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Wednesday, January 25, 2012

प्राचीन चीन - जटिल सभ्यता की पराकाष्ठा

   चीन हमेशा से अपनी संस्कृति, कला, वास्तुकला, विश्वास, दर्शन आदि के लिए दुनिया में आकर्षण का एक केन्द्र है। पेकिंग मानव के अवशेषों के साक्ष्य के साथ यह आदिम मानव के विकास का भी गवाह रहा है। नवपाषाण युग में, इसे व्यवस्थित जीवन शैली की शुरूआत के रूप में परि‍भाषि‍त किया गया जो बाद में जटिल सभ्यता के रूप में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा।

ताओवाद और कन्फ्यूशियस विद्यालयों के विचार विश्व की दो प्रमुख दार्शिनक धाराओं को चीन के उपहार थे। "मृत्यु के बाद जीवन 'की अवधारणा पर निर्मित प्राचीन चीनी सम्राटों के मकबरे बेमिसाल हैं। चीन ने एक आश्चर्यजनक वास्तुकला के रूप में बनाई गयी अपनी "चीन की महान दीवार" जैसे निर्माण से दुनिया को हैरान कर दिया। कागज, रेशम, मृतिका - शिल्प और कांस्य से बनी हुई कुछ उल्लेखनीय श्रेणी की वस्तुएं हैं जिनपर इतिहास के प्रारंभिक काल में चीन का पूरी तरह से अधिकार था। गुणवत्ता, विविधता और प्राचीन सांस्कृतिक स्मृति चिन्हों की समृद्धि और इनसे जुड़ी शानदार प्रौद्योगिकियों के मामले में, चीन का दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं में महत्वपूर्ण स्थान है।

चीन में करीब 12 हजार वर्ष पूर्व प्रारंभ हुए नवपाषण युग ने (सभाओं, मछली पकड़ने और शिकार करने ) जैसी अर्थव्यवस्था से उत्पादन रूपी अर्थव्यवस्था में होता बदलाव देखा । इस संदर्भ में, मध्य चीन में पीलगंग संस्कृति, लियांगझू संस्कृति और यांगशाओ संस्कृति महत्वपूर्ण रही हैं। व्यवस्थित कृषि के विकास ने बर्तनों और औजारों सहित विभिन्न संबंधित गतिविधियों में भी मदद प्रदान की। पत्थर के टुकड़ो से बने हथियारों की जगह अच्छी तरह से तराशे गये उपकरणों ने ले ली।

कृषि और उससे संबंधित जरूरतों को पूरा करने के लिए कुदाल, चक्की के पाट, दरांती, हलों के फल, कुल्हाड़ी, बसूली जैसे पत्थरों के औजार थे।
   समय बीतने के साथ प्राचीन लोगों ने बर्तनों का उत्पादन किया और काफी हद तक अपने दैनिक जीवन में सुधार कर लिया। विभिन्न रंगों से चित्रित मिट्टी के बर्तनों ने अपनी खास छटा बिखेरी। रंगों से चित्रित कलाओँ ने लोगों की गतिविधियों के साथ साथ प्रारंभिक युग की कलात्मक प्रतिभा को भी प्रस्तुत किया।
खासतौर पर शांग और झोउ राजवंशों ने (18 वीं सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी बीसीई तक) प्राचीन दुनिया के उत्कृष्ट धातु शिल्प में विशेष उपलब्धि हासिल की। प्राचीन चीन में बनाये गये कांस्य के अनेक पात्र वास्तव में आश्चर्यजनक हैं। कांस्य पर की जाने वाली पालिश के बाद यह चमकीले सुनहरे रंग की आभा देता है और देखने में बहुत खूबसूरत लगता है। लेकिन चीन की क्षारीय मिट्टी कांस्य के लिए उपयुक्त है और इसको आकर्षक हरे और नीले रंग में परिवर्तित करने के बाद यह आंखों को मूल धातु से ज्यादा सुन्दर लगता है। हथियारों के लिए कांस्य का उपयोग प्रारम्भ हो गया (कुल्हाड़ी, बरछी, कटार, तलवारें) छेनी, बसूला, आरी और खेती के उपकरण फावड़ों, फावड़ियों, दंराती, मछली हुक को भी बनाया जाने लगा। कब्र में मिलने वाले हथियार इनके स्वामियों की शक्ति को दर्शाते हैं और साथ ही यह भी पता चलता है कि दैनिक जीवन में इनका उपयोग होता था लेकिन खाना पकाने-बनाने के बर्तन, खाना रखने के कन्‍टेनर, मदिरा और जल आदि‍ रखने के बर्तन और उनकी सुंदरता एवं उच्च शिल्प ने चीन और विदेशों का सबसे ज्यादा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। वे इनका उपयोग अपने देवताओं और पूर्वजों को बलिदान करने में किया करते थे और बाद में इन्हें मृत व्यक्ति के साथ दफना दिया जाता था।

कांस्य को ढाल कर वस्तुओं का निर्माण भारी गोल बर्तनों को बनाने में किया जाता था। चीनी कांसे का उपयोग संगीत वाद्ययंत्र, वजन और माप यंत्र, रथ एवं घोड़े का साजो-सामान, गहने और दैनिक उपयोग की विविध वस्‍तुओं को बनाने में भी करते थे। उनको अति‍रि‍क्‍त घुंडि‍यों, हैडिंलों और घनी सजावट के साथ बनाया जाता था।

