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Friday, September 25, 2009

कैसे बचेगा मथुरा का राधामाधव मंदिर ?

प्राचीन और मंदिरों के शहर के नाम से मशहूर मथुरा विभिन्न प्राचीन व्यापारिक मार्गों का केंद्र था। यहीं से पश्चिम एशिया के रोमन साम्राज्य, उत्तर में तक्षशिला पुष्कलावती और पुरूषपुर व मध्य एशिया चीन को जोड़ने वाला सिल्क रूट के रास्ते गुजरते थे। पांचवीं शताब्दी ईसापूर्व यानी गौतम बुद्ध के समय यह महानगर बन चुका था। कुषाणों के समय में तो इसने अपना स्वर्णयुग भी देखा। तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में महान सम्राट अशोक से लेकर चाथी शताब्दी में गुप्त राजाओं के शासनकाल तक यह प्रमुख आर्थिक केंद्र बना रहा। आज के आधुनिक भारत में भी इसे देश के प्रमुख धार्मिक नगर का सम्मान हासिल है। मंदिरों का शहर वृंदावन यहीं से सिर्फ १५ किलोमाटर दूर यमुना के किनारे अवस्थित है जहां हर साल कम से कम पांच लाख पर्यटक और श्रद्धालु आते हैं।




इसी वृंदावन के प्रमुख मंदिरों में एक है राधामाधव मंदिर। इसे जयपुर मंदिर भी कहते हैं। इसे जयपुर के महाराजा सवाई माधव ने १९१७ में बनवाया। इसे बनवाने में ३० साल लग गए। हाथ से नक्काशी किए हुए इस मंदिर में प्रयुक्त पत्थर कला के बेजोड़ नमूने हैं। इसमें राधा-माधव, आनंद बिहारी और हंस गोपाल की पूजा की जाती है।

कई स्वयंसेवी संस्थाएं आजकल वृंदावन में ‘राधा माधव मंदिर’ पर आंखें गड़ाए बैठी हैं। राजस्थान सरकार के देवस्थान विभाग के अधीन उत्तर भारत के इस नायाब और कलात्मक मंदिर को हथियाने की दौड़ में एक फाउंडेशन सबसे आगे है। संस्था के ट्रस्टी सदस्यों के रूप में देशी और विदेशी उद्योगपति भी हैं। राजस्थान सरकार के अधिकारी अरबों रुपए की बेशकीमती संपत्ति को इस फाउंडेशन की सुपुर्दगी में देने के लिए मानों तैयार बैठे हैं।

जानकारी के मुताबिक मथुरा, वृंदावन, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड आदि स्थानों पर राजस्थान सरकार के देवस्थान विभाग के नियंत्रण में डेढ़ दर्जन मंदिर और उनसे जुड़ी अरबों रुपए की बेशकीमती जमीन है। इन सबके रखरखाव आदि की व्यवस्था के लिए वृंदावन के राधामाधव मंदिर परिसर में देवस्थान विभाग का दफ्तर है।

सहआयुक्त के दफ्तर के छोटे-बड़े कर्मचारी-अफसरों को राजस्थान के महाराजाओं द्वारा बड़े जतन से बनवाए गए मंदिरों की संपत्ति को गलत हाथों में जाने से बचाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ रही है। ब्रज में फैली पड़ी इस संपत्ति में वृंदावन का राधा माधव मंदिर स्थापत्य कला का अपूर्व नमूना है। इसे जयपुर के राजा सवाई माधव सिंह ने 1917 में बनवाया था। 56 एकड़ भूमि में बने इस मंदिर को पूरा होने में तीस साल लगे। भूर पत्थर के इस कलात्मक मंदिर में 66 कमरे, आठ हाल, 26 बरामदे व अनेक बगीचे हैं। वृंदावन के इस किलेनुमा मंदिर में सतरंगी इटेलियन संगमरमर की पच्चीकारी की हुई है। मंदिर के निर्माण के वक्त राजस्थान से पत्थर लाने के लिए राजा ने पंद्रह किलोमीटर लंबी मीटर गेज की रेल लाइन बिछवाई थी जो आज भी मौजूद है।

इतनी शानदार संपत्ति पर थोड़े ही समय पहले भरतपुर की एक न्यास ने दांत गड़ाए थे। राजस्थान सरकार और देवस्थान विभाग के आला अफसरों की मिलीभगत से राधा माधव मंदिर को न्यास को सौंपने की पूरी तैयारी कर ली गई थी लेकिन वृंदावन के नेताओं और जनता के हो-हल्ला मचाने पर सुपुर्दगी की कार्यवाही लटक गई। इसके बाद वृंदावन के ऊंचे रसूख वाले धर्माचार्यों ने इस मंदिर को अपनी सेवा में लेने की लिखा पढ़ी की। लेकिन उन्हें भी कामयाबी नहीं मिली। अब उक्त फाउंडेशन ने इसे हथियाने के लिए कमर कसी है। फाउंडेशन के स्थानीय कर्ताधर्ता एक पूर्व पत्रकार हैं। उन्होंने अपने संपर्कों से राजस्थान के मुख्य सचिव से तार जोड़ा। सूत्रों के मुताबिक देवस्थान विभाग के आला अधिकारी भी फाउंडेशन के हक में झुके नजर आते हैं। लेकिन वृंदावन स्थित देवस्थान विभाग का दफ्तर इस सुपुर्दगी को एकदम गलत ठहराता है। दफ्तर के सहआयुक्त ने अपने 21.4.2009 के पत्र से राजस्थान सरकार को अवगत कराया है कि मंदिर के आसपास 806099 वर्ग फीट खाली जमीन है जिसका वर्तमान मूल्य कई अरब रुपए है। मंदिर में विभाग द्वारा नियुक्त तीन पुजारी विधिवत निम्बार्क संप्रदाय के अनुसार पूजा पाठ कर रहे हैं और इसके रखरखाव में किसी प्रकार की बाधा नहीं आ रही है। उन्होंने लिखा है कि मंदिर की सुपुर्दगी के लिए भूमाफिया किस्म के व्यक्ति व संस्थाएं आवेदन करती रही हैं। उनकी नजर मंदिर की खाली पड़ी जमीन पर है। अगर किसी संस्था की सुपुर्दगी में मंदिर दिया जाता है तो इसे वापस लेना संभव नहीं होगा। इसके अलावा यह फाउंडेशन राजस्थान सार्वजनिक प्रन्यास अधिनियम 1959 के तहत पंजीकृत नहीं है। लिहाजा इस मंदिर को किसी भी संस्था की सुपुर्दगी में दिया जाना उचित नहीं है।

