ट करने की हठधर्मिता कर रही है। हिंदू समाज विकास का विरोधी नहीं परंतु यदि कोई हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी मानसिकता के कारण विकास की जगह विनाश को आमंत्रित करेगा तो उसे हिंदू समाज के आक्रोश का सामना करना ही पड़ेगा। समुद्री यात्रा को छोटा कर 424 समुद्री मील बचाने व इसके कारण समय और पैसे की होने वाली बचत से कोई असहमत नहीं हो सकता लेकिन सेतुसमुन्द्रम योजाना के कम खर्चीले और अधिक व्यावहारिक विकल्पों पर विचार क्यों नहीं किया गया जिनसे न केवल रामसेतु बचता है अपितु प्रस्तावित विकल्प के विनाशकारी नुकसानों से बचा सकता है? इस योजना को पूरा करने की जल्दबाजी और केवल अगली सुनवाई तक रामसेतु को क्षति न पहुंचाने का आश्वासन देने से माननीय सुप्रीम कोर्ट को मना करना क्या भारत सरकार के इरादों के प्रति संदेह निर्माण नहीं करता?
1860 से इस परियोजना पर विचार चल रहा है। विभिन्न संभावनाओं पर विचार करने के लिए कई समितियों का गठन किया जा चुका है। सभी समितियों ने रामसेतु को तोड़ने के विकल्प को देश के लिए घातक बताते हुए कई प्रकार की चेतावनियां भी दी हैं। इसके बावजूद जिस काम को करने से अंग्रेज भी बचते रहे, उसे करने का दुस्साहस वर्तमान केंद्रीय सरकार कर रही है। सभी विकल्पों के लाभ-हानि का विचार किए बिना जिस जल्दबाजी में इस परियोजना का उद्घाटन किया गया, उसे किसी भी दृष्टि में उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। भारत व श्रीलंका के बीच का समुद्र दोनों देशों की एतिहासिक विरासत है परंतु अचानक 23 जून 2005 को अमेरिकी नौसेना ने इस समुद्र को अंतरराष्ट्रीय समुद्र घोषित कर दिया और तुतीकोरण पोर्ट ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष रघुपति ने 30 जून 2005 को गोलमोल ढंग से अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर दिया। इसके तुरंत बाद 2 जुलाई 2005 को भारत के प्रधानमंत्री व जहाजरानी मंत्री कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और करूणानिधि को साथ ले जाकर आनन-फानन में इस परियोजना का उद्घाटन कर देते हैं। इस घटनाचक्र से ऐसा लगता है मानो भारत सरकार अमेरिकी हितों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय हितों की कुर्बानी दे रही है।
कनाडा के सुनामी विशेषज्ञ प्रो. ताड मूर्ति ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्पष्ट कहा था कि 2004 में आई विनाशकारी सुनामी लहरों से केरल की रक्षा रामसेतु के कारण ही हो पाई। अगर रामसेतु टूटता है तो अगली सुनामी से केरल को बचाना मुश्किल हो जाएगा। इस परियोजना से हजारों मछुआरे बेरोजगार हो जाएंगे और इन पर आधारित लाखों लोगों के भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रूपये की वार्षिक आय होती है, से हमें वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। इसीलिए कनाडा ने थोरियम पर आधारित रियेक्टर विकसित किया है। यदि विकल्प का सही प्रकार से प्रयोग किया जाए तो हमें यूरेनियम के लिए अमेरिका के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा। इसीलिए भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम आजाद कई बार थोरियम आधारित रियेक्टर बनाने का आग्रह किया है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भण्डार से हाथ धोना पड़ेगा।
इतना सब खोने के बावजूद रामसेतु को तोड़कर बनाए जाने वाली इस नहर की क्या उपयोगिता है, यह भी एक बहुत ही रोचक तथ्य है। 300 फुट चौड़ी व 12 मीटर गहरी इस नहर से भारी मालवाहक जहाज नहीं जा सकेंगे। केवल खाली जहाज या सर्वे के जहाज ही इस नहर का उपयोग कर सकेंगे और वे भी एक पायलट जहाज की सहायता से जिसका प्रतिदिन खर्चा 30 लाख रूपये तक हो सकता है। इतनी अधिक लागत के कारण इस नहर का व्यावसायिक उपयोग नहीं हो सकेगा। इसीलिए 2500 करोड़ रूपये की लागत वाले इस प्रकल्प में निजी क्षेत्र ने कोई रूचि नहीं दिखाई। ऐसा लगता है कि अगर यह नहर बनी तो इससे जहाज नहीं केवल सुनामी की विनाशकारी लहरें ही जाएंगी।
रामसेतु की रक्षा के लिए भारत के अधिकांश साधु संत, कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक, सामाजिक व धार्मिक संगठन, कई पूर्व न्यायाधीश, स्थानीय मछुआरे सभी प्रकार के प्रजातांत्रिक उपाय कर चुके हैं। लेकिन जेहादी एवं नक्सली आतंकियों से बार-बार वार्ता करने वाली सेकुलर सरकार को इन देशभक्त और प्रकृति प्रेमी भारतीयों से बात करने की फुर्सत नहीं है। इसीलिए मजबूर होकर 12 सितम्बर 2007 को पूरे देश में चक्का जाम का आंदोलन करना पड़ा। इससे रामसेतु को तोड़ने पर होने वाले आक्रोश की कल्पना की जा सकती है।
राम सेतु पर राजनीति
केंद्र सरकार ने सेतु मुद्दे पर अपनी गर्दन फंसते देख तुरंत यू-टर्न लेते हुए उच्चतम न्यायालय में दाखिल विवादित हलफनामा वापस ले लिया। अब निकट भविष्य में सरकार संशोधित हलफनामा दायर करेगी। इससे पूर्व केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दाखिल किया था। केंद्र की आ॓र से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा दिए गए शपथपत्र में कहा गया था कि बाल्मीकि रामायण, तुलसीदास कृत रामचरित मानस और अन्य पौराणिक सामग्री ऐसे ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हो सकते जिनसे पुस्तक में वर्णित चरित्रों के अस्तित्व को साबित किया जा सके। केंद्र के अनुसार 17 लाख 50 हजार वर्ष पुराने इस कथित राम सेतु का निर्माण राम ने नहीं किया बल्कि यह रेत और बालू से बना प्राकृतिक ढांचा है जिसने सदियों से लहरों और तलछट के कारण विशेष रूप ले लिया।
