बालथाल में खुदाई में मिली खोपड़ी। तीर के चिन्ह से इसके कुष्ठ रोग प्रभावित हिस्से को दिखाया गया है। ( फोटो-साभार पीएलओएस )
मानवजाति की महाविपत्ति समझा जाने वाला कुष्ठ रोग ( कोढ़ ) दुनिया के पुराने रोगों में से एक है। आज लाइलाज नहीं है कुष्ठ रोग मगर अभी भी कुष्ठ रोगियों को जाने-अनजाने तिरस्कार झेलना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के मुताबिक पूरी दुनिया में 2007 तक 212000 से 250000 के बीच लोग कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। यह रोग मुख्यत: हाथों और पैरों से शुरू होता है। मवाद के साथ गल रहे हाथ पैर इतने विकृत व घिनौने हो जाते हैं कि इनके आसपास भी कोई फटकना नहीं चाहता।
चार हजार साल पुराना कुष्ठ रोग भारत या अफ्रीका से पूरी दुनिया में फैला
अभी पिछले साल ही फरीदाबाद में अपने मित्र सुरेंद्र प्रसाद सिंह के साथ फरीदाबाद में घूम रहा था तो सुरेंद्र ने कुष्ठ रोगियों की एक बस्ती दिखाई। हम बस्ती के बगल से ही गुजर रहे थे। इस बस्ती को हरियाणा सरकार ने बसाया है। इनहें पूरे शहर में घूमकर भीख मांगने की इजाजत भी नहीं है। जनि किसी को इन्हें कुछ दान करना होता है वे खुद इस बस्ती तक आते हैं और वस्त्र, खाद्यान्न इन्हें दे जाते हैं। यानी बेहतर व्यवस्था हो तो भी इस संक्रमण वाले रोग से ग्रसित लोगों को समाज से बहिष्कृत तो होना ही पड़ता है। अगर फरीदाबाद जैसी व्वस्था में न हों तो हीन जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है। हमारे मिथकीय इतिहास में भी कोढ़ के कारण तमाम लोगों के महाविपत्ति में पड़ने की घटनाएं भरी पड़ी हैं। बचपन हमें भी ऐसी कहानियां या किस्से सुनने को मिलीं कि फलां राजा पाप के कारण कोढ़ी हो गया और राजपाट छोड़कर जंगल में चला गया। पुन: किसी दिव्य प्रताप से ठीक होकर लौटा। यानी कोढ़ को मिथकीय कहानियों में व्यक्ति का पाप बताया गया तो भला ऐसे पापी को समाज में रहने की इजाजत कैसे मिलती? बहरहाल इस पर कभी अलग से चर्चा करूंगा। फिलहाल यहां मैं कोढ़ के सामाजिक प्रभाव पर चर्चा नहीं करने जा रहा हूं बल्कि आपको यह बताने वाला हूं कि कितना पुराना और मूलत: कहां से पूरी दुनिया में फैला है यह कोढ़ रोग। यानी कुष्ठ रोग के इतिहास की जानकारी के साथ इसके नवीनतम शोध की भी जानकारी दूंगा।
भारत या अफ्रीका से पूरी दुनिया में फैला कुष्ठ रोग
इतिसकारों और रोगों पर शोध करने वाले चिकित्साविज्ञानियों की नई खोजों से पता चला है कि भारत में चार हजार साल पुराना है कुष्ठ रोग। पब्लिक लाइब्रेरी साइंस में छपी रिपोर्ट में यह हवाला दिया गया है। इनका दावा है कि भारत में राजस्थान के प्राचीन स्थल बालथाल में खुदाई के दौरान मिली मानव खोपड़ी में कुष्ठ रोग के साक्ष्य मिला हैं। यह खोपड़ी 2000 ईसापूर्व की बताई गई है। यही साक्ष्य ही कुष्ठ रोग को ४००० साल पुराना साबित करता है। इसके साथ ही इस अवधारणा को भी बल मिला है कि भारत या दक्षिण अफ्रीका से एशिया या यूरोप में यह रोग तब फैला होगा जब भारत विजय अभियान के बाद सिकन्दर वापस लौटा होगा। बून के अप्पलचियन स्टेट यूनिवसिर्टी को