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Wednesday, July 4, 2012

रामसेतु विवाद घटनाक्रम

    भारत के पौराणिक महत्व तथा करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक रामसेतु पर सेतु समुद्रम परियोजना बनाई गई है। इसमें पौराणिक रामसेतु को तोड़कर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द गिर्द समुद्र में छोटा नौवहन मार्ग बनाए जाने पर केंद्रित है। लेकिन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि सेतुसमुद्रम परियोजना के लिए रामसेतु के अलावा दूसरा मार्ग न तो आर्थिक तौर पर लाभकारी है और न ही पर्यावरण की दृष्टि से ठीक है। सालिसिटर जनरल आर नरीमन ने जस्टिस एचएल दत्तू और सीके प्रसाद की बेंच को यह जानकारी दी।
भौगिलिक स्थिति: भारत के दक्षिण में धनुषकोटि तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिम में पम्बन के मध्य समुद्र में 48 किमी चौड़ी पट्टी के रूप में उभरे एक भू-भाग के उपग्रह से खींचे गए चित्रों को अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (नासा) ने जब 1993 में दुनिया भर में जारी किया तो भारत में इसे लेकर राजनीतिक वाद-विवाद का जन्म हो गया था।
इस पुल जैसे भू-भाग को राम का पुल या रामसेतु कहा जाने लगा। ईसाई या पश्चिमी लोग इसे एडम ब्रिज कहने लगे हैं। रामसेतु का चित्र नासा ने 14 दिसम्बर 1966 को जेमिनी-11 से अंतरिक्ष से प्राप्त किया था। इसके 22 साल बाद आई.एस.एस 1 ए ने तमिलनाडु तट पर स्थित रामेश्वरम और जाफना द्वीपों के बीच समुद्र के भीतर भूमि-भाग का पता लगाया और उसका चित्र लिया। इससे अमेरिकी उपग्रह के चित्र की पुष्टि हुई। वैज्ञानिकों में इस ब्रिज को लेकर विवाद है। कुछ वैज्ञानिक इसे प्राकृतिक ब्रिज मानते हैं तो कुछ इसे मानव निर्मित मानते हैं।

क्या है रामसेतु : नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली-सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु माना जाता है। भारत के दक्षिणपूर्व में रामेश्वरम और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच उथली चट्टानों की एक चेन है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। इसे भारत में रामसेतु व दुनिया में एडम्स ब्रिज के नाम से जाना जाता है। इस पुल की लंबाई लगभग 48 किमी है। यह ढाँचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक दूसरे से अलग करता है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है।
कहा जाता है कि 15वीं शताब्दी तक इस पुल पर चलकर रामेश्वरम से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था, लेकिन तूफानों ने यहाँ समुद्र को कुछ गहरा कर दिया। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया और समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण यह डूब गया।
दूसरी और पुल की प्राचीनता पर शोधकर्ता एकमत नहीं है। कुछ इसे 3500 साल पुराना पुराना बताते हैं तो कछ इसे आज से 7000 हजार वर्ष पुराना बताते हैं। कुछ का मानना है कि यह 17 लाख वर्ष पूराना है।

क्या है सेतु समुद्रम परियोजना: 2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया गया। भारत सरकार सेतु समुद्रम परियोजना के तहत तमिलनाडु को श्रीलंका से जोड़ने की योजना पर काम कर रही है। इससे व्यापारिक फायदा उठाने की बात कही जा रही है।
इसके तहत रामसेतु के कुछ इलाके को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक बनाया जाएगा। इसके लिए सेतु की चट्टानों को तोड़ना जरूरी है। इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा। तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा और तमिलनाडु के कोस्टल इलाकों में कम से कम 13 छोटे एयरपोर्ट बन जाएँगे।
माना जा रहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें, अनुमान है कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे।
मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी ही, संभावना है कि जलपोतों का 22 हजार करोड़ का तेल बचेगा। 19वें वर्ष तक परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2000 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।
परियोजना से नुकसान : रामसेतु को तोड़े जाने से ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि अगली सुनामी से केरल में तबाही का जो मंजर होगा उससे बचाना मुश्किल हो जाएगा। हजारों मछुआरे बेरोजगार हो जाएँगे।
इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रुपए की वार्षिक आय होती है, से लोगों को वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियाँ नष्ट हो जाएँगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भंडार से हाथ धोना पड़ेगा।