सूत्रों के मुताबिक सहआयुक्त की इस रिपोर्ट को देवस्थान विभाग ने गंभीरता से नहीं लिया। मजेदार बात यह है कि राजनेताओं और अफसरों के वरदहस्त वाले उद्योगपतियों के फाउंडेशन ने उत्तर प्रदेश के अनेक स्थानों पर देवस्थान विभाग के मंदिरों को सुपुर्द करने की एक अन्य चिट्ठी राजस्थान सरकार को दी है।
  राधा माधव मंदिर के पास गौशाला चलाने वाले श्रीपाद बाबा के शिष्य बाबा दामोदर ने बताया कि वे चर्चित फाउंडेशन के कार्यकलापों से परिचित हैं। यदि राजस्थान सरकार ने राधा माधव मंदिर को निजी हाथों में सौंपा तो वे अनशन पर बैठेंगे। बाबा दामोदर ने फाउंडेशन के क्रियाकलापों की जानकारी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पत्र लिखकर दी है। (साभार-जनसत्ता)

Wednesday, August 26, 2009

कोलकाता और जाब चार्नाक

पूर्वी भारत कभी व्यापार और रोजगार का ऐसा केंद्र था जो देश विदेश के हर कोने से लोगों को यहां बरबस खींच लाता था। बंगाल में प्राचीन ताम्रलिप्ति बंदरगाह (जहां अब पश्चिम बंगाल का तमलुक शहर है)रोमांचक समुद्री यात्रा के लिए और कर्ण सुवर्ण (पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में अब रांगामाटी जगह) व्यवसायियों की खातिर पड़ाव भी थी। चीनी यात्री फाहियान भी यहां से गुजरा था। उसी दौर से लेकर पाल शासकों की कर्मभूमि होने और भक्ति आंदोलन के युगपुरुष चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस व विवेकानंद की तपोभूमि बनने से मुगलों के बाद अंग्रेजों के शासन तक यह बंगाल और उसका प्रमुख शहर कोलकाता तमाम किंवदन्तियों से जुड़ गया। कोलकाता शहर का भद्र बंगाली समाज और उसकी विशिष्ट सांस्कृतिक चमक ने हर किसी को लुभाया। यहां के जादू-टोनों से लेकर रहन-सहन, परिधान और बंगाली बाबुओं के किस्से देश के कोने-कोने में लोग अपने रोचक संस्मरणों के तौर पर सुनाते हैं। कुल मिलाकर लोगों के जेहन में अजूबा शहर कोलकाता बसा हुआ है। अंग्रेजी शासन और आजादी के आंदोलनों के दौर के किस्से तो देश की हर भाषा-साहित्य में दर्ज भी हैं। यानी किस्सागोई से बिरहगीतों के मर्म और आजादी की लड़ाई के पराक्रम से नक्सलबाड़ी आंदोलन तक बंगाल और कोलकाता लोगों की मन:स्थिति को आंदोलित करता रहा है। लोगों के जेहन में बसी उन्हीं पुरानी यादों का कोलकाता फिर अचानक चर्चा का विषय तब बन गया जब इतिहास की नई खोजों ने जाब चार्नाक को कोलकाता का संस्थापक मानने से िनकार कर दिया। लोगों के उसी सपनों के शहर कोलकाता की बुनियाद पर इतिहासकारों ने कुछ सवाल खड़े किए हैं। सवाल शहर की उस खासियत पर तो नहीं जो लोगों के जेहन में है, बल्कि शहर के प्रादुर्भाव और उसके संस्थापक समझे गए जाब चार्नाक पर उठाए गए हैं।
करीब तीन सौ साल से भी पुराने पूर्वी भारत के सबसे आलीशान शहर कोलकाता के संस्थापक का गौरव हासिल किए ईस्ट इंडिया कंपनी के सौदागर जाब चार्नाक को ‘संस्थापक’ के सम्मान से बेदखल कर दिया गया है। बंगाल के इतिहास ने फिर करवट ली और इतिहास के कई पूर्व मान्य तथ्य झूठे साबित कर दिए गए। इस बार किसी शासक ने नहीं बल्कि अदालत ने फेरबदल किए। कोलकाता हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने १६ मई २००३ को ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि कोलकाता शहर का संस्थापक जाब चार्नाक नहीं था। इस फैसले के साथ ही न्यायमूर्ति एके माथुर और न्यायमूर्ति जेके विश्वास की खंडपीठ ने यह आदेश भी दिया कि इतिहास के पाठ्यक्रम में अब यह सुधार भी करना होगा। जाब चार्नाक विवाद पर अदालती हस्तक्षेप की जरूरत तब पड़ी जब कोलकाता महानगर के बेहला इलाके के सबरन रायचौधरी परिवार परिषद ने अदालत में एक जनहित चुनौती याचिका दायर करके बंगाल सरकार, नगर निगम, सूतानती परिषद, राज्य की शैक्षणिक संस्थाएं वगैरह को २४ अगस्त को कोलकाता का जन्म दिन नहीं मनाने का आदेश देने की अपील की। इसके बाद सरकार के निर्देश पर पांच इतिहासकारों की विशेषज्ञ समिति को इस विवाद पर अपनी रिपोर्ट सौंपने को कहा गया। इतिहासकार निमाई साधन बोस की अगुवाई में पांच इतिहासकारों की समिति ने पिछले साल नवंबर में ही अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। इस नई खोज को पश्चिम बंगाल सरकार के महाधिवक्ता बलाई राय की मंजूरी के बाद अदालत ने इसके प्रमाणिक होने की पुष्टि भी कर दी है।
इस नई अवधारणा के पहले इतिहास का मान्य तथ्य यह था कि जाब चार्नाक ने कोलकाता की स्थापना २४ अगस्त १६९० को तत्कालीन जमींदार सबरन रायचौधरी परिवार से तीन गांव सूतानती, गोबिंदपुर व कोलिकत्ता को खरीदकर की थी। मशहूर इतिहासकार सीआर विल्सन ने अपनी पुस्तक ‘ओल्ड फोर्ट विलियम इन बंगाल’ में लिखा है कि- ‘जाब चार्नाक ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यवसायी और हुगली नदी के किनारे स्थित एक कोठी का मुखिया था। शाइस्ता खां के बाद जब इब्राहिम खां मुगलों का बंगाल में सूबेदार बना तो उसके आमंत्रण पर जाब चार्नाक ने वह स्थान चुना जहां २४ अगस्त १६९० को कोलकाता नगरी की नींव पड़ी। अगले वर्ष उसको नवाब का फरमान मिला कि तीन हजार रुपए सालाना रकम देने पर अंग्रेजों के माल पर चुंगी मांफ कर दी जाएगी। इस प्रकार जाब चार्नाक ने तत्कालीन बंगाल में कलकत्ता महानगरी और भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के राज का शिलान्यास किया।’ इस पूर्व मान्यता के अनुसार कोलकाता शहर को हुगली के किनारे बसे तीन गांवों सूतानुती, गोबिंदपुर, कोलिकत्ता को मात्र १२०० रुपए में हासिल करके जाब चार्नाक ने बसाया। इन गांवों का ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम पट्टा जाब चार्नाक ने सबरन रायचौधरी परिवार से कराया जिसपर जाब चार्नाक के साले चार्ल्स आयर और सबरन रायचौधरी परिवार के एक सदस्य के हस्ताक्षर हैं।