मानवविज्ञानी ग्वेन राबिंस का मानना है कि बालथाल के साक्ष्य के आधार पर इस रोग के यहां होने का काल ३७०० से १८०० ईसापूर्व माना जा सकता है। हालांकि यह तय कर पाना मुश्किल है कि जिस खोपड़ी में कुष्ठ रोग के साक्ष्य मिले हैं, वह कितना पहले कोढ़ग्रस्त हुआ होगा। इस नवीन खोज ने अबतक की उस अवधारणा पर भी विराम लगा दिया है जिसमें मिस्र और थाइलैंड से मिले साक्ष्य में इसकी तारीख इतिहासकारों ने ३०० से ४०० ईसापूर्व निर्धारित की थी। कुल मिलाकर एशियाई साक्ष्य अब तक इसे 600 ईसापूर्व बताते थे। हालाकि लेप्रेई नामक बैकटीरिया से फैलने वाले कोढ़ रोग के सर्वप्रथम अस्तित्व में आने और पूरी दुनिया में फैलने पर शोध जारी है।
प्राचीन ग्रंथों में कुष्ठ रोग के विवरण
सभ्यता के इतिहास के तानेबाने के साथ जुड़ी है कोढ़ रोग के भी इतिहास की कहानी। कभी लाइलाज समझा जाने वाला यह रोग अब असाध्य रोग नहीं रहा। और न ही कुष्ठ रोगीअछूत रहे। तमाम सामाजिक सेवा संस्थाओं ने कुष्ठ सेवा केंद्र खोलकर और उनकी सेवा में रहकर दिखाया और साबित किया कि कुष्ठ रोगियों को लोगों की मदद की जरूरत है। हालांकि इलाज के स्तर पर ही जागरूकता पैदा हुई है। अभी भी बांग्लादेश,ब्राजील, चीन, कांगो, इथियोपिया, भारत, इंडोनेशिया, मोजाम्बिक , म्यानमार, नेपाल, नाइजीरिया , फिलीपींस और नेपाल के ग्रामीण इलाकों में करीब सवा दो लाख लोग ( आंकड़ा २००७ का है) इस रोग के शिकार हैं।
अभी तक यह भी ठीक से नहीं समझा जा सका है कि इसकी उत्पत्ति कहां और कैसे हुई और कब और कैसे यह पूरी प्राचीन दुनिया में फैला। सबसे प्राचीन लिखित संदर्भ १५५० ईसापूर्व के मिस्र के एबर्स पैपिरस में मिलता है। इसके अलावा प्रथम शताब्दी ईसापूर्व में संस्कृत में लिखे गए अथर्वेद के श्लोक और बाइबिल के नए और पुराने टेस्टामेंट में भी जिक्र है। हालांकि यह साक्ष्य कापी विवादास्पद है। भारत के छठी शताब्दी ईसापूर्व के महत्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थ सुश्रुत संहिता और कौटिल्य के अर्थशास्त्र, चौथी शताब्दी के ग्रीक लेखक नैनजियानोस के विवरण, तीसरी शताब्दी के चानी ग्रन्थ शूईहूदी क्विन जिया और प्रथम शताब्दी के सेल्सस व प्लिनी द एल्डर के रोमन विवरण में कुष्ठ रोग के विवरण हैं। इन सब साक्ष्यों के आधार पर इतिहासकारों ने यह प्रतिपादित किया कि कुष्ठ रोग चौथी शताब्दी ईसापूर्व में भारतीय उपमहाद्वीप में था और यहां से यूरोप में फैला। यह रोग तब तक सामान्य रोग था। मध्यकाल तक यूरोप में आम लोगों के लिए यह महामारी तब बना जब सातवीं शताब्दी में फ्रांस में बेहद गंदी झुग्गी-बस्तियां बढ़ने लगीं। ब्रिटेन, डेनमार्क, इटली, चेक गणराज्य और हंगरी से मध्य यूरोपीय काल के प्राप्त नरकंकालों में खोजे गए कुष्ठ रोग के साक्ष्य ही इसके खतरनाक बीमारी बन जाने की सूचना देते हैं।
