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Friday, May 29, 2009

मार्तंड से शुरू होकर पैसे लेकर खबरें छापने तक हिंदी पत्रकारिता

तीस मई। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के १८३ साल। कोलकाता से पहला हिंदी पत्र उदंत मार्तण्ड ३० मई 1826 में शुरू हुआ। इससे बहुत पहले वर्ष 1780 में यहीं से जेम्स आगस्टस हिक्की ने बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर शुरू कर अंग्रेजी पत्रकारिता की शुरुआत कर दी थी। मगर उदंत मार्तण्ड को हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत का मानक मानें तो इन 183 वर्षों में हिंदी पत्रकारिता में बड़े आमूल चूल परिवर्तन आए हैं। अभी हाल में हुए १५वीं लोकसभा चुनावों में खबरों के पैकेज तक के इतिहास को लें तो आजादी की लड़ाई और सामाजिक सरोकार के दौर से निकली हिंदी पत्रकारिता ( हम यहां सिर्फ हिंदी पत्रकारिता की ही बात कर रहे हैं। वैसे अंग्रेजी समेत सभी भाषाई पत्रकारिता भी अब अपने कमाऊ दौर में ही हैं और अपने सामाजिक सरोकार के मानदंड से काफी नीचे चले गए हैं।) अब पैसे लेकर खबरें छापने की बेशर्मी के दौर में पहुंच गई है। तकनीकी प्रगति ने हिंदी पत्रकारिता को वैश्विक तो बना दिया है मगर जगदीश चंद्र माथुर, प्रभाष जोशी या फिर एसपी सिंह जैसे सिद्धांतवादी और मूल्यों की हिंदी पत्रकारिता करने वालों के युग का भी अवसान कर दिया है। अब अंग्रेजी समेत हिंदी में पैसे लेकर खबरें छापने को व्यावसायिक तौर पर उचित मानने वाले कमान संभाले हुए हैं।
प्रिंट मीडिया के इस पतन के बावजूद कुछ संपादकों यथा प्रभात खबर के संपादक हरिवंश जैसे हिंदी के संपादक भी हैं, जो बाकायदा सूचना छापकर खबरें छापने के बदले पैसा लेने से बचने की अपने पत्रकारों को चेतावनी दी। हालांकि इससे इस नैतिक पतन को कितना रोका जा सकेगा, यह कहा नहीं जा सकता। मगर बाकी अखबारों ने तो यह नैतिक साहस नहीं दिखाया। इस मामले में प्रिंट मीडिया की समानान्तर मीडिया बन चुके हिंदी ब्लाग अभी कुछ हद तक बचे हुए हैं। कुछ समूह ब्लाग यथा- भड़ास वगैरह तो अनैतिक हो रही हिंदी पत्रकारिता को यदा-कदा बेपर्दा भी करते रहते हैं। ऐसे ब्लागों की लंबी सूची है जो बेबाक टिप्पणी करके मानदंड कायम रखने की कोशिश कर रहे हैं। विभिन्न विचारधाराओं की हिंदी ई-पत्रिकाएं भी अब वैश्विक सीमाएं लांघ चुकी हैं। प्रिट मीडिया में संपादकों की निजी दादागीरी से जो जो छप नहीं सकता वह धड़ल्ले से ब्लागों व ईपत्रिकाओं में छप रहा है। यह विचारों की अभिव्यक्ति का यह अद्भुत विस्तार और प्रिंट मीडिया को चुनौती भी है।
