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Friday, January 31, 2014

भीम पुत्र घटोत्कच का कंकाल मिला!


 भारत के उत्तरी क्षेत्र में खुदाई के समय नेशनल ज्योग्राफिक (भारतीय प्रभाग) को 22 फुट का विशाल नरकंकाल मिला है। उत्तर के रेगिस्तानी इलाके में एम्प्टी क्षेत्र के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र सेना के नियंत्रण में है। यह वही इलाका है, जहां से कभी प्राचीनकाल में सरस्वती नदी बहती थी।

इस कंकाल को वर्ष 2007 में नेशनल जिओग्राफी की टीम ने भारतीय सेना की सहायता से उत्तर भारत के इस इलाके में खोजा। 8 सितंबर 2007 को इस आशय की खबर कुछ समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई थी। हालांकि इस तरह की खबरों की सत्यता की कोई पुष्टि नहीं हुई है। इस मामले में जब तक कोई अधिकृत बयान नहीं जारी होता, यह असत्य ही मानी जा रही है।

बताया जाता है कि कद-काठी के हिसाब से यह कंकाल महाभारत के भीम पुत्र घटोत्कच के विवरण से मिलता-जुलता है। हालांकि इसकी तुलना अमेरिका में पाए जाने वाले बिगफुट से भी की जा रही है जिनकी औसत हाइट अनुमानत: 8 फुट की है। इसकी तुलना हिमालय में पाए जाने वाले यति से भी की जा रही है, जो बिगफुट के समान ही है।

माना जा रहा है कि इस तरह के विशालकाय मानव 5 लाख वर्ष पूर्व से 1 करोड़ 20 लाख वर्ष पूर्व के बीच में धरती पर रहा करते थे जिनका वजन लगभग 550 किलो हुआ करता था।

यह कंकाल देखकर पता चलता है कि किसी जमाने में भारत में ऐसे विशालकाय मानव भी रहा करते थे। माना जा रहा है कि भारत सरकार द्वारा अभी इस खोजबीन को गुप्त रखा जा रहा है।

खास बात यह है कि इतने बड़े मनुष्य के होने का कहीं कोई प्रमाण अभी तक प्राप्त नहीं हो सका था। क्या सचमुच इतने बड़े आकार के मानव होते थे? यह पहला प्रमाण है जिससे कि यह सिद्ध होता है कि उस काल में कितने ऊंचे मानव होते थे।
हिन्दू धर्म के अनुसार सतयुग में इस तरह के विशालकाय मानव हुआ करते थे। बाद में त्रेतायुग में इनकी प्रजाति नष्ट हो गई। पुराणों के अनुसार भारत में दैत्य, दानव, राक्षस और असुरों की जाति का अस्तित्व था, जो इतनी ही विशालकाय हुआ करती थी।

हालांकि इस क्षेत्र में अभी किसी को जाने नहीं दिया जा रहा और आर्कलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का कहना है कि सरकार से अनुमति प्राप्त होने के बाद ही इस पर कुछ कहा जाएगा। हालांकि भारत सरकार भारत से जुड़े ऐतिहासिक साक्ष्यों को अब तक छुपाकर ही रख रही है। क्यों? यह सरकार से ही पूछा जाना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि राम जन्मभूमि, रामसेतु आदि प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों को सरकार ने छुपाकर रखा है। फिलहाल यहां भारत सरकार ने किसी के भी जाने पर प्रतिबंध लगा दिया है।

महाभारत में भीम पुत्र घटोत्कच और राक्षस बकासुर के इस तरह के विशालकाय होने का वर्णन मिलता है। भीम ने असुर पुत्री हिडिम्बा से विवाह किया था जिससे घटोत्कच और घटोत्कच से बर्बरीक का जन्म हुआ। महाभारतकाल में भी इतने विशालकाय मानव हुआ करते थे।

    इस तरह के कंकाल विश्वभर में कई जगहों पर पाए गए हैं, लेकिन यह सबसे विशालकाय है। अब तक के सबसे प्राचीनतम ज्ञात जीवाश्म एशिया, चीन, जावा और भारत (शिवालिक हिल्स) से प्राप्त किया गया है।
नेशनल ज्योग्राफी की टीम ने यहां खुदाई करने से पहले भूमि के कुछ विशेष चिह्नित इलाकों का स्पेशल एक्स-रे किया था जिसमें उनको यह पता चला कि जमीन के भीतर कुछ विशेष है। बाद में यहां खुदाई करने के बाद एक विशालकाय नरकंकाल मिला। जिसकी खोपड़ी का आकार 10 फुट से अधिक था। यह पूरा कंकाल तकरीबन 30 फुट के करीब है।

     इसके अलावा यहां खुदाई करने पर टीम को कुछ शिलालेख भी मिले जिसमें ब्राह्मी लिपी में कुछ अंकित है। इस भाषा का विशेषज्ञों ने अनुवाद किया। इसमें लिखा है कि- ब्रह्मा ने मनुष्यों में शांति स्थापित करने के लिए विशेष आकार के मनुष्यों की रचना की थी। विशेष आकार के मनुष्यों की रचना एक ही बार हुई थी। ये लोग काफी शक्तिशाली होते थे और पेड़ तक को अपनी भुजाओं से उखाड़ सकते थे। लेकिन इन लोगों ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और आपस में लड़ने के बाद देवताओं को ही चुनौती देने लगे। अंत में भगवान शंकर ने सभी को मार डाला और उसके बाद ऐसे लोगों की रचना फिर नहीं की गई।(नई दिल्ली)
http://hindi.webdunia.com/religion-sanatandharma-history

Tuesday, January 28, 2014

`हिंसा, बीमारी से खत्म हुई सिंधु घाटी सभ्‍यता`


वाशिंगटन : लोगों के बीच हिंसा, संक्रामक रोगों और जलवायु परिवर्तन ने करीब 4,000 साल पहले सिंधु घाटी या हड़प्पा सभ्‍यता का खात्मा करने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। यह दावा एक नए अध्ययन में किया गया है।

नॉर्थ कैरोलिना स्थित एप्पलचियान स्टेट यूनिवर्सिटी में नृविज्ञान (एन्थ्रोपोलॉजी) के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ग्वेन रॉबिन्स शुग ने एक बयान में कहा कि जलवायु, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों, सभी ने शहरीकरण और खात्मे की प्रक्रिया में भूमिका निभाई, लेकिन इस बारे में बहुत कम ही जानकारी है कि इन बदलावों ने मानव आबादी को किस तरह प्रभावित किया।