पूर्वी भारत में व्यापार के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी और जाब चार्नाक को यह सुरक्षित व स्थायी ठिकाना मिलना बड़ी उपलब्धि थी। योरोप से एशिया तक व्यापार के लिए अग्रसर अंग्रेज व्यापारियों के लिए सूरत, मुंबई और मद्रास के बाद पूर्वी भारत में सूतानती एक ऐसा केंद्र मिल गया जहां ईस्ट इंडिया कंपनी के नुमाइंदे व्यापार के लिहाज से कारखाने खोले और बाद में फोर्ट विलियम की किलेबंदी करके अपनी स्थिति मजबूत करने में सफल हुए। ईस्ट इंडिया कंपनी के पूर्वी भारत में यह नया कारखाना खोलने का जश्न २४ अगस्त १६९० को जाब चार्नाक ने हुगली के किनारे कंपनी का झंडा फहराकर मनाया। इतिहास में यही तारीख कोलकाता के जन्म दिन के रूप में दर्ज हो गई और जाब चार्नाक को भी इस शहर के संस्थापक का दर्जा मिल गया।
इस लेख में कलकत्ता की जगह कोलकाता का प्रयोग किया जा रहा है इस लिए यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पहले इस शहर का नाम कलकत्ता ही था जिसे बदलने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार मार्च २००२ में एक विधेयक लाई और नया नाम कोलकाता प्रयोग में लाने का निर्देश दिया। यह अध्यादेश पहली जून २००२ से लागू हो गया। अब यहां के दस्तावेजों में भी परिवर्तन कर लिए गए हैं। मसलन कलकत्ता नगर निगम अब कोलकाता नगर निगम और कलकत्ता पुलिस अब कोलकाता पुलिस के नाम से जानी जाती है।
अब नई खोजों ने कोलकाता के स्थापना दिवस मनाने के उत्साह को ठंडा कर दिया है। इसके पहले हर साल २४ अगस्त को कोलकाता का ३१४वां जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता था। अब इतिहास की नई खोजों ने जाब चार्नाक को कोलकाता का संस्थापक मानने और २४ अगस्त को जन्मदिन मनाने से वंचित कर दिया है। मशहूर इतिहासकार निमाई बोस, सेंटर फार स्टडीज इन सोशल साइंसेज के पूर्व निदेशक प्रोफेसर बरुण दे, अरुण कुमार दासगुप्ता और दिलीप सिन्हा ने नौ पेज की अपनी रिपोर्ट में कोलकाता शहर की स्थापना के जो नए सिध्दांत प्रतिपादित किए हैं उसके मुताबिक कोलकाता अचानक शहर नहीं बना। सत्रहवीं शताब्दी के आखिर तक यह गावों के कई समूहों के विकसित होकर कस्बे में बदलने के बाद शहर में तब्दील हुआ। इसी आधार पर इन इतिहासकारों की राय है कि कोलकाता का न तो कोई एक जन्मदिन और न ही कोई एक संस्थापक निर्धारित हो सकता है। इसके अलावा इन इतिहासकारों का यह भी तर्क है कि जाब चार्नाक ने कोलकाता जैसे किसी शहर का २४ अगस्त १६९० को शिलान्यास नहीं किया था। खुद भी १६९३ ई. में मर गया। जाब चार्नाक के संस्थापक न मानने का सबसे मजबूत साक्ष्य इन इतिहासकारों ने पेश किया है कि जाब चार्नाक ने कभी अपने पत्रों में कोलकाता नाम का जिक्र नहीं किया। वह अपने पत्रों में इस जगह का नाम सूतानुती लिखा करता था। अर्थात् जाब चार्नाक के दिमाग में उस वक्त कोई शहर बसाने की बजाए सिर्फ एक सुरक्षित व्यापारिक केंद्र बनाने की ही योजना रही होगी। बावजूद इसके नई अवधारणा प्रतिपादित करने वाले ये इतिहासकार भी इस बात को मानते हैं कि कोलकाता के शहर के रूप में विकसित होने में जाब चार्नाक की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
जहां तक कोलकाता की प्राचीनता का सवाल है तो यह नाम ५०० साल से ज्यादा पुराना है क्यों कि प्राचीन दस्तावेजों में कोलकाता नाम का उल्लेख है। इनमें सबसे पुराना साक्ष्य बांग्ला साहित्य के ग्रन्थ ‘मानस मंगल’ का है। इसे १४९५ में विप्रदास पिपला ने लिखा है। इसमें कलकत्ता का उल्लेख है। मुगल सम्राट अकबर का दरबारी अबुल फजल भी अपने ग्रन्थ ‘आइने-अकबरी’ में बंगाल की सामाजिक-आर्थिक दशा का विवरण देते हुए ‘कलकत्ता’ का उल्लेख किया है। बांग्ला के मध्यकालीन कवि सनत घोषाल खुद को १६८० ई. में ‘कोलिकत्ता’ में पैदा हुआ बताते हैं। इन साक्ष्यों के आलोक में यह मानने में कोई अड़चन नहीं है कि जाब चार्नाक के यहां आकर बसने के पहले से कोलकाता नामक जगह थी। मगर यह कोई शहर नहीं था। इन कुछ गांवों को छोड़कर कालीघाट से लेकर सूतानुती तक जंगल था। जो सुंदरवन के जंगलों का विस्तार था।
