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Tuesday, August 31, 2021

सचमुच ऐसे थे गांधी ! क्या गांधी को इसलिए भी याद किया जाएगा ?

*इतिहास की एक अविस्मरणीय दुर्घटना:* 

*१९२० में अचानक भारत की तमाम मस्जिदों से दो पुस्तकें वितरित की जाने लगी! एक पुस्तक का नाम था “कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी", और दूसरी पुस्तक का नाम था "उन्नीसवीं सदी का लंपट महर्षि"! ये दोनों पुस्तकें "अनाम" थीं! इसमें किसी लेखक या प्रकाशक का नाम नहीं था, और इन दोनों पुस्तकों में भगवान श्री कृष्ण, हिंदू धर्म, इत्यादि पर बेहद अश्लील, बेहद घिनौनी बातें लिखी गई थीं!*

*और इन पुस्तकों में तमाम देवी-देवताओं के बेहद अश्लील रेखाचित्र भी बनाए गए थे!*

*और धीरे-धीरे, ये दोनों पुस्तकों को भारत की हर एक मस्जिद में से वितरित की जाने लगीं!*

*यह बात जब गांधी तक पहुंची, तो गांधी ने इसे "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" की बात बता कर, गौण कर दिया, और कहा भारत में सब को अपनी बात रखने का हक है!*

 *लेकिन इन दोनों पुस्तकों से, भारत का जनमानस बहुत उबल रहा था!*

*फिर १९२३ में लाहौर स्थित "राजपाल प्रकाशक" के मालिक "महाशय राजपाल जी" ने एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसका नाम था "रंगीला रसूल"!* 

*उस पुस्तक के लेखक का नाम गुप्त रखा गया था, और लेखक की जगह लिखा था "दूध का दूध, और पानी का पानी"*  

*हालांकि उस पुस्तक के असली लेखक पंडित चंपूपति थे, जो इस्लाम के जाने-माने विद्वान थे!*

*और सबसे अच्छी बात यह थी, कि उस पुस्तक में कहीं कोई झूठ नहीं था, बल्कि  तमाम सबूतों के साथ, बकायदा आयत नंबर, हदीस नंबर, इत्यादि देकर, कई बातें लिखी गई थीं!*

*देढ वर्षों तक "रंगीला रसूल" बिकता रहा पूरे भारत में! कहीं, कोई बवाल नहीं हुआ! लेकिन एक दिन अचानक २८ मई १९२४ को गांधी ने अपने समाचारपत्र "यंग इंडिया" में एक लंबा-चौड़ा लेख लिखकर, "रंगीला रसूल" पुस्तक की खूब निंदा की, और अंत में ३ पंक्तियां ऐसी लिखी: ➳*

*"मुसलमानों को स्वयं ऐसी पुस्तक लिखने वालों को सजा देनी चाहिए!* 

*गांधी का ये लेख पढ़कर, पूरे भारत के मुसलमान भड़क गए! और "राजपाल प्रकाशक" के मालिक महाशय राजपाल जी के ऊपर ३ वर्षों में ५ बार हमले हुए, लेकिन गांधी ने एक बार भी हमले की निंदा नहीं की!*

*मजे की बात यह कि कुछ मुस्लिम विद्वानों ने उस पुस्तक "रंगीला रसूल" का मामला लाहौर उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) में दायर किया!*

*हाईकोर्ट ने चार इस्लामिक विद्वानों को न्यायालय में खड़ा करके, उनसे पूछा कि इस पुस्तक की कौन सी पंक्ति सही नहीं है, आप वह बता दीजिए!*

*चारों इस्लामिक विद्वान इस बात पर सहमत थे, कि इस पुस्तक में कोई गलत बात नहीं लिखी गई है!*

*फिर लाहौर उच्च न्यायालय ने महाशय राजपाल जी पर मुकदमा खारिज कर दिया! और उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया.... !!*