शोध पत्र के प्रमुख लेखक शुग ने कहा कि सिंधु घाटी सभ्‍यता का अंत और मानव आबादी का पुन:संगठित होना लंबे समय से विवादित रहा है। यह शोध पत्र प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। यूनिवर्सिटी ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि शुग और अनुसंधानकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने हड़प्पा के तीन दफन स्थलों से मानव कंकाल अवशेषों में अभिघात (ट्रॉमा) और संक्रामक बीमारी के सबूत की जांच की। हड़प्पा सिंधु घाटी स5यता के सबसे बड़े शहरों में से एक था।

विज्ञप्ति में कहा गया कि उनका विश्लेषण लंबे समय से चले आ रहे इन दावों के विपरीत है कि सिंधु सभ्‍यता का विकास शांतिपूर्ण, सहयोगात्मक और समतामूलक समाज के रूप में हुआ जहां कोई सामाजिक भेदभाव, वर्गीकरण नहीं था और आधारभूत संसाधनों तक पहुंच में कोई पक्षपात नहीं था। विश्लेषण के अनुसार हड़प्पा में कुछ समुदायों को अन्य के मुकाबले जलवायु परिवर्तन और सामाजिक आर्थिक क्षति का अधिक असर झेलना पड़ा, खासकर सामाजिक रूप से सुविधाहीन या हाशिए पर रहे लोगों को, जो कि हिंसा और बीमारियों के अधिक शिकार बनते हैं।

शुग ने कहा कि पूर्व के अध्ययनों में कहा गया था कि पारिस्थितिजन्य कारक पतन का कारण बने, लेकिन उन सिद्धांतों को साबित करने के लिए कोई संबंधित साक्ष्य नहीं था। पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र में मौजूदा तकनीकों में सुधार आया है।

उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन के घटनाक्रमों का मानव समुदायों पर व्यापक असर पड़ता है। वैज्ञानिक ये अनुमान नहीं लगा सकते कि जलवायु परिवर्तन का असर हमेशा हिंसा और बीमारी जैसा होगा। शुग ने कहा कि हालांकि, इस मामले में ऐसा प्रतीत होता है कि सिंधु शहरों में तेजी से हुई नगरीकरण की प्रक्रिया, और व्यापक सांस्कृतिे संपर्क ने मानव आबादी के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर दीं। कुष्ठ और तपेदिक जैसे संक्रामक रोग संभवत: एक संपर्क क्षेत्र में संचरित हो गए जो मध्य एवं दक्षिण एशिया तक फैल गए। (एजेंसी)
http://zeenews.india.com/hindi/news/sci-tech/violence-disease-caused-end-of-indus-valley-civilization/200709

Thursday, January 16, 2014

कृष्ण और बौद्ध काल के खोए पन्ने

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     इतिहास बुलेटिन में निम्न खबरों का अवलोकन करें। ये खबरें स‌ाभार ली गईं हैं। इन्हें स‌ंकलित करके यहां दे रहा हूं। राजनीति व अपराध प्रमुख खबरों की बहुतायत में इतिहास ये खबरें छपतीं तो हैं मगर यत्र-तत्र बिखरी होने के कारण उचित जगह नहीं ले पातीं। मुझे जब भी ऎसा खबरें उपलब्ध होतीं हैं, मैं उन्हें स‌जोकर रखता हूं और स‌ंकलित करके आप तक पहुंचाने का प्रयास करता हूं। उम्मीद है ये खबरें इतिहास प्रेमियों को रुचिकर लगेंगीं।-- डा. मान्धाता स‌िंह ।


1-  कृष्ण व बौद्धकाल के खोए पन्ने ।
2- 3600 साल पुराने राजा का कंकाल मिला ।
3- पश्चिम बंगाल में मिला प्राचीन बौद्ध मठ ।

कृष्ण और बौद्ध काल के  खोए पन्ने

   मध्‍यकाल में भारतीय इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया। तक्षशिला और पाटलीपुत्र के ध्वंस के बाद महाभारत युद्ध और बौद्ध काल के बीच के हिंदू इतिहास के अब बस खंडहर ही बचे हैं। विदेशी इतिहासकारों ने जानबूझकर इस काल के इतिहास को विरोधाभासी बनाया। क्योंकि उन्हें भारत में नए धर्म को स्थापित करना था। दरअसल बुद्ध के पूर्व के संपूर्ण इतिहास को नष्ट किए जाने का संपूर्ण प्रयास किया गया। इस धूमिल से इतिहास को इतिहासकारों ने खुदाईयों और ग्रंथों की खाक छानते हुए क्रमबद्ध करने का प्रयास किया है।

हड़प्पा, सिंधु और मोहनजोदड़ों सभ्यता का प्रथम चरण 3300 से 2800 ईसा पूर्व, दूसरा चरण 2600 से 1900 ईसा पूर्व और तीसरा चरण 1900 से 1300 ईसा पूर्व तक रहा। इतिहासकार मानते हैं कि यह सभ्यता काल 800 ईस्वी पूर्व तक चलता रहा।

प्रथम चरण के काल में महाभारत हुई, दूसरे चरण के काल में मिस्र के फराओं और भारत के कुरु और पौरवो के राजवंश थे। तीसरे चरण में यहूदी धर्म के संस्थापक इब्राहिम, मूसा, सुलेमान ने यहूदी वंशों का निर्माण किया तो भारत में सभी वंशों के 16 महाजनपदों का उदय हुआ। हड़प्पा से पहले सिंधु नदी के आसपास मेहरगढ़ की सभ्यता का अस्तित्व था। उससे पूर्व मध्यप्रदेश में भीमबेटका में भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता को खोजा गया जिसका काल 9000-7000 ईसा पूर्व था। यहां गुफाओं में कुछ शैलचित्र ऐसे भी मिले हैं जिनकी उम्र कार्बनडेटिंग अनुसार 35 हजार ईसा पूर्व की मानी गई है।

सिंधु या मोहनजोदड़ो के काल में इराक में सुमेरी और मिस्र में सबाइन सभ्यता सबसे विकसित सभ्यता थी। मोहदजोदड़ों हड़प्पा से मिलने वली मुहरें, बर्तन, भित्तिचित्र आदि ईरान, मिस्र और इराकी सभ्यताओं में पाई गई मुहरों आदि से मिलती जुलती है। सिंधु घाटी की कई मोहरें सुमेरिया से मिली है जिससे यह भी सिद्ध होता है कि इस देश के उस काल में भारत से संबंध थे।

2800 से 1900 ईसापूर्व के बीच भारत में किन राजवंशों का राज था इसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। इस काल में धर्म का केंद्र हस्तीनापुर, मधुरा आदि से हटकर तक्षशिला हो गया था। अर्थात पेशावर से लेकर हिंदुकुश के इलाके में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहे थे।

