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Sunday, September 30, 2012

उरई में बर्तन व्यवसायी की दुकान से मिले ताम्र युगीन पिंड व उपकरण

  देश के प्रागैतिहासिक काल के मानचित्र में उरई का नाम अंकित
 भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के उरई चैप्टर की ओर से  बुंदेलखंड संग्रहालय के सभागार में उरई के मातापुरा मुहल्ले से मिले ताम्र युगीन उपकरणों पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी का विषय का प्रवर्तन करते हुए इंटैक के उरई चैप्टर के संयोजक डाक्टर हरिमोहन पुरवार ने बताया कि बर्तन व्यावसायी रवि माहेश्वरी की दुकान से कुछ ताम्र पिंड और उपकरण मिले थे। उनका जब बरीकी से अध्ययन किया गया तो पता चला कि ये उपकरण ताम्र युगीन सभ्यता के हैं। गोष्ठी के मुख्य वक्ता भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) के अवकाश प्राप्त सह अधीक्षण पुरातत्ववेत्ता डाक्टर कृष्ण कुमार थे। उन्होंने कहा कि बुंदेलखंड क्षेत्र में प्रागैतिहासिक काल के अवशेषों के मिलने की सूचना अभी तक नहीं थी। लेनिक इन ताम्र उपकरणों के उरई में मिलने से देश के प्रागैतिहासिक काल के मानचित्र में उरई का नाम अंकित हो गया है। उन्होंने कहा कि यहां मिले उपकरण दो हजार साल ईसा पूर्व से 13 सौ साल ईसा पर्वू का है। इन ताम्र उपकरणों में चार सीघी कुल्हाड़िया, दो शोल्डर्स कुलहाड़ियां, दो बरछियां (हारपूंस), एक गोल चक्का और 5.460 किलोग्राम, 1.340 किलोग्राम, 650 ग्राम और 570 ग्राम के चार ताम्र पिंड शामिल हैं। इन ताम्र पिंडों से ताम्र उपकरण बनाए जाते थे। ताम्र उपकरणों के शिल्प विज्ञान पर प्रकाश डालते हुए डाक्टर कृष्ण कुमार ने कह७ा कि सीधी और शोल्डर्स कुल्हाड़ियों का निर्माण एक सांचे में ढालकर एक बार में किया जाता था, जबकि बरछियों (हारपूंस) का निर्माण दो अलग-अलग सांचों में दो बार में ढालकर किया किया जाता था।
उन्होंने बताया कि शोल्डर्स कुल्हाड़ियां बड़े पेड़ों की डालियां काटने और सीधी कुल्हाड़ियां छोटी-छोटी टहनियां काटने के प्रयोग में लाई जाती थीं। बरछियों (हारपूंस) का उपयोग जंगली जानवरों से अपनी सुरक्षा और उनके शिकार के लिए होता था।
संगोष्ठी का संचालन डाक्टर राजेंद्र कुमार ने किया। संगोष्ठी में उरई में मिले ताम्र युगीन उपकरणों को प्रदर्शित भी किया गया। संगोष्ठी में इतिहासकार डीके सिंह, डाक्टर एसके उपाध्याय, संध्या पुरवार, डाक्टर जयश्री, इंद्रा राजौरिया, डाक्टर राजेश पालीवाल, सुमन, डाक्टल अलका रानी, अखिलेश पुरवार, मोहित पाटकार आदि उपस्थित थे। ( साभार-जनसत्ता व अमर उजाला ---उरई, 30 सितंबर।)

Tuesday, September 25, 2012

12,000 साल पुरानी भीमबेटका की गुफाएं





   भीमबेटका में 750 गुफाएं हैं जिनमें 500 गुफाओं में शैल चित्र बने हैं। यहां की सबसे प्राचीन चित्रकारी को 12,000 साल पुरानी है। मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित पुरापाषाणिक भीमबेटका की गुफाएं भोपाल से 46 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। ये विंध्य पर्वतमालाओं से घिरी हुई हैं। भीमबेटका मध्य भारत के पठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित विंध्याचल की पहाड़ियों के निचले हिस्से पर स्थित हैं। इसके दक्षिण से सतपुड़ा की पहाड़ियां शुरू हो जाती हैं। यह स्थल आदिमानव द्वारा बनाये गये शैल चित्रों और गुफाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। यहां बनाये गये चित्रों को पुरापाषाण काल से मध्य पाषाण काल के समय का माना जाता है।

भीमबेटका में प्राचीन किले

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, भोपाल मंडल ने भीमबेटका को 1990 में राष्ट्रीय महत्व का स्थल घोषित किया था। इसके बाद 2003 में ‘यूनेस्को’ ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया। माना जाता है कि यह स्थल महाभारत के चरित्र भीम से संबंधित है। यही वजह है कि इस स्थल का नाम भीमबेटका पड़ा. भीमबेटका का उल्लेख पहली बार भारतीय पुरातात्विक रिकॉर्ड में 1888 में बुद्धिस्ट साइट के तौर पर आया है।

1957 में की गई खोज

इसके बाद वी. एस. वाकंकर एक बार रेल से भोपाल जा रहे थे तब उन्होंने कुछ पहाड़ियों को इस रूप में देखा जैसा कि उन्होंने स्पेन और फ्रांस में देखा था। वे इस क्षेत्र में पुरातत्ववेत्ताओं की टीम के साथ आये और 1957 में कई पुरापाषाणिक गुफाओं की खोज की। भीमबेटका में 750 गुफाएं हैं जिनमें 500 गुफाओं में शैल चित्र पाये गये। पूर्व पाषाण काल से मध्य पाषाण काल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का केंद्र रहा। हालांकि अब यह महत्वपूर्ण धरोहर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। यहां के शैल चित्रों में प्रमुख रूप से सामूहिक नृत्य, रेखांकित मानवाकृति, शिकार, युद्ध, दैनिक क्रियाकलापों से जुड़े चित्र और पशु-पक्षियों के चित्र उकेरे गये हैं।

   इन शैल चित्रों में रंगों का भी प्रयोग किया गया था जिनमें से प्रमुख रूप से गेरुआ, लाल और सफेद रंग और कहीं-कहीं पीले और हरे रंग भी प्रयोग किये गये हैं। इनके अतिरिक्त भीमबेटका में प्राचीन किले की दीवार, लघु स्तूप, भवन, शुंग-गुप्तकालीन अभिलेख, शंख अभिलेख और परमार कालीन मंदिर के अवशेष भी पाए गये हैं।
      यहां की दीवारें धार्मिक संकेतों से सजी हुई हैं जो पूर्व-ऐतिहासिक कलाकारों के बीच ज्यादा लोकप्रिय हुआ करती थीं। यहां की सबसे प्राचीन चित्रकारी को 12,000 साल पुराना माना जाता है। भीमबेटका गुफाओं की खासियत यह है कि हजारों साल पहले बने शैल चित्र आज भी स्पष्ट नजर आते हैं।
(साभार- http://www.samaylive.com/lifestyle-news-in-hindi/tour-travel-news-in-hindi/163532/mp-bhimbetka-caves-ancient-heritage.html )

इन संदर्भों को भी देखें-----
Rock Shelters of Bhimbetka
भीमबेटका पाषाण आश्रय

Sunday, September 23, 2012

इतिहास की उलटी चाल

शांति उपदेशक बुद्ध बन सकते हैं अशांति की वजह !
 अहिंसा और शांति का मार्ग दुनिया को दिखाने वाले गौतम बुद्ध के जन्मस्थान को लेकर दो मित्र देशों में विवाद की स्थिति बन सकती है। भारत और नेपाल के बीच गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी को लेकर पहले एक विवाद उठ चुका है। इस विवाद के मूल में थी भारत के सांस्कृतिक विभाग की एक गलती। विभाग ने भूलवश गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी को जो नेपाल की तराई के जिले कपिलवस्तु में है उसे भारत में बता दिया था। बाद में जानकारी मिलने पर भारत की ओर से इस भूल को सुधारते हुए माफी मांग ली गई थी। लेकिन चीन ने भारत-नेपाल के बीच के इस विवाद से अपना फायदा उठाना शुरू कर दिया।
चीन, नेपाल में बढ़ते अपने प्रभाव क्षेत्र को मजबूत करने के लिए अपने कुछ संगठनों के जरिए नेपाल में यह दुष्प्रचार करवा रहा है कि भारत बौद्ध धर्म के जरिए मिलने वाले वैश्विक पर्यटन और दूसरे लाभों को नेपाल से छीनना चाहता है। साथ ही इन संगठनों से नेपाल में यह भी भावना पहुंचाई जा रही है कि भारत नेपाल से उसके बौद्ध धर्म पर्यटन के महत्त्व को मिटाना चाहता है। नेपाल में राष्टÑवादी दृष्टिकोण रखने वाले समरेश कहते हैं कि विश्व मानचित्र पर नेपाल, भारत और चीन जैसे एशिया के दो अहम शक्ति केंद्रों केबीच एक बफर राज्य है। इस कारण से नेपाल भारत और चीन दोनों के सामरिकमहत्त्व के लिए एक अहम कड़ी है। लेकिन नेपाल के साथ भारत के संबंध सांस्कृतिक, धार्मिक या राजनीतिक रूप से हमेशा अच्छे रहे हैं। साथ ही चीन की विस्तारवादी नीतियों ने उसकी मंशा को हमेशा शंका के घेरे में रखा है।
वैसे तो चीन ने 1960 से ही नेपाल पर डोरे डालने शुरू कर दिए थे। लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध से मिले सबक ने भारत और नेपाल दोनों को चीन की नीयत को लेकर सजग कर दिया था। समरेश कहते हैं- 2008 में राजशाही के खत्म होने और चीन के ऐतिहासिक नेता माओ की विचारधारा पर चलने वाले नेपाल के प्रमुख सशस्त्र विद्रोही माओवादी दल के नेपाल की सत्ता में आने के साथ हालात तेजी से चीन के पक्ष में बदलने लगे। चीन के प्रभाव में रहने वाले इन दलों ने भारत विरोधी प्रचार करना शुरू कर दिया। चीन ने परोक्ष रूप से अंतरराष्टÑीय स्तर पर इन मुद्दों को उठाने में कोई कसर नहीं बचा रखी है। इसी तरह चीन के ही उकसावे पर नेपाल में भगवान बुद्ध को लेकर इस तरह की बातें कही जा रही हैं।
बेजिंग में बौद्ध दर्शन पर हुए सम्मेलन में भारत द्वारा बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति स्थल के रूप में विख्यात बोधगया और उनके प्रथम प्रवचन स्थल सारनाथ को बढ़ावा दिए जाने की बात से विरोधी गुट गलत तरीके से प्रचार कर रहा है। नेपाल में भारत विरोधी गुट का कहना है कि भारत अंतराष्टÑीय स्तर पर लुंबिनी के महत्त्व को कम करके बौद्ध धर्म के नाम पर केवल भारत में स्थित स्थलों को बढ़ावा देना चाहता है।
नेपाल में लुंबिनी और बौद्ध पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर चीन की संस्था ‘एशिया पैसेफिक एक्सचेंज एंड कोआपरेशन फाउंडेश’ को नेपाल में काफी अहमियत दी जा रही है। काठमांडू में सूत्र बताते हैं कि चीन की इस संस्था से नेपाल के सांस्कृतिक मंत्रालय ने चीनी सरकार के इशारे पर कई समझौते किए हैं। इन समझौतों के तहत यह संस्था भारत के सीमावर्ती इलाकों के पास लुंबिनी क्षेत्र जो भारत के उत्तर प्रदेश के बहराइच, सिद्धार्थनगर, गोरखपुर और महाराजगंज जिलों के करीब है में पर्यटन और इससे संबंधित रोजगार के अवसर को बढ़ावा देने के नाम पर इसे अंतरराष्टÑीय बौद्ध क्षेत्र के रूप में विकसित करेगी। इसी आड़ में यह चीनी संस्था भारत के बेहद नजदीक क्षेत्रों में हवाई अड्डे, होटल, संचार, जल और विद्युत परियोजनाओं पर भी काम करेगी।
नेपाल के प्रमुख माओवादी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड भी इस संस्था के साथ 22 अरब रुपए जुटाने के लिए एक करार कर चुके हैं। चीन ने बौद्ध धर्म के नाम पर भारत के खिलाफ परोक्ष रूप से जंग छेड़ दी है। उससे सजग रहने की जरूरत है। चीन अपने विस्तारवादी रवैए को पूरा करने के लिए हर तरह की रणनीति में माहिर है।( साभार-जनसत्ता-हरीशंकर शाही -बलरामपुर/बहराइच, 23 सितंबर।)

  ऐतिहासिक बलदेवज्यू मंदिर की हालत खस्ता, प्रवेश द्वार से गिरा शिलाखंड
 ओड़िशा के केंद्रपाड़ा जिले के 300 साल पुराने बलदेवज्यू मंदिर के प्रवेश द्वार से दो शिलाखंड गिर पड़े। हालांकि घटना में कोई घायल नहीं हुआ लेकिन यह मंदिर के बेबस हाल को बयां करता है। मध्यकालीन मंदिर के ‘झूलन’ मंडप के प्रवेश द्वार के करीब करीब 30 किलोग्राम के दो शिलाखंड तीन दिन पहले गिर पड़े। यह मंडप श्रद्धालुओं के लिए विश्राम कक्ष के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।
मंदिर न्यास के सदस्य अक्षय पाणि ने कहा, ‘18वीं सदी की शुरुआत में मराठा शासन काल के दौरान मंदिर का निर्माण हुआ था। मंडप तो उसके मुकाबले नया निर्माण है। 60 के दशक के शुरुआत में इसका निर्माण हुआ। रखरखाव में कमी के कारण मंदिर खतरे में है।’ पाणि ने कहा कि राज्य पुरातत्व विभाग के नजरअंदाज करने की वजह से बलदेवज्यू मंदिर की खस्ताहाल स्थिति है। पिछले दो साल से मंदिर जीर्णशीर्ण हालत में है लेकिन संबंधित अधिकारी इसके संरक्षण पर आंखेंं बंद किए हुए हैं। जिला प्रशासन ने राज्य पुरातत्व विभाग का ध्यान इस विरासत मंदिर की संरक्षण परियोजना की ओर दिलाया है।
केंद्रपाड़ा के जिलाधिकारी दुर्गा प्रसाद बेहरा ने कहा, ‘हमनें पुरातत्व विभाग से बिना किसी विलंब के पूर्ण संरक्षण का काम शुरू करने का अनुरोध किया है। विभाग ने 15 दिनों के भीतर काम शुरू करने की प्रतिबद्धता जताई है।’ दो साल पहले, मध्यकालीन मंदिर के पूजास्थल पर बनी दाढी नौती में बड़ी दरार आ गई थी । उसके एक महीने बाद भोग घर का कुछ हिस्सा गिर पड़ा। इन घटनाओं के बाद पुरातत्त्ववेत्ताओं ने वहां का निरीक्षण किया और एक व्यापक संरक्षण परियोजना की घोषणा की गई लेकिन डेढ़ साल बीत जाने के बाद भी जीर्णोंद्धार के तत्काल शुरू होने के आसार नहीं है।( साभार-केंद्रपाड़ा, 23 सितंबर (भाषा)।)

