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Thursday, September 17, 2015

खुदाई में मिला विजयनगर का खजाना!

     तेलंगाना में खम्मम जिले के गर्लाबाय्याराम पुलिस थाना क्षेत्र में विजयनगर काल के 40 सोने के सिक्के और एक पीतल का बर्तन मिला है। तेलंगाना पुरातत्व और संग्रहालय की निदेशक सुनिता ने बताया कि सिक्कों की शुरुआती जांच में ये खजाना विजयनगर काल का लग रहा है। ये सिक्के तुलुव राजवंश के  राजा कृष्णदेवराय (1506-1530) और अच्युताराय (1530-1542) के काल के प्रतीत हो रहे हैं। सुनिता ने बताया कि गर्लाबाय्याराम के पुलिस के उप निरीक्षक की रिपोर्ट के मुताबिक यह खजाना पांच महीने पहले  पाथयातंडा शिवार में मिला था।
उन्होंने बताया कि इन कुछ सिक्कों पर बैठे हुए भगवान बालकृष्ण का चित्र अंकित है जिन्होंने अपने दाएं हाथ में मक्खन लिया हुआ है और उनका बायां हाथ पैर बांये पैर के घुटने पर है। सिक्के पर भगवान बालकृष्ण के बांई ओर शंख और दाई ओर चक्र रखा हुआ है।
    दूसरे तरह के सिक्के की एक तरफ दो सिर वाले गरुड़ को ऊपर की तरफ उड़ते हुए दिखाया गया है जिसने अपनी दोनों चोंचों और दोनों पंजों से एक हाथी को पकड़ा हुआ है।
   सिक्के के पीछे की तरफ नगरी भाषा में तीन लाइनों में श्री प्रा ता पा च्यु ता रा या लिखा हुआ है। ये सिक्के गोलाकार है और इनका वजन 1650 मिलिग्राम से लेकर 3380 मिलिग्राम तक है। (वार्ता)

Friday, August 28, 2015

गीता प्रेस, गोरखपुर में लगा 'ताला'

     शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसने कभी हिन्दू धार्मिक पुस्तक पर 'गीता प्रेस, गोरखपुर' की लाइन न देखी हो। भारत में धर्म की गंगा बहाने वाली गीता प्रेस, गोरखपुर इन दिनों 'संकट' में है। खबरों के मुताबिक ट्रस्ट और कर्मचारियों के बीच विवाद से गीता प्रेस, गोरखपुर पर 25 दिनों से ताला लगा हुआ है। ट्रस्ट और कर्मचारियों के विवाद के बाद प्रेस बंद पड़ी है। हर हिन्दू को संस्कृति का पाठ पढ़ाने वाली ‍गीता प्रेस, गोरखपुर वर्तमान में बदहाल स्थिति में है। 

हर हिन्दू धर्म को मानने वाले व्यक्ति के लिए गीता प्रेस, गोरखपुर एक तीर्थ की तरह है, लेकिन आज इस तीर्थ से ज्ञान की गंगा नहीं बह रही है। जानकारी के मुताबिक गीता प्रेस, गोरखपुर रोजाना करीब 50 हजार से ज्यादा धार्मिक पुस्तकें बेचती हैं।

कब हुई थी शुरुआत : गीता प्रेस, गोरखपुर की स्थापना 1923 में हुई थी। गीता प्रेस, गोरखपुर का संचालन कोलकाता स्थित गोविंद भवन संस्था करती है। आम लोगों के बीच सनातन धर्म के प्रचार के लिए गीता प्रेस की स्थापना की गई थी।

कम लागत पर पुस्तकें : प्रेस का स्थापना का उद्देश्य कम मूल्य पर धार्मिक किताबें उपलब्ध कराना था। गीता प्रेस, गोरखपुर धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी संस्था है। प्रेस में करीब 780 पुस्तकों का प्रकाशन हिन्दी और संस्कृत में होता है।

गीता प्रेस वह पहली प्रेस है, जिसने नेपाली भाषा में रामायण का प्रकाशन किया था। इसकी लाइब्रेरी में कई दुर्लभ पांडुलिपियां मौजूद हैं। इसके कुल में 35 प्रतिशत हिस्सा रामचरित मानस का है। गीता प्रेस बिना लाभ के पुस्तकों का विक्रय करती है। लागत से 40 से 90 प्रतिशत कम कीमतों पर किताबों को बेचा जाता है।  इस बात का उदाहरण है कि यहां छपी हनुमान चालीसा चाय से भी कम कीमत 2 रुपए में मिल जाती है।