तेजी से शहरीकरण ने प्राचीन विश्व में इस रोग के विस्तार में और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अफ्रीका और एशिया में मिले पुरातात्विक साक्ष्य से तो यह पता चलता है कि यहां यह रोग प्राचीन काल से ही मौजूद था लेकिन मानव नरकंकाल में कुष्ठ रोग के पुख्ता साक्ष्य द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व के रोमन काल, प्रथम शताब्दी ईसापूर्व में उजबेकिस्तान, न्यूबिया में पांचवीं शताब्दी ईसापूर्व, थाइलैंड सिरसा में ३०० ईसापूर्व में मिले हैं। सबसे हाल का साक्ष्य पश्चिम एशिया के इजरायल का प्रथम शताब्दी ईसवी का है। इसके पहले का दक्षिण एशिया से कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
प्राचीन भारत की लोककथाएं और कुष्ठ रोग
भगवान सूर्य से जुड़ी एक लोकथा में कुष्ठ रोग और भगवान सूर्य की पूजा से इस रोग से मुक्ति की एक लोक कथा का विवरण मिलता है। इस हिंदू मिथकीय कथा में बताया गया है कि करीब ३०० साल पहले एक विद्वान हिंदू कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गया। उसने इस रोग से मुक्ति के लिए भगवान सूर्य की आराधना की। भगवान सूर्य से प्रेरणा पाकर उसने संस्कृत में सात श्लोक लिखे। इस श्लोक को सूर्याष्टक के नाम से जाना गया। इस सूर्याष्टक के आखिरी श्लोक तक जाप पूरा होते ही वह पूरी तरह स्वस्थ होगया।
महाभारत काल की एक कथा भी इसी संदर्भ में मिलती है। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शम्ब भी कुष्ठ रोग से पीड़ित थे, जो भगवान सूर्य की आराधना से स्वस्थ हुए। शम्ब ने कृष्ण की पत्नी के स्नानागार में प्रवेश की धृष्टता की थी जिसके कारण कृष्ण ने उन्हें कोढ़ी होने का श्राप दिया था।
आज भी भारत के करोड़ों हिंदुओं की मान्यता है कि सूर्यमंदिर में भगवान सूर्य की पूजा करने से कुष्ठ, दूसरे चर्म रोगों, अंधत्व व बांझपन से मुक्ति मिल जाती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में सर्वाधिक प्रचलित छठपूजा भी इसी अवधारणा का प्रमाण है। मुख्यतः रोगों से मुक्ति व संतान की प्राप्ति के लिए छठ पूजा की जाती है। छठ पूजा भी सूर्यपूजा ही है।
तमिलनाडु का चमत्कारिक मंदिर
भारत में तमिलनाडु ही एक ऐसा राज्य है जहां सभी नवग्रहों के लिए एक मंदिर हैं। तंजौर जिले में स्थित इस जगह को नवग्रहस्थलम कहा जाता है। वहीं पर एक स्थल है- वैथीस्वरन कोइल। यह मंगल ग्रह का मंदिर है। यह चिदम्बरम से २४ किलोमीटर दूर है। वैथास्वरन का अर्थ उस भगवान से है जो लोगों के रोग हर लेते हैं। यह श्री वैद्यनाथस्वामी देवता लोगों को सभी रोगों से छुटकारा दिलाते हैं।
इस मंदिर के संदर्भ में मिथकीय बातें यह है कि मंगल को एक श्राप के कारण कुष्ठ रोग हो गया था। भगवान वैद्यनाथ स्वामी ने मंगल को रोगमुक्त किया। इस मंदिर के पास एक तालाब है। कहा जाता है कि इस तालाब में डुबकी लगाने से सभी तरह के रोगों से छुटकारा मिल जाता है। भगवान राम ने जटायु का अंतिम संस्कार यहीं किया था। यहीं पर भगवान मुरुगन यानी आयुर्वेदिक औषधियों के देवता का मंदिर है और यहां धन्वंतरि की भी पूजा की जाती है। सप्तऋषियों ने भी यहां पूजा की थी। यहां प्रसाद में भस्म और चंदन का लेप दिया जाता है। अवधारणा है कि इससे सभी रोगों से छुटकारा मिल जाता है।
भारत के प्राचीन ग्रंथों में कुष्ठ का उल्लेख