कांसे के मामले में एक पृथक उत्‍कृष्‍ट श्रेणी कांस्‍य दर्पण है। इसके सामने का हि‍स्‍सा काफी चमकदार है और पि‍छला हि‍स्‍सा वि‍भि‍न्‍न सजावटी डि‍जायनों और शि‍लालेखों से ढका है। अधि‍कांश गोल है तो कुछ चौकोर और कुछ का आकार फूलों की पंखुड़ि‍यों जैसा है तो कुछ हैंडि‍ल के साथ हैं। ये अधि‍कांशत: हान राजवंश और तांग राजवंश की युद्धरत अवधि‍ से संबंधि‍त हैं।

चीनी कला वस्‍तुओं में हरि‍ताश्‍म से बनी वस्‍तुओं का एक वि‍शेष स्‍थान है। हरि‍ताश्‍म एक हल्‍का हरा, सलेटी और भूरे रंग का खूबसूरत सघन पत्‍थर है। इस प्रकार से यह ना सि‍र्फ आंखों को भाता है बल्‍कि‍ स्‍पर्श करने में भी अच्‍छा है। इसकी शुरूआत नवपाषाण युग में पत्‍थर उद्योग के वि‍स्‍तार के रूप में हुई। चीनी हरि‍ताश्‍म को पुण्‍य और भलाई के पत्‍थर के रूप में मानते थे और उनका वि‍श्‍वास था कि‍ इस तरह के गुणों को अपने स्‍वजनों को दि‍या जा सकता है। इसलि‍ए, हरि‍ताश्‍म का उपयोग वि‍शेष अनुष्‍ठानों और संस्‍कार क्रि‍या-कलापों में आमतौर पर कि‍या जाता था लेकि‍न इसका उपयोग गहनें, पेंडेंट और छोटे पशुओं की आकृति‍ बनाने में भी कि‍या जाता था। आमतौर पर, हरि‍ताश्‍म से बनी वस्‍तुओं को संस्‍कार के लि‍ए बनी वस्‍तुओं, धारण और दफनाई जाने वाली वस्‍तुओं की श्रेणी में बांटा जा सकता है।

इसका तकनीकी कारण यह भी था कि‍ हरि‍ताश्‍म के भारी गोल आकार में होने के कारण इसे पतले, तीखे और घुमावदार आकारों में नहीं ढाला जा सकता था।

चीनी मि‍ट्टी से बने बर्तन चीन की सजावटी कला का सबसे स्‍थाई पहलू हैं और जि‍समें उच्‍च गुणवत्‍ता वाली मुल्‍तानी मि‍ट्टी की उपलब्‍धता को प्रमुख महत्‍व दि‍या गया था। वे अपनी बेहतर सतह और शानदार रंगों के लि‍ए उल्‍लेखनीय हैं जि‍न्‍हें अग्‍नि‍ की अत्‍याधुनि‍क तकनीक से प्राप्‍त कि‍या गया है। थोड़े से आयरन ऑक्‍साईड को मि‍लाकर उच्‍च ताप से हरि‍त रोगन तैयार कि‍या जाता और आमतौर पर सीलाडॉन ग्‍लेज कहे जाने वाले एक हल्‍के ताप के वातावरण में बर्तन को पकाया जाता था।

चीनी के बर्तनों की उपस्‍थि‍ति‍ के साथ चीन में चीनी बर्तनों के इति‍हास में एक नये युग की शुरूआत हुई। करीब 3500 वर्ष पूर्व, शांग काल में, एक सफेद पत्‍थर उपयोग में आया जो चीनी मि‍ट्टी के बर्तनों के ही समान था और बाद में इसका वि‍कसि‍त उपयोग पूर्वी हान, तांग, संग, युआंन, मिंग और किंग राजवंशों
में कि‍या गया।
मि‍ट्टी के बर्तनों के बाद आदि‍म सफेद मि‍ट्टी के बर्तनों बने और सफेद मि‍ट्टी के बर्तनों का बदलाव नीले और सफेद ग्‍लेज मि‍श्रि‍त बर्तनों में हुआ। ग्‍लेज मि‍श्रि‍त लाल रंग से रंगे मि‍ट्टी के बर्तन भी प्रचलन में रहे। इसके बाद, वि‍वि‍ध रंगों से बने मि‍ट्टी के बर्तन प्रचलि‍त हुए। चीन में बने चीनी के बर्तन अपने वि‍भि‍न्‍न आकारों और डि‍जाइनों, गहनों की चमक और इसके कपड़े अपनी अनुकूलता और उज्‍जवलता के लि‍ए जाने जाते हैं। मि‍ट्टी के बर्तनों के मामले में चीनी बर्तन उद्योग ने चीन को वि‍श्‍वभर में प्रसि‍द्धि‍ दी।