केंद्र सरकार द्वारा दायर इस हलफनामे के बाद एकाएक हिन्दू संगठनों में आक्रोश फैल गया। चारों आ॓र केंद्र सरकार द्वारा दायर हलफनामे की निंदा की जाने लगी। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने प्रधानमंत्री और कानून मंत्री से फोन पर बात कर यह शपथपत्र वापस लेने की मांग की थी उन्होंने कहा था कि सरकार के इस कार्य से करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंची है।
केंद्र की सेतु समुद्रम परियोजना को जारी रखने के फैसले के खिलाफ विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) ने भी कम कसते हुए देशभर में प्रदर्शन और चक्काजाम किया। इस दौरान कानपुर में कार्यकर्ताओं के पथराव में तीन पुलिसकर्मी तथा पुलिस के लाठीचार्ज में कुछ कार्यकर्ता घायल हो गए। इंदौर में दो गुटों के बीच संघर्ष की वजह से क्षेत्र में निषेधाज्ञा लगा दी गई, जबकि इंदौर में ही एक अन्य स्थान पर चार लोगों को गिरफ्तार किया गया।
विहिप और संघ परिवार से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं द्वारा राजधानी दिल्ली सहित देश के विभिन्न भागों में आज चक्काजाम करने से कई जगह यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ। कुछ जगहों पर चक्काजाम के दौरान झड़प भी हुई। हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने शहर में सौ से ज्यादा जगहों पर चक्काजाम किया। तीन घंटे चले इस चक्काजाम से लोगों को खासी दिक्कत का सामना करना पड़ा।
राजस्थान में भी चक्काजाम का व्यापक असर रहा। इसके चलते तीन घंटे तक सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा। राज्य में सुबह आठ बजे से शुरू हुए चक्काजाम आंदोलन के कारण सरकारी बस सेवा समेत अन्य वाहन नहीं चले, जिसके कारण मुख्य सड़कें सूनी रहीं। वहीं केरल के कोयम्बटूर जिले में 25 स्थानों पर भाजपा और अन्य हिन्दू संगठनों के करीब 1100 कार्यकर्ताओं को सड़क मार्ग बाधित करने की कोशिश करते हुए हिरासत में लिया गया। मुंबई से प्राप्त समाचार के अनुसार उत्तर पश्चिम मुंबई के एसवी रोड, साकी नाका और टुर्भे नाका समेत 23 व्यस्त सड़कों पर संघ परिवार और उससे जुड़े संगठनों ने जाम लगाया। इससे यात्रियों को अपने गंतव्य तक पहुंचने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।
बिहार में राजधानी पटना सहित विभिन्न जिलों में विहिप तथ संघ परिवार के संगठनों ने चक्काजाम किया। बंद समर्थकों ने प्रदेश के बेतिया-मोतिहारी, मुजफ्फरपुर-पटना सहित कई अन्य राष्ट्रीय राजमार्गों को जाम किया।
अहमदाबाद में विहिप एवं संघ परिवार से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं ने गुजरात के 246 स्थानों पर चक्काजाम किया।
केंद्र सरकार ने सेतु समुद्रम परियोजना पर उठते विवाद व दायर हलफनामे से उपजी स्थिति से निपटने के लिए सबसे पहले तो दायर हलफनामा को वापस लेते हुए अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम ने मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति आर. वी. रवीन्द्रन की खंडपीठ के समक्ष दलील दी कि सरकार का इरादा किसी समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करना नहीं था। श्री सुब्रमण्यम ने कहा कि सरकार ने लोगों की भावनाएं आहत होने के मद्देनजर हलफनामा वापस लेने का निर्णय लिया है और वह नया हलफनामा दायर करेगी।
न्यायालय ने नया हलफनामा दायर करने से पहले इस मुद्दे पर फिर से विचार करने के लिए केंद्र सरकार को तीन महीने का समय दिया और मामले की सुनवाई अगले वर्ष जनवरी के पहले सप्ताह तक के लिए स्थगित कर दी। इससे पहले श्री सुब्रमण्यम ने न्यायालय के समक्ष दलील दी कि सरकार सभी धर्मों का सम्मान करती है और बगैर किसी दुर्भावना के वह पूरे मसले की समीक्षा करेगी। सरकार आवश्यकता पडने पर याचिकाकर्ता सहित सभी संबद्ध पक्षों से लोकतांत्रिक भावना के तहत विचार विमर्श करेगी. क्योंकि यह संवेदनशील मसला है।खंडपीठ ने 31 अगस्त के उस अंतरिम आदेश को बरकरार रखने का भी निर्देश दिया है, जिसमें रामसेतु को किसी भी तरह से क्षतिग्रस्त नहीं करने का सरकार को निर्देश दिया गया था। अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल ने कहा कि यथास्थिति आदेश को सुनवाई की अगली तारीख तक बढाया जाता है तो भी सरकार को कोई एतराज नहीं है।सरकार ने स्थिति नियंत्रित करने के प्रयास के तहत न्यायालय के समक्ष दलील दी कि केंद्र सरकार ने सार्वजनिक भावनाओं को ध्यान में रखकर यह फैसला किया है। सरकार सभी धर्मों, खासकर हिन्दुत्व के प्रति पूरा सम्मान रखती है। उन्होंने कहा कि सरकार सभी संबंधित पक्षों को आश्वस्त करती है कि सभी मुद्दों की फिर से सावधानीपूर्वक और परिस्थितिजन्य स्थितियों के तहत जांच की जाएगी और वैकल्पिक सलाहों को भी ध्यान में रखा जाएगा। श्री सुब्रमण्यम ने कहा कि केंद्र सरकार भी चाहती है कि उसके फैसले धार्मिक और सामाजिक बिखराव लाने की बजाय समाज को एकजुट बनाए। उन्होंने मामले की समीक्षा और उस पर पुनर्विचार के लिए सरकार को तीन महीने का समय दिये जाने का न्यायालय से आग्रह भी किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि केंद्र सरकार का हलफनामा किसी भी तरह से धार्मिक मान्यताओं और स्वतंत्रता को ठेस पहुंचाने के इरादे से नहीं दाखिल किया गया था।
वाजपेयी सरकार ने दी थी मंजूरी
1860 से ही कई बार इस परियोजना पर विचार हुआ। आजादी के बाद 1955 में डा. ए. रामास्वामी मुदालियार के नेतृत्व में सेतु समुद्रम प्रोजेक्ट कमेटी बनी। कमेटी ने परियोजना को उपयुक्त पाया। 13 मार्च 2003 को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने इसे मंजूरी दी। अंतत: 2 जून 2005 को मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के कार्यकाल में इसकी शुरूआत हुई।