*फिर उसके बाद, ३ अगस्त १९२४ को गांधी ने "यंग इंडिया" समाचारपत्र में एक और भड़काने वाला लेख लिखा, और इस लेख में उन्होंने इशारों इशारों में ऐसा लिखा था कि "जब व्यक्ति को न्यायालयों से न्याय नहीं मिले, तब उसे अपनेआप प्रयास करके न्याय ले लेना चाहिए!"*  

*उसके बाद महाशय राजपाल जी के ऊपर दो बार और हमले के प्रयास हुए, और अंत में ६ अप्रैल १९२९ का हमला जानलेवा साबित हुआ, जिसमें मोहम्मद इल्म दीन नामक एक युवक ने, गदा से महाशय राजपाल जी के ऊपर कई वार किए, जिनसे उनकी जान चली गई!*

*जिस दिन उनकी हत्या हुई, उसके ४ दिन बाद गांधी लाहौर में थे, लेकिन गांधी महाशय राजपाल जी के घर पर शोक प्रकट करने नहीं गए, और ना ही अपने किसी संपादकीय में महाशय राजपाल जी की हत्या की निंदा की!*

*उसके बाद, अंग्रेजों ने मुकदमा चलाकर, मात्र ६ महीने में महाशय राजपाल जी के हत्यारे इल्म दीन को फांसी की सजा सुना दी।* 

*और वो भी इसलिए कि इस देश में पूरा हिंदू समाज उबल उठा था, और अंग्रेजो को लगा कि यदि उन्होंने जल्दी फांसी नहीं दी, तब अंग्रेजी शासन को भी खतरा हो सकता है!*

*उसके बाद ४ जून १९२९ को गांधी ने अंग्रेज वायसराय को चिट्ठी लिखकर महाशय राजपाल जी के हत्यारे की फांसी की सजा को माफ करने का अनुरोध किया था!*

*और उसके अगले दिन, अपने समाचारपत्र "यंग इंडिया" में एक लेख लिखा था, जिसमें गांधी ने यह साबित करने का प्रयत्न  किया थी कि यह हत्यारा तो निर्दोष है, नादान है, क्यों कि उसे अपने धर्म का अपमान सहन नहीं हुआ, और उसने गुस्से में आकर यहहत्या करने का निर्णय लिया!*

*दूसरी तरफ, तब के जाने-माने बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्नाह ने भी, लाहौर हाईकोर्ट में बकायदा एक बैरिस्टर की हैसियत से, इस मुकदमे में पैरवी करते हुए, यह कहा था, कि अपराधी मात्र १९ वर्ष का लड़का है, लेकिन इसने जघन्य अपराध किया है! इसके अपराध को कम नहीं समझा जा सकता! लेकिन इसकी आयु को देखते हुए, इसकी फांसी की सजा को उम्र कैद में बदल दी जाए, या फिर इसे काले पानी जेल में भेज दिया जाए!*

*लेकिन अंग्रेजों ने ३१अक्टूबर १९२९ को महाशय राजपाल जी के हत्यारे मोहम्मद इल्म दीन को लाहौर जेल में फांसी पर चढ़ा दिया!*

*२ नवंबर १९२९ को गांधी ने "यंग इंडिया" में इल्म दीन को फांसी देने को इतिहास का काला दिन लिखा!*

*अब आप स्वयं समझ सकते है कि गाँधी किस किस्म के मानव थे!*
*इस इतिहास को अधिक से अधिक शेयर करें!
साभार -*सुशील बाजपेयी अधिवक्ता उच्च न्यायालय लखनऊ एवं राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष हिन्दू समाज पार्टी*

Friday, August 27, 2021

हर धातु को सोने में बदलना जानते महान रसायन विज्ञानी नागार्जुन!

