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Friday, February 5, 2010

नालंदा के तेलहारा में था बौद्धों का विशाल अध्ययन केंद्र

खबरों में इतिहास ( भाग-५)


अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास, कला, संस्कृति, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास से संबंधित होंगी। इस अंक में पढ़िए--------।

१-नालंदा के तेलहारा में भी था बौद्धों का विशाल अध्ययन केंद्र

२-प्राचीन भाषा बो को आगे ले जाने वाली कड़ी टूट गई

३-बारगढ़ ( उड़ीसा ) में ग्यारह दिन का शासक होता है ‘कंस’

४-सबसे पुराने पदचिन्ह मिले

नालंदा के तेलहारा में था बौद्धों का विशाल अध्ययन केंद्र
भगवान बुद्ध की पत्थर की एक प्रतिमा खुदाई में मिली है। तीन फीट ऊंची यह प्रतिमा ध्यानी बुद्ध यानी ध्यानवस्था में बुद्ध की है। बिहार के नालंदा जिले के तेलहारा में पहली फरवरी को खुदाई में मिली यह प्रतिमा पाल राजाओं के काल की बताई जा रही है। इस खुदाई स्थल से गोंद में बच्चा लिए हुए मां की तीन सेंटीमीटर ऊंची कांस्य प्रतिमा भी मिली है। पुरातत्तव विभाग के बिहार के अधिकारियों की टीम की देखरेख में एक महीने से यहां खुदाई की जा रही है। पुरातत्वविद अतुल कुमार वर्मा की अगुवाई में चल रहे इस प्रोजेक्ट को बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने २६ दिसंबर २००९ को चालू किया था। वर्मा ने बताया कि अभी तक खुदाई से प्राप्त साक्षयों के आधार पर ऐसा लगता है कि प्राचीन काल में यह स्थल काफी विशाल बौद्ध अध्ययन केंद्र रहा होगा। अभी बुद्ध की काले पत्थर वाली जो प्रतिमा मिली है वह महज १० फीट नीचे से मिली है। कुछ दिन पहले चामुंडा की कांसे की प्रतिमा भी यहीं से मिली है। उन्होंने बताया कि अभी तक की जो प्रतिमाएं मिली हैं, वह सभी या तो गुप्त काल या फिर पाल काल की हैं। वर्मा के राय में तेलहारा स्थल थेरवाद संप्रदाय के बौद्धों का मठ रहा होगा। इस स्थल की सर्वप्रथम खोज १८७२ में एस ब्रोडले ने की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक में इस स्थल को तिलास-अकिया बताया है। ह्वेनसांग ने इस स्थल को अपने वृत्तांत में ति-लो-त्से-किया बताया है। ह्वेनसांग ने लिखा है कि तिलहारा में सातवीं शताब्दी में महायान संप्रदाय के सात मठ थे। यहीं हजारों बौद्ध भिक्षु महायान ग्रंथों का अध्ययन कर रहे थे।


प्राचीन भाषा बो को आगे ले जाने वाली कड़ी टूट गई

अंडमान में एक 85 वर्षीया महिला बोआ सीनियर के निधन के साथ ही प्राचीन भाषा बो को आगे ले जाने वाली कड़ी हमेशा के लिए टूट गई. भारत की एक अग्रणी भाषाविद प्रोफ़ेसर अन्विता अब्बी ने बोआ के निधन को भाषा विज्ञान के क्षेत्र में एक अपूरणीय क्षति बताया है क्योंकि वह दुनिया की प्राचीनतम भाषाओं में से एक को बोलने वाली अंतिम व्यक्ति थीं. उल्लेखनीय है कि अंडमान की प्राचीन भाषाओं का स्रोत अफ़्रीका को माना जाता है. कई अंडमानी भाषाएँ तो 70 हज़ार साल तक पुरानी मानी जाती हैं. प्रोफ़ेसर अब्बी ने बीबीसी को बताया, "अपने माता-पिता की मौत के बाद पिछले 30-40 वर्षों से बोआ बो भाषा में बोलने वाली अंतिम व्यक्ति थीं." उन्होंने कहा, "बोआ अक्सर ख़ुद को बहुत अकेला महसूस करती थीं. अन्य लोगों से बातचीत के लिए उन्हें अंडमानी हिंदी सीखनी पड़ी थी."

ख़तरा आगे भी

प्रोफ़ेसर अब्बी ने कहा कि चूंकि अंडमानी भाषाओं को पाषाण युग से चली आ रही भाषाओं का अंतिम अवशेष माना जाता है, इसलिए कहा जा सकता है कि बोआ सीनियर के निधन से भाषाओं की गुत्थी का एक सिरा हमेशा के लिए खो गया. अंडमान की जनजातियों को चार समूहों में रखा जाता है- ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओन्गी और सेंटीनली. बोआ सीनियर ग्रेट अंडमानी समूह से थीं. अब इस जनजाति के 50 के क़रीब लोग ही बचे हैं जिनमें से अधिकतर बच्चे हैं. सर्वाइवल इंटरनेशनल संस्था के निदेशक स्टीफ़न कोरी ने बो भाषा के उन्मूलन पर दुख व्यक्त करते हुए कहा है कि मानव समाज का एक अनूठा अंश अब स्मृतियों में ही शेष रहेगा.

