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Monday, March 31, 2014

ओड़ीशा में 3 से 4 हजार साल पुराने नरकंकाल मिले

  

ओड़ीशा के जाटनी कस्बा के पास हरिराजपुर ग्राम पंचायत के बाहरी इलाके के बंग गांव के पास असुराबिंधा में 13 मार्च 2014 को खुदाई के दौरान उत्कल विश्वविद्यालय के पुरातत्वविज्ञानियों को 3500 साल पुराने नरकंकाल मिले हैं। इनमें से एक महिला की है। यह जानकारी 14 मार्च को संवाददाताओं को विश्वविद्यालय के नृविज्ञान विभाग के शोधकर्ताओं ने दी। यह खबर ओड़ीशा के ओड़ीशा सनटाईम्स, ओडिया अखबार समाज समेत कई अखबारों ने छापी है। जानकारी दे रहे उत्कल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर किशोर कुमार बासा, प्रोफेसर सविता आचार्य और दकन कालेज पुणे की डाक्टर बीना मुशरिफ त्रिपाठी ने बताया कि एक नरकंकाल 30 से35 वर्ष की महिला की है। अभी सही उम्र का पता करने के लिए कार्बन डेटिंग करायी जाएगी। इसके अलावा पुरुष नरकंकाल का डीएनए कराकर महिला से उसके कोई संबंध की भी जांच की जाएगी। दोनों नरकंकाल 3 से 4 फीट की दूरी पर पाे गए हैं। एक बर्तन के अंदर मिले शिशु नरकंकाल के लिंग का निर्धारण नहीं हो पाया है। यह शिशु पुरुष नरकंकाल के पास मिला है। सभी की हैदराबाद से कार्बन डेटिंग कराई जाएगी। इनकी मौत कैसे हुई होगी, इसका भी पता नहीं चल पाया है।
उठेगा 600 साल पुराने रहस्य से पर्दा..
 लंदन क्रॉसरेल परियोजना की खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को सामूहिक रूप से दफ़न किए गए लोगों के नर कंकाल मिले हैं. इन कब्रों के प्लेग से मरने वाले व्यक्तियों के अवशेष होने के संभावना है. फॉरेंसिक जाँच से कंकालों के 14वीं शताब्दी का होने का संकेत मिला है.सरकारी अभिलेखों से जानकारी मिलती है कि प्लेग की महामारी के दौरान लंदन में हज़ारों लोगों को शहर के बाहर सामूहिक क़ब्रों में दफ़न किया गया था, लेकिन कब्रों की वास्तविक स्थिति एक रहस्य थी.पुरातत्वविदों का मानना है कि यह जगह चार्टरहाऊस चौक के पास स्थित बर्बिकन के करीब है.पुरातत्वविदों की योजना इस पूरे क्षेत्र में प्लेग से मारे गए लोगों के परिजनों की खोज करने की है. इस जगह कई क़ब्रों के होने के निशान मिले हैं.खुदाई के दौरान मिले कंकाल के दाँतों से प्लेग के बैक्टीरिया येरसिनिया परसिस्ट के डीएनए मिले हैं. .ये क़ब्रें वर्ष 1348 से साल 1350 के बीच की मानी जा रही हैं.क्रॉसरेल परियोजना के प्रमुख पुरातत्वविद् जे कार्वर इस खोज के बारे में कहते हैं, "इससे 660 साल पुराने रहस्य की गुत्थी सुलझ सकती है."जे कार्वर बताते हैं, "इस खुदाई से यूरोप की सबसे भयानक महामारी के दस्तावेज़ीकरण और उसे समझने में मदद मिलेगी. आगे की खुदाई से पता चलेगा कि हम अपनी उम्मीदों पर कितने खरे उतरेंगे."

Friday, March 14, 2014

दीपावली, नवरात्र और शिवरात्रि के समान महत्व का है होलिका दहन



होलिका दहन की पौराणिक व ऐतिहासिक कहानी आप भी जानते होंगे। कहते हैं कि विष्णु भक्त प्रह्लाद को जलाने के लिए प्रहलाद की बहन होलिका पिता के आदेश पर उसे गोंद में लेकर जलती अग्नि में बैठ गई थी मगर होलिका इसी अग्नि में जलकर राख हो गई और प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। मगर इस कहानी के अलावा भी है होलिका दहन का महत्व।

