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Monday, March 4, 2013

दिल्ली का इतिहास पाषाण युग तक, आदि मानव के रहवास के संकेत मिले !

        दिल्ली में महाभारत, मौर्य, तोमर, चौहान, सल्तनत, मुगल और ब्रिटिश काल के अवशेष हैं। लेकिन एक रॉक आर्ट विशेषज्ञ को दिल्ली में कुछ ऐसे चिह्न मिले हैं, जिनके बारे में माना जा रहा है कि वे पाषाण युग के हो सकते हैं। यदि ‘साइंटफिक डेटिंग’ के बाद इसे सही पाया गया तो दिल्ली का इतिहास पाषाण युग तक जा सकता है। संभवत: यह पहला मौका है जब दिल्ली में आदि मानव के रहवास के संकेत मिले हैं।
रॉक आर्ट विशेषज्ञ रघुवीर सिंह ठाकुर ने दावा किया,‘अरावली पर्वत श्रृंखला में दक्षिण दिल्ली के महरौली में कुतुब मीनार के करीब ‘कपमार्क’ मिले हैं। एक हजार मीटर के क्षेत्र में तीन स्थानों में करीब 150 की संख्या में ‘कपमार्क’ है, जिनमें एकरूपता पाई गई है।’ दिल्ली में ‘कपमार्क’ खोजकर्ता ने दावा किया,‘इसके अलावा एक पत्थर पर अर्धचंद्राकार आकृति बनी हुई है। इसकी रेखाओं को जोड़कर देखा जाए तो अंग्रेजी अक्षर ‘एस’ आकार की आकृति बनती है। यह आकृति भी पाषाण युग की है।’
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व सुरक्षा अधिकारी ठाकुर ने कहा,‘यदि इस ‘कपमार्क’ का उचित तरीके से समय काल का निर्धारण कर दिया जाए तो यह दिल्ली के इतिहास को दो लाख साल से भी अधिक पीछे ले जा सकता है।’ उन्होंने बताया कि उन्होंने यह खोज 26 जनवरी को उस वक्त की जब पूरी दिल्ली गणतंत्र दिवस के जश्न में डूबी थी। उन्होंने इस स्थान को मेट्रो से देखा था और 26 जनवरी का दिन उन्हें इसके लिए सबसे अच्छा दिन लगा। ठाकुर ने बताया कि इसके समय निर्धारण के लिए एक टीम के साथ वह काम करना चाहते हैं, क्योंकि यह बेहद श्रमसाध्य और धैर्य का काम है। यदि इस स्थान के आस पास बेहतर तरीके से काम किया जाये तो यहां इस तरह के और भी चकित करने वाली जानकारियां मिल सकती हैं।
इस बारे में पेलिंयॅटोलाजिस्ट जीएल बादाम ने कहा,‘इस तरह के‘कपमार्क’ का काल निर्धारण करना बेहद कठिन है, क्योंकि रेडियो डेटिंग के जरिए केवल बीस हजार साल पहले तक के समय का निर्धारण ही किया जा सकता है, जबकि यह 20 लाख साल पुराना भी हो सकता है। पोटेशियम आर्गन डेटिंग या यूरेनियम थोरियम डेटिंग से इसका काल निर्धारण हो सकता है।’ उन्होंने बताया,‘आम तौर पर विशेषज्ञ ‘कपमार्क’ के बारे में अधिक ध्यान नहीं देते थे। हालांकि, पिछले कुछ समय से विशेषज्ञ इस तरफ ध्यान देने लगे हैं। इस तरह के हैरिटेज स्थलों के उचित रखरखाव के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और इंटेक जैसे संगठनों को आगे आना चाहिए और इसकी सुरक्षा का इंतजाम किया जाना चाहिए।’
मध्य प्रदेश के भीमबैठका और मंदसौर में ‘दर की चट्टान’ में काम कर चुके बादाम ने कहा,‘कपमार्क’ की डेटिंग करके काल निर्धारण कैसे किया जाए। इसे बनाने के लिए कठोर पत्थर का इस्तेमाल क्यों किया गया। लोगों में जागरूकता और सुरक्षा के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए।’
रॉक आर्ट विशेषज्ञ डॉक्टर मुरारी लाल शर्मा ने बताया,‘पाषाण युग को दो लाख साल पहले से दस हजार साल पहले तक विभिन्न चरणों में बांटा जाता है। हालांकि, 25 से 28 हजार साल पहले शतुरमुर्ग के अंडे मिले थे। इसका सीधा मतलब है कि उस वक्त मानव ने चित्राकंन प्रारंभ कर दिया था। यह ‘कपमार्क’ प्रारंभिक पाषाण युग के होने की संभावना है।’ शर्मा ने बताया,‘कला इतिहास के क्षेत्र में अरावली पर्वत श्रृंखला के एक छोर में इस तरह के प्रमाण पहली बार मिले हैं। दिल्ली के पास ‘कपमार्क’ मिलना अपने आप में क्रांतिकारी खोज है। अभी तक सुदूर क्षेत्रों में पाषाण युग के अवशेष मिलते थे। इसकी फोटो को माइक्रोस्कोप से देखने में इसके कटाव बेहद सहज लगते हैं, जो इसकी प्राचीनता के स्पष्ट प्रमाण है।’ शर्मा ने हालांकि बताया कि इसकी प्राचीनता के बारे में स्पष्ट निर्धारण ‘साइंटिफिक डेटिंग’ के बाद ही किया जा सकता है। इसे क्यों बनाया गया इस बारे में कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता। इस बारे में पश्चिम और भारतीय राक आर्ट विशेषज्ञों की कई तरह की राय है।  (साभार-(भाषा) नई दिल्ली, 3 मार्च ।)