मेला परम्परा- उत्तराखंड की एकता का प्रतीक मशहूर नंदा देवी राज जात मेला
 
नैनीताल के प्रसिद्ध नयना देवी मंदिर प्रांगण में मां नंदा-सुनंदा की युगल मुखाकृति  उत्तराखंड का मशहूर नंदा देवी राज जात मेला धूमधाम से शुरू हो गया है। रविवार २३ सितंबर को ब्रह्म मुहूर्त में वैदिक मंत्रोच्चार के बीच नैनीताल के प्रसिद्ध नयना देवी मंदिर प्रांगण में मां नंदा-सुनंदा की युगल मुखाकृति की विधिवत प्राण प्रतिष्ठा की गई। नंदा-सुनंदा देवी को पारंपरिक वस्त्रों, गहनों और सोने-चांदी के छत्रों से मंडित किया गया।
मां नंदा के दर्शनों व पूजा-अर्चना के लिए पौ फटने से पहले ही नंदा देवी परिसर में श्रद्धालुओं का आना शुरू हो गया था। देवी के दर्शन के लिए सुबह से ही लंबी कतारें लग गई थीं और यह सिलसिला दिन भर जारी रहा। श्रद्धालुओं को देवी के दर्शनों के लिए घंटों कतारों में खड़ा रहना पड़ा। नंदा राज जात मेला तीन दिन चलेगा। 26 सितंबर को मां नंदा-सुनंदा के सुसज्जित डोले को नगर भ्रमण कराया जाएगा।
उत्तराखंड में होने वाले मेलों में नंदा देवी का मेला सबसे बड़ा माना जाता है। यह मेला उत्तराखंड की एकता का प्रतीक है। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन पहाड़ के अनेक स्थानों में लगने वाला नंदा देवी मेला इस अंचल के समृद्ध सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक पक्ष को व्यक्त करता है। नंदा देवी संपूर्ण उत्तराखंड में प्रतिष्ठित और पूज्य हैं।
हिमालय पर्वत अनंतकाल से शिव और पार्वती के निवास स्थान माने गए हैं। पुराणों में एक हिमालय राज का उल्लेख है। पार्वती को हिमालय राज की पुत्री बताया गया है। गिरिजा, गिरिराज किशोरी, शैलेश्वरी और नंदा आदि पार्वती के ही नाम हैं। हिमालय के अनेक शिखरों के नाम भी नंदा के नाम पर हैं। इनमें नंदा देवी, नंदा भनार, नंदा खानी, नंदा कोट और नंदा घुघटी आदि प्रमुख हैं। पौराणिक ग्रंथों में नंदा पर्वत को हिमाद्रि, मेरु, सुमेरु आदि नामों से जाना जाता है। मानसखंड और केदारखंड जैसे ग्रंथों में इसे नंदा देवी के नाम से पुकारा गया है। मानसखंड में नंदा पर्वत को नंदा देवी का निवास स्थान बताया गया है। हिमालय की सबसे ऊंची चोटी नंदा देवी को नंदा, गौरी और पार्वती का रूप माना जाता है। नंदा देवी को शक्ति का रूप माना गया है। शक्ति की पूजा नंदा, उमा, अंबिका, काली, चंडिका, चंडी, दुर्गा, गौरी, पार्वती, ज्वाला, हेमवती, जयंती, मंगला, काली और भद्रकाली के नाम से भी होती है।
उत्तराखंड के राजवंशों में नंदा की पूजा कुलदेवी के रूप में होती आई है। कुमाऊं का राजवंश नंदा देवी को तीनों लोकों का आनंद प्रदान करने वाली शक्ति रूपा देवी के रूप में पूजता था। गढ़वाल के राजाओं ने नंदा देवी को राजराजेश्वरी के नाम से प्रतिष्ठित किया। यही कारण है कि उत्तराखंड में अनेक स्थानों पर नंदा देवी के मंदिर हैं। हर साल नंदा देवी के मेलों से लेकर नंदा देवी लोक जात यात्रा और नंदा राज जात यात्रा के रूप में नंदा देवी को पूजने की एक समृद्ध परंपरा उत्तराखंड में कई सदियों से अनवरत चली आ रही है।
नंदा देवी उत्तराखंड की साझा संस्कृति, समसामयिक चेतना और एकता का प्रतीक हैं। नंदा देवी के निमित्त उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर होने वाले अनेक उत्सवों में पहाड़ की समृद्ध लोक संस्कृति की गहरी जड़ें, धार्मिक विश्वास व परंपराएं जुड़ी हैं। लोकजीवन के आधार स्तंभों पर पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभावों के बावजूद पहाड़ के धार्मिक लोक पर्वों के प्रति यहां के आम लोगों के उत्साह और श्रद्धा में कोई कमी नहीं आई है।( साभार -जनसत्ता-प्रयाग पांडे-नैनीताल, 23 सितंबर।)

Monday, August 20, 2012

Historians divided over Kolkata's birthday

   KOLKATA: Can a lessee of a mass of land become the founder of a city? Can the date of his landing in Kolkata be suddenly interpreted as the city's birth date?
Such questions, and many more, will be asked by a host of historians - who contest the claim that August 24 should be celebrated as the city's birthday - on August 23. But the debate has already started raging among those who are preparing to celebrate the occasion on Friday.
The state government and the Kolkata Municipal Corporation celebrated the tercentenary of the city in 1990. But a high court ruling had put an end to the celebration, saying that August 24 cannot be considered the birth date of the city. Though the state-backed agencies stopped commemorating the day, several private organizations followed tradition and stuck to the August 24 date.

However, there are some who contest this established notion and feel public awareness should be generated about the misconception. One such organization - Sutanati Boimela Committee - will bring together historians of repute, including Debashish Basu, to contest the claim at an event on August 23.
Job Charnock, the British trader who landed near Nimtala Ghat on August 24, 1690, was unanimously considered to be the founder of Kolkata till now. He is believed to have received lease of the three villages - Sutanuti, Gobindopur and Kalikata - from the then owner, Sabarna Ray Chowdhury.
The Sabarna Roy Chowdhury Paribar Parishad challenged the date and filed a PIL in Calcutta high court in 2001. They produced a copy of an old 1698 deed where Charnock's son-in-law, Charles Eyre, was leased out the three villages. The court formed an expert committee of historians comprising Arun Dasgupta, Barun De, Sushil Chowdhury and Naren Sinha, to look into the matter.
"We unanimously decided that Kolkata's existence is certainly older than the arrival of Job Charnock. Even Abul Fazl's Ain-i-Akbari (1590) mentions Kollegot, which can certainly be interpreted as Kolkata. Naturally, you cannot celebrate the city's birthday on August 24. Moreover, how can a city which is a landmass that grows over time, have a birthday, at least logically?" asks Barun De. Soumitro Sreemani, another noted historian, also dismissed the birthday claim.
Incidentally, Sutanati Parishad, an NGO that celebrates many of the old anniversaries and events associated with the city, will start its Sutanati Utsav on August 24. "When our organization was formed on August 24, the city was agog with the tercentenary celebrations. However, the date was debated and disproved later, but we continued with our Sutanati Utsav, which is not necessarily a birthday celebration," said Kalyan Kumar Deb of Sutanati Parishad.
The August 23 talk has been organized at the house of Chatu Babu - Latu Babu, one of the princely houses of the city,
to add a touch of history to the event. "We will also be celebrating the birth centenary of Binoy Krishna Deb Bahadur, a pioneer in the field of education and literature. Right from the Oriental Seminary, General Assembly and Metropolitan School, he was on the committee of many institutions.
His books - Growth and Early History of Kolkata and Pancha Pushpa - are still considered to be scholarly documents on the city's early history," said Suman Bhowmick, general secretary of Sutanati Boimela Committee.
Once again it is that time of the year when a debate rages as to whether Friday, August 24, should be celebrated as the city's birthday. In 1990 both the state government and the Kolkata Municipal Corporation celebrated the tercentenary of the city following the date that history books had been propagating eversince. After this hullaballoo of the tercentenary was over, a High Court ruling put an end to the matter saying that August 24 cannot be considered the birthdate of the city.
Though the state backed agencies do not celebrate the birthday of the city anymore, there are several private organisations that do, as a matter of tradition. So there are some others who contest this, feeling that public awareness should be generated about the misconception. Sutanati Boimela Committee is one such organisation, which will bring together historians of repute to contest the claim that August 24 should be celebrated as the city's birthday. They will present their case on August 23.
Job Charnock, the British trader who landed near Nimtolla Ghat on August 24, 1690, was so long considered to be the founder of Kolkata. He is supposed to have received lease of the three villages - Sutanuti, Gobindopur and Kalikata from the then owners, Sabarna Ray Chowdhury.
'Can a lessee of a mass of land become the founder of a city? Can the date of his landing in Kolkata be suddenly interpreted as the city's birthdate?" asks Debashish Basu, an expert on the history of Kolkata, who will argue the case on August 23.
The Sabarna Roy Chowdhury Paribar Parishad, challenged the date and filed a PIL at the Calcutta High Court in 2001. They produced a copy of an old 1698 deed where Charnock's son-in-law, Charles Eyre was leased out the three villages. The court formed an expert committee of historians comprising of Arun Dasgupta, Barun De, Sushil Chowdhury, Naren Sinha etc.
"We unanimously decided that Kolkata's existence is certainly older than the arrival of Job Charnock. Even Abul Fazl's Ain-i-Akbari (1590) mentions Kollegot, which can certainly be interpreted as Kolkata. Naturally you cannot celebrate the city's birthday on August 24. Moreover, how can a city which is a landmass that grows over time, have a birthday, at least logically?" asks Barun De. Another historian who will also dismiss the birthday claim will be Soumitro Sreemani.
Incidentally, Sutanati Parishad, an NGO that celebrates many of the old anniversaries and events associated with the city, will start its Sutanati Utsav on August 24. "When we came into being on August 24, the city was agog with the tercentenary celebrations. However, later when the date was debated and disproved, we have continued with our Sutanati Utsav which is not necessarily a birthday celebration," said Kalyan Kumar Deb of Sutanati Parishad.
The talk has been organised at the house of Chatu Babu - Latu Babu, one of the princely houses of the city, to add a touch of history to the event. "We will also be celebrating the birth centenary of Binoy Krishna Deb Bahadur, who was a pioneer in the field of education and literature those days. Right from the Oriental Seminary,
General Assembly and Metropolitan School, he was on the committees of many institution. Two of his books, Growth and Early History of Kolkata and Pancha Pushpa are still considered to be documents by scholars of the city's early history," said Suman Bhowmick, general secretary of Sutanati Boimela Committee. ( साभार-टाइम्स आप इंडिया )

Tuesday, July 31, 2012

मध्य प्रदेश के ओरछा में हर जगह बिखरा है इतिहास ,असंख्य दुर्ग और किले

ओरछा वह अभिशप्त शहर है जिसे पुराने लोगों के मुताबिक कई बार उजड़ने का शाप मिला था पर आज भी यह शहर इस आदिवासी अंचल में पर्यटन से रोजगार की नई संभावनाओ को दिखा रहा है। बुंदेलखंड में खजुराहो के बाद ओरछा में सबसे ज्यादा सैलानी आते है पर इसके बाद वे यहीं से लौट भी जाते हैं। शाम होते ही बेतवा के तट पर विदेशी सैलानी नजर आते है जो बुंदेला राजाओं की ऐतिहासिक और भव्य इमारतों को देखने के बाद पत्थरों से टकराती बेतवा की फोटो लेते हैं। बात करने पर पता चला कि अब वे खजुराहो से लौट जाएंगे क्योकि और किसी ऐतिहासिक जगह की ज्यादा जानकारी उन्हें है ही नहीं। यह बताता है कि पर्यटन क्षेत्र यहां किसी की भी प्राथमिकता में नहीं है। तेरह जिलों में फैले बुंदेलखंड में जगह जगह पुरातत्व और इतिहास बिखरा है पर कही भी बड़ी संख्या में सैलानी नहीं आते क्योकि पर्यटन क्षेत्र को विकसित ही नहीं किया गया। जबकि विशेषज्ञों के मुताबिक बुंदेलखंड में पर्यटन कम से कम खर्च में ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार भी दे सकता है। बुंदेलखंड की राजनीति और पैकेज की राजनीति करने वालों का इस तरफ ज्यादा ध्यान ही नहीं गया। अगर सिर्फ इस अंचल की धरोहर को सहेज कर उन्हें पर्यटन के नक़्शे पर लाया जाए बड़ी संख्या में लोगो को रोजगार मिल सकता है और यहीं पर रोजगार पैदा होने से पलायन भी रुक सकता है।
इस अंचल में सैलानियों को आकर्षित करने के लिए बहुत कुछ है। ऐतिहासिक दुर्ग, किले, घने जंगल, हजार साल पुराने मीलों फैले तालाब और शौर्य व संघर्ष का इतिहास। चरखारी का किला है जो लाल किले से बड़ा है तो झाँसी का किला शौर्य का प्रतीक है। गढ़ कुंडार का रहस्मय किला है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते है और कुछ समाजशास्त्री इसे सन 1152 के बाद के दौर में दलित राज के रूप में भी देखते हैं। जिस राम लला के लिए अयोध्या में मंदिर आंदोलन हुआ वह वे राम लला इसी ओरछा के राजा के रूप में पूजे जाते हैं। यहाँ आल्हा ऊदल के किस्से है तो लोक संगीत और नृत्य की पुरानी परंपरा भी। इस क्षेत्र में औसत वर्षा ९५ सेमी होती है जबकि राष्टÑीय आंकड़ा 117 सेमी का है जो बताता है कि कृषि के लिए कैसी जटिल परिस्थियां होंगी।
असंख्य किले, दुर्ग, ताल तालाब और ऐतिहासिक विरासत वाला यह अंचल दो राज्यों के साथ केंद्र सरकार की प्राथमिकता पर नजर आ रहा है। यह बात अलग है कि बुंदेलखंड पैकेज का बहुत कम हिस्सा आम लोगों के काम आया। आसपास के इलाकों का दौरा करने और लोगों से बात करने पर यह बात सामने आई। बुंदेलखंड की समस्याओं पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों का प्रबंध करने वालीं सुविज्ञा जैन ने कहा - यहां जल भंडारण के एतिहासिक स्थल हैं, पुरातत्व और इतिहास है, लोक संस्कृति है जो किसी भी पर्यटन स्थल के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है जिसके चलते अगर कम पैसों की भी कुछ योजनाए बनाई जाएं तो पलायन से बुरी तरह प्रभावित इस क्षेत्र को फौरी राहत मिल सकती है।
यह भी कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पुराने डाक बंगलों को अगर दुरुस्त कर हेरिटेज होटल में तब्दील कर दिया जाए तो पैसा भी बचेगा और देश विदेश के सैलानियों के लिए सुविधा का भी आसानी से प्रबंध हो जाएगा। दूसरी तरफ इस क्षेत्र में 50 साल से सामाजिक कार्य कर रहे वीरसिंह भदौरिया ने कहा -बुंदेलखंड को बचाने के लिए अगर पर्यटन पर फोकस किया जाए तो काफी कुछ हो सकता है। पर इसके लिए कुछ बुनियादी सुविधाएं मसलन अच्छी सड़कें,परिवहन सेवाएं और मोटल के साथ कानून व्यवस्था पर ध्यान देना होगा। दरअसल यहां खेती से ज्यादा कुछ संभव नहीं है और अन्य उद्योगों के मुकाबले पर्यटन क्षेत्र में अपार संभावनाए हैं। यह बात बेतवा के किनारे कभी बुंदेलों की राजधानी रही ओरछा में नजर आती है जो इस इलाके में खजुराहो के बाद दूसरे नंबर का पर्यटन स्थल है जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिला है। यानी कुलमिलाकर मध्य प्रदेश के हिस्से में पड़ने वाले बुंदेलखंड की स्थिति कुछ बेहतर नजर आती है। लेकिन उत्तर प्रदेश में ये बहुत कम क्या, न के बराबर हैं।
ओरछा में बेतवा का पानी है तो घने जंगल सामने दिखाई पड़ते है। बेतवा तट पर विदेशी पर्यटकों को देख हैरानी भी होती है। पर दूसरी तरफ झांसी, बरुआ सागर, देवगढ ,चंदेरी ,महोबा, चित्रकूट, कालिंजर और कालपी जैसे ऐतिहासिक पर्यटन स्थल होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के इस क्षेत्र में सैलानी नजर नहीं आते। सड़क तो उरई छोड़ ज्यादातर जगह ठीक हो गई है पर न तो परिवहन व्यवस्था ठीक है न ढंग के होटल- मोटल ।
बहुत ही दुर्गम इलाके में गढ़ कुडार का ऐतिहासिक किला बुंदेलखंड में ही है। कहा जाता है कि आक्रमण में हार से पहले आठवी शताब्दी में यहां के राजा के साथ प्रजा ने भी एक कुंड में कूदकर जान दे दी थी। इस तरह की कहानियां और किस्से बुंदेलखंड में उसी तरह बिखरे हुए है जैसे दुर्ग और किले। ओरछा के फिल्मकार जगदीश तिवारी के मुताबिक इस क्षेत्र में पर्यटन और लोक संस्कृति के क्षेत्र में बहुत संभावनाएं हैं। अगर सरकार पहल करे तो बहुत कुछ हो सकता है। मुंबई से फिल्म उद्योग के लोगों ने ओरछा और आसपास कई फिल्मो की शूटिंग की है जिनमें बड़ी फिल्मों से लेकर विज्ञापन फिल्में भी शामिल हैं। यही वजह है कि ओरछा में कई बड़े रिसॉर्ट है और अगर उत्तर प्रदेश सरकार चाहे तो वह भी अपने हिस्से में पड़ने वाले इलाकों में काफी कुछ कर सकती है। पहले तो नहीं पर अब अखिलेश यादव सरकार से लोगों को उम्मीद भी है । वैसे उत्तर प्रदेश हो या मध्य प्रदेश सभी का हाल बेहाल है। सागर विवि से पुरातत्व में पीएचडी डा सुरेंद्र चौरसिया ने बुंदेलखंड के पुनर्निर्माण पर आयोजित एक सामूहिक विमर्श में कहा - बुंदेलखंड की ऐतिहासिक धरोहरों की अनदेखी की जा रही है। यहां के संग्रहालयों में पुरातात्विक महत्व अवशेषों और इतिहास के दस्तावेज सीलन भरी जमीन पर बिखरे मिल जाएंगे। ( साभार-जनसत्ता-अंबरीश कुमार)

Monday, July 16, 2012

क्या सचमुच महान था सिकंदर महान ?