सेतु समुद्रम पर सरकार राम की शरण में :भगवान राम ने जहाँ धनुष मारा था उस स्थान को 'धनुषकोटि' कहते हैं। राम ने अपनी सेना के साथ लंका पर चढ़ाई करने के लिए उक्त स्थान से समुद्र में एक ब्रिज बनाया था इसका उल्लेख 'वाल्मिकी रामायण' में मिलता है।
केन्द्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल किए गए एक हलफनामें कहा था कि रामसेतु को खुद भगवान राम ने अपने एक जादुई बाण से तोड़ दिया था, इसके सुबूत के तौर पर सरकार ने 'कंबन रामायण' और 'पद्मपुराण' को पेश किया। सरकार ने रामसेतु के वर्तमान हिस्से के बारे में कहा कि यह हिस्सा मानव निर्मित न होकर भौगोलिक रूप से प्रकृति द्वारा निर्मित है। इसमें रामसेतु नाम की कोई चीज नहीं है।
विवाद का कारण : इससे पूर्व जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने सितंबर 2007 में उच्चतम न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामें में रामायण में उल्‍लेखित पौराणिक चरित्रों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिए थे, जिसे हिंदू भावनाओं को ठेस पहुँचाना माना गया।
एएसआई के हलफनामें में उसके निदेशक (स्मारक) सी. दोरजी ने कहा था कि राहत की माँग कर रहे याचिकाकर्ता मूल रूप से वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास की रचित राम चरित्र मानस और पौराणिक ग्रंथों पर विश्वास कर रहे हैं, जो प्राचीन भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है, लेकिन इन्हें ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं कहा जा सकता और उनमें वर्णित चरित्रों तथा घटनाओं को भी प्रामाणिक सिद्ध नहीं किया जा सकता।
इससे पूर्व अहमदाबाद के मैरीन ऐंड वाटर रिसोर्सेज ग्रुप स्पेस एप्लिकेशन सेंटर ने कहा कि माना जाता है कि एडम्स ब्रिज या रामसेतु भगवान राम ने समुद्र पारकर श्रीलंका जाने के लिए बनाया था, जो मानव निर्मित नहीं है। सरकार और एएसआई ने भी इस मामले में इसी अध्ययन से मिलते जुलते विचार प्रकट किए हैं।
गौरतलब है कि रामसेतु की रक्षार्थ याचिकाकर्ता ने अदालत से रामसेतु को संरक्षित एवं प्राचीन स्मारक घोषित करने का अनुरोध किया था। यह निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया था कि रामेश्वरम को श्रीलंका से जोड़ने वाले सेतु समुद्रम के निर्माण के समय रामसेतु को नष्ट न किया जाए। इस याचिका पर 14 सितम्बर 20007 को उच्चतम न्यायालय में सुनवाई हुई।
सरकारी हलफनामा: विवाद के चलते भारत सरकार ने हलमनामें को वापस लेते हुए 29 फरवरी 2008 को उच्चतम न्यायालय में नया हलफनामा पेश कर कहा कि रामसेतु के मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक बनावट सुनिश्चित करने के लिए कोई वैज्ञानिक विधि मौजूद नहीं है।
इस विवाद के चलते उधर तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार ने रामसेतु को तोड़कर सेतु समुद्रम परियोजना को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए कमर कस ली। हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि खनन गतिविधियों के दौरान रामसेतु को किसी प्रकार का नुकसान नहीं हो, लेकिन इस आदेश का पालन किस हद तक किया जा रहा है यह राज्य सरकार ही बता सकती है।


सरकारी दावे का खंडन : रामकथा के लेखक नरेंद्र कोहली के अनुसार, सरकार यह झूठ प्रचारित कर रही है कि राम ने लौटते हुए सेतु को तोड़ दिया था। जबकि रामायण के मुताबिक राम लंका से वायुमार्ग से लौटे थे, तो सोचे वह पुल कैसे तुड़वा सकते थे। रामायण में सेतु निर्माण का जितना जीवंत और विस्तृत वर्णन मिलता है, वह कल्पना नहीं हो सकता। यह सेतु कालांतर में समुद्री तूफानों आदि की चोटें खाकर टूट गया, मगर इसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
लालबहादुर शास्त्री विद्यापीठ के लेक्चरर डॉ. राम सलाई द्विवेदी का कहना है कि वाल्मीकि रामायण के अलावा कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में राम के आकाश मार्ग से लौटने का वर्णन किया है। इस सर्ग में राम द्वारा सीता को रामसेतु के बारे में बताने का वर्णन है। इसलिए यह कहना गलत है कि राम ने लंका से लौटते हुए सेतु तोड़ दिया था।
भारतीय नौ सेना की चिंता : सेतुसमुद्रम परियोजना को लेकर चल रही राजनीति के बीच कोस्ट गार्ड के डायरेक्टर जनरल आर.एफ. कॉन्ट्रैक्टर ने कहा था कि यह परियोजना देश की सुरक्षा के लिए एक खतरा साबित हो सकती है।
वाइस एडमिरल कॉन्ट्रैक्टर ने कहा था कि इसकी पूरी संभावना है कि इस चैनल का इस्तेमाल आतंकवादी कर सकते हैं। वाइस एडमिरल कॉन्ट्रैक्टर का इशारा श्रीलांकाई तमिल उग्रवादियों तथा अन्य आतंकवादियों की ओर है, जो इसका इस्तेमाल भारत में घुसने के लिए कर सकते हैं।
धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख : वाल्मीकि रामायण कहता है कि जब श्रीराम ने सीता को लंकापति रावण से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्‍वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद माँगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता माँगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया।
डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्रीराम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की।
नल सेतु : वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पाँच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन और चौड़ाई दस योजन थी। रामायण में इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है। नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया था।- (वाल्मीक रामायण-6/22/76)।
वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं कि सेतु बनाने में उच्च तकनीक प्रयोग किया गया था। कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा समुद्रतट पर ले आए ते। कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से सीध में हो रहा था।- (वाल्मीक रामायण- 6/22/62)
गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में वर्णन है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा बताई गई तकनीक से संपन्न हुआ था। महाभारत में भी राम के नल सेतु का जिक्र आया है।
अंन्य ग्रंथों में कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्रीराम के सेतु का जिक्र किया गया है। (वेबदुनिया )http://hindi.webdunia.com/news-national