यह है विवाद : खबरों के मुताबिक प्रेस में करीब 180 स्थायी और 300 अस्थायी कर्मचारी काम करते हैं। बताया जाता है कि ट्रस्ट और कर्मचारियों के बीच दो मांगों पर विवाद है। पहली, कर्मचारी सभी के लिए समान वेतन की मांग कर रहे हैं। दूसरी, अस्थायी कर्मचारियों को स्थायी करने को लेकर है।

इसी विवाद के बाद बाद गीता प्रेस, गोरखपुर में छपाई का काम नहीं हो रहा है। खबरों के अनुसार ट्रस्ट ने कर्मचारियों पर मारपीट का आरोप भी लगाया है। मारपीट के आरोप में ट्रस्ट ने 17 कर्मचारियों को निलंबित किया है। कर्मचारी इन 17 कर्मचारियों को भी वापस लेने की मांग कर रहे हैं।

किसी से नहीं लेती आर्थिक मदद : गीता प्रेस, गोरखपुर में हर महीने करीब 400 टन कागजों पर छपाई होती है। प्रेस इस पर किसी भी प्रकार की सब्सिडी नहीं लेती है। गीता प्रेस बाजार भाव पर ही कागजों की खरीदी करती है। गीता प्रेस की नीति के मुताबिक वह सरकार, संस्था या किसी व्यक्ति से भी किसी भी तरह की आर्थिक मदद भी नहीं ली जाती है।

गलती पर इनाम : गांधीजी की सलाह पर प्रेस की किसी धार्मिक पुस्तक पर विज्ञापन और किसी पुस्तक की समीक्षा नहीं छापी जाती है। यहां तक की किसी जीवित व्यक्ति का फोटो भी किसी पुस्तक में नहीं प्रकाशित किया जाता है। धार्मिक पुस्तक में किसी प्रकार की गलती होने पर बताने वाले पाठक को प्रेस इनाम भी देती है।

गीता प्रेस ने दी सफाई : इस पूरे विवाद पर गीता प्रेस गोरखपुर ने ट्‍वीट कर सफाई दी है कि गीता प्रेस को किसी प्रकार के अनुदान की आवश्यकता नहीं है। कर्मचारियों से बात चल रही है और सभी कर्मचारी जल्द काम पर लौटेंगे।
http://hindi.webdunia.com/regional-hindi-news/gita-press-gorakhpur-115082800076_1.html

Thursday, August 6, 2015

काशी के भूगर्भीय इतिहास में जुड़ेगा नया अध्याय

   
                    शहर के नीचे दबे अनजान नालों का बनेगा नक्शा
  विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक है काशी। इसे वर्तमान में बनारस या वाराणसी के नाम से जाना जाता है. यह शहर जितना पुराना है ,उतना ही रहस्यमय है इसकी संरचना की बात। इस शहर के पुराने सीवर और पेयजल की पुरानी पाईपलाइनें कहां से होकर गुजरती हैं, ठीक ठीक किसी को भी पता नहीं। अब शहर में मेट्रो केनिर्माण के कारण ऐसे कई रहस्यों से पर्दा उठनेवाला है। फिलहाल तो मुगलकालीन शाहीनाला का मामला सामने आया है। यह नाला आज भी अस्तित्व में है मगर कहां से कहां तक फैला है इसका किसी को भी ठीक पता नहीं हैं। इस कवायद से यह भी संभव है कि प्राचीन काशी के कुछ अनजाने रहस्यों से पर्दा उठेगा और शहर के पुराने सीवर व पानी के पाईपलाईनों का नक्शा तैयार हो पाए।