सिकंदर एक महान विजेता था- ग्रीस के प्रभाव से लिखी गई पश्चिम के इतिहास की किताबों में यही बताया जाता है। मगर ईरानी इतिहास के नजरिए से देखा जाए तो ये छवि कुछ अलग ही दिखती है।
प्राचीन ईरानी अकेमेनिड साम्राज्य की राजधानी 'पर्सेपोलिस' के खंडहरों को देखने जाने वाले हर सैलानी को तीन बातें बताई जाती हैं- कि इसे डेरियस महान ने बनाया था, कि इसे उसके बेटे जेरक्सस ने और बढ़ाया, और कि इसे ‘उस इंसान‘ ने तबाह कर दिया- सिकंदर।

उस इंसान सिकंदर को, पश्चिमी संस्कृति में सिकंदर महान कहा जाता है जिसने ईरानी साम्राज्य को जीता और जो इतिहास के महान योद्धाओं में से एक था। हालत ये है, कि यदि कोई पश्चिमी इतिहास की किताबों को पढ़े तो उसे ये सोचने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि ईरानी बने ही इसलिए थे कि सिकंदर आए और उनको जीत ले। जो थोड़ा और कौतूहल रखेगा, उसे शायद ये भी पता लग सकता है कि ईरानियों को इससे पहले भी यूनानियों ने दो बार हराया था, जब ईरानियों ने उन पर हमला करने की नाकाम कोशिश की, और इसलिए सिकंदर ने ईरान पर हमला बदला लेने के लिए किया था।

मगर ईरानी दृष्टिकोण से देखें तो पाएंगे कि सिकंदर महानता से कोसों दूर था।

हमला, मगर क्यों : वहां दिखेगा कि सिकंदर ने पर्सेपोलिस को जमींदोज कर दिया, एक रात एक ग्रीक नर्तकी के प्रभाव में आकर जमकर शराब पीने के बाद, और ये दिखाने के लिए कि वो ऐसा ईरानी शासक जेरक्सस से बदला लेने के लिए कर रहा है जिसने कि ग्रीस के शहर ऐक्रोपोलिस को जला दिया था। ईरानी सिकंदर की ये कहकर भी आलोचना करते हैं कि उसने अपने साम्राज्य में सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाने को बढ़ावा दिया। उसके समय में ईरानियों के प्राचीन धर्म, पारसी धर्म के मुख्य उपासना स्थलों पर हमले किए गए। सिकंदर के हमले की कहानी बुनने में पश्चिमी देशों को ग्रीक भाषा और संस्कृति से मदद मिली जो ये कहती है कि सिकंदर का अभियान उन पश्चिमी अभियानों में पहला था जो पूरब के बर्बर समाज को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए किए गए।

मगर असल में ईरानी साम्राज्य पर विजय का महत्व था, इसलिए नहीं कि उनको सभ्य बनाना था, बल्कि इसलिए क्योंकि वो उस समय तक का विश्व का महानतम साम्राज्य था, मध्य एशिया से लीबिया तक फैला हुआ। ईरान एक बेशकीमती इनाम था। करीब से देखने पर इस बात के भी बहुत सारे प्रमाण मिलते हैं कि ग्रीक लोग ईरानी शासन और इसके शासकों के प्रशंसक थे। उन बर्बरों की तरह जिन्होंने रोम को जीता था, सिकंदर भी उस साम्राज्य की प्रशंसा सुनकर आया था। सिकंदर ईरान की प्रशंसा करने वाली कहानियों से अवगत रहा होगा। ईरानी साम्राज्य एक ऐसी चीज था जिसे जीतने से ज्यादा बड़ी बात उसे हासिल करना था।

सम्मान भी : ईरानी बेशक उसे आततायी बताते हैं, एक बेलगाम युवा योद्धा, मगर सबूतों से यही पता चलता है कि सिकंदर का ईरानियों में एक आदर भी था। उसे हमले के कारण ईरान में हुई तबाही का अफसोस था। पर्सेपोलिस से थोड़ी दूर एक मकबरे का नुकसान देखकर वो बड़ा व्यथित हुआ था और उसने तत्काल उसकी मरम्मत के आदेश दिए। अगर 32 साल में मौत के मुंह में चला जाने वाला सिकंदर और अधिक जिया होता तो शायद वो और भी बहुत कुछ चीजों का जीर्णोद्धार करवाता। फिर शायद ईरानियों का मैसिडोनियाई आक्रमणकारियों से संबंध सुधरता और वे उन्हें भी अपने देश के इतिहास में शामिल करते। और तब शायद 10वीं शताब्दी में लिखे गए ईरानी कृति शाहनामा में सिकंदर केवल एक विदेशी राजकुमार नहीं कहलाता।

( वेबदुनिया से साभार- यह धारणा प्रोफेसर अली अंसारी ने प्रतिपादित की है। वे स्कॉटलैंड के सेंट एंड्रूयूज विश्वविद्यालय में आधुनिक इतिहास के प्राध्यापक और ईरानी अध्ययन विभाग के निदेशक हैं।)

Wednesday, July 11, 2012

बबार्द हो रहे हैं चंदेल व मुगलकालीन जलाशय

 बुंदेलखंड को तालाबों का खंड कहा जाता था, जहां दसवीं सदी से लेकर तेरहवीं सदी तक के सैकड़ों तालाब देखने को मिल सकते हैं। इसके साथ-साथ मुगलों के शासन में भी तालाब बनवाए गए। यही नहीं तालाबों के सहारे शुद्घ पेयजल के लिए कुएं भी बनाए जाते थे। इन कुओं में पानी तालाबों के सहारे रीचार्ज होकर कुओं को जीवित रखते थे। तालाबों को बरसात के पानी से भरने के लिये पहले से बंदोबस्त होता था। जिससे उसका पानी दूषित न हो। तालाबों के पानी की निकासी की समुचित व्यवस्था होती थी। बड़े तालाबों में पानी की स्वच्छता के लिए मछली पालन कराया जाता था इसके अलावा कंकरीट भी तालाबों में डलवाई जाती थी। जिससे तालाब का पानी फिल्टर होकर पीने लायक बना रहे। यह सब मनुष्य की इच्छा शक्ति से होता था पर जैसे-जैसे आबादी का विस्तार हुआ, सबसे पहले स्वार्थी लोगों ने तालाबों की खाली पड़ी जमीन पर कब्जा कर इमारतें खड़ीं कर दीं। यही नहीं जो नालियां तालाबों को भरने का काम करती थी, उनको हमेशा के लिए बंद कर दिया।
 
 
चंदेकालीन और मुगल कालीन तालाबों का जो डिजाइन हैं वह आज भी इंजीनियरों के लिए चुनौती है। इसी प्रकार मेहराबदार दीवारों से कुओं का जो निर्माण कराया जाता था, वह भी लुप्त हो गए। जो कुएं बुंदेलखंड पैकेज से महोबा व ललितपुर में बनाए जा रहे हैं। उनके डिजाइन देख बुंदेलखंड में सौ से अधिक चंदेलकालीन तालाब हैं। ये सभी तालाब अपने सौंदर्य को खोते जा रहे हैं।
  वाल्मीकि तालाब को छोड़ कर सभी तालाब शहर की आबादी से घिर चुके हैं। जल निकासी के सभी स्रोत बंद कर दिए हैं। इन तालाबों को बरसात के पानी से भरने के लिए कोई इंतजाम नहीं है, यह है जल प्रबंधन का हाल। इसी तरह महोबा के मदन सागर तालाब, कल्याण सागर, तालाब, कीरत सागर तालाब, बीझा नगर तालाब, सागर तालाब यह सभी चंदेलकालीन हैं। ये सभी तालाब बड़े क्षेत्रफल में फैले हैं। इनमें पानी भरने के लिए 1990 से 2000 के दशक में व्यवस्था थी पर धीरे-धीरे आबादी बढ़ने से इनमें अधिकांश तालाबों की जल निकासी न होने से गंदा पानी सड़ांध मारने लगा है।
बारिश का पानी भरने का बंदोबस्त अब नहीं रहा। हमीरपुर जिले में चरखारी रियासत को खूबसूरत तालाबों के साथ कुएं जुड़े मिलते थे, जो खंडहर में तब्दील हो गए हैं। तालाब सूख गए हैं। इन्हें भी सरकारी बजट की दरकार है। यहां तालाबों और कुओं को ऐसे बनाया गया है कि बारिश हो तो एक बूंद पानी भी बाहर न जाए।
ऐसे तालाबों-कुओं का निर्माण अब संभव नहीं। आज भी प्रत्येक गांव में एक या दो प्राचीन कुएं देखने को मिल जाते है। ( साभार- जनसत्ता )

संबंधित विवरण व संदर्भ के लिए यहां भी देखें। राजस्थान, मध्यप्रदेश व उत्तर प्रदेश के इन इलाकों में प्राचीन शासकों (नौवीं से सोलहवीं शताब्दी तक ) ने जलापूर्ति के वैज्ञानिक इंतजाम किए थे। आज उनके नष्ट होते ही पूरा सूबा पीने के पानी तक को तरस गया है।लिंक पर क्लिक कर देखें पूरा विवरण।

Bundelkhand - Drought and environmental destruction
http://kkasturi.blogspot.in/2009/11/bundelkhand-drought-and-environmental.html
Dr Bharatendu Prakash ,Vikram Sarabhai fellow at the MP Council of Science & Technology has been studying the water resources of Bundelkhand from many years.Dr Prakash explains that..................The solutions evolved over a 1000 years have been to construct innumerable rain water harvesting structures taking into account the lay of the land, designed to capture the runoff in surface ponds and recharge underground sources. Water harvesting structures – ponds in every village and town and at other strategic locations - had been crafted in the region as early as 800-900 AD by the Chandela kings and reinforced by subsequent rulers – the Bundela’s and the Peshwa’s.

  A pond at Charkhari, UP. Part of a system of 11 interconnected ponds, the rain water storage structures built nearly a 1000 years ago by the Chandela rulers are decaying due to lack of maintenance. This neglect of old water storage structures we witness again and again in different parts of Bundelkhand. Every village or small town we visit has one or more large ponds usually dating hundreds of years. The water bodies are now filthy with sewage allowed to flow in, garbage dumped on the banks, silt accumulation and weeds.

 ( साभार- http://kkasturi.blogspot.in/2009/11/bundelkhand-drought-and-environmental.html )

Bundelkhand, Madhya Pradesh, established a network of several hundred tanks

http://cpreec.org/pubbook-traditional.htm
The Chandela Kings (851 – 1545 A.D.) of Bundelkhand, Madhya Pradesh, established a network of several hundred tanks that ensured a satisfactory level of groundwater. They were constructed by stopping the flow of a nullah or a rivulet running between 2 hills with a massive earthen embankment. The quartz reefs running under the hills confined the water between them.

The Bundela Kings who came later used lime and mortar masonry and were bordered by steps, pavilions and royal gardens. The tanks were built close to palaces and temples and were not originally meant for irrigation at all, but for the use of all. Breaching of embankments and cultivation on the tank bed has destroyed many. But the wells in the command area of these tanks continue to yield well and also serve to recharge the groundwater. ( http://cpreec.org/pubbook-traditional.htm )

Wednesday, July 4, 2012

रामसेतु विवाद घटनाक्रम

    भारत के पौराणिक महत्व तथा करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक रामसेतु पर सेतु समुद्रम परियोजना बनाई गई है। इसमें पौराणिक रामसेतु को तोड़कर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द गिर्द समुद्र में छोटा नौवहन मार्ग बनाए जाने पर केंद्रित है। लेकिन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि सेतुसमुद्रम परियोजना के लिए रामसेतु के अलावा दूसरा मार्ग न तो आर्थिक तौर पर लाभकारी है और न ही पर्यावरण की दृष्टि से ठीक है। सालिसिटर जनरल आर नरीमन ने जस्टिस एचएल दत्तू और सीके प्रसाद की बेंच को यह जानकारी दी।
भौगिलिक स्थिति: भारत के दक्षिण में धनुषकोटि तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिम में पम्बन के मध्य समुद्र में 48 किमी चौड़ी पट्टी के रूप में उभरे एक भू-भाग के उपग्रह से खींचे गए चित्रों को अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (नासा) ने जब 1993 में दुनिया भर में जारी किया तो भारत में इसे लेकर राजनीतिक वाद-विवाद का जन्म हो गया था।
इस पुल जैसे भू-भाग को राम का पुल या रामसेतु कहा जाने लगा। ईसाई या पश्चिमी लोग इसे एडम ब्रिज कहने लगे हैं। रामसेतु का चित्र नासा ने 14 दिसम्बर 1966 को जेमिनी-11 से अंतरिक्ष से प्राप्त किया था। इसके 22 साल बाद आई.एस.एस 1 ए ने तमिलनाडु तट पर स्थित रामेश्वरम और जाफना द्वीपों के बीच समुद्र के भीतर भूमि-भाग का पता लगाया और उसका चित्र लिया। इससे अमेरिकी उपग्रह के चित्र की पुष्टि हुई। वैज्ञानिकों में इस ब्रिज को लेकर विवाद है। कुछ वैज्ञानिक इसे प्राकृतिक ब्रिज मानते हैं तो कुछ इसे मानव निर्मित मानते हैं।

क्या है रामसेतु : नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली-सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु माना जाता है। भारत के दक्षिणपूर्व में रामेश्वरम और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच उथली चट्टानों की एक चेन है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। इसे भारत में रामसेतु व दुनिया में एडम्स ब्रिज के नाम से जाना जाता है। इस पुल की लंबाई लगभग 48 किमी है। यह ढाँचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक दूसरे से अलग करता है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है।
कहा जाता है कि 15वीं शताब्दी तक इस पुल पर चलकर रामेश्वरम से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था, लेकिन तूफानों ने यहाँ समुद्र को कुछ गहरा कर दिया। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया और समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण यह डूब गया।
दूसरी और पुल की प्राचीनता पर शोधकर्ता एकमत नहीं है। कुछ इसे 3500 साल पुराना पुराना बताते हैं तो कछ इसे आज से 7000 हजार वर्ष पुराना बताते हैं। कुछ का मानना है कि यह 17 लाख वर्ष पूराना है।

क्या है सेतु समुद्रम परियोजना: 2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया गया। भारत सरकार सेतु समुद्रम परियोजना के तहत तमिलनाडु को श्रीलंका से जोड़ने की योजना पर काम कर रही है। इससे व्यापारिक फायदा उठाने की बात कही जा रही है।
इसके तहत रामसेतु के कुछ इलाके को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक बनाया जाएगा। इसके लिए सेतु की चट्टानों को तोड़ना जरूरी है। इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा। तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा और तमिलनाडु के कोस्टल इलाकों में कम से कम 13 छोटे एयरपोर्ट बन जाएँगे।
माना जा रहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें, अनुमान है कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे।
मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी ही, संभावना है कि जलपोतों का 22 हजार करोड़ का तेल बचेगा। 19वें वर्ष तक परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2000 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।
परियोजना से नुकसान : रामसेतु को तोड़े जाने से ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि अगली सुनामी से केरल में तबाही का जो मंजर होगा उससे बचाना मुश्किल हो जाएगा। हजारों मछुआरे बेरोजगार हो जाएँगे।
इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रुपए की वार्षिक आय होती है, से लोगों को वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियाँ नष्ट हो जाएँगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भंडार से हाथ धोना पड़ेगा।

