इतिहास ब्लाग में आप जैसे जागरूक पाठकों का स्वागत है।​

Website templates

Wednesday, November 9, 2011

ढह रही हैं अवध के नवाबों की ऐतिहासिक ईमारतें

  उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अवध के नवाबों की ऐतिहासिक ईमारतों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। अवध के पहले बादशाह गाजिउद्दीन हैदर ने जो छतरमंजिल बनवाई थी उसका पोर्च मंगलवार को अचानक ढह गया। आसिफुद्दौला के बनवाए रूमी दरवाजा में दरार आ गई है तो वाजिद अली शाह के पिता अमजद अली शाह का मकबरा अतिक्रमण का शिकार है। शाहनजफ इमामबाड़ा के परिसर को शादी ब्याह के लिए भाड़े पर दिया जाता है। शादी ब्याह और पाटिर्यों के चलते यहां शोर शराबा और खाना पीना भी चलता है। खाना बनाने के लिए भठ्ठियां सुलगती रहती हैं और धुआं ऐतिहासिक ईमारत को नुकसान पहुंचता है। इसका निर्माण भी बादशाह गाजिउद्दीन हैदर ने 1816-17 में करवाया था। बड़ा इमामबाड़ा परिसर से लेकर छोटा इमामबाड़ा परिसर में लोगों ने मकान से लेकर दुकान तक खोल ली है। यह बानगी है लखनऊ की ऐतिहासिक ईमारतों की बदहाली की।
मंगलवार को छतरमंजिल का 15 फुट ऊंचा और तीस फुट लंबा पोर्च अचानक गिर जाने के बाद सब की नींद खुली है। यह ऐतिहासिक इमारत है और कई दशक से इसमे सेंट्रल ड्रग रिसर्च सेंटर की प्रयोगशाला चल रही है। उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्त्व निदेशालय के निदेशक राकेश तिवारी के मुताबिक यह इमारत जर्जर हो चुकी है। सीडीआरआई को करीब एक दशक पहले ही इसकी जानकारी दे दी गई थी पर इसे खाली नहीं किया गया। यह बताता है कि किस तरह ऐतिहासिक धरोहरों की अनदेखी की जा रही है। नवाबों के वंशज और अभिनेता जाफर मीर अब्दुल्ला ने जनसत्ता से कहा-सरकार तो चाहती है यह सब ऐतिहासिक इमारते गिर जाएं क्योकि वह तो नया इतिहास बना रहे हैं। उनके स्मारक यहां बन रहे हैं जिनका इस अवध की जमीन से कोई रिश्ता नहीं रहा । जिन लोगों ने अवध का निर्माण किया उनके स्मारक ढह रहे हैं। भारी ट्रैफिक के कारण रूमी दरवाजे में दरार आ चुकी है तो इमामबाड़ा में अतिक्रमण बढ़ रहा है। सिबटेनाबाद इमामबाड़ा के गेट पर तो सरकार ने ही अतिक्रमण कर लिया है।
जाफर मीर अब्दुल्ला ने संयुक्त राष्ट की सांस्कृतिक समिति के सेक्रेट्री जनरल(रिटायर) और स्वीडन में बसे मशहूर वास्तुकला विशेषज्ञ प्रोफेसर सतीश चंद्रा का हवाला देते हुए कहा कि इन ईमारतों का रख रखाव भी ठीक से नहीं हो रहा है। सतीश चंद्रा का भी यही मानना है कि ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण में जो सामग्री इस्तेमाल की जा रही है उससे काफी नुकसान पहुंच सकता है। इन इमारतों को दुरुस्त करने का काम पोटर्लैंड सीमेंट, सुर्खी, चूना और मौरंग आदि की मदद से किया जा रहा है। इनसे इमारतों की पोरेसिटी खत्म हो रही है जिससे संकट और बढ़ रहा है। अब्दुल्ला ने आगे कहा-अवध की इन इमारतों की खास बात यही है कि इन इमारतों में जो पोरेसिटी होती है उसी के चलते दीवारों के कान होते है वाला मुहावरा भी मशहूर हुआ और भूल भुलैया में दीवार के एक छोर पर कोई कागज फाड़े तो दूसरे छोर पर आवाज सुनी जा सकती थी। पर इमारतों की मरम्मत के चलते यह पोरेसिटी खत्म हो रही है जिससे इन इमारतों को नुकसान पहुंच रहा है।
एमिटी विश्विद्यालय के आकिर्टेक्ट विभाग के कुछ छात्रों ने इन इमारतों के हालात का अध्ययन कर कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां जुटाई हैं। अध्ययन के मुताबिक लखनऊ की पहचान रूमी दरवाजा में जो दरार आई है यदि उसे जल्द दुरुस्त नहीं किया गया तो आसिफुद्दौला की यह धरोहर इतिहास के पन्नो से गायब हो जाएगी। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के पिता अमजद अली शाह का मकबरा सिबटेनाबाद हजरत गंज में है। यह शिया लोगों का महत्त्वपूर्ण स्थल है। यह भवन भी भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग के संरक्षित भवनों में से एक है। इस इमामबाड़े पर लोगों ने कब्ज़ा कर रखा है। बाहर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे आप किसी मुहल्ले में खड़े हैं। इमामबाड़े में अंदर जाने पर आपको गैस एजंसी से लेकर चाट की दुकान तक मिल जाएगी। और लोग अतिक्रमण करे तो समझ में आता है सरकारी महकमा भी इस काम में पीछे नहीं है। हजरत गंज को खुबसूरत बनाने के नाम पर पर इस इमामबाड़े के मुख्य गेट पर बड़ा सा फव्वारा बना दिया गया जिससे अब कोई धार्मिक जलूस आदि भी बाहर नहीं आ सकता।
ऐसी ही स्थिति बड़ा इमामबाड़ा की है । इसको अवध के नवाब आसिफुद्दौला ने 1784 में बनवाया था। यहां पर भी लोगों ने कब्ज़ा जमा रखा है। इमामबाड़े के बाहर के हिस्से में एक होटल वाले ने कब्ज़ा कर रखा है। बाहर वह ठेला लगाता है व इमामबाड़े के अंदर की तरफ उसकी रसोई है। इमामबाड़े के अंदर की तरफ, मस्जिद के पीछे की तरफ व नीचे लोगों ने अवैध कब्ज़ा जमा रखा है। छोटा इमामबाड़ा में बाहर- अंदर दोनों जगह लोगों ने कब्ज़ा कर रखा है। यहां बाकायदा इन परिवारों का चौका चूल्हा जलता है। कहने को तो यह भी पुरातत्त्व विभाग का संरक्षित भवन है पर इसकी देख रेख करने वाला कोई है ऐसा देख कर नहीं लगता। करीब दर्जन भर इमारतें जर्जर हो चुकी हैं। ( साभार-जनसत्ता, अंबरीश कुमार )

4 comments:

चंदन कुमार मिश्र said...

ईमानदारी से कहें तो इतिहास को तो एक दिन दफ़न होना ही है…लेकिन हमें धरोहरों का संरक्षण तो करना ही है, लेकिन सरकार बस एक प्रश्नचिन्ह है…

Sunil Kumar said...

सच्चाई से रूबरू करवाने का आभार लेकिन कब जागेगी हमारी सरकार और वह महकमे जिनकी देख रेख में यह काम होना हैं |

SANDEEP PANWAR said...

आपका कार्य सराहनीय है.

जीवन और जगत said...

बिल्‍कुल सही। लखऊ का हस्‍ताक्षर कहा जाने वाला 'रूमी दरवाजा' भी जर्जर होता चला जा रहा है।

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...