   तांग राजवंश के वि‍वि‍ध रंगों से बने बर्तनों में शीशे और आकार के बीच मनोहर पंक्‍ति‍यों को उकेरने पर जोर दि‍या गया। लेकि‍न इस समयावधि‍ को आमतौर पर उल्‍लेखनीय रूप से तीन रंगों से मि‍श्रि‍त कांच कला युक्‍त मि‍ट्टी के बर्तनों की उत्‍कृष्‍ट श्रेणी के रूप में जाना जाता है। इन्‍हें गहरे नीले आकाश, बैंगनी, गहरे पीले और गेरूएं, गहरे और हल्‍के हरे और लाल रंग से सजाया जाता था इन रंगों को अग्‍नि‍ के हल्‍के तापमान से बनी उपयुक्‍त धातु ऑक्‍साइड के मि‍श्रण से तैयार कि‍या जाता था। वि‍वि‍ध रंगों के संगम ने ति‍रंगे बर्तनों को वि‍शेष आकर्षक बना दि‍या और ये तांग राजवंश के काल में दफनाने वाली वस्‍तुओं में सबसे लोकप्रि‍य बन गये। इस श्रेणी के मि‍टटी के बर्तनों में मानव और पशुओं की आकृति‍यां इनकी सर्वश्रेष्‍ठ अभि‍व्‍यक्‍ति‍ हैं।

किंन और हांन राजवंशों से मृतक लोगों के साथ बड़ी मात्रा में शानदार समानों और मि‍ट्टी के बर्तनों को दफनाने की प्रथा आरंभ हुई। चीनी सम्राटों का मानना था कि‍ मरने के बाद लोग एक नई दुनि‍या में जीवन जीने के लि‍ए जाते हैं और इसलि‍ए उनके मरने के बाद वे सबकुछ अपने साथ ले जाना चाहते थे जि‍सका उपयोग उन्‍होंने अपने जीवनकाल में कि‍या था। इसलि‍ए, सम्राट के मकबरे का एक बड़ा टीला सा बन जाता था जि‍समें बहुत से बर्तनों, अनाज के भंडार, हथि‍यार, पशु, दैनि‍क उपयोग की वस्‍तुओं, घोड़ों, रथों और मुहरों आदि‍ को दफन कि‍या जाता था। टेराकोट्टा सेना और टेराकोट्टा योद्धा मृतक और उसके बाद के जीवन को मानने वालों में प्राचीन चीनी अंति‍म संस्‍कार के सबसे स्‍पष्‍ट उदाहरण हैं। उन्‍होंने शाही अंति‍म संस्‍कार की रस्‍मों को पूरी तरह से नि‍भाया। भूमि‍गत कब्रों में अपने भारी कवच के साथ दफनाए गये योद्धाओं के हाथों में उनके हथि‍यार यह दि‍खाते थे कि‍ वे अपने सम्राट की रक्षा के लि‍ए कि‍सी भी समय अपनी जान कुर्बान करने के लि‍ए तैयार हैं। अपने खूबसूरत रेशम के लि‍बास के साथ हजारों की संख्‍या में महि‍ला गणि‍काएं नृत्‍य कर रही हैं और सुअरों, घोड़ो, पशु, भेड़, बकरि‍यों, कुत्‍तों और मुर्गि‍यों को उनके भोजन के लि‍ए उनके साथ बांध दि‍या जाता था।
   

भारत और चीन
 दुनिया की दो अद्भुत प्राचीन सभ्यताओं, भारत और चीन के बीच सांस्कृतिक संबंध दो शताब्दी से ज्यादा पुराने हैं। दोनों देश प्राचीन रेशम मार्ग के माध्यम से जुड़े थे। लेकिन भारत से चीन गये बौद्ध धर्म का परिचय आपसी संबंधों के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रम था जिसने चीन में बौद्ध कला और वास्तुकला के निर्माण और चीनी बौद्ध भिक्षुओं जैसे फा-जियान, जुनजांग और इजिंग की भारत यात्रा को एक नये संबंध से जोड़ दिया। भारत से चीन आए बौद्ध धर्म का परिचय धार्मिक प्रति‍माओं के रूप में सामने आया जो अंततः स्‍वयं के एक वर्ग के रूप में विकसित हुआ और वेई, सुई, तांग, संग, मिंग और किंग राजवंशों के उत्‍कृष्‍ट काल तक पहुँचा। इन बौद्ध मूर्तियों को उत्‍कृष्‍ट शिल्प कौशल के माध्‍यम से पत्‍थर के साथ-साथ कांसे से बनाया गया और तांग काल में यह अपने चरमोत्कर्ष तक पहुंची। अपने वि‍कास के दौरान, चीनी मूर्तिकला को विविधता प्रदान करने के लि‍ए नये रूपों और शैलि‍यों को आत्‍मसात कि‍या गया। द यून गंग, द लांगमेन और दाजू ग्रोटोज इस क्षेत्र की कृति‍यों के सि‍र्फ कुछ एक उदाहरण हैं।
   दोनों देशो के बीच ऐतिहासिक मित्रता के आदान-प्रदान को और बढ़ाने के लिए वर्ष 2006 को भारत-चीन मित्रता वर्ष के रूप में घोषित किया गया था। इस वर्ष के एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम के तौर पर, वर्ष 2006-07 के दौरान चीन के चार प्रमुख शहरों- बीजिंग, झेंग्झौ चूंगकींग, और गुआंगज़ौ में "प्राचीन चीन की निधि" पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इस प्रदर्शनी में चीन के लोगों के लिए उनके ही घर में भारतीय कला से जुड़ी सौ कलाकृतियों का प्रदर्शन किया गया। इसके बाद, वर्ष 2011 में भारत के चार शहरों- नई दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और कोलकाता में भी "प्राचीन चीन की निधि" पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इस प्रदर्शनी का आयोजन संयुक्त रूप से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और चीन के सांस्कृतिक विरासत प्रशासन द्वारा किया गया। इस प्रदर्शनी के दौरान निओलिथिक से क्विंग राजवंश की विभिन्न कलाओं से जुड़ी सौ प्राचीन काल की वस्तुओं का प्रदर्शन किया गया। चीनी वस्तुओं की विभिन्न श्रेणियों जैसे आभूषणों, सजावटी वस्तुओं,मिट्टी और धातु आदि से बने बर्तनों का प्रदर्शन नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में फिलहाल जारी प्रदर्शनी में किया गया। यह प्रदर्शनी 20 मार्च, 2011 तक चली। इस प्रदर्शनी का उद्देश्य दोनों देशों के लोगों के बीच मित्रता के संबंध को और मजबूत बनाना था।
साभार- http://www.pib.nic.in/newsite/hindifeature.aspx