सेतु समुद्रम पर सरकार राम की शरण में :भगवान राम ने जहाँ धनुष मारा था उस स्थान को 'धनुषकोटि' कहते हैं। राम ने अपनी सेना के साथ लंका पर चढ़ाई करने के लिए उक्त स्थान से समुद्र में एक ब्रिज बनाया था इसका उल्लेख 'वाल्मिकी रामायण' में मिलता है।
केन्द्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल किए गए एक हलफनामें कहा था कि रामसेतु को खुद भगवान राम ने अपने एक जादुई बाण से तोड़ दिया था, इसके सुबूत के तौर पर सरकार ने 'कंबन रामायण' और 'पद्मपुराण' को पेश किया। सरकार ने रामसेतु के वर्तमान हिस्से के बारे में कहा कि यह हिस्सा मानव निर्मित न होकर भौगोलिक रूप से प्रकृति द्वारा निर्मित है। इसमें रामसेतु नाम की कोई चीज नहीं है।
विवाद का कारण : इससे पूर्व जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने सितंबर 2007 में उच्चतम न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामें में रामायण में उल्‍लेखित पौराणिक चरित्रों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिए थे, जिसे हिंदू भावनाओं को ठेस पहुँचाना माना गया।
एएसआई के हलफनामें में उसके निदेशक (स्मारक) सी. दोरजी ने कहा था कि राहत की माँग कर रहे याचिकाकर्ता मूल रूप से वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास की रचित राम चरित्र मानस और पौराणिक ग्रंथों पर विश्वास कर रहे हैं, जो प्राचीन भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है, लेकिन इन्हें ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं कहा जा सकता और उनमें वर्णित चरित्रों तथा घटनाओं को भी प्रामाणिक सिद्ध नहीं किया जा सकता।
इससे पूर्व अहमदाबाद के मैरीन ऐंड वाटर रिसोर्सेज ग्रुप स्पेस एप्लिकेशन सेंटर ने कहा कि माना जाता है कि एडम्स ब्रिज या रामसेतु भगवान राम ने समुद्र पारकर श्रीलंका जाने के लिए बनाया था, जो मानव निर्मित नहीं है। सरकार और एएसआई ने भी इस मामले में इसी अध्ययन से मिलते जुलते विचार प्रकट किए हैं।
गौरतलब है कि रामसेतु की रक्षार्थ याचिकाकर्ता ने अदालत से रामसेतु को संरक्षित एवं प्राचीन स्मारक घोषित करने का अनुरोध किया था। यह निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया था कि रामेश्वरम को श्रीलंका से जोड़ने वाले सेतु समुद्रम के निर्माण के समय रामसेतु को नष्ट न किया जाए। इस याचिका पर 14 सितम्बर 20007 को उच्चतम न्यायालय में सुनवाई हुई।
सरकारी हलफनामा: विवाद के चलते भारत सरकार ने हलमनामें को वापस लेते हुए 29 फरवरी 2008 को उच्चतम न्यायालय में नया हलफनामा पेश कर कहा कि रामसेतु के मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक बनावट सुनिश्चित करने के लिए कोई वैज्ञानिक विधि मौजूद नहीं है।
इस विवाद के चलते उधर तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार ने रामसेतु को तोड़कर सेतु समुद्रम परियोजना को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए कमर कस ली। हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि खनन गतिविधियों के दौरान रामसेतु को किसी प्रकार का नुकसान नहीं हो, लेकिन इस आदेश का पालन किस हद तक किया जा रहा है यह राज्य सरकार ही बता सकती है।


सरकारी दावे का खंडन : रामकथा के लेखक नरेंद्र कोहली के अनुसार, सरकार यह झूठ प्रचारित कर रही है कि राम ने लौटते हुए सेतु को तोड़ दिया था। जबकि रामायण के मुताबिक राम लंका से वायुमार्ग से लौटे थे, तो सोचे वह पुल कैसे तुड़वा सकते थे। रामायण में सेतु निर्माण का जितना जीवंत और विस्तृत वर्णन मिलता है, वह कल्पना नहीं हो सकता। यह सेतु कालांतर में समुद्री तूफानों आदि की चोटें खाकर टूट गया, मगर इसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
लालबहादुर शास्त्री विद्यापीठ के लेक्चरर डॉ. राम सलाई द्विवेदी का कहना है कि वाल्मीकि रामायण के अलावा कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में राम के आकाश मार्ग से लौटने का वर्णन किया है। इस सर्ग में राम द्वारा सीता को रामसेतु के बारे में बताने का वर्णन है। इसलिए यह कहना गलत है कि राम ने लंका से लौटते हुए सेतु तोड़ दिया था।
भारतीय नौ सेना की चिंता : सेतुसमुद्रम परियोजना को लेकर चल रही राजनीति के बीच कोस्ट गार्ड के डायरेक्टर जनरल आर.एफ. कॉन्ट्रैक्टर ने कहा था कि यह परियोजना देश की सुरक्षा के लिए एक खतरा साबित हो सकती है।
वाइस एडमिरल कॉन्ट्रैक्टर ने कहा था कि इसकी पूरी संभावना है कि इस चैनल का इस्तेमाल आतंकवादी कर सकते हैं। वाइस एडमिरल कॉन्ट्रैक्टर का इशारा श्रीलांकाई तमिल उग्रवादियों तथा अन्य आतंकवादियों की ओर है, जो इसका इस्तेमाल भारत में घुसने के लिए कर सकते हैं।
धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख : वाल्मीकि रामायण कहता है कि जब श्रीराम ने सीता को लंकापति रावण से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्‍वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद माँगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता माँगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया।
डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्रीराम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की।
नल सेतु : वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पाँच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन और चौड़ाई दस योजन थी। रामायण में इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है। नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया था।- (वाल्मीक रामायण-6/22/76)।
वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं कि सेतु बनाने में उच्च तकनीक प्रयोग किया गया था। कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा समुद्रतट पर ले आए ते। कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से सीध में हो रहा था।- (वाल्मीक रामायण- 6/22/62)
गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में वर्णन है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा बताई गई तकनीक से संपन्न हुआ था। महाभारत में भी राम के नल सेतु का जिक्र आया है।
अंन्य ग्रंथों में कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्रीराम के सेतु का जिक्र किया गया है। (वेबदुनिया )http://hindi.webdunia.com/news-national

सेतु समुद्रम परियोजना के लिए वैकल्पिक मार्ग व्यावाहारिक नहीं: रिपोर्ट

   केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि पचौरी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना के लिए पौराणिक राम सेतु को छोड़कर वैकल्पिक मार्ग आर्थिक और पारिस्थितिकी रूप से व्यावहारिक नहीं है।
न्यायमूर्ति एचएल दत्तू और न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की खंडपीठ के समक्ष सॉलिसिटर जनरल रोहिंटन नरीमन ने सोमवार को पर्यावरणविद आरके पचौरी की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति की 37 पेज की रिपोर्ट पेश की। उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट पर अभी केंद्रीय मंत्रिमंडल को विचार कर फैसला लेना है। समिति ने इस परियोजना से जुड़े विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण के आधार पर अपनी रिपोर्ट में कहा है कि राम सेतु को सुरक्षित रखने के इरादे से इस परियोजना के लिए वैकल्पिक मार्ग स्वीकार्य विकल्प नहीं है। यह जनहित में भी नहीं होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि धनुषकोडि के पूर्व से वैकल्पिक मार्ग निकालने का सुझाव आर्थिक और पारिस्थितिकी रूप से व्यावहारिक नहीं है।’
समिति ने गहन विश्लेषण और जोखिम प्रबंधन के महत्व का जिक्र करते हुए वैकल्पिक मार्ग की आर्थिक व्यावहारिकता पर सवाल उठाते हुए कहा है कि इससे पारिस्थितिकी को गंभीर खतरा हो सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद नाजुक इलाके में किसी परियोजना की आर्थिक व्यावहारिकता का पता लगाने के लिए और अधिक विश्लेषण करना होगा। न्यायालय ने संक्षिप्त सुनवाई के बाद इस परियोजना पर स्थिति साफ करने के लिए केंद्र सरकार को आठ सप्ताह का समय दिया।
सेतु समुद्रम परियोजना शुरू  होते ही पौराणिक रामसेतु के संरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई थीं। इन याचिकाओं के कारण ही सेतु समुद्रम परियोजना न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ गई थी। इन याचिकाओं में कहा गया था कि इस परियोजना से पौराणिक महत्व का रामसेतु क्षतिग्रस्त हो सकता है। सेतु समुद्रम परियोजना का उद्देश्य पौराणिक पुल राम सेतु के बीच से रास्ता बनाकर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द-गिर्द समुद्र में छोटा नौवहन मार्ग तैयार करना है। सेतु समुद्रम परियोजना के तहत प्रस्तावित नौवहन मार्ग 30 मीटर चौड़ा, 12 मीटर गहरा और 167 किलोमीटर लंबा होगा।
इस मामले के तूल पकड़ने और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद प्रधानमंत्री ने आरके पचौरी की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया था। न्यायालय ने सरकार से कहा था कि वह पौराणिक राम सेतु को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए वैकल्पिक मार्ग की संभावना तलाशे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में आर्थिक और पारिस्थितिकी बिंदुओं से जुड़े विभिन्न पहलुओं के आकलन के बाद वैकल्पिक मार्ग की व्यवहारिकता पर कई सवाल उठाए हैं। रिपोर्ट में परियोजना के आर्थिक पहलू का विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि वैकल्पिक मार्ग 4-ए के अवलोकन से पता चलता है कि इससे 12 फीसद की दर से आमदनी का लक्ष्य हासिल नहीं हो सकेगा। रिपोर्ट में यह निष्कर्ष भी निकाला गया है कि इससे इसकी व्यावहारिकता पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक राम सेतु के बारे में कहा जाता है कि भगवान राम की बंदर-भालुओं की सेना ने लंका के राजा रावण तक पहुंचने के लिए इस पुल को बनाया था।
केंद्र सरकार ने 19 अप्रैल को राम सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने पर कोई कदम उठाने से इनकार करते हुए न्यायालय से ही इस पर फैसला करने का आग्रह किया था। सरकार ने कहा था कि वह 2008 में दायर अपने पहले हलफनामे पर कायम रहेगी जिसे राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति ने मंजूरी दी थी। इसमें कहा गया था कि सरकार सभी धर्मों का सम्मान करती है। भगवान राम और राम सेतु के अस्तित्व पर सवाल उठाए जाने पर संघ परिवार की नाराजगी के बाद शीर्ष अदालत ने 14 सितंबर 2007 को केंद्र सरकार को 2,087 करोड़ रुपए की परियोजना की नए सिरे से समीक्षा करने के लिए समूची सामग्री के फिर से निरीक्षण की इजाजत दी थी। (नई दिल्ली, 2 जुलाई (भाषा)।)

Thursday, May 24, 2012

उपेक्षा के कारण जर्जर हुआ 350 साल पुराना राधा-कृष्ण का ऐतिहासिक मंदिर

     शाहजहांपुर से करीब 42 किमी दूर पुवायां तहसील के मुड़िया कुमिर्यात गांव में करीब 350 साल पुराना राधा-कृष्ण का मंदिर  है। बावन दरवाजों वाले इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैली है।  जर्जर होते इस मंदिर को मरम्मत की जरूरत है, लेकिन मरम्मत के लिए धन की मांग वाली फाइल पुरातत्व विभाग में धूल फांक रही है।
   यह ऐतिहासिक मंदिर जिला मुख्यालय से करीब 42 किमी दूर है। जिले की सबसे समृद्ध तहसील पुवायां नगर से बंडा रोड पर करीब दस किमी चलने पर जुझारपुर मोड़ पड़ता है। यहीं से पश्चिम के लिए पतली सी पक्की सड़क जाती है। इसी सड़क पर चार किमी दूरी पर है मुड़िया कुमिर्यात गांव। मुड़िया कुमिर्यात से पहले एक गांव और पड़ता है वनगवां। वनगवां से आगे बढ़ते ही मंदिर के विशाल बुर्ज दिखाई देने लगते हैं।
मंदिर अक्सर बंद ही रहता है। मंदिर के पुजारी बिहारी सुबह-शाम यहां पूजा करते हैं। यह मंदिर गांव के ही पुष्कर वर्मा के पूर्वज चूड़ामणि व उनके भाई बुद्धसेन ने करीब 350 साल पहले बनवाया था। यह करीब 13 पीढ़ी पहले की बात है। पुष्कर वर्मा मंदिर से कुछ दूर ही रहते हैं। वर्मा ने बताया कि उनके पूर्वज निगोही के रहने वाले थे। तब लड़ाइयों के कारण राजा पुवायां ने उनके पूर्वजों से मदद मांगी थी। राजा पुवायां ने ही उनके पूर्वजों को मुड़िया कुमिर्यात की रियासत दी थी। पुष्कर वर्मा ने बताया कि मंदिर बनने में 12 साल लगे थे। हर साल भादो में मंदिर में रौनक रहती है। जन्माष्टमी में विशाल मेला लगता है। दूर-दूर से लोग आते हैं। मेला पास ही बाग में लगता है। बाग मंदिर की ही संपत्ति है। मंदिर का परिसर पहले पांच एकड़ का था। लोग मकान बनाते गए और मंदिर का परिसर सिकुड़ कर अब करीब तीन एकड़ रह गया है।
पुष्कर वर्मा के मुताबिक, इस मंदिर पर सच्चे मन से मांगी गई हर मनौती पूरी होती है। जिसकी मनौती पूरी हो जाती है वह अपनी श्रद्धानुसार चांदी का सिक्का चढ़ाता है। मंदिर के फर्श और चौखटों पर लगे अनगिनत चांदी के सिक्के इस बात को प्रमाणित करते हैं। हालांकि चोर यहां से सिक्कों को उखाड़ भी ले जाते हैं। जहां से सिक्के उखड़े हैं, वहां निशान छूट जाते हैं। इसके अलावा गांव वाले अपने धार्मिक उत्सव भी मंदिर में मनाते हैं। मुंडन, बच्चे का मुंहवौर और ऐसे ही दूसरे कार्यक्रम मंदिर में किए जाते हैं। मंदिर के नाम से गांव में दो दिन बाजार भी लगता है। यह मंदिर की ही जमीन है और इससे होने वाली आय मंदिर के कार्यों पर खर्च की जाती है। बुधवार और शनिवार को मंदिर का बाजार लगता है।
राधा-कृष्ण के इस बेमिसाल मंदिर का निर्माण करने वाले कारीगर मुसलिम थे। इन कारीगरों ने बारह साल तक दिन-रात काम करके मंदिर बनाया था। सुर्खी को बड़ी सी चक्की से पीसकर मसाला बनाया जाता था। इसमें 12 अन्य तत्व मिलाए जाते थे। दिन भर में बमुश्किल दस से बारह तसला मसाला ही तैयार हो पाता था। सुर्खी मसाला की मजबूती के कारण आज भी मंदिर ज्यों का त्यों खड़ा है। मंदिर के चारों ओर बेलबूटों की चित्रकारी 350 साल बाद भी बरकरार है।
मंदिर के अंदर की बनावट भूलभुलैया जैसी है। मंदिर में तेरह बुर्ज हैं। 52 दरवाजे हैं। लेकिन सिर्फ दो ही दरवाजे खोले जाते हैं। पूरबी दरवाजे पर मंदिर का मुख्य भाग है। इस दरवाजे के खुलते ही देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के दर्शन हो जाते हैं। यही मंदिर का मुख्य भाग है।
मंदिर में राधा-कृष्ण की पांच फुट ऊंची और करीब 86 किलो बजनी अष्टधातु की संयुक्त प्रतिमा थी। यह प्रतिमा 1988 में चोरी चली गई। करोड़ों की कीमत वाली यह प्रतिमा नहीं मिल पाई। इसके बाद मंदिर में पत्थर की प्रतिमा स्थापित की गई। मंदिर में काले रंग के पत्थर से बनी भगवान विष्णु की भी प्रतिमा है जो काफी प्राचीन है।
350 साल से मंदिर की मरम्मत नहीं की गई है। कई बुर्जों में दरारें पड़ने लगी हैं। मंदिर परिसर के आसपास की इमारत खंडहर बन गई हैं। पुष्कर वर्मा ने इसकी मरम्मत के लिए पुरातत्व विभाग का दरवाजा खटखटाया तो सौंदर्यीकरण के लिए 24 लाख मंजूर हो गया। लेकिन मरम्मत वाली फाइल अभी भी धूल चाट रही है। पुष्कर वर्मा का कहना है बिना मरम्मत के मंदिर का सौंदर्यीकरण कराना बेमतलब है। उन्हें पुरातत्व विभाग से मरम्मत के धन के लिए फाइल की मंजूरी का इंतजार है। ( साभार-जनसत्ता )

