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Wednesday, May 12, 2010

अविवाहित थे तुलसी दास ?

खबरों में इतिहास: भाग-७
अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१-क्या अविवाहित थे तुलसी दास ?
२-बत्तीस सौ साल पुराना किला

अविवाहित थे तुलसी दास ?

 पिछले कई दशकों से तुलसी के जन्म स्थान के विवाद को हल करने में जुटे सनातन धर्म परिषद के अध्यक्ष स्वामी भगवदाचार्य ने कहा कि हिंदी साहित्य के इतिहास में कुछ तथ्यों पर भ्रम बना हुआ है। उन्होंने कहा कि मध्य युग में तुलसी नाम के चार साहित्यकार पैदा हुए। पहले तुलसी गोण्डा जनपद के सूकरखेत राजापुर ग्राम में पैदा हुए, जिन्होने रामचरित मानस समेत 12 ग्रंथों की रचना की। दूसरे तुलसी एटा जिले के सोरों में हुए, तीसरे तुलसी हाथरस जिले में पैदा हुए और चौथे तुलसी बलरामपुर जिले के वर्तमान तुलसीपुर तहसील के देवीपाटन गांव में पैदा हुए थे, जिन्होंने जानकी विजय, गंगा कथा, लवकुश कांड और हनुमान चालीसा की रचना की। उन्होंने कहा कि इतिहासकार इन चारों रचनाकारों की जीवन गाथा को भिन्न-भिन्न समझने की बजाए इन्हें एक ही तुलसीदास समझने की भूल कर बैठे, जिससे मानस के रचियता तुलसीदास के बारे में अनेक भ्रांतियां पैदा हो गर्इं। उन्होंने कहा कि हमें इन चारो तुलसीदास को अलग-अलग रूप में जानने कोशिश करने का प्रयास करना होगा।

स्वामी भगवदाचार्य के अनुसार मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास(1556-1605) सम्राट अकबर महान के समकालीन थे। उन्होंने कहा कि एक अकबर द्वितीय भी हुआ, जो शाह आलम द्वितीय का पुत्र था। उसका समय 1806 से 1837 था। अकबर द्वितीय के समय में लिखे गए गजेटियर में जिस तुलसी का उल्लेख है, वह राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास नहीं थे। उन्होंने कहा कि बांदा के जिला गजेटियर में उल्लेख है कि तुलसी यमुना पार करके आए और यहां उन्होंने साधना की। इससे यह सहज साबित हो जाता है कि कोई तुलसी नाम का विद्वान वहां गया होगा, लेकिन वहां वह पैदा कोई नहीं हुआ। इंपीरियल गजेटियर आफ इंडिया, कलकत्ता के अनुसार तुलसी ने बांदा जिले में राजापुर ग्राम बसाया था। इससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस नाम के गांव को किसी ने बसाया हो, वह उसी नाम के गांव में पैदा कैसे हो सकता है?

मानस लिखने वाले तुलसीदास का जन्म स्थान गोण्डा जनपद का राजापुर गांव ही असली जन्म स्थान होने बारे में कुछ अकाट्य तथ्य प्रस्तुत करते हुए स्वामी भगवदाचार्य ने कहा कि राजस्व अभिलेखों में यहां पर आत्मा राम के नाम एक टेपरा गोचर भूमि आज भी दर्ज है। आत्मा राम दुबे, गोस्वामी जी के पिता का नाम बताया जाता है। ये सरयूपारी ब्राह्मण थे। इस गोत्र के ब्राह्मण सरयू नदी के आसपास इसी इलाके में ही पाए जाते हैं। यहीं पर पसका के निकट सरयू और घाघरा नदियों के संगम पर सूकरखेत भी है। गोस्वामी जी के गुरु नरहरि दास का आश्रम भी पास में ही है। गोस्वामी जी ने अपनी रचनाओं में अवधी भाषा का प्रयोग किया है। उनकी एक रचना है राम लला नहछू। नहछू नामक संस्कार केवल अवध क्षेत्र में ही प्रचलित है। यह प्रदेश के किसी अन्य हिस्से में नहीं होता है। इस रचना के गीत गोण्डा तथा आसपास के जनपदों में आज भी विवाह के अवसरों पर उसी भाषा में गाए जाते हैं।

डॉ भगवदाचार्य के मुताबिक श्रीराम चरित मानस के बालकांड में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सो सूकर खेत। नहिं समझेउ कछु बाल मन तब मैं रहेंउ अचेत। अर्थात बाल्यकाल में उन्होंने सूकरखेत स्थित गुरु नरहरिदास के आश्रम में आकर शिक्षा प्राप्त की और बहुत दिन तक यहां रहे भी। उन्होंने इन संदर्भों का हवाला देते हुए यह सवाल उठाया कि बाल्य काल में कोई बालक अकेले बांदा जिले से गोण्डा तक कै से आ सकता है। निश्चित रूप से वह स्थान गोण्डा जिले का राजापुर गांव ही है, जहां से सूकरखेत स्थित गुरु नरहरि दास की कुटी चंद कदमों की दूरी पर है। सभी विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि उनकी माता का निधन बचपन में ही हो गया था। उनका लालन-पालन चुनिया नाम की एक महिला ने किया था। कुछ दिनों बाद उनके पिता की मृत्यु भी हो गई और इस तरह वे एक अनाथ बालक की तरह भटकते हुए नरहरिदास के आश्रम पर आ गए थे। उन्होंने कहा कि अपनी रचनाओं में गोस्वामी जी ने पौराणिक स्थलों का छोड़कर मौजूदा नाम वाले किसी भी शहर के नाम का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन उन्होंने बहराइच का उल्लेख जरूर किया है, जो गोण्डा के बगल में ही है।

स्वामी भगवदाचार्य ने कहा कि पिछले साल लखनऊ विश्वद्यिालय के हिंदी विभाग की ओर से आयोजित राष्टÑीय संगोष्ठी में भी बहुमत से यह सिद्ध हुआ कि बांदा और एटा का दावा निराधार है। उन्होंने कहा कि इससे पहले दिसंबर 2005 में काशी विद्यापीठ वाराणसी में आयोजित चौथे विश्व तुलसी सम्मेलन में भी सर्वसम्मति से यही प्रस्ताव पारित किया गया कि गोस्वामी तुलसीदास की जन्मस्थली राजापुर (सूकरखेत) गोण्डा ही है। उन्होंने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास को अविवाहित साबित करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। उन्होंने कहा कि तुलसी नाम के जो चार साहित्यकार हुए, उनमें से सोरों और बलरामपुर में जन्मे तुलसी दास की पत्नियों का नाम रत्नावली था। स्वामी भगवदाचार्य के मुताबिक मानसकार तुलसी आजीवन अविवाहित और एकांत साधक रहे। स्वामी भगवदाचार्य ने सूकरखेत (राजापुर)को पर्यटन स्थल घोषित करने, तुलसीदास के नाम पर एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करने और एक पुलिस चौकी कायम करने की मांग की है।

सर्वमान्य कथा तुलसीदास के बारें में जो हम जानते हैं, उसका अवलोकन इस लिंक से करें। हिंदी विकीपीडिया ने इसे विस्तार से छापा है।

गोस्वामी तुलसीदास [१४९७ (१५३२?) - १६२३] एक महान कवि थे। उनका जन्म राजापुर, (वर्तमान बाँदा जिला) उत्तर प्रदेश में हुआ था। अपने जीवनकाल में तुलसीदासजी ने १२ ग्रन्थ लिखे और उन्हें ...


32 सौ साल पुराना निकला जाजमऊ टीला


    कानपुर को लखनऊ से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 25 पर स्थित जाजमऊ के विशाल प्राचीन टीले की खुदाई में सैकड़ों वर्ष पुराने पुरातात्विक अवशेष मिले हैं। अवशेष ने जाजमऊ की पूर्व अनुमानित प्राचीनता [लगभग 600-700 ईसा पूर्व] को लगभग 600 वर्ष और पीछे [लगभग 1200-1300 ईसा पूर्व] खिसका दी है। इस तरह 3200 साल पुराना टीला माना जा रहा है।

उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व निदेशालय के निदेशक राकेश तिवारी के अनुसार यहा चार साल से उत्खनन कार्य चल रहा था। खुदाई में लगभग दो हजार उत्तरी चमकदार पालिश वाले पात्र [बर्तन], पुराने सैकड़ों सिक्कों का जखीरा, बर्तन बनाने में प्रयोग किया जाने वाला पकी मिट्टी से बना ब्राह्माी लेखयुक्त [पुरानी लिपि] उपकरण तथा कच्ची और पकी ईटों से निर्मित मौर्य और पूर्व मौर्य कालीन इमारतों के अवशेष मुख्य रूप से पाए गए हैं।