    संसार के प्राचीन नगरों में से एक है दिल्ली
   दिल्ली की संसार के प्राचीन नगरों में गणना की जाती है। महाभारत के अनुसार दिल्ली को पहली बार पांडवों ने इंद्रप्रस्थ नाम से बसाया था, किंतु आधुनिक विद्दानों का मत है कि दिल्ली के आसपास उदाहरणार्थ रोपड़ (पंजाब) के निकट सिंधु घाटी सभ्यता के चिह्न प्राप्त हुए हैं और पुराने क़िले के निम्नतम खंडहरों में आदिम दिल्ली के अवशेष मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं वास्तव में देश में अपनी मध्यवर्ती स्थिति के कारण तथा उत्तरपश्चिम से भारत के चतुर्दिक भागों को जाने वाले मार्गों के केंद्र पर बसी होने से दिल्ली भारतीय इतिहास में अनेक साम्राज्यों की राजधानी रही है।
    जातकों के अनुसार इंद्रप्रस्थ सात कोस के घेरे में बसा हुआ था। पांडवों के वंशजों की राजधानी इंद्रप्रस्थ में कब तक रही यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता किंतु पुराणों के साक्ष्य के अनुसार परीक्षित तथा जनमेजय के उत्तराधिकारियों ने हस्तिनापुर में भी बहुत समय तक अपनी राजधानी रखी थी और इन्हीं के वंशज निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा में बह जाने पर अपनी नई राजधानी प्रयाग के निकट कौशाम्बी में बनाई। मौर्य काल में दिल्ली या इंद्रप्रस्थ का कोई विशेष महत्त्व न था क्योंकि राजनीतिक शक्ति का केंद्र इस समय मगध में था। बौद्ध धर्म का जन्म तथा विकास भी उत्तरी भारत के इसी भाग तथा पाश्रर्ववर्ती प्रदेश में हुआ इसी कारण बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा बढने के साथ ही भारत की राजनीतिक सत्ता भी इसी भाग (पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार) में केंद्रित रही।
    मौर्यकाल के पश्चात लगभग 13 सौ वर्ष तक दिल्ली और उसके आसपास का प्रदेश अपेक्षाकृत महत्त्वहीन बना रहा। हर्ष के साम्राज्य के छिन्न भिन्न होने के पश्चात उत्तरीभारत में अनेक छोटी मोटी राजपूत रियासतें बन गईं और इन्हीं में 12 वीं शती में पृथ्वीराज चौहान की भी एक रियासत थी जिसकी राजधानी दिल्ली बनी। दिल्ली के जिस भाग में क़ुतुब मीनार है वह अथवा महरौली का निकटवर्ती प्रदेश ही पृथ्वीराज के समय की दिल्ली है। वर्तमान जोगमाया का मंदिर मूल रूप से इन्हीं चौहान नरेश का बनवाया हुआ कहा जाता है। एक प्राचीन जनश्रुति के अनुसार चौहानों ने दिल्ली को तोमरों से लिया था जैसा कि 1327 ई. के एक अभिलेख से सूचित होता है। यह भी कहा जाता है कि चौथी शती ई. में अनंगपाल तोमर ने दिल्ली की स्थापना की थी। इन्होंने इंद्रप्रस्थ के क़िले के खंडहरों पर ही अपना क़िला बनवाया।
   महाकाव्य-महाभारत काल से ही दिल्ली का विशेष उल्लेख रहा है। दिल्ली का शासन एक वंश से दूसरे वंश को हस्तांतरित होता गया। एक चौहान राजपूत विशाल देव द्वारा 1153 में इसे जीतने के पूर्व लाल कोट पर लगभग एक शताब्दी तक तोमर राजाओं का आधिपत्य रहा। विशाल देव के पौत्र पृथ्वीराज तृतीय या राय पिथोरा ने 1164 ई. में लाल कोट के चारों ओर विशाल परकोट बनाकर इसका विस्तार किया। यह दिल्ली का तीसरा शहर कहलाता है। और क़िला राय पिथोरा के नाम से जाना गया। कई इतिहासकार इसे दिल्ली के सात शहरों में प्रथम मानते हैं। 1192 की लड़ाई में मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद ग़ोरी ने पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में हराकर उसकी हत्या कर दी। ग़ोरी यहाँ से दौलत लूटकर चला गया और अपने ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक को यहाँ का उपशासक नियुक्त कर गया। 1206 में ग़ोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वंय को भारत का सुल्तान घोषित कर दिया और लालकोट को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। अगली तीन शताब्दियों तक यहाँ छोटे अंतरालों के साथ ग़ुलाम वंश और सुल्तान वंश का शासन रहा। यहीं से दिल्ली का शासन खिलजी, तुगलक से लेकर मुगलों तक एक वंश से दूसरे वंश को हस्तांतरित होता गया। मुगलों से छीनकर दिल्ली  अंग्रेजों ने हथिया ली। १९११ में अंग्रेजों ने कोलकाता की जगह दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। जनवरी 1912 में राजनीतिक निर्णय के व्यावहारिक कार्यांवन के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की गई। प्रसिद्ध वास्तुविद सर एडविन लुटियंस ने अंतत इस शहर को नया स्वरूप दिया।      
    गंदी बस्ती की तरह दिखने वाली पुरानी दिल्ली, जिसमें लाला किला भी आता है, को वैसे ही छोड़कर नई दिल्ली बसाने के लिए अंग्रेजों ने रायसीना पहाड़ी चुनी जो वहां से न तो बहुत दूर थी और न ही बहुत पास। यहीं पर वाइसरॉय हाउस, संसद भवन और सचिवालय को एक जगह बनाया गया। आज भी इस इलाके को लुटियंस जोन कहा जाता है। १९४७ में आजादी की जंग के बाद दिल्ली को गुलामी से मुक्ति मिली। ( साभार- http://bharatdiscovery.org )

Sunday, January 20, 2013

बंगाल के इतिहास में अघोर परम्परा का प्रसिद्ध स्थल तारापीठ

    हमारी तारापीठ यात्रा
  कहते हैं जबतक बुलावा न होतो किसी धर्मस्थल ( शक्तिपीठों यथा मां वैष्णवी, मां तारा या मां विंध्यवासिनी, दक्षिणेश्वर व कोलकाता के कालीघाट में मां काली  के दर  ) पर पहुंचने के प्रयास विफल होते रहते हैं। ऐसा इसलिए भी कह रहा हूं क्यों कि इसी समय मैंने अपनी पत्नी भारती सिंह से भी आग्रह किया कि तारापीठ चलो मां के दर्शन कर आओ मगर उसने कोई रुचि ही नहीं दिखाई। जबकि धर्म-कर्म में वह हमेशा आगे रहती है। यह शायद उसी बुलावे का चक्र था जो उसे तो रोक रहा था मगर मेरा जाना तय हो रहा था।
    २१ सालों से कोलकाता  में था। आस्था भी थी मगर कभी ऐसा संयोग नहीं बन पाया कि मां तारा के दर्शन हो पाएं। बीते साल अक्तूबर में बनारस से मेरे भांजे डा. विजय कुमार सिंह और उनकी पत्नी डा. शीला सिंह का फोन कि मामा हमलोग तारापीठ जाएंगे। मुझे लगा कि अब शायद मां का बुलावा आ गया है तभी तो भांजे लोगों को मां के दर्शन का निमित्त बना दिया। तीनों लोगों के टिकट बनवा लिया और निश्चिंत था अब तारापीठ जाना तय है। तभी वापी में रह रहे मेरे जीजा रामजन्म सिंह ने सूचित किया मेरी बहन रमा कोलकाता आ रही है और बेटी विक्की की तिलक की तैयारी के लिए खरीदारी वगैरह करनी है। वह भी उसी समय जब मुझे तारापीठ जाना था। मुझे लगा कि अब शायद मां के दर्शन नहीं हो पाएंगे।
   कई बार सोचा कि अपना टिकट रद्द करवा दूं और भांजे लोगों से कह दूं कि आप लोगों के साथ मेरा जाना नहीं हो पाएगा। इस उहापोह में फंस गया कि किस बात को तरजीह दूं। मां शायद मेरी परीक्षा ले रही थी। आखिर में तय किया कि तारापीठ तो जरूर ही जाउंगा भले ही रमा के साथ किसी और को लगाना पड़े। दरअसल ना मैं तारापीठ जाने के भांजे लोगों के आग्रह को टाल सकता था और न ही रमा को मना कर सकता था। दोनों के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए तय किया कि कुछ भी हो जाए तारापीठ अवश्य जाउंगा। मैंने रमा को बताया ही नहीं कि जब तुम कोलकाता आ रही हो तभी मैं तारापीठ जा रहा हूं और अपनी इस मुश्किल को भांजे लोगों को भी बताकर उन्हें मुश्किल में नहीं डालना चाहता था।
   बहरहाल हम २४ अक्तूबर विजयादशमी के दिन तारापीठ पहुंच गए। और वर्षों की वह साध भी पूरी हुई जिसकी फिलहाल तो कोई संभावना ही नहीं दिख रही थी। हम तीनों इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं इसलिए अपनी आस्था व तत्थान्वेषण दोनों को साथ रखकर उसी दिन शाम को ही मंदिर व श्मशान इलाके में काफी देर तक भटकते रहे। मेरे दोनों भांजे डां विजय कुमार सिंह और डा. शीला सिंह मुझसे उम्र में बड़े हैं मगर हम एक दूसरे से मित्रवत व्यवहार रखते हैं। मेरे लिए दोनों सम्माननीय भी हैं क्यों कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीनइतिहास विभाग में दोनों मुझसे सीनियर रहे हैं। एक ही गुरू  डा. सुदर्शना देवी सिंहल के निर्देशन में मैं और डा. शीला सिंह ने अपनी पीएचडी पूरी की। सीनियर होने के कारण दोनों का मार्गदर्शन मेरे लिए काफी अहमियत भरा था।
   इस पूरी यात्रा में बहुत कुछ जानने के कौतूहल के कारण हम कई मुद्दों पर बहस मुबाहिसा भी करते रहे। आभारी हूं  कि दोनों लोगों के  सानिध्य में यह यात्रा काफी शुकून वाली थी। मां के दर्शन करके तो मैं धन्य ही हो गया। जीवन का वह सर्वाधिक मूल्यवान क्षण था जब गर्भगृह में मां के सामने खुद को खड़ा पाया। इतने दिन से बंगाल में रह रहा हूं मगर सपने में भी नहीं सोचा था कि मां इस तरह अपने दर पर बुला लेगी। मां की इस कृपा से अभिभूत हूं मैं।
    एक  इतिहासकार ( डा.. शीला सिंह ) को तो मां तारामय होते देखना मेरे लिए अद्भुत अनुभव रहा। कहते हैं भक्ति हर किसी को नसीब नहीं होती। इतिहास गवाह है कि वर्षों की तपस्या के बाद जब किसी भक्त को अपने आराध्य से कुछ मांगना हुआ तो  वह बिना देरी किए जन्म-जन्म की भक्ति का वरदान मांगना नहीं भूला।  मेरे पिताजी भी कहते थे कि बिना पूर्व जन्म के पुण्य के भक्ति संभव नहीं। डा. शीला को देखकर यही आभास हुआ। बिना भक्ति के उनका मां के ध्यान में ऐसे लीन होना संभव नहीं। मंदिर में जबतक रहे और जब दर्शन करके दूसरे दिन कोलकाता लौट रहे थे तो  जिस आत्मसंतुष्टि का अनुभव हुआ वैसा मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था।
   मैं और डा. विजय कुमार सिंह ने मंदिर व आसपास के कई फोटो खींचे जिसमें होटल से लेकर उस द्वारका नदी तक का फोटो है जिसे धर्मस्थलों पर जाने वाले  श्रद्धालुओं की सेवा के बहाने जीविकोपार्जन में लगे स्थानीय लोगों , दुकानदारों और खासतौर पर होटल वालों ने नरक बना रखा है।
   शायद प्रशासन भी इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है जिसके कारण पवित्र द्वारका नदी गंदगी के नाले में बदल गई है। धर्मस्थल अगर साफ सुथरे दिखते हैं तो मन भी विचलित नहीं होता है। किसी धर्मस्थान को साफ रखना भी हमारा ही उत्तरदायित्व है। प्रशासन को इस और भी ध्यान देना चाहिए।
  इस संस्मरण के साथ तारापीठ मंदिर व वामाखेपा के बारे में कुछ इतिहास व कुछ जनश्रुतियों पर आधारित जानकारी भी दे रहा हूं। यह विवरण वामाखेपा के चमत्कार और तारिणी मां तारा की कृपा कहानी भी है।