Monday, May 7, 2012

महाकवि सूरदास की ऐतिहासिक की साधना स्थली परासौली

   मथुरा से बीस किलोमीटर दूर महाकवि सूरदास की साधना स्थली परासौली को स्थानीय कृष्ण भक्तों ने खंडहरों में तब्दील होने से बचा लिया है, लेकिन हिंदी के विद्वानों और शासन की ओर से की जाने वाली उपेक्षा यहां साफ दिखाई देती है। प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर ने सूरदास के जीवन पर आधारित उपन्यास ‘खंजन नयन’ के अनेक पृष्ठों की रचना परासौली की इसी सूर कुटी में की थी, जहां महाकवि सूर ने 73 साल निवास कर एक लाख पदों वाले कालजयी ग्रंथ ‘सूरसागर’ की रचना की थी। ‘खंजन नयन’ उपन्यास ने साहित्य प्रेमियों में जन्मांध सूरदास की जिंदगी को जानने की प्रबल जिज्ञासा तो पैदा की लेकिन परासौली का दर्द दूर नहीं हुआ।
जानकारी के मुताबिक सन 1478 में जन्मे सूरदास को श्री बल्लभाचार्य आगरा के पास रुनकता से मथुरा लाए थे और परासौली में श्री कृष्ण के जीवन पर पद गायन की प्रेरणा दी थी। सौ साल तक जीने वाले महाकवि का देहांत 1583 में परासौली की इसी कुटिया में हुआ था। सूरदास की इस साधना स्थली पर उस वक्त का वह पीलू का वृक्ष आज भी मौजूद है। महाकवि की अभूतपूर्व कृष्ण भक्ति और उनकी काव्य प्रतिभा के साक्षी पीलू पर ब्रजभाषा के कई कवियों ने कविताएं भी लिखी हैं। पिछले दो दशकों में आगरा और मथुरा के हिंदी विद्वान समय-समय पर सूर की परासौली को सजाने-सवांरने की मांग करते रहे हैं। आगरा विवि के पूर्व कुलपति मंजूर अहमद ने अपने विवि में 1999 में सूर पीठ की स्थापना की लेकिन साधना स्थली परासौली के संरक्षण पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। विवि की सूरपीठ उबड-खाबड़ पड़ी है ।
गोवर्धन के कवियों और संगीतकारों ने सूर की मधुर स्मृतियों को सहेजकर जीवित रखने का संकल्प ले रखा है। ‘सूरदास ब्रज रास स्थली विकास समिति’ के सचिव हरिबाबू कौशिक ने बताया कि सूर और तुलसी की तुलना अंग्रेजी के महान कवि शेक्सपीयर और मिल्टन जैसे कवियों से की जाती है लेकिन साहित्य प्रेमी और सरकार इन महाकवियों की स्मृतियों को सहेजने के प्रति लापरवाह हैं। परासौली की सूर कुटी में आने वाला आगंतुक महाकवि की कृष्ण भक्ति और उनके जीवन से जुड़े किस्से सुन गदगद और भावुक हो उठता है। कहते हैं कि संवत 1626 में सूर और तुलसी जैसे दो महाकवियों का मिलन परासौली की इसी ऐतिहासिक धरती पर हुआ था। परासौली की उस पगडंडी को रमणिक बनाया जा सकता है, जिस पर चल कर सूरदास गोवर्धन पर्वत पर स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर में पद गायन के लिए जाते थे।
Prayer hall shantinikata
पाठ्य पुस्तकों में अष्टछाप के कवियों को साहित्य के छात्र पढ़ते हैं। इनकी स्मृतियां परासौली में कहां-कहां बिखरी पड़ी हैं, इसकी चिंता किसी को नहीं। सूरदास के पदों को देश-विदेश में गाने वाले आकाशवाणी मथुरा के कलाकार हरी बाबू ने बताया कि उनकी संस्था परासौली की जमीन पर किए जा रहे कब्जे के खिलाफ आवाज बुलंद कर रही है। सरकार चाहे तो परासौली को आकर्षक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर सकती है, क्योंकि यहां चंद्रसरोवर नाम का आठ भुजा वाला सरोवर भी है। (साभार-जनसत्ता)
शांति निकेतन- धरोहर की सूची में शामिल कराने की कवायद
 गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की ओर से स्थापित शांति निकेतन को यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में शामिल कराने की कवायद एक बार फिर शुरू की गई है। जुलाई में पेरिस में होने वाली यूनेस्को की बैठक में इसके लिए नामांकन पेश करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ ठाकुर से जुड़ा विश्व प्रसिद्ध संस्थान पिछले साल भी विश्व धरोहर घोषित किए जाने की दौड़ में था। लेकिन अंतिम सूची में स्थान नहीं बना पाया था। विश्व भारती विश्वविद्यालय एक बार फिर इसे विश्व धरोहर की सूची के संभावितों में शामिल करवाने के प्रयास में लगा हुआ है। यूनेस्को नियमों के मुताबिक किसी भी विश्व धरोहर स्थल को एकीकृत कमान के अधीन होना चाहिए। शांति निकेतन के बारे में कहा गया है कि वह इस मापदंड को पूरा नहीं करता है।
संस्कृति मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि भारत और बांग्लादेश इस साल संयुक्त रूप से रवींद्रनाथ ठाकुर की 150वीं जयंती मना रहे हैं। ऐसे समय में अगर ठाकुर से जुड़े इस स्थल को विश्व धरोहर धोषित किया जाता है तो समारोह का महत्त्व और बढ़ जाएगा। पिछले साल की विफलता के बाद संस्कृति मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल सरकार से समन्वय स्थापित कर इस प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की प्रणाली को और दुरुस्त बनाने का प्रयास कर रहा है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के एक अधिकारी ने कहा कि यह उसके अधीन आने वाला स्थल नहीं हैं। हालांकि एएसआई ऐसे स्थलों के लिए शीर्ष एजंसी है। अधिकारी ने कहा कि पुन: मनोनीत करने का प्रस्ताव मिलने पर एएसआई की सलाहकार समिति इसके विभिन्न पहलुओं पर विचार कर मामले को आगे बढ़ाएगा। विश्वविद्यालय की वर्तमान प्रणाली के संबंध में अभी भी कई मुद्दे सुलझाए जाने हैं। अधिकारियों ने उम्मीद जताई कि संशोधन रिपोर्ट समय पर तैयार हो जाएगी। उन्होंने कहा कि इस संबंध में काम को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है। इस विषय पर फिर से आवेदन करने का काम पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है ताकि अगर सब कुछ ठीक रहा तो जुलाई 2012 में पेरिस में यूनेस्को की बैठक में शांति निकेतन को विश्व धरोहर घोषित किया जा सके।
उल्लेखनीय है कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने 1901 में शांति निकेतन की स्थापना की थी। यह कोलकाता से 158 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 20 जनवरी 2010 को यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में शामिल करने के लिए शांति निकेतन का मनोनयन किया था। लेकिन यह विश्व धरोहर नहीं बन पाया। शिक्षा के विशिष्ट माडल, अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और स्थापत्य का नमूना होने के साथ कला और साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए इसे विश्व धरोहर घोषित करने की अपील की गई थी।

नामांकन में कहा गया था कि शांति निकेतन का मानवता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। संस्थान ने 20वीं शताब्दी में धार्मिक और क्षेत्रीय बाधाओं को दूर करते हुए लोगों को जोड़ने का काम किया है। इसको ध्यान में रखते हुए इसे विश्व धरोहर घोषित किया जाना चाहिए। ( भाषा)

Thursday, April 5, 2012

ऐतिहासिक अक्षयवट वृक्ष​​


खबरों में इतिहास
  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए यह ब्लाग  इतिहास की नई खोजों व पुरातत्व, मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित खबरों को संकलित करके पेश करता है। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१- ऐतिहासिक अक्षयवट वृक्ष​​
२- ९०० साल पुराना चीनी मिट्टी का कटोरा
३- नेपाल में कुसुंडा भाषा की एकमात्र वारिस..
४- डायनासोर के लिए सबसे बड़ा खतरा थी जंगल की आग
५- जल में रहते थे डायनोसोर!
६- यूरोप में डायनासोर की सबसे बड़ी खोपड़ी बरामद

ऐतिहासिक अक्षयवट वृक्ष​​
​hindi.webdunia.com/1100629062_1.htm
इलाहाबाद स्थित अकबर के किले में एक ऐसा वट है जो कभी यमुना न‍दी के किनारे हुआ करता था और जिस पर चढ़कर लोग मोक्ष की कामना से नदी में छलांग लगा देते थे। इस अंधविश्वास ने अनगिनत लोगों की जान ली है। शायद यही कारण है कि अतीत में इसे नष्ट किए जाने के अनेक प्रयास हुए हालाँ‍कि यह आज भी हरा-भरा है। यह ऐतिहासिक वृक्ष किले के जिस हिस्से में आज भी स्थित है वहाँ आमजन नहीं जा सकते पर इसे अक्षयवट कहते हैं। यूँ तो अक्षयवट का जिक्र पुराणों में भी हुआ है पर वह वृक्ष अकबर के किले में स्थित यही वृक्ष है कि नहीं, यह कहना आसान नहीं।

इस वृक्ष को सातवीं शताब्दी में व्हेनत्सांग की यात्रा के संस्मरण को आधार बनाकर इतिहासकार वाटर्स ने 'आदमखोर वृक्ष' की संज्ञा दी है। संभवत: इस वृक्ष से कूदकर आत्महत्या करने की प्रवृत्ति के मद्देनजर उसे यह नाम दिया गया होगा। सन 1030 में अलबरूनी ने इसे प्रयाग का पेड़ बताते हुए लिखा कि इस अजीबोगरीब पेड़ की कुछ शाखाएँ ऊपर की तरफ और कुछ नीचे की तरफ जा रही हैं। इनमें पत्तियाँ नहीं हैं। इस पर चढ़कर लोग नदी में छलाँग लगाकर जान दे देते हैं। 11वीं शताब्दी में समकालीन इतिहासकार मेहमूद गरदीजी ने लिखा है कि एक बड़ा सा वट वृक्ष गंगा-यमुना तट पर स्थित है, जिस पर चढ़कर लोग आत्महत्या करते हैं।

13वीं शताब्दी में जामी-उत-तवारीख के लेखक फजलैउल्लाह रशीउद्दीन अब्दुल खैर भी इस पेड़ पर चढ़कर आत्महत्याएँ किए जाने का जिक्र करते हैं। अकबर के समकालीन इतिहासकार बदायूनी ने भी लिखा है कि मोक्ष की आस में तमाम काफिर इस पर चढ़कर नदी में कूदकर अपनी जान देते हैं। जिस समय अकबर यहाँ पर किला बनवा रहा था तब उसकी परिधि में कई मंदिर आ गए थे। अकबर ने उन मंदिरों की मूर्तियों को एक जगह इकट्‍ठा करवा दिया। बाद में जब इस स्थान को लोगों के लिए खोला गया तो उसे पातालपुरी नाम दिया गया। जिस जगह पर अक्षयवट था वहाँ पर रानीमहल बन गया। हिंदुओं की आस्था का ख्याल रखते हुए प्राचीन वृक्ष का तना पातालपुरी में स्थापित कर दिया गया।

आज सामान्य जन उसी अक्षयवट के दर्शन करते हैं जबकि असली अक्षयवट आज भी किले के भीतर मौजूद है। अक्षयवट को जलाकर पूरी तरह से नष्ट करने के ‍प्रयास जहाँगीर के समय में भी हुए लेकिन हर बार राख से अक्षयवट की शाखाएँ फूट पड़ीं, जिसने वृक्ष का रूप धारण कर लिया। वर्ष 1611 में विलियम फ्रिंच ने लिखा कि महल के भीतर एक पेड़ है जिसे भारतीय जीवन वृक्ष कहते हैं। मान्यता है कि यह वृक्ष कभी नष्ट नहीं होता। पठान राजाओं और उनके पूर्वजों ने भी इसे नष्ट करने की असफल कोशिशें की हैं। जहाँगीर ने भी ऐसा किया है लेकिन पेड़ पुनर्जीवित हो गया और नई शाखाएँ निकल आईं। व्हेनत्सांग जब प्रयाग आया था तो उसने लिखा - नगर में एक देव मंदिर है जो अपनी सजावट और विलक्षण चमत्कारों के लिए विख्‍यात है। इसके विषय में प्रसिद्ध है कि जो कोई यहाँ एक पैसा चढ़ाता है वह मानो और तीर्थ स्थानों में सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ चढ़ाने जैसा है और यदि यहाँ आत्मघात द्वारा कोई अपने प्राण विसर्जन कर दे तो वह सदैव के लिए स्वर्ग में चला जाता है।

मंदिर के आँगन में एक विशाल वृक्ष है जिसकी शाखाएँ और पत्तियाँ बड़े क्षेत्र तक फैली हुई हैं। इसकी सघन छाया में दाईं और बाईं ओर स्वर्ग की लालसा में इस वृक्ष से गिरकर अपने प्राण दे चुके लोगों की अस्थियों के ढेर लगे हैं। यहाँ एक ब्राह्मण वृक्ष पर चढ़कर स्वयं आत्मघात करने को तत्पर हो रहा है। वह बड़े ओजस्वी शब्दों में लोगों को प्राण देने के लिए उत्तेजित कर रहा है परंतु जब वह गिरता है तो उसके साधक मित्र नीचे उसको बचा लेते हैं। वह कहता है, 'देखो, देवता मुझे स्वर्ग से बुला रहे हैं परंतु ये लोग बाधक बन गए।' वर्ष 1693 में खुलासत उत्वारीख ग्रंथ में भी इसका उल्लेख है कि जहाँगीर के आदेश पर इस अक्षयवट को काट दिया गया था लेकिन वह फिर उग आया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी अक्षयवट को नष्ट करने संबंधी ऐतिहासिक तथ्यों में सत्यता पाते हैं और उसे सही भी ठहराते हैं। वह मानते हैं कि इस तरह के अंधविश्वास लोगों में नकारात्मक विचार भरते हैं, उन्हें जीवन से विमुख करते हैं। यह वृक्ष अपनी गहरी जड़ों के कारण बार-बार पल्लवित होकर हमें भी जीवन के प्रति ऐसा ही जीवट रवैया अपनाने की प्रेरणा देता है न कि अनजानी उम्मीदों में आत्महत्या करने की।९

९०० साल पुराना चीनी मिट्टी का कटोरा
http://www.bbc.co.uk/hindi/china/2012/04/120405_china_bowl_auction_vd.shtml
चीन में सौंग वंश का एक पुराना कटोरा 267 लाख डॉलर (करीब 139 करोड़ रुपए) में नीलाम हुआ है. लगभग 900 साल पुराना ये सिरेमिक यानी चीनी मिट्टी का कटोरा सौंग वंश का था और इसे हॉंगकॉंग में सूदबीज ने नीलाम किया.फूल के आकार में ढला ये कटोरा बेहद दुर्लभ है. इसे जापान के खरीददार ने लिया जिसने अपनी पहचान नहीं बताई और फोन पर बोली लगाई. सूदबीज एशिया के उप चेयरमैन निकोलस चाउ ने कहा, "शायद ये चीज़ सौंग वंश की सबसे महान कलाकृति है जिसे हमने हॉंगकॉंग में नीलाम किया है." ऐसा अनुमान है कि दुनिया में अब केवल 79 पूरी तरह से सुरक्षित सिरेमिक की कलाकृतियाँ मौजूद है जिसमें सिर्फ पांच निजी हाथों में हैं. नीलामी के अधिकारियों को इस कलाकृति से मिली राशि पर हैरानी हुई है. बिक्री से पहले इसकी जितनी कीमत लगाई गई थी, ये उससे तीन गुणा कीमत में बिकी. न्यूयॉर्क और लंदन के बाद हॉंग कॉंग एक मशहूर नीलामी केंद्र के रूप में उभरा है. संवाददाताओं का कहना है कि इसकी कीमत ये बताती कि एशिया का कला बाजार कितना मजबूत है और इसमें पिछले दस सालों में बड़ा विकास देखा गया है.

नेपाल में कुसुंडा भाषा की एकमात्र वारिस..
http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2012/04/120403_kusunda_sb.shtml
फर्ज़ कीजिए कि एक सुबह आप उठें,अपने आस पास के लोगों से बातचीत करना चाहें लेकिन कोई आपकी भाषा समझ ही ना पाए. उलझन की बात है ना फिर सोचिए उस शख़्स का क्या हाल होगा जिसकी बोली बोलने और समझने वाला पूरे देश में ही कोई ना हो.
ये कोरी कल्पना नहीं नेपाल की 75 वर्षीय ग्यानी मेइया सेन के जीवन का सच है.ग्यानी कुसुंडा भाषा बोलती हैं जिसे बोलने वाली वो नेपाल की अकेली जीवित नागरिक हैं और इसी वजह से भाषा वैज्ञानिकों के आकर्षण का केन्द्र भी. कुछ समय पहले तक पुनी ठाकुरी और उनकी बेटी कमला खेत्री नेपाल में कुसुंडा भाषा बोलने वाला दूसरा परिवार था लेकिन पुनी ठाकुरी की मौत औऱ कमला के देश छोड़ने के बाद नेपाल में फिलहाल कुसुंडा भाषा परिवार का अस्तित्व टिका है सिर्फ ग्यानी पर.
नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में भाषा-विज्ञान के प्रोफेसर माधव प्रसाद पोखरेल इस मृतप्राय भाषा को बचाने की मुहिम में लगे हैं.पोखरेल ने बीबीसी को बताया "दुनिया भर में बोली जाने वाले 20 भाषा परिवारों में सबसे अलग है. कुसुंडा भाषा की किसी भी अन्य भाषा परिवार से कोई समानता नही है. ये एक विशेष भाषा परिवार की नुमाइंदगी करती है."
भाषाविदों की अपील है कि इस विशिष्ट भाषा को बचाया जाए वरना ये बहुत जल्द नष्ट हो जाएगी. इसके लिए सरकार से भी गुज़ारिश की गई है.उधर सरकारी अधिकारियों की दलील है कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी ही नहीं है कि ये भाषा बोलने वाले कितने लोग जीवित हैं. नेपाल के केन्द्रीय सांख्यिकीय ब्यूरो में निदेशक रूद्र सुवल कहते हैं " 2001 की जनगणना के मुताबिक़ कुसुंडा बोलने वाले 164 लोग जीवित हैं जबकि 2011 की जनगणना के अंतिम आंकडो़ का अभी इंतज़ार है."