इस रोग के उदभव और प्रागैतिहासिक अवस्था में फैलने के बारे में ठीक से पता नहीं है। प्रागैतिहासिक काल को इतिहासकारों ने ब्रह्मांड की शुरुआत बताया है। कोढ़ रोग के बारें में यहां प्रागैतिहास का अर्थ मानव के कोढ़ रोग से ग्रसित होने की प्राचीनता से है। इस संदर्भ में अब तक का सबसे प्राचीन लिखित संदर्भ भारत के संस्कृत ग्रन्थ अथर्वेद में मिलता है। इसके एक श्लोक में कोढ़ रोग और उसके उपचार का विवरण है। इसमें कहा गया है कि--
............कोढ़ रोग, जो कि शरीर, हड्डियों और त्वचा को प्रभावित करता है, को मैंने अपने मंत्र से ठीक कर लिया है।.......... इतना ही नहीं सस्कृत में कुष्ठ शब्द और उपचार के निमित्त एक पौधे का उल्लेख है। यह पौधा कुष्ठ और राजयक्ष्मा ( टीबी ) के उपचार में प्रयुक्त होता है। अर्थात उपचार के बारें में भी सबसे प्राचीन लिखित संदर्भ भी अथर्वेद में ही मिलता है।
अथर्ववेद संहिता हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च धर्मग्रन्थ वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात मन्त्र भाग है । इसमें देवताओं की स्तुति के साथ जादू, चमत्कार, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। भूगोल, खगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ, आयुर्वेद, गंभीर से गंभीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गुह्य तत्त्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्यचिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मृत्यु को दूर करने के उपाय, प्रजनन-विज्ञान अदि सैकड़ों लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है। आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का महत्व अत्यन्त सराहनीय है। अथर्ववेद में शान्ति-पुष्टि तथा अभिचारिक दोनों तरह के अनुष्ठन वर्णित हैं। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। सामान्यतः अथर्ववेद में ६००० मन्त्र होने का मिलता है परन्तु किसी-किसी में ५९८७ या ५९७७ मन्त्र ही मिलते हैं।
२००० ईसापूर्व के अथर्ववेद और १५०० ईसापूर्व की मनुस्मृति में विभिन्न चर्म रोगों का उल्लेख मिलता है। जिन्हें कुष्ठ रोग का नाम दिया गया है। मनुसंहिता में तो ऐसे लोगों से संपर्क भी निषिद्ध बताया गया है जो कुष्ठ रोग पीड़ित हैं। इतना ही नहीं इसमें यहां तक कहा गया है कि कि कुष्ठ रोग पूर्वजन्म का पाप होता है। यद्यपि कुष्ठ उन्मूलन अभियान के तहत आज लोगों में जागरूकता लाकर और कुष्ठ को साध्य रोग बताकर पूर्वजन्म के पाप की अवधारणा को खत्म करने की पूरी कोशिश की गई है मगर भारत के धर्मभीरु लोग अभी भी पाप की अवधारणा से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
६०० ईसापूर्व की सुश्रुत संहिता में चालमोगरा वृक्ष के तेल से कुष्ठ रोग के इलाज की बात कही गई है। इस संदर्भ में वर्णित मिथकीय कथा में कहा गया है कि एक कोढ़ग्रस्त राजा को चालमोगरा के बीज खाने की हिदायत दी गई थी। कोढ़ग्रस्त होने के बाद राजा होते हुए समाज से बहिष्कृत होने की स्थिति झेलनी पड़ती थी क्यों कि यह लगभग असाध्य होता था।