   मुगलकाल के दौरान ‘शाही नाला’ को ‘शाही सुरंग’ के नाम से जाना जाता था। इसकी खासियत यह बताई जाती है कि इसके अंदर से दो हाथी एक साथ गुजर सकते हैं। शहर के पुरनियों का कहना है कि अंग्रेजों ने इसी ‘शाही सुरंग’ के सहारे बनारस की सीवर समस्या सुलझाने का काम शुरू किया। जेम्स प्रिंसेप के अनुसार, इसका काम वर्ष 1827 में पूरा हुआ था। इसे लाखौरी ईंट और बरी मसाला से बनाया गया था। अस्सी से कोनिया तक इसकी लंबाई 24 किलोमीटर बताई जाती है।
    यह अब भी अस्तित्व में है लेकिन उसकी भौतिक स्थिति के बारे में सटीक जानकारी किसी के पास नहीं है। पुरनियों के मुताबिक यह नाला अस्सी, भेलूपुर, कमच्छा, गुरुबाग, गिरिजाघर, बेनियाबाग, चौक, पक्का महाल, मछोदरी होते हुए कोनिया तक गया है।
    वाराणसी शहर के लिए पहेली बने ‘शाही नाला’ की भौतिक स्थिति के अध्ययन, बाधाओं को चिह्नित करने के साथ ही उसके जीर्णोद्धार की पहल शुरू हो गई है। मुगलकाल के दौरान ‘शाही नाला’ को ‘शाही सुरंग’ के नाम से जाना जाता था। रोबोटिक कैमरों के जरिये काशी के इस प्राचीन नाले के स्वरूप की जानकारी की जाएगी। इसके लिए जापान इंटरनेशनल को-आपरेशन एजेंसी (जायका) ने 92 करोड़ रुपये मंजूर किए हैं। गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई की निगरानी में चयनित निजी एजेंसी यह कार्य कराएगी। इसके लिए प्रारंभिक सर्वे शुरू हो गया है। तय कार्ययोजना के मुताबिक सितंबर बाद रोबोटिक सर्वे का काम शुरू हो जाएगा। प्राचीन ‘शाही नाला’ मौजूदा समय में भी शहर के सीवर सिस्टम का एक बड़ा आधार है लेकिन इसका नक्शा नगर निगम या जलकल के पास नहीं है। शहर की घनी आबादी से होकर गुजरा यह नाला पूरी तरह भूमिगत है।
     यह प्राचीन काशी की जलनिकासी व्यवस्था की एक नजीर भी है। शहर के पुरनिये बताते हैं कि अंदर ही अंदर शहर के कई अन्य छोटे-बड़े नाले इससे जुड़े हैं लेकिन इसकी भौतिक स्थिति का पता न होने से नालों के जाम होने या क्षतिग्रस्त होने पर उसकी मरम्मत तक नहीं हो पाती। गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई के महाप्रबंधक जेबी राय ने बुधवार को बताया कि यह हकीकत है कि इसका नक्शा नगर निगम या जलकल के पास नहीं है। इस प्राचीन नाले की मुख्य लाइन अस्सी से कोनिया तक 7.2 किलोमीटर लंबी है, जो भेलूपुर चौराहा, बेनियाबाग मैदान, मछोदरी होते हुए गुजरी है। इसकी सहायक लाइनें शहर के अन्य हिस्सों में फैली हैं। उदाहरण के तौर पर, अर्दली बाजार से आकर एक शाखा इसमें मिलती है। सितंबर बाद रोबोटिक कैमरों की मदद से इस नाले की भौतिक स्थिति का बारीकी से अध्ययन होगा।
    मंडलायुक्त सभागार में बुधवार को मेट्रो रेल परियोजना के संबंध में हुई बैठक के दौरान ‘शाही नाला’ के नक्शे के बारे में भी चर्चा हुई। जीएम जेबी राय ने बताया कि सर्वे के आधार पर इसका नक्शा तैयार किया जाएगा। सर्वे के बाद ही इसकी वास्तविक गहराई, लंबाई, चौड़ाई और अन्य संबंधित जानकारियों का पता चल पाएगा।

(  फोटो व सामग्री- साभार अमर उजाला-http://www.amarujala.com/feature/samachar/national/mystery-of-shahi-nala-in-varanasi-hindi-news-dk/?page=0)