राम सेतु नहीं यह नल सेतु

सेतु समुद्रम परियोजना पर एक बार चर्चा फिर छिड़ गई है। खासकर इसके ऐतिहासिक और वैज्ञानिक संदर्भों के बारे में। समुद्र पर बनाए गए पुल के बारे में चर्चा तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस और वाल्मीक रामायण के अलावा दूसरी अन्य राम कथाओं में भी मिलती हैं। आश्चर्यजनक ढंग से राम के सेतु की चर्चा तो आती है लेकिन उस सेतु का नाम रामसेतु था, ऐसा वर्णन नहीं मिलता। गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में अलग ही वर्णन आता है। कहा गया है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुंचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल के बुद्धिकौशल से संपन्न हुआ था।
वाल्मीक रामायण में वर्णन है कि : -
नलर्श्चके महासेतुं मध्ये नदनदीपते:। स तदा क्रियते सेतुर्वानरैर्घोरकर्मभि:।।
रावण की लंका पर विजय पाने में समुद्र पार जाना सबसे कठिन चुनौती थी। कठिनता की यह बात वाल्मीक रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस दोनो में आती है-
वाल्मीक रामायण में लिखा है -
अब्रवीच्च हनुमांर्श्च सुग्रीवर्श्च विभीषणम। कथं सागरमक्षोभ्यं तराम वरूणालयम्।। सैन्यै: परिवृता: सर्वें वानराणां महौजसाम्।।
(हमलोग इस अक्षोभ्य समुद्र को महाबलवान् वानरों की सेना के साथ किस प्रकार पार कर सकेंगे ?) (6/19/28)
वहीं तुलसीकृत रामचरितमानस में वर्णन है -
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।। संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भांती।।
समुद्र ने प्रार्थना करने पर भी जब रास्ता नहीं दिया तो राम के क्रोधित होने का भी वर्णन मिलता है। वाल्मीक रामायण में तो यहां तक लिखा है कि समुद्र पर प्रहार करने के लिए जब राम ने अपना धनुष उठाया तो भूमि और अंतरिक्ष मानो फटने लगे और पर्वत डगमडा उठे।
तस्मिन् विकृष्टे सहसा राघवेण शरासने। रोदसी सम्पफालेव पर्वताक्ष्च चकम्पिरे।।
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा गया है कि तब समुद्र ने राम को स्वयं ही अपने ऊपर पुल बनाने की युक्ति बतलाई थी -
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिघि आसिष पाई।।
तिन्ह कें परस किए" गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
(समुद्र ने कहा -) हे नाथ। नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आर्शीवाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएंगे।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउ" बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि ब"धाइअ। जेहि यह सुजसु लोक तिहु" गाइअ।।
(मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहां तक मुझसे बन पड़ेगा)सहायता करूंगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बंधाइये, जिससे, तीनों लोकों में आपका सुन्दर यश गाया जाए।)
यह पुल इतना मजबूत था कि रामचरितमानस के लंका कांड के शुरूआत में ही वर्णन आता है कि -
बॉधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा।
वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पांच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन थी और चौड़ाई दस योजन।
दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्। ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम्।। (6/22/76)
सेतु बनाने में हाई टेक्नालाजी प्रयोग हुई थी इसके वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं, जैसे -
पर्वतांर्श्च समुत्पाट्य यन्त्नै: परिवहन्ति च।
(कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा - समुद्रतट पर ले आए)। इसी प्रकार एक अन्य जगह उदाहरण मिलता है - सूत्राण्यन्ये प्रगृहृन्ति हृाायतं शतयोजनम्। (6/22/62) (कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से -सिधाई में हो रहा था।)
सेतु पर रोचक प्रसंग :
* तेलुगू भाषा की रंगनाथरामायण में प्रसंग आता है कि सेतु निर्माण में एक गिलहरी का जोड़ा भी योगदान दे रहा था। यह रेत के दाने लाकर पुल बनाने वाले स्थान पर डाल रहा था।
* एक अन्य प्रसंग में कहा गया है कि राम-राम लिखने पर पत्थर तैर तो रहे थे लेकिन वह इधर-उधर बह जाते थे। इनको जोड़ने के लिए हनुमान ने एक युक्ति निकाली और एक पत्थर पर ‘रा’ तो दूसरे पर ‘म’ लिखा जाने लगा। इससे पत्थर जुड़ने लगे और सेतु का काम आसान हो गया।
* तुलसीकृत श्रीरामचरित मानस में वर्णन आता है कि सेतु निर्माण के बाद राम की सेना में वयोवृद्ध जाम्बवंत ने कहा था - ‘श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान’ अर्थात भगवान श्री राम के प्रताप से सिंधु पर पत्थर भी तैरने लगे।
वाल्मीकि रामायण में रामसेतु के प्रमाण
रामसेतु के मामले में भारतीय पुरातत्व विभाग ने सुप्रीम कोर्ट में राम और रामायण के अस्तित्व को नकारने वाला जो हलफनामा दायर किया था वह करोड़ों देशवासियों की आस्था को चोट पहुंचाने वाला ही नहीं बल्कि इससे पुरातत्व विभाग की इतिहास दृष्टि पर भी बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है। एएसआई के निदेशक (स्मारक) सी दोरजी का यह कहना कि राम सेतु के मुद्दे पर वाल्मीकि रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं माना जा सकता है, भारत की ऐतिहासिक अध्ययन पद्धति के सर्वथा विरूद्ध है।
एक पुरातत्ववेत्ता के रूप में शायद उन्हें यह ज्ञान होना चाहिए था कि एएसआई के संस्थापक और पहले डायरेक्टर जनरल कनिंघम ने सन 1862-63 में अयोध्या की पुरातात्त्विक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी तो उन्होंने वाल्मीकि रामायण के आधार पर अयोध्या को एक ऐतिहासिक नगरी बताया था। कनिंघम ने उस रिपोर्ट में यह भी बताया था कि मनु द्वारा स्थापित इस अयोध्या के मध्य में राम का जन्म स्थान मंदिर था। सन् 1908 में प्रकाशित ब्रिटिशकालीन ‘इम्पीरियल गजैटियर ऑफ इन्डिया’ के खण्ड पांच में ‘एडम ब्रिज’ के बारे में जो ऐतिहासिक विवरण प्रकाशित हुआ है उसमें भी यह कहा गया है कि हिन्दू परम्परा के अनुसार राम द्वारा लंका में सैनिक प्रयाण के अवसर पर यह पुल हनुमान और उनकी सेना द्वारा बनाया गया था। डॉ. राजबली पाण्डेय के ‘हिन्दू धर्म कोश’ (पृ. 558) के अनुसार रामायण के नायक राम ने लंका के राजा रावण पर आक्रमण करने के लिए राम सेतु का निर्माण किया था। भारतीय तट से लेकर श्रीलंका के तट तक समुद्र का उथला होना और वह भी एक सीध में इस विश्वास को पुष्ट करता है कि यह रामायणकालीन घटनाक्रम से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अवशेष है। वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड का बाईसवां अध्याय विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा सौ योजन लम्बे रामसेतु का विस्तार से वर्णन करता है। रामायण में 100 योजन लम्बे और 10 योजन चौड़े इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है-
दश योजन विस्तर्ीणं शतयोजनमायतम्।
दहशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम् ।। वा.रा., युद्ध. 22.76
नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया थाा। विशालकाय पर्वतों और वृक्षों को काटकर समुद्र में फेंका गया था। बड़ी-बड़ी शिलाओं और पर्वत खण्डों को उखाड़कर यंत्रों के द्वारा समुद्र तट तक लाया गया था- ‘पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्रै: परिवहन्ति च’। वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त ‘अध्यात्म रामायण’ के युद्धकाण्ड में भी नल द्वारा सौ योजन सेतु निर्माण का उल्लेख मिलता है-
‘‘बबन्ध सेतुं शतयोजनायतं सुविस्तृतं पर्वत पादपैर्दृढम्।’’
दरअसल. रामायणकालीन इतिहास के सन्दर्भ में पुरातत्त्व विभाग का गैर ऐतिहासिक रवैया रहा है। प्रोव् बी.बी. लाल की अध्यक्षता में 1977 से 1980 तक रामायण परियोजना के अन्तर्गत अयोध्या, चित्रकूट, जनकपुर, श्रृंगवेरपुर, भरद्वाज आश्रम का पुरातत्त्व विभाग ने उत्खनन किया किन्तु श्रृंगवेरपुर को छोड़कर अन्य रामायण स्थलों की रिपोर्ट आज तक प्रकाशित नहीं हुई। वर्तमान निदेशक (स्मारक) को रामायण की ऐतिहासिकता को नकारने से पहले पुरातत्त्व विभाग द्वारा रामायण परियोजनाओं की रिपोर्ट की जानकारी देनी चाहिए। यह कैसे हो सकता है कि जब रामायण के स्थलों की खुदाई का सवाल हो तो वाल्मीकि रामायण को प्रमाण मान लिया जाए मगर रामसेतु के मसले पर रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज मानने से इन्कार कर दिया जाए। जाने माने पुरातत्त्ववेत्ता गोवर्धन राय शर्मा के अनुसार प्रो. लाल को परिहार से ताम्रयुगीन संस्कृति के तीर भी मिले थे जो स्थानीय लागों के अनुसार लव और कुश के तीर थे। किन्तु इन सभी पुरातत्त्वीय सामग्री की व्याख्या तभी संभव है जब वाल्मीकि रामायण को इतिहास का स्रोत माना जाए।

Friday, March 23, 2012

इतिहास के झरोखे में नवसंवत्सर

इतिहास के झरोखे में नवसंवत्सर 
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा

भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है, जिसका प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का प्रारंभ हुआ था और इसी दिन भारत वर्ष में काल गणना प्रारंभ हुई थी। वर्तमान में आज से नवसंवत्सर 2069 शुरू हुआ है। इसकी गणना के संदर्भ कहा गया है कि :-
चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति। - ब्रह्म पुराण

  चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा वसंत ऋतु में आती है। वसंत ऋतु में वृक्ष, लता फूलों से लदकर आह्लादित होते हैं जिसे मधुमास भी कहते हैं। इतना ही यह वसंत ऋतु समस्त चराचर को प्रेमाविष्ट करके समूची धरती को विभिन्न प्रकार के फूलों से अलंकृत कर जन मानस में नववर्ष की उल्लास, उमंग तथा मादकाता का संचार करती है।

इस नव संवत्सर का इतिहास बताता है कि इसका आरंभकर्ता शकरि महाराज विक्रमादित्य थे। कहा जाता है कि देश की अक्षुण्ण भारतीय संस्कृति और शांति को भंग करने के लिए उत्तर पश्चिम और उत्तर से विदेशी शासकों एवं जातियों ने इस देश पर आक्रमण किए और अनेक भूखंडों पर अपना अधिकार कर लिया और अत्याचार किए जिनमें एक क्रूर जाति के शक तथा हूण थे।