 होलिका दहन की रात को दीपावली, नवरात्र और शिवरात्रि के समान महत्व दिया गया है। शास्त्रों में इसे वर्ष की चार महारात्रियों में से एक बताया गया है। होलिका दहन की रात वैदिक विधि विधान के अनुसार कुछ उपाय किए जाए तो रोग एवं आर्थिक परेशानी के साथ ही कई अन्य तरह की समस्याओं से छुटकारा पा सकते हैं।

घर में सुख-समृद्धि के लिए करें यह काम
होली की राख को घर के चारों ओर और दरवाजे पर छिड़कें। ऐसा करने से घर में नकारात्मक शक्तियों का घर में प्रवेश नहीं होता है। माना जाता है कि इससे घर में सुख-समृद्धि आती है।

होली की रात यह उबटन लगाना न भूलें
होलिका दहन की रात घर के सभी सदस्यों को सरसों का उबटन बनाकर पूरे शरीर पर मालिश करना चाहिए। इससे जो भी मैल निकले उसे होलिकाग्नि में डाल दें। ऐसा करने से जादू, टोने का असर समाप्त होता है और शरीर स्वस्थ रहता है।

बुरी नजर से बचाव के लिए
गाय के गोबर में जौ, अरसी, कुश मिलाकर छोटा उपला बना लें। इसे घर के मुख्य दरवाजे पर लटका दें। ऐसा करने से नजर दोष, बुरी शक्तियों, टोने-टोटके से घर और घर में रहने वाले लोग सुरक्षित रहते हैं।

इसलिए होलिका की राख से तिलक किया किया जाता है
होलिका दहन के बाद अगली सुबह यानी धुलैंडी के दिन होलिकाग्नि की राख को माथे पर लगाएं। इसे लगाने का सही तरीका है बायीं ओर से दायीं ओर तीन रेखा खींचें। इसे त्रिपुण्ड कहते हैं। इसे लगाने से 27 देवता प्रसन्न होते हैं। शस्त्रों में बताया गया है कि पहली रेखा के स्वामी महादेव हैं, दूसरी रेखा के महेश्वर और तीसरी रेखा के शिव।

(साभार-अमर उजाला)

16 मार्च
स्नान-दान-व्रत की फाल्गुनी पूर्णिमा, हुताशनी पूर्णिमा-होलिका दहन सूर्यास्त से रात्रि 10.38 बजे के मध्य शुभफलदायक,
17 मार्च
होली-रंगोत्सव

इतिहास

होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसेवसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है।


  इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराणजैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र केरामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर काजोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है।शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था।अंतिम मुगल बादशाहबहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।[9]मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं।विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।

कहानियाँ



होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।
प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।  कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था। ( साभार- विकीपीडिया)


Monday, March 10, 2014

चीन में मिले 1,000 वर्ष पुराने हिन्दू मंदिर के खंडहर


   इतिहासकारों के अनुसार चीन के समुद्र से लगे औद्योगिक शहर च्वानजो में और उसके चारों ओर का क्षे‍त्र कभी हिन्दुओं का तीर्थस्थल था। वहां 1,000 वर्ष पूर्व के निर्मित हिन्दू मंदिरों के खंडहर पाए गए हैं। इसका सबूत चीन के समुद्री संग्रहालय में रखी प्राचीन मूर्तियां हैं।
वैसे वर्तमान में चीन में कोई हिन्दू मंदिर तो नहीं है, लेकिन 1,000 वर्ष पहले सुंग राजवंश के दौरान दक्षिण चीन के फुच्यान प्रांत में इस तरह के मंदिर थे लेकिन अब सिर्फ खंडहर बचे हैं।

द हिन्दू की खबर अनुसार चीन के एक पुराने शहर च्वानजो में 1,000 वर्ष वर्ष पूराने हिन्दू मंदिरों के खंडहर आज भी मौजूद हैं। इन खंडरों से प्राप्त मूर्तियां च्वानजो के समुद्री म्यूजियम में रखी है।
शहर में ही एक हिन्दू मंदिर में आज भी पूजा होती है लेकिन स्थानीय निवासी इसे महिला बोधिसत्व का मंदिर मानकर इसकी मूर्ति की पूजा करते हैं, हालांकि यह स्थान प्राचीनकाल में हरिवर्ष कहलाता था। (PTI, agencies)