Thursday, May 21, 2015

आज भी सटीक हैंं प्राचीन मौसम विज्ञानी घाघ भड्डरी की कहावतें

   
प्राकृतिक लक्षणों के आधार पर दोहे रचकर प्राचीन कवि घाघ भड्डरी ने सटीक भविष्यवाणियां की थीं। आज के वैज्ञानिक युग में मौसम आदि के बारे घाघ भड्डरी की कहावतें गांवों  में आज भी लोगों की जुबान पर हैं। कुछ लोगों के प्रयास से ये कहावतें पुस्तक के रूप में संकलित की गई थी। जिसके कारण बहुत बाद तक लोगों की जानकारी समृद्ध होती रही। खेती के संदर्भ में तो किसान इन कहावतों पर पूरा भरोसा रखते थे, और आज भी लोगों को भरोसा है। दुर्भाग्य से इन कहावतों का लिखित रूप लगभग विलुप्त हो गया है। मेरे पास भी बचपन में घाघ भड्डरी की कहावतें नाम एक पुस्तक थी। मेरे बड़े भैया कृष्णा नन्द सिंह कहीं से लाए थे। हम लोग  उनके के बक्से से इस किताब को लेकर बड़ी चाव से पढ़ते थे। कुछ कहावतें तब ही कंठस्थ हो गईं थीं। आज अचानक वेबदुनिया हिंदी समाचार पोर्टल पर इन कहावतों को देखा तो पुरानी यादें ताजा होगईं। पोर्टल पर भी सीमित कहावतें पोस्ट की गईं हैं।   लोगों से अक्सर सुनी जाने वाली बेहद प्रचलित कहावतों को वेबदुनिया ने पोस्ट किया है। इस लिंक पर जाकर आप भी उन कहावतों को पढ़ सकते हैं। मैंने भी वेबदुनिया से साभार इन कहावतों को लिया है। देखे कितनी सटीक हैं ये। पुरानी पीढ़ी के लोगों के लिए तो नई बातें नहीं हैं मगर नईं पीढ़ी के लिए कौतूहल वाला है। नई पीढ़ी तो आज के मौसम विज्ञानियों को जानती है मगर मेरा अनुरोध है कि वे इस मौसम विज्ञानी को देखें।मौसम से लेकर यात्रा विचार तक की बातें वर्षों के अनुभव के बाद लिखी गई हैं। नीचे वेबदुनिया से साभार ( http://hindi.webdunia.com/astrology-articles/astrology-114111900048_1.html ) कुछ दोहे दे रहा हूं।  इसी तरह  नवभारत टाइम्स पोर्टल में संजय के धरती के गोंद नामक संग्रहीत घाघ भड्डरी की कहावतें छपी हैं। उसे इस लिंक पर देखिए। नीचे अलग से उसे भी दे रहा हूं.। अवलोकन करें।

कपड़ा पहिरै तीन बार। बुध बृहस्पत सुक्रवार।
हारे अबरे इतवार। भड्डर का है यही बिचार।।
अर्थात वस्त्र धारण करने के लिए बुध, बृहस्पति और शुक्रवार का दिन विशेष शुभ होता है। अधिक आवश्यकता पड़ने पर रविवार को भी वस्‍त्र धारण किया जा सकता है, ऐसा भड्डरी का विचार है।

चलत समय नेउरा मिलि जाय। बाम भाग चारा चखु खाय।।
काग दाहिने खेत सुहाय। सफल मनोरथ समझहु भाय।।
अर्थात यदि कहीं जाते समय रास्ते में नेवला मिल जाए और दाहिने ओर खेत में कौवा हो तो जिस कार्य से व्यक्ति निकला है, वह अवश्य सिद्ध होगा।

नारि सुहागिन जल घट लावै। दधि मछली जो सनमुख आवै।।
सनमुख धेनु पिआवै बाछा। यही सगुन हैं सबसे आछा।।
अर्थात यदि सौभाग्यवती स्त्री पानी से भरा घड़ा ला रही हो, कोई सामने से दही और मछली ला रहा हो या गाय बछड़े तो दूध पिला रही हो तो यह सबसे अच्छा शकुन होता है।

पुरुब गुधूली पश्चिम प्रात। उत्तर दुपहर दक्खिन रात।।
का करै भद्रा का दिगसूल। कहैं भड्डर सब चकनाचूर।।
अर्थात भड्डरी कहते हैं कि यदि पूर्व दिशा में यात्रा करनी हो तो गोधूलि (संध्या) के समय, यदि पश्चिम में यात्रा करनी हो तो प्रात:काल, यदि उत्तर दिशा में यात्रा करनी हो तो दोपहर में और यदि दक्षिण की ओर जाना है तो रात में निकलना चाहिए। यदि उस दिन भद्रा या दिशाशूल भी है तो ऐसा करने वाले व्यक्ति को कुछ भी नहीं होगा।

गवन समय जो स्वान। फरफराय दे कान।
एक सूद्र दो बैस असार। तीनि विप्र औ छत्री चार।।
सनमुख आवैं जो नौ नार। कहैं भड्डरी असुभ विचार।।
अर्थात भड्डरी कहते हैं कि यात्रा पर निकलते समय यदि घर के बाहर कुत्ता कान फटफटा रहा हो तो अशुभ होता है। यदि सामने से 1 शूद्र, 2 वैश्य, 3 ब्राह्मण, 4 क्षत्रिय और 9 स्त्रियां आ रही हों तो अशुभ होता है।

