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Tuesday, October 21, 2014

एशिया के सबसे पुराने भारतीय संग्रहालय के डिजिटलीकरण की योजना

 
दो सौ साल पुराने भारतीय संग्रहालय को एशिया का सबसे पुराना संग्रहालय माना जाता है। अब इसे आधुनिक बनाने और सजाने संवारने के लिए लंदन के नेशनल हिस्ट्री म्यूजियम (एनएचएम) के विशेषज्ञों से संपर्क किया जा रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य संग्रहालय में रखी चीजों का डिजिटलीकरण करना, योजना तैयार करना और इसे एक आधुनिक शोध केंद्र के रूप में स्थापित करना है। भारतीय संग्रहालय प्राधिकरण के साथ हुई बैठक में एनएचएम के अंतरराष्ट्रीय संपर्क प्रमुख ने ऐसे विचार व्यक्त किए। उन्होंने विज्ञान की गुत्थियों का सार्वजनिक जीवंत प्रदर्शन, विलुप्त प्रजातियों का जीवंत कलात्मक प्रदर्शन जैसे विचार साझा किए।
मालूम हो कि भारतीय संग्रहालय की स्थापना दो फरवरी 1814 में हुई और फिलहाल इसे पुनर्निर्मित करने के पहले चरण की शुरुआत की गई है, जिसके अंतर्गत इसके सांस्कृतिक विरासत वाले हिस्से को पुनर्निर्मित किया जा रहा है। इसके बाद संग्रहालय के प्राकृतिक इतिहास वाले हिस्से को पुनर्निमित किया जाएगा। भारतीय संग्रहालय और  एनएचएम दोनों ही लगभग दो सौ वर्ष पुराने हैं और ऐतिहासिक रूप से कुछ मायनों में जुड़े भी हुए हैं।
सूत्रों के मुताबिक प्राकृतिक इतिहास का दस्तावेजीकरण करते हुए संग्रहालय को ताजातरीन वैज्ञानिक खोजों को भी ध्यान में रखना होगा और उन्हें एक कहानी के रूप में प्रस्तुत करना होगा। एनएचएम में सात करोड़ नमूने संगृहीत हैं और इस मामले में यह दुनिया का सबसे बड़ा संग्रहालय है। संग्रहालय के इस विशाल संग्रहण में सूक्ष्मदर्शी से देखे जा सकने वाले बेहद सूक्ष्म जीवों से लेकर कभी पृथ्वी के सबसे विशालकाय स्तनपायी जीव मैमथ (हाथी) का कंकाल भी शामिल है। एनएचएम में 1750 से लेकर बीसवीं सदी तक की तीस हजार महत्वपूर्ण भारतीय कलाकृतियों का संग्रह है, जो बताता है कि ब्रिटिश राज की नजरों में भी भारत के समृद्ध प्राकृतिक इतिहास का क्या महत्व था।
  भारतीय संग्रहालय के प्रबंध निदेशक के मुताबिक, दोनों संग्रहालय वैज्ञानिक आदान-प्रदान में भी एक-दूसरे का सहयोग करेंगे। उन्होंने बताया कि एनएचएम के पास प्राकृतिक इतिहास के संग्रह का अनुभव विश्व में सबसे ज्यादा है, इसलिए हम विश्व में सबसे अच्छा बनने की संभावनाएं तलाश रहे हैं। हम अभी केंद्र सरकार से आखिरी अनुमति मिलने का इंतजार कर रहे हैं। उनके मुताबिक दूसरे चरण के पुनर्निर्माण कार्य पर विचार चल रहा है और एनएचएम से मिलने वाले परामर्श के आधार पर हम आगे बढ़ेंगे। (साभार-जनसत्ता )

यहां मिला है समुद्र मंथन का प्रमाण


गुजरात के सूरत जिले के पिंजरात गांव के पास समुद्र में स्थित है मंदराचल पर्वत

बिहार के भागलपुर के पास  भी स्थित है एक मंदराचल पर्वत 

   समुद्र मंथन को अगर लाइफ  मैनेजमेंट के नजरिए से देखा जाए तो हम पाएंगे कि सीधे-सीधे किसी को अमृत (परमात्मा) नहीं मिलता। उसके लिए पहले मन को विकारों को दूर करना पड़ता है तथा अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करना पड़ता है। समुद्र मंथन में 14 नंबर पर अमृत निकला था। इस 14 अंक का अर्थ है ये है 5 कमेन्द्रियां, 5 जनेन्द्रियां तथा अन्य 4 हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। इन सभी पर नियंत्रण करने के बाद में परमात्मा प्राप्त होते हैं। 

देवताओं और असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन की कथा हम सभी जानते हैं। इस कथा के अनुसार देवता व असुरों ने नागराज वासुकि की नेती बनाकर मंदराचल पर्वत की सहायता को समुद्र को मथा था। समुद्र मंथन से ही लक्ष्मी, चंद्रमा, अप्सराएं व भगवान धन्वन्तरि अमृत लेकर निकले थे। 
आर्कियोलॉजी और ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट ने सूरत जिले के पिंजरात गांव के पास समुद्र में मंदराचल पर्वत होने का दावा किया है।  आर्कियोलॉजिस्ट मितुल त्रिवेदी के अनुसार बिहार के भागलपुर के पास स्थित भी एक मंदराचल पर्वत है और गुजरात के समुद्र से निकला यह पर्वत भी उसी का हिस्सा लग रहा है।

   बिहार और गुजरात में मिले इन दोनों पर्वतों का निर्माण एक ही तरह के ग्रेनाइट पत्थर से हुआ है। इस तरह यह दोनों पर्वत एक ही हैं। जबकि आमतौर पर ग्रेनाइट पत्थर के पर्वत समुद्र में नहीं मिला करते। इसलिए गुजरात के समुद्र में मिला यह पर्वत शोध का विषय है। खोजे गए पर्वत के बीचोंबीच नाग आकृति भी मिली है। पर्वत पर नाग आकृति मिलने से ये दावा और भी पुख्ता होता है। 


जानिए समुद्र मंथन की पूरी कथा

धर्म ग्रंथों के अनुसार एक बार महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण स्वर्ग श्रीहीन (ऐश्वर्य, धन, वैभव आदि) हो गया। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। भगवान विष्णु ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने का उपाय बताया और ये भी बताया कि समुद्र मंथन को अमृत निकलेगा, जिसे ग्रहण कर तुम अमर हो जाओगे। यह बात जब देवताओं ने असुरों के राजा बलि को बताई तो वे भी समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए। वासुकि नाग की नेती बनाई गई और मंदराचल पर्वत की सहायता से समुद्र को मथा गया। समुद्र मंथन से उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, लक्ष्मी, भगवान धन्वन्तरि सहित 14 रत्न निकले।
 
1- कालकूट विष
समुद्र मंथन में से सबसे पहले कालकूट विष निकला, जिसे भगवान शिव ने ग्रहण कर लिया। इससे तात्पर्य है कि अमृत (परमात्मा) इस इंसान के मन में स्थित है। अगर हमें अमृत की इच्छा है तो सबसे पहले हमें अपने मन को मथना पड़ेगा। जब हम अपने मन को मथेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार ही बाहर निकलेंगे। यही बुरे विचार विष है। हमें इन बुरे विचारों को परमात्मा को समर्पित कर देना चाहिए और इनसे मुक्त हो जाना चाहिए।
2- कामधेनु
समुद्र मंथन में दूसरे क्रम में निकली कामधेनु। वह अग्निहोत्र (यज्ञ) की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी। इसलिए ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण कर लिया। कामधेनु प्रतीक है मन की निर्मलता की। क्योंकि विष निकल जाने के बाद मन निर्मल हो जाता है। ऐसी स्थिति में ईश्वर तक पहुंचना और भी आसान हो जाता है।
3- उच्चैश्रवा घोड़ा
समुद्र मंथन के दौरान तीसरे नंबर पर उच्चैश्रवा घोड़ा निकला। इसका रंग सफेद था। इसे असुरों के राजा बलि ने अपने पास रख लिया। लाइफ  मैनेजमेंट की दृष्टि से देखें तो उच्चैश्रवा घोड़ा मन की गति का प्रतीक है। मन की गति ही सबसे अधिक मानी गई है। यदि आपको अमृत (परमात्मा) चाहिए तो अपने मन की गति पर विराम लगाना होगा। तभी परमात्मा से मिलन संभव है।
 4- ऐरावत हाथी
 समुद्र मंथन में चौथे नंबर पर ऐरावत हाथी निकला, उसके चार बड़े-बड़े दांत थे। उनकी चमक कैलाश पर्वत से भी अधिक थी। ऐरावत हाथी को देवराज इंद्र ने रख लिया। ऐरावत हाथी प्रतीक है बुद्धि का और उसके चार दांत लोभ, मोह, वासना और क्रोध का। चमकदार (शुद्ध व निर्मल) बुद्धि से ही हमें इन विकारों पर काबू रख सकते हैं।
5- कौस्तुभ मणि
समुद्र मंथन में पांचवे क्रम में निकली कौस्तुभ मणि, जिसे भगवान विष्णु ने अपने ह्रदय पर धारण कर लिया। कौस्तुभ मणि प्रतीक है भक्ति का। जब आपके मन से सारे विकार निकल जाएंगे, तब भक्ति ही शेष रह जाएगी। यही भक्ति ही भगवान ग्रहण करेंगे।  
 6- कल्पवृक्ष
 समुद्र मंथन में छठे क्रम में निकला इच्छाएं पूरी करने वाला कल्पवृक्ष, इसे देवताओं ने स्वर्ग में स्थापित कर दिया। कल्पवृक्ष प्रतीक है आपकी इच्छाओं का। कल्पवृक्ष से जुड़ा लाइफ  मैनेजमेंट सूत्र है कि अगर आप अमृत (परमात्मा) प्राप्ति के लिए प्रयास कर रहे हैं तो अपनी सभी इच्छाओं का त्याग कर दें। मन में इच्छाएं होंगी तो परमात्मा की प्राप्ति संभव नहीं है।
7- रंभा अप्सरा
समुद्र मंथन में सातवे क्रम में रंभा नामक अप्सरा निकली। वह सुंदर वस्त्र व आभूषण पहने हुई थीं। उसकी चाल मन को लुभाने वाली थी। ये भी देवताओं के पास चलीं गई। अप्सरा प्रतीक है मन में छिपी वासना का। जब आप किसी विशेष उद्देश्य में लगे होते हैं तब वासना आपका मन विचलित करने का प्रयास करती हैं। उस स्थिति में मन पर नियंत्रण होना बहुत जरूरी है।
 8- देवी लक्ष्मी
 समुद्र मंथन में आठवे स्थान पर निकलीं देवी लक्ष्मी। असुर, देवता, ऋषि आदि सभी चाहते थे कि लक्ष्मी उन्हें मिल जाएं, लेकिन लक्ष्मी ने भगवान विष्णु का वरण कर लिया। लाइफ  मैनेजमेंट के नजरिए से लक्ष्मी प्रतीक है धन, वैभव, ऐश्वर्य व अन्य सांसारिक सुखों का। जब हम अमृत (परमात्मा) प्राप्त करना चाहते हैं तो सांसारिक सुख भी हमें अपनी ओर खींचते हैं, लेकिन हमें उस ओर ध्यान न देकर केवल ईश्वर भक्ति में ही ध्यान लगाना चाहिए।
9- वारुणी देवी
समुद्र मंथन से नौवे क्रम में निकली वारुणी देवी, भगवान की अनुमति से इसे दैत्यों ने ले लिया। वारुणी का अर्थ है मदिरा यानी नशा। यह भी एक बुराई है। नशा कैसा भी हो शरीर और समाज के लिए बुरा ही होता है। परमात्मा को पाना है तो सबसे पहले नशा छोडऩा होगा तभी परमात्मा से साक्षात्कार संभव है।
 10- चंद्रमा
समुद्र मंथन में दसवें क्रम में निकले चंद्रमा। चंद्रमा को भगवान शिव ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया। चंद्रमा प्रतीक है शीतलता का। जब आपका मन बुरे विचार, लालच, वासना, नशा आदि से मुक्त हो जाएगा, उस समय वह चंद्रमा की तरह शीतल हो जाएगा। परमात्मा को पाने के लिए ऐसा ही मन चाहिए। ऐसे मन वाले भक्त को ही अमृत (परमात्मा) प्राप्त होता है।
11- पारिजात वृक्ष
इसके बाद समुद्र मंथन से पारिजात वृक्ष निकला। इस वृक्ष की विशेषता थी कि इसे छूने से थकान मिट जाती थी। यह भी देवताओं के हिस्से में गया। लाइफ मैनेजमेंट की दृष्टि से देखा जाए तो समुद्र मंथन से पारिजात वृक्ष के निकलने का अर्थ सफलता प्राप्त होने से पहले मिलने वाली शांति है। जब आप (अमृत) परमात्मा के इतने निकट पहुंच जाते हैं तो आपकी थकान स्वयं ही दूर हो जाती है और मन में शांति का अहसास होता है।
12- पांचजन्य शंख
समुद्र मंथन से बारहवें क्रम में पांचजन्य शंख निकला। इसे भगवान विष्णु ने ले लिया। शंख को विजय का प्रतीक माना गया है साथ ही इसकी ध्वनि भी बहुत ही शुभ मानी गई है। जब आप अमृत (परमात्मा) से एक कदम दूर होते हैं तो मन का खालीपन ईश्वरीय नाद यानी स्वर से भर जाता है। इसी स्थिति में आपको ईश्वर का साक्षात्कार होता है।
13 व 14- भगवान धन्वन्तरि व अमृत कलश
 समुद्र मंथन से सबसे अंत में भगवान धन्वन्तरि अपने हाथों में अमृत कलश लेकर निकले। भगवान धन्वन्तरि प्रतीक हैं निरोगी तन व निर्मल मन के। जब आपका तन निरोगी और मन निर्मल होगा तभी इसके भीतर आपको परमात्मा की प्राप्ति होगी।
    समुद्र मंथन में 14 नंबर पर अमृत निकला। इस 14 अंक का अर्थ है ये है 5 कमेंद्रियां, 5 जननेन्द्रियां तथा अन्य 4 हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। इन सभी पर नियंत्रण करने के बाद में परमात्मा प्राप्त होते हैं।