इन सारे तर्कों के बावजूद इतिहास की कड़ियां यहां थोड़ी उलझ जाती हैं। पहली बात तो यह कि जब ‘कलकत्ता’ नामक जगह थी तो इसका उल्लेख जाब चार्नाक अपने पत्रों में क्यों नहीं करता था? यानी तब कलकत्ता नामक जगह जाब चार्नाक के खरीदे गए तीन गांवों की तुलना में शायद महत्वपूर्ण नहीं थी। ऐसे में अगर इन तीन गांवों से ही आगे चलकर कोलकाता शहर विकसित हुआ तो इस शहर का नाम कोलकाता ही रखने की क्या मजबूरी थी? शहर के नामकरण में ये तीन गांव क्यों प्रभावहीन साबित हुए? बहरहाल इस दिशा में इतिहासकारों की खोजें हीं कुछ खुलासा कर पाएंगी मगर जो ज्ञात है वह यह है कि जब जाब चार्नाक यहां आया तो उसने भी अपने लिए मिट्टी के घर बनवाए थे। यही वे केंद्र बिंदु थे जो कोलकाता शहर के विकास के ठोस कारण बने। दरअसल उसने उस प्रक्रिया का मौलिक ढांचा खड़ा किया जिसके कारण व्यापारियों और बाजार का एक केंद्र विकसित हुआ। इस तर्क को इस आधार पर माना जा सकता है कि अंग्रेजों के यहां अपने कारखाने खोलने और किलेबंदी के कारण बंगाल के दूर-दराज के जमींदार और व्यापारी यहीं आकर बसने लगे। धीरे-धीरे यह इलाका ग्रामीण बस्ती की जगह अभिजात्य वर्ग के कस्बे में बदल गया। उदाहरण स्वरूप कोलकाता शहर के बीडन स्ट्रीट की रामदुलाल देब ठाकुर बाड़ी के लोग उसके बाद ही आज के राजारहाट इलाके से यहां आए। यह बीडन स्ट्रीट, शोभाबाजार तब का सूतानुती ही है। इसी ठाकुरबाड़ी परिवार के एक सदस्य और कोलकाता की विरासत को सहेजकर रखने के काम में लगी ‘सूतानुती परिषद’ के संयुक्त सचिव के. के. देब बताते हैं कि उनके पूर्वज १७५२ ई. में यहां आए थे। उनके मुताबिक राजारहाट से सूतानुती आने की मुख्य वजह व्यापार-व्यवसाय की सुविधा और सुरक्षा थी। ये साक्ष्य भी यही साबित करते हैं कि जाब चार्नाक के प्रयासों से एक ऐसा व्यापारिक केंद्र विकसित हुआ जिसने कोलकाता जैसे शहर के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दरअसल यहां आकर जाब चार्नाक के बसने और अपनी प्रशासनिक बस्ती तैयार करने की बड़ी वजह दूसरी योरोपीय कंपनियों के साथ व्यापारिक प्रतिस्पर्धा थी। उसकी मंशा एक ऐसे केंद्र की स्थापना की थी जहां अंग्रेज व्यापारी सुविधा संपन्न और महफूज रह सकें तभी तो मुगल सम्राट औरंगजेब की अनुमति के बाद कैप्टन ब्रुक को जाब चार्नाक ने अपनी जहाज के साथ यहां आने का संदेश भेजा था। २८ अगस्त १६९० को बंगाल काउंसिल के साथ बातचीत के बाद अपने अंग्रेज साथियों को यहां लाया। तब जाब चार्नाक और उसकी दो सदस्यीय एलिस और पिची की काउंसिल व उसके बीस सिपाहियों ने पुरानी झोपड़ियों को मरम्मत करके रहने लायक बनाया। मिट्टी की दीवाल वाली नई झोपड़ियां भी बनाई। इसके बाद इसके इर्द-गिर्द तमाम घर बनते चले गए। जो बेहद बेतरतीब तरीके से बने। ईस्ट इंडिया का चीफ गवर्नर व सुपरवाइजर जान गोल्डस बोरो हुगली के किनारे जाब चार्नाक के स्थायी तौर पर बस्ती बना लेने के बाद १६९३ ई. में कोलकाता का दौरा किया था। तब बन चुकीं और बन रहीं बस्तियों के बारे में उसने लिखा है कि- सभी घर बेहद पास-पास बेतरतीब तरीके से बने हैं और जहां जिसकी मर्जी गड्ढा खोद लेता है। यानी जाब चार्नाक के रहते हुए भी लोग बड़े अव्यवस्थित तरीके से बिना किसी योजना के घर बना रहे थे। उस समय तक जो कस्बा विकसित हुआ उसमें कोई व्यवस्थित शहर बसाने की किसी योजना की झलक तक नहीं दिखाई देती। मोटे तौर पर ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक जरूरतों के मद्देनजर १७०७ ई. तक अंग्रेज पूरी तरह से यहां बस गे थे। कोलकाता तभी जाकर सही मायने में टाउन में तब्दील हुआ। १६९६ ई. से १७१५ ई. के बीच फोर्टविलियम की किलेबंदी की गई। उसी ओल्ड फोर्टविलियम की जगह आज कस्टम हाउस और जनरल पोस्ट आफिस है। मौजूदा फोर्टविलियम के लिए दूसरी जगह बाद में चुनी गई। आज का डलहौसी इलाका उनमें से एक है जहां अंग्रेजों ने आवास और दफ्तर व्यवस्थित तरीके से बना लिए थे। सूतानुती, गोबिंदपुर और कोलिकत्ता के बाद इस इलाके में चौरंगी से मैदान तक का वह इलाका भी शामिल हो गया जहां कभी सुंदरवन का घना जंगल था और टाईगर बेखौफ घूमा करते थे। इतना व्यवस्थित होने और एक शहर में तब्दील होने में कई दशक बीत गए और तब तक ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी सत्ता जमा चुकी थी। इसके बाद ही प्लासी के युध्द में नवाब सिराजुद्दौला को धूल चटाकर भारत में सत्ता की हिस्सेदार बन गई।
कोलकाता शहर बनने की इस पूरी प्रक्रिया को जाब चार्नाक की शहर बसाने की किसी योजना ने नहीं पूरा किया बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी के बाद के अधिकारियों की कोशिशों का नतीजा था। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि कोलकाता शहर का कोई एक संस्थापक कैसे हो सकता है? मगर इस सत्य को नकारना भी इतिहास के साथ बेमानी होगी कि कोलकाता शहर अस्तित्व में इसी के बाद आया।