भ‍रणि बिसाखा कृत्तिका, आद्रा मघा मूल।
इनमें काटै कूकुरा, भड्डर है प्रतिकूल।।
अर्थात भड्डरी का कहना है कि यदि भरणी, विशाखा, कृत्तिका, आर्द्रा और मूल नक्षत्र में कुत्ता काट ले तो बहुत बुरा होता है।


लोमा फिरि फिरि दरस दिखावे। बायें ते दहिने मृग आवै।।
भड्डर जोसी सगुन बतावै। सगरे काज सिद्ध होइ जावै।।
अर्थात यात्रा पर जाते समय यदि लोमड़ी बार-बार दिखाई पड़े, हिरण बाएं से दाहिने ओर निकल जाए तो व्यक्ति जिन कार्यों के लिए जा रहा होगा, वे सभी सिद्ध हो जाएंगे, ऐसा ज्योतिषी भड्डरी कहते हैं।

सूके सोमे बुधे बाम। यहि स्वर लंका जीते राम।।
जो स्वर चले सोई पग दीजै। काहे क पण्डित पत्रा लीजै।।
अर्थात शुक्रवार, सोमवार और बुधवार को बाएं स्वर में कार्य प्रारंभ करने से सफलता मिलती है। राम ने इसी स्वर में लंका जीती थी। यदि बायां स्वर चले तो बायां पैर आगे निकालना चाहिए। दाहिना चले तो दाहिना पैर आगे निकालना चाहिए। इससे कार्य सिद्ध होता है। ऐसा करने वाले व्यक्ति को पंचांग में विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

सोम सनीचर पुरुब न चालू। मंगल बुद्ध उत्तर दिसि कालू।
बिहफै दक्खिन करै पयाना। नहि समुझें ताको घर आना।।
बूध कहै मैं बड़ा सयाना। मोरे दिन जिन किह्यौ पयाना।।
कौड़ी से नहिं भेट कराऊं। छेम कुसल से घर पहुंचाऊं।।
अर्थात यदि यात्रा पर जाना हो तो सोमवार और शनिवार को पूर्व, मंगल और बुध को उत्तर दिशा में नहीं जाना चाहिए। यदि व्यक्ति बृहस्पति को दक्षिण दिशा की यात्रा करेगा तो उसका घर लौटना संदिग्ध होगा। बुधवार कहता है कि मैं बहुत चतुर हूं, व्यक्ति को मेरे दिन कहीं भी यात्रा नहीं करनी चाहिए; क्योंकि मैं उसको एक कौड़ी से भी भेंट नहीं होने दूंगा। क्षेम-कुशल से उसको घर पहुंचा दूंगा।


यह संकलन नवभारत टाइम्स का है--------------
( ( http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/dharti-ki-god/entry/%E0%A4%98-%E0%A4%98-%E0%A4%B5-%E0%A4%AD%E0%A4%A1-%E0%A4%A1%E0%A4%B0-%E0%A4%95-%E0%A4%95%E0%A4%B9-%E0%A4%B5%E0%A4%A4))


नारि सुहागिन जल घट लावै। दधि मछली जो सनमुख आवै।।
सनमुख धेनु पिआवै बाछा। यही सगुन हैं सबसे आछा।।
अर्थात यदि सौभाग्यवती स्त्री पानी से भरा घड़ा ला रही हो, कोई सामने से दही और मछली ला रहा हो या गाय बछड़े तो दूध पिला रही हो तो यह सबसे अच्छा शकुन होता है।



गवन समय जो स्वान। फरफराय दे कान।
एक सूद्र दो बैस असार। तीनि विप्र औ छत्री चार।।
सनमुख आवैं जो नौ नार। कहैं भड्डरी असुभ विचार।।
अर्थात भड्डरी कहते हैं कि यात्रा पर निकलते समय यदि घर के बाहर कुत्ता कान फटफटा रहा हो तो अशुभ होता है। यदि सामने से 1 शूद्र, 2 वैश्य, 3 ब्राह्मण, 4 क्षत्रिय और 9 स्त्रियां आ रही हों तो अशुभ होता है।