ये लोग पारस कुश से सिंध आए थे। सिंध से सौराष्ट्र, गुजरात एवं महाराष्ट्र में फैल गए और दक्षिण गुजरात से इन लोगों ने उज्जयिनी पर आक्रमण किया। शकों ने समूची उज्जयिनी को पूरी तरह विध्वंस कर दिया और इस तरह इनका साम्राज्य शक विदिशा और मथुरा तक फैल गया। इनके कू्र अत्याचारों से जनता में त्राहि-त्राहि मच गई तो मालवा के प्रमुख नायक विक्रमादित्य के नेतृत्व में देश की जनता और राजशक्तियां उठ खड़ी हुईं और इन विदेशियों को खदेड़ कर बाहर कर दिया।

इस पराक्रमी वीर महावीर का जन्म अवन्ति देश की प्राचीन नगर उज्जयिनी में हुआ था जिनके पिता महेन्द्रादित्य गणनायक थे और माता मलयवती थीं। इस दंपत्ति ने पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान भूतेश्वर से अनेक प्रार्थनाएं एवं व्रत उपवास किए। सारे देश शक के उन्मूलन और आतंक मुक्ति के लिए विक्रमादित्य को अनेक बार उलझना पड़ा जिसकी भयंकर लड़ाई सिंध नदी के आस-पास करूर नामक स्थान पर हुई जिसमें शकों ने अपनी पराजय स्वीकार की।
इस तरह महाराज विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर एक नए युग का सूत्रपात किया जिसे विक्रमी शक संवत्सर कहा जाता है।
राजा विक्रमादित्य की वीरता तथा युद्ध कौशल पर अनेक प्रशस्ति पत्र तथा शिलालेख लिखे गए जिसमें यह लिखा गया कि ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की।
इतना ही नहीं शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी और अरब विजय के उपलक्ष्य में मक्का में महाकाल भगवान शिव का मंदिर बनवाया।

नवसंवत्सर का हर्षोल्लास


* आंध्रप्रदेश में युगदि या उगादि तिथि कहकर इस सत्य की उद्घोषणा की जाती है। वीर विक्रमादित्य की विजय गाथा का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक 'शायर उल ओकुल' में किया है।
उन्होंने लिखा है वे लोग धन्य हैं जिन्होंने सम्राट विक्रमादित्य के समय जन्म लिया। सम्राट पृथ्वीराज के शासन काल तक विक्रमादित्य के अनुसार शासन व्यवस्था संचालित रही जो बाद में मुगल काल के दौरान हिजरी सन् का प्रारंभ हुआ। किंतु यह सर्वमान्य नहीं हो सका, क्योंकि ज्योतिषियों के अनुसार सूर्य सिद्धांत का मान गणित और त्योहारों की परिकल्पना सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण का गणित इसी शक संवत्सर से ही होता है। जिसमें एक दिन का भी अंतर नहीं होता।
* सिंधु प्रांत में इसे नव संवत्सर को 'चेटी चंडो' चैत्र का चंद्र नाम से पुकारा जाता है जिसे सिंधी हर्षोल्लास से मनाते हैं।
* कश्मीर में यह पर्व 'नौरोज' के नाम से मनाया जाता है जिसका उल्लेख पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वर्ष प्रतिपदा 'नौरोज' यानी 'नवयूरोज' अर्थात्‌ नया शुभ प्रभात जिसमें लड़के-लड़कियां नए वस्त्र पहनकर बड़े धूमधाम से मनाते हैं।
* हिंदू संस्कृति के अनुसार नव संवत्सर पर कलश स्थापना कर नौ दिन का व्रत रखकर मां दुर्गा की पूजा प्रारंभ कर नवमीं के दिन हवन कर मां भगवती से सुख-शांति तथा कल्याण की प्रार्थना की जाती है। जिसमें सभी लोग सात्विक भोजन व्रत उपवास, फलाहार कर नए भगवा झंडे तोरण द्वार पर बांधकर हर्षोल्लास से मनाते हैं।
* इस तरह भारतीय संस्कृति और जीवन का विक्रमी संवत्सर से गहरा संबंध है लोग इन्हीं दिनों तामसी भोजन, मांस मदिरा का त्याग भी कर देते हैं।
कैसा होगा नवसंवत्सर 2069 का वर्ष
कल्पादि से गत वर्ष 1972949113, सृष्टि संवत्‌ 1955885113, श्रीविक्रम संवत्‌ शक संवत्‌ 1934, श्रीकृष्णजन्म संवत्‌ 5248, कलि-संवत्‌ 5113, सप्तर्षि-संवत्‌ 5088, श्री जैन महावीर निर्वाण संवत्‌ 2537-38, श्रीबुद्ध संवत्‌ 2635-36, हिजरी सन्‌ 1433-34, ‌सली सन्‌ 1419-20, ईस्वी सन्‌ 2012-2013।
वर्षारंभ में गुरुमान से विष्णुविंशति का विश्वावसु नामक संवत्सर है। इसका फल शास्त्रों में इस प्रकार है- विश्वावसु नामक संवत्सर में विश्व में भंयकर रोगों से आमजन परेशान रहते हैं। वर्षा भी मध्यम होती है। चावल, गेहूं, जौ, ज्वार, एवं दलहन की उपज भी मध्यम कही जा सकती है। शासक वर्ग में धन संचय की प्रवृत्ति हो सकती है। इस वजह से देश में धन का अभाव महसूस हो सकता है।
भारतीय संस्कृति में गुड़ी पड़वा को चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को विक्रम संवत के नए साल के रूप में मनाया जाता है। इस तिथि से पौराणिक व ऐतिहासिक दोनों प्रकार की ही मान्यताएं जुड़ी हुई हैं।
ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र प्रतिपदा से ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी तरह के उल्लेख अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में भी मिलते हैं। इसी दिन चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती हैं। लोक मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान राम का और फिर युधिष्ठिर का राज्यारोहण किया गया था। इतिहास बताता है कि इस दिन मालवा के नरेश विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर विक्रम संवत का प्रवर्तन किया।
गुड़ी पड़वा
भारतीय संस्कृति में गुड़ी पड़वा को चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को विक्रम संवत के नए साल के रूप में मनाया जाता है। इस तिथि से पौराणिक व ऐतिहासिक दोनों प्रकार की ही मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र प्रतिपदा से ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी तरह के उल्लेख अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में भी मिलते हैं। इसी दिन चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती हैं। इसी दिन से सतयुग की शुरुआत मानी जाती है। इसी दिन भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया था। इसी दिन से रात्रि की अपेक्षा दिन बड़ा होने लगता है।
लोक मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान राम का और फिर युधिष्ठिर का राज्यारोहण किया गया था। इतिहास बताता है कि इस दिन मालवा के नरेश विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर विक्रम संवत का प्रवर्तन किया।भारतीय संस्कृति में गुड़ी पड़वा को चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को विक्रम संवत के नए साल के रूप में मनाया जाता है। इस तिथि से पौराणिक व ऐतिहासिक दोनों प्रकार की ही मान्यताएं जुड़ी हुई हैं।
ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र प्रतिपदा से ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी तरह के उल्लेख अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में भी मिलते हैं। इसी दिन चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती हैं। लोक मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान राम का और फिर युधिष्ठिर का राज्यारोहण किया गया था। इतिहास बताता है कि इस दिन मालवा के नरेश विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर विक्रम संवत का प्रवर्तन किया।
13 माह का होगा इस बार हिन्दू नववर्ष
   इस बार हिन्दू नववर्ष 13 माह का होगा। 23 मार्च को हिंदी पंचांग काल गणना का प्रथम माह चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा अर्थात गुड़ी पड़वा है। इसे शास्त्रों में अबूझ मुहूर्त बताया गया है। अर्थात बिना पंचांग देखे ही कोई भी शुभ कार्य इस दिन प्रारंभ कर सकते हैं। भारतीय नववर्ष की शुरुआत अमृत सिद्घि और सर्वार्थ सिद्घि योग में होगी।
ज्योतिषाचार्य धर्मेन्द्र शास्त्री ने बताया कि अक्षय मुहूर्त में भारतीय नववर्ष की शुरुआत होती है और इसी दिन से चैत्रीय नवरात्रि भी प्रारंभ होते हैं। इस बार चैत्रीय नवरात्रि 10 दिन की होगी। सूर्य सिद्घांत के अनुसार इसी तिथि से दिन बड़े और रात छोटी होने लगती है। इसके साथ ही गर्मी की अधिकता होने लगती है। इसी दिन से भारतीय नववर्ष विक्रम संवत 2069 और संवत्सरों की श्रृंखला का 39वां विश्वावसु नामक संवत्सर जो कि 60 वर्ष बाद आता है प्रारंभ होगा।
साभार-वेबदुनिया (http://hindi.webdunia.com/religion-astrology-article)