सेतु समुद्रम परियोजना के लिए वैकल्पिक मार्ग व्यावाहारिक नहीं: रिपोर्ट

   केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि पचौरी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना के लिए पौराणिक राम सेतु को छोड़कर वैकल्पिक मार्ग आर्थिक और पारिस्थितिकी रूप से व्यावहारिक नहीं है।
न्यायमूर्ति एचएल दत्तू और न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की खंडपीठ के समक्ष सॉलिसिटर जनरल रोहिंटन नरीमन ने सोमवार को पर्यावरणविद आरके पचौरी की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति की 37 पेज की रिपोर्ट पेश की। उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट पर अभी केंद्रीय मंत्रिमंडल को विचार कर फैसला लेना है। समिति ने इस परियोजना से जुड़े विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण के आधार पर अपनी रिपोर्ट में कहा है कि राम सेतु को सुरक्षित रखने के इरादे से इस परियोजना के लिए वैकल्पिक मार्ग स्वीकार्य विकल्प नहीं है। यह जनहित में भी नहीं होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि धनुषकोडि के पूर्व से वैकल्पिक मार्ग निकालने का सुझाव आर्थिक और पारिस्थितिकी रूप से व्यावहारिक नहीं है।’
समिति ने गहन विश्लेषण और जोखिम प्रबंधन के महत्व का जिक्र करते हुए वैकल्पिक मार्ग की आर्थिक व्यावहारिकता पर सवाल उठाते हुए कहा है कि इससे पारिस्थितिकी को गंभीर खतरा हो सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद नाजुक इलाके में किसी परियोजना की आर्थिक व्यावहारिकता का पता लगाने के लिए और अधिक विश्लेषण करना होगा। न्यायालय ने संक्षिप्त सुनवाई के बाद इस परियोजना पर स्थिति साफ करने के लिए केंद्र सरकार को आठ सप्ताह का समय दिया।
सेतु समुद्रम परियोजना शुरू  होते ही पौराणिक रामसेतु के संरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई थीं। इन याचिकाओं के कारण ही सेतु समुद्रम परियोजना न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ गई थी। इन याचिकाओं में कहा गया था कि इस परियोजना से पौराणिक महत्व का रामसेतु क्षतिग्रस्त हो सकता है। सेतु समुद्रम परियोजना का उद्देश्य पौराणिक पुल राम सेतु के बीच से रास्ता बनाकर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द-गिर्द समुद्र में छोटा नौवहन मार्ग तैयार करना है। सेतु समुद्रम परियोजना के तहत प्रस्तावित नौवहन मार्ग 30 मीटर चौड़ा, 12 मीटर गहरा और 167 किलोमीटर लंबा होगा।
इस मामले के तूल पकड़ने और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद प्रधानमंत्री ने आरके पचौरी की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया था। न्यायालय ने सरकार से कहा था कि वह पौराणिक राम सेतु को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए वैकल्पिक मार्ग की संभावना तलाशे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में आर्थिक और पारिस्थितिकी बिंदुओं से जुड़े विभिन्न पहलुओं के आकलन के बाद वैकल्पिक मार्ग की व्यवहारिकता पर कई सवाल उठाए हैं। रिपोर्ट में परियोजना के आर्थिक पहलू का विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि वैकल्पिक मार्ग 4-ए के अवलोकन से पता चलता है कि इससे 12 फीसद की दर से आमदनी का लक्ष्य हासिल नहीं हो सकेगा। रिपोर्ट में यह निष्कर्ष भी निकाला गया है कि इससे इसकी व्यावहारिकता पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक राम सेतु के बारे में कहा जाता है कि भगवान राम की बंदर-भालुओं की सेना ने लंका के राजा रावण तक पहुंचने के लिए इस पुल को बनाया था।
केंद्र सरकार ने 19 अप्रैल को राम सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने पर कोई कदम उठाने से इनकार करते हुए न्यायालय से ही इस पर फैसला करने का आग्रह किया था। सरकार ने कहा था कि वह 2008 में दायर अपने पहले हलफनामे पर कायम रहेगी जिसे राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति ने मंजूरी दी थी। इसमें कहा गया था कि सरकार सभी धर्मों का सम्मान करती है। भगवान राम और राम सेतु के अस्तित्व पर सवाल उठाए जाने पर संघ परिवार की नाराजगी के बाद शीर्ष अदालत ने 14 सितंबर 2007 को केंद्र सरकार को 2,087 करोड़ रुपए की परियोजना की नए सिरे से समीक्षा करने के लिए समूची सामग्री के फिर से निरीक्षण की इजाजत दी थी। (नई दिल्ली, 2 जुलाई (भाषा)।)