(साभार-दैनिक भाष्कर http://religion.bhaskar.com/news-hf/DHA-UTS-deepawali-2014-here-is-found-the-evidence-of-churning-sea-know-life-management-a-4783039-PHO.html)

Wednesday, August 20, 2014

ताजमहल से जुड़े इतिहास के कई रहस्यों से पर्दा उठाया

आगरा के किले से लेकर ताजमहल तक के रास्ते में 50 के करीब मुगल बाग थे

 उन्नीसवीं सदी के कुछ फोटो निगेटिवों की जांच पड़ताल ने ताजमहल से जुड़े इतिहास के कई रहस्यों से पर्दा उठाया। इन तस्वीरों के माध्यम से यह पता चला कि आगरा के किले से लेकर ताजमहल तक के रास्ते में 50 के करीब मुगल बाग थे।
यह निगेटिव उन 220 दुर्लभ चित्रों के संग्रह का हिस्सा हैं जिसमें ताजमहल और विजयनगर साम्राज्य से जुड़ी पहली तस्वीरें शामिल हैं। वर्तमान में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र पर इनसे जुड़ी एक प्रदर्शनी चल रही है जो 30 सितंबर तक जारी रहेगी। इस केंद्र की सदस्य सचिव दीपाली खन्ना ने कहा कि इस प्रदर्शनी में ताज से जुड़े पहले निगेटिव हैं। मेरा मानना है कि भारत में इन्हें पहली बार ही प्रदर्शित किया जा रहा है। इतिहासकार आभा कौल ने इन निगेटिवों की जांच करके पता लगाया कि ताजमहल से लेकर आगरा के किले के बीच 50 मुगल उद्यान थे।
प्रदर्शनी में ताज की पहली तस्वीर लेने वाले जॉन मूरे के चित्र भी शामिल किए गए हैं। इसके अलावा भारत के पड़ोसी देश जैसे कि नेपाल, बर्मा और सीलोन के भी ऐतिहासिक चित्र इस प्रदर्शनी में शामिल किए गए हैं जिन्हें उस समय के ब्रिटिश अधिकारियों, यूरोपीय और स्थानीय लोगों ने उतारा था। इसके अलावा प्रथम युद्ध चित्रक राजा दीन दयाल के चित्र भी यहां प्रदर्शित किए गए हैं। नई दिल्ली, 20 अगस्त (भाषा)।

छत्तीसगढ़ में होगी फॉसिल पार्क की स्थापना

   छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य के कोरिया जिले में फॉसिल पार्क की स्थापना करने का फऐसला किया है। सरकारी सूत्रों ने बुधवार को यहां बताया कि छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले में मेरीन फॉसिल पार्क की स्थापना की जाएगी। राज्य सरकार के वन विभाग इसे बनाएगा।
अधिकारियों ने बताया कि कोरिया जिले के मनेंद्रगढ़ के पास हसदेव नदी के किनारे एक बड़े इलाके में मेरीन फॉसिल (समुद्रीय जीवाश्म) की मौजूदगी प्रकाश में आई है। वन विभाग के अधिकारियों को भ्रमण के दौरान इसकी जानकारी मिली। उन्होंने बताया कि लखनऊ  स्थित बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट आॅफ पेलियोबाटनी के वैज्ञानिकों ने भी जिले के आमाखेरवा गांव सहित आसपास के स्थल का दौरा किया। उन्होंने भी बड़े पैमाने पर फॉसिल की उपस्थिति की पुष्टि कर दी है। जीवाश्मों के अध्ययन और विश्लेषण के लिए बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट भारत सरकार का एक प्रमुख प्रामाणिक संस्थान है।
संस्थान के वैज्ञानिकों ने इन जीवाश्मों को लगभग 25 करोड़ साल पुराना परमियन भूवैज्ञानिक काल के आसपास का ठहराया है। उन्होंने भी इस क्षेत्र को जिओहेरिटेज के रूप में विकसित करने की सिफारिश राज्य सरकार से की है।
अधिकारियों ने बताया कि राज्य सरकार ने फॉसिल पार्क विकसित करने के लिए 17 लाख 50 हजार रुपए का प्रावधान किया है। इलाके की सुरक्षा के लिए चैनलिंक सहित चौकीदार हट और अन्य पर्यटक सुविधाएं विकसित की जा रही हैं। रायपुर, 20 अगस्त (भाषा)।

Wednesday, August 6, 2014

खुदाई में निकला दो हजार साल पुराना शिवलिंग !

   छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में पुरातत्व विभाग को खुदाई के दौरान द्वादश ज्योतिर्लिगों वाले पौरुष पत्थर से बना शिवलिंग मिला है. माना जा रहा है कि यह दो हजार वर्ष पुराना है. सिरपुर में मिले इस शिवलिंग को काशी विश्वनाथ जैसा शिवलिंग बताया जा रहा हैं. छत्तीसगढ़ के पुरातत्व सलाहकार अरुण कुमार शर्मा का दावा है कि यह दो हजार साल पुराना है और राज्य में मिला अब तक का सबसे प्राचीन व विशाल शिवलिंग है.
   पुरातत्वविदों का कहना है कि वाराणसी के काशी विश्वनाथ और उज्जैन के महाकालेश्वर शिवलिंग जैसा है सिरपुर में मिला यह शिवलिंग. यह बेहद चिकना है. खुदाई के दौरान पहली शताब्दी में सरभपुरिया राजाओं के द्वारा बनाए गए मंदिर के प्रमाण भी मिले. इस शिवलिंग में विष्णु सूत्र (जनेऊ) और असंख्य शिव धारियां हैं.

  सूबे के सिरपुर में साइट नंबर 15 की खुदाई के दौरान मिले मंदिर के अवशेषों के बीच 4 फीट लंबा 2.5 फीट की गोलाई वाला यह शिवलिंग निकला है. बारहवीं शताब्दी में आए भूकंप और बाद में चित्रोत्पला महानदी की बाढ़ में पूरा मंदिर परिसर ढह गया था. मंदिर के खंभे नदी के किनारे चले गए. सिरपुर में कई सालों से चल रही खुदाई में सैकड़ों शिवलिंग मिले हैं. इनमें से गंधेश्वर की तरह यह शिवलिंग भी साबूत निकला है.

भूकंप और बाढ़ से गंधेश्वर मंदिर भी पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया था. पर यहां मौजूद सफेद पत्थर से बना शिवलिंग सुरक्षित बच गया. सिरपुर में मिले गंधेश्वर शिवलिंग की विशेषता उससे निकलने वाली तुलसी के पौधे जैसी सुगंध है. इसलिए इसे गंधेश्वर शिवलिंग कहा जा रहा है.

पुरातत्व सलाहकार अरुण कुमार शर्मा ने बताया कि ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता बैडलर ने 1862 में लिखे संस्मरण में एक विशाल शिवमंदिर का जिक्र किया है. लक्ष्मण मंदिर परिसर के दक्षिण में स्थित एक टीले के नीचे राज्य के संभवत: सबसे बड़े और प्राचीन शिव मंदिर की खुदाई होना बाकी है. जो भविष्य में यहां से प्राप्त हो सकती हैं.

   पुरातत्व के जानकारों के अनुसार भूकंप और बाढ़ ने सिरपुर शहर को 12वीं सदी में जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया था. कालांतर में नदी की रेत और मिट्टी की परतें शहर को दबाती चलीं गईं. टीलों को कई मीटर खोदकर शहर की संरचना को निकाला गया. खुदाई में मिले सिक्कों, प्रतिमाओं, ताम्रपत्र, बर्तन, शिलालेखों के आधार पर उस काल की गणना होती गई.