डायनासोर के लिए सबसे बड़ा खतरा थी जंगल की आग
http://www.samaylive.com/science-news-in-hindi/146074/dinosaurs-forest-fires-scientists-greenhouse.html
वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि करोड़ों साल पहले धरती पर मौजूद रहे डायनासोर के लिए जंगल में लगने वाली आग भी एक बड़ा खतरा था.
जीवाश्म रिकॉर्ड में चारकोल यानी लकड़ी के कोयले की मात्रा का विश्लेषण करने वाले वैज्ञानिकों ने पाया कि 14.5 और 6.5 करोड़ साल की अवधि के बीच के ‘क्रिटेसियस पीरियड’ के दौरान जंगलों में इतनी आग लगती थी जितना इंसानों ने सोचा भी नहीं था. शोधकर्ताओं ने उक्त अवधि के दौरान के चारकोल का एक वैश्विक डेटाबेस तैयार कर लिया. ‘लाइव साइंस’ में लंदन की रॉयल हॉलोवे यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और प्रमुख शोधकर्ता एंड्रयू स्कॉट के हवाले से कहा गया ‘‘चारकोल उन पेड़ों के अवशेष हैं जो जल चुके थे और इन्हें जीवाश्म रिकॉर्ड में आसानी से सहेज लिया गया.’’
वैज्ञानिकों ने कहा कि जंगल में लगने वाली आग की कई वजहें हो सकती हैं. वायुमंडल में ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण उस वक्त तापमान भी बहुत अधिक होता था. ऑक्सीजन की अत्यधिक मात्रा से प्राचीन वायुमंडल भी भरा होता था और इससे आग को भड़कने में मदद मिलती है. कुसुंडा भाषा परिवार और इसे बोलने वालों की सरकारी सहायता के लिए लगातार मांग उठ रही है लेकिन नेपाल में फ़िलहाल इस दिशा में कोई प्रगति होती दिखाई नहीं दे रही है.

जल में रहते थे डायनोसोर!
 वैज्ञानिकों का लंबे समय से यह दावा रहा है कि सभी डायनोसोर जमीन पर रहते थे। कुछ विशालकाय पक्षी भले ही जल में गोते लगाते थे लेकिन वे महासागर , झील या नदियों में नहीं रहते थे। अब, इन सबसे उलट एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने एक भिन्न सिद्धांत का दावा किया है । उनका कहना है कि डायनोसोर इतने बड़े और भारी थे कि सूखी भूमि पर उनका रह पाना मुश्किल था और वे अवश्य ही जल में रहते होंगे। प्रोफेसर ब्रायन जे फोर्ड के मुताबिक, दशकों तक जैसे वैज्ञानिक समझते रहे वैसे ये प्रागैतिहासिक जीव रहते ही नहीं थे। उनका मानना है कि इन जीवों की पूंछ इतनी विशाल और भारी भरकम थी कि इस कारण उनका शिकार कर पाना या चपलता से चल पाना भी मुश्किल था। फोर्ड ने कहा कि डायनोसोर अवश्य ही जल में रहते होंगे जहां का वातावरण उनकी विशालता का सफलतापूर्वक साथ देता होगा। (एजेंसी)​
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यूरोप में डायनासोर की सबसे बड़ी खोपड़ी बरामद
http://khabar.ibnlive.in.com/news/70087/9
 स्पेन के जीवाश्मिकी फाउंडेशन ने यूरोप में मिली डायनासोर की अब तक की सबसे बड़ी जीवाश्म खोपड़ी पेश की है। समाचार एजेंसी ईएफई के अनुसार, यह खोपड़ी 14 करोड़ 50 लाख वर्षो पहले पृथ्वी पर पाए जाने वाले टूरिएसॉरस रिओडेवेंसिस प्रजाति के सॉरोपोड डायनासोर की है, जो 30 मीटर से भी अधिक लम्बा और 40 टन वजनी हुआ करता था।
तेरुएल डायनोपोलिस फाउंडेशन की जीवाश्मिकी प्रयोगशाला में बीते बुधवार को डायनासोर की जो खोपड़ी दिखाई गई, उसमें 35 से अधिक हड्डियां और सात दांत हैं। ये अवशेष रिओदेवा नगरपालिका में बेरीहोंडा-एल हुमेरो से वर्ष 2005 के खुदाई अभियान के दौरान मिले थे।
शोधकर्ताओं के अनुसार इस प्रजाति के डायनासोर की खोपड़ी बहुत नाजुक होती थी। यही वजह है कि ये कम मिलती है। अब तक मिले इस प्रजाति के डायनासोरों के अवशेषों में से प्रत्येक पांच में चार की खोपड़ी नहीं है। एक विज्ञान पत्रिका 'सिस्टेमैटिक पालेओंटोलॉजी' की रपट के मुताबिक, करीब 30-35 मीटर लंबे टूरिएसॉरस रिओडेवेंसिस प्रजाति के डायनासोर आईबेरियन द्वीप में पाए जाते थे। विशालकाय सॉरोपोड के अवशेष अब तक दक्षिण अमेरिका में अर्जेटीनोसॉरूस, उत्तरी अमेरिका में सेइसमोसॉरूस, अफ्रीका में गिराफाटिटन और पारालिटिटन, एशिया में मामेंचिसॉरूस और यूरोप में टूरिएसॉरस से बरामद किए गए हैं।

Tuesday, April 3, 2012

मणिपुर के गुम आदिवासियों की 3000 साल बाद घर जाने की बेचैनी


खबरों में इतिहास
  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए यह ब्लाग  इतिहास की नई खोजों व पुरातत्व, मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित खबरों को संकलित करके पेश करता है। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१-गुम आदिवासियों की 3000 साल बाद घर जाने की बेचैनी
२-प्राचीन ग्रह प्रणाली की खोज
३- दम तोड़ रही है 19 वीं सदी में शुरू हुई कालीघाट पेंटिंग


गुम आदिवासियों की 3000 साल बाद घर जाने की बेचैनी
भारत में कुछ लोग प्रार्थना कर रहे हैं। उनकी तमन्ना है कि 3000 साल बाद वह किसी तरह अपने घर लौट जाएं। गुम आदिवासी कहे जाने वाले ये लोग मणिपुर पहुंच गए हैं, लेकिन वे हैं कहां के और हजारों साल अपने घर से दूर कैसे रहे। भारत हमारा देश नहीं है,' 72 साल के हानियल रुएबन जब यह कहते हैं तो उनकी आंखों से बेबसी और पराएपन का भाव छलक जाता है। वह छोटी सी कम्युनिटी के सबसे बुजुर्ग सदस्य हैं, जो मणिपुर के एक सिनेगॉग (यहूदी मंदिर) में अपने लोगों के साथ प्रार्थना करने पहुंचे हैं। ये जाति है यहूदियों की कुकी चिन मीजो और समझा जाता है कि इन लोगों को 720 ईसा पूर्व में इसराइल से भागना पड़ा। उस वक्त इसराइल पर मेसोपोटामिया सभ्यता के असीरियाई लोगों ने कब्जा कर लिया था। बाइबिल में जिन कुछेक गुम जातियों का जिक्र है, उनमें ये लोग भी शामिल होने का दावा करते हैं। रुएबन का कहना है, 'हमारे पूर्वज यहां आकर बस गए। लेकिन हमारा असली घर इसराइल है। हम एक दिन जरूर अपने घर, अपने लोगों को साथ जाकर रहने में सफल होंगे।'

दर दर भटके : इल समुदाय को बनाई मेनाशा कहते हैं, जो कुकी चिन मीजो नाम के आदिवासियों में गिने जाते हैं। इनकी संख्या करीब 7200 है। ये लोग म्यांमार की सीमा के पास मिजोरम और मणिपुर में रहते हैं। उनका इतिहास लिखित नहीं, मौखिक है। वे लोग बताते हैं कि किस तरह फारस, अफगानिस्तान, चीन और तिब्बत से उनके तार जुड़े। ये यहूदी धर्म की रिवायतों का पालन करते हैं। भारत आने के बाद मिशनरियों की वजह से ये लोग ईसाई बन गए। लेकिन बाइबिल पढ़ते हुए ही इन्हें अपने बारे में जानकारी मिलती रही और इनका दावा है कि वे जो आस्था रखते हैं, वह तो यहूदियों का है। रुएबन का कहना है, 'हम गुम आदिवासियों में हैं।' उनके दोमंजिला लकड़ी के मकान में एक यहूदी कैलेंडर टंगा है और मुख्यद्वार के पास पवित्र पुस्तक तोरा की कुछ पंक्तियां लगी हैं। मणिपुर की राजधानी इम्फाल में जब वह दिन में तीन बार प्रार्थना करते हैं, तो उनका चेहरा पश्चिम की तरफ होता है, जिधर यहूदियों का पवित्र शहर येरुशलम है।

कितना सच्चा दावा : हालांकि कुकी चिन मीजो के लोग उनके दावों को खारिज करते हैं। इस बारे में 1980 में पहली बार पता चला। उसके बाद से यहूदी संगठन इनके संपर्क में आने लगे। 1990 के दशक में कुछ लोगों को इसराइल ले जाया गया, उनका धर्मांतरण करके उन्हें यहूदी बनाया गया। कुछ लोग वहीं बस गए। लेकिन 2005 में बड़ी बात हुई, जब इसराइल के मुख्य रब्बी ने इस पूरे समुदाय को इसराइलियों का हिस्सा बताया और कहा कि उन्हें घर लौटने का अधिकार है। लेकिन 2007 में इसराइल में बनी सरकार ने इस प्रक्रिया पर रोक लगा दी। बाद में 2011 में मंत्रीस्तरीय समिति ने इसके लिए हरी झंडी दे दी और बनाई मेनाशा के 7200 लोगों को इसराइल ले जाने की तैयारी हो रही है। यहूदियों के संगठन शवाई इसराइल का भारत में प्रतिनिधित्व करने वाले योशानन फालतुआल का कहना है, 'यह एक विशाल प्रोजेक्ट है। यह बहुत जटिल काम है क्योंकि इसमें कई सरकारों का योगदान चाहिए।' शवाई इसराइल के प्रमुख माइकल फ्रोएंड ने भी इस अभियान को लेकर काफी काम किया है। उनका कहना है कि भले ही यह मुश्किल काम हो, लेकिन हो जाएगा। फ्रोएंड का कहना है, 'यह एक सरकारी काम है और किसी भी सरकारी काम की तरह इसमें वक्त लगेगा। हमें उम्मीद है कि जल्द ही अच्छी खबर सुनने को मिलेगी और बनाई मेनाशा के लोग अपने घर लौट सकेंगे।'

मणिपुर में मुश्किलें : इस समुदाय को कई मुश्किलों का भी सामना करना पड़ता है। ताल्या बेम 45 साल की विधवा हैं और उनके तीन बच्चे हैं। बेम का कहना है, 'मैं यहूदी हूं। भारत में पैदा हुई हूं लेकिन मेरा दिल इसराइल के साथ है। हम यहां तोरा के बताए तरीकों पर नहीं जी पाते। मैं वहां जल्द से जल्द जाना चाहती हूं।' बनाई मेनाशा समुदाय के लोग मणिपुर के रेस्तरां में खाने नहीं जाते। वे सड़क किनारे खोमचे लगाने वालों से सामान नहीं खरीदते। उनका कहना है कि यहां बिकने वाला गोश्त कोशर नहीं होता। यहूदी जिस तरह से खाने के लिए जानवरों को मारते हैं, उसे कोशर कहते हैं। उन्हें डर लगा रहता है कि कहीं खाने में पोर्क न मिल जाए। मणिपुर में बहुत गरीबी है, जबकि इसराइल एक संपन्न देश है। अगर इन लोगों को वहां जाने की इजाजत मिल गई, तो जाहिर है कि इनका रहन सहन भी बदल जाएगा। हालांकि इन लोगों का कहना है कि वे धार्मिक आस्था की वजह से इस्राएल जाना चाहते हैं, पैसों या जीवनस्तर के लिए नहीं। 3000 साल तक इंतजार करने के बाद अब ये देख रहे हैं कि यह इंतजार और कितना लंबा होता है। (साभार- एएफपी)

प्राचीन ग्रह प्रणाली की खोज
 यूरोप के खगोलशास्त्रियों ने एक प्राचीन ग्रह प्रणाली को खोज निकाला है। उनका दावा है कि यह 13 अरब वर्ष पहले सबसे पुराने ब्रह्मांड का उत्तरजीवी है। जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर एस्ट्रोनॉमी की नेतृत्व वाले एक दल का कहना है कि ग्रह प्रणाली में ‘एचआईपी 11952’ नामक तारा तथा दो ग्रह हैं । दोनों ग्रहों क्रमश: 290 और सात दिन में कक्षा की परिक्रमा पूरी करते हैं।
खगोलशास्त्रियों का कहना है कि इससे शुरूआती ब्रह्मांड में ग्रहों के निर्माण के बारे में जानकारी हासिल होगी। इस ग्रह प्रणाली का तारा ‘एचआईपी 11952’ पृथ्वी से 375 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है। (एजेंसी)

  दम तोड़ रही है 19 वीं सदी में शुरू हुई कालीघाट पेंटिंग
कोलकाता के प्रख्यात काली मंदिर के आसपास कभी कालीघाट पेंटिंग की धूम रहती थी जो कालांतर में नदारद होती चली गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय इस शहरी लोक कला को दशकों बाद एक किताब के माध्यम से फिर से खोजने की कोशिश की गई है।
लंदन के विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम (वीएंडए) और कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल हाल के दुर्लभ संग्रह की कई कृतियों के बारे में लोगों को जानकारी नहीं है। अब मैपिन प्रकाशन की ‘कालीघाट पेंटिंग्स’ में कला प्रेमियों को इस दुर्लभ खजाने की जानकारी मिल सकेगी।
बांग्ला में ‘पट’ कहलाने वाली कालीघाट पेंटिंग 19 वीं सदी में शुरू हुई और शहरी लोक कला के तौर पर लोकप्रिय हो गई। इस परंपरागत चित्रकारी से जुड़े कलाकार पटुआ कहलाते थे और कालीघाट मंदिर के समीप उनकी छोटी-छोटी गुमटियां लगती थीं।
विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम के निर्देशक मार्टिन रोथ ने बताया, ‘19 वीं सदी में कोलकाता के सामाजिक परिवेश में पटुआ फैले हुए थे। धीरे-धीरे उनकी ख्याति फैलती गई और बीसवीं सदी के भारतीय और यूरोपीय कलाकार उनकी कला से प्रेरित होने लगे।’
गौरतलब है कि विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम में कालीघाट पेंटिंग का दुनिया का सबसे बड़ा संग्रह है। बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में कालीघाट पेंटिंग की परंपरा फीकी पड़ने लगी। नए दौर का असर कालीघाट पेंटिंग पर भी पड़ा और परंपरागत तकनीक तथा आइकॉनोग्राफी की जगह जलरंग (वाटर कलर) तथा पश्चिमी प्रभाव ने ले ली।
नई किताब ‘कालीघाट पेंटिंग’ में इस लुप्तप्राय: कला को कोलकाता के सामाजिक सांस्कृतिक और ग्रामीण बंगाल के प्ररिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की गई है। किताब में 1873 के बहुचर्चित तारकेश्वर मामले का भी जिक्र है। इसमें कहा गया है कि कई कालीघाट पेंटिंग्स में इस मामले को दर्शाने की कोशिश की गई। तत्कालीन बांग्ला सरकार के एक कर्मचारी को जब पता चला कि उसकी पत्नी इलोकेशी का तारकेश्वर मंदिर के पुजारी के साथ संबंध है तो उसने अपनी पत्नी का सिर काट डाला और पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। ब्रिटिश अदालत ने उसे और पुजारी दोनों को दोषी ठहराया था।
किताब के एक अध्याय में बताया गया है कि कालीघाट पेंटिंग्स में उस दौर के सामाजिक धार्मिक ढांचे में व्याप्त भ्रष्टाचार और कुरीतियों को भी दिखाया गया। इसके अलावा भगवान कृष्ण की लीलाएं, रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों की कहानियों पर सामाजिक विसंगतियों पर तथा सम-सामयिक विषयों पर भी कालीघाट पेंटिंग के जरिए अभिव्यक्ति दी गई।
1870 के दशक में कालीघाट के ‘पटुआ’ को मजाक में कोलकाता के ‘बाबू’ कहा जाने लगा। फिर कोलकाता में नई शहरी संस्कृति के उदय के साथ ही एक ‘बाबू संस्कृति’ भी चलन में आई। रहन-सहन और चाल ढाल में आया यह बदलाव बहुत कुछ बदलता गया। किताब के अंतिम अध्याय में 21 वीं सदी की कला और मेदिनीपुर तथा बीरभूम जिलों के समकालीन कलाकारों की कला का भी जिक्र है। ( भाषा)