Thursday, May 24, 2012

उपेक्षा के कारण जर्जर हुआ 350 साल पुराना राधा-कृष्ण का ऐतिहासिक मंदिर

     शाहजहांपुर से करीब 42 किमी दूर पुवायां तहसील के मुड़िया कुमिर्यात गांव में करीब 350 साल पुराना राधा-कृष्ण का मंदिर  है। बावन दरवाजों वाले इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैली है।  जर्जर होते इस मंदिर को मरम्मत की जरूरत है, लेकिन मरम्मत के लिए धन की मांग वाली फाइल पुरातत्व विभाग में धूल फांक रही है।
   यह ऐतिहासिक मंदिर जिला मुख्यालय से करीब 42 किमी दूर है। जिले की सबसे समृद्ध तहसील पुवायां नगर से बंडा रोड पर करीब दस किमी चलने पर जुझारपुर मोड़ पड़ता है। यहीं से पश्चिम के लिए पतली सी पक्की सड़क जाती है। इसी सड़क पर चार किमी दूरी पर है मुड़िया कुमिर्यात गांव। मुड़िया कुमिर्यात से पहले एक गांव और पड़ता है वनगवां। वनगवां से आगे बढ़ते ही मंदिर के विशाल बुर्ज दिखाई देने लगते हैं।
मंदिर अक्सर बंद ही रहता है। मंदिर के पुजारी बिहारी सुबह-शाम यहां पूजा करते हैं। यह मंदिर गांव के ही पुष्कर वर्मा के पूर्वज चूड़ामणि व उनके भाई बुद्धसेन ने करीब 350 साल पहले बनवाया था। यह करीब 13 पीढ़ी पहले की बात है। पुष्कर वर्मा मंदिर से कुछ दूर ही रहते हैं। वर्मा ने बताया कि उनके पूर्वज निगोही के रहने वाले थे। तब लड़ाइयों के कारण राजा पुवायां ने उनके पूर्वजों से मदद मांगी थी। राजा पुवायां ने ही उनके पूर्वजों को मुड़िया कुमिर्यात की रियासत दी थी। पुष्कर वर्मा ने बताया कि मंदिर बनने में 12 साल लगे थे। हर साल भादो में मंदिर में रौनक रहती है। जन्माष्टमी में विशाल मेला लगता है। दूर-दूर से लोग आते हैं। मेला पास ही बाग में लगता है। बाग मंदिर की ही संपत्ति है। मंदिर का परिसर पहले पांच एकड़ का था। लोग मकान बनाते गए और मंदिर का परिसर सिकुड़ कर अब करीब तीन एकड़ रह गया है।
पुष्कर वर्मा के मुताबिक, इस मंदिर पर सच्चे मन से मांगी गई हर मनौती पूरी होती है। जिसकी मनौती पूरी हो जाती है वह अपनी श्रद्धानुसार चांदी का सिक्का चढ़ाता है। मंदिर के फर्श और चौखटों पर लगे अनगिनत चांदी के सिक्के इस बात को प्रमाणित करते हैं। हालांकि चोर यहां से सिक्कों को उखाड़ भी ले जाते हैं। जहां से सिक्के उखड़े हैं, वहां निशान छूट जाते हैं। इसके अलावा गांव वाले अपने धार्मिक उत्सव भी मंदिर में मनाते हैं। मुंडन, बच्चे का मुंहवौर और ऐसे ही दूसरे कार्यक्रम मंदिर में किए जाते हैं। मंदिर के नाम से गांव में दो दिन बाजार भी लगता है। यह मंदिर की ही जमीन है और इससे होने वाली आय मंदिर के कार्यों पर खर्च की जाती है। बुधवार और शनिवार को मंदिर का बाजार लगता है।
राधा-कृष्ण के इस बेमिसाल मंदिर का निर्माण करने वाले कारीगर मुसलिम थे। इन कारीगरों ने बारह साल तक दिन-रात काम करके मंदिर बनाया था। सुर्खी को बड़ी सी चक्की से पीसकर मसाला बनाया जाता था। इसमें 12 अन्य तत्व मिलाए जाते थे। दिन भर में बमुश्किल दस से बारह तसला मसाला ही तैयार हो पाता था। सुर्खी मसाला की मजबूती के कारण आज भी मंदिर ज्यों का त्यों खड़ा है। मंदिर के चारों ओर बेलबूटों की चित्रकारी 350 साल बाद भी बरकरार है।
मंदिर के अंदर की बनावट भूलभुलैया जैसी है। मंदिर में तेरह बुर्ज हैं। 52 दरवाजे हैं। लेकिन सिर्फ दो ही दरवाजे खोले जाते हैं। पूरबी दरवाजे पर मंदिर का मुख्य भाग है। इस दरवाजे के खुलते ही देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के दर्शन हो जाते हैं। यही मंदिर का मुख्य भाग है।
मंदिर में राधा-कृष्ण की पांच फुट ऊंची और करीब 86 किलो बजनी अष्टधातु की संयुक्त प्रतिमा थी। यह प्रतिमा 1988 में चोरी चली गई। करोड़ों की कीमत वाली यह प्रतिमा नहीं मिल पाई। इसके बाद मंदिर में पत्थर की प्रतिमा स्थापित की गई। मंदिर में काले रंग के पत्थर से बनी भगवान विष्णु की भी प्रतिमा है जो काफी प्राचीन है।
350 साल से मंदिर की मरम्मत नहीं की गई है। कई बुर्जों में दरारें पड़ने लगी हैं। मंदिर परिसर के आसपास की इमारत खंडहर बन गई हैं। पुष्कर वर्मा ने इसकी मरम्मत के लिए पुरातत्व विभाग का दरवाजा खटखटाया तो सौंदर्यीकरण के लिए 24 लाख मंजूर हो गया। लेकिन मरम्मत वाली फाइल अभी भी धूल चाट रही है। पुष्कर वर्मा का कहना है बिना मरम्मत के मंदिर का सौंदर्यीकरण कराना बेमतलब है। उन्हें पुरातत्व विभाग से मरम्मत के धन के लिए फाइल की मंजूरी का इंतजार है। ( साभार-जनसत्ता )