Saturday, February 8, 2014

प्राचीनतम शहर काशी का रहस्य जानने के लिए शुरू हुई पुरातात्विक खुदाई

     दुनिया की सबसे प्राचीन नगरी के रहस्यों और कालखंड को तलाशने के लिए दिल्ली ASI और पटना की टीम काशी के राजघाट पहुंची है। खुदाई के लिए ट्रैंच बनाकर मापन कर लिया गया है।
 पहले ट्रैंच A-1 में 92 सेमी की खुदाई भी हो चुकी है। अभी तक की खुदाई में कुछ बर्तनों के टुकड़े मिले हैं। जानकारों के मुताबिक खुदाई की गहराई का मापन मिलती जा रही मिटटी की सतहों पर ही डिसाइड होगा।
 1969 के बाद फिर से काशी की प्राचीनता को वैज्ञानिक आधार देने के लिए खुदाई की जा रही है। वैज्ञानिकों की टीम कार्बन डेटिंग के जरिए ये पता लगाएगी कि इस शहर की नगरीय सभ्यता कैसी और कितनी पुरानी है।
राजघाट में बीएचयू ने वर्ष 1960 से 1969 तक खुदाई कराई थी। खुदाई से इस तथ्य का खुलासा हुआ था कि ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी से लेकर आज तक काशी में मानव जीवन रहा है। कई कालखंडों में यहां पर मानव जीवन होने के साक्ष्य भी मिले हैं।
 दिल्ली से आई ASI टीम के सहायक पुरातत्व विद राजेश यादव ने बताया कि ट्रैंच बनाकर खुदाई का काम शुरू हो गया है। उन्होंने बताया, माउंट (टीला ) कल्चर सीक्वल जानने के लिए वर्टिकल और डिटेल्ड खुदाई की जा रही है।
     इतिहासकार ओपी केजरीवाल ने बताया कि काशी में हो रही खुदाई विज्ञान और इतिहास को एक नया आधार देगी। ग्रंथों में बनारस का इतिहास महाभारत काल का मिलता है। इतिहास की कई किताबों में काशी कि सभ्यता का प्राचीन वर्णन मिलता है। खुदाई से जो चीजें मिलेंगी वो प्राचीनता की दिशा में एक नया इतिहास दुनिया को देंगी।
राजघाट के पास अवशेष स्थल पर खुदाई 1969 के बाद एक बार फिर ASI और ज्ञान प्रवाह की संयुक्त देख-रेख में खुदाई शुरू हो गई है। पुरातत्वविद और बीएचयू की पूर्व प्रो. विदुला जायसवाल ने बताया कि राजघाट के पुरातात्विक खंडहर से काशी की प्राचीनता का जो इतिहास ईसापूर्व 8 वीं शताब्दी यानि 2800 वर्ष का मिलता है।
इस बार खुदाई के दौरान मिलने वाले अवशेषों की कार्बन डेटिंग कराई जाएगी तभी पता चल पाएगा कि इस शहर का इतिहास कितना पुराना है।
सहायक पुरातत्वविद राजेश यादव ने बताया कि कार्बन डेटिंग आधुनिक विज्ञान में काफी विकसित प्रणाली है। खुदाई के दौरान प्राप्त जीव-जंतुओं के अवशेषों, बर्तन, नगर सभ्यता की ईटों और भी तमाम ऐसी चीजें होती हैं जिनका कार्बन कण और एक्टिव पदार्थों से काल खंड का पता लगाया जा सकता है। वैज्ञानिक आधार पर कार्बन डेटिंग ही प्राचीनता का सबसे पुख्ता प्रमाण दे सकता है। वहीं, इससे पहले भी अक्टूबर माह में पुरात्व विभाग ने एक और स्थान की खुदाई की थी। लखनऊ से 50 किलोमीटर दूर उन्नाव जिले के डौंडियाखेड़ा गांव में साधु शोभन सरकार के सपने से प्रेरित होकर सोने के लिए खुदाई भी की गई। वहां कुछ न मिलने पर आखिर कर खुदाई करने पहुंची टीम को अपना बोरिया बिस्तर बांध कर निकल जाना ही सही लगा।
 (स‌ाभार दैनिक जागरण-वाराणसी.)