यही कारण है कि आज अंग्रेजी पत्रकारिता के बरक्स हिंदी पत्रकारिता के कद और ताकत में व्यापक बढ़ोतरी हुई। कागज से शुरू हुई पत्रकारिता अब कन्वर्जेंस के युग में पहुंच गई है। कन्वर्जेंस के कारण आज खबर मोबाइल, रेडियो, इंटरनेट और टीवी पर कई रूपों में उपलब्ध है। सूचना प्रौद्यागिकी के इस युग में हिंदी पत्र डिजिटल रूपों में उपलब्ध है। पंडित युगल किशोर शुक्ल द्वारा शुरू किए गए उदंत मार्तण्ड के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो उस समय पत्रकारिता का उद्देश्य समाज सुधार, समाज में स्त्रियों की स्थिति में सुधार और रूढि़यों का उन्मूलन था। उस समय पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार शीर्ष पर थे और व्यावसायिक प्रतिबद्धताएं इनमें बाधक नहीं थीं। युगल किशोर शुक्ल का उदंत मार्तण्ड 79 अंक निकलने पर चार दिसंबर 1827 को बंद हो गया। हालांकि उसके बाद हिंदी में बहुत सारे पत्र निकले। राजा राम मोहनराय ने हिंदी सहित तीन भाषाओं में 1829 में बंगदूत नामक पत्र शुरू किया।
मौजूदा दौर में हिंदी के अखबारों पर प्रासंगिक और तेज बने रहने के साथ व्यावसायिकता का भारी दबाव है। ई पेपर तेज बने रहने की दिशा में एक अग्रगामी कदम है। यह अवसर भौगोलिक सीमाओं को पार करने और व्यावसायिक अवसरों के दोहन को लेकर है। इन सबके कारण हिंदी पत्रकारिता में मानवोचित मूल्यों को स्थान देने में पूर्व की अपेक्षा कमी आई है। 1950 से 55 के दशक तक जिस हिंदी पत्रकारिता को बाजार की सफलता के मानकों पर खरा नहीं माना जाता था, उसके प्रति विचारधारा परिवर्तित हुई है।
अस्सी के दशक के बाद से स्थिति यह हो गई कि अंग्रेजी से लेकर बड़ा से बड़ा भाषाई समूह हिंदी में अखबार शुरू करने में रुचि दिखाने लगा। हालांकि विकास के बड़े अवसर हैं, लेकिन हिंदी पत्रकारिता के समक्ष चुनौतियां भी कम नहीं हैं। हिंदी पत्रकारिता का इंटरनेट के क्षेत्र में जाने का मकसद अपने प्रभाव क्षेत्र में बढ़ोतरी करना होता है। मीडिया हाउस पर अब खबरों के व्यापार का एकाधिकार नहीं रह गया है। गूगल और याहू जैसी कई कंपनियां भी खबरों के प्रसार के प्रमुख स्रोत के रूप में काम कर रही हैं। प्रिंट मीडिया प्रसार संख्या पर आधारित है, ई पेपर भी अब इसमें शामिल किया जाने लगा है।
हिंदी पत्रकारिता ने एक समय अपना भाषाई समाज रचने में बहुत बड़ा योगदान दिया। दिनमान और धर्मयुग जैसे पत्रों ने हिंदी पाठक को उन विषयों पर सोचने और समझने का अवसर दिया, जिन पर केवल अंग्रेजी का एकाधिकार माना जाता था। अंग्रेजी में श्रेष्ठत्व के नाम पर दावा करने की कोई चीज नहीं है। हिंदी उस बराबरी पर पहुंच गई है। हालांकि परंपरा में अंग्रेजी पत्रकारिता हिंदी से आगे है लेकिन सच यह भी है कि हिंदी पत्रकारिता ने भी लंबी दूरी तय की है।