Monday, May 7, 2012

महाकवि सूरदास की ऐतिहासिक की साधना स्थली परासौली

   मथुरा से बीस किलोमीटर दूर महाकवि सूरदास की साधना स्थली परासौली को स्थानीय कृष्ण भक्तों ने खंडहरों में तब्दील होने से बचा लिया है, लेकिन हिंदी के विद्वानों और शासन की ओर से की जाने वाली उपेक्षा यहां साफ दिखाई देती है। प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर ने सूरदास के जीवन पर आधारित उपन्यास ‘खंजन नयन’ के अनेक पृष्ठों की रचना परासौली की इसी सूर कुटी में की थी, जहां महाकवि सूर ने 73 साल निवास कर एक लाख पदों वाले कालजयी ग्रंथ ‘सूरसागर’ की रचना की थी। ‘खंजन नयन’ उपन्यास ने साहित्य प्रेमियों में जन्मांध सूरदास की जिंदगी को जानने की प्रबल जिज्ञासा तो पैदा की लेकिन परासौली का दर्द दूर नहीं हुआ।
जानकारी के मुताबिक सन 1478 में जन्मे सूरदास को श्री बल्लभाचार्य आगरा के पास रुनकता से मथुरा लाए थे और परासौली में श्री कृष्ण के जीवन पर पद गायन की प्रेरणा दी थी। सौ साल तक जीने वाले महाकवि का देहांत 1583 में परासौली की इसी कुटिया में हुआ था। सूरदास की इस साधना स्थली पर उस वक्त का वह पीलू का वृक्ष आज भी मौजूद है। महाकवि की अभूतपूर्व कृष्ण भक्ति और उनकी काव्य प्रतिभा के साक्षी पीलू पर ब्रजभाषा के कई कवियों ने कविताएं भी लिखी हैं। पिछले दो दशकों में आगरा और मथुरा के हिंदी विद्वान समय-समय पर सूर की परासौली को सजाने-सवांरने की मांग करते रहे हैं। आगरा विवि के पूर्व कुलपति मंजूर अहमद ने अपने विवि में 1999 में सूर पीठ की स्थापना की लेकिन साधना स्थली परासौली के संरक्षण पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। विवि की सूरपीठ उबड-खाबड़ पड़ी है ।
गोवर्धन के कवियों और संगीतकारों ने सूर की मधुर स्मृतियों को सहेजकर जीवित रखने का संकल्प ले रखा है। ‘सूरदास ब्रज रास स्थली विकास समिति’ के सचिव हरिबाबू कौशिक ने बताया कि सूर और तुलसी की तुलना अंग्रेजी के महान कवि शेक्सपीयर और मिल्टन जैसे कवियों से की जाती है लेकिन साहित्य प्रेमी और सरकार इन महाकवियों की स्मृतियों को सहेजने के प्रति लापरवाह हैं। परासौली की सूर कुटी में आने वाला आगंतुक महाकवि की कृष्ण भक्ति और उनके जीवन से जुड़े किस्से सुन गदगद और भावुक हो उठता है। कहते हैं कि संवत 1626 में सूर और तुलसी जैसे दो महाकवियों का मिलन परासौली की इसी ऐतिहासिक धरती पर हुआ था। परासौली की उस पगडंडी को रमणिक बनाया जा सकता है, जिस पर चल कर सूरदास गोवर्धन पर्वत पर स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर में पद गायन के लिए जाते थे।
Prayer hall shantinikata
पाठ्य पुस्तकों में अष्टछाप के कवियों को साहित्य के छात्र पढ़ते हैं। इनकी स्मृतियां परासौली में कहां-कहां बिखरी पड़ी हैं, इसकी चिंता किसी को नहीं। सूरदास के पदों को देश-विदेश में गाने वाले आकाशवाणी मथुरा के कलाकार हरी बाबू ने बताया कि उनकी संस्था परासौली की जमीन पर किए जा रहे कब्जे के खिलाफ आवाज बुलंद कर रही है। सरकार चाहे तो परासौली को आकर्षक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर सकती है, क्योंकि यहां चंद्रसरोवर नाम का आठ भुजा वाला सरोवर भी है। (साभार-जनसत्ता)
शांति निकेतन- धरोहर की सूची में शामिल कराने की कवायद
 गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की ओर से स्थापित शांति निकेतन को यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में शामिल कराने की कवायद एक बार फिर शुरू की गई है। जुलाई में पेरिस में होने वाली यूनेस्को की बैठक में इसके लिए नामांकन पेश करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ ठाकुर से जुड़ा विश्व प्रसिद्ध संस्थान पिछले साल भी विश्व धरोहर घोषित किए जाने की दौड़ में था। लेकिन अंतिम सूची में स्थान नहीं बना पाया था। विश्व भारती विश्वविद्यालय एक बार फिर इसे विश्व धरोहर की सूची के संभावितों में शामिल करवाने के प्रयास में लगा हुआ है। यूनेस्को नियमों के मुताबिक किसी भी विश्व धरोहर स्थल को एकीकृत कमान के अधीन होना चाहिए। शांति निकेतन के बारे में कहा गया है कि वह इस मापदंड को पूरा नहीं करता है।
संस्कृति मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि भारत और बांग्लादेश इस साल संयुक्त रूप से रवींद्रनाथ ठाकुर की 150वीं जयंती मना रहे हैं। ऐसे समय में अगर ठाकुर से जुड़े इस स्थल को विश्व धरोहर धोषित किया जाता है तो समारोह का महत्त्व और बढ़ जाएगा। पिछले साल की विफलता के बाद संस्कृति मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल सरकार से समन्वय स्थापित कर इस प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की प्रणाली को और दुरुस्त बनाने का प्रयास कर रहा है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के एक अधिकारी ने कहा कि यह उसके अधीन आने वाला स्थल नहीं हैं। हालांकि एएसआई ऐसे स्थलों के लिए शीर्ष एजंसी है। अधिकारी ने कहा कि पुन: मनोनीत करने का प्रस्ताव मिलने पर एएसआई की सलाहकार समिति इसके विभिन्न पहलुओं पर विचार कर मामले को आगे बढ़ाएगा। विश्वविद्यालय की वर्तमान प्रणाली के संबंध में अभी भी कई मुद्दे सुलझाए जाने हैं। अधिकारियों ने उम्मीद जताई कि संशोधन रिपोर्ट समय पर तैयार हो जाएगी। उन्होंने कहा कि इस संबंध में काम को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है। इस विषय पर फिर से आवेदन करने का काम पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है ताकि अगर सब कुछ ठीक रहा तो जुलाई 2012 में पेरिस में यूनेस्को की बैठक में शांति निकेतन को विश्व धरोहर घोषित किया जा सके।
उल्लेखनीय है कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने 1901 में शांति निकेतन की स्थापना की थी। यह कोलकाता से 158 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 20 जनवरी 2010 को यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में शामिल करने के लिए शांति निकेतन का मनोनयन किया था। लेकिन यह विश्व धरोहर नहीं बन पाया। शिक्षा के विशिष्ट माडल, अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और स्थापत्य का नमूना होने के साथ कला और साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए इसे विश्व धरोहर घोषित करने की अपील की गई थी।