दक्षिण भारत के शक्तिशाली चोल राजा राजराज प्रथम ( १००३ ईसवी ) के भारत के शानदार मंदिरों में से एक वृहदेश्वर शिवमंदिर बनवाने के पीछे भी कुष्ठ रोग से मुक्त होने की कहानी है। राजराज प्रथम कुष्ठ रोग से पीड़ित थे और इलाज करके परेशान हो गए थे। तभी उनके धर्मगुरू ने सलाह दी कि वे नर्मदा नदी से शिवलिंग लाएं और मंदिर का निर्माण कराएं। उन्होंने ऐसा ही किया औक रोग से मुक्ति भी मिली।
संदर्भवश यहां यह वर्णित करना समीचीन होगा कि संगठित तौरपर प्राचीन काल के बाद कुष्ठ रोग से लड़ने के क्या प्रयास किए गए। भारत में १८७२ पहली बार इस रोग की जनगणना कराई गई जिसमें प्रति १० हजार की आबादी पर ५४ कोढ़ग्रस्त लोग पाए गए। तब कोढ़ग्रस्त लोगों ती तादाद १०८००० ( यानी एक लाख आठ हजार ) दर्ज की गई। १८७३ में इस रोग के वाहक बैक्टीरिया एम लेप्रेई ( माइक्रोबैक्ट्रीयम लेप्रेई ) की पहचान कर ली गई। १८९८ में लेप्रोसी एक्ट लाया गया और इसके बाद से भारत के आजाद होने के बाद इस रोग के नियंत्रण के अथक प्रयास किए गए हैं। १९५५ में आजाद भारत में राष्ट्रीय कुष्ठ नियंत्रण प्रोग्राम चलाया गया। जब १९८३ में इसके उपचार की माकूल दवा खोज ली गई तो सरकार ने इस अभियान का नाम बदलकर राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन प्रोग्राम कर दिया। इसे १९७७ से लागू करके बड़े पैमाने चलाया गया। नतीजे में २००५ तक आते-आते प्रति १० हजार की जनसंख्या पर सिर्फ एक व्यक्ति कुष्ठ पीड़ित पाया गया। जबकि १९८१ में कुष्ठ रोगियों की तादाद ४० लाख थी।
कुष्ठ रोग की प्राचीनता का नया साक्ष्य
इतिहासकारों को अब नया साक्ष्य मिला है। यह २००० ईसापूर्व का है। लगभग ४००० साल पुराने नरकंकाल में कोढ़ रोग के चिन्ह मिले हैं। यह नरकंकाल भारत में राजस्थान के उदयपुर शहर से ४० किलोमीटर उत्तरपूर्व बालथाल पुरातात्विक स्थल से खुदाई में मिला है। यह पत्थर की एक शिला से ढका हुआ था। और ऊपर से मिट्टी डाली गई थी। जमीन के जिस स्तर से यह नरकंकाल मिला है वह चाल्कोलिथिक काल यानी ३७०० से १८०० ईसापूर्व के बीच का है। इस युग के लोग बालथाल में पहाड़ों के कंदराओं या मिट्टी के ईटों से बने आश्रयस्थल ( घरों ) में रहा करते थे। चाकी पर मिट्टी के बर्तनों का निर्माण भी कर लेते थे। जौ व गेहूं की खेती करते थे। इस युग में तांबे के धारदार हथियार, चाकू, कुल्हाड़ी, भाले का प्रयोग करते थे। यहां १९९४ से १९९७ के बीच की गई खुदाई में दो कब्रें मिलीं हैं। इसके बाद १९९९ से २००२ तक चली खुदाई में तीन कब्रें मिली हैं। जिस नरकंकाल से इतिहासकारों ने कोढ़ रोग की भारत में प्राचीनता निर्धारित की है वह १९९७ की खुदाई में मिली कब्र से ताल्लुक रखता है। जमीन के इस १३वें स्तर की रेडियों कार्बन तिथि करीब ३६२० से ३१०० ईसापूर्व के बीच अनुमानित की गई है। नरकंकाल की रेडियो कार्बन तिथि और बाकी साक्ष्यों के आधार पर यह अवधारणा कायम की गई है कि इसे २५०० से २००० ईसापूर्व के बीच दफनाया गया होगा। बालथाल की पूरी पुरातात्विक खुदाई में जो ४५ रेडियो कार्बन तिथियां निर्धारित की गई हैं उनमें से ३० चाल्कोलिथिक काल की हैं। और इनकी रेडियो कार्बन तिथि ३७०० से १८०० ईसापूर्व के बीच की है। इनमें से