कोलकाता के जन्मदिन २४ अगस्त को शहर की एक संस्था सूतानुती परिषद १९९२ से उत्सव के तौर पर मनाती रही है। हालांकि हाईकोर्ट के आदेश के बाद नई परिस्थितियों पर विचार के लिए परिषद ने एक बैठक में तय किया कि वह हर साल की तरह २४ अगस्त को ही सूतानुती उत्सव मनाएगी। कोलकाता के जन्मदिन २४ अगस्त को ही उत्सव मनाने के पीछे परिषद के संयुक्त सचिव केके देब तर्क देते हैं कि इसके पहले भी वे लोग जन्म दिन नहीं मनाते थे। यह संस्था तो शहर की विरासत के संरक्षण के लिए गठित की गई है और सूतानुती उत्सव में हमारी चर्चा का विषय भी विरासत को बचाने से ही संबंधित होता है। केके देब भी बड़ी ईमानदारी से इस बात को स्वीकार करते हैं कि २४ अगस्त कोलकाता का जन्मदिन तो नहीं हो सकता मगर इस सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके बाद से ही वह प्रक्रिया शुरू हुई जिससे गुजरकर कोलकाता शहर का स्वरूप सामने आया। और हम उसी कोलकाता की विरासत के संरक्षण में लगे हुए हैं। परिषद के गठन और उसकी उपलब्धियों का हवाला देते हुए केके देब बताते हैं कि शुरू में कुछ जागरूक लोगों ने शोभाबाजार नाट्यमंदिर को एक प्रमोटर के हाथों बेचे जाने का विरोध किया। केके देब के साथ कुछ और जागरूक नागरिकों ने नगर निगम से इसे छुड़ाने और इसके जीर्णोध्दार की अपील की। फिलहाल नगर निगम ही इसकी देखरेख में लगा है। इसी घटना के बाद इन नागरिकों ने महसूस किया कि एक ऐसी परिषद होनी चाहिए जो शहर की ऐसी तमाम इमारतों व सास्कृतिक विरासत की रक्षा कर सके। इसी के तहत १९९२ में सूतानुती परिषद का गठन किया गया।
कोलकाता के जन्म दिन के विवाद से जुड़ा एक और परिषद है सांखेर बाजार के पास बारिशा स्थित सबरन रायचौधरी परिवार परिषद। कोलकाता का २४ अगस्त को जन्म दिन मनाने का रायचौधरी परिवार ही प्रबल विरोधी रहा है। रायचौधरी परिवार का कहना है कि वे जाब चार्नाक से पहले इस इलाके के जमींदार थे। जाब चार्नाक तो बाद में आया और उनसे ही तीन गांवों की जमींदारी खरीदी थी। ऐसे में कैसे जाब चार्नाक कोलकाता का संस्थापक हो सकता है? इसी आधार पर सबरन रायचौधरी परिवार परिषद ने कोलकाता हाई कोर्ट में याचिका दायर करके जन्मदिन और जाब चार्नाक के संस्थापक की अवधारणा को चुनौती दी थी।
कोलकाता के जन्मदिन की अवधारणा को खारिज तो इसी शहर के मशहूर इतिहासकार पीटी नायर भी कर चुके हैं। जाब चार्नाक पर लिखी अपनी पुस्तक में उन्होंने इस मिथक को ही गलत ठहराया है कि कोलकाता का २४ अगस्त १६९० ई. को जन्म हुआ और जाब चार्नाक इसके जनक थे। पीटी नायर ने कोलकाता पर ढेर सारी किताबें लिखी हैं। इनमें से एक पुस्तक ‘रेनेशां’ भी है जिसे उन्होंने कोलकाता का दौरा करने वाले योरोपीय यात्रियों की ३५ डायरियों और पत्रों को आधार बनाकर लिखा है। यह पुस्तक कोलकाता के इतिहास पर मौलिक सामग्री का दस्तावेज है। कुल मिलाकर तब तो नहीं पर अब हाई कोर्ट के फैसले के बाद पीटी नायर भी सच साबित हो गए हैं।
कोलकाता नगर निगम के पूर्व मेयर सुब्रत मुखर्जी ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे कभी भी कोलकाता का जन्मदिन नहीं मनाते थे। मेयर का भी मानना है कि गांवों से धीरे-धारे कोलकाता का विकास हुआ।
संभवत: अब करीब ५०० साल से अधिक पुराने उस साक्ष्य को मान्यता प्रदान की जाएगी जिसमें कोलकाता का जिक्र है। यह साक्ष्य है १४९५ ई. का विप्रदास का ग्रन्थ मानस मंगल। नवीन अवधारणा के तहत कोलकाता की प्राचीनता ५०० साल से अधिक मानी जानी चाहिए। संभव है कि इतिहासकार कोई और साक्ष्य ढूंढ पाएं और तब शायद कोलकाता को और प्राचीन होना साबित किया जा सकेगा।
इस नई अवधारणा से ‘कोलकाता’ की प्राचीनता भले निर्धारित हो सकती है मगर भरपूर साक्ष्यों के अभाव में अभी यह साबित करना मुश्किल होगा कि ‘कोलकाता शहर’ भी इतना पुराना है। फिलहाल उपलब्ध साक्ष्य यही बताते हैं कि शहर तो अस्तित्व में जाब चार्नाक और ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के बाद ही आया। सूतानुती परिषद भी इसी तथ्य को मानता है। इतिहास अपने जितने पन्ने खोले चाहे बंद करे मगर नई अवधारणा से इस शहर के लोगों की वह एकरूपता बिखर गई है जो उनको संवेदनात्मक रूप से जोड़े रखने की कारक थी। ऐसे लोगों को समायोजित होने में वक्त लगेंगे। जहां तक उत्सव मनाने की बात है तो सूतानुती परिषद उसी दिन उत्सव मनाना तय किया है।
सबरन रायचौधरी परिवार कोलकाता के सौभाग्य प्रतीक पुरुष के रूप में अपने ही पूर्वज और १७वीं शताब्दी के समाज सुधारक लक्ष्मीकांत रायचौधरी को अपनाया है। लक्ष्मीकांत ने उस वक्त के समाज से कुलीनता और बहुविवाह जैसी बुराईयों को खत्म करने की लड़ाई लड़ी थी। सबरन रायचौधरी परिवार परिषद के प्रवक्ता और सहायक सचिव देवर्षि रायचौधरी का दावा है कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर और राजा राममोहन राय से काफी पहले लक्ष्मीकांत रायचौधरी ने समाज सुधार आंदोलन शुरू किया था। फिलहाल सबरन रायचौधरी परिवार परिषद लक्ष्मीकांत को कोलकाता के संस्थापक के रूप में पेश नहीं है। यह तो समय ही बताएगा कि ये आयोजन सिर्फ पारिवारिक कार्यक्रमों तक सिमटकर रह जाएंगे या फिर कोलकाता की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के लिहाज से महत्वपूर्ण भी साबित होंगे। जो भी हो मगर इन आयोजनों में वह सार्वजनिकता कैसे आएगी जो गलत ही सही पर संवेदनात्मक तौर पर कोलकाता के लोगों को एक मंच प्रदान करती थी। दरअसल इतिहास की और भी ऐसी तमाम घटनाएं हैं जिनपर सारे इतिहासकार एकमत नहीं हो पाए हैं। ऐसे ही तथ्य लोगों में और इतिहास की ऐतिहासिकता के बारे में भ्रम पैदा करते हैं। हकीकत यह है कि जब तक किसी अवधारणा में प्रमाणिक एकरूपता नहीं होती आमलोग उसे अपनी संवेदनाओं से जोड़ ही नहीं पाते हैं। कोलकाता की नई अवधारणा भी संवेदनात्मक तौर पर अभी इसी दौर में है।