1300 ईसा पूर्व भारत 16 महाजनपदों में बंटा गया- 1. कुरु, 2. पंचाल, 3. शूरसेन, 4. वत्स, 5. कोशल, 6. मल्ल, 7. काशी, 8. अंग, 9. मगध, 10. वृज्जि, 11. चे‍दि, 12. मत्स्य, 13. अश्मक, 14. अवंति, 15. गांधार और 16. कंबोज। अधिकांशतः महाजनपदों पर राजा का ही शासन रहता था, परंतु गण और संघ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था।

महाभारत के बाद धीरे-धीरे धर्म का केंद्र तक्षशिला (पेशावर) से हटकर मगध के पाटलीपुत्र में आ गया। गर्ग संहिता में महाभारत के बाद के इतिहास का उल्लेख मिलता है। मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तक्षशिला और पाटलीपुत्र के संहार किए जाने के कारण महाभारत से बुद्धकाल तक के इतिहास का अस्पष्ट उल्लेख मिलता है।

यह काल बुद्ध के पूर्व का काल है, जब भारत 16 जनपदों में बंटा हुआ था। हर काल में उक्त जनपदों की राजधानी भी अलग-अलग रही, जैसे कोशल राज्य की राजधानी अयोध्या थी तो बाद में साकेत और उसके बाद बौद्ध काल में श्रावस्ती बन गई।

महाभारत युद्ध के पश्चात पंचाल पर पाण्डवों के वंशज तथा बाद में नाग राजाओं का अधिकार रहा। पुराणों में महाभारत युद्ध से लेकर नंदवंश के राजाओं तक 27 राजाओं का उल्लेख मिलता है।

महाभारत काल के बाद अर्थात कृष्ण के बाद हजरत इब्राहीम का काल ईस्वी पूर्व 1800 है अर्थात आज से 3813 वर्ष पूर्व का अर्थात कृष्ण के 1400 वर्ष बाद ह. इब्राहीम का जन्म हुआ था। यह उपनिषदों का काल था। ईसा से 1000 वर्ष पूर्व लिपिबद्ध किए गए छांदोग्य उपनिषद में महाभारत युद्ध के होने का जिक्र है।

हजरत इब्राहीम के काल में वेद व्यास के कुल के महान संत 'सुतजी' थे। इस काल में वेद, उपनिषद, महाभारत और पुराणों को फिर से लिखा जा रहा था। सुतजी और इब्राहीम का काल थोड़ा-बहुत ही आगे-पीछे रहा।

इस काल में उत्तर वैदिक काल की सभ्यता का पतन होना शुरू हो गया था। इस काल में एक और जहां जैन धर्म के अनुयायियों और शासकों की संख्‍या बढ़ गई थी वहीं धरती पर यहूदियों के वंश विस्तार की कहानी लिखी जा रही थी। हजरत इब्राहीम इस इराक का क्षेत्र छोड़कर सीरिया के रास्ते इसराइल चले गए थे और फिर वहीं पर उन्होंने अपने वंश और यहूदी धर्म का विस्तार किया।
इस काल में भरत, कुरु, द्रुहु, त्रित्सु और तुर्वस जैसे राजवंश राजनीति के पटल से गायब हो रहे थे और काशी, कोशल, वज्जि, विदेह, मगध और अंग जैसे राज्यों का उदय हो रहा था। इस काल में आर्यों का मुख्य केंद्र 'मध्यप्रदेश' था जिसका प्रसार सरस्वती से लेकर गंगा दोआब तक था। यही पर कुरु एवं पांचाल जैसे विशाल राज्य भी थे। पुरु और भरत कबीला मिलकर 'कुरु' तथा 'तुर्वश' और 'क्रिवि' कबीला मिलकर 'पंचाल' (पांचाल) कहलाए।

अंतिम राजा निचक्षु : महाभारत के बाद कुरु वंश का अंतिम राजा निचक्षु था। पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर नरेश निचक्षु ने, जो परीक्षित का वंशज (युधिष्ठिर से 7वीं पीढ़ी में) था, हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहा दिए जाने पर अपनी राजधानी वत्स देश की कौशांबी नगरी को बनाया। इसी वंश की 26वीं पीढ़ी में बुद्ध के समय में कौशांबी का राजा उदयन था। निचक्षु और कुरुओं के कुरुक्षेत्र से निकलने का उल्लेख शांख्यान श्रौतसूत्र में भी है।

जन्मेजय के बाद क्रमश: शतानीक, अश्वमेधदत्त, धिसीमकृष्ण, निचक्षु, उष्ण, चित्ररथ, शुचिद्रथ, वृष्णिमत सुषेण, नुनीथ, रुच, नृचक्षुस्, सुखीबल, परिप्लव, सुनय, मेधाविन, नृपंजय, ध्रुव, मधु, तिग्म्ज्योती, बृहद्रथ और वसुदान राजा हुए जिनकी राजधानी पहले हस्तिनापुर थी तथा बाद में समय अनुसार बदलती रही। बुद्धकाल में शत्निक और उदयन हुए। उदयन के बाद अहेनर, निरमित्र (खान्दपनी) और क्षेमक हुए।

मगध वंश में क्रमश: क्षेमधर्म (639-603 ईपू), क्षेमजित (603-579 ईपू), बि‍म्बिसार (579-551), अजातशत्रु (551-524), दर्शक (524-500), उदायि (500-467), शिशुनाग (467-444) और काकवर्ण (444-424 ईपू) ये राजा हुए।

नंद वंश में नंद वंश उग्रसेन (424-404), पण्डुक (404-294), पण्डुगति (394-384), भूतपाल (384-372), राष्ट्रपाल (372-360), देवानंद (360-348), यज्ञभंग (348-342), मौर्यानंद (342-336), महानंद (336-324)। इससे पूर्व ब्रहाद्रथ का वंश मगध पर स्थापित था।

अयोध्या कुल के मनु की 94 पीढ़ी में बृहद्रथ राजा हुए। उनके वंश के राजा क्रमश: सोमाधि, श्रुतश्रव, अयुतायु, निरमित्र, सुकृत्त, बृहत्कर्मन्, सेनाजित, विभु, शुचि, क्षेम, सुव्रत, निवृति, त्रिनेत्र, महासेन, सुमति, अचल, सुनेत्र, सत्यजित, वीरजित और अरिञ्जय हुए। इन्होंने मगध पर क्षेमधर्म (639-603 ईपू) से पूर्व राज किया था।( स‌ाभार- http://www.webdunia.com/)