श्रीदुर्गा चालीसा
नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥
निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूं लोक फैली उजियारी॥
शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥
रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे
तुम संसार शक्ति लै कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥
अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥
प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥
शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥
रूप सरस्वती को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥
धरयो रूप नरसिंह को अम्बा। परगट भई फाड़कर खम्बा॥
रक्षा करि प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥
लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥
क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दयासिन्धु दीजै मन आसा॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥
मातंगी अरु धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥
श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी
केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥
कर में खप्पर खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजै॥
सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥
नगरकोट में तुम्हीं विराजत। तिहुंलोक में डंका बाजत॥
शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। रक्तबीज शंखन संहारे॥
महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥
रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥
परी गाढ़ सन्तन पर जब जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥
अमरपुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥
प्रेम भक्ति से जो यश गावें। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥
ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥
जोगी सुर मुनि कहत पुकारी। योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥
शंकर आचारज तप कीनो। काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥
शक्ति रूप का मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो
शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥
मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥
आशा तृष्णा निपट सतावें। मोह मदादिक सब बिनशावें॥
शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥
करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला।
जब लगि जिऊं दया फल पाऊं। तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं ॥
श्री दुर्गा चालीसा जो कोई गावै। सब सुख भोग परमपद पावै
देवीदास शरण निज जानी। करहु कृपा जगदम्बा भवानी॥
॥ इति श्रीदुर्गा चालीसा सम्पूर्ण ॥
॥ जय माता दी ॥

Monday, March 5, 2012

2000 से अधिक प्राचीन बुद्ध प्रतिमाओं की खोज

खबरों में इतिहास अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए यह ब्लाग इतिहास की नई खोजों व पुरातत्व, मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित खबरों को संकलित करके पेश करता है। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
 १- 2000 से अधिक प्राचीन बुद्ध प्रतिमाओं की खोज
 २- खुदाई में लक्ष्मी की प्राचीन मूर्ति मिली
 ३- खुदाई के दौरान भदुली में ईंट की एक प्राचीन दीवार मिली
 ४- भदुली खुदाई में मिली बुद्ध की छह प्रतिमाएं 
५- भदुली की खुदाई में मिला मनौती स्तूप
 ६- भदुली में मिला एक और बौद्ध स्तूप
 ७- पलामू में मिले दो बौद्ध स्तूप
  2000 से अधिक प्राचीन बुद्ध प्रतिमाओं की खोज
  http://www.samaylive.com/international-news-in-hindi/143321/-china-hebei-province-archaeologists-buddha-ancient-statues.html
 चीन के हेबेई प्रांत में पुरातत्वविदों ने बुद्ध की 2,000 से अधिक प्राचीन प्रतिमाएं खोजी हैं। इन प्रतिमाओं की खोज से पता चलता है कि साम्यवादी देश में बौद्ध धर्म तब से ही लोकप्रिय है जब इसका भारत में प्रसार हुआ था। लिनझांग काउंटी के येशेंग स्थित एक ऐतिहासिक स्थल पर मिलीं बुद्ध की ये 2,895 प्रतिमाएं और उनके अवशेष पूर्वी वेई और उत्तरी क्वी काल (534-577) के हैं। ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ आर्कयोलॉजी ऑफ द चाइनीज एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज’ और ‘हेबेई प्रॉवीन्शियल इन्स्टीट्यूट ऑफ कल्चरल हैरिटेज’ के पुरातत्वविदों के अनुसार, ये प्रतिमाएं सफेद संगमरमर और नीले पत्थरों से बनी हैं। कुछ प्रतिमाओं पर रंग किया गया है या कलई की गई है। सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ की खबर के अनुसार, ‘हेबेई प्रॉवीन्शियल ब्यूरो ऑफ कल्चरल हैरिटेज’ के एक अधिकारी झांग वेनरूई ने बताया कि प्रतिमाओं की लंबाई 20 सेन्टीमीटर से लेकर एक वास्तविक व्यक्ति के आकार तक की है। पुरातत्वविद संरक्षण और अनुसंधान के लिए इन प्रतिमाओं की मरम्मत कर रहे हैं। समझा जाता है कि करीब 2,000 साल पहले भारत से बौद्ध धर्म का चीन में प्रसार हुआ था। (भाषा)
 खुदाई में लक्ष्मी की प्राचीन मूर्ति मिली
 पश्चिम बंगाल के हावड़ा के सांकराइल थाना के माकुवा इलाके में खुदाई के दौरान लक्ष्मी की प्राचीन मूर्ति मिली है, जो काफी कीमती पत्थर की बताई जा रही है। बताया गया है कि शनिवार दोपहर उक्त इलाके में किसी काम के लिए खुदाई की जा रही थी। उसी समय मिट्टी के अंदर से कीमती पत्थर की मूर्ति मिली। फिलहाल जांच पड़ताल की जा रही है कि यह मूर्ति कितनी पुरानी है और किस पत्थर से निर्मित है। 
 ( ५-०३-२०१२ के अंक जनसत्ता कोलकाता से साभार) 
 खुदाई के दौरान भदुली में ईंट की एक प्राचीन दीवार मिली
 http://www.jagran.com/jharkhand/chatra-8816275.html
 झारखंड के चतरा में इटखोरी इलाके में पुरातत्व विभाग द्वारा भदुली में की जा रही खुदाई के दौरान ईंट की एक प्राचीन दीवार मिली है। यह प्राचीन मंदिर के बुनियाद से पांच फीट की दूरी पर स्थित है। एक फीट मिट्टी की कटाई के दौरान यह दीवार नजर आई है। दीवार में में प्राचीन ईटें सलीके से लगाई गई हैं। माना जा रहा है कि यह मंदिर के परिक्रमा स्थल के बाहरी हिस्से की दीवार हो सकती है। खुदाई के दौरान ध्वस्त मंदिर के शिखर का एक आमलक भी बरामद हुआ है। बताया जा रहा है कि प्राचीन मंदिर शिखर वाला रहा होगा। भारतीय पुरातत्व विभाग इटखोरी का प्राचीन इतिहास खंगालने का मन बना रहा है। इस बात का संकेत धार्मिक नगरी भदुली का भ्रमण करने के दौरान पुरातत्व विभाग की निदेशक शुभ्रा प्रमाणिक ने दिया है। उन्होंने विभाग के अधिकारियों को भदुली समेत प्रखंड के ग्रामीण इलाकों से बरामद प्राचीन प्रतिमाओं व ध्वस्त मंदिरों के अवशेष वाले स्थलों को चिह्नित करने का निर्देश दिया है। दरअसल पुरातत्व विभाग इटखोरी के भदुली के अलावा विभिन्न गांवों के पुरातात्विक अवशेषों को देखकर काफी प्रभावित हुआ है। पुरातत्व विभाग की निदेशक शुभ्रा प्रमाणिक का मानना है कि जो ऐतिहासिक धार्मिक नगरी भदुली से चारो ओर दस पंद्रह किलोमीटर के दायरे में प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं, उन स्थलों पर वर्तमान समय में भी प्राचीन प्रतिमाएं व खंडित मंदिरों के अवशेष मौजूद हैं। निदेशिका ने कहा कि इतने बड़े पैमाने पर दस पंद्रह किलोमीटर के दायरे में प्राचीन मंदिरों का अवशेष पाया जाना पुरातात्विक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। इस बात की खोज अवश्य होनी चाहिए कि किस काल में और किसने यहां मंदिरों का निर्माण कराया। उन्होंने बताया कि ज्ञान प्राप्ति से पूर्व गौतम बुद्ध का इस स्थल से जुड़ाव होने की बातें आ रही है। वास्तव में खोज के दौरान अगर यह सिद्ध हो जाता है, तो देश के मानचित्र पर यह क्षेत्र उभरकर सामने आ जाएगा। उन्होंने मौके पर मौजूद पुरातत्व विभाग के अधीक्षण पुरातत्वविद एन जी निकोसे को निर्देश दिया कि भदुली में खुदाई के दौरान आसपास के गांवों में उन स्थलों को चिह्नित किया जाए जहां प्राचीन मंदिरों के अवशेष पाए गए हैं। ऐसे स्थलों की सूची के साथ फोटोग्राफ तैयार कर उसे विभाग के दिल्ली कार्यालय में भेजा जाए। ( जागरण से साभार )