   साइट पर खुदाई की गहराई जैसे-जैसे बढ़ती है, प्राचीन काल के और सबूत मिलते जाते हैं. जमीन में जिस गहराई पर शिवलिंग मिला, उसके आधार पर इसे दो हजार साल पुराना माना गया है. बहरहाल यहां मिल रहे शिवलिंग पुरातत्व के जानकारों के लिए अब शोध का विषय बनता जा रहा है। (साभार-http://aajtak.intoday.in/story/2000-years-old-shivling-is-found-at-mahasamand-1-774834.html )

Friday, July 4, 2014

आखिर क्या हुआ कि नष्ट हो गई प्राचीन द्वारिका

 
द्वारका नगर ( पुराणों में वर्णित और मिले अवशेषों के आधार पर नगर का चित्र )
समुद्र में मिले द्वारका नगर के अवशेष 
मथुरा से निकलकर भगवान कृष्ण ने द्वारिका क्षेत्र में ही पहले से स्थापित खंडहर हो चुके नगर क्षेत्र में एक नए नगर की स्थापना की थी। कहना चाहिए कि भगवान कृष्ण ने अपने पूर्वजों की भूमि को फिर से रहने लायक बनाया था लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि द्वारिका नष्ट हो गई? किसने किया द्वारिका को नष्ट? क्या प्राकृतिक आपदा से नष्ट हो गई द्वारिका? क्या किसी आसमानी ताकत ने नष्ट कर दिया द्वारिका को या किसी समुद्री शक्ति ने उजाड़ दिया द्वारिका को। आखिर क्या हुआ कि नष्ट हो गई द्वारिका और फिर बाद में वह समुद्र में डूब गई।

इस सवाल की खोज कई वैज्ञानिकों ने की और उसके जवाब भी ढूंढे हैं। सैकड़ों फीट नीचे समुद्र में उन्हें ऐसे अवशेष मिले हैं जिसके चलते भारत का इतिहास बदल गया है। अब इतिहास को फिर से लिखे जाने की जरूरत बन गई है।

द्वारिका का परिचय : कई द्वारों का शहर होने के कारण द्वारिका इसका नाम पड़ा। इस शहर के चारों ओर बहुत ही लंबी दीवार थी जिसमें कई द्वार थे। वह दीवार आज भी समुद्र के तल में स्थित है। भारत के सबसे प्राचीन नगरों में से एक है द्वारिका। ये 7 नगर हैं- द्वारिका, मथुरा, काशी, हरिद्वार, अवंतिका, कांची और अयोध्या। द्वारिका को द्वारावती, कुशस्थली, आनर्तक, ओखा-मंडल, गोमती द्वारिका, चक्रतीर्थ, अंतरद्वीप, वारिदुर्ग, उदधिमध्यस्थान भी कहा जाता है।

गुजरात राज्य के पश्चिमी सिरे पर समुद्र के किनारे स्थित 4 धामों में से 1 धाम और 7 पवित्र पुरियों में से एक पुरी है द्वारिका। द्वारिका 2 हैं- गोमती द्वारिका, बेट द्वारिका। गोमती द्वारिका धाम है, बेट द्वारिका पुरी है। बेट द्वारिका के लिए समुद्र मार्ग से जाना पड़ता है।
आज की द्वारका 

द्वारिका का प्राचीन नाम कुशस्थली है। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही इस नगरी का नाम कुशस्थली हुआ था। यहां द्वारिकाधीश का प्रसिद्ध मंदिर होने के साथ ही अनेक मंदिर और सुंदर, मनोरम और रमणीय स्थान हैं। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने यहां के बहुत से प्राचीन मंदिर तोड़ दिए। यहां से समुद्र को निहारना अति सुखद है।

कृष्ण क्यों गए थे द्वारिका : कृष्ण ने राजा कंस का वध कर दिया तो कंस के श्वसुर मगधपति जरासंध ने कृष्ण और यदुओं का नामोनिशान मिटा देने की ठान रखी थी। वह मथुरा और यादवों पर बारंबार आक्रमण करता था। उसके कई मलेच्छ और यवनी मित्र राजा थे। अंतत: यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने मथुरा को छोड़ने का निर्णय लिया। विनता के पुत्र गरूड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कृष्ण कुशस्थली आ गए। वर्तमान द्वारिका नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान थी, कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी को पुनः बसाया।

कृष्ण अपने 18 नए कुल-बंधुओं के साथ द्वारिका आ गए। यहीं 36 वर्ष राज्य करने के बाद उनका देहावसान हुआ। द्वारिका के समुद्र में डूब जाने और यादव कुलों के नष्ट हो जाने के बाद कृष्ण के प्रपौत्र वज्र अथवा वज्रनाभ द्वारिका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यदुओं की आपसी लड़ाई में जीवित बच गए थे। द्वारिका के समुद्र में डूबने पर अर्जुन द्वारिका गए और वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को हस्तिनापुर ले गए। कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। वज्रनाभ के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल कहा जाता है।
द्वारिका के समुद्री अवशेषों को सबसे पहले भारतीय वायुसेना के पायलटों ने समुद्र के ऊपर से उड़ान भरते हुए नोटिस किया था और उसके बाद 1970 के जामनगर के गजेटियर में इनका उल्लेख किया गया। उसके बाद से इन खंडों के बारे में दावों-प्रतिदावों का दौर चलता चल पड़ा। बहरहाल, जो शुरुआत आकाश से वायुसेना ने की थी, उसकी सचाई भारतीय नौसेना ने सफलतापूर्वक उजागर कर दी।

एक समय था, जब लोग कहते थे कि द्वारिका नगरी एक काल्‍पनिक नगर है, लेकिन इस कल्‍पना को सच साबित कर दिखाया ऑर्कियोलॉजिस्‍ट प्रो. एसआर राव ने।

प्रो. राव ने मैसूर विश्‍वविद्यालय से पढ़ाई करने के बाद बड़ौदा में राज्‍य पुरातत्‍व विभाग ज्‍वॉइन कर लिया था। उसके बाद भारतीय पुरातत्‍व विभाग में काम किया। प्रो. राव और उनकी टीम ने 1979-80 में समुद्र में 560 मीटर लंबी द्वारिका की दीवार की खोज की। साथ में उन्‍हें वहां पर उस समय के बर्तन भी मिले, जो 1528 ईसा पूर्व से 3000 ईसा पूर्व के हैं। इसके अलावा सिन्धु घाटी सभ्‍यता के भी कई अवशेष उन्‍होंने खोजे। उस जगह पर भी उन्‍होंने खुदाई में कई रहस्‍य खोले, जहां पर कुरुक्षेत्र का युद्ध हुआ था।

नौसेना और पुरातत्व विभाग की संयुक्त खोज : पहले 2005 फिर 2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निर्देशन में भारतीय नौसेना के गोताखोरों ने समुद्र में समाई द्वारिका नगरी के अवशेषों के नमूनों को सफलतापूर्वक निकाला। उन्होंने ऐसे नमूने एकत्रित किए जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है। 2005 में नौसेना के सहयोग से प्राचीन द्वारिका नगरी से जुड़े अभियान के दौरान समुद्र की गहराई में कटे-छंटे पत्थर मिले और लगभग 200 नमूने एकत्र किए गए।

गुजरात में कच्छ की खाड़ी के पास स्थित द्वारिका नगर समुद्र तटीय क्षेत्र में नौसेना के गोताखोरों की मदद से पुरा विशेषज्ञों ने व्यापक सर्वेक्षण के बाद समुद्र के भीतर उत्खनन कार्य किया और वहां पड़े चूना पत्थरों के खंडों को भी ढूंढ निकाला।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के समुद्री पुरातत्व विशेषज्ञों ने इन दुर्लभ नमूनों को देश-विदेशों की पुरा प्रयोगशालाओं को भेजा। मिली जानकारी के मुताबिक ये नमूने सिन्धु घाटी सभ्यता से कोई मेल नहीं खाते, लेकिन ये इतने प्राचीन थे कि सभी दंग रह गए।

नौसेना के गोताखोरों ने 40 हजार वर्गमीटर के दायरे में यह उत्खनन किया और वहां पड़े भवनों के खंडों के नमूने एकत्र किए जिन्हें आरंभिक तौर पर चूना पत्थर बताया गया था। पुरातत्व विशेषज्ञों ने बताया कि ये खंड बहुत ही विशाल और समृद्धशाली नगर और मंदिर के अवशेष हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निदेशक (धरोहर) एके सिन्हा के अनुसार द्वारिका में समुद्र के भीतर ही नहीं, बल्कि जमीन पर भी खुदाई की गई थी और 10 मीटर गहराई तक किए गए इस उत्खनन में सिक्के और कई कलाकृतियां भी प्राप्त हुईं।

इस समुद्री उत्खनन के बारे में सहायक नौसेना प्रमुख रियर एडमिरल एसपीएस चीमा ने तब बताया था कि इस ऐतिहासिक अभियान के लिए उनके 11 गोताखोरों को पुरातत्व सर्वेक्षण ने प्रशिक्षित किया और नवंबर 2006 में नौसेना के सर्वेक्षक पोत आईएनएस निर्देशक ने इस समुद्री स्थल का सर्वे किया। इसके बाद इस साल जनवरी से फरवरी के बीच नौसेना के गोताखोर तमाम आवश्यक उपकरण और सामग्री लेकर उन दुर्लभ अवशेषों तक पहुंच गए। रियर एडमिरल चीमा ने कहा कि इन अवशेषों की प्राचीनता का वैज्ञानिक अध्ययन होने के बाद देश के समुद्री इतिहास और धरोहर का तिथिक्रम लिखने के लिए आरंभिक सामग्री इतिहासकारों को उपलब्ध हो जाएगी।

इस उत्खनन के कार्य के आंकड़ों को विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों के सामने पेश किया गया। इन विशेषज्ञों में अमेरिका, इसराइल, श्रीलंका और ब्रिटेन के विशेषज्ञ भी शामिल हुए। नमूनों को विदेशी प्रयोगशालाओं में भी भेजा गया ताकि अवशेषों की प्राचीनता के बारे में किसी प्रकार की त्रुटि का संदेह समाप्त हो जाए।

द्वारिका पर ताजा शोध : 2001 में सरकार ने गुजरात के समुद्री तटों पर प्रदूषण के कारण हुए नुकसान का अनुमान लगाने के लिए नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टेक्नोलॉजी द्वारा एक सर्वे करने को कहा। जब समुद्री तलहटी की जांच की गई तो सोनार पर मानव निर्मित नगर पाया गया जिसकी जांच करने पर पाया गया कि यह नगर 32,000 वर्ष पुराना है तथा 9,000 वर्षों से समुद्र में विलीन है। यह बहुत ही चौंका देने वाली जानकारी थी।

माना जाता है कि 9,000 वर्षों पूर्व हिमयुग की समा‍प्ति पर समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण यह नगर समुद्र में विलीन हो गया होगा, लेकिन इसके पीछे और भी कारण हो सकते हैं।

कैसे नष्ट हो गई द्वारिका : वैज्ञानिकों के अनुसार जब हिमयुग समाप्त हुआ तो समद्र का जलस्तर बढ़ा और उसमें देश-दुनिया के कई तटवर्ती शहर डूब गए। द्वारिका भी उन शहरों में से एक थी। लेकिन सवाल यह उठता है कि हिमयुग तो आज से 10 हजार वर्ष पूर्व समाप्त हुआ। भगवान कृष्ण ने तो नई द्वारिका का निर्माण आज से 5 हजार 300 वर्ष पूर्व किया था, तब ऐसे में इसके हिमयुग के दौरान समुद्र में डूब जाने की थ्योरी आधी सच लगती है। ( साभार- वेबदुनिया-http://hindi.webdunia.com/religion-sanatandharma-history )

यह जानकारी अंग्रेजी में इस लिंक पर देखें----
http://www.iskcondesiretree.net/forum/topics/dwaraka-a-lost-city-recovered

Thursday, July 3, 2014

आप किस पक्षी की तरह हैं?