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Thursday, May 21, 2009

श्रीलंका ने लिखा आजादी का नया इतिहास


श्रीलंका सेना ने देश के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। करीब ३० सालों में तमिल छापामारों का दंश झेल रहे देश को मुक्ति के राह पर ला खड़ा किया है। आज श्रीलंका एक और आजादी का जश्न मना रहा है मगर इसे इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि श्रीलंका के लिए यह सपना भारत के जिस पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी देखा था, उसकी भी २१ मई को भारत में पुण्यतिथि मनाई जा रही है। राजीव गांधी को भी श्रीलंका में शांति सेना भेजने से नाराज तमिल छापामारों के आत्मघाती दस्ते ने श्रीपेरंबदूर में विस्फोट करके २१ मई को मार डाला था। जश्न में डूबे श्रीलंकावासियों को भारतीय सेना का आभार जताने के साथ और राजीव गांधी को श्रद्धांजलि भी देनी चाहिए। जब भी श्रीलंका की मुक्ति का यह इतिहास लिखा जाएगा तब इतिहास के पन्नों में श्रीलंका में अमन के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाने शांति सेना के जांबाजों और राजीव गांधी को भी दर्ज करना होगा। श्रीलंका की तमिल समस्या और उसके जातीय इतिहास की भारत वह कड़ी है जिसके बिना वहां से तमिल छापामारों का सफाया संभव नहीं था। श्रीलंका अब जिस मुहाने पर खड़ा है वहां से भी भारत की मदद के वगैर अमन की राह आसान नहीं होगी। इसकी एक वजह यही है अपनी जाति या संस्कृति के लिए लड़ने वाले विद्रोही अपने समाज के लिए शहीद और आदर्श होते हैं। इसी लिए शायद श्रीलंका में सारी तमिल जनता मानने को तैयार नहीं कि प्रभाकरण मारा गया है। यह तो वक्त बताएगा कि सच क्या है मगर यह ऐतिहासिक हकीकत है कि सद्दाम को खलनायक बनाकर अमेरिका ने इसका वजूद मिटा डाला मगर उसके चाहने वालों के जेहन में वह जिस तरह आज भी जिंदा है उसी तरह प्रभाकरण भी तमिलों के दिलों में बसा हुआ है। वह श्रीलंका में तमिलों पर अत्याचाक के खिलाफ लड़ रहा था। यह अलग बात है कि इसके लिए उसने उग्रवाद का रास्ता अपनाया, जो कि गलत था और तमिलों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है। अब श्रीलंका के लिए अमन की अगली लड़ाई भी इतिहास वह दौर साबित होगा जिसमें फिर श्रीलंका को एक और राजीव गांधी की जरूरत पड़ेगी। और तमिलों को भी श्रीलंका में अपनी राह हथियार से नहीं बल्कि राजनीतिक समाधान के जरिए लड़नी होगी। श्रीलंका सरकार और वहां की तमिल जनता दोनों को कोशिश करनी होगी कि अब और किसी प्रभाकरण को हथियार उठाने के लिए मजबूर न होना पड़े। आइए श्रीलंका के इतिहास में झांकते हैं कि आखिर कैसे प्रभाकरण ने हथियार उठा लिया और श्रीलंका एक भयानक जाती लड़ाई के दहाने पर जा बैठा। इस क्रम में कई जगहों से संकलित सामग्री का आप भी अवलोकन करें। तस्वीरें और कुछ सामग्री विकीपीडिया, गूगल, बीबीसी व अन्य जगहों से साभार ली गईं हैं।
कोलंबो शहर

श्रीलंका की संसद
श्रीलंका में बौद्ध

श्रीलंका का लोकरंग


श्रीलंका का इतिहास -प्रागैतिहासिक काल
इतिहासकारों में इस बात की आम धारणा थी कि श्रीलंका के आदिम निवासी और दक्षिण भारत के आदिम मानव एक ही थे । पर अभी ताजा खुदाई से पता चला है कि श्रीलंका के शुरुआती मानव का सम्बंध उत्तर भारत के लोगों से था । भाषिक विश्लेषणों से पता चलता है कि सिंहली भाषा, गुजराती और सिंधी से जुड़ी है ।
प्राचीन काल से ही श्रीलंका पर शाही सिंहला वंश का शासन रहा है । समय समय पर दक्षिण भारतीय राजवंशों का भी आक्रमण भी इसपर होता रहा है । तीसरी सदी इसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र के यहां आने पर बौद्ध धर्म का आगमन हुआ । इब्नबतूता ने चौदहवीं सदी में द्वीप का भ्रमण किया ।
इस द्वीप पर बालंगोडा लोगों (इस नाम के स्थान पर नामकृत) का निवास कोई ३४,००० वर्ष पूर्व से था । उन्हें मेसोलिथिक शिकारी संग्रहकर्ता के रूप में मान्यता दी गई है । जौ और कुछ अन्य खाद्यान्नों से द्वीपनिवासियों का परिचय ईसापूर्व १५,००० इस्वी तक हो गया था । प्राचीन मिस्र में ईसा पूर्व १५०० ईस्वी के आसपास दालचीनी (दारचीनी) उपलब्ध थी जिसका मूल श्रीलंका समझा जाता है, अर्थात् उस समय से इन दो देशों के बीच व्यापारिक सम्बंध रहे होंगे । अंग्रेज यात्री और राजनयिक सर जेम्स इमर्सन टेनेन्ट ने श्रीलंका के शहर गाले की पहचान हिब्रू बाइबल में वर्णित स्थान टार्शिश से की है ।
भारतीय पौराणिक काव्यों में इस स्थान का वर्णन लंका के रूप में किया गया है । रामायण, जिसकी रचना सम्भवतः ईसापूर्व ४थी से दूसरी सदी के बीच हुई होगी, में इस स्थान को राक्षसराज रावण का निवास स्थान बताया गया है । बौद्ध ग्रंथ दीपवंश और महावंश में दिए गए विवरण के अनुसार इस द्वीप पर भारतीय आर्यों के आगमन से पूर्व यक्ष तथा नागों का वास था । अनुराधपुरा (या अनुराधापुरा) के पास पाए गए मृदभांडों पर ब्राह्मी तथा गैर-ब्राह्मी लिपि में लिखावट मिले हैं जो ईसापूर्व ६०० इस्वी के हैं ।
प्राचीन काल