डायनासोर के 19 करोड़ साल पुराने बसेरे की खोज





   खबरों में इतिहास
  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१-डायनासोर के 19 करोड़ साल पुराने बसेरे की खोज
२-इंसान और कुत्ते का रिश्ता 30 हज़ार साल पुराना

डायनासोर के 19 करोड़ साल पुराने बसेरे की खोज
दक्षिण अफ्रीका के जीवाश्म वैज्ञानिकों को डायनासोर के अंडों का एक ऐसा ठिकाना मिला है जो अब से पहले मिले सभी जगहों से करीब दस करोड़ साल पुराना है। इसकी खोज करने वाले जीवाश्म वैज्ञानिकों को इस जगह से ऐसे दस अलग-अलग बसेरे मिले हैं जिनमें 6-7 सेंटीमीटर लंबे कम से कम 34 अंडे मिले हैं। ये जीवाशेष 'प्रोसॉरोपोड मैसोपोन्डिलस' प्रजाति के डायनासोर का है जो लंबी गर्दन वाले सॉरोपोड प्रजाति के डायनासोर डिप्लोडोकस से संबंधित है। इन ठिकानों से मिली जानकारी के अनुसार ये डायनासोर अंडे देने के लिए बार-बार इन कीड़ा स्थलों पर लौट कर आते थे और यहां झुंड में अंडे देकर वापस चले जाते थे, इस प्रक्रिया को उपनिवेशीय तरीके से घर बसाना कहा जाता है।
19 करोड़ साल पुराने अवशेष : इस 19 करोड़ साल पुराने अवशेषों में डायनासोर के भ्रूणीय कंकाल भी मिले हैं जिनका वर्णन राष्ट्रीय विज्ञान एकेडेमी में किया गया है। ये कंकाल दक्षिण अफ्रीका के गोल्डन गेट नेश्नल पार्क में एक 25 मीटर लंबे चट्टान में पाए गए हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इस तरह के कई और स्थल इन चट्टानों में समाए हुए हैं जो समय बीतने पर अपने आप नज़र आने शुरू हो जाएंगे। लेकिन इस ताजा खोज ने अब तक पृथ्वी में डायनासोर के इतिहास के बारे में मिली जानकारियों को काफी हद तक विस्तृत किया है। रॉयल ओनटारियो म्यूजियम में वर्टीब्रेट पैलियनटोलॉजी विभाग में सहायक संरक्षक के पद पर तैनात डेवि़ड इवांस कहते हैं, 'वैसे तो डायनासोर के अवशेषों के बारे में हमें अब तक व्यापक जानकारी हासिल हो चुकी है, लेकिन उनके प्रजनन संबंधी जानकारियों का अब भी का काफी अभाव है, खासकर इनकी शुरुआती पीढ़ी के बारे में।' डेविड आगे कहते हैं, 'इन 19 करोड़ साल पहले पुराने प्रजनन स्थलों की जानकारी के बाद हमें पहली बार डायनासोर के शुरुआती पीढ़ियों के विकास को दर्शाने वाले इतिहास की अनोखी जानकारी मिल सकेगी जिससे अब से पहले तक हम अनजान थे।' साभार-बीबीसी

इंसान और कुत्ते का रिश्ता 30 हज़ार साल पुराना
 http://www.samaylive.com/international-news-in-hindi/139462/dog-human-being-canine-man-s-friend-animal-world.html