  बंगाल के इतिहास में अघोर परम्परा का प्रसिद्ध स्थल तारापीठ

    बंगाल के इतिहास में वीरभूमि जिला एक विख्यात जिला है। हिन्दुओं के ५१ शक्तिपीठों में से पाँच शक्ति पीठ वीरभूमि में ही हैं। इसी कड़ी में उनीस्वी शताब्दी में वीरभूमिकी पवित्रता साधक वामा खेपा ने एक बार फ़िर बढाई।   राजा दशरथ के कुल पुरोहित वशिष्ठ मुनि ने भी वीरभूमि से जुड़ कर इतिहास में इस भूमि की शान बढाई। इसलिए वीरभूमि जिला हिंदू वाम मर्गियों का महा तीर्थ बना। यहाँ पर स्थापित वशिष्ठ मुनि के सिंघासन पर अनेको साधको ने अपनी सिद्धिया प्राप्त की। जिनमें से प्रमुख महाराज राजा राम कृष्ण परमहंस, आनंदनाथ, मोक्ष्दानंद , वामा खेपा के नाम आते है।
      इस स्थान पर दक्ष यज्ञ विध्वंश के पश्चात मोहाविष्ट शिव जी के कंधों से शिव भार्या दाक्षायणी, सती की आँखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र ने काट कर गिराया था। यह शक्तिपीठ बन गया और इसीलिये इसे तारापीठ कहते हैं । मातृ रुप माँ तारा का यह स्थल तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सब में समान रुप से श्रद्धास्पद, पूजनीय माना जाता है ।
       शताब्दियों से साधकों, सिद्धों में प्रसिद्ध यह स्थल पश्चिम बँगाल के बीरभूम अँचल में रामपुर हाट रेलस्टेशन के पास द्वारका नदी के किनारे स्थित है । कोलकाता से तारापीठ की दूरी लगभग २६५ किलोमीटर है । यह स्थल रेलमार्ग एवं सड़क मार्ग दोनो से जुड़ा है । इस जगह द्वारका नदी का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर है, जो कि भारत में सामान्यतः नहीं पाया जाता । नाम के अनुरुप यहाँ माँ तारा का एक मन्दिर है तथा पार्श्व में महाश्मशान है । द्वारका नदी इस महाश्मशान को चक्राकार घेरकर कच्छपपृष्ट बनाते हुए बहती है ।
    तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे अत: इस स्थान को देवी तारा को नयन तारा भी कहा जाता है. तारापीठ का महात्म्य है कि यहां श्रद्धा-भक्ति के साथ देवी का ध्यान करके जो मुराद मांगा जाता है वह पूर्ण होता है. देवी तारा की सेवा आराधना से रोग से मुक्ति मिलती है. इस स्थान पर सकाम और निष्काम दोनों प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती है.

    यह स्थल तारा साधन के लिये जगत प्रसिद्ध रहा है । पुरातन काल में महर्षि वशिष्ठ जी इस तारापीठ में बहुत काल तक साधना किये थे और सिद्धि प्राप्त कर सफल काम हुए थे । उन्होने इस पीठ में माँ तारा का एक भव्य मन्दिर बनवाया था जो अब भूमिसात हो चुका है । कहते हैं वशिष्ठ जी कामाख्या धाम के निकट नीलाचल पर्वत पर दीर्घकाल तक संयम पूर्वक भगवती तारा की उपासना करते रहे थे , किन्तु भगवती तारा का अनुग्रह उन्हें प्राप्त न हो सका, कारण कि चीनाचार को छोड़कर अन्य साधना विधि से भगवती तारा प्रसन्न नहीं होतीं । एकमात्र बुद्ध ही भगवती तारा की उपासना और चीनाचार विधि जानते हैं । महर्षि वशिष्ठ , यह जानकर भगवान बुद्ध के समीप उपस्थित हुए और उनसे आराधना विधि एवं आचार का ज्ञान प्राप्तकर इस पीठ में आये थे । बौधों में बज्रयानी साधक इस विद्या के जानकार बतलाये जाते हैं । औघड़ों को भी इस विद्या की सटीक जानकारी है ।

       वर्तमान मन्दिर बनने की कथा
" जयब्रत नाम के एक व्यापारी थे । उनका इस अँचल में लम्बाचौड़ा व्यापार फैला हुआ था । श्मशान होने के कारण तारापीठ का यह क्षेत्र सुनसान हुआ करता था । भय से लोग इधर कम ही आते थे । विशेष दिनों में इक्का दुक्का साधक इस ओर आते जाते दिख जाया करते थे । व्यापार के सिलसिले में जयब्रत को प्रायः इस क्षेत्र से गुजरना पड़ता था । एक बार जयब्रत को पास के गाँव में रात्रि विश्राम हेतू रुकना पड़ा । ब्राह्म मुहुर्त में जयब्रत को स्वप्न में माँ तारा के दर्शन हुए । माँ ने आदेश दिया कि श्मशान की परिधि में धरती के नीचे ब्रह्मशिला गड़ा हुआ है । उसे उखाड़ो और वहीं पर विधिपूर्वक प्राण प्रतिष्ठित करो । स्वप्न में प्राप्त आदेश के अनुसार जयब्रत ब्रह्मशिला उखड़वाया और वर्तमान मन्दिर का निर्माण कराकर माँ तारा की भव्य मूर्ति स्थापित किया ।"

मातृरुपा माँ तारा की मूर्ति दिव्य भाव लिये हुए है । माता ने अपने वाम बाजु में शिशु रुप में शिव जी को लिया हुआ है । शिव जी माता के वाम स्तन से दुग्धामृत का पान कर रहे हैं और माता के स्नेहसिक्त नयन अपलक शिशु शिव जी को निहार रहे हैं । कहते हैं समुद्र मँथन से निकले विष का देवाधिदेव भगवान शिव जी ने पान कर संसार की रक्षा की थी । इस विषपान के प्रभाव से भगवान शँकर को उग्र जलन एवं पीड़ा होने लगी । कोई उपाय न था । माता ने तब शिव जी को इस प्रकार अपना स्तनपान कराकर उन्हें कष्ट से त्राण दिलाया था । इसीलिये माँ को तारिणी भी कहते हैं ।

वामा खेपा की कहानी...