पालि सामयिक दीपवंश, महावंश और चालुवंश, कई प्रस्तर लेख तथा भारतीय और बर्मा के सामयिक लेख छठी सदी ईसापूर्व के श्रीलंका की जानकारी देते हैं । महावंश पांचवी सदी में लिखा गया बौद्ध ग्रंथ है जिसकी रचना नागसेन ने की थी । यह भारतीय तथा श्रीलंकाई शासकों का विवरण देता है । इससे ही सम्राट अशोक के जीवनकाल का सही पता चलता है जिसमें लिखा है कि अशोक का जन्म बुद्ध के २१८ साल बाद हुआ । इसके अनुसार विजय के ७०० अनुयायी इस द्वीप पर कलिंग (आधुनिक उड़ीसा) से आए । इस द्वीप पर विजय ने अपने कदम रखे जिसमें उसने इसे ताम्रपर्णी का नाम दिया (तांबे के पत्तो जैसी) । यही नाम टॉलेमी के नक्शे में भी अंकित हुआ । विजय एक राजकुमार था जिसका जन्म, कथाओं के अनुसार एक राजकुमारी और सिंह (शेर) के संयोग से हुआ था । उसके वंशज सिंहली कहलाए । हंलांकि वंशानुगत वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चलता है कि यहां के लोग एक मिश्रित जाति के लोग हैं और इनका भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों से सम्बंध अब भी विवाद का विषय है ।

उत्तर भारत के लोगों के आगमन से और दक्षिण भारतीय साम्राज्यों की शक्ति बढ़ने से द्वीप पर दक्षिण भारतीय आक्रमण भी शुरु हुए । सेना और गुट्टका दो प्राचीन तमिळ शासक थे जिन्होंने दूसरी सदी इसापूर्व के आसपास शासन किया । इनके अस्तित्व का प्रमाण तो कुछ नहीं मिलता है पर महावंश में इनका अप्रत्यक्ष जिक्र किया गया है ।

इसी प्रकार प्राचीन भारत के महाजनपद कम्बोजों से भी इनका सम्बंध लगाया जाता है । यवन (ग्रीक), जोकि उत्तर पश्चिम भारत में कम्बोजों के पड़ोसी थे, से भी इनका व्यापारिक सम्बंध था और उनके व्यापारिक उपनिवेश भी इन क्षेत्रों में थे - खासकर अनुराधपुरा के इलाके में ।

मध्यकाल

देवनमपिया टिस्सा (ईसापूर्व २५० इस्वी - ईसापूर्व २१० इस्वी) के संबंध राजा अशोक से थे जिसके कारण उस दौरान श्रीलंका में बौद्ध धर्म का आगमन और प्रसार हुआ । अशोक के पुत्र महेन्द्र (महेन्द), संघमित्र के साथ , बोधि वृक्ष अपने साथ जम्बूकोला (सम्बिलितुरै) लाया । यह समय थेरावाद बौद्ध धर्म तथा श्रीलंका दोनो के लिए महत्वपूर्ण है ।