कुत्ते इंसान के न सिर्फ सबसे अच्छे मित्र हैं बल्कि सबसे प्राचीनतम मित्र रहे हैं. यह बात एक नये अध्ययन में सामने आई है। लंदन से प्राप्त एक समाचार के अनुसार एरिजोना विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में पता चला कि मानव और कुत्तों के बीच पिछले 30 हजार सालों से रिश्ता रहा है. साथ ही यह भी पाया गया है कि यह वही जानवर है जो सबसे पहले इंसान का पालतू जानवर बना।
शोधकर्ताओं ने साइबेरिया में 33 हजार साल पुराने कुत्ते के अवशेषों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है. उनके अध्ययन से ही पता चला है कि उस दौर में भी यह जानवर इंसान का पालतू था। शोधकर्ता ग्रेग होडगिन्स ने फॉक्स न्यूज से दावा किया है कि 33 हजार साल पुराने इन अवशेषों से पता चला है कि उस दौर में  कुत्ते इंसान के करीब थे। उन्होंने कहा कि आमतौर पर हम सोचते हैं कि इतिहास में बकरी, गाय, भेड़ आदि इंसान के पालतू जानवर रहे होंगे. लेकिन मानव और कुत्तों का इस दौर में भी खास रिश्ता था। 

Sunday, January 22, 2012

सूखे से बर्बाद हुआ अंकोरवाट

  पहले कहा गया था कि जिस शहर अंकोरवाट में दुनिया का सबसे बड़े मंदिर अंकोरवाट है, उस शहर का विनाश लंबी चली लड़ाईयों व जमीन के सही संतुलन न बनाए रखने ( अंधाधुंध दुरुपयोग ) के कारण हुआ। मगर अब नए शोध में कहा जा रहा है कि अकोरवाट शहर का विनाश सूखे के कारण हुआ। पर्यावरण में विनाशकारी परिवर्तन से ऊबारने के इंतजाम नहीं होने के कारण शहर को बचाया नहीं जा सका। हालांकि पर्यावरण को ही एकमात्र कारण भले नहीं माना जा सकता मगर यह भी प्रमुख कारण था।
  
गेट्स कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के शोधार्थियों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम का तो यही मानना है कि ६०० साल पहले इस शहर के पतन का प्रमुख कारण पर्यावरण में बदलाव के बाद पड़ा सूखा था। जबकि इस शहर में उत्कृष्ट जलप्रबंधन था।
कैम्ब्रिज के शोधार्थी मैरा बेथ डे समेत पूरी टीम  ख्मेर साम्राज्य के ११ वीं शताब्दी के इस खूबसूरत शहर अंकोरवाट के जलप्रबंधन का अध्ययन कर ही है। अंकोरवाट संयुक्त राष्ट्रसंघ की विश्व धरोहर सूची में शामिल दक्षिणपूर्व एशिया के सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों में से एक है।

 
अंकोरवाट मन्दिर अंकोरयोम नामक नगर में स्थित है, जिसे प्राचीन काल में यशोधरपुर कहा जाता था। मीकांग नदी के किनारे सिमरिप शहर में बना यह मंदिर आज भी संसार का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है जो सैकड़ों वर्ग मील में फैला हुआ है। राष्ट्र के लिए सम्मान के प्रतीक इस मंदिर को १९८३ से कंबोडिया के राष्ट्रध्वज में भी स्थान दिया गया है। यह मन्दिर मेरु पर्वत का भी प्रतीक है। इसकी दीवारों पर भारतीय धर्म ग्रंथों के प्रसंगों का चित्रण है। इन प्रसंगों में अप्सराएं बहुत सुंदर चित्रित की गई हैं, असुरों और देवताओं के बीच अमृत मन्थन का दृश्य भी दिखाया गया है।
  विश्व के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थानों में से एक होने के साथ ही यह मंदिर यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से एक है। पर्यटक यहाँ केवल वास्तुशास्त्र का अनुपम सौंदर्य देखने ही नहीं आते बल्कि यहाँ का सूर्योदय और सूर्यास्त देखने भी आते हैं। सनातनी लोग इसे पवित्र तीर्थस्थान मानते हैं।
 अंकोरवाट जयवर्मा द्वितीय के शासनकाल (1181-1205 ई.) में कम्बोडिया की राजधानी था। अंकोरवाट का निर्माण कम्बुज के राजा सूर्यवर्मा द्वितीय (1049-66 ई.) ने कराया था और यह मन्दिर विष्णु को समर्पित है। यह मन्दिर एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित है।  इसमें तीन खण्ड हैं, जिसमें प्रत्येक में सुन्दर मूर्तियाँ हैं और प्रत्येक खण्ड से ऊपर के खण्ड तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ हैं।प्रत्येक खण्ड में आठ गुम्बज हैं। जिनमें से प्रत्येक 180 फ़ुट ऊँची है। मुख्य मन्दिर तीसरे खण्ड की चौड़ी छत पर है। उसका शिखर 213 फ़ुट ऊँचा है और यह पूरे क्षेत्र को गरिमा मंडित किये हुए है।
मन्दिर के चारों ओर पत्थर की दीवार का घेरा है जो पूर्व से पश्चिम की ओर दो-तिहाई मील और उत्तर से दक्षिण की ओर आधे मील लम्बा है। इस दीवार के बाद 700 फ़ुट चौड़ी खाई है। जिस पर एक स्थान पर 36 फ़ुट चौड़ा पुल है। इस पुल से पक्की सड़क मन्दिर के पहले खण्ड द्वार तक चली गयी है। इस प्रकार की भव्य इमारत संसार के किसी अन्य स्थान पर नहीं मिलती है।
   भारत से सम्पर्क के बाद दक्षिण-पूर्वी एशिया में कला, वास्तुकला तथा स्थापत्यकला का जो विकास हुआ, उसका यह मन्दिर चरमोत्कृष्ट उदाहरण है।