गंगा के किनारे वाले हिस्से में डा. राजीव कुमार त्रिवेदी द्वारा कराये गये उत्खनन में एक अत्यन्त चमकदार पात्र में रखे चांदी के सिक्कों का जखीरा मिला है। इन सिक्कों पर सूर्य, चक्र, वेदिका में वृक्ष, अर्ध चन्द्र, मेरु [पर्वत] आदि चिन्ह अंकित हैं। यह जखीरा दुर्लभ उपलब्धि है। पुरातात्विक खुदाई में ऐसा जखीरा पहली बार मिला है। तिवारी के अनुसार जाजमऊ के उत्खनन से अस्थि-निर्मित तीखे बाणाग्र [तीर के आगे हिस्सा], पकी मिट्टी और उप रत्‍‌नों से बनी गुड़िया [मनके], मिट्टी और शीशे के कई कंगन, मिट्टी के खिलौने और मूर्तिया, मुद्रा-छाप [सीलिंग], धातु-उपकरण, मिट्टी के बने विभिन्न तरह के बर्तनों के टुकड़े, सोप स्टोन से बने पात्र [बर्तन] व और उनके ढक्कन, पकी मिट्टी की सुसज्जित चकरियों [डिस्क] के तमाम उदाहरण समकालीन इतिहास के महत्वपूर्ण स्त्रोत होंगे।

Friday, April 23, 2010

1857 की लोककथाएं

  १८५७ की आजादी की जंग की खासियत यह रही कि इसके शहीद देशभक्तों को लोगों के दिलों में देवतुल्य जगह मिली। उनके बारे में तमाम लोककथाएं भी प्रचलित हो गईं। दुर्भाग्य से ऐसी लोककथाओं में से कुछ का ही संकलन हो पाया है। ऐसी ही कुछ लोककथाएं का अवलोकन करिए ।

शहाबपुर के बाबा

इलाहाबाद से २५ किमी. दूर लखनऊ मार्ग पर हथिगहां के पास एक गांव है - शहाबपुर, जहां हिन्दू मुसलमान, नीची जाति, मध्य जाति के लोग बहुतायत में रहते हैं। यहीं आम के एक बाग में एक मिट्टी का ऊंचा स्थान ( देवस्थान) बना है जिसे गांव के लोग संग्राम बाबा का स्थान कहते हैं। वहां कुछ अगरबत्तियां, कुछ धूपदीप - कुछ जलते हुए - कुछ बुझे मिल जाएंगे। गांव के लोग जब भी कोई शुभ कार्य करते हैं तो संग्राम बाबा के स्थान पर पूजा करते हैं। वे खेती के दिनों में, खेतों में बेहन डालने के पहले संग्राम बाबा की पूजा करते हैं। तालाब में मछली डालने के पहले संग्राम बाबा के स्थान पर चढ़ावा चढ़ाते हैं। जब भी कोई आम का बाग खरीदता है तो संग्राम बाबा को खस्सी काट कर चढ़ाता है। शहाबपुर एवं आसपास के लोगों का विश्वास है कि ऐसा करने से खेतों में फसल अच्छी होगी, तालाब में खूब मछलियां जन्म लेंगी, पेड़ों पर खूब आम आयेंगे। कई बार यहां गांव की औरतें एवं पुरुष गवनई करते मिल जाएंगे। यह संग्राम बाबा कौन हैं? गांव के लोग इनकी कहानी यूं बयान करते हैं...।

सन्‌ अट्ठारह सौ सत्तावन की एक काली रात थी। अंग्रेजों की सेना का इलाहाबाद और उसके आसपास के क्षेत्रां पर कब्जा हो चुका था। उनकी तोपों , बंदूकों एवं संगीनों के डर से आदमी तो आदमी, पशु पक्षी भी डरने लगे थे। रातों में झींगुर तक बोलने से डरते थे। चिड़ियां अपने घोसलों में दुबक कर रहती थीं।

ऐसी ही एक रात को इलाहाबाद के पास के बेली गांव के कुछ लोगों ने जिनमें हिन्दू भी थे और मुसलमान भी , अंग्रेजों का खजाना लूट लिया। खजाना ही जब उनके पास नहीं रहेगा तो कहां से आयेगी और रसद, रसद नहीं रहेगी तो अंग्रेजों के पांव उखड़ जाएंगे। खजाना अगर नहीं रहेगा तो सैनिकों को वेतन कहां से मिलेगा और वेतन नहीं मिलेगा तो सैनिक अपने आप ही विद्रोह कर देंगे। ऐसा सोचने वाले ये लोग, लखनऊ की तरफ, लखनऊ जाने वाले रास्ते से भाग निकले। अंग्रेजी सेना उनका चारों तरफ से पीछा करने लगी। वे भागते हुए शहाबपुर पहंचे, जहां वे एक बड़े किसान संग्राम सिंह जिन्हें लोग राजा कहते थे, के यहां पहुंचे। संग्राम सिंह ने उन विद्रोहियों को अपने यहां शरण दी तथा इन सबको अपने खजाने की रसीद काट कर दी कि यह पैसा अंग्रेजों का न होकर मेरे खजाने का है। शरण में पहुंचे विद्रोहियों को इन्होंने अपने गांव में बसा भी लिया। अंग्रेज अधिकारी कर्नल चैपमैन, जिसको इस क्षेत्रा के विद्रोहियों के दमन की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, अपनी सेना लेकर शहाबपुर पहुंचा और संग्राम सिंह के किले को चारों तरफ से घेर लिया। किले के चारों तरफ उन पासियों की बस्ती थी जो संग्राम सिंह की सेना में शामिल थे। उस पासी बस्ती के लोगों ने चैपमैन की सेना पर चाकू, लाठी, भाला, बल्लम और छोटे हथियारों से आक्रमण किया। दो दिन तक अंग्रेजों की सेना उनसे जूझती रही। उसके बाद उन्हें परास्त कर किले के करीब पहुंच गयी। किले के भीतर संग्राम सिंह के सैनिकों ने लालमिर्च का धुंआ चारों तरफ फैला दिया - जिसके कारण अंग्रेजी सेना भाग गयी। संग्राम सिंह अपनी टुकड़ी के साथ, किले से जैसे ही बाहर निकले, वैसे ही गांव जवार के ढेर सारे लोग उनके साथ उनकी सेना में आ मिले। इन लोगों ने पचदेवरा के जंगल में जाकर मोर्चा लिया, जहां एक काली मां का प्रसिद्ध मंदिर भी है, जिसे संग्राम सिंह ने बनवाया था। गांव के लोग बताते हैं कि महाभारत की लड़ाई की तरह अट्ठारह दिन यहां लड़ाई चली, उसके बाद संग्राम सिंह इस युद्ध में शहीद हुए। अंग्रजों ने उनका सर धड़ से अलग कर दिया।

गांव के लोगों के अनुसार संग्राम सिंह १०-१२ फुट के अत्यंत बलिष्ठ जवान थे जिनकी गर्दन मोटी थी और सर बहुत बड़ा था। जब कर्नल चैपमैन उनका कटा सर लेकर इलाहाबाद पहुंचा तो , जज ने जो इलाहाबाद में विद्रोहियों को सजा देने के लिए नियुक्त किया गया था, कहा कि ये इतने बलिष्ठ जवान थे, इनको मार कर नहीं लाना चाहिए था, इन्हें बंदी बना कर लाना चाहिए था। बाद में गांव वालों के अनुसार उनका वही सर लाकर, शहाबपुर के बाग में अंतिम संस्कार किया गया जहां पर आज संग्राम बाबा का स्थान है। गांव वाले बताते हैं तभी से संग्राम बाबा गांव के देवता हो गये। एक दिन गांव वालों को सपना आया कि मरने के बाद भी वे दुखों एवं कष्टों से बचायेंगे तथा सुख समृद्धि देंगे।

बाद में अंग्रेजों ने पुरस्कार स्वरूप चैपमैन को शहाबपुर की जमींदारी दे दी। उसने संग्राम सिंह के किले को ध्वस्त कर दिया एवं उसके ऊपर अपना शानदार किला बनवाया जो आज भी गांव में मौजूद है। चैपमैन ने उस टीले के आसपास रहने वाली पासी जाति को हटा कर वहां से १०-१२ किमी. दूर, उनकी एक अलग बस्ती बसायी जिसे पसियाना कहा जाता है। गांव के लोग बताते हैं कि चैपमैन इन पासियों से बहुत डरता था। क्योंकि उसे लगता था कि वे संग्राम सिंह की सेना में थे, अतः कभी भी वे उस पर रात बिरात आक्रमण कर सकते हैं।

कहते हैं कि बाद में चैपमैन अपनी यह जमींदारी मध्य उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ के राजा को बेच कर इंग्लैण्ड चला गया। यह घटना सर्वप्रथम शालिगराम श्रीवास्तव की पुस्तक ÷ प्रयाग प्रदीप' ( हिन्दुस्तानी एकेडमी, १९३७) में अत्यंत संक्षिप्त रूप में वर्णित है।

माधो भइया

आजमगढ़ जिले के कई गांवों में आपको एक लोकगीत सुनने को मिल सकता है , माधो भइया, कुंवर के साथ निकलते भइया, अंग्रेजन के करेजवा हिलवते ये भइया। ये माधो भइया कौन हैं। इस लोकगीत में कहा जाता है कि आजमगढ़ में माधो भइया ने कुंवर सिंह के साथ मिल कर अंग्रेजों को परास्त किया। अगर इस गीत में कुंवर सिंह का जिक्र है तो जरूर यह १८५७ से जुड़ा लोकगीत होगा। बहुत सम्भव है कि ये माधव भइया, माधव सिंह हों।