Tuesday, March 27, 2012

राम सेतु बने राष्ट्रीय स्मारक, केन्द्र सरकार जवाब दे -उच्चतम न्यायालय

    उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार से कहा कि वह इस बारे में दृष्टिकोण स्पष्ट करे कि क्या राम सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जा सकता है।उच्चतम न्यायालय ने केंद्र से सेतुसमुद्रम परियोजना पर आरके पचौरी की रिपोर्ट छह सप्ताह के अंदर उसके समक्ष रखने को कहा। मालूम हो प्रधानमंत्री ने जुलाई 2008 में पचौरी की अध्यक्षता में छह सदस्यीय समिति का गठन किया था। इस समिति का गठन 2240 करोड़ रुपये के विवादास्पद सेतु समुद्रम शिपिंग चैनल प्रोजेक्ट (एसएससीपी) के समाधान के लिए किया गया था। एसएससीपी में उथले सागर और 'राम सेतु' और एडम्स ब्रिज के नाम से पहचाने जाने वाले द्वीपों की श्रृंखला के जरिए एक नौवहन मार्ग बनाकर भारत और श्रीलंका के बीच पाल्क खाड़ी और मन्नार की खाड़ी को जोड़ने का प्रस्ताव है.

प्रोजेक्ट को 2005 में हरी झंडी दिखाई गई लेकिन बाद में राम सेतु के नष्ट होने के फैसले को लेकर इसका विरोध शुरू हो गया. माना जाता है कि इस सेतु को भगवान श्रीराम ने लंका पहुंचने के लिए बनाया था। कई याचिकाओं में पर्यावरणीय दृष्टिकोण से इसका विरोध किया गया. इनमें से अधिकतर याचिकाओं को मद्रास उच्च न्यायालय से शीर्ष अदालत को भेजा गया था। इक्कीस अप्रैल 2010 में उच्चतम न्यायालय ने एसएससीपी पर अस्थायी रोक लगा दी। अदालत ने कहा कि इसे राम सेतु की बजाय धनुष्कोडी से वैकल्पिक मार्ग की संभावना पर पर्यावरणीय लिहाज से 'पूरे और विस्तृत' विश्लेषण का इंतजार करना होगा।

(सेतु समुद्रम पर विस्तार से जानने के लिए नीचे के लिंक या सामग्री का अवलोकन करिए। यह लेख मेरे ही अन्य ब्लाग कालचिंतन में काफी पहले प्रकाशित हुआ था।)
सेतुसमुद्रम बनाम इतिहास राम के सेतु का
http://chintan.mywebdunia.com/2007/12/06/1196945280000.html?&w_d_=F5EBD1322E16B809E5D96B5EFB5C147A.node1

भारत के दक्षिणपूर्व में रामेश्वरम और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच चूने की उथली चट्टानों की चेन है , इसे भारत में रामसेतु व दुनिया में एडम्स ब्रिज ( आदम का पुल ) के नाम से जाना जाता है। इस पुल की लंबाई लगभग 30 मील (48 किमी ) है। यह ढांचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक दूसरे से अलग करता है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। अनेक स्थानों पर यह सूखी और कई जगह उथली है जिससे जहाजों का आवागमन संभव नहीं है। इस चट्टानी उथलेपन के कारण यहां नावें चलाने में खासी दिक्कत आती है। कहा जाता है कि 15 शताब्दी तक इस ढांचे पर चलकर रामेश्वरम से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था लेकिन तूफानों ने यहां समुद्र को कुछ गहरा कर दिया। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया।

क्या है सेतुसमुद्रम परियोजना

2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया। इसके तहत एडम्स ब्रिज के कुछ इलाके को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक बनाया जाएगा। इसके लिए कुछ चट्टानों को तोड़ना जरूरी है। इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा। तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा और तमिलनाडु के कोस्टल इलाकों में कम से कम 13 छोटे एयरपोर्ट बन जाएंगे। माना जा रहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें, अनुमान है कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे। मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी ही, संभावना है कि जलपोतों का 22 हजार करोड़ का तेल बचेगा। 19वें वर्ष तक परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2000 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।
नासा की तस्वीर
नासा से मिली तस्वीर का हवाला देकर दावा किया जाता है कि अवशेष मानवनिर्मित पुल के हैं। नासा का कहना है , ' इमेज हमारी है लेकिन यह विश्लेषण हमने नहीं दिया। रिमोट इमेज से नहीं कहा जा सकता कि यह मानवनिर्मित पुल है। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने कहा है कि उसके खगोल वैज्ञानिकों द्वारा ली गई तस्वीरें यह साबित नहीं करतीं कि हिंदू ग्रंथ रामायण में वर्णित भगवान राम द्वारा निर्मित रामसेतु का वास्तविक रूप में कोई अस्तित्व रहा है। यह बयान देने के साथ ही नासा ने भाजपा के उस बयान को भी नकार दिया है जिसमें भाजपा ने कहा था कि नासा के पास पाक स्ट्रेट पर एडम्स ब्रिज की तस्वीरें हैं जिन्हें भारत में रामसेतु के नाम से जाना जाता है और कार्बन डेटिंग के जरिए इसका समय 1.7 अरब साल पुराना बताया गया है। नासा के प्रवक्ता माइकल ब्रॉकस ने कहा कि उन्हें कार्बन डेटिंग किए जाने की कोई जानकारी नहीं है।ब्रॉकस ने कहा कि कुछ लोग कुछ तस्वीरें यह कहकर पेश करते हैं कि यह नासा के वैज्ञानिकों द्वारा ली गई हैं लेकिन ऐसे चित्रों की बदौलत कुछ भी साबित करने का कोई आधार नहीं है। गौरतलब है कि अक्टूबर 2002 में कुछ एनआरआई वेबसाइट्स, भारत मूल की समाचार एजेंसियों और हिंदू न्यूज सर्विस के माध्यम से कुछ खबरें आई थीं जिनमें कहा गया था कि नासा द्वारा लिए गए चित्रों में पाक स्ट्रीट पर एक रहस्यमय प्राचीन पुल पाया गया है और इन खबरों को तब भी नासा ने नकारा था। गौरतलब है कि इस पूरे मामले के कारण रामसेतु जिस जगह बताया गया है, भारत और श्रीलंका के बीच बने जलडमरू मध्य के उसी स्थान पर दक्षिण भारत द्वारा प्रस्तावित 24 अरब रुपए की सेतुसमुद्रम नहर परियोजना विवादास्पद हो गई है।

रामसेतु मिथक है या...

वाल्मीकि रामायण कहता है कि जब श्री राम ने सीता को लंकापति रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद मांगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता मांगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया। डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्री राम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। यही हुआ भी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। इसी पुल को बाद में एडम्स ब्रिज का नाम मिला।

धर्मग्रंथों में जिक्र है सेतुबंधन का

पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरा पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के डांस ड्रामा में सेतु बंधन का जिक्र किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का जिक्र आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्री राम के सेतु का जिक्र किया गया है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में इसे एडम्स ब्रिज के साथ-साथ राम सेतु कहा गया है।

कितना पुराना है रामसेतु

राम सेतु की उम्र को लेकर महाकाव्य रामायण के संदर्भ में कई दावे किए जाते रहे हैं। कई जगह इसकी उम्र 17 लाख साल बताई गई है, तो कुछ एक्सपर्ट्स इसे करीब साढ़े तीन हजार साल पुराना बताते हैं। इस पर भी कोई एकमत नहीं है। इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण सवाल उठता रहा है कि आखिर 30 किलोमीटर तक लंबा यह छोटे-छोटे द्वीपों का समूह बना कैसे?
1) राम सेतु करीब 3500 साल पुराना है - रामासामी कहते हैं कि जमीन और बीचों का निर्माण साढ़े तीन हजार पहले रामनाथपुरम और पंबन के बीच हुआ था। इसकी वजह थी रामेश्वरम और तलाईमन्नार के दक्षिण में किनारों को काटने वाली लहरें। वह आगे कहते हैं कि हालांकि बीचों की कार्बन डेटिंग मुश्किल से ही रामायण काल से मिलती है, लेकिन रामायण से इसके संबंध की पड़ताल होनी ही चाहिए।
2) रामसेतु प्राकृतिक तौर पर नहीं बना - जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व निदेशक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टैक्नोलॉजी के सदस्य डॉ. बद्रीनारायण कहते हैं कि इस तरह की प्राकृतिक बनावट मुश्किल से ही दिखती है। यह तभी हो सकता है, जब इसे किसी ने बनाया हो। कुछ शिलाखंड तो इतने हल्के हैं कि वे पानी पर तैर सकते हैं।
3) ज्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने विस्तृत सर्वे में इसे प्राकृतिक बताया था - देश के इस जाने माने इंस्टीट्यूट ने राम सेतु के आसपास 91 बोरहोल्स बनाकर वहां से सैंपल लिए थे और उनकी पड़ताल की थी। इन्हें सेतु प्रोजेक्ट के दफ्तर में रखा गया था।
4) नासा कहता है कि रामसेतु प्राकृतिक तौर पर बना - अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का कहना है कि भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरूमध्य में मौजूद ढांचा किसी भी हालत में आदमी का बनाया हुआ नहीं है। यह पूरी तरह प्राकृतिक है। सेतुसमुद्रम कॉपरेरेशन लि. के सीईओ एनके रघुपति के मुताबिक उन्हें नासा के जॉन्सन स्पेस सेंटर की ओर से मिले ईमेल में नासा ने अपने पक्ष का खुलासा किया है। नासा की तस्वीरों को लेकर काफी होहल्ला पहले ही मच चुका है।