 भदुली खुदाई में मिली बुद्ध की छह प्रतिमाएं
 इटखोरी की ऐतिहासिक धार्मिक नगरी भदुली प्राचीन काल में मूर्ति व शिल्पकला का प्रसिद्ध केंद्र था। आठवीं से बारहवीं शताब्दी काल तक इटखोरी व इसके आसपास के क्षेत्रों में नागरीय सभ्यता थी। यह इलाका बिहार-बंगाल मार्ग पर स्थित था। यह कहना है भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीक्षण अभियंता एनजी निकोसे का। उन्होंने बताया कि पूरे झारखंड में भदुली जैसा महत्वपूर्ण प्राचीन स्थल कोई नहीं है। उन्होंने करमा कला गांव के दौरा क्रम में बताया कि भदुली से प्राप्त प्राचीन मंदिरों व मूर्तियों के अवशेष से यह ज्ञात हुआ है कि यह सिर्फ धार्मिक स्थल ही नहीं था। यहां बडे़ पैमाने पर पत्थरों को तराशकर प्रतिमाओं व कलाकृतियों का निर्माण किया जाता था। फिर यहीं से बिहार, बंगाल, उड़ीसा आदि क्षेत्रों में प्रतिमाएं भेजी जाती थीं। यहां मुख्य रूप से काले ग्रेनाइट की प्रतिमाएं व कलाकृतियां पाई गई हैं। खुदाई के पश्चात यहां आठवीं शताब्दी के पहले की सभ्यता होने के भी प्रमाण मिल सकते हैं। अब तक प्रतिमाएं व कलाकृतियां जमीन के ऊपरी सतह में मिली हैं। ये प्रमाण हैं कि यहां पहले भी सभ्यता थी। पुरातत्व विभाग को भदुली में बड़ी सफलता हाथ लगी है। सोमवार को खुदाई स्थल से एक पत्थर में तराशकर बनाई हुई भगवान बुद्ध की छह प्रतिमाएं मिली है। सभी प्रतिमाओं की मुद्राएं अलग-अलग हैं। पुरातत्वविदों के अनुसार प्रतिमा नौवीं से दसवीं शताब्दी काल के बीच की है। कयास लगाया जा रहा है कि प्राचीन काल में यहां बौद्ध मंदिर रहा होगा। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षण पुरातत्वविद् एनजी निकोसे के अनुसार खुदाई में मिला सैंड स्टोन का पैनल एक फिट लंबा, आधा फिट ऊंचा है। इस पैनल में सवा दो इंच ऊंची भगवान बुद्ध की छह प्रतिमाएं तराशकर बनाई हुई हैं। इनमें कुछ प्रतिमाएं ध्यान मुद्रा में, कुछ धर्म चक्र मुद्रा में तो कुछ भूमि स्पर्श मुद्रा में हैं। जहां से यह प्रतिमा बरामद हुई है, उसे प्राचीन मंदिर का गर्भ गृह स्थल बताया जा रहा है। निकोसे ने बताया कि आगे की खुदाई में यहां काफी कुछ मिलने की संभावना है। उसी के आधार पर इस स्थान के बारे में दावे के साथ कुछ कहा जा सकेगा। फिलहाल विभाग ने गर्भ गृह स्थल में खुदाई का कार्य तेज कर दिया है। खुदाई स्थल से ही ईट की एक प्राचीन दीवार भी नजर आ रही है। हालांकि दीवार कितनी लंबी या चौड़ी है इसका खुलासा अभी नहीं हो सका है। भदुली से खुदाई के दौरान मिली हंस पर सवार मानव आकृति की प्रतिमा चंद्रकांता की है। यह खुलासा झारखंड राज्य कला एवं संस्कृति विभाग के पूर्व उप निदेशक हरेंद्र प्रसाद सिन्हा ने किया है। उन्होंने बताया कि चंद्रकांता की प्रतिमा का संबंध बौद्ध धर्म से रहा है।

 भदुली की खुदाई में मिला मनौती स्तूप
 इटखोरी की ऐतिहासिक धार्मिक नगरी भदुली में पुरातत्व विभाग द्वारा खुदाई के दौरान एक मनौती स्तूप बरामद हुआ है। मनौती स्तूप के चारो ओर भगवान बुद्ध की अलग-अलग मुद्राओं में प्रतिमाएं बनी हुई है। मनौती स्तूपा की बरामदगी से पुरातत्व विभाग काफी उत्साहित है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षण पुरातत्व विद एनजी निकोसे ने बताया कि भदुली में जिस स्थल पर प्राचीन मंदिर की बुनियाद मिली है उसके बाहरी भाग में यह मनौती स्तूप प्राप्त हुआ है। मनौती स्तूप की ऊंचाई 36 सेंटीमीटर है। इसमें भगवान बुद्ध की चार प्रतिमाएं बनी हुई है। जिसमें एक प्रतिमा ध्यान मुद्रा, दूसरी धर्म चक्र मुद्रा तथा तीसरी प्रतिमा भूमि स्पर्श मुद्रा में बनाई गई है। मिट्टी में दबे रहने के कारण चौथी प्रतिमा की मुद्रा का पता अभी तक नहीं लग पाया है। निकोसे ने बताया कि मनौती स्तूप हैंड स्टोन पत्थर से नौवीं- दसवीं शताब्दी के बीच निर्मित हुआ है। इसके आसपास हल्के लाल रंग के मृदभांड भी बरामद हुए हैं। मालूम हो कि जिस स्थल पर खुदाई का कार्य किया जा रहा है, पहले उसे जैन धर्म के दसवें तीर्थकर भगवान शीतलनाथ स्वामी की जन्मभूमि माना जाता था। इस सवाल पर अधीक्षण पुरातत्व विद का कहना है कि जब तक बुनियाद के मध्य भाग में खुदाई पूरी नहीं हो जाती है तब तक यह कहना संभव नहीं है कि यहां मंदिर किस धर्म का रहा होगा।