कहते हैं कि आजमगढ़ की १७वीं सेना के सिपाही माधो सिंह जिले के पहले साहसी आदमी थे जिन्होंने सन्‌ १८५७ की क्रांति की प्रथम गोली चला कर हचिन्सन को मौत के घाट उतार दिया। बताया जाता है कि इन्होंने इस जिले में क्रांति की शुरुआत की। अंग्रेजों ने इन्हें पकड़ने के लिए दो हजार रुपये का इनाम घोषित किया था। यहां के क्रांतिकारियों ने माधो सिंह के नेतृत्व में एक घोषणापत्रा जारी किया था , जिसे ÷ आजमगढ़ घोषणापत्रा' के नाम से भी जाना जाता है, जिसमें कहा गया था -

विदेशियों के विरुद्ध संघर्ष करने में अपने मतभेदों को खत्म कर दें। सभी लोगों को यह मालूम होना चाहिए कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही की पुरानी किताबों और ज्योतिषियों, पंडितों की गिनती से भी स्पष्ट हो गया है कि अंग्रेजों का भारत से अधिकार खत्म हो गया है। इसलिए सभी के लिए यह जरूरी है कि वे ब्रिटिश दासता में रहना अस्वीकार कर दें।''

जिस समय लखनऊ में युद्ध चल रहा था , उस समय आजमगढ़ क्षेत्रा में विद्रोहियों ने ब्रिटिश सेना के विरुद्ध मार्च १८५८ में पुनः अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया। इससे कुंवर सिंह को आजमगढ़ होते हुए शाहाबाद स्थिति अपने गृहस्थान जगदीशपुर जाने तथा एक बार फिर अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा को कायम करने का अवसर मिला। इस समय आजमगढ़ की रक्षा में ३७वीं रेजिमेण्ट के २८६ सिपाही, मद्रास घुड़सवार सेना के ६० सिपाही तथा ३७वीं सेना के ही कर्नल मिलमैन के नेतृत्व में दो तोपें मौजूद थीं। इस बीच अंग्रेजों को इस बात की गुप्त सूचना मिली थी कि आजमगढ़ में बलवाई एकत्रित हो रहे हैं। बताया जाता है कि कुंवर सिंह के सिपाही १७ मार्च को आजमगढ़ जिले के अतरौलिया पहुंच गये। २० मार्च को कर्नल मिलमैन दो सौ से लेकर तीन सौ सिपाहियों के साथ आजमगढ़ के कोयसला स्थान पर आ गया। दूसरे दिन मिलमैन भारतीय स्वाधीनता सेनानियों पर आक्रमण करने के लिये बढ़ा। पहली मुठभेड़ में भारतीय सिपाही पीछे हट गये। लेकिन जब अंग्रेज एक स्थान पर बैठ कर नाश्ता कर रह थे, तभी अचानक क्रांतिकारियों के आक्रमण करने की सूचना उन्हें मिली। अंग्रेज पीछे हट गये और विद्रोही उन्हें आजमगढ़ तक पीछे धकेल ले गये। इस युद्ध में मिलमैन को अपनी तोपें तथा युद्ध के अन्य सामान वहीं छोड़ कर भागना पड़ा।

इस बीच कुंवर सिंह माधो भइया के साथ मिल कर अपनी एक हजार फौजों और ढाई हजार समर्थकों के साथ २४ मार्च १८५८ को आजमगढ़ से १० मील दूर मंदौरी पहुंचे। इस समय वे अपनी पूरी ताकत में थे और उनका इस पूरे इलाके पर सम्पूर्ण अधिकार था। इसी समय कुंवर सिंह एवं माधो सिंह की फौजों को एक और जीत हासिल हुई , जब उनके सैनिकों ने २७ मार्च १८५८ को गाजीपुर से आने वाली कर्नल डैम की फौज को हरा दिया। इसमें दो सौ सिपाही थे। यह युद्ध २४ मार्च १८५८ को हुआ था। कुंवर सिंह एवं माधो सिंह ने अपनी अग्रिम, मुख्य फौज को, जिसमें कई तोपें थीं, अतरौलिया गांव भेज दिया, जो आजमगढ़ से २० मील की दूरी पर है। अब आजमगढ़ पर कुंवर सिंह के सैनिकों का कब्जा हो गया था, इसकी पुष्टि बनारस के कमिश्नर की ओर से इलाहाबाद के सरकारी सचिव के नाम २७ मार्च को भेजे गये तार संदेश से होती है। इसमें कहा गया था - करीब चार हजार बलवाइयों ने बिना किसी रोक टोक के आजमगढ़ में कल प्रवेश किया। वहां पर एक हजार सिपाही बंदूकों के साथ हैं, जिनमें दो गोरखा सैनिक हैं। बनारस के अफसर कमांडिंग ने भी भारत सरकार के सैनिक सचिव को २७ मार्च को ही जो तार भेजा था उसमें भी कहा गया था - कल दोपहर को बलवाइयों ने बिना किसी विरोध के आजमगढ़ पर अधिकार कर लिया। शत्रओं की संख्या चार हजार बतायी जाती है तथा तीन हजार और पीछे से आ रहे हैं। मैं समझता हूं कि गाजीपुर को तत्काल खतरा पैदा हो सकता है और इसके साथ ही जौनपुर और अंत में बनारस को भी। जौनपुर की फौज बनारस भेजी जानी चाहिए, क्योंकि बनारस पर आक्रमण की स्थिति में इस समय वहां कोई फौज नहीं है। तोपों के मामले में भी हम विशेष रूप से कमजोर हैं। केवल दो तोपें ही हैं।

कार्ल मार्ककेर ने अपनी रेजिमेण्ट के ३७३ सिपाहियों और १९ अफसरों के साथ मार्च के अंतिम दिनों में आजमगढ़ के लिये प्रस्थान किया। आजमगढ़ में मार्ककेर और कुंवर सिंह एवं माधो सिंह की संयुक्त सेना के बीच हुआ युद्ध लड़ाइयों के इतिहास में अपना मुख्य स्थान रखता है। कर्नल मार्ककेर के नेतृत्व में उसकी सेनाएं ६ अप्रैल को प्रातः विद्रोहियों के मोर्चे की ओर आगे बढ़ीं। मार्ककेर ने देखा कि काफी संख्या में लोग एक इमारत और आम के बगीचे में एकत्रा हैं जो सड़क के बायीं ओर था। सड़क के दायीं और भी खाइयों में अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिये लोग छिपे हैं , उसने मैदान में अपनी पैदल सेना को भेजा। विद्रोहियों ने खाइयों के दूसरी ओर भी मोर्चाबंदी कर ली। इसी बीच उनके अन्य साथियों ने सड़क के दूसरे किनारे से गोलाबारी शुरू कर दी। इस पर मार्ककेर ने भी अपने तोपचियों को गोलाबारी करने का आदेश दिया। वे सब इमारत पर गोला बरसाने लगे जहां पर काफी संख्या में विद्रोही छिप कर युद्ध कर रहे थे। इतना होने पर भी विद्रोही आत्मसर्मपण करने अथवा पीछे हटने के लिए तैयार नहीं थे। उनमें से अनेक आम के पेड़ पर चढ़ गये और उनकी शाखाओं से उन्होंने बंदूकों से गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। उनकी सेना मार्ककेर के रसद पहुंचाने के रास्ते को काट देना चाहती थी। अंत में मुख्य द्वार पर एक छोटी सी दरार नजर आयी, लेकिन इसके बाद भी एक दीवार थी, जहां पर विद्रोही मोर्चा लिये हुए थे। अंग्रेजों ने तोपों से फिर गोलाबारी की, इससे दीवार गिर गयी। मार्ककेर इस पर पुनः आक्रमण करना चाहता था, लेकिन उसने देखा कि इमारत को क्रांतिकारियों ने खाली कर दिया है।

अंगे्रजों ने देखा कि दोनों दीवारों के बीच तीन फुट ऊंची जवानों की लाशें पड़ी हैं। इस तरह से आजमगढ़ के स्वतंत्राता प्रेमियों ने अपने बलिदान से इस संघर्ष को अंत तक चलाया और उन्होंने पीछे हटने का नाम न लिया। इतना घोर युद्ध करने के बाद ही अंगे्रज सेना आजमगढ़ के अंदर जाने में सफल हो सकी।

यह कहानी १३.०७.२००५ को आजमगढ़ जनपद के मझौवा गांव में इंद्रावती , रामाशीष तथा आजमगढ़ शहर के हीरा लाल की स्मृतियों तथा उदयनारायण सिंह की पुस्तिका वीर कुंवर सिंह, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९९ पर आधारित है।