  पतन का कारण सूखा होने के प्रमाण


१५वीं शताब्दी की लड़ाईयों व जमीन के अंधाधुंध दुरुपयोग से अंकोरवाट के पतन की कहानी से अलग मैरीबेथ को ११ वीं शताब्दी में ख्मेर साम्राज्य के बनवाए गए पूरे क्षेत्र के जलाशयों में जमे तलछट के जो नमून मिले हैं उससे इस क्षेत्र के १००० साल के पर्यावरण के इतिहास पर की जानकारी हासिल की है। इन साक्ष्यों के आधार पर इन पर्यावरणविदों को मानना है कि जब अंकोरवाट का पतन हुआ उस समय तक वहां का जलस्तर काफी नीचे चला गया था। इसने पर्यावरण के परिवर्तन में भारी भूमिका निभाई। हालांकि मैरीबेथ का कहना है कि पतन का यही एक अकेला कारण नहीं था। सामाजिक और राजनैतिक अस्थिरत के साथ पर्यावरण में बदलाव ने जो असंतुलन पैदा किया उससे लड़ने के लिए यह शहर तैयार नहीं था। अनियंत्रित सूखे ने तबाही मचा दी। शहरीकरण के कारण जंगलों की बेतहासा कटाई ने गंभीर पर्यावरण असंतुलन पैदा किया। इतनी बड़ी विपदा से लड़ने में सक्षम नहीं था अंकोरवाट प्रशासन। नतीजे में अंकोरवाट शहर उजड़ गया।
  मैरीबेथ व उनकी टीम का यह शोध प्रोसीडिंग्स आफ द नेशनल एकेडमी आफ साइंस में प्रकाशित किया गया है। मैरीबेथ को भरोसा है कि पर्यावरण के कारण अंकोरवाट के पतन की यह कहानी आज पर्यावरण समस्या से निपटने की नसीहत होगी। वे कहती हैं कि- अंकोरवाट का जलप्रबंधन बहुत ही उच्चकोटि का था फिर भी पर्यावरण समस्या और उससे उपजी सामाजिक अस्थिरता से लड़ने में अक्षम साबित हुआ। यह शोध और किसी बात के लिए महत्वपूर्ण भले न हो मगर इस बात की नसीहत तो देता ही है कि पर्यावरण समस्या ने इतिहास के किसी दौर में कितनी तबाही मचाई होगी।
 
हम भी पुनः उसी समस्या के कगार पर
 हम आज भी पुनः उसी समस्या के कगार पर खड़े हैं। भारत में पंजाब में ६० साल बाद बर्फबारी देखने को मिली। बंगाल के कुछ इलाकों में इस साल की ठंड में घास पर बर्फ जमी मिली। हर बार १४ जनवरी मकरसंक्रांति के बाद तापमान बढ़ने लगता है मगर इस बार पारा नाचे ही गिरता जा रहा है। कहा जा रहा है कि इस साल होली तक ठंड पड़ेगी। यह सब भी पर्यावरण असंतुलन के संकेत हैं। तो क्या हमारा भी हश्र अंकोरवाट का ही होगा ? क्या फिर हम हिमयुग की ओर बढ़ रहे हैं ?