Friday, July 10, 2009

दुर्गति में है मथुरा का संग्रहालय

मथुरा आर्कियोलाजिकल म्यूजियम

करीब तीन हजार साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति का आइना बना मथुरा का राजकीय संग्रहालय आज बुरी तरह अस्त-व्यस्त है। दुनियाभर में प्रसिद्ध यह संग्रहालय दर्शकों की बाट जोहता दिखाई पड़ता है। इस संग्रहालय को देखने आने वाले विदेशी पर्यटकों की संख्या लगातार घट रही है। संग्रहालय की यह दुर्गति पिछले एक दशक में हुई है।
मजेदार बात यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार का संस्कृति विभाग मथुरा म्यूजियम के विस्तार पर करोड़ों रुपए खर्च करने में जुटा है। म्यूजियम के विस्तार की नीति संबंधित अफसरों के माफिक आई है पर म्यूजियम के रखरखाव के लिए घातक सिद्ध हुई है। जानकारी के मुताबिक मथुरा म्यूजियम की इमारत की मरम्मत का काम 1999 में शुरू हुआ। इसके लिए तीन चौथाई म्यूजियम दर्शकों के लिए बंद करना पड़ा। करीब 300 बेशकीमती व लाजवाब मूर्तियों को गोदाम में बंद कर दिया गया। म्यूजियम अधिकारियों के निकम्मेपन का एक नमूना यह है कि एक दशक पूर्व बंद किया तीन चौथाई म्यूजियम आज भी बंद है।
मथुरा म्यूजियम पर सबसे लंबी हुकूमत जितेंद्र प्रसाद की रही। टुक़ड़ों-टुकड़ों में जितेंद्र दस वर्ष से ज्यादा मथुरा म्यूजियम के निदेशक रहे। यहां से उनका तबादला लखनऊ हुआ और फिर रिटायर हुए। मथुरा म्यूजियम की दुर्गति के लिए जितेंद्र कुमार को दोषी मान उनके कार्यकलापों की जांच की बात करते हैं। जितेंद्र कुमार के सत्ता के गलियारों में अच्छे रिश्तों के कारण मथुरा म्यूजियम के विस्तार के लिए 8 करोड़ रुपए की रकम स्वीकृत हुई थी।
मथुरा-वृंदावन गोविंद मंदिर

म्यूजियम के बगल में एक दूसरी इमारत के निर्माण का कार्य और पुरानी इमारत की मरम्मत का कार्य जितेंद्र के वक्त में शुरू हुआ। यह कार्य उप्र जल निगम की निर्माण शाखा इकाई कर रही है। म्यूजियम कर्मचारियों का कहना है कि धीमी गति से चलने वाले इस घटिया कार्य की अनेक शिकायतें प्रदेश सरकार से की गईं लेकिन कड़ी कार्यवाही के बजाय जल निगम के अधिकारियों को इनाम मिलता रहा है। अब म्यूजियम में सुरक्षा के लिए लगाए गए सीसी कैमरे, फर्नीचर, एसी आदि सामान खरीदने का जिम्मा भी जल निगम के पास है। यह सब बढ़िया कमीशन ज्यादा काम के सिद्धांत पर चल रहा है।
मालूम हो मथुरा म्यूजियम बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म की हजारों वर्ष पुरानी दुर्लभ मूर्तियों के संग्रह के लिए विश्वविख्यात है। अनेक दुर्लभ मूर्तियां नष्ट हो रही हैं। इनकी हिफाजत के लिए तैनात रसायन वैज्ञानिक लखनऊ म्यूजियम की सेवा कर रहा है। रानी विक्टोरिया की सौ वर्ष पुरानी अष्ट धातु की मूर्ति खुले आकाश के नीचे पड़ी है। इस मूर्ति के हाथों में एक दंड और एक ग्लोब था। इसे चोर ले उड़े। मथुरा पुलिस फिल्मी अंदाज में चोरों की तलाश कर रही है।
मथुरा-वृंदावन रंगजी मंदिर