सात समंदर पार सन्‌ सत्तावन की कथा

दक्षिण अमेरिका में एक देश है जिसका नाम है सूरीनाम। सूरीनाम की राजधानी है परामारिबों। सूरीनाम समुद्र के किनारें हरियाली और जंगलों से भरा एक देश है , जहां जाने के लिये लगभग सत्तर घंटे का दिल्ली से हवाई सफर करना पड़ता है। सन्‌ १८२० में दास प्रथा की समाप्ति के बाद औपनिवेशिक देशों को अपने खेतों एवं बागानों का काम करने के लिये श्रमिकों की जरूरत पड़ी थी। ऐसे में १८३६ के बाद भारत के भोजपुरी अंचलों से बड़े पैमाने पर लोग शर्तबंदी गिरमिटिया मजदूर बना कर ले जाये गये। ये लोग यहां से कलकत्ता ले जाये जाते थे, वहां से दक्षिण अफ्रीका, फिर उन्हें विभिन्न उपनिवेशों में भेजा जाता था। सूरीनाम, डच समाज का एक उपनिवेश था, वहां पर गन्ना, कोका, चावल इत्यादि की खेती होती थी। डच उपनिवेशों का अंग्रेज उपनिवेशों से समझौता था। इसी काम के तहत २८००० भारतीय लोगों को ले जाया गया जिनमें १४००० लोग लौटे और १४००० सूरानाम में ही बस गये। ऐसे ही प्रवासी भोजपुरी लोगों का एक परिवार जो पारामारिबों में रहता है उसके एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग रामदेव राम किशुन अपने दादा के भारत से यहां आने का कारण बताते हैं -

भारत में बड़ी गरीबी थी , बार बार अकाल पड़ता था, सन्‌ १८५७ के विद्रोह के बाद अंगे्रज, गांव के गांव तबाह करने लगे थे, वे अपनी तोपों से गांवों के लोगों को उड़ाने लगे थे। इमारतें नष्ट करने लगे थे, हिन्दू मंदिरों को भी नहीं छोड़ा। ऐसे में लोग भाग कर कहीं भी चले जाना चाहते थे, जहां शांति हो। रामकिशुन बताते हैं कि हमारे गांव का नाम नगवां था। वह तब गाजीपुर जिले में पड़ता था, सुनते हैं अब बलिया जिला हो गया है। नगवां के ही मंगल पांडे थे, जिन्होंने १८५७ में अंग्रेजों पर गोली चलायी थी। हमारे बाबा बताते थे कि अंग्रेजों ने गांव पर सात सौ रुपये का जुर्माना लगाया था, जिसे बड़ी ही सख्ती से वसूला। सामूहिक जुर्माना की वसूली के लिये अंग्रेजों ने सात बार इस गांव को लूटा, इसीलिए भाग कर यहां आ गये कि चाहे जितना दुःख होगा, ऐसा दुःख कहीं नहीं होगा। बाबा बताते थे मंगल पांडे को अंग्रेजों ने फांसी दी, मंगल पांडे शिव के भक्त थे।

बाबा गांव को बहुत याद करते थे , बताते थे कि जब हम लोग गांव छोड़ कर आये थे, तब लगभग ३००० आबादी थी। अधिकतर पांडे बिरादरी के थे जिनके पास जमीन थी। यहां चीनी तैयार करने की मिल और करघे चला करते थे। १८५७ के बाद मंगल पांडे का परिवार भी कहीं राजस्थान भाग गया था। राम किशुन बताते हैं कि उस समय ऐसे अनेक परिवार अंग्रेजों के दमन से घबड़ा कर मारीशस, सूरीनाम जैसे देशों में आ गये थे।

गोविन्द वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान द्वारा संचालित - विदेशिया परियोजना के अंतर्गत सूरीनाम के लोगों से किये गये साक्षात्कारों पर आधारित।

बूढ़े बरगद की आत्मकथा

मैं बूढ़ा बरगद हूं। १८५७ के आंदोलन का जीवंत इतिहास मैं अब अत्यंत बूढ़ा हो चुका हूं। अत्यंत जर्जर। मेरी शाखाएं टूट चुकी हैं। सच मानो ये मेरी मात्रा शाखाएं नहीं वरन्‌ अस्थियां हैं , जो जमीन पर गिर कर ढेर बन चुकी हैं।

रोज मेरे सामने से हजारों लोग गुजरते हैं लेकिन कोई मेरी तरफ देखता भी नहीं। चिड़ियां चुरगुन भी अब मेरे पास नहीं आतीं। गिलहरी डालों पर छलांगें नहीं लगाती। मैं अतीत के दंश से ग्रसित एक पेड़ हूं जिस पर सन्‌ सत्तावन के विद्रोह में एक सौ तैंतीस लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था। अंग्रेजों के हुकुम पर उनके सिपाही घोड़ों से बांध कर स्वाधीनता आंदोलन के क्रांतिकारियों को घसीटते हुए लाते, रस्सी का फंदा बनाते, उनकी गर्दन बांधते और उनके प्राण निकल जाने की प्रतीक्षा करते। उसके बाद घसीटते हुए उन्हें गंगा नदी तक ले जाते और जानवरों की तरह कही फेंक देते। उसमें ज्यादातर दलित व पिछड़ी जाति के लोग होते जो दिहाड़ी के मजदूर वे लोग थे, जो स्वतंत्राता प्राप्ति की आग में जल जाना चाहते थे। लेकिन आपको पता है कि मेरी डालों पर जिन एक सौ तैंतीस लोगों को लटकाया गया था, उनका नाम आज इतिहास में कहीं नहीं हैं।

मैं यह बात इसलिए कहा रहा हूं , क्योंकि मैं केवल जड़, तना व पत्तियों से युक्त वटवृक्ष नहीं हूं। बल्कि भारत के इतिहास का साक्षी हूं। मैंने अनगिनत वसंत व पतझड़ देखे। ४ जून १८५७ का वह दिन जब मेरठ से उठी आजादी की चिंगारी कानपुर में शोला बन पहुंची तो मैंने नाना साहब की अगुवाई में तात्या टोपे की वीरता देखी, रानी लक्ष्मी बाई का बलिदान देखा और अजीमुल्ला खां की शहादत देखी। मुझे वह दिन भी याद है जब बैरकपुर छावनी में मेरे ही सहोदर एक वटवृक्ष पर लटका कर क्रांति के अग्रदूत मंगल पांडे को फांसी दी गयी। आपको पता है देश की आजादी के दीवानों पर क्रूर एवं दमनपूर्ण कहर ढाये जाने से मेरी जड़ें तक हल गयीं।

लेकिन उस दिन मैं भीतर से बिलकुल ही टूट गया जब एक सौ तैंतीस गरीब , दलित, पिछड़ी जाति के देशभक्तों को अंग्रेजों ने मेरी शाखाओं पर ही सामूहिक फांसी दी। उनकी गर्दन को मेरी शाखाओं पर ही बांध कर लटका दिया गया। उस दिन मैं थर्राया, बहुत चिल्लाया, चीखते चीखते मेरा गला रुंध गया, आंखों के आंसू रो रो कर सूख गये। वह रोमांचकारी दर्द भरी दास्तान याद आते ही मैं कराह उठता हूं।

आज मेरे चारों तरफ झाड़ उग आये हैं , खरपतवार उग आये हैं। न यहां कोई नमन करता है, न श्रद्धा के आंसू ही बहाता है। न मंदिरों जैसी घंटियों की घनघनाहट है, न जलती हुई अगरबत्तियों के धुंए से निकलती सुगंधित मलय गंध, न पुष्प बहार - बस एक एकांत है एक उदासी है और शहीदों के सीने पर कूदते अंग्रेजों के घोड़ों के टापों की आवाज। मैं बूढ़ा बरगद हूं। इतिहास के सीमांत पर पड़ा।

यह कहानी दलित लेखक श्री के. नाथ ने आर्य नगर , कानपुर में दिनांक २४ जनवरी, २००७ को बतायी, यही कहानी प्रसिद्ध बरगद वृक्ष के नीचे, नाना पेशवा पार्क, कानपुर की शिलापट्टि पर भी अंकित है।

गंगू बाबा

बिठूर के आसपास के गांव में बूढ़ी औरतें अपने नाती पोतों को एक कहानी सुनाती हैं - गंगू बाबा की कथा' ।गंगू बाबा यहीं आसपास के किसी गांव के रहने वाले एक युवक थे। वे इतने बलशाली थे कि बहती नदियों की धारा मोड़ देते थे। पहाड़ों का सर तोड़ देते थे। दो दो शेरों से एक साथ लड़ लेते थे। वे जितने वीर थे उतने दी दयालु। किसी को भूखा देख अपनी रोटी तक उसे खिला देते थे। कोई अगर जाड़े में कांप रहा हो तो उसे अपना कम्बल तक दे देते थे। कहते हैं कि अगर रात में हिरणें रोतीं तो वे उनके दुख से विह्नल हो जाते और शेरों का सीना तोड़ देते थे। निचली जाति में जन्मे एवं गरीब परिवार से सम्बध रहने पर भी गांव जेवार में उनका बहुत सम्मान था। बड़े बड़े जमींदार भी अपने आसनों से उठ कर उन्हें गले लगाते थे।