    शास्त्र में कहा गया है समाज में जब भी जातिवाद की प्रथा बढ़ी है तो उसके उद्धार के लिए माँ ने अपने किसी न किसी दूत को जरुर भेजा है। इसी कड़ी में धरती पर वाम अवतार के रूप में वामा खेपा को माँ ने भेजा। तारापीठ में साधना कर अनेक सिद्धियाँ हस्तगत करने वाले एक महान अघोराचार्य हो गये हैं । उनका नाम है " वामाक्षेपा" । आप सांसारिक नियमों की अवहेलना करने के कारण ग्रामवासियों के द्वारा पागल घोषित कर दिये गये और आपके नाम बामा के साथ खेपा, जिसका अर्थ पागल होता है, जोड़ दिया गया । यह ऐसे साधक हुए जो ब्रह्मण कुल में जनम लेने के बाद भी किसी प्रकार के छूतछात में विश्वास नही रखते थे। तारापीठ से तीन मील की दुरी पर स्थित आतला ग्राम में १२४४ साल के फागुन महीने में शिव चतुर्दशी के दिन उनका जनम हुआ। उनके पिता का नाम सर्वानन्द चटोपाध्याय था एवं वह एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनकी माता का नाम श्रीमती राजकुमारी था तथा वह एक धर्मपरायण साध्वी स्त्री थीं। वामा खेपा की ४ बहने थी तथा वह दो भाई थे। वामा खेपा का नाम था वामा चरण एवं उनके छोटे भाई का नाम राम चरण था। ब्रह्मण परिवार होते हुए भी यह परिवार आर्थिक दृष्टि से कमजोर था। जिस कारण हमेशा घर में आभाव रहता था। कभी घर में चावल नही होता, तो कभी दाल नही तथा कभी सब्जी नही होती थी। तब भी वामा खेपा जी के पिता आनंदमय रहते थे तथा आँखों में आंसू लिए हुए सदा माँ का भजन करते रहते थे। गावं के लोग उनको सर्वा खेपा के नाम से चिढाते थे ( खेपा का अर्थ बंगाली में पगला होता है ) परन्तु वह हमेशा मस्त रहते थे। अपने पिता के संस्कार को देखते हुए बाल अवस्था में ही वामा चरण पाँच वर्ष की अल्प आयु में अपने हाथों से मिटटी की बहुत सुंदर माँ तारा की प्रतिमा बना लेते थे। एवं वह ऐसे भक्त थे की जब उन्हे माँ के बाल कैसे बनाएं समझ नही आया तो उन्होंने स्वयं अपने सारे बाल नोच कर माँ तारा की मूर्ति के सर पर लगा दिया था।
   अपने तन मन की लगन से बनाई हुई यह मूर्ति एकदम सजीव लगती थी। पास में ही एक जावाफूल का पेड़ था। उसमें से फूल ले कर बालक वामा चरण एकाग्र होकर माँ तारा की पूजा करते रहते थे। घर में ही एक जामुन का भी वृक्ष था, उसी जामुन के फल से वह माँ तारा का भोग लगाते थे। तथा माँ से कहते थे की माँ तू पहले जामुन खा तभी मैं खाऊँगा। पर मूर्ति तो न कुछ बोलती थी और ना ही हिलती थी। इसपर बालक वामा चरण रोने लगते थे।
और जामुन वैसे ही मूर्ति के सामने रखे रहते थे। एक दिन उनके पिता ने यह देखा। तो उनकी आँखों में भी बाल भक्ति का यह अविस्मरनीय दृश देख कर आंसू आ गए। वामा चरण पिता जी को देखते ही उनसे पूछने लगे की माँ तारा कौन सा फल खाती हैं ? आप तो कितने फल ले कर पूजा करते हैं और कहते हैं की माँ मन ही मन फल खा लेती है और फ़िर हम प्रसाद ग्रहण करते हैं। तो फिर मेरे फल क्यों नही खाती? तब सर्वानन्द जी ने वामा चरण को समझाया की तुम्हारी माँ तुम्हे खिलाये बिना क्या कभी खाती है या सोती है? माँ पहले अपने बालक को खिला कर ही स्वयम कुछ खाती है। उसी प्रकार यह जगत की माता सारे संसार के बच्चो को खिलाये बिना नही खाती। तब वामा चरण ने फ़िर पुछा की माँ तारा बोलती क्यों नही है? तब उनके पिता ने कहा की माँ से बात करने के लिए तपस्या करनी पड़ती है।
   यह बात सुन कर बालक वामा चरण अपनी जन्मदात्री माँ के पास पहुंचे और उनसे जा कर पुछा की माँ क्या तुम तारा माँ के साथ मेरी बात करा सकती हो ? ऐसा सुन कर वामा चरण की माँ उन्हे ले कर चुपचाप पूजा ग्रह में माँ तारा के सामने बैठ गयीं। इसी तरह नित्य माँ तारा की आराधना करते करते वामा चरण की उम्र ग्यारह वर्ष तथा उनके भाई की उम्र पाँच वर्ष की हो गई। इसी बीच उनके पिता की सेहत ख़राब हो गई और मृत्यु शैया पर माँ तारा का नाम जपते हुए उनके प्राण निकल गए। उसी वक्त जब माँ तारापीठ के शमशान में वामा चरण ने अपने पिता का अन्तिम शंस्कार किया तब उन्हे माँ तारा के प्रथम बार शमशान में दर्शन हुए। विधवा माँ ने किसी तरह भीख मांग कर अपने पति के श्राद्ध का काम पूरा किया। मृत्यु की ख़बर पा कर वामा चरण के मामा नौ ग्राम से आ कर दोनों भाइयों को अपने घर ले गए। वामा चरण गाय चराने ले जाते थे तथा उनके छोटे भाई गायों के लिए घास कटते थे। इसके एवज में उन्हे आधा पेट झूठा भात खाने को दिया जाता था।
एक बार वामा चरण को एक बड़ी से टोकरी ले कर गोबर उठाने और राम चरण को घास काटने के लिए उनके मामा ने कहा। राम चरण की असावधानी के कारन वामा चरण की ऊँगली कट गई। तब राम चरण भाई भाई कह कर रोने लगे। तब तक इनकी गाय ने बगल के खेत में खड़ी फसल को नष्ट कर दिया। उस खेत के मालिक ने मामा से शिकायत कर दी। मामा ने छड़ी लेकर वामा चरण को खूब मारा। उसी के बाद वामा भाग कर अपनी माँ के पास आतला ग्राम वापस लौट आए। और राम चरण को एक साधू अपने साथ गाना सिखाने ले गए। तभी से वामा ने शमशान में रहना निश्चित किया।
   उस दिन पूरनमासी थी, और शमशान में कई लोग बैठे थे। उनके पैर दबाते दबाते वामा सो गए।उसी बीच शमशान में बैरागी साधक गांजा पी कर उसके आग को एक जगह फेक दिया। हवा के झोंके से वह आग एक झोपडी में लग गई और देखते देखते सारे गाँव को झुलस दिया। गाँव वालों ने समझा की यह वामा चरण की गलती है। गाँव वाले उन्हें खोजने लगे। उनके डर से वामा चरण भक्त प्रहलाद की कहानी याद करते हुए आग में ख़ुद ही कूद गए। वह चिल्लाते रहे की मैंने आग नही लगायी है। धीरे धीरे पूरा गाँव आग में झुलस गया परन्तु वामा चरण कुंदन के समान आग से सकुशल निकल आए। और दौड़ते हुए अपनी माँ के पास अपने गाँव भाग गए।
आर्थिक स्तिथि ख़राब होने के कारन एक दिन उनकी माँ ने उन्हे बहुत भला बुरा कहा, उसी समय वामा घर से जो निकले तो फ़िर कभी अपने घर वापस नही आए। यहाँ से ही वामा चरण की साधना प्रारम्भ हुई। उसी समय तारापीठ के महा शमशान में शिमल वृक्ष के नीचे सिद्ध महापुरुष कैलाशपति बाबा आनेवाले थे। मोक्षानंद बाबा, गोसाईं बाबा आदि सभी ने वामा को वहा आश्रय दिया। प्रति दिन वामा जीवन कुंडा में स्नान करते और गांजा चुगते थे। कैलाशपति बाबा उनको बहुत मानते थे। कैलाशपति बाबा ने वामा को अपने शमशान में रहने का स्थान दिया। उनका खद्दोऊ पहन कर द्वारका नदी के ऊपर चलना और मुरझाये हुए तुलसी वृक्ष को हरा भरा कर देना जैसे आलौकिक कार्यों को देख कर वामा चकित रह गए। एक बार रात में कैस्लाश्पति बाबा ने वामा को गांजा तैयार करने के लिए बुलाया। उस दिन वामा को बहुत डर लगा। असंख्य दैत्याकार आकृतियाँ उनके चारो तरफ़ घेर कर खड़ी थी। यह देख कर वामा बेहोश हो गए। बाद में जय गुरु जय तारा कहते हुए वह सब आकृतियाँ विलीन हो गयीं। तब वामा ने साहस करके कैलाशपति बाबा को गांजा दिया।