लोमा फिरि फिरि दरस दिखावे। बायें ते दहिने मृग आवै।।
भड्डर जोसी सगुन बतावै। सगरे काज सिद्ध होइ जावै।।
अर्थात यात्रा पर जाते समय यदि लोमड़ी बार-बार दिखाई पड़े, हिरण बाएं से दाहिने ओर निकल जाए तो व्यक्ति जिन कार्यों के लिए जा रहा होगा, वे सभी सिद्ध हो जाएंगे, ऐसा ज्योतिषी भड्डरी कहते हैं।

सूके सोमे बुधे बाम। यहि स्वर लंका जीते राम।।
जो स्वर चले सोई पग दीजै। काहे क पण्डित पत्रा लीजै।।
अर्थात शुक्रवार, सोमवार और बुधवार को बाएं स्वर में कार्य प्रारंभ करने से सफलता मिलती है। राम ने इसी स्वर में लंका जीती थी। यदि बायां स्वर चले तो बायां पैर आगे निकालना चाहिए। दाहिना चले तो दाहिना पैर आगे निकालना चाहिए। इससे कार्य सिद्ध होता है। ऐसा करने वाले व्यक्ति को पंचांग में विचार करने की आवश्यकता नहीं है।


"ज्यादा खाये जल्द मरि जाय, सुखी रहे जो थोड़ा खाय। रहे निरोगी जो कम खाये, बिगरे काम न जो गम खाये।" ऐसी अनेक कहावतों से हमें जिन्दगी के विभिन्न पहलुओं का सटीक मार्गदर्शन मिलता है। घर के बुजुर्ग ऐसी अनेक कहावतों से, समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन करते रहते हैं। कान्वेन्ट विद्यालयों में पढ़कर आयी नयी पीढ़ी इन कहावतों से अनभिज्ञ है, क्योंकि ये हिन्दी में है, हिन्दी में भी देहाती भाषा में, जिसे वे आसानी से नहीं समझ पाते। ये कहावतें, मैं विशेष रूप से नयी पीढ़ी के लिए लाया हूंँ, ताकि वे इन्हें पढ़कर इनकी विश्वसनियता को जांचे और न केवल अपने ज्ञान में वृद्धि करें, साथ ही  'हिन्दी' की महान 'साहित्यिक विरासत' पर भी गर्व कर सकें। पाठकजनों!! आज मैं आपके सम्मुख रख रहा हूं ‘‘घाघ व भड्डरी की कहावतें‘‘। शुद्ध देहाती हिन्दी भाषा में लिखी गयी इन कहावतों को हम आसानी से कंठस्थ करके अपने ज्ञान में वृद्धि कर सकते हैं। इस लेख में मैंने केवल "नीति व स्वास्थ्य" संबंधी कहावतों को ही शामिल किया है।

चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठ मे पंथ आषाढ़ में बेल।
सावन साग न भादों दही, क्वारें दूध न कातिक मही।
मगह न जारा पूष घना, माघेै मिश्री फागुन चना।
घाघ! कहते हैं, चैत (मार्च-अप्रेल) में गुड़, वैशाख (अप्रैल-मई) में तेल, जेठ (मई-जून) में यात्रा, आषाढ़ (जून-जौलाई) में बेल, सावन (जौलाई-अगस्त) में हरे साग, भादों (अगस्त-सितम्बर) में दही, क्वार (सितम्बर-अक्तूबर) में दूध, कार्तिक (अक्तूबर-नवम्बर) में मट्ठा, अगहन (नवम्बर-दिसम्बर) में जीरा, पूस (दिसम्बर-जनवरी) में धनियां, माघ (जनवरी-फरवरी) में मिश्री, फागुन (फरवरी-मार्च) में चने खाना हानिप्रद होता है।

जाको मारा चाहिए बिन मारे बिन घाव।
वाको  यही बताइये घुॅँइया  पूरी  खाव।।
घाघ! कहते हैं, यदि किसी से शत्रुता हो तो उसे अरबी की सब्जी व पूडी खाने की सलाह दो। इसके लगातार सेवन से उसे कब्ज की बीमारी हो जायेगी और वह शीघ्र ही मरने योग्य हो जायेगा।

पहिले जागै पहिले सौवे, जो वह सोचे वही होवै।
घाघ! कहते हैं, रात्रि मे जल्दी सोने से और प्रातःकाल जल्दी उठने से बुध्दि तीव्र होती है। यानि विचार शक्ति बढ़ जाती हैै।