नामांकन में कहा गया था कि शांति निकेतन का मानवता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। संस्थान ने 20वीं शताब्दी में धार्मिक और क्षेत्रीय बाधाओं को दूर करते हुए लोगों को जोड़ने का काम किया है। इसको ध्यान में रखते हुए इसे विश्व धरोहर घोषित किया जाना चाहिए। ( भाषा)

Thursday, April 5, 2012

ऐतिहासिक अक्षयवट वृक्ष​​


खबरों में इतिहास
  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए यह ब्लाग  इतिहास की नई खोजों व पुरातत्व, मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित खबरों को संकलित करके पेश करता है। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१- ऐतिहासिक अक्षयवट वृक्ष​​
२- ९०० साल पुराना चीनी मिट्टी का कटोरा
३- नेपाल में कुसुंडा भाषा की एकमात्र वारिस..
४- डायनासोर के लिए सबसे बड़ा खतरा थी जंगल की आग
५- जल में रहते थे डायनोसोर!
६- यूरोप में डायनासोर की सबसे बड़ी खोपड़ी बरामद

ऐतिहासिक अक्षयवट वृक्ष​​
​hindi.webdunia.com/1100629062_1.htm
इलाहाबाद स्थित अकबर के किले में एक ऐसा वट है जो कभी यमुना न‍दी के किनारे हुआ करता था और जिस पर चढ़कर लोग मोक्ष की कामना से नदी में छलांग लगा देते थे। इस अंधविश्वास ने अनगिनत लोगों की जान ली है। शायद यही कारण है कि अतीत में इसे नष्ट किए जाने के अनेक प्रयास हुए हालाँ‍कि यह आज भी हरा-भरा है। यह ऐतिहासिक वृक्ष किले के जिस हिस्से में आज भी स्थित है वहाँ आमजन नहीं जा सकते पर इसे अक्षयवट कहते हैं। यूँ तो अक्षयवट का जिक्र पुराणों में भी हुआ है पर वह वृक्ष अकबर के किले में स्थित यही वृक्ष है कि नहीं, यह कहना आसान नहीं।

इस वृक्ष को सातवीं शताब्दी में व्हेनत्सांग की यात्रा के संस्मरण को आधार बनाकर इतिहासकार वाटर्स ने 'आदमखोर वृक्ष' की संज्ञा दी है। संभवत: इस वृक्ष से कूदकर आत्महत्या करने की प्रवृत्ति के मद्देनजर उसे यह नाम दिया गया होगा। सन 1030 में अलबरूनी ने इसे प्रयाग का पेड़ बताते हुए लिखा कि इस अजीबोगरीब पेड़ की कुछ शाखाएँ ऊपर की तरफ और कुछ नीचे की तरफ जा रही हैं। इनमें पत्तियाँ नहीं हैं। इस पर चढ़कर लोग नदी में छलाँग लगाकर जान दे देते हैं। 11वीं शताब्दी में समकालीन इतिहासकार मेहमूद गरदीजी ने लिखा है कि एक बड़ा सा वट वृक्ष गंगा-यमुना तट पर स्थित है, जिस पर चढ़कर लोग आत्महत्या करते हैं।

13वीं शताब्दी में जामी-उत-तवारीख के लेखक फजलैउल्लाह रशीउद्दीन अब्दुल खैर भी इस पेड़ पर चढ़कर आत्महत्याएँ किए जाने का जिक्र करते हैं। अकबर के समकालीन इतिहासकार बदायूनी ने भी लिखा है कि मोक्ष की आस में तमाम काफिर इस पर चढ़कर नदी में कूदकर अपनी जान देते हैं। जिस समय अकबर यहाँ पर किला बनवा रहा था तब उसकी परिधि में कई मंदिर आ गए थे। अकबर ने उन मंदिरों की मूर्तियों को एक जगह इकट्‍ठा करवा दिया। बाद में जब इस स्थान को लोगों के लिए खोला गया तो उसे पातालपुरी नाम दिया गया। जिस जगह पर अक्षयवट था वहाँ पर रानीमहल बन गया। हिंदुओं की आस्था का ख्याल रखते हुए प्राचीन वृक्ष का तना पातालपुरी में स्थापित कर दिया गया।

आज सामान्य जन उसी अक्षयवट के दर्शन करते हैं जबकि असली अक्षयवट आज भी किले के भीतर मौजूद है। अक्षयवट को जलाकर पूरी तरह से नष्ट करने के ‍प्रयास जहाँगीर के समय में भी हुए लेकिन हर बार राख से अक्षयवट की शाखाएँ फूट पड़ीं, जिसने वृक्ष का रूप धारण कर लिया। वर्ष 1611 में विलियम फ्रिंच ने लिखा कि महल के भीतर एक पेड़ है जिसे भारतीय जीवन वृक्ष कहते हैं। मान्यता है कि यह वृक्ष कभी नष्ट नहीं होता। पठान राजाओं और उनके पूर्वजों ने भी इसे नष्ट करने की असफल कोशिशें की हैं। जहाँगीर ने भी ऐसा किया है लेकिन पेड़ पुनर्जीवित हो गया और नई शाखाएँ निकल आईं। व्हेनत्सांग जब प्रयाग आया था तो उसने लिखा - नगर में एक देव मंदिर है जो अपनी सजावट और विलक्षण चमत्कारों के लिए विख्‍यात है। इसके विषय में प्रसिद्ध है कि जो कोई यहाँ एक पैसा चढ़ाता है वह मानो और तीर्थ स्थानों में सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ चढ़ाने जैसा है और यदि यहाँ आत्मघात द्वारा कोई अपने प्राण विसर्जन कर दे तो वह सदैव के लिए स्वर्ग में चला जाता है।