 हमें आपके लिए यह दिलचस्प जानकारी मिली है। सोचा आपके साथ शेयर की जाए। वैसे ज्योतिष की बहुत सारी विद्याएं प्रचलन में हैं। उनमें से कुछ है सामुद्रिक विज्ञान, अंगूठा विज्ञान, पंच पक्षी विज्ञान और हस्तरेखा विज्ञान। ज्यादातर लोग इस पर विश्वास करते हैं, क्योंकि यह कुंडली, ग्रह-नक्षत्रों पर आधारित विद्या नहीं है जिसका कोई आधार समझ में नहीं आता। खैर आप इसे पढ़ें और मजा लें... यह बताना जरूरी है कि यह जानकारी कितनी सही और गलत है यह तो आपको ही तय करना है। हालांकि दक्षिण भारत में पंच पक्षी सिद्धान्त प्रचलित है। इस ज्योतिष सिद्धान्त के अंतर्गत समय को पांच भागों में बांटकर प्रत्येक भाग का नाम एक विशेष पक्षी पर रखा गया है। इस सिद्धांत के अनुसार जब कोई कार्य किया जाता है उस समय जिस पक्षी की स्थिति होती है उसी के अनुरूप उसका फल मिलता है। पंच पक्षी सिद्धान्त के अंतर्गत आने वाले पांच पंक्षी के नाम हैं गिद्ध, उल्लू, कौआ, मुर्गा और मोर। आपके लग्न, नक्षत्र, जन्म स्थान के आधार पर आपका पक्षी ज्ञात कर आपका भविष्य बताया जाता है। माना जाता है कि इसी सिद्धांत के आधार पर 13 पक्षियों का सिद्धांत गढ़ा गया होगा।


1.रॉबिन (robin bird) : यदि आपका जन्म 21 जनवरी से 17 फरवरी के बीच हुआ है तो आप रॉबिन नाम के एक सुंदर पक्षी हैं। इस पक्षी की छाती लाल होती है। यह पक्षी अक्सर आपके घर के आसपास दिखाई दे सकता है। गौरेया के आकार से बस थोड़ा ही बड़ा होता है। 

रॉबिन नाम का एक पक्षी होता है जिसकी छाती लाल होती है तो आप हैं रॉबिन। देखने में आप बहुत शांत हैं, लेकिन अंदर आग भरी हुई है। आग का मतलब की हर चीज पर आपका नजरिया दूसरों से अलग है, जो अक्सर लोगों के नजरिए से मेल नहीं खाता। आप अपने घर-परिवार से बहुत प्यार करते हैं, लेकिन आप का झगड़ालू स्वभाव आपको परिवार से दूर कर सकता है।


2.गोल्डफिंच (goldfinch) : यदि आपका जन्म 18 फरवरी से 17 मार्च के बीच हुआ है तो आप हैं गोल्डफिंच की तरह हैं। 'गोल्डफिंच' का अर्थ होता है सोने का सिक्का। इसे सोन चिड़िया कहते हैं। यह चिड़िया सोने की तरह है। यह पक्षी हमेशा सचेत रहता है। बहुत भावुक लेकिन कलरफुल व्यक्तित्व। समूह में रहकर ही आप सुरक्षा महसूस करते हैं। यही कारण है कि आप में अकेले लड़ने की क्षमता का विकास नहीं हो पाता। अपनी काबिलियत दिखाने के लिए आपको दूसरों की सहायता की जरूरत पड़ती है।


3.हॉक (Hawk) : यदि आपका जन्मदिन 18 मार्च से 14 अप्रैल के बीच हुआ है तो आपका व्यक्तित्व हॉक की तरह है। हॉक को हिन्दी में शिकरा, श्येन और बाज कहते हैं। आत्मविश्‍वास से भरपूर और शक्तिशाली व्यक्तित्व के चलते लोग आपके प्रभाव में रहते हैं। कैसी भी कठिनाई हो, आप उसे अपने कौशल से सुलझा लेते हैं। हमेशा आपका फोकस गोल पर रहता है। शक्ति और साहस से भरपूर आपके व्यक्तित्व के प्रभाव से सभी डरते हैं।


4.एल्बाट्रॉस (albatross) : यदि आपका जन्म 15 अप्रैल से 12 मई के बीच हुआ है तो आप एल्बाट्रॉस हैं। यह एक बड़ा समुद्री पक्षी होता है, जो बतख की तरह तैरता है। यह पक्षी भी रहस्यमयी है। लगता है कि आपका दिमाग द्वंद्व में ही रहता है। इस द्वंद्व के चलते आपका दिमाग भटकता ही रहता है, फिर भी आप वह ढूंढ ही लेते हैं, जो आप चाहते हैं। अदि आप बेकार की बातों में उलझना छोड़ दें तो सुख, समृद्धि और सफलता आपके लिए बहुत आसान है। 

5.डव (Dove) : यदि आपका जन्म 13 मई से 9 जून के बीच हुआ है तो आप डव पक्षी की तरह हैं। सफेद कबूतर को डव कहते हैं। हिन्दी में कपोत। शांति और रोमांस आपको पसंद है। जब यह ज्यादा हो जाता है तो लोग आपकी इस बात का फायदा उठा सकते हैं। सौम्यता और बौद्धिकता आपका स्वभाव है। आप प्यारभरा जीवन जीना पसंद करते हैं। प्रकृति और स्त्री से आप भरपूर प्रेम चाहते हैं।

6.ईगल (Eagle) : यदि आपका जन्म 10 जून से 7 जुलाई के बीच हुआ है तो आप ईगल की तरह हैं। ईगल को हिन्दी में चील या महाश्येन कहते हैं। आपके पास जबर्दस्त विजन पॉवर है और इसका ठीक-ठीक इस्तेमाल करना भी जरूरी है, तभी लोग आपकी इज्जत करेंगे। हालांकि आप ऐसा करते भी हैं। आप एक जिम्मेदार व्यक्ति हैं और आप फिजूल की हरकतों से दूर रहकर अपने विरोधियों पर काबू पा लेते हैं। आपकी सोच बड़ी और सपने ऊंचे हैं। इसे बनाए रखें। जरूरी है कि सिर्फ लक्ष्य पर नजर रखें।



7.नाइटिंगेल (Nightingale) : यदि आपका जन्म 8 जुलाई से 4 अगस्त के बीच हुआ है तो आप हैं नाइटिंगेल। इसे हिन्दी में बुलबुल कहते हैं। कहीं भी जाने से पहले ही आपके आने की सूचना चर्चा का विषय बन जाती है। आपके पास बातें करने के लिए बहुत कुछ है। आपका आकर्षक और रहस्यमयी व्यक्तित्व सभी को प्रभावित करता है। आपके आसपास होने से लोग खुश रहते हैं। आप में भरपूर ऊर्जा और उत्साह है।

8.किंगफिशर (kingfisher) : यदि आपका जन्म 5 अगस्त से 1 सितंबर के बीच हुआ है तो आप किंगफिशर पक्षी की तरह हैं। यह बहुत‍ ही सुंदर पक्षी है जिसकी पीठ नीले आसमानी रंग की, पेट सुनहरा होता है और चोंच केसरिया कलर की। इसे हिन्दी में 'रामचिरैया' कहते हैं, मतलब राम की चिड़िया। आपका व्यक्तित्व भी इसी तरह रंग-बिरंगा है। आप हमेशा हर बात और कार्य के लिए एक्साइटेड रहते हैं। यह उत्साह ही जीवन में तेज गति से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। आपका दिमाग तेज है और इसी के बल पर आप वहां भी घुस सकते हैं, जहां लोग जाने से डरते हैं। आपकी निगाहें दसों दिशाओं को देखती रहती हैं, मतलब कि आपसे कोई बच नहीं सकता।


9.स्वान (swan) : यदि आपका जन्म 2 सितंबर से 29 सितंबर के बीच हुआ है तो आप स्वान की तरह हैं। 'स्वान' का अर्थ हंस। हंस शांत और सुलझे नजर आते हैं लेकिन भीतर से किसी न किसी बात में उलझे रहते हैं। आपके व्यक्तित्व को समझ पाना कठिन है। अगर आपको कोई उकसा दे तो आप हिंसक भी हो सकते हैं। 

10.वुडपैकर (woodpecker) : यदि आपका जन्म 30 सितंबर से 27 अक्टूबर के बीच हुआ है तो आप हैं वुडपैकर। वुडपैकर को हिन्दी में कठफोड़वा और हुदहुद कहते हैं। सचमुच हार्ड वर्क करना तो आप जानते ही हैं। मुश्किलों से जूझने की शक्ति आप में ही हो सकती है। आपको कोलाहल से भरी जिंदगी पसंद है, लेकिन आप अपने लिए एकांत भी चाहते हैं। आपके इरादे पक्के होते हैं और प्लान एकदम सही। आपके होने का मतलब है शांति और खुशी।



11.केस्ट्रेल (kestrel) : यदि आपका जन्म 28 अक्टूबर से 24 नवंबर के बीच हुआ है, तो आप हैं केस्ट्रेल। केस्ट्रेल एक प्रकार का छोटा बाज होता है। इसे आप हिन्दी में खेरमुतिया कह सकते हैं। आपका लक्ष्य निर्धारित होता है। अपने आत्मविश्वास के बल पर आप उन ऊंचाइयों को छू सकते हैं जिनके बारे में दूसरे सोच भी नहीं सकते। हालांकि यह कितना सही है कि आपका तेज दिमाग आपको एक मुद्दे से दूसरे मुद्दे पर शिफ्‍ट कर देता है? यह जानना जरूरी है। 

12.रैवेन (raven) : यदि आपका जन्म 25 नवंबर से 23 दिसंबर के बीच हुआ है तो आप हैं रैवेन। इसे हिन्दी में काला कौआ या डोम कौआ कहते हैं। आप चैलेंज स्वीकार करने में माहिर हैं और आप जीत भी जाते हैं। यही बात है जिसके चलते लोग आपसे प्रभावित रहते हैं। आप उतने ही इंटेलिजेंट हैं जितने कि आपके आसपास के लोग, लेकिन उनमें और आप में यही फर्क है कि आप में शक्ति और साहस का भंडार है तभी तो वे आपके नेतृत्व में काम कर रहे हैं। यदि आपने शक्ति और साहस खो दिया है तो आप सबसे पीछे खड़े रहेंगे। 

13.हेरॉन (Heron) : यदि आपका जन्म 24 दिसंबर से 20 जनवरी के बीच हुआ है तो आप हैं हेरॉन। हेरॉन को हिन्दी में वगुला या बगुला कहते हैं। आप एकांतप्रिय हैं। आपको लोग भ्रामक और चालाक समझते हैं। हालांकि आपको इससे फर्क नहीं पड़ता। कभी-कभी आप असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो जाते हैं लेकिन आप में साहस की कमी नहीं है इसलिए आप खुद को संभालकर जीवन ऊर्जा से भर जाते हैं। आपको अपनी तारीफ पसंद है।

प्रस्तुति : शतायु 
साभार : एफबी 
http://hindi.webdunia.com/religion-astrology-article)



                 

Monday, June 23, 2014

ताजमहल का नया रहस्य - इतिहासकार पुरुषोत्तम ओक का दावा, यह ताजमहल नहीं बल्कि तेजोमहालय शिव मंदिर है

   

     शाहजहां ने दरअसल, वहां अपनी लूट की दौलत छुपा रखी थी इसलिए उसे कब्र के रूप में प्रचारित किया गया। यदि शाहजहां चकाचौंध कर देने वाले ताजमहल का वास्तव में निर्माता होता तो इतिहास में ताजमहल में मुमताज को किस दिन बादशाही ठाठ के साथ दफनाया गया, उसका अवश्य उल्लेख होता।

   यमुना नदी के किनारे सफेद पत्थरों से निर्मित अलौकिक सुंदरता की तस्वीर 'ताजमहल' न केवल भारत में, बल्कि पूरे विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। ताजमहल को दुनिया के सात आश्चर्यों में शामिल किया गया है। हालांकि इस बात को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं कि ताजमहल को शाहजहां ने बनवाया है या फिर किसी और ने।
      भारतीय इतिहास के पन्नो में यह लिखा है कि ताजमहल को शाहजहां ने मुमताज के लिए बनवाया था। वह मुमताज से प्यार करता था। दुनिया भर में ताजमहल को प्रेम का प्रतीक माना जाता है, लेकिन कुछ इतिहासकार इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनका मानना है कि ताजमहल को शाहजहां ने नहीं बनवाया था वह तो पहले से बना हुआ था। उसने इसमें हेर-फेर करके इसे इस्लामिक लुक दिया था।  इसे शाहजहां और मुमताज का मकबरा माना जाता है। उल्लेखनीय है कि ताजमहल के पूरा होने के तुरंत बाद ही शाहजहां को उसके पुत्र औरंगजेब द्वारा अपदस्थ कर आगरा के किले में कैद कर दिया गया था। शाहजहां की मृत्यु के बाद उसे उसकी पत्नी के बराबर में दफना दिया गया। प्रसिद्ध शोधकर्ता और इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक ने अपनी शोधपूर्ण पुस्तक में तथ्‍यों के माध्यम से ताजमहल के रहस्य से पर्दा उठाया है। 

दौलत छुपाने की जगह या मुमताज का मकबरा? 