खुदाई किए गए गड्ढों में से एफ-४ की तिथि २००० ईसापूर्व हासिल हुई है। इसी तरह डी-४ के स्तर-७ की तिथि २५५० ईसापूर्व हासिल हुई है। इसी आधार पर इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि वह नरकंकाल, जिससे कोढ़ रोग का साक्ष्य मिला है, २५०० से २००० ईसापूर्व के मध्य दफनाया गया होगा। इतिहासकारों ने अपने शोधपत्र में विस्तार से बताया है कि किस अंग के कोढ़ग्रस्त होने के अवशेष मिले हैं। ( पूरा शोधपत्र पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )।
अब जो भारत में कोढ़ रोग का २००० ईसापूर्व का नवीनतम पुरातात्विक साक्ष्य मिला है, उससे इस रोग के पूरी दुनिया में फैलने के प्रतिपादित मत को बल मिलता है। पूरी दुनिया में कोढ़ रोग के जीवाणु एम लेप्रेई के समानान्तर तौर पर दो प्रकार मिले हैं। एशिया में पहले से मौजूद टाइप-१ और पूर्वी अफ्रीका में टाइप-२ में से टाइप-२ के एशिया में ज्यादा नहीं फैलने व पूर्वी अफ्रीका में ज्यादा फैलने के साक्ष्य के आधार पर यह अवधारणा बनी कि टाइप-२ का कोढ़ रोग ४०,००० ईसापूर्व के पहले पूर्वी अफ्रीका में पनपा होगा। इसके बाद टाइप-१ के तौर पर एशिया और टाइप-३ के तौर पर यूरोप में फैला होगा। यही टाइप-३ ही पश्चिम अफ्रीका और अमेरिका में व्याप्त हुआ। दूसरा प्रतिपादित मत यह है कि टाइप-२ का विकास टाइप-१ से एशिया में काफी बाद में हुआ और इसके बाद यह पूरे एशिया, अफ्रीका और यूरोप में फैला।
एक और अवधारणा है कि इतिहास के कालक्रमानुसार आखिरी १०००० साल के पृथ्वी के इतिहास, जिसे कि एज आफ मैन यानी मानव युग कहा जाता है, में इस रोग के फैलने की परिकल्पना कोढ़ रोग के जीवाणु के स्वाभविक इतिहास से ज्यादा मेल खाती है। इसमें तीनों किस्म का कोढ़ रोग मानव के संपर्क में आता है और इसके बाद पूर्वी अफ्रीका में शहरीकरण के विकास के साथ फैलता है। तदुपरान्त एक देश से दूसरे देश में व्यापारिक संपर्कों के कारण फैला। खासतौर से सिंधु सभ्यता और मध्य एशिया के व्यापारिक संपर्कों से फैला। ताम्रपाषाणकालीन युग में मध्य व पश्चिम एशिया के बाच राजनैतिक व आर्थिक संपर्कों के बाद कुष्ठ रोग फैला। मुख्यतः सपर्क के ये चार क्षेत्र थे। सिंधु घाटी में मेलुहा, मध्य एशिया में तूरान, मेसोपोटामिया और अरब प्रायद्वीप में मांगन। मेसोपोटामिया से प्राप्त साक्ष्यों के मुताबिक मेलुहा से व्यापारिक संपर्क २९०० - २३७३ ईसापूर्व से हम्मूराबी (१७९२-१७५० ईसापूर्व ) तक होता रहा। हम्मूराबी मेसोपोटामिया सभ्यता का महान शासक था। इस काल में विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक मेसोपोटामिया सभ्यता चरमोत्कर्ष पर थी। इसी तरह मेसोपोटामिया और मिस्र के बाच भी व्यापारिक संपर्क ३०५० से २६८६ ईसापूर्व के मद्य था। यह सब दोनों के पुरातात्विक स्थलों से मिले समान साक्ष्यों से प्रमाणित होता है। हालांकि ४०० ईसापूर्व यूरोप में मौजूद कोढ़ रोग मध्यकाल के बाद ही शहरी क्षेत्रों में तब फैला होगा जब इन शहरों के मध्य व्यापारिक संपर्क तेज हुआ होगा। अगर १०००० हजार पहले हिमयुग के लगभग आखिरी दौर में अगर अफ्रीका में कोढ़ रोग फैला