मंदिर के आँगन में एक विशाल वृक्ष है जिसकी शाखाएँ और पत्तियाँ बड़े क्षेत्र तक फैली हुई हैं। इसकी सघन छाया में दाईं और बाईं ओर स्वर्ग की लालसा में इस वृक्ष से गिरकर अपने प्राण दे चुके लोगों की अस्थियों के ढेर लगे हैं। यहाँ एक ब्राह्मण वृक्ष पर चढ़कर स्वयं आत्मघात करने को तत्पर हो रहा है। वह बड़े ओजस्वी शब्दों में लोगों को प्राण देने के लिए उत्तेजित कर रहा है परंतु जब वह गिरता है तो उसके साधक मित्र नीचे उसको बचा लेते हैं। वह कहता है, 'देखो, देवता मुझे स्वर्ग से बुला रहे हैं परंतु ये लोग बाधक बन गए।' वर्ष 1693 में खुलासत उत्वारीख ग्रंथ में भी इसका उल्लेख है कि जहाँगीर के आदेश पर इस अक्षयवट को काट दिया गया था लेकिन वह फिर उग आया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी अक्षयवट को नष्ट करने संबंधी ऐतिहासिक तथ्यों में सत्यता पाते हैं और उसे सही भी ठहराते हैं। वह मानते हैं कि इस तरह के अंधविश्वास लोगों में नकारात्मक विचार भरते हैं, उन्हें जीवन से विमुख करते हैं। यह वृक्ष अपनी गहरी जड़ों के कारण बार-बार पल्लवित होकर हमें भी जीवन के प्रति ऐसा ही जीवट रवैया अपनाने की प्रेरणा देता है न कि अनजानी उम्मीदों में आत्महत्या करने की।९

९०० साल पुराना चीनी मिट्टी का कटोरा
http://www.bbc.co.uk/hindi/china/2012/04/120405_china_bowl_auction_vd.shtml
चीन में सौंग वंश का एक पुराना कटोरा 267 लाख डॉलर (करीब 139 करोड़ रुपए) में नीलाम हुआ है. लगभग 900 साल पुराना ये सिरेमिक यानी चीनी मिट्टी का कटोरा सौंग वंश का था और इसे हॉंगकॉंग में सूदबीज ने नीलाम किया.फूल के आकार में ढला ये कटोरा बेहद दुर्लभ है. इसे जापान के खरीददार ने लिया जिसने अपनी पहचान नहीं बताई और फोन पर बोली लगाई. सूदबीज एशिया के उप चेयरमैन निकोलस चाउ ने कहा, "शायद ये चीज़ सौंग वंश की सबसे महान कलाकृति है जिसे हमने हॉंगकॉंग में नीलाम किया है." ऐसा अनुमान है कि दुनिया में अब केवल 79 पूरी तरह से सुरक्षित सिरेमिक की कलाकृतियाँ मौजूद है जिसमें सिर्फ पांच निजी हाथों में हैं. नीलामी के अधिकारियों को इस कलाकृति से मिली राशि पर हैरानी हुई है. बिक्री से पहले इसकी जितनी कीमत लगाई गई थी, ये उससे तीन गुणा कीमत में बिकी. न्यूयॉर्क और लंदन के बाद हॉंग कॉंग एक मशहूर नीलामी केंद्र के रूप में उभरा है. संवाददाताओं का कहना है कि इसकी कीमत ये बताती कि एशिया का कला बाजार कितना मजबूत है और इसमें पिछले दस सालों में बड़ा विकास देखा गया है.

नेपाल में कुसुंडा भाषा की एकमात्र वारिस..
http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2012/04/120403_kusunda_sb.shtml
फर्ज़ कीजिए कि एक सुबह आप उठें,अपने आस पास के लोगों से बातचीत करना चाहें लेकिन कोई आपकी भाषा समझ ही ना पाए. उलझन की बात है ना फिर सोचिए उस शख़्स का क्या हाल होगा जिसकी बोली बोलने और समझने वाला पूरे देश में ही कोई ना हो.
ये कोरी कल्पना नहीं नेपाल की 75 वर्षीय ग्यानी मेइया सेन के जीवन का सच है.ग्यानी कुसुंडा भाषा बोलती हैं जिसे बोलने वाली वो नेपाल की अकेली जीवित नागरिक हैं और इसी वजह से भाषा वैज्ञानिकों के आकर्षण का केन्द्र भी. कुछ समय पहले तक पुनी ठाकुरी और उनकी बेटी कमला खेत्री नेपाल में कुसुंडा भाषा बोलने वाला दूसरा परिवार था लेकिन पुनी ठाकुरी की मौत औऱ कमला के देश छोड़ने के बाद नेपाल में फिलहाल कुसुंडा भाषा परिवार का अस्तित्व टिका है सिर्फ ग्यानी पर.
नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में भाषा-विज्ञान के प्रोफेसर माधव प्रसाद पोखरेल इस मृतप्राय भाषा को बचाने की मुहिम में लगे हैं.पोखरेल ने बीबीसी को बताया "दुनिया भर में बोली जाने वाले 20 भाषा परिवारों में सबसे अलग है. कुसुंडा भाषा की किसी भी अन्य भाषा परिवार से कोई समानता नही है. ये एक विशेष भाषा परिवार की नुमाइंदगी करती है."
भाषाविदों की अपील है कि इस विशिष्ट भाषा को बचाया जाए वरना ये बहुत जल्द नष्ट हो जाएगी. इसके लिए सरकार से भी गुज़ारिश की गई है.उधर सरकारी अधिकारियों की दलील है कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी ही नहीं है कि ये भाषा बोलने वाले कितने लोग जीवित हैं. नेपाल के केन्द्रीय सांख्यिकीय ब्यूरो में निदेशक रूद्र सुवल कहते हैं " 2001 की जनगणना के मुताबिक़ कुसुंडा बोलने वाले 164 लोग जीवित हैं जबकि 2011 की जनगणना के अंतिम आंकडो़ का अभी इंतज़ार है."