  कुछ इतिहासकार पुरुषोत्तम ओक ने अपनी पुस्तक में लिखा हैं कि शाहजहां ने दरअसल, वहां अपनी लूट की दौलत छुपा रखी थी इसलिए उसे कब्र के रूप में प्रचारित किया गया। यदि शाहजहां चकाचौंध कर देने वाले ताजमहल का वास्तव में निर्माता होता तो इतिहास में ताजमहल में मुमताज को किस दिन बादशाही ठाठ के साथ दफनाया गया, उसका अवश्य उल्लेख होता।
  ओक अनुसार जयपुर राजा से हड़प किए हुए पुराने महल में दफनाए जाने के कारण उस दिन का कोई महत्व नहीं? शहंशाह के लिए मुमताज के कोई मायने नहीं थे। क्योंकि जिस जनानखाने में हजारों सुंदर स्त्रियां हों उसमें भला प्रत्येक स्त्री की मृत्यु का हिसाब कैसे रखा जाए। जिस शाहजहां ने जीवित मुमताज के लिए एक भी निवास नहीं बनवाया वह उसके मरने के बाद भव्य महल बनवाएगा?

  आगरा से 600 किलोमीटर दूर बुरहानपुर में मुमताज की कब्र है, जो आज भी ज्यों‍ की त्यों है। बाद में उसके नाम से आगरे के ताजमहल में एक और कब्र बनी और वे नकली है। बुरहानपुर से मुमताज का शव आगरे लाने का ढोंग क्यों किया गया? माना जाता है कि मुमताज को दफनाने के बहाने शहजहां ने राजा जयसिंह पर दबाव डालकर उनके महल (ताजमहल) पर कब्जा किया और वहां की संपत्ति हड़पकर उनके द्वारा लूटा गया खजाना छुपाकर सबसे नीचले माला पर रखा था जो आज भी रखा है।

   मुमताज का इंतकाल 1631 को बुरहानपुर के बुलारा महल में हुआ था। वहीं उन्हें दफना दिया गया था। लेकिन माना जाता है कि उसके 6 महीने बाद राजकुमार शाह शूजा की निगरानी में उनके शरीर को आगरा लाया गया। आगरा के दक्षिण में उन्हें अस्थाई तौर फिर से दफन किया गया और आखिर में उन्हें अपने मुकाम यानी ताजमहल में दफन कर दिया गया।
     पुरुषोत्तम अनुसार क्योंकि शाहजहां ने मुमताज के लिए दफन स्थान बनवाया और वह भी इतना सुंदर तो इतिहासकार मानने लगे कि निश्‍चित ही फिर उनका मुमताज के प्रति प्रेम होना ही चाहिए। तब तथाकथित इतिहासकारों ने इसे प्रेम का प्रतीक लिखना शुरू कर दिया। उन्होंने उनकी गाथा को लैला-मजनू, रोमियो-जूलियट जैसा लिखा जिसके चलते फिल्में भी बनीं और दुनियाभर में ताजमहल प्रेम का प्रतीक बन गया।
     मुमताज से विवाह होने से पूर्व शाहजहां के कई अन्य विवाह हुए थे अत: मुमताज की मृत्यु पर उसकी कब्र के रूप में एक अनोखा खर्चीला ताजमहल बनवाने का कोई कारण नजर नहीं आता। मुमताज किसी सुल्तान या बादशाह की बेटी नहीं थी। उसे किसी विशेष प्रकार के भव्य महल में दफनाने का कोई कारण नजर नहीं अता। उसका कोई खास योगदान भी नहीं था। उसका नाम चर्चा में इसलिए आया क्योंकि युद्ध के रास्ते के दौरान उसने एक बेटी को जन्म दिया था और वह मर गई थी।
    शाहजहां के बादशाह बनने के बाद ढाई-तीन वर्ष में ही मुमताज की मृत्यु हो गई थी। इतिहास में मुमताज से शाहजहां के प्रेम का उल्लेख जरा भी नहीं मिलता है। यह तो अंग्रेज शासनकाल के इतिहासकारों की मनगढ़ंत कल्पना है जिसे भारतीय इतिहासकारों ने विस्तार दिया। शाहजहां युद्ध कार्य में ही व्यस्त रहता था। वह अपने सारे विरोधियों की की हत्या करने के बाद गद्दी पर बैठा था। ब्रिटिश ज्ञानकोष के अनुसार ताजमहल परिसर में ‍अतिथिगृह, पहरेदारों के लिए कक्ष, अश्वशाला इत्यादि भी हैं। मृतक के लिए इन सबकी क्या आवश्यकता?

ताजमहल के हिन्दू मंदिर होने के सबूत...

    इतिहासकार पुरुषोत्त ओक ने अपनी किताब में लिखा है कि ताजमहल के हिन्दू मंदिर होने के कई सबूत मौजूद हैं। सबसे पहले यह कि मुख्य गुम्बद के किरीट पर जो कलश वह हिन्दू मंदिरों की तरह है। यह शिखर कलश आरंभिक 1800 ईस्वी तक स्वर्ण का था और अब यह कांसे का बना है। आज भी हिन्दू मंदिरों पर स्वर्ण कलश स्थापित करने की परंपरा है। यह हिन्दू मंदिरों के शिखर पर भी पाया जाता है।
    इस कलश पर चंद्रमा बना है। अपने नियोजन के कारण चन्द्रमा एवं कलश की नोक मिलकर एक त्रिशूल का आकार बनाती है, जो कि हिन्दू भगवान शिव का चिह्न है। इसका शिखर एक उलटे रखे कमल से अलंकृत है। यह गुम्बद के किनारों को शिखर पर सम्मिलन देता है।
     इतिहास में पढ़ाया जाता है कि ताजमहल का निर्माण कार्य 1632 में शुरू और लगभग 1653 में इसका निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। अब सोचिए कि जब मुमताज का इंतकाल 1631 में हुआ तो फिर कैसे उन्हें 1631 में ही ताजमहल में दफना‍ दिया गया, जबकि ताजमहल तो 1632 में बनना शुरू हुआ था। यह सब मनगढ़ंत बातें हैं जो अंग्रेज और मुस्लिम इतिहासकारों ने 18वीं सदी में लिखी।
     दरअसल 1632 में हिन्दू मंदिर को इस्लामिक लुक देने का कार्य शुरू हुआ। 1649 में इसका मुख्य द्वार बना जिस पर कुरान की आयतें तराशी गईं। इस मुख्य द्वार के ऊपर हिन्‍दू शैली का छोटे गुम्‍बद के आकार का मंडप है और अत्‍यंत भव्‍य प्रतीत होता है। आस पास मीनारें खड़ी की गई और फिर सामने स्थित फव्वारे को फिर से बनाया गया।
     ओक ने लिखा है कि जेए मॉण्डेलस्लो ने मुमताज की मृत्यु के 7 वर्ष पश्चात voyoges and travels into the east indies नाम से निजी पर्यटन के संस्मरणों में आगरे का तो उल्लेख किया गया है किंतु ताजमहल के निर्माण का कोई उल्लेख नहीं किया। टॉम्हरनिए के कथन के अनुसार 20 हजार मजदूर यदि 22 वर्ष तक ताजमहल का निर्माण करते रहते तो मॉण्डेलस्लो भी उस विशाल निर्माण कार्य का उल्लेख अवश्य करता।

    ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े की एक अमेरिकन प्रयोगशाला में की गई कार्बन जांच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहजहां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वीं सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिए दूसरे दरवाजे भी लगाए गए हैं। ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात शाहजहां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।

       ताजमहल के गुम्बद पर जो अष्टधातु का कलश खड़ा है वह त्रिशूल आकार का पूर्ण कुंभ है। उसके मध्य दंड के शिखर पर नारियल की आकृति बनी है। नारियल के तले दो झुके हुए आम के पत्ते और उसके नीचे कलश दर्शाया गया है। उस चंद्राकार के दो नोक और उनके बीचोबीच नारियल का शिखर मिलाकर त्रिशूल का आकार बना है। हिन्दू और बौद्ध मंदिरों पर ऐसे ही कलश बने होते हैं। कब्र के ऊपर गुंबद के मध्य से अष्टधातु की एक जंजीर लटक रही है। शिवलिंग पर जल सिंचन करने वाला सुवर्ण कलश इसी जंजीर पर टंगा रहता था। उसे निकालकर जब शाहजहां के खजाने में जमा करा दिया गया तो वह जंजीर लटकी रह गई। उस पर लॉर्ड कर्जन ने एक दीप लटकवा दिया, जो आज भी है।

कब्रगाह या महल...

कब्रगाह को महल क्यों कहा गया? मकबरे को महल क्यों कहा गया? क्या किसी ने इस पर कभी सोचा, क्योंकि पहले से ही निर्मित एक महल को कब्रगाह में बदल दिया गया। कब्रगाह में बदलते वक्त उसका नाम नहीं बदला गया। यहीं पर शाहजहां से गलती हो गई। उस काल के किसी भी सरकारी या शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में 'ताजमहल' शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।
    पुरुषोत्तम लिखते हैं कि 'महल' शब्द मुस्लिम शब्द नहीं है। अरब, ईरान, अफगानिस्तान आदि जगह पर एक भी ऐसी मस्जिद या कब्र नहीं है जिसके बाद महल लगाया गया हो। यह ‍भी गलत है कि मुमताज के कारण इसका नाम मुमताज महल पड़ा, क्योंकि उनकी बेगम का नाम था मुमता-उल-जमानी। यदि मुमताज के नाम पर इसका नाम रखा होता तो ताजमहल के आगे से मुम को हटा देने का कोई औचित्य नजर नहीं आता।
     विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक 'Akbar the Great Moghul' में लिखते हैं, 'बाबर ने सन् 1630 में आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई। वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था। यह इतना विशाल और भव्य था कि इसके जितान दूसरा कोई भारत में महल नहीं था।   बाबर की पुत्री गुलबदन 'हुमायूंनामा' नामक अपने ऐतिहासिक वृत्तांत में ताज का संदर्भ 'रहस्य महल' (Mystic House) के नाम से देती है।

 ताज नहीं पहले था तेजो महालय...

     ओक के अनुसार प्राप्त सबूतों के आधार पर ताजमहल का निर्माण राजा परमर्दिदेव के शासनकाल में 1155 अश्विन शुक्ल पंचमी, रविवार को हुआ था। अत: बाद में मुहम्मद गौरी सहित कई मुस्लिम आक्रांताओं ने ताजमहल के द्वार आदि को तोड़कर उसको लूटा। यह महल आज के ताजमहल से कई गुना ज्यादा बड़ा था और इसके तीन गुम्बद हुआ करते थे। हिन्दुओं ने उसे फिर से मरम्मत करके बनवाया, लेकिन वे ज्यादा समय तक इस महल की रक्षा नहीं कर सके।

    पुरषोत्तम नागेश ओक ने ताजमहल पर शोधकार्य करके बताया कि ताजमहल को पहले 'तेजो महल' कहते थे। वर्तमन ताजमहल पर ऐसे 700 चिन्ह खोजे गए हैं जो इस बात को दर्शाते हैं कि इसका रिकंस्ट्रक्शन किया गया है। इसकी मीनारे बहुत बाद के काल में निर्मित की गई। 

   वास्तुकला के विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में 'तेज-लिंग' का वर्णन आता है। ताजमहल में 'तेज-लिंग' प्रतिष्ठित था इसीलिए उसका नाम 'तेजोमहालय' पड़ा था। शाहजहां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख 'ताज-ए-महल' के नाम से किया है, जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम 'तेजोमहालय' से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहजहां और औरंगजेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुए उसके स्थान पर पवित्र मकबरा शब्द का ही प्रयोग किया है।
    ओक के अनुसार अनुसार हुमायूं, अकबर, मुमताज, एतमातुद्दौला और सफदरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिन्दू महलों या मंदिरों में दफनाया गया है। इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज की लाश दफनाई गई न कि लाश दफनाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया।
     'ताजमहल' शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द 'तेजोमहालय' शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे। देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज के मकबरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है। संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिन्दू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।

तेजो महालय होने के सबूत...