प्रातःकाल खटिया से उठि के पिये तुरन्ते पानी।
वाके घर मा वैद ना आवे बात घाघ के  जानी।।
भड्डरी! लिखते हैं, प्रातः काल उठते ही, जल पीकर शौच जाने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक रहता है, उसे डाक्टर के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

सावन हरैं भादों चीता, क्वार मास गुड़ खाहू मीता।
कातिक मूली अगहन तेल, पूस में करे दूध सो मेल
माघ मास घी खिचरी खाय, फागुन उठि के प्रातः नहाय।
चैत मास में नीम सेवती, बैसाखहि में खाय बसमती।
जैठ मास जो दिन में सोवे, ताको जुर अषाढ़ में रोवे
भड्डरी! लिखते हैं, सावन में हरै का सेवन, भाद्रपद में चीता का सेवन, क्वार में गुड़, कार्तिक मास में मूली, अगहन में तेल, पूस में दूध, माघ में खिचड़ी, फाल्गुन में प्रातःकाल स्नान, चैत में नीम, वैशाख में चावल खाने और जेठ के महीने में दोपहर में सोने से स्वास्थ्य उत्तम रहता है, उसे ज्वर नहीं आता।

कांटा बुरा करील का, औ बदरी का घाम।
सौत बुरी है चून को, और साझे का काम।।
घाघ! कहते हैं, करील का कांटा, बदली की धूप, सौत चून की भी, और साझे का काम बुरा होता है।

बिन बेैलन खेेती करै, बिन भैयन के रार।
बिन महरारू घर करै, चैदह साख गवांँर।।
भड्डरी! लिखते हैं, जो मनुष्य बिना बैलों के खेती करता है, बिना भाइयों के झगड़ा या कोर्ट कचहरी करता है और बिना स्त्री के गृहस्थी का सुख पाना चाहता है, वह वज्र मूर्ख है।

ताका भैंसा गादरबैल, नारि कुलच्छनि बालक छैल।
इनसे बांचे चातुर लौग, राजहि त्याग करत हं जौग।।
घाघ! लिखते हैं, तिरछी दृष्टि से देखने वाला भैंसा, बैठने वाला बैल, कुलक्षणी स्त्री और विलासी पुत्र दुखदाई हैं। चतुर मनुष्य राज्य त्याग कर सन्यास लेना पसन्द करते हैं, परन्तु इनके साथ रहना पसन्द नहीं करते।

जाकी छाती न एकौ बार, उनसे सब रहियौ हुशियार।
घाघ! कहते हैं, जिस मनुष्य की छाती पर एक भी बाल नहीं हो, उससे सावधान रहना चाहिए। क्योंकि वह कठोर ह्दय, क्रोधी व कपटी हो सकता है। ‘‘मुख-सामुद्रिक‘‘ के ग्रन्थ भी घाघ की उपरोक्त बात की पुष्टि करते हैं।
खेती  पाती  बीनती,  और घोड़े की  तंग।
अपने हाथ संभारिये, लाख लोग हों संग।।
घाघ! कहते हैं, खेती, प्रार्थना पत्र, तथा घोड़े के तंग को अपने हाथ से ठीक करना चाहिए किसी दूसरे पर विश्वास नहीं करना चाहिए।

जबहि तबहि डंडै करै, ताल नहाय, ओस में परै।
दैव न मारै आपै मरैं।
भड्डरी! लिखते हैं, जो पुरूष कभी-कभी व्यायाम करता हैं, ताल में स्नान करता हैं और ओस में सोता है, उसे भगवान नहीं मरता, वह तो स्वयं मरने की तैयारी कर रहा है।

विप्र टहलुआ अजा धन और कन्या की बाढि़।
इतने से न धन घटे तो करैं बड़ेन सों रारि।।
घाघ! कहते हैं, ब्र्राह्मण को सेवक रखना, बकरियों का धन, अधिक कन्यायें उत्पन्न होने पर भी, यदि धन न घट सकें तो बड़े लोगों से झगड़ा मोल ले, धन अवश्य घट जायेगा।

औझा कमिया, वैद किसान। आडू बैल और खेत मसान।
भड्डरी! लिखते हैं, नौकरी करने वाला औझा, खेती का काम करने वाला वैद्य, बिना बधिया किया हुआ बैल और मरघट के पास का खेत हानिकारक है।

Sunday, April 5, 2015

भदोही में मिले बुद्ध कालीन अवशेष

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एंव पुरातत्व विभाग के शोध छात्रों की खोज 