वामा खेपा की लीला...

    काली पूजा की रात में वामा का अभिषेक कैलाशपति बाबा द्वारा हुआ। सिद्ध मंत्र पा कर वामा खेपा बिल्कुल उलट पलट हो गए। वह हमेशा शीमल वृक्ष के नीचे बैठ कर जाप किया करते,परन्तु हमेशा अजीब अजीब आवाजें बिन बादल गर्जन होना, मरे बच्चो की कूदफांद, कान के पास गरम साँस का महसूस होना जैसी घटनाये वामा को और चंचल कर देती थी। शिव चतुर्दशी के दिन गुरुदेव का आदेश पा कर वामा फ़िर अपने आसन पर बैठे और सिद्ध बीज मंत्र का जाप शुरू किया। सुबह से शाम हो गई पर वामा तब भी तन्मय हो कर देवी माँ तारा के ध्यान में लगे रहे। रात बढ़ने लगी और घोर अन्धकार हो गया, वातावरण पूरा शांत था। रात में २ बजे के बाद वामा का शरीर कापने लगा और पूरा शमशान फूलो की महक से सुगन्धित हो उठा। अचानक आकाश से नीले प्रकाश की ज्योति फुट पड़ी। चारो तरफ़ प्रकाश ही प्रकाश हो गया और प्रकाश के बीचों बीच तारा माँ ने वामा खेपा को दर्शन दिए।
    उस भव्य और सुंदर देवी को देख कर आनंद में वामा सबकुछ भूल गए। इतनी कम उम्र में वामा को माँ का दर्शन होना सिर्फ़ भक्ति और विश्वास के कारण था। सबने शमशान में प्रकाश देखा पर माँ के दर्शन तो सिर्फ़ वामा खेपा को ही हुए, तब से वाम देव जगत में पूज्य हो गए। तारापीठ के महंत मोक्षानंद पहले से ही वामा की महानता को जानते और इसलिए ही उन्होंने वामा को अपना शिष्य बनाया था। मोक्षानंद के मरने के बाद १८ वर्ष की उम्र में ही वामा चरण को तारापीठ का पीठाधीश बना दिया गया।
एक बार द्वारका नदी में स्नान करते समय उन्हे द्वारका नदी के उस पार राम नाम की ध्वनि सुनाई दी। कुछ देर बाद उन्होंने देखा की कुछ लोग घाट के उस पार एक शव ले कर आए हैं। वामा ने उत्सुकता वश वह शव देखा तो पता चला की वह उनकी माँ का ही शव था। माँ का शव देखते ही वह माँ माँ कह कर चिल्लाने लगे। कुछ भक्तो ने वामा चरण को सान्तवना दिया। वामा की इक्षा थी की उनकी माँ का शव माँ तारा के शमशान में ही जलाया जाए।
परन्तु बरसात के दिन थे और शव को नदी के दुसरे पार तारा शमशान तक ले जाना नामुमकिन था। सभी लोगों ने बामा खेपा को समझाया औरघाट के इस पार ही क्रिया कर्म करने की सलाह दी। परन्तु वामा खेपा माँ तारा का नाम लेते हुए अपनी माँ का शव अपने पीठ पर ले कर नदी को पैदल ही पार कर गए। और अंत में उन्होंने अपनी माँ का अन्तिम संस्कार माँ तारा के शमशान में पूरा किया।
उनके माँ के श्राद्ध का दिन नज़दीक आने लगा था। वह अपने गाव आतला गए। श्राद्ध से तीन दिन पहले वह पहुँच कर उन्होंने अपने छोटे भाई राम चरण से कहा की माँ के श्राद्ध के लिए घर के सामने वाली जमीन को साफ़ सुथरा कर दो, तथा आस पास के गाव के लोगों को निमंत्रण दे आओ। राम चरण ने अपने पागल भाई की बात पर ध्यान नही दिया और उनसे कहा की अभी तो हम स्वयं कष्ट में हैं। ऐसी हालत में हम लोगों को कहा से खिलाएंगे?
राम चरण के मना करने के बाद वामा खेपा ने स्वयं जमीन अपने हाथों से साफ़ की और वापस शमशान चले गए।
श्राद्ध वाले दिन अपने आप बडे बडे राजा महाराजों ने वामा के घर अपने आप अन्न और भोजन का सामग्री भेजनाशुरू कर दिया। यह देख कर राम चरण दंग रह गए और उन्हे तब अपने भाई की शक्ति का एहसास हुआ।
शाम को ब्राह्मण भोज के समय अचानक से मुसलाधार वर्षा होने लगी। राम चरण यह देख कर रोने लगे और इश्वर को याद करने लगे। तब तक वामा खेपा वह पहुंचे। उन्हे देखते ही राम चरण अपने भाई के चरण पकड़ कर रोने लगे। उन्होंने कहा की इतनी तेज़ बारिश में ब्रह्मण कैसे भोजन कर पाएंगे? तब वामा खेपा ने अपने शमशान का डंडा आकाश की तरफ़ कर दिया। और मुसलाधार बारिश होने के बाद भी ब्राह्मण भोज की जगह एक बूँद पानी नही गिरा। और उनकी माँ का श्राद्ध बिना किसी रूकावट के संपन्न हुआ। यह देख कर सभी चकित रह गए और वामा खेपा की शक्ति को प्रणाम करने लगे। अब ब्राह्मणों को अपने घर भी वापस जाना था, परन्तु बारिश काफी तेज़ पड़ रही थी। तब वामा खेप ने आकाश में चिल्लाते हुए माँ तारा से कहा की हे माँ क्या तू भी बाप के सामान कठोर हो गई है!! उनके इतना कहते ही ब्राह्मणों के घर जाने के मार्गो पर बारिश पड़ना बंद हो गया।