   हर धातु को सोने में बदलने वाली तरकीब जानते थे नागार्जुन, जानिए भारत के सबसे महान रसायनशास्त्री के बारे में।
भारत का इतिहास समृद्ध है और इस इतिहास में ऐसे अनेक शख्स शामिल हैं, जिन्होंने इतिहास को गढ़ने में अपना योगदान दिया है।
भारत के ऐतिहासिक पन्नो में दर्ज कई ऐसे महान पुरुषों की गाथाएं मिलती हैं, जो आज भी प्रेरणा से कम नहीं हैं। इस लेख द्वारा हम करीब तीन हजार वर्ष पहले रसायन विज्ञान और धातु विज्ञान के इतिहास को जानेंगे।
प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक नागार्जुन ने मात्र 11 वर्ष की उम्र में ही रसायन शास्त्र के क्षेत्र में शोध कार्य शुरू कर दिया था। वे भारत के रसायन शास्त्री, धातु कर्मी और चिकित्सक थे। उन्होंने इन सब पर कई पुस्तके भी लिखी हैं। कहा जाता है कि नागार्जुन किसी भी धातु को सोने में बदल देते थे।
प्राचीन भारत (Ancient India) 3 हजार साल पहले भी रसायन विज्ञान (Chemistry) और धातु विज्ञान (Metallurgy) में आगे था। इस बात का अनुमान 1600 वर्ष पूर्व बने दिल्ली के महरौली में मौजूद ‘लौह स्तंभ’ से लगाया जा सकता है, जिसमें आज तक जंक नहीं लगी है।

कहां हुआ था नागार्जुन का जन्म?

नागार्जुन (Nagarjun) के जन्म के विषय में 11वीं शताब्दी में ‘अल-बिरुनी ‘ में दर्ज किंवदंतियां का कहना है कि उनका जन्म गुजरात में स्थित दहाक ग्राम में 10वीं शताब्दी की शुरुआत में हुआ था। वही चीनी और तिब्बती साहित्य का कहना है कि उनका जन्म वैदेह में हुआ फिर वे नजदीक के सातवाहन वंश में चले गए।
रसायन विज्ञान और धातु विज्ञान पर किया शोध
नागार्जुन ने प्राचीन भारत के महान रसायन शास्त्री और धातु विज्ञान पर कई शोध कार्य किए। शोध कार्य करने के दौरान उन्होंने कई पुस्तकों की रचना भी की, जिसमें ‘रस रत्नाकर’ और ‘रसेंद्र मंगल’ काफी ज्यादा प्रसिद्ध है। उन्होंने अपनी किताब रस रत्नाकर में कई धातुओं को शुद्ध करने की विधियां बताई हुई हैं। इतना ही नहीं इस किताब में किसी भी प्रकार के धातुओं को सोना में परिवर्तित करने की भी विधियां बताई गई हैं।

राजघराने से संबंध रखने वाले नागार्जुन हमेशा शोध कार्य में ही व्यस्त रहते थे। उन्होंने ने अमृत की खोज करने के लिए एक बड़ी लैब भी बनवाई थी, जिसमें वे अपना अधिकतर समय बिताते थे। वहीं वे ज्यादातर अविष्कार किया करते थे और इसी दौरान उन्होंने कितनी कोशिशों के बाद उस विधि की खोज निकाली, जिसमें किसी भी धातु को सोने में बदला जा सकता था।

नागार्जुन ने ऐसे कई औषधियों की खोज की, जिससे रोगों को खत्म किया जा सकता था। उन्होंने अपनी प्रयोगशाला में पारे पर भी कई प्रयोग किए। नागार्जुन ने पारे को शुद्ध करना और औषधीय प्रयोग की विधियां भी विस्तार से बताई हैं। 

कैसे हुई नागार्जुन की मृत्यु?

औषधियों की खोज के बाद नागार्जुन ने अमर होने वाली चीजों की खोज करनी आरंभ कर दी। इस खोज में वे दिन रात लगे रहते थे, जिसके कारण उनके राज्य में अव्यवस्था फैलने लगी। जब यह बात उनके बेटे ने उन्हें बताई और राज्य पर ध्यान देने के लिए कहा, तब उन्होंने बताया कि वह अमर होने वाली औषधी बना रहे हैं। इस बात से उनके बेटे को भी खुशी हुई लेकिन उन्होंने ये बातें अपने दोस्तों को बता दी। इसी कारण साजिश के तहत उनकी हत्या कर दी गई और नागार्जुन का सपना अधूरा रह गया। 
 -The logicaly के फेसबुक वाल से साभार।


कम्युनिस्टों ने जो किया नरसंहार ? वह कितना उचित था ?