उत्तर प्रदेश के भदोही एवं मिर्जापुर जिले की सीमा में स्थित अगियाबीर के प्राचीन टीले की खुदाई के दौरान उत्तर कृष्ण कालीन परिमार्जित व मृदभांड कालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एंव पुरातत्व विभाग के शोध छात्रों के दल की ओर से यह खुदाई की जा रही है।

विभाग के निदेशक डॉ. अशोक कुमार सिंह ने बताया कि यह स्थल मिर्जापुर-भदोही की सीमा में पड़ता है। खुदाई के दौरान यहां गौतम बुद्धकालीन 600 ईसा पूर्व के सभ्यता के अवशेष मिले हैं। मिप्ती के चमकीले प्राचीन वर्तन, मनिया और हड्डी के औजार शामिल हैं। यह वस्तुएं विकसित नगरीय सभ्यता से संबंधित श्रमिकों की खास बस्ती से हैं। अभी यह खुदाई जारी रहेगी।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पुरात्व विभाग के निदेशक डॉ. अशोक कुमार सिंह ने बताया कि यह अवशेष भदोही के द्वारिकापुर के कुछ दूरी पर मिले कुषाण कालीन सभ्यता के अवशेष से कुछ दूरी पर हैं, लेकिन यह स्थान मिर्जापुर जिले में पड़ता है।

सिंह ने बताया कि यह टीला बेहद प्राचीन है। खुदाई में मृदा के चमकीले वर्तन जिसमें थाली, कटोरा, हड्डी के औजार और मनिया मिली है। यह सभ्यता आज से तकरीबन 2500 साल पहले विकसित हुई थी। इसे गौतम बुद्ध काल भी कहते हैं। जबकि पुरातत्व की तकनीकी भाषा में इसे एनबीपी काल के नाम से जाना जाता है। खुदाई में कुशल कर्मकारों यानी श्रमिकों की बस्ती होने के प्रमाण मिले हैं।

इस तरह के अवशेष नगरीय सभ्यताओं के विकास में ही मिलते हैं। वाराणसी के राजघाट के सरायमोहना में भी खुदाई के दौरान इस प्रकार की वस्तुएं मिली थीं। यह तकरीबन 6०० ईसा पूर्व की एक खास नगरीय सभ्यता की पहचान है। यह बस्ती कुलीन सभ्यता से आस-पास विकसित होती हैं।

इन रिहायशी प्राचीन बस्तियों में कुशल श्रमिक और शिल्पकार रहते हैं। सिंह ने बताया कि वस्तुओं के निर्माण की तकनीक उस दौरान में आज से कहीं अधिक उन्नतशील और विकासित थी, क्योंकि वर्तनों के उपयोग में जिस मिप्ती का उपयोग किया गया है। उनकी चमक आज भी कायम है।

यह शोध का विषय है कि आज से 2500 साल पूर्व मिप्ती में वह कौन सा रसायन प्रयोग की किया जाता था, जिसकी चमक और जीवनकाल आज भी जस का तस है। इन वर्तनों को डिलक्स वेयर कहा जाता है। आधुनिक काल में जिस प्रकार बोन चाइना की चमक होती है उससे भी कई गुना अधिक इनकी चमक है।

खुदाई में मिली मिप्ती की थालियां, कटोरे आज भी गोल्डेन कलर की चमक बिखेर रहे हैं। प्राचीन सभ्यताओं के नगर आम तौर पर नदी सभ्यता के आसपास विकसित होते थे। जहां से व्यापार और विकास के साथ आवागमन की सुविधा उपलब्ध होती थी। यह स्थान भी गंगा के करीब है। मृद पात्रों को नष्ट नहीं किया जाता था।

इसका उपयोग तत्कालीन सभ्यता और समाज के कुलीन परिवारों की तरफ से किया जाता था। आम लोग इस तरह के मृद पात्रों का उपयोग नहीं करते थे, क्योंकि उनकी बनावट और निर्माण पर अधिक खर्च आता था। इसका उपयोग तत्कालीन नगरीय सभ्यता में आम आदमी नहीं कर सकता था।
डॉ. सिंह ने बताया कि अभी यह खुदाई जारी रहेगी। पुरातत्व विभाग के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है।
साभार -http://www.livehindustan.com/news/national/article1-Uttar-Pradesh-Bhadohi-Mirzapur-district-culture-relics-475835.html

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