3600 साल पुराने राजा का कंकाल मिला

 मिस्र में एक ऐसे राजा के अवशेष मिला है जिसके बारे में इतिहास में कोई जिक्र नहीं था। वह सम्भवत: तीन हजार 600 साल पहले शासन करता था। मिस्र के एंटिकि्वटी मंत्रालय ने बताया कि राजधानी काहिरा से 500 किलोमीटर दूर सोहाग प्रांत में साउथ अबिदोस नामक स्थान पर यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिलवेनिया की टीम को खुदाई के दौरान सेनब्के नाम के राजा का कंकाल मिला है।
प्राचीन मिस्र के राजाओं को फराओं के नाम से जाना जाता है। खास बात यह है कि सेनेब्के का नाम इससे पहले मिस्र के इतिहास में कभी नहीं सुना गया था।
मंत्रालय ने एक बयान में बताया कि सेनेब्के का नाम खुदाई स्थल पर एक राजकीय कारतूस पर खुदा मिला।
बयान के साथ जारी तस्वीरों में ताबूत काफी खराब हालत में है। जिस चैम्बर में राजा को दफनाया गया था उसकी छत को पेटिंग से सजाया गया था।
राजा के कंकाल की तस्वीरों के साथ जारी कैप्शन में लिखा है कि उसके शव को ममी के रूप में संरक्षित किया गया था, लेकिन पुराकालीन कब्र लूटने वालो ने उसके शरीर को ममी से बाहर निकाल दिया था।
मंत्रालय ने बताया कि कब्र के पास किसी तरह का फर्नीचर न होना इस बात का प्रमाण है कि फराओ काल में कब्र को लूटा गया था। बयान में सेनेब्के का शासनकाल 1650 ईसा पूर्व बताया गया है। (भाषा)

पश्चिम बंगाल में मिला सबसे प्राचीन बौद्ध मठ

 पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर के दातन स‌े दो किलोमीटर दूर मोघलामारी में  पिछले शनिवार को खुदाई के दौरान छठीं शताब्दी ईसापूर्व के बौद्धमठ का पता चला है। यहां स‌े पकाई गईं मिट्टी की छह पट्टलिकाएं ( टेराकोटा टेबलेट्स ) मिले हैं। यहां राज्य के पुरातात्विक विभाग की तरफ स‌े एक टीले की इतिहासकार खुदाई कर रहे हैं। हालांकि इस मठ का क्या नाम था अभी इतिहासकार नहीं तय कर पाएं हैं क्यों कि जो मुहर यहां स‌े मिली है उसे अभी पढ़ा जाना है। इसपर ब्राह्मी लिपि में शब्द उकेरे गए हैं।
  खुदाई में पकाई गई मिट्टी की जो छह पट्टलिकाएं मिली हैं वह एक स‌ीढ़ी के नीचे डिब्बे में रखीं मिली हैं। इनपर ब्राह्मी लिपि में - ये दामा हेतु प्रभाबो....महा शमन....। लिखा हुआ है। इससे इतिहासकारों का मानना है कि यह कोई महत्वपूर्ण बौद्धविहार रहा होगा।
  इस स‌्थल स‌े इसके पहले एक स‌ोने का स‌िक्का और एक लाकेट भी मिला है। इनपर भी ब्राह्मी लिपि में-- महाराजाधिराज स‌माचारदेवो....। लिखा है। इस प्रमाण के आधार पर इतिहासकारों का मानना है कि यह बौद्धविहार बंगाल के स‌्वतंत्र शासक के आधीन था। स‌ंभवतः यह राजा गुप्तशासक कुमारगुप्त के स‌मय यहां का शासक था।
  मालूम हो कि मोघलमारी के इस टीले की स‌बसे पहले खुदाई प्रसिद्ध इतिहासकार बीएन मुखर्जी ने 2003 में की थी। स‌्थानीय लोग िस टीले को स‌खी स‌ेना या स‌शि स‌ेना कहते हैं। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर  बीएऩ मुखर्जी ने चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में उल्लिखित उस बौद्ध मठ को बताया जो बंगाल में था और मुर्शिदाबाद के रक्तामृत्तिका विहार स‌े भी प्राचीन है।
 कलकत्ता विश्वविद्यालय की ओर स‌े 2004 में मोगालमारी टीले की खुदाई शुरू की गई थी जो कई चरणों में 2012 तक चली। इस खुदाई में शामिल पुरातत्वविदों ने इस विशाल टीले की खुदाई के बाद निष्कर्ष निकाला है कि इस बौद्ध विहार का दो चरणों में विकास हुआ। पहला चरण छठवीम स‌े स‌ातवीं तक था इसके बाद का चरण नौवीं स‌े दसवीं शताब्दी रहा होगा। अर्थाभाव में यह खुदाई बंद कर दी गई थी जो राज्य पुरातात्विक विभाग ने 20 नवंबर स‌े फिर शुरू की । कलकत्ता विश्वविद्यालय के पुरात्तवविद रजत स‌ान्याल का कहना है कि खुदाई में मिली काफी स‌ंख्या में देवियों की मूर्तियों स‌े स‌ाबित होता है कि यह मठ बुद्धकाल के वज्रयानियों के स‌मय निर्मित किया गया होगा।
     खबर स‌्रोत स‌ाभार----http://timesofindia.indiatimes.com/city/kolkata/