म्यूजियम के पास एक अमूल्य पुस्तकालय है। इसकी 40 हजार पुस्तकों पर अब खतरा मंडरा रहा है। शहर के बुद्धिजीवियों के मध्य म्यूजयिम का पुस्तकालय काफी लोकप्रिय रहा है। इतिहास के छात्र इस पुस्तकालय का भरपूर उपयोग करते रहे हैं लेकिन आज इधर का रुख करने वाला कोई नहीं। पुस्तकालय की छत चूने से अधिकांश पंखे खराब पड़े हैं। पुस्तकालय भवन में म्यूजियम के संस्थापक एफएस ग्राउज के सम्मान में आयोजन होते थे। इस वर्ष ग्राउज सप्ताह नहीं मना।
म्यूजियम में कुल 32 कर्मचारी हैं। अनेक पद रिक्त पड़े हैं। सभी कर्मचारी म्यूजियम की दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं। वे किसकी शिकायत किससे करें। मुंह खोलने पर खुद के ऊपर गाज गिरने का डर है। (साभार-जनसत्ता )।

मथुरा संग्रहालय, व्रज, भगवान श्रीकृष्ण संबंधित सामग्री के लिंक उनके आमुख के साथ दिए गए हैं। कृपया इस लिंक से पढ़ें पूरा विवरण। इस पोस्ट के फोटो भी इन्हीं लिंक से साभार लिए गए हैं।


कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्
----------ऋग्वेद संहिता में कृष्ण के नाम का उल्लेख जरूर मिलता है; किंतु यह नाम तो उसमें एक असुर राजा का है। बौद्ध और जैन धर्मग्रंथ तो कृष्ण को बिलकुल अलग रीति से पहचानते हैं। जिस कृष्ण का हमें यहाँ दर्शन करना है, वह कृष्ण तो मुख्य रूप से महाभारत के हैं। हरिवंशपुराण के हैं, श्रीमद्भागवत के हैं और विष्णुपुराण एवं ब्रह्मवैवर्तपुराण के मुख्य रूप से, तथा पद्मपुराण अथवा वायुपुराण जैसे किसी पुराण के अंश रूप हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि यह दर्शन भी संपूर्ण है। लेखक की दृष्टि आंशिक हो सकती है कहीं रुचि-भेद से प्रेरित दृष्टि भी हो सकती है और कहीं इस दृष्टि की साहसिक मर्यादा भी हो सकती है।‘श्रीकृष्ण-डार्लिंग ऑफ ह्युमेनिटी’ नामक एक ग्रंथ में उसके लेखक ए.एस.पी.अय्यर ने एक सरस कथा लिखी है। एक अति बुद्धिशाली व्यक्ति को कृष्ण के अस्तित्व के बारे में शंका थी। उन्होंने एक संत के सामने अपनी शंका प्रस्तुत की-‘मुझे प्रतीत होता है कि कृष्ण कोरी कल्पना का पात्र है। वास्तव में ऐसा कोई पुरुष हुआ ही नहीं।’ उन्होंने कहा।‘यह बात है ? क्या आपका वास्तव में अस्तित्व है ?’ संत ने जवाबी प्रश्न किया।‘अवश्य।’ उस विद्वान ने विश्वासपूर्वक कहा।‘आपको कितने मनुष्य पहचानते हैं ?’‘कम-से-कम पाँच हजार तो अवश्य। मैं प्रोफेसर हूँ, विद्वान हूँ, लेखक हूँ, आदि।’‘अच्छा-अच्छा ! अब यह कहिए कि कृष्ण को कितने मनुष्य पहचानते हैं ?’‘करोड़ों, कदाचित् अरबों भी हो सकते हैं।’ विद्वान ने सिर खुजलाया।‘और यह कितने वर्षों से ?’‘कम-से-कम इस काम को तीन हजार वर्ष तो हुए ही हैं।’‘अब मुझे यह कहिए कि चालीस वर्ष की आपकी आयु में जो पाँच हजार मनुष्य आपको पहचानते हैं, उनमें से कितने आपको पूजते हैं ?’‘पूजा ? पूजा किसकी ? मुझे तो कोई पूजता नहीं ?’‘और कृष्ण को तीन हजार वर्षों बाद भी करोड़ों मनुष्य अभी भी पूजते हैं। अब आप ही निर्णय करें कि वास्तव में आपका अस्तित्व है अथवा कृष्ण का।’-----

मथुरा संग्रहालय
मथुरा का यह विशाल संग्रह देश के और विदेश के अनेक संग्रहालयों में वितरित हो चुका है। यहाँ की सामग्री लखनऊ के राज्य संग्रहालय में, कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में, मुम्बई और वाराणासी के संग्रहालयों में तथा विदेशों में मुख्यत: अमेरिका के 'बोस्टन' संग्रहालय में, 'पेरिस' व 'झुरिच' के संग्रहालयों व लन्दन के ब्रिटिश संग्रहालय में प्रदर्शित है। परन्तु इसका सबसे बड़ा भाग मथुरा संग्रहालय में प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त कतिपय व्यक्तिगत संग्रहों में भी मथुरा की कलाकृतियाँ हैं।--------