     तेजोमहालय उर्फ ताजमहल को नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था, क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। यह मंदिर विशालकाय महल क्षेत्र में था। आगरा को प्राचीनकाल में अंगिरा कहते थे, क्योंकि यह ऋषि अंगिरा की तपोभूमि थी। अं‍गिरा ऋषि भगवान शिव के उपासक थे। बहुत प्राचीन काल से ही आगरा में 5 शिव मंदिर बने थे। यहां के निवासी सदियों से इन 5 शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करते थे। लेकिन अब कुछ सदियों से बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल 4 ही शिव मंदिर शेष हैं। 5वें शिव मंदिर को सदियों पूर्व कब्र में बदल दिया गया। स्पष्टतः वह 5वां शिव मंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही हैं, जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।
    इतिहासकार ओक की पुस्तक अनुसार ताजमहल के हिन्दू निर्माण का साक्ष्य देने वाला काले पत्थर पर उत्कीर्ण एक संस्कृत शिलालेख लखनऊ के वास्तु संग्रहालय के ऊपर तीसरी मंजिल में रखा हुआ है। यह सन् 1155 का है। उसमें राजा परमर्दिदेव के मंत्री सलक्षण द्वारा कहा गया है कि 'स्फटिक जैसा शुभ्र इन्दुमौलीश्‍वर (शंकर) का मंदिर बनाया गया। (वह इ‍तना सुंदर था कि) उसमें निवास करने पर शिवजी को कैलाश लौटने की इच्छा ही नहीं रही। वह मंदिर आश्‍विन शुक्ल पंचमी, रविवार को बनकर तैयार हुआ।
     ताजमहल के उद्यान में काले पत्थरों का एक मंडप था, यह एक ऐतिहासिक उल्लेख है। उसी में वह संस्कृत शिलालेख लगा था। उस शिलालेख को कनिंगहम ने जान-बूझकर वटेश्वर शिलालेख कहा है ताकि इतिहासकारों को भ्रम में डाला जा सके और ताजमहल के हिन्दू निर्माण का रहस्य गुप्त रहे। आगरे से 70 मिल दूर बटेश्वर में वह शिलालेख नहीं पाया गया अत: उसे बटेश्वर शिलालेख कहना अंग्रेजी षड्‍यंत्र है।
     शाहजहां ने तेजोमहल में जो तोड़फोड़ और हेराफेरी की, उसका एक सूत्र सन् 1874 में प्रकाशित पुरातत्व खाते (आर्किओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) के वार्षिक वृत्त के चौथे खंड में पृष्ठ 216 से 17 पर अंकित है। उसमें लिखा है कि हाल में आगरे के वास्तु संग्रहालय के आंगन में जो चौखुंटा काले बसस्ट का प्रस्तर स्तंभ खड़ा है वह स्तंभ तथा उसी की जोड़ी का दूसरा स्तंभ उसके शिखर तथा चबूतरे सहित कभी ताजमहल के उद्यान में प्रस्थापित थे। इससे स्पष्ट है कि लखनऊ के वास्तु संग्रहालय में जो शिलालेख है वह भी काले पत्थर का होने से ताजमहल के उद्यान मंडप में प्रदर्शित था।
      हिन्दू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाए जाते हैं। ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है, जो कि शिव मंदिर के लिए एक उपयुक्त स्थान है। शिव मंदिर में एक मंजिल के ऊपर एक और मंजिल में दो शिवलिंग स्थापित करने का हिन्दुओं में रिवाज था, जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर में देखा जा सकता है। ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर की मंजिल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज का बताया जाता है।
     जिन संगमरमर के पत्थरों पर कुरान की आयतें लिखी हुई हैं उनके रंग में पीलापन है जबकि शेष पत्थर ऊंची गुणवत्ता वाले शुभ्र रंग के हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कुरान की आयतों वाले पत्थर बाद में लगाए गए हैं। ताज के दक्षिण में एक प्राचीन पशुशाला है। वहां पर तेजोमहालय की पालतू गायों को बांधा जाता था। मुस्लिम कब्र में गाय कोठा होना एक असंगत बात है।
     ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेशद्वार हैं, जो कि हिन्दू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है। ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है। हिन्दू मंदिरों के लिए गूंज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है। बौद्धकाल में इसी तरह के शिव मंदिरों का अधिक निर्माण हुआ था। ताजमहल का गुम्बज कमल की आकृति से अलंकृत है। आज हजारों ऐसे हिन्दू मंदिर हैं, जो कि कमल की आकृति से अलंकृत हैं।  ताजमहल के गुम्बज में सैकड़ों लोहे के छल्ले लगे हुए हैं जिस पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा पाता है। इन छल्लों पर मिट्टी के आलोकित दीये रखे जाते थे जिससे कि संपूर्ण मंदिर आलोकमय हो जाता था। ताजमहल की चारों ‍मीनारें बाद में बनाई गईं।

 ताजमहल का गुप्त स्थान...

   इतिहासकार ओक के अनुसार ताज एक सात मंजिला भवन है। शहजादे औरंगजेब के शाहजहां को लिखे पत्र में भी इस बात का विवरण है। भवन की चार मंजिलें संगमरमर पत्थरों से बनी हैं जिनमें चबूतरा, चबूतरे के ऊपर विशाल वृत्तीय मुख्य कक्ष और तहखाने का कक्ष शामिल है। मध्य में दो मंजिलें और हैं जिनमें 12 से 15 विशाल कक्ष हैं। संगमरमर की इन चार मंजिलों के नीचे लाल पत्थरों से बनी दो और मंजिलें हैं, जो कि पिछवाड़े में नदी तट तक चली जाती हैं। सातवीं मंजिल अवश्य ही नदी तट से लगी भूमि के नीचे होनी चाहिए, क्योंकि सभी प्राचीन हिन्दू भवनों में भूमिगत मंजिल हुआ करती है।

नदी तट के भाग में संगमरमर की नींव के ठीक नीचे लाल पत्थरों वाले 22 कमरे हैं जिनके झरोखों को शाहजहां ने चुनवा दिया है। इन कमरों को, जिन्हें कि शाहजहां ने अतिगोपनीय बना दिया है, भारत के पुरातत्व विभाग द्वारा तालों में बंद रखा जाता है। सामान्य दर्शनार्थियों को इनके विषय में अंधेरे में रखा जाता है। इन 22 कमरों की दीवारों तथा भीतरी छतों पर अभी भी प्राचीन हिन्दू चित्रकारी अंकित हैं। इन कमरों से लगा हुआ लगभग 33 फुट लंबा गलियारा है। गलियारे के दोनों सिरों में एक-एक दरवाजे बने हुए हैं। इन दोनों दरवाजों को इस प्रकार से आकर्षक रूप से ईंटों और गारे से चुनवा दिया गया है कि वे दीवार जैसे प्रतीत हों।
     स्पष्टत: मूल रूप से शाहजहां द्वारा चुनवाए गए इन दरवाजों को कई बार खुलवाया और फिर से चुनवाया गया है। सन् 1934 में दिल्ली के एक निवासी ने चुनवाए हुए दरवाजे के ऊपर पड़ी एक दरार से झांककर देखा था। उसके भीतर एक वृहत कक्ष (huge hall) और वहां के दृश्य को‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ देखकर वह हक्का-बक्का रह गया तथा भयभीत-सा हो गया। वहां बीचोबीच भगवान शिव का चित्र था जिसका सिर कटा हुआ था और उसके चारों ओर बहुत सारी मूर्तियों का जमावड़ा था। ऐसा भी हो सकता है कि वहां पर संस्कृत के शिलालेख भी हों। यह सुनिश्चित करने के लिए कि ताजमहल हिन्दू चित्र, संस्कृत शिलालेख, धार्मिक लेख, सिक्के तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं जैसे कौन-कौन-से साक्ष्य छुपे हुए हैं, उसकी सातों मंजिलों को खोलकर साफ-सफाई कराने की नितांत आवश्यकता है।

फ्रांसीसी यात्री बेर्नियर ने लिखा है कि ताज के निचले रहस्यमय कक्षों में गैर मुस्लिमों को जाने की इजाजत नहीं थी, क्योंकि वहां चौंधिया देने वाली वस्तुएं थीं। यदि वे वस्तुएं शाहजहां ने खुद ही रखवाई होती तो वह जनता के सामने उनका प्रदर्शन गौरव के साथ करता, परंतु वे तो लूटी हुई वस्तुएं थीं और शाहजहां उन्हें अपने खजाने में ले जाना चाहता था इसीलिए वह नहीं चाहता था कि कोई उन्हें देखे।  नदी के पिछवाड़े में हिन्दू बस्तियां, बहुत से हिन्दू प्राचीन घाट और प्राचीन हिन्दू शवदाह गृह हैं। यदि शाहजहां ने ताज को बनवाया होता तो इन सबको नष्ट कर दिया गया होता।

राजा जयसिंह से छीना था यह महल...

  पुरुषोत्तम ओक के अनुसार बादशाहनामा, जो कि शाहजहां के दरबार के लेखा-जोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफनाने के लिए जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्बज) लिया गया, जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।
    जयपुर के पूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किए गए शाहजहां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फरमानों (नए क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिए घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।
    ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुए शिलालेख में वर्णित है कि शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल को दफनाने के लिए एक विशाल इमारत बनवाई जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है।
     ओक लिखते हैं कि शहजादा औरंगजेब द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृत्तांतों में दर्ज किया गया है जिनके नाम 'आदाब-ए-आलमगिरी', 'यादगारनामा' और 'मुरुक्का-ए-अकबराबादी' (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगजेब ने खुद लिखा है कि मुमताज के सात मंजिला लोकप्रिय दफन स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगजेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिए फरमान जारी किया और बादशाह से सिफारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाए। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहजहां के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।
     शाहजहां के दरबारी लेखक मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपने 'बादशाहनामा' में मुगल शासक बादशाह का संपूर्ण वृत्तांत 1000 से ज्यादा पृष्ठों में लिखा है जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का उल्लेख है कि शाहजहां की बेगम मुमताज-उल-मानी जिसे मृत्यु के बाद बुरहानपुर (मध्यप्रदेश) में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके 6 माह बाद तारीख 15 मदी-उल-अउवल दिन शुक्रवार को अकबराबाद आगरा लाया गया फिर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) में पुनः दफनाया गया।
     लाहौरी के अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों की इस आलीशान मंजिल से बेहद प्यार करते थे, पर बादशाह के दबाव में वे इसे देने के लिए तैयार हो गए थे। इस बात की पुष्टि के लिए यहां यह बताना अत्यंत आवश्यक है कि जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनों आदेश अभी तक रखे हुए हैं, जो शाहजहां द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा जयसिंह को दिए गए थे।
     साभार ( वेबदुनिया ) : इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक की पु्स्तक 'ताजमहल तेजोमहालय शिव मंदिर है' से अंश।