कम्युनिस्ट नरसंहार की स्मृतियाँ -

पोस्ट मे दिया चित्र आपको बहुत वीभत्स और अप्रिय लग रहा होगा। परन्तु सच कड़वा होता है। चित्र कम्बोडिया के एक संग्रहालय (म्यूजियम) का है।

चीन के माओ के ग्रेट लीप के नाम पर 2 करोड़ से अधिक चीनियों का नरसंहार हो या स्टालिन का रूसी नर संहार। क्म्युनिस्टो का इतिहास ही नरसंहारों से भरा पड़ा है।

दुनिया के इतिहास में बेइंतहा 'जुल्म की दास्तानों' में से एक कंबोडिया की धरती पर लिखी गई थी। सिर्फ पाँच साल में 30 लाख से ज्यादा लोगों को मौत के घाट किस तरह उतारा गया, इसकी कहानी जेनोसाइड म्यूजियम (नरसंहार संग्रहालय) में आज भी दर्ज है। कंबोडिया के तत्कालीन राजा नॉरोडोम सिहानुक को अपदस्थ कर खमेर रूज के माओवादी नेता पोल पोट ने सन्‌ 1975 में सत्ता हथियाई थी। अगले पाँच साल तक पोल पोट ने इतने जुल्म ढाए कि इंसानियत काँप उठी। विरोधियों का दमन करने के लिए यातना शिविर और जेलें बनाई गईं। एक जेल हाईस्कूल में बनाई गई, जहाँ अब जेनोसाइड म्यूजियम बना दिया गया है।

मानव खोपड़ीओं का मीनार ... लगभग 5000 से अधिक मानव खोपड़ी ... शीशे की एक टावर में रखी हुई हैं ... . यह उन अभागे कंबोडियनस का सर है ... जिन्हे पोल पोट की कम्युनिस्ट सरकार ने 1975 से 1979 के बीच यहां लाकर हत्या कर दी। इस कट्टर माओवादी समूह ने 1975 मे कंबोडिया का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया था. . इस शासनकाल के दौरान अत्यधिक काम, भुखमरी और बड़े पैमाने पर लोगों को फांसी देने के चलते करीब 20 लाख लोगों की मौत हो गई थी.
उन्होंने अपने नागरिकों को दुनिया से अलग-थलग कर दिया और शहर खाली कराने शुरू कर दिए. ख़ुद को बुद्धिजीवी मानने वालों को मार दिया गया. उनके शासन काल में चश्मा पहनने या विदेशी भाषा जानने वालों को अक्सर प्रताड़ित किया जाता था. मध्यवर्ग के लाखों पढ़े-लिखे लोगों को विशेष केंद्रों पर प्रताड़ित किया गया और मौत की सज़ा दी गई. इनमें सबसे कुख़्यात थी नाम पेन्ह की एस-21 जेल, जहाँ ख़मेर रूज के चार साल के शासन के दौरान 17 हज़ार महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को क़ैद रखा गया था.

कम्युनिस्ट सरकार कंबोडिया को वापस एक एग्रीकल्चरल कंट्री बनाना चाहते थे ... इसलिए शाहरो को समाप्त करके आबादी को गांव में शिफ्ट करने का निर्देश जारी किया गया. जिन्होंने भी आज्ञा का उल्लंघन किया उन्हें किलिंग फिल्डस में ले जाकर समाप्त कर दिया गया।

जिस स्थान पर यह म्यूजियम है वहाँ 30,000 से अधिक लोगों की हत्या हुई ... जिसमें अधिकतर लोगों की हत्या गोली मारकर नहीं की गई बल्कि कुदाल से उनकी सर के पीछे चोट मार कर अधमरा कर दिया गया। फिर उन्हें जीते जी गड्ढों में दफना दिया गया। सैनिक उन लाशों से जो भी कीमती चीज होती थी। उसे निकाल लेते थे तीन सौ से अधिक किलिंग फील्ड्स पूरे कंबोडिया में मौजूद है। जिसमें 15 लाख से ज्यादा लोगों की हत्या हुई। यहां पर कुछ ऐसी हड्डियां मिली ... जिससे पता चलता है कि मरने वाले की उम्र 6 महीने से भी कम थी। मतलब 6 महीने से कम उम्र के बच्चों की भी हत्या कर दी गई थी।