एक बार वे जंगल से शेर मार कर अपनी पीठ पर लाद कर आ रहे थे। तभी बिठूर के राजा नानाराव पेशवा ( नाना साहब) अपनी सेना लेकर उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने ऐसा वीर एवं साहसी युवक शायद ही कहीं देखा हो जो शेर को मार कर उसे पीठ पर लाद कर निर्भय हो चलता हो। उन्होंने गंगू बाबा को रोका एवं कहा - क्या तुम मेरी सेना में शामिल हो सकते हो?'' गंगू बाबा यह सुन कर बहुत खुश हुए और नाना साहब की सेना में शामिल हो गये। यह वही वक्त था जब नाना साहब ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंक दिया था। उनकी सेना में रहते हुए गंगू बाबा ने एक बार अकेले ही अपनी तलवार से डेढ़ सौ अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया था। इस नाते वे अंग्रेजों को खटकने लगे। काफी प्रयास के बाद अंग्रेज अत्यंत जबरदस्त घेराबंदी कर गंगू बाबा को पकड़ पाये थे। फिर उन निर्दयियों ने उन्हें रस्सी से घोड़े के पीछे बांध दिया था और घसीट कर बिठूर से कानपुर तक लाये थे। कानपुर लाकर चुन्नीगंज में नीम की डाल पर लटका कर फांसी दे दी गयी थी।

बिठूर के आसपास गंगू बाबा की कथा कहने वाली इन औरतों को शायद यह पता न हो कि कानपुर के चुन्नीगंज में गंगू बाबा की एक मूर्ति लगी है , जिसे गरीब दलितों ने आपस में एक एक पैसा इकट्ठा कर बनाया है।

यह कहानी १० जनवरी , २००७ की सुबह १२ बजे एक बूढ़ी औरत भगवंती देवी तथा दलित लेखक के. नाथ द्वारा मुझे सुनायी गयी थी, जो उत्तर भारत के जिला कानपुर देहात के दुआरी गांव के रहने वाले हैं। (शोध , संकलन एवं अध्ययन : बद्री नारायण )

बांग्ला बुद्धिजीवियों की दृष्टि में १८५७ की जनक्रांति

१८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

१८५७ का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रितानी शासन के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनीं क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुई परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रुप ले लिय़ा। इस विद्रोह के अन्त में ईस्ट इंडिया कम्पनी का भारत में शासन समाप्त हो गया और ब्रितानी सरकार का प्रत्यक्ष शासन आरम्भ हो गया जो अगले ९० वर्षों तक चला।
विस्तार से पढ़ने के लिए यहां क्लिंक करिए..........।
 

१८५७ की स्मृति में तीन संग्रहालय
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत तीन ऐसे संग्रहालय हैं जहां प्रथम स्वाधीनता संग्राम-1857 से संबंधित दस्तावेज और स्मृति चिह्न संरक्षित हैं । ये हैं - 1857, मेमोरियल संग्रहालय, लखनऊ, मुमताज महल संग्रहालय, लाल किला, नई दिल्ली और स्वतंत्रता संग्राम संग्रहालय, दिल्ली ।


1857 मेमोरियल संग्रहालय

यह संग्रहालय लखनऊ में रेजीडेंसी भवन के एनेक्सी में स्थापित किया गया है । इस भवन के भग्नावशेष हमें लखनऊ में 1857 की महान क्रांति की याद दिलाते हैं और ये इसी स्थिति में हैं, जिसमें वे वर्ष 1920 में केन्द्रीय सुरक्षा में आये थे । इस संग्रहालय की डिजाइन, 1857 के स्वाधीनता संघर्ष का विहंगम दृश्य प्रस्तुत करने लायक बनाया गया है और इसमें रेजीडेंसी माडल, पुरानी तस्वीरें, चित्र, दस्तावेज, बंदूक, कवच, रैंक बेज आदि 511 वस्तुएं हैं । यह संग्रहालय तस्वीरों, अश्मलेखों और चित्रों के माध्यम से 1857 की क्रांति को एक सिलसिलेवार ढंग से प्रदर्शित करता है । लखनऊ के रणनीतिक स्थलों, 1857 की क्रांति के केन्द्र, आदि के मानचित्र भी हैं । एक नई वीथिका भी तैयार की गयी है, जिसमें रेजीडेंसी परिसर के दक्षिणी हिस्से से खुदाई में मिले अवशेष प्रदर्शित किए गए हैं ।

मुमताज महल संग्रहालय, दिल्ली

इस संग्रहालय में प्रथम स्वाधीनता संग्राम, 1857 से संबंधित 42 सामान है, जिसमें मानचित्र, अश्मलेख, चिट्ठियां, चित्र, अभिलेख, पटौदी के नवाब और बहादुरशाह जफर द्वारा इस्तेमाल हथियार तथा दिल्ली पर कब्जे के दौरान जनरल जे निकोलसन द्वारा इस्तेमाल फील्ड ग्लास आदि शामिल हैं ।

स्वतंत्रता संग्राम संग्रहालय, दिल्ली

इसकी स्थापना लाल किला के अंदर एक दो मंजिला बैरक में 1995 में की गयी । प्रथम स्वाधीनता संग्राम में लाल किला का खास महत्व था । यह संग्रहालय 1857 की क्रांति के पूर्व की स्थिति से लेकर प्रथम स्वाधीनता संग्राम तथा 15 अगस्त, 1947 तक के स्वाधीनता आंदोलन की व्यापक तस्वीर पेश करता है । इसमें 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से जुडे अश्मलेख, हथियार , पत्र आदि 14 चीजें हैं ।भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण प्राचीन स्मारक पुरातत्व स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 के प्रावधानों के तहत इन संग्रहालयों का प्रबंधन एवं विकास संभालता है ।

Monday, April 19, 2010

मिस्र में मिली 14 ममी


   मिस्र के पुरातत्वविदों ने मिस्र की राजधानी काहिरा से कुछ 300 किलोमीटर दूर रेगिस्तान में नक्काशीदार प्लास्टर में 14 ताबूतों को खोज निकाला है। इनमें से एक ताबूत एक महिला का है। 

इस खुदाई का नेतृत्व करने वाले महमूद अफीफी का कहना है कि यह बहरिया ओएसिस में पाई गई रोमन शैली की पहली ममी है। यह ग्रीको रोमन समय की 14 कब्रों की खोज का हिस्सा है। महमूद अफीफी ने कहा कि यह एक अनोखी खोज है और प्रारंभिक परीक्षा इस ताबूत के अंदर एक ममी के होने का संकेत दे रही है। यह ताबूत केवल 3 फुट यानि 1 मीटर लंबा है और एक ऐसी महिला को दर्शाता है जिसने एक लंबा अंगरखा, सर पर स्कार्फ, कंगन, मोतिओं का हार और जूते पहने है। ताबूत में आँखों की जगह पर जड़े रंगीन पत्थरों की उपस्थिति से ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह महिला जाग रही हो।

अफीफी ने कहा कि दफनाने की यह शैली इस बात के संकेत देती है कि इसे मिस्र के रोमन शासन के समय दफनाया गया था। यह शासन कई ईसा पूर्व 31वी शताब्दी से शुरू हो कर कई सौ सालों तक चला था। यह ताबूत ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी का हो सकता है। 

बड़े घराने की ममी : ताबूत के इतने छोटे होने के कारण यह सन्देह जताया जा रहा था कि यह किसी बच्चे का हो सकता है। लेकिन ताबूत पर की गई सजावट और गहनों को देख कर तो यही लगता है कि यह किसी महिला का है। उन्होंने कहा कि आम तौर पर मरने के बाद ममी अपना आकार बदलती हैं और छोटी हो जाती हैं, लेकिन यह भी हो सकता है कि यह महिला बेहद छोटी थी।

फिलहाल यह तो नहीं कहा जा सकता है कि यह ताबूत किस महिला का है, पर यह निश्चित है कि यह महिला किसी बड़े घराने की थी। इसीलिए उसके ताबूत पर इतनी मेहनत से नक्काशी की गई है। उन्होंने यह भी बताया की छोटे कद ी लोगों के ममी पहले भी मिस्र में पाए गए हैं। वे स्थानीय धर्मों के महत्वपूर्ण लोगों के रहे हैं।

पुरातत्वविदों को सोने का एक टुकडा भी मिला है जिस पर मिस्र के भगवान होरस के चार बेटों की तस्वीरें बनी हैं। इसके इलावा कई काँच और मिट्टी के बर्तन और कुछ धातु के सिक्के भी पाए गए हैं। इन सिक्कों की भी जाँच की जा रही है। इस से इस बात की पुष्टि की जा सकेगी कि यह किस समय के हैं। (एजेंसियाँ)

Monday, March 15, 2010

ऐतिहासिक इमारतों व विरासत स्थलों के संरक्षण का नया कानून

    ऐतिहासिक इमारतों और विरासत स्थलों से अतिक्रमण खत्म कर उनका प्रभावी संरक्षण करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय इमारत प्राधिकरण के गठन का प्रावधान करने वाला एक महत्त्वपूर्ण विधेयक सोमवार १५ मार्च को लोकसभा ने पारित कर दिया।