नालंदा में एक और विवि के अवशेष मिले


 बिहार पुरातत्व विभाग को पुराने नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहर से 40 किलोमीटर की दूरी पर तेल्हाडा में एक अन्य विश्वविद्यालय के अवशेष मिले हैं जिसकी चर्चा चीनी यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग के विवरणी में किया गया है। बिहार पुरातत्व विभाग के निदेशक अतुल कुमार वर्मा ने बताया कि खुदाई के दौरान तेल्हाडा में विश्वविद्यालय के अवशेष मिले हैं।
उन्होंने बताया कि तेल्हाडा विश्वविद्यालय का जिक्र इत्सिंग जिन्होंने ईसा पूर्व सातवीं सदी में नालंदा का भ्रमण किया था, उसके विवरणी में किया गया है। तिल्हाडा विश्वविद्यालय को उच्च शोध वाले के रूप में या फिर नालंदा विश्वविद्यालय जो कि प्राचीन काल में पूरे विश्व के बौद्ध विद्वानों के लिए ज्ञान हासिल करने का केंद्र था इसकी प्रतिस्पर्द्धा में खोला गया होगा।
वर्मा ने बताया कि तेल्हाडा में तीन बौद्ध मंदिरों के अवशेष मिले हैं और इनका भी जिक्र इत्सिंग के विवरणी में किया गया है। उन्होंने बताया कि उक्त विवरणी में करीब एक हजार बौद्ध भिक्षुओं के एक बड़े चबूतरे पर साथ बैठकर प्रार्थना करने का भी जिक्र है जिसे भी खुदाई के दौरान चिन्हित कर लिया गया है।
बिहार पुरातत्व विभाग के निदेश अतुल कुमार वर्मा ने बताया कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी के दौरान बिहार की यात्रा पर आए चीनी यात्री ह्वेनसांग की विवरणी में बताई गई बातों के मुताबिक तेल्हाडा से गुप्त और पाल काल की संरचनाएं खुदाई में मिली हैं।
उन्होंने बताया कि सीलें जिनपर तिल्हाधक महाविहारा लिखा है जिसी पुष्टि पुरातत्विद एलक्जेंडर कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट में की थी, वह भी पाए गए हैं। यह महाविहारा के करीब एक किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है। नालंदा जिला के एकंगसराय प्रखंड के तेल्हाडा में 2009 में शुरू  किया गया खुदाई का काम आज भी जारी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वहां जारी खुदाई कार्याें की प्रगति के बारे में जानने के लिए कई बार उस स्थल का भ्रमण कर चुके हैं।
मुख्यमंत्री ने हाल ही में यह घोषणा की थी कि खुदाई के क्रम में तेल्हाडा में मिली सामग्रियों को पटना में बन रहे अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय में रखा जाएगा। नीतीश के आग्रह पर नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने तेल्हाडा के प्राचीन बौद्ध मठ के शुरुआती खुदाई स्थल का पिछले सप्ताह भ्रमण किया था। सेन नालंदा में स्थापित होने वाले नालंदा इंटरनेश्नल यूनिवर्सिटी के कुलपति हैं। (पटना, 15 जनवरी (भाषा)।)

  जगन्नाथ मंदिर का संरक्षण कार्य इस साल के अंत तक पूरा होगा

   पुरी के जगन्नाथ मंदिर में चल रहे संरक्षण व मरम्मत कार्य को पूरा करने के लिए दिसंबर 2014 की समय सीमा निर्धारित करते हुए केंद्र ने बुधवार को कहा कि वह ओड़िशा में सभी प्राचीन स्मारकों का संरक्षण सुनिश्चित करेगा।
केंद्रीय संस्कृति सचिव रवींद्र सिंह ने मुख्य सचिव के नेतृत्व में राज्य सरकार के अधिकारियों से बातचीत के बाद संवाददाताओं से कहा,‘हमने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) से दिसंबर 2014 तक श्री जगन्नाथ मंदिर के संरक्षण व मरम्मत कार्य को पूरा करने को कहा है, जो 2015 में होने वाले भगवान के नवकलेवर उत्सव से काफी पहले हो जाएगा।’
केंद्रीय सचिव ने बैठक में मौजूद एएसआइ अधिकारियों को निर्देश दिया कि जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार की मरम्मत व बहाली के काम को मार्च 2014 तक पूरा कर लें।
पुरी में एएसआइ की एक इकाई स्थापित करने के राज्य सरकार के प्रस्ताव पर केंद्रीय सचिव ने कहा कि एक पखवाड़े के भीतर औपचारिक आदेश दे दिए जाएंगे। बैठक में कोणार्क मंदिर के संरक्षण व उसके अंदर भरी रेत की बोरियों को हटाने के बारे में भी विस्ताार से चर्चा की गई। ( भुवनेश्वर, 15 जनवरी (भाषा)। )



Thursday, January 9, 2014

जम्बू द्वीप और भारत ( हिंदुस्तान )


    हमारी तमाम धार्मिक कथाओं में जम्बू द्वीप का वर्णन मिलता है।  हमारे कथावाचक पुरोहित मंत्र पढ़ते हैं तो जम्बूद्वीपे भारतखंडे का जिक्र करते हैं। आज भारत का जो भूगोल है उसमें स‌मझ पाना मुश्किल होता है कि यह जम्बूद्वीप क्या है और भारत इसमें कहां है। पौराणिक इतिहास स‌े शायद यह स‌मझ पाना स‌ंभव होगा। प्रस्तुत स‌ंकलित लेख इसी जिज्ञासा को स‌्पष्ट करता है। रामायण में जिस स‌ुमेरू पर्वत स‌मेत अन्य पर्वतों का जिक्र है वह भी इसमें वर्णित है। वेबदुनिया के स‌ौजन्य स‌े भारत के इस स‌ांस्कृतिक इतिहास को  आप भी जानें............

जम्बू द्वीप में कहां था सुमेरू पर्वत?

   जम्बू द्वीप के आसपास 6 द्वीप थे- प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर। जम्बू द्वीप धरती के मध्य में स्थित है और इसके मध्य में इलावृत नामक देश है। आज के कजाकिस्तान, रूस, मंगोलिया और चीन के मध्य के स्थान को इलावृत कहते हैं। इस इलावृत के मध्य में स्थित है सुमेरू पर्वत।

इलावृत के दक्षिण में कैलाश पर्वत के पास भारतवर्ष, पश्चिम में केतुमाल (ईरान के तेहरान से रूस के मॉस्को तक), पूर्व में हरिवर्ष (जावा से चीन तक का क्षेत्र) और भद्राश्चवर्ष (रूस), उत्तर में रम्यकवर्ष (रूस), हिरण्यमयवर्ष (रूस) और उत्तकुरुवर्ष (रूस) नामक देश हैं।

मिस्र, सऊदी अरब, ईरान, इराक, इसराइल, कजाकिस्तान, रूस, मंगोलिया, चीन, बर्मा, इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, हिन्दुस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान का संपूर्ण क्षेत्र जम्बू द्वीप था।

इलावृत देश के मध्य में स्थित सुमेरू पर्वत के पूर्व में भद्राश्ववर्ष है और पश्चिम में केतुमालवर्ष है। इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गंधमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नंदन कानन नामक वन हैं, जहां अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस (मानसरोवर)- ये चार सरोवर हैं। माना जाता है कि नंदन कानन का क्षेत्र ही इंद्र का लोक था जिसे देवलोक भी कहा जाता है। महाभारत में इंद्र के नंदन कानन में रहने का उल्लेख मिलता है।

सुमेरू के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक पर्वत हैं, जो अलग-अलग देश की भूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं। सुमेरू के उत्तर में नील, श्वेत और श्रृंगी पर्वत हैं, वे भी भिन्न-भिन्न देश में स्थित हैं।