यह है कम्युनिस्टों का चरित्र। भारत के कम्युनिस्टों का चरित्र भी इससे अलग नहीं है। 1979 मे भारत के पश्चिमी बंगाल के मरिचझापी मे कम्युनिस्टों ने कई हजार (एक अनुमान से 40 हजार) नामशूद्रों की वीभत्स ह्त्या की थी। ये नामशूद्र दलित हिन्दू थे जो बांग्लादेश से जान बचा कर आए थे। ये कभी जोगेन्द्र मण्डल के बहकावे मे आकर पाकिस्तान (बांग्लादेश) मे रूक गए थे।

मुहम्मद गौरी को किसने मारा ?

*मौहम्मद गौरी का वध किसने किया था?
सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने अथवा खोखर राजपूतो ने??*

आधुनिक इतिहासकारो ने मुस्लिम इतिहासकारो के हवाले से लिखा है कि मौहम्मद गौरी को खोखर जनजाति ने पंजाब के झेलम क्षेत्र में मारा था।।।इतिहासकारो के अनुसार गौरी ने पृथ्वीराज को तराईन के दूसरे युद्ध में हराकर बन्दी बना लिया था और अजमेर में उनकी हत्या करवा दी थी।।

वहीँ पृथ्वीराज रासो और भारतीय मान्यताओ के अनुसार सुल्तान मौहम्मद गौरी पृथ्वीराज को बन्दी बनाकर गजनी ले गया था,जहाँ उसने पृथ्वीराज चौहान को अँधा करवा दिया था,वही अवसर देखकर पृथ्वीराज चौहान ने गजनी में गौरी को शब्दभेदी बाण से मारा था!!!!जिसके बाद पृथ्वीराज चौहान भी वहीँ गजनी में वीरगति को प्राप्त हुए थे।।

जहाँ आधुनिक इतिहासकार मौहम्मद गौरी की कब्र पाकिस्तान के झेलम में होना मानते हैं
वहीँ गजनी में गौरी की कब्र होने की प्रबल मान्यता खुद अफगानिस्तान वासियों में है,
गजनी में मौहम्मद गौरी की कब्र आज भी मौजूद है जिसके बाहर सम्राट पृथ्वीराज चौहान की कच्ची समाधि है,जिसको गजनीवासी जूते से मारकर अपमानित किया करते थे।।

ब्रिटिश सेना में भारतीय मूल के राजपूत सैनिक जब अफगानिस्तान गए थे तो उन्होंने पृथ्वीराज चौहान की समाधि ढूँढने का प्रयत्न किया था।।
जब कंधार विमान हाइजैक मामले में तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह अफगानिस्तान गए थे तो उस समय उन्हें गजनी में पृथ्वीराज चौहान की समाधि होने की जानकारी खुद तालिबान सरकार के अधिकारियो ने दी थी,

यह जानकारी फूलन देवी हत्याकांड में जेल में बन्द शेरसिंह राणा को मिली तो उन्होंने सम्राट पृथ्वीराज चौहान की समाधि के अवशेष भारत वापस लाने का प्रण लिया और जेल से फरार होकर वो तमाम खतरों को को पार करते हुए अफगानिस्तान जा पहुंचे।।
वहां से मौका पाकर पृथ्वीराज की समाधि के अवशेष वो भारत वापस ले आए।
भारत आकर उन्होंने पृथ्वीराज की समाधि के अवशेष मैनपुरी की एक राजपूत संस्था को पृथ्वीराज स्मारक बनाने के लिए सौंप दिए।।
इस प्रकार गजनी में सम्राट पृथ्वीराज चौहान का सांकेतिक अपमान बन्द हुआ।।