कानून मंत्री एम वीरप्पा मोइली ने विधेयक पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए कहा कि भविष्य में ऐतिहासिक महत्त्व की इमारतों, पुरातत्व महत्त्व के स्थानों और विरासत स्थलों की सुरक्षा और उनके संरक्षण में यह विधेयक उचित दिशा में उठाया गया सकारात्मक कदम है। उन्होंने कहा कि हर ऐतिहासिक संरक्षित इमारत या स्थल के सौ मीटर के दायरे को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित किया गया है और यहां कोई भी निर्माण कार्य प्रतिबंधित रहेगा। केवल स्वच्छता सहित मूलभूत सुविधाओं का उन्नयन किया जा सकेगा। किसी भी इमारत के 200 मीटर के दायरे को विनियमित क्षेत्र माना जाएगा, जिसे केंद्र सरकार अलग-अलग इमारतों के मामले में बढ़ा भी सकती है।

मोइली ने कहा कि राष्ट्रीय इमारत प्राधिकरण का गठन किया जाएगा, जिसमें पुरातत्व विज्ञान, विरासत क्षेत्र के विशेषज्ञ शामिल होंगे। इसमें किसी न्यायाधीश को नहीं रखा गया है, केवल विशेषज्ञ रखे गए हैं। यह प्राधिकरण इमारतों और विरासत स्थलों का वर्गीकरण और ‘ ग्रेडिंग’ करेगा। इसके साथ ही सदन ने प्राचीन स्मारक व पुरातत्वीय स्थल एवं अवशेष (संशोधन एवं विधिमान्यकरण) विधेयक 2010 को ध्वनिमत से पारित कर दिया,, जो इस बारे में सरकार की ओर से जारी अध्यादेश की जगह लेगा।

मोइली ने कहा कि देश का चरित्र उसकी संस्कृति से प्रतिबिंबित होता है। अपरिहार्य परिस्थितियों में ही अध्यादेश लाना पड़ता है। हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट में कई मुकदमे चल रहे थे और सुप्रीम कोर्ट में विशेष अवकाश याचिका तत्काल दायर नहीं की जा सकती थी क्योंकि शीर्ष अदालत चार जनवरी 2010 को खुलनी थी इसलिए अंतत: अध्यादेश लाना पड़ा।

उन्होंने कहा कि सभी सक्षम प्राधिकरण, चाहे वे केंद्र के हों या राज्य के, इसी राष्ट्रीय इमारत प्राधिकरण के तहत कार्य करेंगे। सार्वजनिक महत्त्व की अनिवार्य परियोजनाओं को विनियमित इलाकों में परिचालित करने की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन इसके लिए प्राधिकरण से अनुमति लेनी होगी। यह प्राधिकरण पूर्णतया स्वायत्तशासी होगा और विधेयक में दंडात्मक प्रावधान भी किए गए हैं। इसके अलावा एक विशेषज्ञ सलाहकार समिति भी बनाई जाएगी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को काफी कम धन आबंटित होने की सदस्यों की चिंताओं पर मोइली ने कहा कि केंद्रीय बजट का केवल 0.12 फीसद ही इमारतों के संरक्षण के लिए मिल पाता है इसलिए उचित बजटीय प्रावधान की जरूरत है। मैं योजना आयोग से आग्रह करूं गा कि वह राज्य सरकारों के अधीन आने वाली इमारतों के लिए भी उचित अनुदान सुनिश्चित करे। उन्होंने कहा कि साथ ही विरासत स्थलों और ऐतिहासिक इमारतों पर पर्यावरण प्रदूषण के खतरों का भी आकलन होना चाहिए। भारतीय विरासत स्थलों की स्थिति के बारे में व्यापक रपट बननी चाहिए ताकि राष्ट्रीय कार्ययोजना बनाई जा सके।

विधेयक में जमीनी हकीकतों को ध्यान में रखते हुए हरेक स्मारक के बारे में प्रतिबंधित और विनियमित क्षेत्रों के बारे में अलग से घोषणा किए जाने और साथ ही इन क्षेत्रों में सार्वजनिक कार्य और सार्वजनिक परियोजनाओं की अनुमति देने के बारे में शर्तांे के आधार पर घोषणा करने के लिए सिफारिशें करने के लिए एक या अधिक विशेषज्ञ सलाहकार समिति के गठन का प्रावधान किया किया गया है।

राष्ट्रीय महत्त्व के प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारकों और पुरातात्विक महत्त्व के स्थलों और अवशेषों के संरक्षण के लिए 1958 में प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष कानून बना था। समय बीतने के साथ ही कानूनी प्रावधानों का कार्यान्वयन, खासतौर पर स्मारकों और स्थलों के आसपास के क्षेत्रों में आबादी के बढ़ते दवाब के कारण कठिन हो गया है जो स्मारकों की सुरक्षा और संरक्षा के लिए हानिकारक है। (भाषा)।

Friday, March 5, 2010

क्या है मिस्र के पिरामिडों के भीतर ?

खबरों में इतिहास ( भाग-6)
अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। इस अंक में पढ़िए----।

१-क्या है मिस्र के पिरामिडों के भीतर
२-राजा तूतनखामन का रहस्य
३-Secrets of Egypt's Lost Queen
४-पिरामिड का जादुई प्रभाव
५-डायनासोरों को खा जाने वाला साँप
६-नष्ट हो रहे हैं ऐतिहासिक साक्ष्य ?
७-नष्ट हो रही है हजारों साल पुरानी सभ्यता

क्या है मिस्र के पिरामिडों के भीतर ?

मिस्र की राजधानी काहिरा के पास गीज़ा के पठार के नज़दीक तीन बड़े पिरामिडों का समूह है. इनमें से सबसे बड़ा 'हाफ़ू का पिरामिड' है जिसे देखने दुनिया भर से पर्यटक आते हैं. सभी ने अपने जीवन में पिरामिड के बार में बहुत कुछ पढ़ा होता है और उनमें बहुत कुछ और जानने और देखने की उत्सुकता होती है. लेकिन पिरामिड के अंदर की दुनिया कैसी होती है यह अभी तक रहस्य बना हुआ है. साढ़े चार हज़ार साल पुराने गीज़ा पिरामिड को लगभग एक लाख लोगों ने मिलकर 30 साल में खड़ा किया था.
पुरातत्वविदों व वैग्यानिकों ने रहस्यमय गीजा के पिरामिडों के भीतर की दुनिया जानने की कोशिश कर दी है। इसके तहत एक रोबोट ने पिरामिड के बाहरी दरवाज़े में तो छेद बना दिया लेकिन इसके बाद खड़े एक और दरवाज़े के सामने घुटने टेक दिए. 'पिरामिड रोवर' नाम के इस रोबोट में एक छोटा सा कैमरा लगा था. वैज्ञानिक इस कैमरे से ली गई तस्वीरों को देखने बाद ही पिरामिड के अंदर झाँकने की अगली कोशिश करेंगे.
बारह सेंटीमीटर के इस रोबोट को लगभग 65 मीटर लंबी एक सुरंग के ज़रिए पिरामिड की पहली दरवाज़े तक पहुँचाया गया. देखते ही देखते रोबोट ने इस दरवाज़े में छेद बना दिया और उस पार झाँकने के लिए एक कैमरा इस छेद में डाल दिया. लेकिन वैज्ञानिकों की आशा के विपरीत कैमरे के सामने एक और दरवाज़ा था.पिरामिड रोवर ने इस दीवार में छेद बनाने की कोशिश तो की लेकिन उसे सफलता नहीं मिली.
दरअसल 1993 में एक जर्मन पुरात्तवविद् ने एक कैमरे के साथ एक रोबोट को उस सुरंग में अंदर भेजा था. साठ मीटर की दूरी तो उस रोबोट ने ठीक से तय कर ली लेकिन उसके बाद वह जा टकराया एक दरवाज़े से. पिरामिड रोवर ने पहले दरवाज़ा तो तोड़ दिया है लेकिन दूसरे दरवाज़े के पार झाँकने के लिए उसे फिर से लौटना पड़ेगा. लेकिन क्या पता उसके आगे एक तीसरा, एक चौथा और......शायद कई और दरवाज़े हों?

राजा तूतनखामन का रहस्य सुलझाने का दावा

‘द इंडिपेंडेंट’ ने अपनी खबर में कहा है कि मिस्र के सुप्रीम काउंसिल ऑफ एंटीक्विटीज के एक दल ने डॉ. जाही अवास के नेतृत्व में फराओ की ममी पर पिछले 18 महीने से किए जा रहे डीएनए परीक्षण के परिणामों का खुलासा किया। डॉ. हवास ने कहा कि हम नहीं जानते कि तूतनखामन की मौत कैसे हुई। हमने डीएनए परीक्षण शुरू किया और हमने कई मजेदार खोज कीं। परिणामों की पुष्टि जरनल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन ने भी की है। वे सभी परिणामों को प्रकाशित करने जा रहे हैं। उससे हम जानेंगे कि तूतनखामन कौन था। लगभग नौ वर्ष की उम्र में राजा बनने वाले तूतनखामन उन चुनिंदा फराओ में शामिल थे, जिनकी लोग भगवान की तरह पूजा करते थे। (भाषा)

Secrets of Egypt's Lost Queen


http://dsc.discovery.com/convergence/quest/lost-queen/program/program.html

In what is being called the most important find in Egypt's Valley of the Kings since the discovery of King Tutankhamun's tomb, Discovery Channel's Secrets of Egypt's Lost Queen exclusively reveals archaeological, forensic and scientific evidence identifying a 3,000-year-old mummy as Hatshepsut, Egypt's greatest female Pharaoh.