प्रसिद्ध चोल राजा एलारा ने २१५ ईसापूर्व से ईसापूर्व १६१ ईस्वी तक राज किया । कवण टिस्सा के पुत्र दुत्तु गेमुनु ने उसे ईसापूर्व १६१ ईस्वी में, दंतकथाओं के अनसार १५ वर्ष के संघर्ष के बाद हरा दिया । इसके बाद पांच तमिल सरदारों ने यहां राज किया जिसके बाद तमिल शासन का तत्काल अंत हो गया । इसी समय बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक की रचना हुई ।

महासेन (२७४-३०१ ईस्वी) ने थेरावाद का दमन किया और महायान बौद्ध धर्म प्रधान होता गया । पांडु (४२९ ईस्वी) इस द्वीप का पहला पांड्य शासक था । उसके वंश के आखिरी शासक को मनवम्मा (६८४-७१८ ईस्वी) ने पल्लवों की मदत से हरा दिया । अगले तीन सदियों तक पल्लवों के अधीन रहने के बाद दक्षिण भारत में पांड्यों का फिर से उदय हुआ । अनुराधपुरा पर पांड्यों का आक्रमण हुआ और उसे लूट लिया गया । हंलांकि इसी समय सिंहलियों ने पांड्यों पर आक्रमण किया और उन्होंने पांड्यों के नगर मदुरै को लूट लिया ।

दसवीं सदी में चोलों का उदय हुआ और राजेन्द्र चोल प्रथम ने सबको दक्षिण-पूर्व की ओर खदेड़ दिया । पर १०५५ ईस्वी में विजयबाहु ने वापस पूरे द्वीप पर अधिकार कर लिया । तेरहवीं सदी के आरंभ में कलिंग के राजा माघ ने तमिळ तथा केरलाई लड़ाकों के साथ इस द्वीप पर आक्रमण कर दिया । उसके और परवर्ती शासकों के काल में राजधानी अनुराधपुरा से दक्षिण की तरफ़ खिसकती गई और कैंडी पहुंच गई । साथ ही जाफना का उदय एक प्रांतीय शक्ति के रूप में हुआ । पराक्रम बाहु षष्ठ (१४११-६६) एक पराक्रमी शासक था जिसने सम्पूर्ण श्रीलंका को अपने अधीन कर लिया । वो कला का भी बड़ा प्रशँसक था और उसने कई कवियों को प्रोत्साहन दिया । उसके शासनकाल में राजधानी कोट्टे कर दी गई जो जयवर्धनपुरा के नाम से आज भी श्रीलंका की प्रशासनिक राजधानी है (कोलंबो के पूर्वी भाग में) ।

यूरोपीय प्रभाव

सोलहवीं शताब्दी में यूरोपीय शक्तियों ने श्रीलंका में कदम रखा और श्रीलंका व्यापार का केन्द्र बनता गया । देश चाय, रबड़, चीनी, कॉफ़ी, दालचीनी सहित अन्य मसालों का निर्यातक बन गया । पहले पुर्तगाल ने कोलम्बो के पास अपना दुर्ग बनाया । धीरे धीरे पुर्तगालियों ने अपना प्रभुत्व आसपास के इलाकों में बना लिया । श्रीलंका के निवासियों में उनके प्रति घृणा घर कर गई । उन्होने डच लोगो से मदत की अपील की । १६३० इस्वी में डचों ने पुर्तगालियों पर हमला बोला और उन्हे मार गिराया । पर उन्होने आम लोगों पर और भी जोरदार कर लगाए । १६६० में एक अंग्रेज का जहाज गलती से इस द्वीप पर आ गया । उसे कैंडी के राजा ने कैद कर लिया । उन्नीस साल तक कारागार में रहने के बाद वह यहां से भाग निकला और उसने अपने अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक लिखी जिसके बाद अंग्रेजों का ध्यान भी इसपर गया । नीदरलैंड पर फ्रांस के अधिकार होने के बाद अंग्रेजों को डर हुआ कि श्रीलंका के डच इलाकों पर फ्रांसिसी अधिकार हो जाएगा । इसलिए उन्होने डच इलाकों पर अधिकार करना आरंभ कर दिया । १८०० इस्वी के आते आते तटीय इलाकों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया । १८१८ तक अंतिम राज्य कैंडी के राजा ने भी आत्मसमर्पण कर दिया और इसतरह सम्पूर्ण श्रीलंका पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया । 1930 के दशक में स्वाधीनता आंदोलन तेज हुआ । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ४ फरवरी १९४८ को देश को संयुक्त राजशाही से पूर्ण स्वतंत्रता मिली ।