अतीत का अद्यतन अस्तित्व-मथुरा
---------मथुरा नगरी जो कि भगवान कृष्ण, महावीर और बुद्ध जैसे महापुरुषों से अनन्य संबंध रखती है, इसका एक लंबा, बहुआयामी और बहुरंगा इतिहास है। मथुरा हिन्दू, जैन और बौद्ध अनुयायिओं का तीर्थ स्थल है। यहां कला की विविध विधाएं और धर्मोपदेश फव्वारें से निसृत बुदबुदों के समान, भारतीय संस्कृति में विलीन होते देखे जाते हैं। मथुरा जो कि अब एक छोटा शहर है ओर भगवान कृष्ण की जन्मभूमि के रुप में प्रसिद्ध है, किसी समय में एक अविस्मरणीय व्यवसायिक केन्द्र और दक्षिण और उत्तर पथ का संपात स्थल है। मथुरा वासियों के लिए व्यापार ही मुख्य व्यवसाय था। कारवां आते-जाते हुए कुछ समय यहां रुकते थे।---

मथुरा का पौराणिक परिचय

व्रज का इतिहास

मंदिर की भव्यता देख दंग रह गया था गजनवी

Thursday, July 9, 2009

बिखरी हुई है हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक विरासत

मध्य प्रदेश के शहर छतरपुर से 37 किलोमीटर दूर बिजावर कस्बे में भगवान राम और जानकी के मंदिर सहित तमाम प्राचीन विरासत बिखरी हुई है। जानकी निवास के ट्रस्टी हरिशंकर अग्रवाल ने बताया कि बिजावर और उसके आसपास जटाशंकर धाम, अर्जुनकुण्ड और पहाड़ों पर शैल चित्र सहित हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक विरासत बिखरी हुई है।
इस समय बीस से पच्चीस हजार की आबादी वाले बिजावर कस्बे में लगभग 250 मंदिर हैं जिनमें से 48 मंदिर शासकीय सूची में दर्ज है। राम निवास, जानकी निवास के अलावा बडी देवी, बिहारी, राधा माधव, चित्रगुप्त, जानकी रमण, जुगल किशेर और लक्ष्मी नारायण मंदिर जैसे प्रमुख मंदिर हैं। अग्रवाल ने बताया कि राम जानकी के मंदिर में भगवान की व्यवस्था एक गृहस्थ की तरह होती है। सोने के लिए अलग कक्ष बैठक के लिए आसन (कुर्सी) जानकी के शृंगार के लिए शृंगारदान और भगवान राम के लिए चौपड़ है।
अग्रवाल ने बताया कि लगभग 100 साल पहले संवत 1965 में जानकी निवास का निर्माण तत्कालीन राजा सावंत सिंह ने कराया था जबकि राम निवास मंदिर 300 से 400 साल पुराना है। विवाह पंचमी पर भगवान राम और सीता का समारोहपूर्वक विवाह आयोजित करने की परंपरा यहां वर्षों से चली आ रही है। चित्रगुप्त मंदिर के पुजारी और पुजारी संघ के संचालक लखनलाल दुबे ने कहा कि राजा सावंत सिंह ने बिजावर रियासत में सैकड़ों की संख्या में मंदिरों का निर्माण कराया। दुबे ने कहा कि सरकार को मंदिरों के रख रखाव और संरक्षण की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। यदि यहां किलों और मंदिरों को समग्र रूप से संरक्षित व दर्शनीय बनाया जाए ताकि बिजावर एक अच्छा पर्यटन स्थल बन सकता है। स्थानीय तालाब को विकसित कर वाटर स्पोर्टस शुरू किया जा सकता है। (भाषा)।

Wednesday, June 24, 2009

दो हजार साल पहले एक बड़ा व्यापारिक केंद्र था पुणे शहर


पुणे में दकन कॉलेज के पुरातत्वविदों को प्राचीन मृदभांडों व बर्तनों के कुछ टूटे हुए टुकड़े मिले हैं जो 2000 साल पुराने है। यहां एक प्राचीन स्थल बुद्धवार पेठ के पास नींव के लिए खुदाई का काम चल रहा था। पुरातत्वविदों को ये प्राचीन वस्तुएं इसी खुदाई के दौरान मिली हैं।
इन मृद भांडों व बर्तनों के साक्ष्य के आधार पर पुरातत्वविदों का अनुमान है कि इससे पुणे शहर के २००० साल पहले एक प्रसिद्ध व्यापार केंद्र होने का प्रमाण मिलता है। इतिहासकार पांडुरंग बलकावड़े, जो कि इन पुरातत्वविदों के साथ काम कर रहे हैं और शहर की प्राचीनता का अध्ययन कर रहे हैं, का कहना है कि पुणे शहर के उस समय तक एक बड़े व्यापारिक केंद्र होने का यह सबसे पुराना साक्ष्य है।
बलकावड़े ने बताया कि जो प्राचीन वस्तुएं बुद्धवार पेठ इलाके में १५-२० फीट गहरे गड्ढे से मिली हैं, वह सातवाहन काल की हैं। जो बर्तन मिले हैं उनमें पालिश किए हुए लाल, काले रंग के मृदभाड के टुकड़े हैं। जो संभवतः खाना पकाने और अनाज संग्रह के लिए प्रयुक्त होते थे। ये सभी शहर के उस पुराने हिस्से से पाए गए हैं, जो मूथा नदी के तट पर अवस्थित है। पाए गए उत्कृष्ट मृदभांडों में एक बड़ी प्लेट, जल संग्रह करने वाला एक कंटेनर और अनाज रखने के पात्र के टुकड़े बताते हैं कि इन्हें कुशल कारीगरों ने बनाया होगा। जहां खुदाई हुी है वह नौ स्तरों को दर्शाती है। सबसे उपरी स्तर को इन्होंने १८वीं शताब्दी का बताया है जबकि सबसे निचले स्तर को ईसापूर्व १०० साल पुराना बताया गया है। इसी निचले स्तर से मिले हैं मृदभांड।
कुछ साल पहले कस्बा पेठ इलाके से इसी तरह की प्राचीन सामग्री मिलीं थी। कार्न डेटिंग के आधार पर इन सभी को सातवाहन काल का बताया जा रहा है। पहले जो सामग्री मिलीं थां, उन्हें दकन कालेज संग्रहालय में रखा गया है। इन प्राचीन मृदभांडों का बलकावड़े के साथ शोधकर्ता प्रवीन पाटिल, अभय काले और अमोल बंकर अध्ययन कर रहे हैं।

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