इस सुमेरू पर्वत को प्रमुख रूप से बहुत दूर तक फैले 4 पर्वतों ने घेर रखा है। 1. पूर्व में मंदराचल, 2. दक्षिण में गंधमादन, 3. पश्चिम में विपुल और 4. उत्तर में सुपार्श्व। इन पर्वतों की सीमा इलावृत के बाहर तक है।

सुमेरू के पूर्व में शीताम्भ, कुमुद, कुररी, माल्यवान, वैवंक नाम से आदि पर्वत हैं। सुमेरू के दक्षिण में त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक और निषाद आदि पर्वत हैं। सुमेरू के उत्तर में शंखकूट, ऋषभ, हंस, नाग और कालंज आदि पर्वत हैं।

अन्य पर्वत : माल्यवान तथा गंधमादन पर्वत उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलांचल तथा निषध पर्वत तक फैले हुए हैं। उन दोनों के बीच कर्णिकाकार मेरू पर्वत स्थित है। मर्यादा पर्वतों के बाहरी भाग में भारत, केतुमाल, भद्राश्व और कुरुवर्ष नामक देश सुमेरू के पत्तों के समान हैं। जठर और देवकूट दोनों मर्यादा पर्वत हैं, जो उत्तर और दक्षिण की ओर नील तथा निषध पर्वत तक फैले हुए हैं। पूर्व तथा पश्चिम की ओर गंधमादन तथा कैलाश पर्वत फैला है। इसी समान सुमेरू के पश्चिम में भी निषध और पारियात्र- दो मर्यादा पर्वत स्थित हैं। उत्तर की ओर निश्रृंग और जारुधि नामक वर्ष पर्वत हैं। ये दोनों पश्चिम तथा पूर्व की ओर समुद्र के गर्भ में स्थित हैं।

गंगा की नदियां : माना जाता है कि सुमेरू के ऊपर अंतरिक्ष में ब्रह्माजी का लोक है जिसके आस-पास इंद्रादि लोकपालों की 8 नगरियां बसी हैं। गंगा नदी चंद्रमंडल को चारों ओर से आप्लावित करती हुई ब्रह्मलोक (शायद हिमवान पर्वत) में गिरती है और सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा नाम से 4 भागों में विभाजित हो जाती है।

सीता पूर्व की ओर आकाश मार्ग से एक पर्वत से दूसरे पर्वत होती हुई अंत में पूर्व स्थित भद्राश्ववर्ष (चीन की ओर) को पार करके समुद्र में मिल जाती है। अलकनंदा दक्षिण दिशा से भारतवर्ष में आती है और 7 भागों में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती है। चक्षु पश्चिम दिशा के समस्त पर्वतों को पार करती हुई केतुमाल नामक वर्ष में बहते हुए सागर में मिल जाती है। भद्रा उत्तर के पर्वतों को पार करते हुए उतरकुरुवर्ष (रूस) होते हुए उत्तरी सागर में जा मिलती है।
 पृथ्वी के मध्य में  है जम्बू द्वीप
 पृथ्वी के मध्य में जम्बू द्वीप है। इसका विस्तार एक लाख योजन का बतलाया गया है। जम्बू द्वीप की आकृति सूर्यमंडल के सामान है। वह उतने ही बड़े खारे पानी के समुद्र से घिरा है। जम्बू द्वीप और क्षार समुद्र के बाद शाक द्वीप है, जिसका विस्तार जम्बू द्वीप से दोगुना है। वह अपने ही बराबर प्रमाण वाले क्षीर समुद्र से, उसके बाद उससे दोगुना बड़ा पुष्कर द्वीप है, जो दैत्यों को मदोन्मत्त कर देने वाले उतने ही बड़े सुरा समान समुद्र से घिरा हुआ है। उससे परे कुश द्वीप की स्थिति मानी गई है, जो अपने से पहले द्वीप की अपेक्षा दोगुना विस्तार वाला है। कुश द्वीप को उतने ही बड़े विस्तार वाले दही समान के समुद्र ने घेर रखा है। उसके बाद क्रोंच नामक द्वीप है; जिसका विस्तार कुश द्वीप से दोगुना है, यह अपने ही सामान विस्तार वाले घी समान समुद्र से घिरा है। इसके बाद दोगुना विस्तार वाला शाल्मलि द्वीप है; जो इतने ही बड़े ईख रस समान समुद्र से घिरा हुआ है। उसके बाद उससे दोगुने विस्तार वाले गोमेद (प्लक्ष) नामक द्वीप है; जिसे उतने ही बड़े रमणीय स्वादिष्ट जल के समुद्र ने घेर रखा है।

जम्बू द्वीप के मध्यभाग में मेरु पर्वत है, यह ऊपर से नीचे तक एक लाख योजन ऊंचा है। सोलह हजार योजन तो यह पृथ्वी के नीचे तक गया हुआ है और चौरासी हजार योजन पृथ्वी से ऊपर उसकी ऊंचाई है। मेरु के शिखर का विस्तार बत्तीस हजार योजन है। उसकी आकृति प्याले के सामान है। वह पर्वत तीन शिखरों से युक्त है, उसके मध्य शिखर पर ब्रह्माजी का निवास है, ईशान कोण में जो शिखर है, उस पर शंकरजी का स्थान है तथा नैऋत्य कोण के शिखर पर भगवान विष्णु की स्तिथि है।