विवाद का इतिहास

१९४८ - श्रीलंका स्वतंत्र हुआ। इसी वर्ष सिलोन नागरिकता कानून अस्तित्व में आया। इस कानून के अनुसार तमिल भारतीय मूल के हैं इसलिए उन्हें श्रीलंका की नागरिकता नहीं दी जा सकती है। हालांकि इस कानून को मान्यता नहीं मिली।

१९५६ - सरकार ने देश के बहुसंख्यकों की भाषा सिंहली को आधिकारिक भाषा घोषित किया। अल्पसंख्यक तमिलों ने कहा कि सरकार ने उन्हें हाशिये पर डाल दिया। तमिल राष्ट्रवादी पार्टी ने इसका विरोध किया और उसके सांसद सत्याग्रह पर बैठ गए। बाद में इस विरोध ने हिंसक रूप ले लिया। इस हिंसा में दर्जनों लोग मारे गए और हजारों तमिलों को बेघर होना पड़ा।

१९५८ - पहली बार तमिल विरोधी दंगे हुए जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों को अपने घर-बार छोड़कर भागना पड़ा। इसके बाद तमिलों और सिंहलियों के बीच खाई और गहरी हो गई। दंगे के बाद तमिल राष्ट्रवादी पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

संघर्ष का दूसरा कारण सरकार की वह नीति थी जिसके अंतर्गत बहुसंख्यक सिंहला समुदाय को पूर्वी प्रांत में बसाया गया, जो परंपरागत रूप से तमिल राष्ट्रवादी लोगों की गृहभूमि समझा जाता है। संघर्ष का तात्कालिक कारण यही था।

सत्तर के दशक में भारत से तमिल पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं और चलचित्रों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। साथ ही, श्रीलंका में उन संगठनों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया, जिनका संबंध तमिल नाडु के राजनीतिक दलों से था। छात्रों के भारत आकर पढ़ाई करने पर रोक लगा दी गई। श्रीलंकाई तमिलों ने इन कदमों को उनकी अपनी संस्कृति से काटने का षड़यंत्र घोषित दिया, हालांकि सरकार ने इन कदमों को आर्थिक आत्मनिर्भरता के समाजवादी कार्यसूची का भाग बताया।

१९७२: सिलोन ने अपना नाम बदलकर श्रीलंका रख लिया और देश के धर्म के रूप में बौद्ध धर्म को प्राथमिकता पर रखा जिससे जातीय तमिल अल्पसंख्यकों की नाराजगी और बढ़ गई जो पहले से ही यह महसूस करते आ रहे थे कि उन्हें हाशिए पर रखा जा रहा है।

१९७३: सरकार ने मानकीकरण की नीति लागू की। सरकार के अनुसार से इसका उद्देश्य शिक्षा में असमानता दूर करना था, लेकिन इससे सिंहलियों को ही लाभ हुआ और श्रीलंका के विश्वविद्यालयों में तमिल छात्रों की संख्या लगातार घटती गई। इसी वर्ष तमिल राष्ट्रवादी पार्टी यानी फेडरल पार्टी ने अलग तमिल राष्ट्र की मांग कर डाली। अपनी मांग को सुदृड़ करने के लिए फेडरल पार्टी ने अन्य तमिल पार्टियों को अपने साथ कर दिया और इस प्रकार तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट का निर्माण हुआ। फ्रंट का १९७६ में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें पार्टी ने अलग राष्ट्र की मांग की। हालांकि इस समय तक सरकार की नीतियों के भारी विरोध के बावजूद पार्टी एक राष्ट्र के सिद्धांत की बात करती थी। कुल मिलाकर, स्वतंत्रता से पहले जो काम अंग्रेजों ने किया, वही काम स्वतंत्रता के बाद आत्मनिर्भरता के नाम पर श्रीलंकाई सरकार ने किया।
१९७६: प्रभाकरण ने 'लिबरेशन टाइगर्स आफ तमिल एलम' (एलटीटीई) की स्थापना की।