डौंडिया खेड़ा: सोना तो नहीं, सोने से बड़ा खजाना मिला
 उन्नाव (उत्तर प्रदेश) के डौंडिया खेड़ा के महल में हुई खोदाई में सोना तो नहीं मिला, लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) को उससे भी बड़ा खजाना मिला है। खोदाई में निकले अवशेषों से ऐसे प्रमाण मिले हैं कि वहां का इतिहास तीन हजार साल पुराना है। यह तथ्य एएसआइ के लिए काफी अहम है। इससे पहले डौंडिया खेड़ा का इतिहास 7वीं सदी तक का ही माना जा रहा था।
एएसआइ के पहले महानिदेशक ने 1860 में प्रमाण जुटाए थे कि चीनी यात्री ह्वेन सांग ने सातवीं सदी में डौंडिया खेड़ा का भ्रमण किया था। उसने लिखा था कि डौंडिया खेड़ा में बौद्ध धर्म मानने वाले लोग उसे मिले थे। एएसआइ ने जब डौंडिया खेड़ा में राजा राव रामबख्श के महल की खोदाई की तो वहां मिले अवशेषों से प्राथमिक स्तर पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि वहां का इतिहास 2 हजार साल पुराना है। खोदाई में चमकीले मृदभांड, लाल बर्तन, हड्डी की नुकीली वस्तुएं, जानवरों की हड्डियां, सुपारी के आकार के पत्थर व लोहे की कीलें मिली थीं। एएसआइ की उत्खनन एवं अन्वेक्षण शाखा के निदेशक डॉ. जमाल हसन कहते हैं कि अवशेषों के अध्ययन से इस बात का पता चला है कि डौंडिया खेड़ा का इतिहास 3 हजार साल पुराना है। एएसआइ के अतिरिक्त महानिदेशक डॉ. बी आर मणि कहते हैं कि एएसआइ ने परीक्षण के लिए डौंडिया खेड़ा में खोदाई की अनुमति दी थी। विभाग ऐसी खोदाई कराता रहता है।
अंग्रेजों ने कर लिया था राजा रामबख्श के महल पर कब्जा
शोभन सरकार ने डौंडिया खेड़ा में एक हजार टन सोना दबा होने का दावा किया था। इसके बाद राजा राव रामबख्श के खंडहर हो चुके महल में एएसआइ ने 18 अक्टूबर को खोदाई शुरू कराई थी। जियोलॉजिकल ऑफ इंडिया ने एएसआइ को 29 अक्टूबर को रिपोर्ट दी थी, जिसमें उसने कहा था कि महल के नीचे सोना, चांदी या अन्य धातु दबी हो सकती है। राजा के महल में एक माह तक खोदाई चली और काम 19 नवंबर 2013 को पूरा हुआ। इस काम में 278751 रुपये खर्च हुए थे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों ने महल पर कब्जा कर राजा राव रामबख्श को फांसी दे दी थी।
करीब 100 लोगों ने लगाई आरटीआइसोना मामले को लेकर एएसआइ के दिल्ली स्थित मुख्यालय में करीब 100 आरटीआइ लगाई गई हैं। इसमें लोगों ने पूछा है कि क्या सपनों के आधार पर भी एएसआइ खोदाई कराता है? क्या बाबाओं की बात पर भी एएसआइ भरोसा करता है? कई लोगों ने सोना निकालने के मामले पर होने वाले खर्च की जानकारी मांगी है।
(स‌ाभार दैनिक जागरण-[वी.के.शुक्ला], नई दिल्ली।)

Friday, January 31, 2014

भीम पुत्र घटोत्कच का कंकाल मिला!


 भारत के उत्तरी क्षेत्र में खुदाई के समय नेशनल ज्योग्राफिक (भारतीय प्रभाग) को 22 फुट का विशाल नरकंकाल मिला है। उत्तर के रेगिस्तानी इलाके में एम्प्टी क्षेत्र के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र सेना के नियंत्रण में है। यह वही इलाका है, जहां से कभी प्राचीनकाल में सरस्वती नदी बहती थी।

इस कंकाल को वर्ष 2007 में नेशनल जिओग्राफी की टीम ने भारतीय सेना की सहायता से उत्तर भारत के इस इलाके में खोजा। 8 सितंबर 2007 को इस आशय की खबर कुछ समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई थी। हालांकि इस तरह की खबरों की सत्यता की कोई पुष्टि नहीं हुई है। इस मामले में जब तक कोई अधिकृत बयान नहीं जारी होता, यह असत्य ही मानी जा रही है।