मेरु पर्वत के चारों ओर चार विष्कम्भ पर्वत माने गए हैं। पूर्व में मंदराचल, दक्षिण में गंधमादन, पश्चिम में सुपार्श्व तथा उत्तर में कुमुद नामक पर्वत है। इनके चार वन हैं जो पर्वतों के शिखर पर ही स्थित हैं। पूर्व में नंदन वन, दक्षिण में चैत्र रथ वन, पश्चिम में वैभ्राज वन और उत्तर में सर्वतोभद्र वन है। इन्हीं चरों में चार सरोवर भी हैं। पूर्व में अरुणोद सरोवर, दक्षिण में मान सरोवर, पश्चिम में शीतोद सरोवर तथा उत्तर में महाह्रद सरोवर है। ये विष्कम्भ पर्वत पच्चीस पच्चीस हजार योजन ऊचे हैं। इनकी चोड़ाई भी हजार हजार योजन मानी गई है। मेरुगिरी के दक्षिण में निषध, हेमकूट और हिमवान- ये तीन मर्यादा पर्वत हैं। इनकी लम्बाई एक लाख योजन और चौड़ाई दो हजार योजन मानी गई है। मेरु के उत्तर में भी तीन मर्यादा पर्वत हैं- नील, श्वेत और श्रंग्वान। मेरु से पूर्व माल्यवान पर्वत है और मेरु के पश्चिम में गंधमादन पर्वत है। ये सभी पर्वत जम्बू द्वीप पर चारों ओर फैले हुए हैं। गंधमादन पर्वत पर जो जम्बू का वृक्ष है, उसके फल बड़े बड़े हाथियों के समान होते हैं। उस जम्बू के ही नाम पर इस द्वीप को जम्बू द्वीप कहते हैं।
भारतवर्ष
पूर्व काल में स्वायम्भुव नाम से प्रसिद्ध एक मनु हुए हैं; वे ही आदि मनु और प्रजापति कहे गए हैं। उनके दो पुत्र हुए, प्रियव्रत और उत्तानपाद। राजा उत्तानपाद के पुत्र परम धर्मात्मा ध्रुव हुए, जिन्होंने भक्ति भाव से भगवान् विष्णु की आराधना करके अविनाशी पद को प्राप्त किया। राजर्षि प्रियव्रत के दस पुत्र हुए, जिनमें से तीन तो संन्यास ग्रहण करके घर से निकल गए और परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो गए। शेष सात द्वीपों में उन्होंने अपने सात पुत्रों को प्रतिष्ठित किया। राजा प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीघ्र जम्बू द्वीप के अधिपति हुए। उनके नौ पुत्र जम्बू द्वीप के नौ खण्डों के स्वामी माने गए हैं, जिनके नाम उन्हीं के नामों के अनुसार इलावृतवर्ष, भद्राश्ववर्ष, केतुमालवर्ष, कुरुवर्ष, हिरण्यमयवर्ष, रम्यकवर्ष, हरीवर्ष, किंपुरुष वर्ष और हिमालय से लेकर समुद्र के भू-भाग को नाभि खंड (भारतवर्ष) कहते हैं।

नाभि और कुरु ये दोनों वर्ष धनुष की आकृति वाले बताए गए हैं। नाभि के पुत्र ऋषभ हुए और ऋषभ से ‘भरत’ का जन्म हुआ; जिनके आधार पर इस देश को भारतवर्ष भी कहते हैं।

संदर्भ : हिन्दू ग्रंथ विष्णु पुराण, जैन ग्रंथ 'जंबूद्वीप्प्रज्ञप्ति'


जम्बू द्वीप से हिन्दुस्थान बनने की कहानी
जम्बू द्वीप से छोटा है भारतवर्ष। भारतवर्ष में ही आर्यावर्त स्थित था। आज न जम्बू द्वीप है न भारतवर्ष और न आर्यावर्त। आज सिर्फ हिन्दुस्थान है और सच कहें तो यह भी नहीं। क्या कारण हैं कि वेदों को मानने वाले लोग अब अपने ही देश में दर-बदर हैं? वह लोग जिनके कारण ही दुनियाभर के धर्मों और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई, वह लोग जिनके कारण दुनिया को ज्ञान, विज्ञान, योग, ध्यान और तत्व ज्ञान मिला।
''सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।। -वेदव्यास, भीष्म पर्व, महाभारत

हिन्दी अर्थ : हे कुरुनन्दन! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भांति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखाई देता है। इसके दो अंशों में पिप्पल और दो अंशों में महान शश (खरगोश) दिखाई देता है।

अर्थात : दो अंशों में पिप्पल का अर्थ पीपल के दो पत्तों और दो अंशों में शश अर्थात खरगोश की आकृति के समान दिखाई देता है। आप कागज पर पीपल के दो पत्तों और दो खरगोश की आकृति बनाइए और फिर उसे उल्टा करके देखिए, आपको धरती का मानचित्र दिखाई देखा। यह श्लोक 5 हजार वर्ष पूर्व लिखा गया था। इसका मतलब लोगों ने चंद्रमा पर जाकर इस धरती को देखा होगा तभी वह बताने में सक्षम हुआ होगा कि ऊपर से समुद्र को छोड़कर धरती कहां-कहां नजर आती है और किस तरह की।

पहले संपूर्ण हिन्दू जाति जम्बू द्वीप पर शासन करती थी। फिर उसका शासन घटकर भारतवर्ष तक सीमित हो गया। फिर कुरुओं और पुरुओं की लड़ाई के बाद आर्यावर्त नामक एक नए क्षेत्र का जन्म हुआ जिसमें आज के हिन्दुस्थान के कुछ हिस्से, संपूर्ण पाकिस्तान और संपूर्ण अफगानिस्तान का क्षेत्र था। लेकिन लगातार आक्रमण, धर्मांतरण और युद्ध के चलते अब घटते-घटते सिर्फ हिन्दुस्तान बचा है।

यह कहना सही नहीं होगा कि पहले हिन्दुस्थान का नाम भारतवर्ष था और उसके भी पूर्व जम्बू द्वीप था। कहना यह चाहिए कि आज जिसका नाम हिन्दुस्तान है वह भारतवर्ष का एक टुकड़ा मात्र है। जिसे आर्यावर्त कहते हैं वह भी भारतवर्ष का एक हिस्साभर है और जिसे भारतवर्ष कहते हैं वह तो जम्बू द्वीप का एक हिस्सा है मात्र है। जम्बू द्वीप में पहले देव-असुर और फिर बहुत बाद में कुरुवंश और पुरुवंश की लड़ाई और विचारधाराओं के टकराव के चलते यह जम्बू द्वीप कई भागों में बंटता चला गया।
धरती के सात द्वीप : पुराणों और वेदों के अनुसार धरती के सात द्वीप थे- जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित है।

'जम्बूद्वीप: समस्तानामेतेषां मध्य संस्थित:,
भारतं प्रथमं वर्षं तत: किंपुरुषं स्मृतम्‌,
हरिवर्षं तथैवान्यन्‌मेरोर्दक्षिणतो द्विज।
रम्यकं चोत्तरं वर्षं तस्यैवानुहिरण्यम्‌,
उत्तरा: कुरवश्चैव यथा वै भारतं तथा।
नव साहस्त्रमेकैकमेतेषां द्विजसत्तम्‌,
इलावृतं च तन्मध्ये सौवर्णो मेरुरुच्छित:।
भद्राश्चं पूर्वतो मेरो: केतुमालं च पश्चिमे।
एकादश शतायामा: पादपागिरिकेतव: जंबूद्वीपस्य सांजबूर्नाम हेतुर्महामुने।- (विष्णु पुराण)
जम्बू द्वीप का वर्णन 
 जम्बू द्वीप को बाहर से लाख योजन वाले खारे पानी के वलयाकार समुद्र ने चारों ओर से घेरा हुआ है। जम्बू द्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। जम्बू (जामुन) नामक वृक्ष की इस द्वीप पर अधिकता के कारण इस द्वीप का नाम जम्बू द्वीप रखा गया था।