जातीय विविधता श्रीलंका के लिए बड़ी चुनौती साबित हुई है श्रीलंका सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता से संपन्न देश है. श्रीलंका में आबादी का 74 प्रतिशत हिस्सा सिंहला समुदाय का है. ज़्यादातर सिंहला आबादी देश के दक्षिण पश्चिमी क्षेत्रों में केन्द्रित है. अधिकांश सिंहला लोग बौद्ध धर्म का पालन करते हैं. श्रीलंका की आबादी में 12 प्रतिशत लोग तमिल समुदाय के हैं जो देश के उत्तरी और पूर्वी हिस्सों में रहते हैं. अधिकांश तमिल हिंदू हैं.देश का एक अन्य महत्वपूर्ण जातीय समुदाय भारतीय मूल के तमिल हैं जो आबादी का लगभग छह प्रतिशत हैं. ये समुदाय मुख्यतया देश के दक्षिण-मध्य क्षेत्रों में बसता है. 19 वीं सदी में अंग्रेज़ प्रशासक भारतीय मूल के तमिलों को बागान में काम करने के लिए श्रीलंका लाए थे. इनके अलावा अन्य अल्पसंख्यकों में वेद्दास, मुस्लिम और बरघर प्रमुख समुदाय हैं. बरघर यूरोपीय उपनिवेशी आबादकारों के वंशज हैं.
श्रीलंका का इतिहास विश्व का दूसरा सबसे पुराना निरंतर लिखित इतिहास माना जाता है. मगर इतिहास और धार्मिक दंतकथाओं ने देश में जातीय विवाद में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. विवाद का एक मुद्दा ये भी है कि श्रीलंका में पहले आकर कौन बसे थे-- तमिल या सिंहला? 16वी सदी में पुर्तगाली व्यापारियों मे यहां पहुंचना शुरु किया. उनके बाद डच और फिर ब्रितानी व्यापारियों का प्रभाव देश पर बढ़ने लगा. 1815 में ब्रिटेन ने श्रीलंका पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया और बागान पर आधारित अर्थ व्यवस्था कायम की. लंबे राजनीतिक आंदोलन के बाद 1931 में श्रीलंका को स्वशासन का अधिकार प्राप्त हुआ और 4 फ़रवरी 1948 को देश स्वतंत्र हो गया.

तमिलों की समस्या

ब्रिटेन ने 'बांटो और राज करो' की अपनी नीति के ज़रिए तमिल और सिंहला समुदाय के बीच तनाव को और गहरा बना दिया. ब्रिटेन के उपनिवेशकों ने तमिलों को प्रशासन में उनकी जनसंख्या से कहीं बड़े अनुपात में बड़ी नौकरियां दी.
श्रीलंका की आज़ादी के बाद सिंहला राजनीतिज्ञों ने संतुलन कायम करने के लिए सिंहला जनता को ख़ुश करने वाली नीतियां अपनाईं और तमिलों के ख़िलाफ़ भेदभाव की.1956 मे सोलोमन बंडारनायके ने राष्ट्रीयतावाद के मुद्दे पर चुनाव में बहुमत प्राप्त करके सिंहला को देश की आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया. इस फ़ैसले से सिंहला और तमिल समुदाय के बीच तनाव और बढ़ा.

1970 के दशक के मध्य में तमिलों ने देश के पूर्वोत्तर क्षेत्रों को मिलाकर पृथक तमिल राष्ट्र की मांग रखी. 1977 के चुनावों में तमिल युनायटेड लिबरेशन फ़्रंट (टीयूएलएफ़) ने तमिल इलाकों में सारी सीटें जीत लीं.वहीं लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम ने पृथक राष्ट्र की मांग के लिए हिंसा का रास्ता अपनाया. 1983 में तमिलों द्वारा 13 श्रीलंकाई सैनिकों की हत्या के बाद देश में जातीय हिंसा भड़क उठी. कोलंबो में सैंकड़ो तमिल मारे गए और लगभग एक लाख तमिल भाग कर भारत पहुंच गए. टीयूएलएफ़ के सांसदो को संसद से निकाल दिया गया और चरमपंथी गुटों का ख़ात्मा करने के लिए पूर्वोत्तर क्षेत्रों में सैनिक कार्रवाई शुरु की.