More powerful than Cleopatra or Nefertiti, Hatshepsut stole the throne from her young stepson, dressed herself as a man, and in an unprecedented move, declared herself Pharaoh. Though her power stretched across Egypt and her reign was prosperous, Hatshepsut's legacy was systematically erased from Egyptian history — historical records were destroyed, monuments torn down and her corpse removed from her tomb.

The film follows a team of top forensic experts and archaeologists led by Dr. Zahi Hawass, Egypt's secretary general of the Supreme Council of Antiquities, as they use the full range of forensic technology to identify Hatshepsut.

The investigative journey of Dr. Hawass and his team led them through the massive crypts beneath Egypt and into the depths of the Cairo Museum. Using knowledge of royal Egyptian mummification and clues from two known tombs linked to Hatshepsut, the team narrowed their search for Hatshepsut to just four mummies from thousands of unidentified corpses.

Computed tomography (CT) scans allowed the scientists to link distinct physical traits of the Hatshepsut mummy to that of her ancestors. The search was further narrowed to two possibilities — both from the tomb of Hatshepsut's nanny — but the final clue lay within a canopic box inscribed with the female Pharaoh's name. A scan of the box found a tooth that, when measured, perfectly matched a missing upper molar in one of the two mummies.

"The discovery of the Hatshepsut mummy is one of the most important finds in the history of Egypt," said Dr. Hawass. "Her reign during the 18th Dynasty of ancient Egypt was a prosperous one, yet mysteriously she was erased from Egyptian history. Our hope is that this mummy will help shed light on this mystery and on the mysterious nature of her death."

Applied Biosystems and Discovery Quest, part of Discovery Channel's initiative to support the scientific community's work, funded the construction and equipment for the first-ever DNA testing facility located outside the Cairo Museum in Egypt for the program. The DNA testing facility will not only be used to extract and compare the mitochondrial DNA of the Hatshepsut mummy and mummies from her family, but will also be used by scientists to examine future finds in Egypt.

Zahi Hawass currently serves as secretary general of the Supreme Council of Antiquities and director of excavations at Giza, Saqqara and the Bahariya Oasis.

Dr. Hawass is responsible for many recent discoveries in Egypt, including the tombs of the pyramid builders at Giza. He discovered the satellite pyramid of Khufu and revealed the secrets behind the so-called doors found inside the pyramid. He also excavated at Bahariya Oasis, where he discovered the Valley of the Golden Mummies. He also found the tombs of the governor of Bahariya and his family under the houses in the town of El-Bawiti. His excavations at Saqqara revealed many discoveries around the pyramid of Teti, such as the tomb of the physician Qar, and the rediscovery of the "headless pyramid." He led an Egyptian team in the examination of the mystery of King Tut’s mummy through the use of a CT scan.

Hawass is extremely concerned about the conservation and protection of Egypt’s monuments. He has carried out a major conservation project on the Great Sphinx and developed management plans for a number of important sites, including the "unfinished obelisk" quarry in Aswan and the temples of Kom Ombo, Edfu and Dendera. Currently, he is completing plans for the West Bank of Luxor, Giza and Saqqara.

Dr. Hawass' dynamic personality and extensive knowledge have sparked global interest in ancient Egypt. He has brought the world of the Pharaohs into the homes and hearts of people all over the world through his numerous television appearances and books for general audiences. Over the course of his long career, Dr. Hawass has received numerous awards and honors, including TIME Magazine's "Top 100 Most Influential People" for the year 2005. Most recently, Dr. Hawass was instrumental in sending King Tutankhamun back to the United States.

Egyptologist Dr. Kara Cooney has appeared on many television programs and talk shows discussing ancient Egypt. She is an authority on the ancient language of late Egyptian, particularly hieratic ostraca and papyri from the village of Deir el Medina. Visually, she specializes in coffins and funerary art of the Ramesside period.

During the summer of 2003, Cooney worked on the return of the King Tut exhibition to the Los Angeles County Museum of Art, as well as researched a number of Egyptian pieces for inclusion in the Museum Loan Network database. She was also involved with the installation of the Cairo Museum exhibit "Quest for Immortality: Treasures of Ancient Egypt," which opened at the National Gallery of Art in Washington D.C. (where she was the Samuel H. Kress fellow) in the summer of 2002.

Cooney is currently a postdoctoral teaching fellow at Stanford University and is revising her dissertation, "The Value of Private Funerary Art in Ramesside Period Egypt," for publication. She is also working on a number of research interests, including the gender issues of death in ancient Egypt, craft specialization and funerary arts in the ancient world, the Nubian 25th Dynasty's racial identity and political legitimating process, and the socioeconomic understanding of death rituals and associated material culture in ancient Egypt. She has taught courses at Howard University and UCLA in Egyptian religion, language, literature, art and archaeology.

पिरामिड का जादुई प्रभाव

मिस्र के पिरामिड अपने भीमकाय आकार, अनूठी संरचना और मजबूती के लिए तो जगत्‌ प्रसिद्ध हैं ही, लेकिन उससे भी कहीं अधिक प्रसिद्ध हैं अपने जादुई प्रभाव के लिए। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित हो गया है कि पिरामिड के अंदर विलक्षण किस्म की ऊर्जा तरंगें लगातार काम करती रहती हैं, जो जड़ (निर्जीव) और चेतन (सजीव) दोनों ही प्रकार की वस्तुओं पर प्रभाव डालती हैं। वैज्ञानिकों ने पिरामिड के इस गुण को 'पिरामिड पॉवर' की संज्ञा दी है। पिरामिड चिकित्सा द्वारा विभिन्न रोगों के उपचार से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण परीक्षणों से प्राप्त नतीजे इस प्रकार हैं-

* सिर दर्द एवं दाँत दर्द के रोगियों को पिरामिड के अंदर बैठने पर दर्द से छुटकारा मिल जाता है। 'पिरामिड पॉवर' के आधुनिक खोजकर्ता स्वयं बोबिस ने पिरामिड के आकार की टोपी बनाई और पहनकर आजमाया। बोबिस का कहना है कि इसको पहनने से सिर दर्द तो दूर हो ही जाता है, साथ ही कई प्रकार के मानसिक विकार भी दूर हो जाते हैं।

* मानसिक तनाव से परेशान एक युवती ने पिरामिड के अंदर कुछ समय के लिए सोना शुरू कर दिया तो शीघ्र ही वह अच्छी नींद सोने लगी। दरअसल कुछ मिनट के लिए पिरामिड के अंदर बैठने से शरीर का संतुलन ठीक हो जाता है, जिसके चलते तनाव दूर हो जाता है।

* घाव, छाले, खरोच आदि पिरामिड के अंदर बैठने से बहुत जल्दी ठीक हो जाते हैं।

* पिरामिड के अंदर रखे जल को पीने से टॉन्सिल की समस्या से छुटकारा मिलता है, आँखों को धोने से उसकी ज्योति बढ़ती है, पाचन क्रिया में सुधार होता है, घुटनों पर मलने से घुटनों, का दर्द दूर हो जाता है।

* एक परीक्षण के दौरान कुत्तों को चौकोर, गोल और पिरामिड के आकार के घरों में रखा गया। बाद में यह पाया गया कि पिरामिड के आकार के घरों में रहने वाले कुत्ते अधिक समझदार, अधिक आज्ञाकारी निकले और उनका स्वास्थ्य भी बेहतर हो गया।
* पिरामिड के अंदर किसी तरह की आवाज या संगीत बजाने पर बड़ी देर तक उसकी आवाज गूँजती रहती है। इससे वहाँ उपस्थित लोगों के शरीर पर विचित्र प्रकार के कम्पन पैदा होते हैं, जो मन और शरीर दोनों को शांति प्रदान करते हैं।

* जब कोई थका हुआ आदमी कुछ ही मिनटों के लिए पिरामिड में बैठता है, तो उसकी थकान दूर हो जाती है और वह शरीर में एक नई शक्ति का संचार महसूस करता है।

* साधना करने वालों ने पिरामिड के अंदर ध्यान लगाने के बाद दावा किया कि इसके अंदर बैठने से मन बहुत जल्दी एकाग्र हो जाता है। पिरामिड में बैठने से इच्छा शक्ति भी दृढ़ होती है।

* अनिद्रा की बीमारी दूर होती है व शराब पीने की आदत एवं नशीले पदार्थों के सेवन की लत को भी प्रतिदिन थोड़ी-थोड़ी देर के लिए पिरामिड के अंदर बैठकर छुड़ाया जा सकता है।

* प्रतिदिन पाँच से दस मिनट के लिए पिरामिड के अंदर बैठने से इच्छा शक्ति दृढ़ होती है। थके हुए व्यक्ति को सिर्फ दस मिनट के लिए पिरामिड के अंदर बैठा दिया जाए तो उसकी थकावट दूर हो जाती है और वह खुद को तरोताजा अनुभव करने लगता है।