बताया जाता है कि कद-काठी के हिसाब से यह कंकाल महाभारत के भीम पुत्र घटोत्कच के विवरण से मिलता-जुलता है। हालांकि इसकी तुलना अमेरिका में पाए जाने वाले बिगफुट से भी की जा रही है जिनकी औसत हाइट अनुमानत: 8 फुट की है। इसकी तुलना हिमालय में पाए जाने वाले यति से भी की जा रही है, जो बिगफुट के समान ही है।

माना जा रहा है कि इस तरह के विशालकाय मानव 5 लाख वर्ष पूर्व से 1 करोड़ 20 लाख वर्ष पूर्व के बीच में धरती पर रहा करते थे जिनका वजन लगभग 550 किलो हुआ करता था।

यह कंकाल देखकर पता चलता है कि किसी जमाने में भारत में ऐसे विशालकाय मानव भी रहा करते थे। माना जा रहा है कि भारत सरकार द्वारा अभी इस खोजबीन को गुप्त रखा जा रहा है।

खास बात यह है कि इतने बड़े मनुष्य के होने का कहीं कोई प्रमाण अभी तक प्राप्त नहीं हो सका था। क्या सचमुच इतने बड़े आकार के मानव होते थे? यह पहला प्रमाण है जिससे कि यह सिद्ध होता है कि उस काल में कितने ऊंचे मानव होते थे।
हिन्दू धर्म के अनुसार सतयुग में इस तरह के विशालकाय मानव हुआ करते थे। बाद में त्रेतायुग में इनकी प्रजाति नष्ट हो गई। पुराणों के अनुसार भारत में दैत्य, दानव, राक्षस और असुरों की जाति का अस्तित्व था, जो इतनी ही विशालकाय हुआ करती थी।

हालांकि इस क्षेत्र में अभी किसी को जाने नहीं दिया जा रहा और आर्कलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का कहना है कि सरकार से अनुमति प्राप्त होने के बाद ही इस पर कुछ कहा जाएगा। हालांकि भारत सरकार भारत से जुड़े ऐतिहासिक साक्ष्यों को अब तक छुपाकर ही रख रही है। क्यों? यह सरकार से ही पूछा जाना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि राम जन्मभूमि, रामसेतु आदि प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों को सरकार ने छुपाकर रखा है। फिलहाल यहां भारत सरकार ने किसी के भी जाने पर प्रतिबंध लगा दिया है।

महाभारत में भीम पुत्र घटोत्कच और राक्षस बकासुर के इस तरह के विशालकाय होने का वर्णन मिलता है। भीम ने असुर पुत्री हिडिम्बा से विवाह किया था जिससे घटोत्कच और घटोत्कच से बर्बरीक का जन्म हुआ। महाभारतकाल में भी इतने विशालकाय मानव हुआ करते थे।

    इस तरह के कंकाल विश्वभर में कई जगहों पर पाए गए हैं, लेकिन यह सबसे विशालकाय है। अब तक के सबसे प्राचीनतम ज्ञात जीवाश्म एशिया, चीन, जावा और भारत (शिवालिक हिल्स) से प्राप्त किया गया है।
नेशनल ज्योग्राफी की टीम ने यहां खुदाई करने से पहले भूमि के कुछ विशेष चिह्नित इलाकों का स्पेशल एक्स-रे किया था जिसमें उनको यह पता चला कि जमीन के भीतर कुछ विशेष है। बाद में यहां खुदाई करने के बाद एक विशालकाय नरकंकाल मिला। जिसकी खोपड़ी का आकार 10 फुट से अधिक था। यह पूरा कंकाल तकरीबन 30 फुट के करीब है।

     इसके अलावा यहां खुदाई करने पर टीम को कुछ शिलालेख भी मिले जिसमें ब्राह्मी लिपी में कुछ अंकित है। इस भाषा का विशेषज्ञों ने अनुवाद किया। इसमें लिखा है कि- ब्रह्मा ने मनुष्यों में शांति स्थापित करने के लिए विशेष आकार के मनुष्यों की रचना की थी। विशेष आकार के मनुष्यों की रचना एक ही बार हुई थी। ये लोग काफी शक्तिशाली होते थे और पेड़ तक को अपनी भुजाओं से उखाड़ सकते थे। लेकिन इन लोगों ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और आपस में लड़ने के बाद देवताओं को ही चुनौती देने लगे। अंत में भगवान शंकर ने सभी को मार डाला और उसके बाद ऐसे लोगों की रचना फिर नहीं की गई।(नई दिल्ली)
http://hindi.webdunia.com/religion-sanatandharma-history

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