डायनासोर के लिए सबसे बड़ा खतरा थी जंगल की आग
http://www.samaylive.com/science-news-in-hindi/146074/dinosaurs-forest-fires-scientists-greenhouse.html
वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि करोड़ों साल पहले धरती पर मौजूद रहे डायनासोर के लिए जंगल में लगने वाली आग भी एक बड़ा खतरा था.
जीवाश्म रिकॉर्ड में चारकोल यानी लकड़ी के कोयले की मात्रा का विश्लेषण करने वाले वैज्ञानिकों ने पाया कि 14.5 और 6.5 करोड़ साल की अवधि के बीच के ‘क्रिटेसियस पीरियड’ के दौरान जंगलों में इतनी आग लगती थी जितना इंसानों ने सोचा भी नहीं था. शोधकर्ताओं ने उक्त अवधि के दौरान के चारकोल का एक वैश्विक डेटाबेस तैयार कर लिया. ‘लाइव साइंस’ में लंदन की रॉयल हॉलोवे यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और प्रमुख शोधकर्ता एंड्रयू स्कॉट के हवाले से कहा गया ‘‘चारकोल उन पेड़ों के अवशेष हैं जो जल चुके थे और इन्हें जीवाश्म रिकॉर्ड में आसानी से सहेज लिया गया.’’
वैज्ञानिकों ने कहा कि जंगल में लगने वाली आग की कई वजहें हो सकती हैं. वायुमंडल में ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण उस वक्त तापमान भी बहुत अधिक होता था. ऑक्सीजन की अत्यधिक मात्रा से प्राचीन वायुमंडल भी भरा होता था और इससे आग को भड़कने में मदद मिलती है. कुसुंडा भाषा परिवार और इसे बोलने वालों की सरकारी सहायता के लिए लगातार मांग उठ रही है लेकिन नेपाल में फ़िलहाल इस दिशा में कोई प्रगति होती दिखाई नहीं दे रही है.

जल में रहते थे डायनोसोर!
 वैज्ञानिकों का लंबे समय से यह दावा रहा है कि सभी डायनोसोर जमीन पर रहते थे। कुछ विशालकाय पक्षी भले ही जल में गोते लगाते थे लेकिन वे महासागर , झील या नदियों में नहीं रहते थे। अब, इन सबसे उलट एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने एक भिन्न सिद्धांत का दावा किया है । उनका कहना है कि डायनोसोर इतने बड़े और भारी थे कि सूखी भूमि पर उनका रह पाना मुश्किल था और वे अवश्य ही जल में रहते होंगे। प्रोफेसर ब्रायन जे फोर्ड के मुताबिक, दशकों तक जैसे वैज्ञानिक समझते रहे वैसे ये प्रागैतिहासिक जीव रहते ही नहीं थे। उनका मानना है कि इन जीवों की पूंछ इतनी विशाल और भारी भरकम थी कि इस कारण उनका शिकार कर पाना या चपलता से चल पाना भी मुश्किल था। फोर्ड ने कहा कि डायनोसोर अवश्य ही जल में रहते होंगे जहां का वातावरण उनकी विशालता का सफलतापूर्वक साथ देता होगा। (एजेंसी)​
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यूरोप में डायनासोर की सबसे बड़ी खोपड़ी बरामद
http://khabar.ibnlive.in.com/news/70087/9
 स्पेन के जीवाश्मिकी फाउंडेशन ने यूरोप में मिली डायनासोर की अब तक की सबसे बड़ी जीवाश्म खोपड़ी पेश की है। समाचार एजेंसी ईएफई के अनुसार, यह खोपड़ी 14 करोड़ 50 लाख वर्षो पहले पृथ्वी पर पाए जाने वाले टूरिएसॉरस रिओडेवेंसिस प्रजाति के सॉरोपोड डायनासोर की है, जो 30 मीटर से भी अधिक लम्बा और 40 टन वजनी हुआ करता था।
तेरुएल डायनोपोलिस फाउंडेशन की जीवाश्मिकी प्रयोगशाला में बीते बुधवार को डायनासोर की जो खोपड़ी दिखाई गई, उसमें 35 से अधिक हड्डियां और सात दांत हैं। ये अवशेष रिओदेवा नगरपालिका में बेरीहोंडा-एल हुमेरो से वर्ष 2005 के खुदाई अभियान के दौरान मिले थे।
शोधकर्ताओं के अनुसार इस प्रजाति के डायनासोर की खोपड़ी बहुत नाजुक होती थी। यही वजह है कि ये कम मिलती है। अब तक मिले इस प्रजाति के डायनासोरों के अवशेषों में से प्रत्येक पांच में चार की खोपड़ी नहीं है। एक विज्ञान पत्रिका 'सिस्टेमैटिक पालेओंटोलॉजी' की रपट के मुताबिक, करीब 30-35 मीटर लंबे टूरिएसॉरस रिओडेवेंसिस प्रजाति के डायनासोर आईबेरियन द्वीप में पाए जाते थे। विशालकाय सॉरोपोड के अवशेष अब तक दक्षिण अमेरिका में अर्जेटीनोसॉरूस, उत्तरी अमेरिका में सेइसमोसॉरूस, अफ्रीका में गिराफाटिटन और पारालिटिटन, एशिया में मामेंचिसॉरूस और यूरोप में टूरिएसॉरस से बरामद किए गए हैं।

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