Sunday, June 22, 2014

सारनाथ के बोधि वृक्ष की टूटी डाल के मुंहमांगे दाम

       सारनाथ में पवित्र बोधि वृक्ष गिरने की वजह से बौद्ध भिक्षुओं में निराशा भले ही हो, लेकिन उनके हाथ में बैठ बिठाए एक बड़ा खजाना हाथ लग गया है। आम लोगों के लिए पीपल की लकड़ियों का भले ही कोई खास मतलब न हो, पर धार्मिक मान्यताओं की वजह से बौद्ध भिक्षुओं के लिए इसकी छोटी सी टहनी ही नहीं, एक-एक पत्ती भी बेशकीमती है। ऐसे में बोधि वृक्ष की लकड़ियों पर दुनिया भर की निगाहें टिकी हुई हैं। इसके बावजूद टूटी हुई डाल को सुरक्षित रखने के लिए सारनाथ मंदिर प्रशासन की ओर से कोई खास इंतजामात नहीं किए गए हैं।
    ऐतिहासिक बोधि वृक्ष का इतिहास भगवान बुद्ध के सारनाथ में प्रथम उपदेश से जुड़ा है। जिस स्थान पर बैठकर बुद्ध ने प्रथम पांच शिष्यों को उपदेश दिया था, ठीक उसी जगह बोध गया के बोधि वृक्ष की शाखा वर्ष 1931 में श्रीलंका से लाकर लगाई गई थी। इसी बोधि वृक्ष की एक मोटी शाखा (आधा हिस्सा) शुक्रवार की सुबह अचानक बिना आंधी-हवा चले ही गिर पड़ने से सारनाथ में मौजूद बौद्ध भिक्षु चिंतित हैं।
   दुनिया भर को बौद्ध भिक्षु इससे जुड़ी जानकारियां लेने के लिए लगातार यहां के स्थानीय प्रशासन के संपर्क में हैं। बौद्ध धर्मावलंबी शोक मनाने के क्रम में पूजन व दीप दान कर रहे वहीं बौद्ध मंदिरों में शोक सभाओं का दौर जारी है। अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान के अध्यक्ष भिक्षु चंदिमा ने इसे अनहोनी का संकेत बताया और कहा कि इसकी पौराणिकता को ध्यान में रखते हुए संरक्षण के लिए कुछ होता, तो बोधि वृक्ष नहीं गिरता।
    बौद्ध धर्मावलंबी सदियों से बोधि वृक्ष को भगवान बुद्ध का स्वरूप मान पूजते आए हैं। सारनाथ आने वाले देश-दुनिया के श्रद्धालु इस पवित्र वृक्ष का दर्शन व उसकी परिक्रमा जरूर करते हैं। साथ ही इसके पत्ते ले जाकर घर, पुस्तक या पूजाघर में रखते हैं। धार्मिक मान्यता के चलते इसकी एक इंच लकड़ी के लिए भी दुनिया भर में फैले बौद्ध भिक्षु मुंहमांगी रकम अदा कर सकते हैं। इसको देखते हुए ही गिरी डाल पर लोगों की नजर लगी हुई है।
   महाबोधि सोसायटी के असिस्टेंट भिक्षु इंचार्ज नंदा थेरो का कहना है कि गिरी डाल को छोटे-छोटे टुकड़ो में कटवाकर बोधि परिसर के ही एक हिस्से में सुरक्षित रख दिया गया है। इसे किसी को नहीं दिया जाएगा। उनका दावा है कि पवित्र लकड़ियां यहां पूरी तरह सुरक्षित रहेंगी। जबकि दावे के उलट शनिवार को दिन में भी तमाम बौद्ध भिक्षु व स्थानीय लोग टहनियों को तोड़ ले जाते रहे। वहां मौजूद गार्ड मूक दर्शक बने रहे। ऐसे में रात के समय परिसर में पवित्र लकड़ियां कितनी सुरक्षित रह पाएंगीं, यह सवाल उठना लाजिमी है। सारनाथ में चर्चा जोरों पर है कि सोसायटी द्वारा इसे बौद्ध भिक्षुओं को बांटने पर अलग ही खेल होगा। यह सवाल भी उठने लगा है कि यह महज हादसा है या इसके पीछे भी कमाने की साजिश तो नहीं है।
   बौद्ध भिक्षु धम्मलोक का कहना है कि बोधगया और श्रावस्ती में बोधि वृक्षों के संरक्षण के लिए तमाम उपाय किए गए हैं। वैज्ञानिकों से राय लेकर इन्हें बचाए रखने के लिए केमिकल डाले जाते हैं, वहीं मोटी टहनियों को टूटने से बचाने के लिए स्टील राड का सपोर्ट दिया गया है। सारनाथ में ऐसी व्यवस्था न करने पर सवालिया निशान लग रहे हैं। (साभार- नवभारत टाइम्स,वाराणसी)

Friday, June 20, 2014

सारनाथ में बोधि वृक्ष का एक हिस्सा टूटा, मूर्तियां सुरक्षित

  सारनाथ (वाराणसी)- मूलगंध कुटी विहार परिसर में स्थित बोधि वृक्ष का एक हिस्सा शुक्रवार की सुबह धराशायी हो गया। यह संयोग था कि किसी मूर्ति को कोई नुकसान नहीं हुआ। मान्यता है कि भगवान बुद्ध ने बोध गया में ज्ञान प्राप्त करने के बाद पहला उपदेश इसी स्थान पर दिया था। इस मान्यता की वजह से प्रतिदिन हजारों की संख्या में बौद्ध धर्मावलंबी मत्था टेकने यहां आते हैं।
वृक्ष के तने का एक हिस्सा अरसे से पोला (अंदर से सड़ना) हो गया था। हालांकि इसे संरक्षित करने के लिए कई बार आवाज उठी लेकिन कोई काम नहीं हुआ। शुक्रवार की सुबह तकरीबन पौने पांच बजे अचानक पेड़ का तना बीच से टूटकर उत्तर की तरफ गिर गया। विशालकाय होने के कारण उसकी आवाज सारनाथ में हड़कंप मचाने के लिए काफी थी। मूलगंध कुटी विहार के लोगों के अलावा काफी संख्या में क्षेत्रीय नागरिक भी मौके पर पहुंच गये और सबसे पहले यह जानने की कोशिश की गई कि कहीं इसके नीचे कोई श्रद्धालु तो नहीं दब गया। चूंकि वृक्ष के दक्षिण तरफ बुद्ध के पांच प्रथम शिष्यों की मूर्तियां हैं इसलिए पेड़ का हिस्सा गिरने से उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ।
जानकारों ने बताया कि अब वृक्ष के बचे हिस्से को बचाने के लिए वैज्ञानिकों की राय ली जाएगी। धार्मिक मान्यता होने के कारण वृक्ष के टूटे हिस्से को सुरक्षित रखने पर विचार चल रहा है। (साभार - हिन्दुस्तान)। 

Wednesday, April 16, 2014

ययाति कौन थे ?

    हमें वेद-पुराणों में उल्लेखित ययाति के कुल-खानदान को याद रखना चाहिए, क्योंकि इसी से एशिया की जातियों का जन्म हुआ। ययाति से ही आगे चंद्रवंश चला जिसमें से यदुओं, तुर्वसुओं, आनवों और द्रुहुओं का वंश चला। जिस तरह बाइबल में याकूब के 12 पुत्रों से इसराइल-अरब की जाति बनी, उसी तरह ययाति के 5 पुत्रों से अखंड भारत (अफगानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, बांग्लादेश, बर्मा, थाईलैंड आदि) की जातियां बनीं। हालांकि ययाति के 10 पुत्र थे। याकूब और ययाति की कहानी कुछ-कुछ मिलती-जुलती है। यह शोध का विषय हो सकता है।

जम्बूद्वीप के महान सम्राट कुरु

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार पुरुवस को ऐल भी कहा जाता था। पुरुवस का विवाह उर्वशी से हुआ जिससे उसको आयु, वनायु, शतायु, दृढ़ायु, घीमंत और अमावसु नामक पुत्र प्राप्त हुए। अमावसु एवं वसु विशेष थे। अमावसु ने कान्यकुब्ज नामक नगर की नींव डाली और वहां का राजा बना। आयु का विवाह स्वरभानु की पुत्री प्रभा से हुआ जिनसे उसके 5 पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृदशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना। प्रथम नहुष का विवाह विरजा से हुआ जिससे अनेक पुत्र हुए जिसमें ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रीय थे।

ययाति प्रजापति ब्रह्मा की 10वीं पीढ़ी में हुए थे। ययाति ने कई स्त्रियों से संबंध बनाए थे इसलिए उनके कई पुत्र थे, लेकिन उनकी 2 पत्नियां देवयानी और शर्मिष्ठा थीं। देवयानी गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी, तो शर्मिष्ठा दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री थीं। पहली पत्नी देवयानी के यदु और तुर्वसु नामक 2 पुत्र हुए और दूसरी शर्मिष्ठा से द्रुहु, पुरु तथा अनु हुए। ययाति की कुछ बेटियां भी थीं जिनमें से एक का नाम माधवी था। माधवी की कथा बहुत ही व्यथापूर्ण है।

ययाति के प्रमुख 5 पुत्र थे- 1.पुरु, 2.यदु, 3.तुर्वस, 4.अनु और 5.द्रुहु। इन्हें वेदों में पंचनंद कहा गया है। 7,200 ईसा पूर्व अर्थात आज से 9,200 वर्ष पूर्व ययाति के इन पांचों पुत्रों का संपूर्ण धरती पर राज था। पांचों पुत्रों ने अपने- अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रुहु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुए।

पुराणों में उल्लेख है कि ययाति अपने बड़े लड़के यदु से रुष्ट हो गया था और उसे शाप दिया था कि यदु या उसके लड़कों को राजपद प्राप्त करने का सौभाग्य न प्राप्त होगा।- (हरिवंश पुराण, 1,30,29)। ययाति सबसे छोटे बेटे पुरु को बहुत अधिक चाहता था और उसी को उसने राज्य देने का विचार प्रकट किया, परंतु राजा के सभासदों ने ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए इस कार्य का विरोध किया। (महाभारत, 1,85,32)
ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भूमंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए।

यदु ने पुरु पक्ष का समर्थन किया और स्वयं राज्य लेने से इंकार कर दिया। इस पर पुरु को राजा घोषित किया गया और वह प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक हुआ। उसके वंशज पौरव कहलाए। अन्य चारों भाइयों को जो प्रदेश दिए गए, उनका विवरण इस प्रकार है- यदु को चर्मरावती अथवा चर्मण्वती (चंबल), बेत्रवती (बेतवा) और शुक्तिमती (केन) का तटवर्ती प्रदेश मिला। तुर्वसु को प्रतिष्ठान के दक्षिण-पूर्व का भू-भाग मिला और द्रुहु को उत्तर-पश्चिम का। गंगा-यमुना दो-आब का उत्तरी भाग तथा उसके पूर्व का कुछ प्रदेश जिसकी सीमा अयोध्या राज्य से मिलती थी, अनु के हिस्से में आया।

1. पुरु का वंश : पुरु वंश में कई प्रतापी राजा हुए उनमें से एक थे भरत और सुदास। इसी वंश में शांतनु हुए जिनके पुत्र थे भीष्म। पुरु के वंश में ही अर्जुन पुत्र अभिमन्यु हुए। इसी वंश में आगे चलकर परीक्षित हुए जिनके पुत्र थे जन्मेजय।

2. यदु का वंश : यदु के कुल में भगवान कृष्ण हुए। यदुकुल की संपूर्ण जानकारी के लिए आगे क्लिक करें...चंद्रवंश : यदुवंश को जानिए...