जम्बू द्वीप के 9 खंड थे : इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इनमें भारतवर्ष ही मृत्युलोक है, शेष देवलोक हैं। इसके चतुर्दिक लवण सागर है। इस संपूर्ण नौ खंड में इसराइल से चीन और रूस से भारतवर्ष का क्षेत्र आता है।

जम्बू द्वीप में प्रमुख रूप से 6 पर्वत थे : हिमवान, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत और श्रृंगवान।

किसने बसाया भारतवर्ष : त्रेतायुग में अर्थात भगवान राम के काल के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भारतवर्ष को बसाया था, तब इसका नाम कुछ और था।

वायु पुराण के अनुसार महाराज प्रियव्रत का अपना कोई पुत्र नहीं था तो उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था जिसका लड़का नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था। इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे तथा इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि राम के कुल में पूर्व में जो भरत हुए उनके नाम पर भारतवर्ष नाम पड़ा। यहां बता दें कि पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष नहीं पड़ा।

इस भूमि का चयन करने का कारण था कि प्राचीनकाल में जम्बू द्वीप ही एकमात्र ऐसा द्वीप था, जहां रहने के लिए उचित वातारवण था और उसमें भी भारतवर्ष की जलवायु सबसे उत्तम थी। यहीं विवस्ता नदी के पास स्वायंभुव मनु और उनकी पत्नी शतरूपा निवास करते थे।

राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्री के 10 पुत्रों में से 7 को संपूर्ण धरती के 7 महाद्वीपों का राजा बनाया दिया था और अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का राजा बना दिया था। इस प्रकार राजा भरत ने जो क्षेत्र अपने पुत्र सुमति को दिया वह भारतवर्ष कहलाया। भारतवर्ष अर्थात भरत राजा का क्षे‍त्र।

सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)

जब भी मुंडन, विवाह आदि मंगल कार्यों में मंत्र पड़े जाते हैं, तो उसमें संकल्प की शुरुआत में इसका जिक्र आता है:

।।जम्बू द्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते….अमुक...।

* इनमें जम्बू द्वीप आज के यूरेशिया के लिए प्रयुक्त किया गया है। इस जम्बू द्वीप में भारत खण्ड अर्थात भरत का क्षेत्र अर्थात ‘भारतवर्ष’ स्थित है, जो कि आर्यावर्त कहलाता है।

।।हिमालयं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत्। तस्मात्तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधा:.....।।

* हिमालय पर्वत से दक्षिण का वर्ष अर्थात क्षेत्र भारतवर्ष है।

जम्बू द्वीप का विस्तार
* जम्बू दीप : सम्पूर्ण एशिया
* भारतवर्ष : पारस (ईरान), अफगानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्थान, नेपाल, तिब्बत, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालद्वीप, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, वियतनाम, लाओस तक भारतवर्ष।

आर्यावर्त : बहुत से लोग भारतवर्ष को ही आर्यावर्त मानते हैं जबकि यह भारत का एक हिस्सा मात्र था। वेदों में उत्तरी भारत को आर्यावर्त कहा गया है। आर्यावर्त का अर्थ आर्यों का निवास स्थान। आर्यभूमि का विस्तार काबुल की कुंभा नदी से भारत की गंगा नदी तक था।

ऋग्वेद में आर्यों के निवास स्थान को 'सप्तसिंधु' प्रदेश कहा गया है। ऋग्वेद के नदीसूक्त (10/75) में आर्यनिवास में प्रवाहित होने वाली नदियों का वर्णन मिलता है, जो मुख्‍य हैं:- कुभा (काबुल नदी), क्रुगु (कुर्रम), गोमती (गोमल), सिंधु, परुष्णी (रावी), शुतुद्री (सतलज), वितस्ता (झेलम), सरस्वती, यमुना तथा गंगा। उक्त संपूर्ण नदियों के आसपास और इसके विस्तार क्षेत्र तक आर्य रहते थे।

वेद और महाभारत को छोड़कर अन्य ग्रंथों में जो आर्यावर्त का वर्णन मिलता है वह भ्रम पैदा करने वाला है, क्योंकि आर्यों का निवास स्थान हर काल में फैलता और सिकुड़ता गया था इसलिए उसकी सीमा क्षेत्र का निर्धारण अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग मिलता है। मूलत: जो प्रारंभ में था वही सत्य है।

हिन्दुस्थान बनने की कहानी महाभारत काल में ही लिख दी गई थी जबकि महाभारत हुई थी। महाभारत के बाद वेदों को मानने वाले लोग हमेशा से यवन और मलेच्छों से त्रस्त रहते थे। महाभारत काल के बाद भारतवर्ष पूर्णत: बिखर गया था। सत्ता का कोई ठोस केंद्र नहीं था। ऐसे में खंड-खंड हो चला आर्यखंड एक अराजक खंड बनकर रह गया था।

महाभारत के बाद : मलेच्छ और यवन लगातार आर्यों पर आक्रमण करते रहते थे। आर्यों में भरत, दास, दस्यु और अन्य जाति के लोग थे। गौरतलब है कि आर्य किसी जाति का नाम नहीं बल्कि वेदों के अनुसार जीवन-यापन करने वाले लोगों का नाम है।

बौद्धकाल में विचारधाराओं की लड़ाई अपने चरम पर चली गई। ऐसे में चाणक्य की बुद्धि से चंद्रगुप्त मौर्य ने एक बार फिर भारतवर्ष को फिर से एकजुट कर एकछत्र के नीचे ला खड़ा किया। बाद में सम्राट अशोक तक राज्य अच्छे से चला। अशोक के बाद भारत का पतन होना शुरू हुआ।

नए धर्म और संस्कृति के अस्तित्व में आने के बाद भारत पर पुन: आक्रमण का दौर शुरू हुआ और फिर कब उसके हाथ से सिंगापुर, मलेशिया, ईरान, अफगानिस्तान छूट गए पता नहीं चला और उसके बाद मध्यकाल में संपूर्ण क्षे‍त्र में हिन्दुओं का धर्मांतरण किया जाने लगा और अंतत: बच गया हिन्दुस्तान। धर्मांतरित हिन्दुओं ने ही भारतवर्ष को आपस में बांट लिया।

इस्लाम और ईसाई धर्म की उत्पत्ति के पूर्व लिखित प्राचीन ग्रंथ अनुसार :-
''हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थान प्रचक्षते॥- (बृहस्पति आगम)

अर्थात : हिमालय से प्रारंभ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
स‌ाभार--http://hindi.webdunia.com/religion-sanatandharma-history/

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