     वामा खेपा शमशान में माँ तारा की पूजा अर्चना करते थे। वह रोज माँ को भोग लगते थे और माँ स्वयं आकर उनका भोग ग्रहण करती थी। एक दिन उन्होंने माँ को भोग लगाया परन्तु माँ नही आई। क्रोधित हो कर वामा ने माँ की मूर्ती पर मूत्र कर दिया। ऐसा करते देख मन्दिर के बाकि लोगों ने देख लिया। उन लोगों को बहुत बुरा लगा और उन्होंने रानी से वामा के इस घटना की शिकायत कर दी। रानी ने क्रोधित हो कर अपने दरबानों को आदेश दिया और वामा को पीट कर मन्दिर से बहार निकल फेंका। वामा को शमशान में फेंक दिया। फ़िर रानी ने दुसरे पंडित को माँ का भोग लगाने का कार्य दे दिया। चार दिन तक वामा खेपा शमशान में बिना कुछ खाए पिए पड़े रहे।
तब चार दिन के उपरांत माँ तारा ने रानी को अर्ध चैतन्य अवस्था में दर्शन दिए और कहा की रानी मैंने चार दिनों से भोग ग्रहण नही किया है। तब रानी ने चकित होकर माँ से कहा की हे माँ आपको तो रोज़ भोग लगता है। माँ तारा ने कहा की मेरा एक पागल बेटा है जिसे तुम्हारे दरबानों ने पीट कर बाहर फेंक दिया। उसने भी चार दिनों से कुछ नही खाया है। अतः मैंने भी चार दिन से उपवास किया है। इसपर रानी बोली। " माँ उस व्यक्ति ने आप की मूर्ति पर मूत्र कर दिया था इसलिए मैंने उसे दंड दिया"। इस पर माँ तारा बोली यदि बालक अपनी माँ पर मूत्र कर दे तो क्या माँ उसे दंड देती है? वह मेरा बेटा है। वह मुझपर मूत्र करे या फ़िर मुझे मारे तुम्हे दंड देना का अधिकार नही है। यदि अपने राज्य का भला चाहती हो तो सम्मानपूर्वक मेरे बेटे को वापस लाओ। और आजके बाद वामा को पहले भोग लगेगा तब ही मैं भोग ग्रहण करुँगी। ऐसा कह कर माँ अंतर्ध्यान हो गई। तब रानी ने वामा खेपा को आदरसहित मन्दिर में बुलाया। तब से हमेशा वामा खेपा को भोग लगने लगा और तब ही माँ तारा भोग ग्रहण करती थी।
   इस प्रकार वामा खेप के जीवन में अनेको चमत्कार होते रहे। वामा खेपा के पहले वाम मार्ग एकदम विलुप्त हो रहा था। परन्तु उनकी भक्ति और चमत्कारों की वजह से वाम मार्ग को प्रसिद्धि मिली।
तारापीठ का यह पागल संत अब अनेक सिद्धियों का स्वामी हो गया था । आसपास के लोग बाबा के पास बड़ी संख्या में आने लगे थे । अनेक लोगों का बाबा के आशीर्वाद से कष्टनिवारण भी हो जाया करता था । बाबा के चमत्कार की, अलौकिक क्रियाकलाप की अनेक कथाएँ कही सुनी जाती हैं ।
       बाबा बामाखेपा की महासमाधि सन् १९११ ई० को हुई थी ।

Sunday, September 30, 2012

उरई में बर्तन व्यवसायी की दुकान से मिले ताम्र युगीन पिंड व उपकरण

  देश के प्रागैतिहासिक काल के मानचित्र में उरई का नाम अंकित
 भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के उरई चैप्टर की ओर से  बुंदेलखंड संग्रहालय के सभागार में उरई के मातापुरा मुहल्ले से मिले ताम्र युगीन उपकरणों पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी का विषय का प्रवर्तन करते हुए इंटैक के उरई चैप्टर के संयोजक डाक्टर हरिमोहन पुरवार ने बताया कि बर्तन व्यावसायी रवि माहेश्वरी की दुकान से कुछ ताम्र पिंड और उपकरण मिले थे। उनका जब बरीकी से अध्ययन किया गया तो पता चला कि ये उपकरण ताम्र युगीन सभ्यता के हैं। गोष्ठी के मुख्य वक्ता भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) के अवकाश प्राप्त सह अधीक्षण पुरातत्ववेत्ता डाक्टर कृष्ण कुमार थे। उन्होंने कहा कि बुंदेलखंड क्षेत्र में प्रागैतिहासिक काल के अवशेषों के मिलने की सूचना अभी तक नहीं थी। लेनिक इन ताम्र उपकरणों के उरई में मिलने से देश के प्रागैतिहासिक काल के मानचित्र में उरई का नाम अंकित हो गया है। उन्होंने कहा कि यहां मिले उपकरण दो हजार साल ईसा पूर्व से 13 सौ साल ईसा पर्वू का है। इन ताम्र उपकरणों में चार सीघी कुल्हाड़िया, दो शोल्डर्स कुलहाड़ियां, दो बरछियां (हारपूंस), एक गोल चक्का और 5.460 किलोग्राम, 1.340 किलोग्राम, 650 ग्राम और 570 ग्राम के चार ताम्र पिंड शामिल हैं। इन ताम्र पिंडों से ताम्र उपकरण बनाए जाते थे। ताम्र उपकरणों के शिल्प विज्ञान पर प्रकाश डालते हुए डाक्टर कृष्ण कुमार ने कह७ा कि सीधी और शोल्डर्स कुल्हाड़ियों का निर्माण एक सांचे में ढालकर एक बार में किया जाता था, जबकि बरछियों (हारपूंस) का निर्माण दो अलग-अलग सांचों में दो बार में ढालकर किया किया जाता था।
उन्होंने बताया कि शोल्डर्स कुल्हाड़ियां बड़े पेड़ों की डालियां काटने और सीधी कुल्हाड़ियां छोटी-छोटी टहनियां काटने के प्रयोग में लाई जाती थीं। बरछियों (हारपूंस) का उपयोग जंगली जानवरों से अपनी सुरक्षा और उनके शिकार के लिए होता था।
संगोष्ठी का संचालन डाक्टर राजेंद्र कुमार ने किया। संगोष्ठी में उरई में मिले ताम्र युगीन उपकरणों को प्रदर्शित भी किया गया। संगोष्ठी में इतिहासकार डीके सिंह, डाक्टर एसके उपाध्याय, संध्या पुरवार, डाक्टर जयश्री, इंद्रा राजौरिया, डाक्टर राजेश पालीवाल, सुमन, डाक्टल अलका रानी, अखिलेश पुरवार, मोहित पाटकार आदि उपस्थित थे। ( साभार-जनसत्ता व अमर उजाला ---उरई, 30 सितंबर।)

Tuesday, September 25, 2012

12,000 साल पुरानी भीमबेटका की गुफाएं





   भीमबेटका में 750 गुफाएं हैं जिनमें 500 गुफाओं में शैल चित्र बने हैं। यहां की सबसे प्राचीन चित्रकारी को 12,000 साल पुरानी है। मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित पुरापाषाणिक भीमबेटका की गुफाएं भोपाल से 46 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। ये विंध्य पर्वतमालाओं से घिरी हुई हैं। भीमबेटका मध्य भारत के पठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित विंध्याचल की पहाड़ियों के निचले हिस्से पर स्थित हैं। इसके दक्षिण से सतपुड़ा की पहाड़ियां शुरू हो जाती हैं। यह स्थल आदिमानव द्वारा बनाये गये शैल चित्रों और गुफाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। यहां बनाये गये चित्रों को पुरापाषाण काल से मध्य पाषाण काल के समय का माना जाता है।