3. तुर्वसु का वंश : तुर्वसु के वंश में भोज (यवन) हुए। ययाति के पुत्र तुर्वसु का वह्नि, वह्नि का भर्ग, भर्ग का भानुमान, भानुमान का त्रिभानु, त्रिभानु का उदारबुद्धि करंधम और करंधम का पुत्र हुआ मरूत। मरूत संतानहीन था इसलिए उसने पुरु वंशी दुष्यंत को अपना पुत्र बनाकर रखा था, परंतु दुष्यंत राज्य की कामना से अपने ही वंश में लौट गए।

महाभारत के अनुसार ययाति पुत्र तुर्वसु के वंशज यवन थे। पहले ये क्षत्रिय थे, पर ब्राह्मणों से द्वेष रखने के कारण इनकी गिनती शूद्रों में होने लगी। महाभारत युद्ध में ये कौरवों के साथ थे। इससे पूर्व दिग्विजय के समय नकुल और सहदेव ने इन्हें पराजित किया था।

4. अनु का वंश : अनु को ऋ‍ग्वेद में कहीं-कहीं आनव भी कहा गया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह कबीला परुष्णि नदी (रावी नदी) क्षेत्र में बसा हुआ था। आगे चलकर सौवीर, कैकेय और मद्र कबीले इन्हीं आनवों से उत्पन्न हुए थे।

5. द्रुह्मु का वंश : द्रुह्मु के वंश में राजा गांधार हुए। ये आर्यावर्त के मध्य में रहते थे। बाद में द्रुहुओं? को इक्ष्वाकु कुल के राजा मंधातरी ने मध्य एशिया की ओर खदेड़ दिया। पुराणों में द्रुह्यु राजा प्रचेतस के बाद द्रुह्युओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता। प्रचेतस के बारे में लिखा है कि उनके 100 बेटे अफगानिस्तान से उत्तर जाकर बस गए और 'म्लेच्छ' कहलाए।

ययाति के पुत्र द्रुह्यु से बभ्रु का जन्म हुआ। बभ्रु का सेतु, सेतु का आरब्ध, आरब्ध का गांधार, गांधार का धर्म, धर्म का धृत, धृत का दुर्मना और दुर्मना का पुत्र प्रचेता हुआ। प्रचेता के 100 पुत्र हुए, ये उत्तर दिशा में म्लेच्छों (अरबों) के राजा हुए।

* यदु और तुर्वस को दास कहा जाता था। यदु और तुर्वस के विषय में ऐसा माना जाता था कि इंद्र उन्हें बाद में लाए थे। सरस्वती दृषद्वती एवं आपया नदी के किनारे भरत कबीले के लोग बसते थे। सबसे महत्वपूर्ण कबीला भरत का था। इसके शासक वर्ग का नाम त्रित्सु था। संभवतः सृजन और क्रीवी कबीले भी उनसे संबद्ध थे। तुर्वस और द्रुह्यु से ही यवन और मलेच्छों का ‍वंश चला। इस तरह यह इतिहास सिद्ध है कि ब्रह्मा के एक पु‍त्र अत्रि के वंशजों ने ही यहुदी, यवनी और पारसी धर्म की स्थापना की थी। इन्हीं में से ईसाई और इस्लाम धर्म का जन्म हुआ। यहुदियों के जो 12 कबीले थे उनका संबंध द्रुह्मु से ही था। हालांकि यह शोध का विषय है।

ययाति की कहानी : ययाति की इस कहानी का वर्णन सभी जगह अलग-अलग मिलता है, लेकिन कहानी का मूल वही है। राजा ययाति संसार के प्रति आसक्त व्यक्ति था। 100 वर्ष जीने के बाद भी उनकी भोग-लिप्सा शांत नहीं हुई। कहते हैं कि उसकी 100 रानियां थीं। विषय-वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उससे घृणा हो गई और उसके मन में फिर से जवान बनने की अभिलाषा जाग्रत हो उठी, लेकिन जब उसका मृत्यु का समय आया तो वह थर्राने लगा। डर गया और यमराज से कुछ समय और जीने की याचना करने लगा। यमराज उसे मोहलत देकर चले जाते हैं। इस तरह यमराज दो-तीन बार और आते हैं और अंत में ययाति को ले जाने के लिए टस से मस नहीं होते।

यमराज के सामने ययाति गिड़गिड़ाने लग जाता है- कहने लगा, अभी तो मेरे बहुत काम बाकी है। अभी तो में अतृप्त और भूखा हूं। कुछ और मोहलत दे दीजिए। ऐसे इस तरह अचानक मत ले जाइए। अभी तो मैंने कुछ भोगा ही नहीं।

यमराज ने कहा कि आपकी उम्र कभी से ही पूरी हो चुकी है और अब आपको ले ही जाना पड़ेगा। लेकिन ययाति जब बहुत गिड़गिड़ाने लगा तो यमराज ने कहा- 'अच्छा ठीक है। इस शर्त पर अंतिम बार आपको छोड़ दिया जाता है वह यह कि अब तुम अपने किसी पुत्र की उम्र के बदले यहां और कुछ दिन रह सकते हो।'

अब ययाति अपने बेटों के समक्ष गिड़गिड़ाने लगा। जो बेटे 70 के, 60 के या 50 की उम्र के थे, वे जैसे-तैसे मना करके वहां से चले गए। बाद में यदु, तुर्वसु और द्रुहु ने भी जब मना कर दिया, तब उसने पुरु से पूछा। पुरु सबसे छोटा लड़का था।

पुरु ने कहा कि पिताश्री, मैं अपनी उम्र आपको दे देता हूं। जब आपका मन 100 साल भोगकर नहीं भरा, तब मेरा कहां भर पाएगा? तुम मुझे आशीर्वाद दो। ययाति बहुत खुश हुआ और कहने लगा कि तू ही मेरा असली बेटा है। ये सब तो स्‍वार्थी हैं। तुझे बहुत पुण्‍य लगेगा। तूने अपने पिता को बचा लिया इसलिए तुझे स्वर्ग मिलेगा।

100 साल के बाद फिर मौत आई और बाप फिर गिड़गिडाने लगा और उसने कहा कि अभी तो कुछ भी पूरा नहीं हुआ है। ये 100 साल ऐसे बीत गए कि पता ही नहीं चला। पल में बीत गए। तब तक उसके 100 बेटे और पैदा हो चुके थे। नई-नई शादियां की थीं, मौत ने कहा, तो फिर किसी बेटे को भेज दो।

और ऐसा चलता रहा। ऐसा कहते हैं कि ऐसा 10 बार हुआ। कहानी बड़ी प्रीतिकर है। हजार साल का हो गया बूढ़ा, तब भी मौत आई और मौत ने कहा, अब क्‍या इरादे है?

ययाति हंसने लगा। उसने कहां, अब मैं चलने को तैयार हूं। यह नहीं कि मेरी इच्‍छाएं पूरी हो गईं, इच्‍छाएं वैसी की वैसी अधूरी हैं। मगर एक बात साफ हो गई कि कोई इच्‍छा कभी पूरी हो नहीं सकती। मुझे ले चलो। मैं ऊब गया। यह भिक्षापात्र भरेगा नहीं। इसमें तलहटी नहीं है। इसमें कुछ भी डालो, यह खाली का खाली रह जाता है।

राजा ययाति एक सहस्त्र वर्ष तक भोग लिप्सा में लिप्त रहे किन्तु उन्हें तृप्ति नहीं मिली। विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्हों ने पुरु की युवावस्था वापस लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया।
इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छः पुत्र थे- याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति। याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके कर दिया।

एक बार की बात है कि दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। शर्मिष्ठा अति सुन्दर राजपुत्री थी, तो देवयानी असुरों के महा गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी। दोनों एक दूसरे से सुंदरता के मामले में कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं।

उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले। भगवान शंकर को आते देख वे सभी कन्याएं लज्जावश से बाहर निकलकर दौड़कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रता में शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिए। इस पर देवयानी अति क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से बोली, 'रे शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।'

देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुएं में धकेल दिया। देवयानी को कुएं में धकेल कर शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात् राजा ययाति आखेट करते हुए वहां पर आ पहुंचे और अपनी प्यास बुझाने के लिए वे कुएं के निकट गए तभी उन्होंने उस कुएं में वस्त्रहीन देवयानी को देखा।

जल्दी से उन्होंने देवयानी की देह को ढंकने के लिए अपने वस्त्र दिए और उसको कुएं से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेमपूर्वक राजा ययाति से कहा, 'हे आर्य! आपने मेरा हाथ पकड़ा है अतः मैं आपको अपने पति रूप में स्वीकार करती हूं। हे क्षत्रियश्रेष्ठ! यद्यपि मैं ब्राह्मण पुत्री हूं किन्तु बृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण मेरा विवाह ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता। इसलिए आप मुझे अपने प्रारब्ध का भोग समझ कर स्वीकार कीजिए।' ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

देवयानी वहां से अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई तथा उनसे समस्त वृत्तांत कहा। शर्मिष्ठा के किए हुए कर्म पर शुक्राचार्य को अत्यन्त क्रोध आया और वे दैत्यों से विमुख हो गए। इस पर दैत्यराज वृषपर्वा अपने गुरुदेव के पास आकर अनेक प्रकार से मान-मनोन्वल करने लगे।

बड़ी मुश्किल से शुक्राचार्य का क्रोध शान्त हुआ और वे बोले, 'हे दैत्यराज! मैं आपसे किसी प्रकार से रुष्ठ नहीं हूं किन्तु मेरी पुत्री देवयानी अत्यन्त रुष्ट है। यदि तुम उसे प्रसन्न कर सको तो मैं पुनः तुम्हारा साथ देने लगूंगा।'

वृषपर्वा ने देवयानी को प्रसन्न करने के लिए उससे कहा, 'हे पुत्री! तुम जो कुछ भी मांगोगी मैं तुम्हें वह प्रदान करूंगा।' देवयानी बोली, 'हे दैत्यराज! मुझे आपकी पुत्री शर्मिष्ठा दासी के रूप में चाहिए।' अपने परिवार पर आए संकट को टालने के लिए शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया।

शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई।

देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्र की कामना से राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्यु, अनु तथा पुरु हुए।

बाद में जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के संबंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के पास चली गई। शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर कहा, 'रे ययाति! तू स्त्री लम्पट है। इसलिए मैं तुझे शाप देता हूं तुझे तत्काल वृद्धावस्था प्राप्त हो।'

उनके शाप से भयभीत हो राजा ययाति गिड़गिड़ाते हुए बोले, 'हे दैत्य गुरु! आपकी पुत्री के साथ विषय भोग करते हुए अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप के कारण तो आपकी पुत्री का भी अहित है।' तब कुछ विचार कर के शुक्रचार्य जी ने कहा, 'अच्छा! यदि कोई तुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो तुम उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते हो।'

इसके पश्चात् राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा, 'वत्स यदु! तुम अपने नाना के द्वारा दी गई मेरी इस वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था मुझे दे दो।' इस पर यदु बोला, 'हे पिताजी! असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। इसलिये मैं आपकी वृद्धावस्था को नहीं ले सकता।'

ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की मांग की, लेकिन सभी ने कन्नी काट ली। लेकिन सबसे छोटे पुत्र पुरु ने पिता की मांग को स्वीकार कर लिया।

पुनः युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा, 'तूने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः मैं तुझे राज्याधिकार से वंचित करके अपना राज्य पुरु को देता हूं। मैं तुझे शाप भी देता हूं कि तेरा वंश सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेगा।'
- वेबदुनिया संदर्भ ग्रंथ ( http://hindi.webdunia.com/religion-sanatandharma-history/ )

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