यह भी जानकारी मिली है कि राजस्थान के नीमराणा इलाके के प्रसिद्ध गांव कांटी के ठाकुर दुर्जनसिंह चौहान जी भी ब्रिटिश काल में ही अफगानिस्तान जाकर पृथ्वीराज चौहान की समाधि के अवशेष भारत वापस ले आए थे, लेकिन उस महान उपलब्धि का प्रचार नही हुआ,जिससे गजनी में सम्राट पृथ्वीराज का सांकेतिक अपमान जारी रहा।।।।

चलिए अब लौटते हैं मूल मुद्दे पर कि गौरी को दरअसल किसने,कब और कहाँ मारा ????
सम्राट पृथ्वीराज चौहान कहाँ वीरगति को प्राप्त हुए??
अजमेर में या गजनी में???

इतिहासकारो के अनुसार------

अफगानिस्तान में घुरि राजवंश के दो सगे भाईयो गयासुद्दीन गौरी और शाहबुद्दीन गौरी ने सन् 1173 से 1202 तक संयुक्त रूप से शासन किया।
बड़े भाई गयासुद्दीन की मृत्यु सन् 1202 में होने के बाद शाहबुद्दीन गौरी ने 1202-1206 तक अकेले शासन किया था।सन् 1206 में पंजाब के झेलम के पास खोखर राजपूतो ने शाहबुद्दीन गौरी की हत्या कर दी थी।

यही शाहबुद्दीन गौरी तराईन के दोनों युद्धों में पृथ्वीराज चौहान की सेना से भिड़ा था।।अब सवाल ये है कि अगर बड़ा गौरी सन् 1202 में मरा और छोटा शाहबुद्दीन सन् 1206 में----

तो 1192-1193 में पृथ्वीराज चौहान ने किस गौरी को शब्दभेदी बाण से मारा था??????

=====अंतिम निष्कर्ष====

अगर पृथ्वीराज चौहान की हत्या अजमेर में हुई होती तो अफगानिस्तान (गजनी) में गौरी की कब्र और सम्राट पृथ्वीराज चौहान की समाधि पास पास नही होती।गजनी में सुल्तान गौरी की हत्या किसी काफिर हिन्दू राजा द्वारा किये जाने की मान्यता अफगानिस्तान में बहुत प्रबल है तभी तालिबानी अधिकारीयों द्वारा भारतीय विदेश मंत्री श्री जसवंत सिंह को जानकारी दी गयी कि गजनी में सुल्तान गौरी की कब्र और सम्राट पृथ्वीराज चौहान की समाधि पास पास है।।

इससे सम्राट पृथ्वीराज चौहान का अजमेर में मारा जाना पूर्णतया असत्य जान पड़ता है।

किन्तु यहाँ प्रश्न उतपन्न होता है कि पृथ्वीराज द्वारा सुल्तान गौरी का वध कब और कैसे हुआ????

तो परिस्थितिजनक साक्ष्यो से मालूम होता है कि पृथ्वीराज चौहान को नेत्रहीन करके गजनी में सन् 1192-1202 तक कैद करके रखा गया था,,सन् 1202 में सुल्तान गयासुद्दीन गौरी ने एक समारोह में पृथ्वीराज चौहान को कैद से निकालकर उनसे  तीरंदाजी का हुनर दिखाने को कहा गया।।

वहीँ कुशल धनुर्धर महान राजपूत यौद्धा पृथ्वीराज चौहान ने शब्दभेदी बाण से सुल्तान गयासुद्दीन गौरी का वध कर दिया और खुद भी वीरगति को प्राप्त हो गए!!!!!!

तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारो द्वारा जानबूझकर इस घटना को छुपाने का प्रयास किया और पृथ्वीराज की हत्या अजमेर में किये जाने की फर्जी कहानी गढ़ी गयी,जबकि गजनी में सुल्तान गौरी और सम्राट पृथ्वीराज चौहान की समाधि होना उनके दावे का खण्डन करने के लिए पर्याप्त है।।।

इसके बाद गयासुद्दीन तुगलक का छोटा भाई शाहबुद्दीन मौहम्मद गौरी सन् 1202-1206 तक सुल्तान रहा,किन्तु सन् 1206 ईस्वी में उसे पंजाब के झेलम के पास खोखर राजपूतों (राठौर राजपूतो की शाखा) ने मार गिराया।
शाहबुद्दीन मौहम्मद गौरी की कब्र/मजार आज भी पंजाब(पाकिस्तान) के झेलम में स्थित है।।।

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दरअसल दो सुल्तान गौरी थे जो मिलकर अफगानिस्तान और भारत में अपने साम्राज्य का शासन चलाते थे।।

बड़े भाई गयासुद्दीन गौरी का वध पृथ्वीराज चौहान द्वारा सन् 1202 ईस्वी में गजनी में किया गया,
वहीँ छोटे भाई शाहबुद्दीन मौहम्मद गौरी का वध झेलम के पास खोखर (राठौर) राजपूतो द्वारा किया गया था।

बाद में जनमानस में मान्यताओं का घालमेल हो गया और भ्रामक मान्यताएं बन गयी जिनसे आधुनिक इतिहासकार भी भ्रमित हो गए और वो वास्तविक तथ्य नही लिख पाए।।

पृथ्वीराज चौहान सर्वकालिक महानतम राजपूत शासको में एक थे,
अगर काशी/कन्नौज के सम्राट जयचन्द्र गहरवार और अजमेर के सम्राट पृथ्वीराज चौहान मिलकर सुल्तान गौरी का मुकाबला करते तो तराईन के दूसरे युद्ध में भी न सिर्फ तुर्को की करारी हार होती, वरन् उन्हें समूल नष्ट किया जा सकता था,अगर ऐसा हो जाता तो भारतवर्ष का इतिहास कुछ और ही होता!!!!!

सम्राट पृथ्वीराज चौहान और उनकी विलक्षण वीरता को कोटि कोटि नमन।

(Note--खोखर(राठौर) राजपूत अब पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में बड़ी संख्या में मिलते हैं और सभी मुसलमान हैं इनमे से कुछ जाटों में विवाह करके जाट भी बन गए हैं
हरियाणा में निरन्तर जाट मुख्यमंत्री होने के कारण  इतिहास की किताबो में पढ़ाया जाता है कि मौहम्मद गौरी को खोखर जाटों ने मारा जो पूर्णतया निराधार है।खोखर राजपूत राठौर वंश की शाखा है और उस समय तक हिन्दू थे,हरियाणा के राजपूत समुदाय से अपेक्षा है कि इतिहास के इस सरकारी विकृतिकरण के विरुद्ध आवाज उठाए और पाठ्य पुस्तको में सही तथ्य लिखवाने हेतु प्रयास करें।।)

साभार- प्रभात सिंह पुंढीर

आर्य का मतलब सभी भारतीय हिंदू समाज!




 *आर्य मूलतः भारतीय थे। और आरोप है कि  आर्य और द्रविड़ का सिद्धांत गलत सामाजिक विभाजन के लिए  प्रतिपादित किया गया। अब सिद्ध होगया है कि आर्य और द्रविड़ एक ही थे और आर्य का अर्थ सिर्फ ब्राह्मण नहीं बल्कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, सिख, जैन सभी भारतीय हैं। आरोप है कि हिंदू समाज और भारतीय इतिहास को गलत पेश करने की मुस्लिम, अंग्रेजी, योरोपीय, वामपंथी और कांग्रेसी इतिहासकारों की कुत्सित मानसिकता ने इतिहास को गलत पेश किया है। अब सब सच सामने आ रहा है। पढ़िए यह लेख। हिंदी बाज के फेसबुक वाल से साभार।:-*

*आज इतिहास के भी संशोधन की जरूरत है..*
*ब्राह्मण :- यूरेशिया का सच और झूठ*

पहले झूठ यह कि ब्राह्मण आर्य (आर्य का अर्थ राजपूत, जैन, ब्राह्मण और सभी सवर्ण जातियों से है) घोड़ों पर सवार तलवार चमकाते हुए यूरेशिया से भारत आये। यहाँ के मूल निवासियों की जमीन, घर, धन दौलत संपत्ति पर कब्जा कर लिया. मूल निवासियों को लूटने के बाद ब्राह्मणों ने मल मूत्र उठवाने और मजदूरी के इरादे से उन्हें अपना गुलाम बना लिया..