भीमबेटका में प्राचीन किले

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, भोपाल मंडल ने भीमबेटका को 1990 में राष्ट्रीय महत्व का स्थल घोषित किया था। इसके बाद 2003 में ‘यूनेस्को’ ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया। माना जाता है कि यह स्थल महाभारत के चरित्र भीम से संबंधित है। यही वजह है कि इस स्थल का नाम भीमबेटका पड़ा. भीमबेटका का उल्लेख पहली बार भारतीय पुरातात्विक रिकॉर्ड में 1888 में बुद्धिस्ट साइट के तौर पर आया है।

1957 में की गई खोज

इसके बाद वी. एस. वाकंकर एक बार रेल से भोपाल जा रहे थे तब उन्होंने कुछ पहाड़ियों को इस रूप में देखा जैसा कि उन्होंने स्पेन और फ्रांस में देखा था। वे इस क्षेत्र में पुरातत्ववेत्ताओं की टीम के साथ आये और 1957 में कई पुरापाषाणिक गुफाओं की खोज की। भीमबेटका में 750 गुफाएं हैं जिनमें 500 गुफाओं में शैल चित्र पाये गये। पूर्व पाषाण काल से मध्य पाषाण काल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का केंद्र रहा। हालांकि अब यह महत्वपूर्ण धरोहर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। यहां के शैल चित्रों में प्रमुख रूप से सामूहिक नृत्य, रेखांकित मानवाकृति, शिकार, युद्ध, दैनिक क्रियाकलापों से जुड़े चित्र और पशु-पक्षियों के चित्र उकेरे गये हैं।

   इन शैल चित्रों में रंगों का भी प्रयोग किया गया था जिनमें से प्रमुख रूप से गेरुआ, लाल और सफेद रंग और कहीं-कहीं पीले और हरे रंग भी प्रयोग किये गये हैं। इनके अतिरिक्त भीमबेटका में प्राचीन किले की दीवार, लघु स्तूप, भवन, शुंग-गुप्तकालीन अभिलेख, शंख अभिलेख और परमार कालीन मंदिर के अवशेष भी पाए गये हैं।
      यहां की दीवारें धार्मिक संकेतों से सजी हुई हैं जो पूर्व-ऐतिहासिक कलाकारों के बीच ज्यादा लोकप्रिय हुआ करती थीं। यहां की सबसे प्राचीन चित्रकारी को 12,000 साल पुराना माना जाता है। भीमबेटका गुफाओं की खासियत यह है कि हजारों साल पहले बने शैल चित्र आज भी स्पष्ट नजर आते हैं।
(साभार- http://www.samaylive.com/lifestyle-news-in-hindi/tour-travel-news-in-hindi/163532/mp-bhimbetka-caves-ancient-heritage.html )

इन संदर्भों को भी देखें-----
Rock Shelters of Bhimbetka
भीमबेटका पाषाण आश्रय

Sunday, September 23, 2012

इतिहास की उलटी चाल

शांति उपदेशक बुद्ध बन सकते हैं अशांति की वजह !
 अहिंसा और शांति का मार्ग दुनिया को दिखाने वाले गौतम बुद्ध के जन्मस्थान को लेकर दो मित्र देशों में विवाद की स्थिति बन सकती है। भारत और नेपाल के बीच गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी को लेकर पहले एक विवाद उठ चुका है। इस विवाद के मूल में थी भारत के सांस्कृतिक विभाग की एक गलती। विभाग ने भूलवश गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी को जो नेपाल की तराई के जिले कपिलवस्तु में है उसे भारत में बता दिया था। बाद में जानकारी मिलने पर भारत की ओर से इस भूल को सुधारते हुए माफी मांग ली गई थी। लेकिन चीन ने भारत-नेपाल के बीच के इस विवाद से अपना फायदा उठाना शुरू कर दिया।
चीन, नेपाल में बढ़ते अपने प्रभाव क्षेत्र को मजबूत करने के लिए अपने कुछ संगठनों के जरिए नेपाल में यह दुष्प्रचार करवा रहा है कि भारत बौद्ध धर्म के जरिए मिलने वाले वैश्विक पर्यटन और दूसरे लाभों को नेपाल से छीनना चाहता है। साथ ही इन संगठनों से नेपाल में यह भी भावना पहुंचाई जा रही है कि भारत नेपाल से उसके बौद्ध धर्म पर्यटन के महत्त्व को मिटाना चाहता है। नेपाल में राष्टÑवादी दृष्टिकोण रखने वाले समरेश कहते हैं कि विश्व मानचित्र पर नेपाल, भारत और चीन जैसे एशिया के दो अहम शक्ति केंद्रों केबीच एक बफर राज्य है। इस कारण से नेपाल भारत और चीन दोनों के सामरिकमहत्त्व के लिए एक अहम कड़ी है। लेकिन नेपाल के साथ भारत के संबंध सांस्कृतिक, धार्मिक या राजनीतिक रूप से हमेशा अच्छे रहे हैं। साथ ही चीन की विस्तारवादी नीतियों ने उसकी मंशा को हमेशा शंका के घेरे में रखा है।
वैसे तो चीन ने 1960 से ही नेपाल पर डोरे डालने शुरू कर दिए थे। लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध से मिले सबक ने भारत और नेपाल दोनों को चीन की नीयत को लेकर सजग कर दिया था। समरेश कहते हैं- 2008 में राजशाही के खत्म होने और चीन के ऐतिहासिक नेता माओ की विचारधारा पर चलने वाले नेपाल के प्रमुख सशस्त्र विद्रोही माओवादी दल के नेपाल की सत्ता में आने के साथ हालात तेजी से चीन के पक्ष में बदलने लगे। चीन के प्रभाव में रहने वाले इन दलों ने भारत विरोधी प्रचार करना शुरू कर दिया। चीन ने परोक्ष रूप से अंतरराष्टÑीय स्तर पर इन मुद्दों को उठाने में कोई कसर नहीं बचा रखी है। इसी तरह चीन के ही उकसावे पर नेपाल में भगवान बुद्ध को लेकर इस तरह की बातें कही जा रही हैं।
बेजिंग में बौद्ध दर्शन पर हुए सम्मेलन में भारत द्वारा बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति स्थल के रूप में विख्यात बोधगया और उनके प्रथम प्रवचन स्थल सारनाथ को बढ़ावा दिए जाने की बात से विरोधी गुट गलत तरीके से प्रचार कर रहा है। नेपाल में भारत विरोधी गुट का कहना है कि भारत अंतराष्टÑीय स्तर पर लुंबिनी के महत्त्व को कम करके बौद्ध धर्म के नाम पर केवल भारत में स्थित स्थलों को बढ़ावा देना चाहता है।
नेपाल में लुंबिनी और बौद्ध पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर चीन की संस्था ‘एशिया पैसेफिक एक्सचेंज एंड कोआपरेशन फाउंडेश’ को नेपाल में काफी अहमियत दी जा रही है। काठमांडू में सूत्र बताते हैं कि चीन की इस संस्था से नेपाल के सांस्कृतिक मंत्रालय ने चीनी सरकार के इशारे पर कई समझौते किए हैं। इन समझौतों के तहत यह संस्था भारत के सीमावर्ती इलाकों के पास लुंबिनी क्षेत्र जो भारत के उत्तर प्रदेश के बहराइच, सिद्धार्थनगर, गोरखपुर और महाराजगंज जिलों के करीब है में पर्यटन और इससे संबंधित रोजगार के अवसर को बढ़ावा देने के नाम पर इसे अंतरराष्टÑीय बौद्ध क्षेत्र के रूप में विकसित करेगी। इसी आड़ में यह चीनी संस्था भारत के बेहद नजदीक क्षेत्रों में हवाई अड्डे, होटल, संचार, जल और विद्युत परियोजनाओं पर भी काम करेगी।
नेपाल के प्रमुख माओवादी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड भी इस संस्था के साथ 22 अरब रुपए जुटाने के लिए एक करार कर चुके हैं। चीन ने बौद्ध धर्म के नाम पर भारत के खिलाफ परोक्ष रूप से जंग छेड़ दी है। उससे सजग रहने की जरूरत है। चीन अपने विस्तारवादी रवैए को पूरा करने के लिए हर तरह की रणनीति में माहिर है।( साभार-जनसत्ता-हरीशंकर शाही -बलरामपुर/बहराइच, 23 सितंबर।)