* बीजों को बोने के पहले अगर थोड़ी देर के लिए पिरामिड के अंदर रख दिया जाए तो वे जल्दी और अच्छी तरह से अंकुरित होते हैं। बीमार और सुस्त पौधों को भी पिरामिड द्वारा ठीक और उत्तेजित किया जा सकता है।

डायनासोरों को खा जाने वाला साँप

http://www.bbc.co.uk/hindi/science/2010/03/100303_danosaur_snake-ra.shtml

  अहमदाबाद से 130 किमी दूर धोली डुंगरी गाँव से वैज्ञानिकों ने साँप, डायनासोर और उसके अंडों के जीवाश्म खोज निकाले हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि इन अवशेषों और जीवाश्मों से ये साफ़ पता चलता है कि क़रीब 6.7 करोड़ साल पहले एक विशेष प्रजाति के साँप और डायनासोर साथ-साथ रहते थे.
ये साँप बड़े डायनासोरों को नहीं बल्कि उनके अंडों से निकले बच्चों को खाते थे. वे बच्चों के ऊपर कुंडली मार लेते थे और उन्हें मारकर निगल जाते थे. साँप और डायनासोर के इन अवशेष और जीवाश्मों को खोजा है भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के वैज्ञानिक डॉक्टर धनंजय मोहाबे ने. डॉक्टर धनंजय कहते हैं, ''समय के गर्भ में छिपे इस पल को खोजना बहुत रोमांचक था.'' मिशिगन विश्वविद्यालय और टोरंटो के मिसिसॉगा विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों ने इसका अध्ययन और पुष्टि की है. यह अध्ययन पीएलओएस (पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ़ साइंस) बॉयोलाजी जर्नल के दो मार्च के इंटरनेट संस्करण में प्रकाशित हुआ है. भारत में पाए जाने वाले अजगर जैसा ये साँप जो डायनासोर का शिकार कर लेता था, इसे नाम दिया गया है, सनाजेह इंडिकस. अध्ययन के मुताबिक़ ये प्राचीन साँपों के खाने की आदतों के बारे में पहला प्रत्यक्ष प्रमाण है. जिस साँप का जीवाश्म मिला है, वह साढ़े तीन मीटर लंबा है और डायनासोर के एक बच्चे के चारों ओर लिपटा हुआ है. एक व्यस्क शाकाहारी डायनासोर का वजन क़रीब सौ टन होता था.

बहुत से लोग साँप से डरते हैं लेकिन इस शोध से पता चलता है कि विशालकाय डायनासोर भी साँपों से डरते थे. शोधकर्ताओं का कहना है कि इन सांपों के जीवाश्म में आधुनिक साँपों की तरह गतिशील जबड़े नहीं हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि इसे डायनासोर के अंडों को खाने के लिए काफ़ी मशक्कत करनी पड़ती होगी.
जीवाश्म को 1987 में खोजा गया था. लेकिन इसे तब तक मान्यता नहीं मिली जब तक अमरीकी वैज्ञानिकों ने ये नहीं कह दिया कि डायनासोर के अंडों के बीच एक साँप भी था. शोधकर्ताओं का मानना है कि साँप ने हमला तब किया होगा जब अंडों से छोटे डायनासोर निकले होंगे. आज जो प्रमाण मिले हैं वे तूफ़ान जैसे किसी प्राकृतिक आपदा के कारण बने होंगे, इससे यह पूरा परिदृश्य समय की परतों में जम गया होगा.

नष्ट हो रहे हैं ऐतिहासिक साक्ष्य ?

अमृतसर. जिले के टूरिज्म को विकसित करने के साथ पुलकंजरी को करीब ढाई करोड़ की लागत से संरक्षित किया गया। इसकी खुदाई के दौरान पोट्री, खिलौने, दीये आदि मिले थे। यह मुगलकालीन सभ्यता के चश्मदीद गवाह थे। इनको उस वक्त बोरियों में भरकर रखा गया था, बाद में यह कहां गए कोई पता नहीं चला।

हालांकि, उस दौरान कई पुरातत्वविदों ने सवाल उठाया था, मगर ध्यान नहीं दिया गया। इसी तरह से उड़दन कलां की खुदाई में सिक्के ढालने वाली मिट्टी की डाइयां, पहलवानों के मुकदर, पोट्री समेत अन्य सामान भी मिले थे। डाइयों के जार्ज पंचम के दौर के होने का अनुमान है। बताया तो यहां तक जा रहा है कि इनमें से ज्यादा सामान स्थानीय लोगों ने अज्ञानतावश या तो फैंक दिया या फिर बेंच दिया।

ऐसा ही हाल हर्षाछीना व बंडाला की खुदाइयों में मिले सामानों का हुआ है। इन जगहों पर तो छह हजार साल पुरानी सभ्यता के प्रमाण मिले थे और इनको निजी तौर पर कुछ लोगों ने संरक्षित भी किया, मगर प्रशासन व अन्य जिम्मेदार विभाग इनको संभालने में नाकाम रहे।

जिले की घरोहरों के संरक्षण व संवर्धन का जो काम हो रहा है वह एक ही कंपनी के हाथों में सिमट कर रह गया है। इसको लेकर विगत में कई बार विवाद मुखर हुआ और लोगों ने ऐसी साइटों पर नानकशाही ईंटों की जगह आम ईंटों को लगाने का विरोध भी किया था। हालांकि गीतिका कल्लां ( सेक्रेटरी टूरिज्म पंजाब ) का कहना है कि किसी भी खुदाई में कोई सामान नहीं मिला, अगर भविष्य में कहीं कुछ मिलता है तो उसे सहेज कर रखा जाएगा और उसे लोगों को दिखाने की भी व्यवस्था की जाएगी।

इस संदर्भ में इतिहासकार हरनेक सिंह का कहना है कि खुदाई में जो भी सामग्री मिलती है वह ऐतिहासिक व पुरातात्विक नजरिए से अहम होती है। इसे संभाल कर रखने से हम अपने अतीत की गहन जानकारी हासिल कर सकते हैं। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता देव दर्द का कहना है कि यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम संरक्षण की बात तो करते हैं, मगर आर्कियोलाजी के मानकों को नजर अंदाज कर जाते हैं। इसके चलते हमारे हाथों से ऐसे प्रमाण खिसकते जा रहे हैं जो हमारे अतीत के असल गवाह हैं।



नष्ट हो रही है हजारों साल पुरानी सभ्यता

महम. फरमाणा व सैमाण के बीच दक्षखेड़ा के पास मिले पांच हजार साल पुरानी सभ्यता के अवशेष नष्ट हो रहे हैं। बारिश के पानी से उत्खनित स्थल की मिट्टी बह गई। घास उगने से इलाका चरागाह बन गया है। दिनभर पशु विचरण करते हैं। हड़प्पाकालीन बस्ती व कब्रिस्तान के आसपास के इलाके में तो किसानों ने हल चलाना भी आरंभ दिया है। दक्षखेड़ा स्थल पर आरंभिक व विकसित हड़प्पाकाल की बस्तियां निकल चुकी हैं, जबकि नजदीक ही इस काल की अब तक सत्तर कब्रें खोजी जा चुकी हैं। 15 दिसंबर 2008 से 31 मार्च 2009 तक यहां रिसर्च इंस्टीच्यूट ऑफ ह्यूमन एंड नेचर क्योटो जापान, डेक्कन कालेज पूना व मदवि रोहतक के संयुक्त तत्वावधान में उत्खनन हुआ था। इस दौरान इस स्थल पर दुनिया के प्रसिद्ध पुरातत्ववेता व शोधकर्ता पहुंचे थे। पुरातत्व विभाग की प्रदेश की तत्कालीन मंत्री मीना मंडल ने इस स्थल का दौरा किया था। भारतीय पुरातत्व विभाग के निदेशक ने इस स्थल को अत्यंत महत्वपूर्ण पुरास्थल बताया था। उस समय दावा किया गया था कि शीघ्र ही इस स्थल का अधिग्रहण किया जाएगा। यहां म्यूजियम बनाया जाएगा। इसके विपरित वर्तमान स्थिति यह है कि पुरातत्ववेताओं ने कई महीनों के प्रयासों से जो अवशेष निकाले थे, वे ही खतरे में हैं।

इस स्थल को प्रदेश के पुरातत्व विभाग ने केवल कागजों में संरक्षित किया हुआ है। इस संबंध में विभाग ने तो नोटिफिकेशन कर दिया, किसानों को कोई नोटिस नहीं मिला है। स्थल के महत्व को देखते हुए यहां कोई चौकीदार भी नहीं रखा गया। कोई तार या बाड़ भी नहीं लगाई गई। डा. मनमोहन सिंह, सहनिदेशक उत्खनन टीम, दक्षखेड़ा का कहना है कि इस महत्वपूर्ण पुरास्थल पर चौकीदार रखा जाना चाहिए। इस स्थल पर प्रवेश से रोकने का अधिकार मुझे नहीं है।

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