भारतीय भूमिका

भारत में तमिलों की संख्या करीब साढ़े पांच करोड़ थी और श्रीलंका में समझा जा रहा था कि भारत से, विशषत: दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में तमिल विद्रोहियों को समर्थन मिल रहा है. श्रीलंका के राष्ट्रपति जयवर्दने ने भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ समझौता करके देश की जातीय समस्या का हल निकालने के लिए भारत की सहायता लेने का प्रयास किया.
जुलाई 1987 मे भारत और श्रीलंका के बीच एक समझौता हुआ जिसके तहत तमिलों को अधिक स्वायत्ता प्रदान करने का फैसला किया गया. एलटीटीई ने शुरुआत मे इस समझौते को स्वीकार किया था. समझौते के तहत विद्रोहियों को निरस्त्र करने के लिए भारतीय शांतिरक्षक सेना को श्रीलंका भेजना तया हुआ था. तमिलों को दी
गई रियायतों का श्रीलंकाई कट्टरपंथी गुटों ने ज़ोरदार विरोध किया.

1989 मे तमिल विद्रोहियों के साथ बातचीत के बाद राष्ट्रपति प्रेमदासा ने भारतीय शांतिरक्षक सेना को हटाने का फैसला किया
1991 में राजीव गांधी की एक चनाव रैली के दौरान हत्या कर दी गई. उनकी हत्या के लिए तमिल टाइगरों को ज़िम्मेदार ठहराया गया.पिछले दस वर्षों में श्रीलंका की जातीय समस्या को हल करने के कई प्रयास किए गए हैं.
राजीव और इंदिरा गांधी परिवार के साथ। श्रीलंका में भारतीय शांति सेना भेजने की जान देकर कीमत चुकानी पड़ी राजीव गांधी को। तमिल छापामारों के आत्मघाती दस्ते ने २१ मई को भारत के श्रीपेरंबदूर में ही मार डाला।

श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति प्रेमदासा जिनकी एलटीटीई छापामारों ने हत्या कर दी थी।

मारा गया प्रभाकरण

महिंदा राजपक्षे और मनमोहन

अंतिम संग्राम

(आखिरी लड़ाई की कहानी और प्रभाकरण का पूरा जीवन यहां पढ़ें)
सन् २००७ में श्रीलंका सेना ने तमिळ बाग़ियों के ख़िलाफ एक सशक्त अभियान शुरु किया । इसमें लिट्टे को छोड़कर आए कुछ बड़े नाम भी श्रीलंका सरकार से मिले हुए थे । पहले उत्तर में और फिर थोड़ा पूरब में सेना को सफलता मिली । मार्च २००९ में सेना धड़ल्ले से आगे बढ़ने लगी और लिट्टे के लड़ाके पीछे । पहले उत्तर की तरफ़ जाफना में सिंहली सेना का अधिकार हो गया । इससे और इससे पहले की सफलताओं से उत्साहित होकर पूरब की तरफ़ सेना का अभियान ज़ोरदार होता गया । सबसे आखिरी गढ़ मुलईतिवु के जंगल और उससे सटे मुलईतिवु का दलदलों से घिरा छोटा सा प्रायद्वीप था जो उत्तर-पूर्वी तट पर स्थित था । तीन ओर से पानी और एक तरफ़ से मिट्टी की बनाई दीवार के पार से सिंहली सेना द्वारा बुरी तरह घिर जाने से लिट्टे मूक सा हो गया था । १८ मई २००९ को प्रभाकरण के मारने के दावे के साथ ही इसका अस्तित्व खत्म हो गया है ।

श्रीलंका का इतिहास
देखिए कैसा था प्रभाकरण का जीवन ( बीबीसी से साभार)

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