Friday, January 20, 2012

सेटेलाइट की मदद से पेरु के प्राचीन स्थलों की खोज

पेरु में स्थित प्राचीन स्थलों की खोज और उन पर शोध
पिछले चार साल से इटली के पुरातत्वविद सेटेलाइट तकनीक के जरिए पेरु में स्थित प्राचीन स्थलों की खोज और उन पर शोध करने का काम कर रहे हैं। इटली के पुरातत्वविदों की ये टीम सेटेलाइट के जरिए प्राप्त की गई तस्वीरों की मदद से ये काम कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर ये टीम देश के दक्षिणी भाग में हज़ारों साल पहले नाज्का सभ्यता द्वारा सूखे पठार पर उकेरे गए पशुओं के चित्रों को समझने की कोशिश कर रहे हैं।
मिस्र में सालों से सेटेलाइट तस्वीरों की मदद से वहाँ के ऐसे प्राचीन स्थलों के बारे जाना जा सका है जिसें आमतौर पर नहीं देखा जा सकता था। लेकिन ये तकनीक दक्षिणी अमरीका में कुछ मायनों में नई है। पेरु कई प्राचीन सभ्यताओं का जन्म स्थल रहा है जिसमें से एक 'इंका सभ्यता' भी थी। पेरू में अनुमानित एक लाख ऐसे पुरातन स्थल है जिनमें से केवल कुछ को ही खोजा जा सका है।
सेटेलाइट से खोज : इटली के पुरातत्वविदों की टीम की अगुवाई कर रहे निकोल मेसिनी का कहना है कि इस तकनीक की मदद से उन स्थलों को खोजने में मदद मिलेगी जो आसमान सी ली गई तस्वीरों में नहीं दिखाई देती है।
उनका कहना है कि सेटेलाइट द्वारा ली गई तस्वीरों से वैज्ञानिकों को मिट्टी और पत्थरों की परतों को हटाकर उनके भीतर, या फिर घने जंगलों में भी देख पाएंगे। मसिनी का कहना है, 'पेरु में ज़्यादातर पुरातात्विक स्थान ऐसे है जहां पहुंचना कठिन है। जैसे वहां सीयरा नाम का एक मरुस्थल है जिसपर सीधे तौर पर और ना ही आसमान से निगरानी रखा जा सकती है। ऐसी स्थिति में निगरानी या स्थिति पर नजर रखना केवल सैटेलाइट डेटा की मदद से ही संभव है।'
साल 2008 में मेसिनी की टीम ने इन्फ्रा रेड और बहुआयामी तस्वीरों की मदद से पेरु के गहरे मरुस्थल में जाकर प्राचीन अडोब पिरामिड को खोज निकाला था। लेकिन सैटेलाइट की इस तकनीक का और एक महत्वपूर्ण उपयोग है।
उदाहरण के लिए इराक़ में इसका इस्तेमाल खाड़ी युद्ध से पहले और बाद में प्राचीन स्थलों में हुई लूटपाट के बाद हुए प्रभावों को जानने के लिए किया गया।
मेसिनी का मानना है कि पेरु में एक बड़े क्षेत्रफल में सभ्यता फैला हुई है लेकिन शोध करने के संसाधन कम है। सैटेलाइट तस्वीरों के तुलनात्मक अध्ययन से वैज्ञानिक ये भी पता लगा सकते है कि मानव गतिविधियों से इन पुरातात्विक स्थलों पर कोई नकारात्मक प्रभाव हुआ है।
इटली के पुरातत्वविदों का मानना है कि सैटेलाइट के ज़रिए अध्ययन मंहगा है, लेकिन पेरु में पर्यटन राजस्व का तीसरा बड़ा स्रोत है ऐसे में वे इस खर्च की भरपाई कर लेगा।

हजारों साल पहले भी खाए जाते थे पॉपकॉर्न!
एक नए शोध में पाया गया है कि उत्तरी पेरू के लोग साधारण अनुमान से 1,000 साल पहले भी पॉपकॉर्न खाया करते थे। शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्हें पेरू में मकई के फूले हुए दाने मिले हैं, जो कि इस बात का संकेत है कि वहां रहने वाले लोग इसका इस्तेमाल मकई का आटा और पॉपकॉर्न बनाने में करते थे।
वॉशिंगटन के प्राकृतिक इतिहास संग्राहलय के मुताबिक पाए गए मकई के फूले हुए दानों में से सबसे पुराने करीब 6,700 साल पुराने थे। 'स्मिथसोनियन म्यूजम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री' के न्यू वर्ल्ड आर्केलॉजी विभाग की निरीक्षक डोलोर्स पिपर्नो ने कहा कि मैक्सिको में 9,000 साल पहले मकई को जंगली घास के जरिए उगाया जाता था।
उनका कहना था कि उनकी शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि साउथ अमेरिका में मकई के आने के एक हजार साल बाद ये महाद्वीप के दूसरे क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में पाया गया।
शोधकर्ताओं की टीम को मकई के बालों के अवशेष पारेदोन्स और हुआका प्रीटा नाम के प्राचीन स्थलों पर मिला। हालांकि शोधकर्ताओं का मानना है कि उस समय मकई लोगों के आहार का अहम हिस्सा नहीं था।


Wednesday, January 18, 2012

चीन के ४४००० प्राचीन खंडहर, मंदिर व अन्य सांस्कृतिक स्थल गायब !

  चीन का कहना है कि उसके 44,000 प्राचीन खंडहर, मंदिर और अन्य सांस्कृतिक स्थल गायब हो चुके हैं.देश में धरोहरों की पहली गणना में यह तथ्य सामने आए है, गणना में 20 साल लगे।
पाया गया है कि जिन प्राचीनतम धरोहरो की छाप अभी तक चीन में बची हुई है वो भी विलुप्ति की ओर बढ़ रहे है. क़रीब एक चौथाई तो काफ़ी खराब स्थिति में हैं।
चीन के सरकारी मीडिया ने एक अधिकारी के हवाले से बताया कि इस तरह के बहुत सारे स्थान असुरक्षित थे और उन्हें निर्माण की योजनाओं के तहत गिराया गया था।
चीन के सांस्कृतिक धरोहरों की देखरेख करने वाले विभाग की ओर से कराई गई गणना में सात लाख धरोहरों को पंजीकृत किया गया।

सर्वेक्षण के उप-निदेशक लिउ शियाओ ने सरकारी मीडिया को बताया कि व्यवसायिक प्रयोग के लिए इमारतों के निर्माण से इन अवशेषों को नुकसान पहुँचा है। आंकड़ों के अनुसार टेराकोटा के लड़ाकुओं का क्षेत्र शांक्सी प्रांत सबसे ज़्यादा प्रभावित रहा जहाँ 3,500 सांस्कृतिक स्थल गायब हुए हैं।
  "ग्रेट वॉल ऑफ़ चाईना" भी खतरे में
हालांकि धरोहरों की इस गिनती में किसी इमारत या स्मारक का नाम नहीं लिया गया है।
पत्रकारों के मुताबिक़ 'ग्रेट वॉल ऑफ चाईना' भी घिसाव और अनाधिकृत विकास का सामना कर रही है क्योंकि वहां घूमने गए पर्यटक संरक्षण के नियमों की पाबंदी नही करते है जिसका स्थानीय ग्रामीण व्यवसायिक फ़ायदा उठाते हैं। कहा जाता है कि चीन के किन राजवंश के हिस्से की दीवार पर दो साल पहले कुछ लोगों ने सोने की खोज में छेद कर दिए थे। (
साभार-बीबीस )