तो काफी बाद यानी होलोसीन युग तक एशिया में फैलकर लोगों के गंभीर बीमारी बन चुका होगा। यानी तीसरी सहस्राब्दी में एशिया व अफ्रीका में एम लेप्रेई किस्म का कोढ़ रोग तब फैला जब दोनों के बीच वृहद व्यापारिक संपर्क बन चुका था। अब आगे उस भौगोलिक स्थान की पहचान की जानी चाहिए जहां से इसके होने का सबसे प्राचीनतम साक्ष्य उपलब्ध होता है। यानी सिंधु घाटी सभ्यता के खोजे गए स्थलों से मिले नरकंकालों की डीएनए जांच और रोगपरीक्षण की जानी चाहिए। इसमें भी २००० ईसापूर्व के सिंधु सभ्यता के शहरी केंद्रों को इस संदर्भ में खास ध्यान में रखना होगा। मालूम हो कि इस शोधपत्र में इसी सिंधु सभ्यता के एक उत्खनन स्थल बालथाल से मिले नरकंकाल में कोढ़ रोग के साक्ष्य ने इस रोग की प्राचीनता २००० ईसापूर्व तक पहुंचा दी है। इतिहासकारों की राय में यह आखिरी साक्ष्य नहीं है इसलिए इसमें आगे भी निरंतर खोज की जरूरत है।
साभार- यह लेख कोढ़ रोग पर छपे एक शोधपत्र का सारसंक्षेप है। यह लेख पब्लिक लाइब्रेरी आप साइंस में छपा है। इस शोधकार्य में शामिल इतिहासकारों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया गया है। छपे लेख का लिंक भी इसी के साथ ही है।
Ancient Skeletal Evidence for Leprosy in India (2000 B.C.)
http://www.plosone.org/article/info%3Adoi%2F10.1371%2Fjournal.pone.0005669
इतिहासकारों का विवरण
Gwen Robbins ( Department of Anthropology, Appalachian State University, Boone, North Carolina, United States of America) ,V M.ushrif Tripathy (Department of Anthropology, Deccan College, Deemed University, Pune, India), V. N. Misra (Indian Society for Prehistoric and Quaternary Studies, Deccan College, Deemed University, Pune, India ), R. K. Mohanty, V. S. Shinde (Department of Anthropology, Deccan College, Deemed University, Pune, India ), Kelsey M. Gray ( Department of Anthropology, Appalachian State University, Boone, North Carolina, United States of America) , Malcolm D. Schug (Department of Biology, University of North Carolina Greensboro, Greensboro, North Carolina, United States of America)
इस शोधपत्र की संदर्भ सूची निम्नवत है।-----
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2 comments:
गंभीर शोधपूर्ण. हमारे देश में सल्फर वाले जलस्रोत और कई अन्य जलकुंड का पानी भी चर्मरोगों से ले कर कोढ़ तक दूर करने वाला माना जाता है.
डॉ. साहब,
इस स्वास्थ्य-सामाजिक समस्या पर इतना विस्तृत आलेख लिखने के लिये आपका आभार।
यूँ ही दिमाग में आया कि सूर्यकृपा का कोई छिपा हुआ अर्थ तो नहीं, उदाहरण के लिये कुष्ठरोग का विटामिन डी से कोई सम्बन्ध आदि? क्या इस बारे में कोई अध्ययन हुए हैं?
दूसरा यह जानने की उत्सुकता जगी कि प्राणायाम, योग, आयुर्वेद, यूनानी, आदि-आदि से दुनिया भर के रोगों का इलाज करने का दावा करने वाले देशभर में फैले कुष्ठरोगियों के लिये कुछ कर रहे हैं क्या?
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