  ऐतिहासिक बलदेवज्यू मंदिर की हालत खस्ता, प्रवेश द्वार से गिरा शिलाखंड
 ओड़िशा के केंद्रपाड़ा जिले के 300 साल पुराने बलदेवज्यू मंदिर के प्रवेश द्वार से दो शिलाखंड गिर पड़े। हालांकि घटना में कोई घायल नहीं हुआ लेकिन यह मंदिर के बेबस हाल को बयां करता है। मध्यकालीन मंदिर के ‘झूलन’ मंडप के प्रवेश द्वार के करीब करीब 30 किलोग्राम के दो शिलाखंड तीन दिन पहले गिर पड़े। यह मंडप श्रद्धालुओं के लिए विश्राम कक्ष के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।
मंदिर न्यास के सदस्य अक्षय पाणि ने कहा, ‘18वीं सदी की शुरुआत में मराठा शासन काल के दौरान मंदिर का निर्माण हुआ था। मंडप तो उसके मुकाबले नया निर्माण है। 60 के दशक के शुरुआत में इसका निर्माण हुआ। रखरखाव में कमी के कारण मंदिर खतरे में है।’ पाणि ने कहा कि राज्य पुरातत्व विभाग के नजरअंदाज करने की वजह से बलदेवज्यू मंदिर की खस्ताहाल स्थिति है। पिछले दो साल से मंदिर जीर्णशीर्ण हालत में है लेकिन संबंधित अधिकारी इसके संरक्षण पर आंखेंं बंद किए हुए हैं। जिला प्रशासन ने राज्य पुरातत्व विभाग का ध्यान इस विरासत मंदिर की संरक्षण परियोजना की ओर दिलाया है।
केंद्रपाड़ा के जिलाधिकारी दुर्गा प्रसाद बेहरा ने कहा, ‘हमनें पुरातत्व विभाग से बिना किसी विलंब के पूर्ण संरक्षण का काम शुरू करने का अनुरोध किया है। विभाग ने 15 दिनों के भीतर काम शुरू करने की प्रतिबद्धता जताई है।’ दो साल पहले, मध्यकालीन मंदिर के पूजास्थल पर बनी दाढी नौती में बड़ी दरार आ गई थी । उसके एक महीने बाद भोग घर का कुछ हिस्सा गिर पड़ा। इन घटनाओं के बाद पुरातत्त्ववेत्ताओं ने वहां का निरीक्षण किया और एक व्यापक संरक्षण परियोजना की घोषणा की गई लेकिन डेढ़ साल बीत जाने के बाद भी जीर्णोंद्धार के तत्काल शुरू होने के आसार नहीं है।( साभार-केंद्रपाड़ा, 23 सितंबर (भाषा)।)

मेला परम्परा- उत्तराखंड की एकता का प्रतीक मशहूर नंदा देवी राज जात मेला
 
नैनीताल के प्रसिद्ध नयना देवी मंदिर प्रांगण में मां नंदा-सुनंदा की युगल मुखाकृति  उत्तराखंड का मशहूर नंदा देवी राज जात मेला धूमधाम से शुरू हो गया है। रविवार २३ सितंबर को ब्रह्म मुहूर्त में वैदिक मंत्रोच्चार के बीच नैनीताल के प्रसिद्ध नयना देवी मंदिर प्रांगण में मां नंदा-सुनंदा की युगल मुखाकृति की विधिवत प्राण प्रतिष्ठा की गई। नंदा-सुनंदा देवी को पारंपरिक वस्त्रों, गहनों और सोने-चांदी के छत्रों से मंडित किया गया।
मां नंदा के दर्शनों व पूजा-अर्चना के लिए पौ फटने से पहले ही नंदा देवी परिसर में श्रद्धालुओं का आना शुरू हो गया था। देवी के दर्शन के लिए सुबह से ही लंबी कतारें लग गई थीं और यह सिलसिला दिन भर जारी रहा। श्रद्धालुओं को देवी के दर्शनों के लिए घंटों कतारों में खड़ा रहना पड़ा। नंदा राज जात मेला तीन दिन चलेगा। 26 सितंबर को मां नंदा-सुनंदा के सुसज्जित डोले को नगर भ्रमण कराया जाएगा।
उत्तराखंड में होने वाले मेलों में नंदा देवी का मेला सबसे बड़ा माना जाता है। यह मेला उत्तराखंड की एकता का प्रतीक है। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन पहाड़ के अनेक स्थानों में लगने वाला नंदा देवी मेला इस अंचल के समृद्ध सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक पक्ष को व्यक्त करता है। नंदा देवी संपूर्ण उत्तराखंड में प्रतिष्ठित और पूज्य हैं।
हिमालय पर्वत अनंतकाल से शिव और पार्वती के निवास स्थान माने गए हैं। पुराणों में एक हिमालय राज का उल्लेख है। पार्वती को हिमालय राज की पुत्री बताया गया है। गिरिजा, गिरिराज किशोरी, शैलेश्वरी और नंदा आदि पार्वती के ही नाम हैं। हिमालय के अनेक शिखरों के नाम भी नंदा के नाम पर हैं। इनमें नंदा देवी, नंदा भनार, नंदा खानी, नंदा कोट और नंदा घुघटी आदि प्रमुख हैं। पौराणिक ग्रंथों में नंदा पर्वत को हिमाद्रि, मेरु, सुमेरु आदि नामों से जाना जाता है। मानसखंड और केदारखंड जैसे ग्रंथों में इसे नंदा देवी के नाम से पुकारा गया है। मानसखंड में नंदा पर्वत को नंदा देवी का निवास स्थान बताया गया है। हिमालय की सबसे ऊंची चोटी नंदा देवी को नंदा, गौरी और पार्वती का रूप माना जाता है। नंदा देवी को शक्ति का रूप माना गया है। शक्ति की पूजा नंदा, उमा, अंबिका, काली, चंडिका, चंडी, दुर्गा, गौरी, पार्वती, ज्वाला, हेमवती, जयंती, मंगला, काली और भद्रकाली के नाम से भी होती है।
उत्तराखंड के राजवंशों में नंदा की पूजा कुलदेवी के रूप में होती आई है। कुमाऊं का राजवंश नंदा देवी को तीनों लोकों का आनंद प्रदान करने वाली शक्ति रूपा देवी के रूप में पूजता था। गढ़वाल के राजाओं ने नंदा देवी को राजराजेश्वरी के नाम से प्रतिष्ठित किया। यही कारण है कि उत्तराखंड में अनेक स्थानों पर नंदा देवी के मंदिर हैं। हर साल नंदा देवी के मेलों से लेकर नंदा देवी लोक जात यात्रा और नंदा राज जात यात्रा के रूप में नंदा देवी को पूजने की एक समृद्ध परंपरा उत्तराखंड में कई सदियों से अनवरत चली आ रही है।
नंदा देवी उत्तराखंड की साझा संस्कृति, समसामयिक चेतना और एकता का प्रतीक हैं। नंदा देवी के निमित्त उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर होने वाले अनेक उत्सवों में पहाड़ की समृद्ध लोक संस्कृति की गहरी जड़ें, धार्मिक विश्वास व परंपराएं जुड़ी हैं। लोकजीवन के आधार स्तंभों पर पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभावों के बावजूद पहाड़ के धार्मिक लोक पर्वों के प्रति यहां के आम लोगों के उत्साह और श्रद्धा में कोई कमी नहीं आई है।( साभार -जनसत्ता-प्रयाग पांडे-नैनीताल, 23 सितंबर।)

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