भदुली में मिला एक और बौद्ध स्तूप 
इटखोरी की ऐतिहासिक धार्मिक नगरी भदुली में खुदाई के दौरान पुरातत्व विभाग ने एक और बौद्ध स्तूप ढूंढ निकाला है। भदुली में मिलने वाला यह दूसरा बौद्ध स्तूप है। जिसका निर्माण नौंवी-दसवीं शताब्दी में किया गया था। रविवार को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षण पुरातत्वविद एन जी निकोसे ने खुदाई स्थल का निरीक्षण करने के पश्चात कहा कि मनौती स्तूप के पीछे चल रही खुदाई के दौरान ईट की एक फर्श मिली है। दरअसल यह बौद्ध स्तूप का ऊपरी हिस्सा है। खुदाई पूरी पर पूरा स्तूप सामने आ जाएगा। निकोसे ने बताया कि यह बौद्ध स्तूप पहले मिले बौद्ध स्तूप से भी प्राचीन है। उन्होंने कहा कि एक ही स्थल पर दो बौद्ध स्तूप का मिलना पुरातात्विक दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है। विभाग इसका पूरा इतिहास लिखेगा ताकि देश व दुनिया के लोग इस स्थल की पौराणिकता से परिचित हो सकें। स्तूप में अस्थि कलश या अन्य कोई दूसरी चीज भी मिल सकती है। भदुली में खुदाई का कार्य शुरू कराने में अहम भूमिका निभाने वाले भंते तिस्सावरो ने खुदाई स्थल का निरीक्षण किया। निरीक्षण के पश्चात भंते ने कहा कि मनौती स्तूप के पीछे जिस स्थल की खुदाई पुरातत्व विभाग कर रहा है, वह कभी बौद्ध विहार का हिस्सा रहा होगा। उन्होंने बताया कि खुदाई के प्रारंभिक दौर में ही ईट की जमीन दिखलाई पड़ रही है। ईट की इस जमीन का क्षेत्र काफी लंबा चौड़ा प्रतीत हो रहा है। हालांकि यह अभी स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इस स्थल पर किस तरह की इमारत रही होगी। वैसे भंते तिस्सावरो का मानना है कि यहां बौद्ध स्तूप या बौद्ध मठ रहा होगा। निरीक्षण के दौरान भंते ने पुरातत्व विभाग के अब्दुल आरीफ, जयशंकर नायक तथा धर्मेद्र कुमार से खुदाई की जानकारी ली। उन्होंने बताया कि शीघ्र ही केंद्रीय पर्यटन मंत्री सुबोध कांत सहाय से वार्ता कर यहां म्यूजियम निर्माण के लिए कहा जाएगा।

 पलामू में मिले दो बौद्ध स्तूप
 http://www.jagran.com/jharkhand/ranchi-7604479.html 
रांची के पलामू के हुसैनाबाद प्रखंड के पंसा व सहराविरा गांव में दो स्तूप मिले हैं। पिछले दिनों भारतीय पुरातत्व विभाग की टीम ने इन गांवों का दौरा किया था। इस दौरे में ही इन स्तूपों का पता चला। झारखंड में अब तक बौद्धकालीन मूर्तियां व उनके अवशेष तो मिलते रहे हैं, स्तूप पहली बार मिले हैं। पिछले दिनों पलामू में ही रॉक पेंटिंग मिली थी। पंसा गांव हुसैनाबाद प्रखंड से 22 किमी दूर है और कबरा कला गांव से 4 किमी। गांव कोयल नदी के तट पर है। कबरा कला वह गांव हैं, जिसके विशाल टीले से पाषाण काल से लेकर ब्रिटिश काल के अवशेष मिलते हैं। इस गांव के टीले की खुदाई अभी तक नहीं हुई है। इसी गांव से 4 किमी दूर पंसा गाव हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, रांची अंचल के अधीक्षक एन जी निकोशे बताते हैं कि स्तूप मिट्टी के बने हैं। इसकी परिधि 15 मीटर हैं और ऊंचाई आठ मीटर। स्तूप के ऊपर ईटों का भी इस्तेमाल हुआ है जिनकी साइज है 10 गुणा 7 गुणा तीन। सात गुणा पांच गुणा तीन। दस गुणा सात गुणा तीन सेंटी मीटर। यहां लाल रंग के मृदभांड भी पाए गए हैं। गांव वाले इस स्तूप पर पुआल या ओसावन करते हैं। उन्हें इसकी ऐतिहासिकता की जानकारी नहीं है। उनके लिए यह एक मिट्टी का टीला है। दूसरा स्तूप सहारविरा गांव में मिला है। यह पंसा गांव से 5 किमी दूर है। इस स्तूप की ऊंचाई तीन मीटर है और परिधि आठ मीटर। इसमें पके ईटों का भी इस्तेमाल हुआ है। स्तूप के बीच में पत्थर का स्तंभ है। स्तंभ के ऊपरी हिस्से पर बौद्ध की आकृति है। स्तंभ स्तूप में धंसा हुआ है। निकोश इसे 6वीं-7वीं शताब्दी का मानते हैं। स्तूप के ऊपर व आस-पास झाड़-झंखाड़ उग आए हैं। स्तूप से झांकती बुद्ध की प्रतिमा अपनी कहानी खुद की बयां करती है। क्या होता है स्तूप स्तूप का शाब्दिक अर्थ ढेर होता है। एक गोल टीले के आकार की संरचना है जिसका प्रयोग पवित्र बौद्ध अवशेषों को रखने के लिए किया जाता है। माना जाता है कभी यह बौद्ध प्रार्थना स्थल होते थे। स्तूप समाधि, अवशेषों अथवा चिता पर स्मृति स्वरूप निर्मित किया गया होता है।

Sunday, March 4, 2012

खजुराहो विश्व के देखने लायक दस प्राचीन शहरों की सूची में शामिल

  मध्यकालीन भारत की स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना कहे जाने वाले खजुराहो के विश्वप्रसिद्ध मंदिरों को अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार हफिंगटन पोस्ट ने दुनिया के, देखने लायक दस प्राचीन शहरों की सूची में शामिल किया है। पोस्ट ने इस सूची में तुर्की के ‘इफेसुस’ को पहला स्थान, कंबोडिया के ‘अंकोरवाट’ को दूसरा और मैक्सिको के तेओतिहुअकान शहर को तीसरा स्थान दिया है । समाचार पत्र ने खजुराहो को सातवें पायदान पर रखा है। हफिंग्टन पोस्ट ने अपनी वेबसाइट पर खजुराहो के बारे में बारे में लिखा है, ‘संभवत अपनी कामोत्तेजक मूर्तियों के लिये दुनियाभर में चर्चित इस प्राचीन शहर में देखने लायक और भी बहुत कुछ है । खजुराहो जाने वाले पर्यटक 10वीं और 11वीं सदी में बने और बेहद आकषर्क 22 मंदिरों को देख सकते हैं।
अखबार ने लिखा है, ‘इन मंदिरों को मध्यकालीन भारतीय मूर्तिकला के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में शामिल किया जाता है । पूरे खजुराहो को देखने के लिये गंभीरता और प्रतिबद्धता की जरूरत होती है, इसलिये ज्यादातर पर्यटक विश्व प्रसिद्ध मंदिरों और शाम को होने वाले बेहद भव्य ‘साउंड एंड लाइट शो’ तक खुद को सीमित रखते हैं।’ हफिंग्टन पोस्ट ने लिखा है कि भारत में खजुराहो की टक्कर का स्थापत्य फतेहपुर सीकरी में दिखाई देता है । यह शहर बसने के कुछ ही समय बाद खाली हो गया था और इसका निर्माण 16वीं सदी के मुगल बादशाह के लिये राजधानी के तौर पर किया गया था । यह स्थल अब पर्यटकों में बेहद लोकप्रिय है। सूची में पहले स्थान पर तुर्की के ‘इफेसुस’ शहर के बारे में पोस्ट ने लिखा है, ‘विश्व में यूनानी और रोमन स5यता के सबसे अच्छे खंडहरों में से कुछ यहां पर हैं । हालांकि यहां पर कुछ दिलचस्प ध्वंसावशेष हैं लेकिन यहां एक अविश्वसनीय थियेटर है जिसमें 25 हजार लोग बैठ सकते हैं।’ अखबार ने अंकोरवाट के बारे में लिखा है ‘एक सर्वेक्षण के मुताबिक, खमेर साम्राज्य की राजधानी रहा यह प्राचीन शहर औद्योगिकरण के पहले दुनिया की सबसे बड़ी बस्ती थी । आज यहां पर कई पुरातात्विक आश्चर्य मौजूद हैं जिसमें सबसे ज्यादा सुंदर अंकोरवाट का मंदिर है।’ मैक्सिको के तेओतिहुअकान शहर के बारे में हफिंग्टन पोस्ट ने लिखा है, ‘यह शहर अपने विशाल सीढ़ीदार पिरामिडों और मध्य में बने चौड़े रास्ते के लिये जाना जाता है । इसे ‘मौत का रास्ता’ भी कहा जाता है । इसे किसने बनवाया था, इसकी ठीक ठीक जानकारी अभी नहीं हो पाई है।’
    दुनियाभर में देखने लायक 10 प्राचीन शहरों की इस सूची में मिस्र के थेबेस को चौथा, पेरू के माचू पीचू को पांचवां, सीरिया के पालमायरा को छठवां, इटली के हरकुलानेओम शहर को आठवां, मैक्सिको के चिचेन इजजा को नौंवा और जार्डन के शहर पेट्रा को 10 वां स्थान दिया गया है। (एजेंसी)
http://zeenews.india.com/hindi/news/featured/