अब सच्ची बात...
भारत में एक कहावत है कि झूठ के पैर नहीं होते। अब उस झूठ के भी पैर नहीं रहे जो वामपंथी इतिहासकारों ने दशकों से फैलाया हुआ था। इन दशकों में वामपंथी कुछ भारतीयों को यह झूठ समझाने में सफल रहे कि आर्य बाहर से आए थे। उन्होंने हिंसा कर भारत के मूल निवासियों को मार भगाया। मूल रूप से इस थ्योरी के जनक मैक्स मूलर को माना जाता है। हालांकि इतिहासकारों में आर्यों को बाहरी बताने वाली थ्योरी को लेकर पहले से ही मतभेद रहे हैं।

हरियाणा के हिसार जिले के राखीगढ़ी में पुरातत्व विभाग की खुदाई में दो मानव कंकाल मिले थे। इनमें एक कंकाल पुरुष का तो दूसरा महिला का है। इन कंकालों की डीएनए रिपोर्ट और कई अन्य सैंपलों से जुटाए गए डाटा ने वामपंथी इतिहासकारों के झूठ को धराशाई कर दिया। वैज्ञानिक आर्कियोलॉजिकल और जेनेटिक डेटा के अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुंचे के आर्य और द्रविड एक ही थे।

हिंदी के एक प्रमुख समाचार पत्र में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, राखीगढ़ी हड़प्पा सभ्यता के बड़े केंद्रों में से एक है। वर्ष 2015 में पुरातत्वविदों ने यहां करीब 300 एकड़ में खुदाई शुरू की थी। राखीगढ़ी साइट की शोध टीम के सदस्य और पुणे स्थित डेक्कन कॉलेज डीम्ड यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर #प्रो_वसंत_शदे और जेनेटिक साइंटिस्ट डॉ नीरज राय ने यह जानकारी दी। शोध में सामने आया कि खुदाई में कंकाल 5000 साल पुराने हैं। इनकी डीएनए जांच कराई गई। इसके अध्य़यन से पता चला कि अफगानिस्तान से अंडमान तक सभी का एक ही जीन है और करीब 12 हजार साल से दक्षिण एशिया वासियों का एक ही जीन रहा है यानी सबका एक ही पूर्वज रहा है।

इससे वामपंथी इतिहासकारों का वह दावा खोखला साबित हुआ जिसके आधार पर वह भारतीयों के बीच आर्यों और अनार्यों की खाई खींचने में सफल रहे थे।

आज भी दक्षिण भारत की कई राजनीतिक पार्टियां इसी थ्योरी को आधार बताकर अपने को द्रविड बताती हैं और हिंदी समेत कई भारतीय मूल्यों को नकारती हैं।

लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि आर्य को बाहरी बताने वाले आज तक आर्यों का मूल स्थान नहीं बता सके।

इसलिए हमारे देश के बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों को इस पर जरूर विचार करना चाहिए कि इस असत्यापित तथ्य को हम आज भी इतिहास के रूप में हमारे बच्चों को क्यों पढ़ा रहे हैं ???

मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि तथ्यों के आधार पर इतिहास को पुनः लिखने की आवश्यकता है कि अगर ब्राह्मण सभी को हराकर राज्य जीत चुके थे तो उन्होंने सत्ता किसी और को क्यो सौंप दी और खुद मांग कर क्यों खाने लगे???
गद्दार वामपंथियों के मुंह पर दे मारो इस पोस्ट को.... मित्रों इनकी हिन्दू समाज को आपस में लड़वाकर तोड़ने की साज़िश फेल हो चुकी।
(साभार)

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