बारगढ़ ( उड़ीसा ) में ग्यारह दिन का शासक ‘कंस’

उड़ीसा में एक विशेष महोत्सव के दौरान पौराणिक मान्यताओं में मथुरा के शासक रहे ‘कंस’ के पात्र द्वारा अपने ‘दरबार’ में सरकारी अधिकारियों के साथ.साथ मंत्रियों तक को तलब करने की परंपरा है। वह सजेधजे हाथी पर बैठकर पूरे शहर की यात्रा भी करता है। यहां ‘धनु यात्रा’ महोत्सव के दौरान कंस का चरित्र अदा किया जाता है, जिसकी थीम महाभारत कालीन ‘कृष्णलीला’ से ली गयी है, जिसमें कंस अपने भांजों कृष्ण और बलराम को मारने के इरादे से उन्हें यात्रा देखने के लिए आमंत्रित करता है।

महोत्सव के दौरान कंस हर दिन कस्बे और इसके आसपास के इलाकों में जाता है और कुछ भी उसकी नजर से नहीं बचता, चाहे यातायात हो, सार्वजनिक सुविधाएं हों, पेयजल हो या फिर सफाई हो।कंस के पात्र ने 27 दिसंबर को बारगढ़ के जिला कलेक्टर को तलब किया और उनसे कहा कि कस्बे में सभी घरों में प्रसाधन सुविधाएं अच्छी तरह से होना सुनिश्चित करें। उसने अधिकारी से कहा, ‘‘मेरे राज्य में कोई बच्चा बीमारी से नहीं मरना चाहिए।’’ वर्ष 1994 में उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिवंगत बीजू पटनायक को कंस ने अपने ‘दरबार’ में बुलाया था और वह 11 दिन के इस राजा के समक्ष खुद पेश होने के लिए हेलीकॉप्टर से उड़कर भुवनेश्वर पहुंचे।

महोत्सव की शुरूआत देवकी और वासुदेव के विवाह से होती है और इसके बाद कृष्ण जन्म और अनेक घटनाक्रमों के साथ अत्याचारी शासक कंस का चित्रण होता है।( भाषा -३ जनवरी २०१० )

सबसे पुराने पदचिन्ह मिले

पदचिन्ह के आधार पर वैज्ञानिकों ने जानवर के इस तरह के होने का अनुमान लगाया हैवैज्ञानिकों ने दक्षिण पूर्वी पोलैंड में एक चौपाए जानवर के सबसे पुराने पदचिन्ह ढूँढ़ निकाले हैं.एक अज्ञात जानवर के पदचिन्ह पत्थर पर मिले हैं और वैज्ञानिकों का कहना है कि ये 39.7 करोड़ साल पुराने हैं.उन्होंने विज्ञान पत्रिका नेचर को बताया कि पदचिन्हों के फॉसिल्स में इस जानवर के खुरों के निशान साफ़ दिखाई दे रहे हैं. वैज्ञानिकों के इस दल का कहना है कि इस खोज से यह साबित होता है धरती पर रीढ़ वाले जानवर पहले के अनुमान से लाखों साल पहले ही अस्तित्व में आ गए थे. यह अंतर लगभग 20 लाख सालों का है.

मगरमच्छ की तरह

स्वीडन के अपसाला यूनिवर्सिटी के पेर एलबर्ग इस खोज दल के सदस्य है. उनका कहना है कि यह उनके करियर का सबसे चकित करने वाला फॉसिल है. पोलैंड के होली क्रॉस पहाड़ों पर स्थित पत्थर खदान में ये पदचिन्ह कई जगह दिखाई पड़े हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसा प्रतीत होता है मानों वहाँ इन चौपाए जानवरों का एक समूह रहा होगा.

उनका कहना है कि ऐसा प्रतीत होता है कि ये जानवर मगरमच्छ की तरह रहे होंगे और ये ज़मीन और पानी दोनों में रहते रहे होंगे. हालांकि जिन रुपों में हम जानवरों को अब देखते हैं, उस रुप में आने में जानवरो को दसियों लाख साल लग गए थे. वैज्ञानिकों का कहना है कि पदचिन्हों से लगता है कि कुछ जानवर दो मीटर तक लंबे रहे होंगे.

स्वीडन और पोलैंड के वैज्ञानिकों ने इस जानवर के चलने के ढंग का भी अनुमान लगाने की कोशिश की है और बताया है कि वे अपने घुटनों, कुहनियों का उपयोग किस तरह किया करते थे.

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