Tuesday, January 3, 2012

काशीराज के सरस्वती भंडार कक्ष के लॉकर में रखी है रामचरित मानस की असली पांडुलिपि

वाराणसी में पिछले दिनों तुलसीघाट से चोरी गई तुलसीदास रचित रामचरित मानस की पांडुलिपि असली नहीं है। इसका रहस्यमय खुलासा करते हुए गोस्वामी तुलसीदास के मित्र राय टोडर की 14वीं पीढ़ी के सदस्य वयोवृद्ध आनंद बहादुर सिंह द्वारा किए जाने से पूरे मानस परिवार से जुड़े लोग व पुलिस प्रशासन अवाक है। आनंद बहादुर ने अपने भदैनी स्थित आवास पर जनसत्ता के वाराणसी संवाददाता अरविंद कुमार से बातचीत में बताया कि गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस की 1704 की असली पांडुलिपि काशीराज के सरस्वती भंडार कक्ष के लॉकर में रखी है। अखाड़ा गोस्वामी तुलसीदास रामलीला समिति बतौर मंत्री सिंह ने कहा कि तुलसीघाट स्थित हनुमान मंदिर से चोरी गई रामचरित मानस, तुलसीदास रचित पांडुलिपि नहीं है।
   पिछले दो सौ वर्ष से घाट पर रामलीला के समय का संचालन जिस मानस पांडुलिपि से किया जाता है उसके तुलसीदास के तिरोधान के 200 वर्ष बाद लिखे जाने के संकेत मिलते हैं। असली पांडुलिपि के अंत में गोस्वामी जी ने पुष्पिका को रेखांकित किए थे। जबकि चोरी गई पांडुलिपि के अंत में पुष्पिका न होने से रचनाकार वर्ष अज्ञात सर्वविदित है। असली रामचरित मानस के चोरी का प्रश्न ही नहीं है। वह काशीराज के सरस्वती भंडार में संग्रहीत है। हालांकि तुलसीघाट स्थित हनुमान मंदिर से दो सौ साल पुरानी मानस पांडुलिपि की तलाश में पुलिस प्रशासन बरामदगी के लिए गंभीर है। जनता को इसमें सहयोग करना चाहिए ताकि सच सामने आ सके। काशीराज संस्करण का मूल पाठ तैयार करने के दौरान आचार्य पं. विश्वनाथ मिश्र के साथ तुलसीघाट पर रखी दोनों पांडुलिपि का अध्ययन किया गया था। प्रकाशित संस्करण का भूमिका में उल्लेख है कि 1704 की प्रति अखाड़े के पूर्ववर्ती महंत लक्ष्मण दास ने काशीराज को हनुमत जयंती के अवसर पर भेंट कर दी थी जो आज भी काशीराज के महल में खास पोथी के नाम से राजमहल के लॉकर में सुरक्षित है, जबकि घाट से चोरी गई पांडुलिपि हनुमान जी प्रतिमा के पास ही गद्दी पर विराजमान रही, जो कि तुलसीदास जी द्वारा रचित नहीं है।
 
अखाड़ा गोस्वामी तुलसीदास के सचिव आनंद बहादुर ने बताया कि उनकी पीढ़ी गोस्वामी जी के समय से ही संकटमोचन मंदिर व हनुमान मंदिर की परंपराओं से जुड़ी हैं। वे खुद भी पूर्व महंत बाकेराम मिश्र के सबसे करीबी सहयोगी के रूप में कार्य कर चुके हैं। 1947 से ही गोस्वामी तुलसीदास रामलीला की देखरेख कर रहे हैं। उधर संकटमोचन मंदिर के महंत प्रो. वीरभद्र मिश्र ने कहा कि चोरी गई पांडुलिपि तुलसीदास रचित न होने की बाबत प्रशासन को पहले भी अवगत करा चुके हैं। रामचरित मानस की पांडुलिपि के चोरी होने से संकटमोचन मंदिर के महंत प्रो वीरभद्र मिश्र भी काफी दु:खी हैं। पांडुलिपि की चोरी हो जाने से काशी के डीएम रवींद्र व डीआईजी रामकुमार मौके पर पहुंचकर रामचरित मानस की हनुमान मंदिर से चोरी हो गई मानस की पड़ताल कराने लगे। पुलिस व गुप्तचरों की टीम, दक्षिण भारत के कई जिलों में खोज के लिए भेज दी गई है। इस विषय पर तुलसीघाट व मंदिर से जुड़े डा. विशंभर नाथ मिश्र भी मानस की चोरी हो जाने पर काफी मर्माहित हैं। (खबर जनसत्ता से साभार )।

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