इतिहास

    मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित खजुराहो को प्राचीन काल में खजूरपुरा और खजूर वाहिका के नाम से भी जाना जाता था। यहां बहुत बड़ी संख्या में प्राचीन हिन्दू और जैन मंदिर हैं।
खजुराहो का इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है। यह शहर चंदेल साम्राज्‍य की प्रथम राजधानी था। चन्देल वंश और खजुराहो के संस्थापक चन्द्रवर्मन थे। चंदेल मध्यकाल में बुंदेलखंड में शासन करने वाले राजपूत राजा थे। वे अपने आप का चन्द्रवंशी मानते थे। चंदेल राजाओं ने दसवीं से बारहवी शताब्दी तक मध्य भारत में शासन किया। खजुराहो के मंदिरों का निर्माण 950 ईसवीं से 1050 ईसवीं के बीच इन्हीं चंदेल राजाओं द्वारा किया गया। मंदिरों के निर्माण के बाद चंदेलों ने अपनी राजधानी महोबा स्थानांतरित कर दी। लेकिन इसके बाद भी खजुराहो का महत्व बना रहा।
मध्यकाल के दरबारी कवि चन्द्रवरदायी ने पृथ्वीराज रासो के महोबा खंड में चंदेलों की उत्पत्ति का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि काशी के राजपंडित की पुत्री हेमवती अपूर्व सौंदर्य की स्वामिनी थी। एक दिन वह गर्मियों की रात में कमल-पुष्पों से भरे हुए तालाब में स्नान कर रही थी। उसकी सुंदरता देखकर भगवान चन्द्र उन पर मोहित हो गए। वे मानव रूप धारणकर धरती पर आ गए और हेमवती का हरण कर लिया। दुर्भाग्य से हेमवती विधवा थी। वह एक बच्चे की मां थी। उन्होंने चन्द्रदेव पर अपना जीवन नष्ट करने और चरित्र हनन का आरोप लगाया।
अपनी गलती के पश्चाताप के लिए चन्द्र देव ने हेमवती को वचन दिया कि वह एक वीर पुत्र की मां बनेगी। चन्द्रदेव ने कहा कि वह अपने पुत्र को खजूरपुरा ले जाए। उन्होंने कहा कि वह एक महान राजा बनेगा। राजा बनने पर वह बाग और झीलों से घिरे हुए अनेक मंदिरों का निर्माण करवाएगा। चन्द्रदेव ने हेमवती से कहा कि राजा बनने पर तुम्हारा पुत्र एक विशाल यज्ञ का आयोजन करगा जिससे तुम्हारे सारे पाप धुल जाएंगे। चन्द्र के निर्देशों का पालन कर हेमवती ने पुत्र को जन्म देने के लिए अपना घर छोड़ दिया और एक छोटे-से गांव में पुत्र को जन्म दिया।
हेमवती का पुत्र चन्द्रवर्मन अपने पिता के समान तेजस्वी, बहादुर और शक्तिशाली था। सोलह साल की उम्र में वह बिना हथियार के शेर या बाघ को मार सकता था। पुत्र की असाधारण वीरता को देखकर हेमवती ने चन्द्रदेव की आराधना की जिन्होंने चन्द्रवर्मन को पारस पत्थर भेंट किया और उसे खजुराहो का राजा बनाया। पारस पत्थर से लोहे को सोने में बदला जा सकता था।
चन्द्रवर्मन ने लगातार कई युद्धों में शानदार विजय प्राप्त की। उसने कालिंजर का विशाल किला बनवाया। मां के कहने पर चन्द्रवर्मन ने तालाबों और उद्यानों से आच्छादित खजुराहो में 85 अद्वितीय मंदिरों का निर्माण करवाया और एक यज्ञ का आयोजन किया जिसने हेमवती को पापमुक्त कर दिया। चन्द्रवर्मन और उसके उत्तराधिकारियों ने खजुराहो में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया।

कंदरिया महादेव मंदिर

कंदरिया महादेव मंदिर पश्चिमी समूह के मंदिरों में विशालतम है। यह अपनी भव्यता और संगीतमयता के कारण प्रसिद्ध है। इस विशाल मंदिर का निर्माण महान चंदेल राजा विद्याधर ने महमूद गजनवी पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में किया था। लगभग 1050 ईसवीं में इस मंदिर को बनवाया गया। यह एक शैव मंदिर है। तांत्रिक समुदाय को प्रसन्न करने के लिए इसका निर्माण किया गया था। कंदरिया महादेव मंदिर लगभग 107 फुट ऊंचा है। मकर तोरण इसकी मुख्य विशेषता है। मंदिर के संगमरमरी लिंगम में अत्यधिक ऊर्जावान मिथुन हैं। अलेक्जेंडर कनिंघम के अनुसार यहां सर्वाधिक मिथुनों की आकृतियां हैं। उन्होंने मंदिर के बाहर 646 आकृतियां और भीतर 246 आकृतियों की गणना की थीं।

देवी जगदम्बा मंदिर

कंदरिया महादेव मंदिर के चबूतरे के उत्तर में जगदम्बा देवी का मंदिर है। जगदम्बा देवी का मंदिर पहले भगवान विष्णु को समर्पित था, और इसका निर्माण 1000 से 1025 ईसवीं के बीच किया गया था। सैकड़ों वर्षों पश्चात यहां छतरपुर के महाराजा ने देवी पार्वती की प्रतिमा स्थापित करवाई थी इसी कारण इसे देवी जगदम्बा मंदिर कहते हैं। यहां पर उत्कीर्ण मैथुन मूर्तियों में भावों की गहरी संवेदनशीलता शिल्प की विशेषता है। यह मंदिर शार्दूलों के काल्पनिक चित्रण के लिए प्रसिद्ध है। शार्दूल वह पौराणिक पशु था जिसका शरीर शेर का और सिर तोते, हाथी या वराह का होता था।

सूर्य मंदिर

खजुराहो में एकमात्र सूर्य मंदिर है जिसका नाम चन्द्रगुप्त है। चन्द्रगुप्त मंदिर एक ही चबूतरे पर स्थित चौथा मंदिर है। इसका निर्माण भी विद्याधर के काल में हुआ था। इसमें भगवान सूर्य की सात फुट ऊंची प्रतिमा कवच धारण किए हुए स्थित है। इसमें भगवान सूर्य सात घोड़ों के रथ पर सवार हैं। मंदिर की अन्य विशेषता यह है कि इसमें एक मूर्तिकार को काम करते हुए कुर्सी पर बैठा दिखाया गया है। इसके अलावा एक ग्यारह सिर वाली विष्णु की मूर्ति दक्षिण की दीवार पर स्थापित है।
बगीचे के रास्ते में पूर्व की ओर पार्वती मंदिर स्थित है। यह एक छोटा-सा मंदिर है जो विष्णु को समर्पित है। इस मंदिर को छतरपुर के महाराजा प्रताप सिंह द्वारा 1843-1847 ईसवीं के बीच बनवाया गया था। इसमें पार्वती की आकृति को गोह पर चढ़ा हुआ दिखाया गया है। पार्वती मंदिर के दायीं तरफ विश्वनाथ मंदिर है जो खजुराहो का विशालतम मंदिर है। यह मंदिर शंकर भगवान से संबंधित है। यह मंदिर राजा धंग द्वारा 999 ईसवीं में बनवाया गया था। चिट्ठियां लिखती अपसराएं, संगीत का कार्यक्रम और एक लिंगम को इस मंदिर में दर्शाया गया है।
 http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8B

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...