श्रीरामसेतु के टूटने का मतलब

भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित श्रीरामसेतु अगर भारत में न होकर विश्व में कहीं और होता तो वहां की सरकार इसे ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर संरक्षित करती। भारत में भी यदि इस सेतु के साथ किसी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रमुख महापुरूष का नाम होता तो इसे तोड़ने की कल्पना तो दूर इसे बचाने के लिए संपूर्ण भारत की सेक्युलर बिरादरी जमीन आसमान एक कर देती। यह केवल यहीं संभव है कि यहां की सरकार बहुमत की आस्था ही नहीं पर्यावरण, प्राकृतिक संपदा, लाखों भारतीयों की रोजी-रोटी और राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा कर रामसेतु जैसी प्राचीनतम धरोहर को नष्ट करने की हठधर्मिता कर रही है। हिंदू समाज विकास का विरोधी नहीं परंतु यदि कोई हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी मानसिकता के कारण विकास की जगह विनाश को आमंत्रित करेगा तो उसे हिंदू समाज के आक्रोश का सामना करना ही पड़ेगा। समुद्री यात्रा को छोटा कर 424 समुद्री मील बचाने व इसके कारण समय और पैसे की होने वाली बचत से कोई असहमत नहीं हो सकता लेकिन सेतुसमुन्द्रम योजाना के कम खर्चीले और अधिक व्यावहारिक विकल्पों पर विचार क्यों नहीं किया गया जिनसे न केवल रामसेतु बचता है अपितु प्रस्तावित विकल्प के विनाशकारी नुकसानों से बचा सकता है? इस योजना को पूरा करने की जल्दबाजी और केवल अगली सुनवाई तक रामसेतु को क्षति न पहुंचाने का आश्वासन देने से माननीय सुप्रीम कोर्ट को मना करना क्या भारत सरकार के इरादों के प्रति संदेह निर्माण नहीं करता?
1860 से इस परियोजना पर विचार चल रहा है। विभिन्न संभावनाओं पर विचार करने के लिए कई समितियों का गठन किया जा चुका है। सभी समितियों ने रामसेतु को तोड़ने के विकल्प को देश के लिए घातक बताते हुए कई प्रकार की चेतावनियां भी दी हैं। इसके बावजूद जिस काम को करने से अंग्रेज भी बचते रहे, उसे करने का दुस्साहस वर्तमान केंद्रीय सरकार कर रही है। सभी विकल्पों के लाभ-हानि का विचार किए बिना जिस जल्दबाजी में इस परियोजना का उद्घाटन किया गया, उसे किसी भी दृष्टि में उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। भारत व श्रीलंका के बीच का समुद्र दोनों देशों की एतिहासिक विरासत है परंतु अचानक 23 जून 2005 को अमेरिकी नौसेना ने इस समुद्र को अंतरराष्ट्रीय समुद्र घोषित कर दिया और तुतीकोरण पोर्ट ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष रघुपति ने 30 जून 2005 को गोलमोल ढंग से अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर दिया। इसके तुरंत बाद 2 जुलाई 2005 को भारत के प्रधानमंत्री व जहाजरानी मंत्री कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और करूणानिधि को साथ ले जाकर आनन-फानन में इस परियोजना का उद्घाटन कर देते हैं। इस घटनाचक्र से ऐसा लगता है मानो भारत सरकार अमेरिकी हितों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय हितों की कुर्बानी दे रही है।
कनाडा के सुनामी विशेषज्ञ प्रो. ताड मूर्ति ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्पष्ट कहा था कि 2004 में आई विनाशकारी सुनामी लहरों से केरल की रक्षा रामसेतु के कारण ही हो पाई। अगर रामसेतु टूटता है तो अगली सुनामी से केरल को बचाना मुश्किल हो जाएगा। इस परियोजना से हजारों मछुआरे बेरोजगार हो जाएंगे और इन पर आधारित लाखों लोगों के भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रूपये की वार्षिक आय होती है, से हमें वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। इसीलिए कनाडा ने थोरियम पर आधारित रियेक्टर विकसित किया है। यदि विकल्प का सही प्रकार से प्रयोग किया जाए तो हमें यूरेनियम के लिए अमेरिका के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा। इसीलिए भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम आजाद कई बार थोरियम आधारित रियेक्टर बनाने का आग्रह किया है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भण्डार से हाथ धोना पड़ेगा।
इतना सब खोने के बावजूद रामसेतु को तोड़कर बनाए जाने वाली इस नहर की क्या उपयोगिता है, यह भी एक बहुत ही रोचक तथ्य है। 300 फुट चौड़ी व 12 मीटर गहरी इस नहर से भारी मालवाहक जहाज नहीं जा सकेंगे। केवल खाली जहाज या सर्वे के जहाज ही इस नहर का उपयोग कर सकेंगे और वे भी एक पायलट जहाज की सहायता से जिसका प्रतिदिन खर्चा 30 लाख रूपये तक हो सकता है। इतनी अधिक लागत के कारण इस नहर का व्यावसायिक उपयोग नहीं हो सकेगा। इसीलिए 2500 करोड़ रूपये की लागत वाले इस प्रकल्प में निजी क्षेत्र ने कोई रूचि नहीं दिखाई। ऐसा लगता है कि अगर यह नहर बनी तो इससे जहाज नहीं केवल सुनामी की विनाशकारी लहरें ही जाएंगी।
रामसेतु की रक्षा के लिए भारत के अधिकांश साधु संत, कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक, सामाजिक व धार्मिक संगठन, कई पूर्व न्यायाधीश, स्थानीय मछुआरे सभी प्रकार के प्रजातांत्रिक उपाय कर चुके हैं। लेकिन जेहादी एवं नक्सली आतंकियों से बार-बार वार्ता करने वाली सेकुलर सरकार को इन देशभक्त और प्रकृति प्रेमी भारतीयों से बात करने की फुर्सत नहीं है। इसीलिए मजबूर होकर 12 सितम्बर 2007 को पूरे देश में चक्का जाम का आंदोलन करना पड़ा। इससे रामसेतु को तोड़ने पर होने वाले आक्रोश की कल्पना की जा सकती है।
राम सेतु पर राजनीति
केंद्र सरकार ने सेतु मुद्दे पर अपनी गर्दन फंसते देख तुरंत यू-टर्न लेते हुए उच्चतम न्यायालय में दाखिल विवादित हलफनामा वापस ले लिया। अब निकट भविष्य में सरकार संशोधित हलफनामा दायर करेगी। इससे पूर्व केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दाखिल किया था। केंद्र की आ॓र से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा दिए गए शपथपत्र में कहा गया था कि बाल्मीकि रामायण, तुलसीदास कृत रामचरित मानस और अन्य पौराणिक सामग्री ऐसे ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हो सकते जिनसे पुस्तक में वर्णित चरित्रों के अस्तित्व को साबित किया जा सके। केंद्र के अनुसार 17 लाख 50 हजार वर्ष पुराने इस कथित राम सेतु का निर्माण राम ने नहीं किया बल्कि यह रेत और बालू से बना प्राकृतिक ढांचा है जिसने सदियों से लहरों और तलछट के कारण विशेष रूप ले लिया।
केंद्र सरकार द्वारा दायर इस हलफनामे के बाद एकाएक हिन्दू संगठनों में आक्रोश फैल गया। चारों आ॓र केंद्र सरकार द्वारा दायर हलफनामे की निंदा की जाने लगी। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने प्रधानमंत्री और कानून मंत्री से फोन पर बात कर यह शपथपत्र वापस लेने की मांग की थी उन्होंने कहा था कि सरकार के इस कार्य से करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंची है।
केंद्र की सेतु समुद्रम परियोजना को जारी रखने के फैसले के खिलाफ विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) ने भी कम कसते हुए देशभर में प्रदर्शन और चक्काजाम किया। इस दौरान कानपुर में कार्यकर्ताओं के पथराव में तीन पुलिसकर्मी तथा पुलिस के लाठीचार्ज में कुछ कार्यकर्ता घायल हो गए। इंदौर में दो गुटों के बीच संघर्ष की वजह से क्षेत्र में निषेधाज्ञा लगा दी गई, जबकि इंदौर में ही एक अन्य स्थान पर चार लोगों को गिरफ्तार किया गया।
विहिप और संघ परिवार से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं द्वारा राजधानी दिल्ली सहित देश के विभिन्न भागों में आज चक्काजाम करने से कई जगह यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ। कुछ जगहों पर चक्काजाम के दौरान झड़प भी हुई। हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने शहर में सौ से ज्यादा जगहों पर चक्काजाम किया। तीन घंटे चले इस चक्काजाम से लोगों को खासी दिक्कत का सामना करना पड़ा।
राजस्थान में भी चक्काजाम का व्यापक असर रहा। इसके चलते तीन घंटे तक सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा। राज्य में सुबह आठ बजे से शुरू हुए चक्काजाम आंदोलन के कारण सरकारी बस सेवा समेत अन्य वाहन नहीं चले, जिसके कारण मुख्य सड़कें सूनी रहीं। वहीं केरल के कोयम्बटूर जिले में 25 स्थानों पर भाजपा और अन्य हिन्दू संगठनों के करीब 1100 कार्यकर्ताओं को सड़क मार्ग बाधित करने की कोशिश करते हुए हिरासत में लिया गया। मुंबई से प्राप्त समाचार के अनुसार उत्तर पश्चिम मुंबई के एसवी रोड, साकी नाका और टुर्भे नाका समेत 23 व्यस्त सड़कों पर संघ परिवार और उससे जुड़े संगठनों ने जाम लगाया। इससे यात्रियों को अपने गंतव्य तक पहुंचने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।
बिहार में राजधानी पटना सहित विभिन्न जिलों में विहिप तथ संघ परिवार के संगठनों ने चक्काजाम किया। बंद समर्थकों ने प्रदेश के बेतिया-मोतिहारी, मुजफ्फरपुर-पटना सहित कई अन्य राष्ट्रीय राजमार्गों को जाम किया।
अहमदाबाद में विहिप एवं संघ परिवार से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं ने गुजरात के 246 स्थानों पर चक्काजाम किया।
केंद्र सरकार ने सेतु समुद्रम परियोजना पर उठते विवाद व दायर हलफनामे से उपजी स्थिति से निपटने के लिए सबसे पहले तो दायर हलफनामा को वापस लेते हुए अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम ने मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति आर. वी. रवीन्द्रन की खंडपीठ के समक्ष दलील दी कि सरकार का इरादा किसी समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करना नहीं था। श्री सुब्रमण्यम ने कहा कि सरकार ने लोगों की भावनाएं आहत होने के मद्देनजर हलफनामा वापस लेने का निर्णय लिया है और वह नया हलफनामा दायर करेगी।
न्यायालय ने नया हलफनामा दायर करने से पहले इस मुद्दे पर फिर से विचार करने के लिए केंद्र सरकार को तीन महीने का समय दिया और मामले की सुनवाई अगले वर्ष जनवरी के पहले सप्ताह तक के लिए स्थगित कर दी। इससे पहले श्री सुब्रमण्यम ने न्यायालय के समक्ष दलील दी कि सरकार सभी धर्मों का सम्मान करती है और बगैर किसी दुर्भावना के वह पूरे मसले की समीक्षा करेगी। सरकार आवश्यकता पडने पर याचिकाकर्ता सहित सभी संबद्ध पक्षों से लोकतांत्रिक भावना के तहत विचार विमर्श करेगी. क्योंकि यह संवेदनशील मसला है।खंडपीठ ने 31 अगस्त के उस अंतरिम आदेश को बरकरार रखने का भी निर्देश दिया है, जिसमें रामसेतु को किसी भी तरह से क्षतिग्रस्त नहीं करने का सरकार को निर्देश दिया गया था। अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल ने कहा कि यथास्थिति आदेश को सुनवाई की अगली तारीख तक बढाया जाता है तो भी सरकार को कोई एतराज नहीं है।सरकार ने स्थिति नियंत्रित करने के प्रयास के तहत न्यायालय के समक्ष दलील दी कि केंद्र सरकार ने सार्वजनिक भावनाओं को ध्यान में रखकर यह फैसला किया है। सरकार सभी धर्मों, खासकर हिन्दुत्व के प्रति पूरा सम्मान रखती है। उन्होंने कहा कि सरकार सभी संबंधित पक्षों को आश्वस्त करती है कि सभी मुद्दों की फिर से सावधानीपूर्वक और परिस्थितिजन्य स्थितियों के तहत जांच की जाएगी और वैकल्पिक सलाहों को भी ध्यान में रखा जाएगा। श्री सुब्रमण्यम ने कहा कि केंद्र सरकार भी चाहती है कि उसके फैसले धार्मिक और सामाजिक बिखराव लाने की बजाय समाज को एकजुट बनाए। उन्होंने मामले की समीक्षा और उस पर पुनर्विचार के लिए सरकार को तीन महीने का समय दिये जाने का न्यायालय से आग्रह भी किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि केंद्र सरकार का हलफनामा किसी भी तरह से धार्मिक मान्यताओं और स्वतंत्रता को ठेस पहुंचाने के इरादे से नहीं दाखिल किया गया था।
वाजपेयी सरकार ने दी थी मंजूरी
1860 से ही कई बार इस परियोजना पर विचार हुआ। आजादी के बाद 1955 में डा. ए. रामास्वामी मुदालियार के नेतृत्व में सेतु समुद्रम प्रोजेक्ट कमेटी बनी। कमेटी ने परियोजना को उपयुक्त पाया। 13 मार्च 2003 को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने इसे मंजूरी दी। अंतत: 2 जून 2005 को मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के कार्यकाल में इसकी शुरूआत हुई।


राम सेतु नहीं यह नल सेतु

सेतु समुद्रम परियोजना पर एक बार चर्चा फिर छिड़ गई है। खासकर इसके ऐतिहासिक और वैज्ञानिक संदर्भों के बारे में। समुद्र पर बनाए गए पुल के बारे में चर्चा तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस और वाल्मीक रामायण के अलावा दूसरी अन्य राम कथाओं में भी मिलती हैं। आश्चर्यजनक ढंग से राम के सेतु की चर्चा तो आती है लेकिन उस सेतु का नाम रामसेतु था, ऐसा वर्णन नहीं मिलता। गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में अलग ही वर्णन आता है। कहा गया है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुंचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल के बुद्धिकौशल से संपन्न हुआ था।
वाल्मीक रामायण में वर्णन है कि : -
नलर्श्चके महासेतुं मध्ये नदनदीपते:। स तदा क्रियते सेतुर्वानरैर्घोरकर्मभि:।।
रावण की लंका पर विजय पाने में समुद्र पार जाना सबसे कठिन चुनौती थी। कठिनता की यह बात वाल्मीक रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस दोनो में आती है-
वाल्मीक रामायण में लिखा है -
अब्रवीच्च हनुमांर्श्च सुग्रीवर्श्च विभीषणम। कथं सागरमक्षोभ्यं तराम वरूणालयम्।। सैन्यै: परिवृता: सर्वें वानराणां महौजसाम्।।
(हमलोग इस अक्षोभ्य समुद्र को महाबलवान् वानरों की सेना के साथ किस प्रकार पार कर सकेंगे ?) (6/19/28)
वहीं तुलसीकृत रामचरितमानस में वर्णन है -
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।। संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भांती।।
समुद्र ने प्रार्थना करने पर भी जब रास्ता नहीं दिया तो राम के क्रोधित होने का भी वर्णन मिलता है। वाल्मीक रामायण में तो यहां तक लिखा है कि समुद्र पर प्रहार करने के लिए जब राम ने अपना धनुष उठाया तो भूमि और अंतरिक्ष मानो फटने लगे और पर्वत डगमडा उठे।
तस्मिन् विकृष्टे सहसा राघवेण शरासने। रोदसी सम्पफालेव पर्वताक्ष्च चकम्पिरे।।
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा गया है कि तब समुद्र ने राम को स्वयं ही अपने ऊपर पुल बनाने की युक्ति बतलाई थी -
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिघि आसिष पाई।।
तिन्ह कें परस किए" गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
(समुद्र ने कहा -) हे नाथ। नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आर्शीवाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएंगे।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउ" बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि ब"धाइअ। जेहि यह सुजसु लोक तिहु" गाइअ।।
(मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहां तक मुझसे बन पड़ेगा)सहायता करूंगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बंधाइये, जिससे, तीनों लोकों में आपका सुन्दर यश गाया जाए।)
यह पुल इतना मजबूत था कि रामचरितमानस के लंका कांड के शुरूआत में ही वर्णन आता है कि -
बॉधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा।
वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पांच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन थी और चौड़ाई दस योजन।
दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्। ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम्।। (6/22/76)
सेतु बनाने में हाई टेक्नालाजी प्रयोग हुई थी इसके वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं, जैसे -
पर्वतांर्श्च समुत्पाट्य यन्त्नै: परिवहन्ति च।
(कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा - समुद्रतट पर ले आए)। इसी प्रकार एक अन्य जगह उदाहरण मिलता है - सूत्राण्यन्ये प्रगृहृन्ति हृाायतं शतयोजनम्। (6/22/62) (कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से -सिधाई में हो रहा था।)
सेतु पर रोचक प्रसंग :
* तेलुगू भाषा की रंगनाथरामायण में प्रसंग आता है कि सेतु निर्माण में एक गिलहरी का जोड़ा भी योगदान दे रहा था। यह रेत के दाने लाकर पुल बनाने वाले स्थान पर डाल रहा था।
* एक अन्य प्रसंग में कहा गया है कि राम-राम लिखने पर पत्थर तैर तो रहे थे लेकिन वह इधर-उधर बह जाते थे। इनको जोड़ने के लिए हनुमान ने एक युक्ति निकाली और एक पत्थर पर ‘रा’ तो दूसरे पर ‘म’ लिखा जाने लगा। इससे पत्थर जुड़ने लगे और सेतु का काम आसान हो गया।
* तुलसीकृत श्रीरामचरित मानस में वर्णन आता है कि सेतु निर्माण के बाद राम की सेना में वयोवृद्ध जाम्बवंत ने कहा था - ‘श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान’ अर्थात भगवान श्री राम के प्रताप से सिंधु पर पत्थर भी तैरने लगे।
वाल्मीकि रामायण में रामसेतु के प्रमाण
रामसेतु के मामले में भारतीय पुरातत्व विभाग ने सुप्रीम कोर्ट में राम और रामायण के अस्तित्व को नकारने वाला जो हलफनामा दायर किया था वह करोड़ों देशवासियों की आस्था को चोट पहुंचाने वाला ही नहीं बल्कि इससे पुरातत्व विभाग की इतिहास दृष्टि पर भी बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है। एएसआई के निदेशक (स्मारक) सी दोरजी का यह कहना कि राम सेतु के मुद्दे पर वाल्मीकि रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं माना जा सकता है, भारत की ऐतिहासिक अध्ययन पद्धति के सर्वथा विरूद्ध है।
एक पुरातत्ववेत्ता के रूप में शायद उन्हें यह ज्ञान होना चाहिए था कि एएसआई के संस्थापक और पहले डायरेक्टर जनरल कनिंघम ने सन 1862-63 में अयोध्या की पुरातात्त्विक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी तो उन्होंने वाल्मीकि रामायण के आधार पर अयोध्या को एक ऐतिहासिक नगरी बताया था। कनिंघम ने उस रिपोर्ट में यह भी बताया था कि मनु द्वारा स्थापित इस अयोध्या के मध्य में राम का जन्म स्थान मंदिर था। सन् 1908 में प्रकाशित ब्रिटिशकालीन ‘इम्पीरियल गजैटियर ऑफ इन्डिया’ के खण्ड पांच में ‘एडम ब्रिज’ के बारे में जो ऐतिहासिक विवरण प्रकाशित हुआ है उसमें भी यह कहा गया है कि हिन्दू परम्परा के अनुसार राम द्वारा लंका में सैनिक प्रयाण के अवसर पर यह पुल हनुमान और उनकी सेना द्वारा बनाया गया था। डॉ. राजबली पाण्डेय के ‘हिन्दू धर्म कोश’ (पृ. 558) के अनुसार रामायण के नायक राम ने लंका के राजा रावण पर आक्रमण करने के लिए राम सेतु का निर्माण किया था। भारतीय तट से लेकर श्रीलंका के तट तक समुद्र का उथला होना और वह भी एक सीध में इस विश्वास को पुष्ट करता है कि यह रामायणकालीन घटनाक्रम से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अवशेष है। वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड का बाईसवां अध्याय विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा सौ योजन लम्बे रामसेतु का विस्तार से वर्णन करता है। रामायण में 100 योजन लम्बे और 10 योजन चौड़े इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है-
दश योजन विस्तर्ीणं शतयोजनमायतम्।
दहशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम् ।। वा.रा., युद्ध. 22.76
नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया थाा। विशालकाय पर्वतों और वृक्षों को काटकर समुद्र में फेंका गया था। बड़ी-बड़ी शिलाओं और पर्वत खण्डों को उखाड़कर यंत्रों के द्वारा समुद्र तट तक लाया गया था- ‘पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्रै: परिवहन्ति च’। वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त ‘अध्यात्म रामायण’ के युद्धकाण्ड में भी नल द्वारा सौ योजन सेतु निर्माण का उल्लेख मिलता है-
‘‘बबन्ध सेतुं शतयोजनायतं सुविस्तृतं पर्वत पादपैर्दृढम्।’’
दरअसल. रामायणकालीन इतिहास के सन्दर्भ में पुरातत्त्व विभाग का गैर ऐतिहासिक रवैया रहा है। प्रोव् बी.बी. लाल की अध्यक्षता में 1977 से 1980 तक रामायण परियोजना के अन्तर्गत अयोध्या, चित्रकूट, जनकपुर, श्रृंगवेरपुर, भरद्वाज आश्रम का पुरातत्त्व विभाग ने उत्खनन किया किन्तु श्रृंगवेरपुर को छोड़कर अन्य रामायण स्थलों की रिपोर्ट आज तक प्रकाशित नहीं हुई। वर्तमान निदेशक (स्मारक) को रामायण की ऐतिहासिकता को नकारने से पहले पुरातत्त्व विभाग द्वारा रामायण परियोजनाओं की रिपोर्ट की जानकारी देनी चाहिए। यह कैसे हो सकता है कि जब रामायण के स्थलों की खुदाई का सवाल हो तो वाल्मीकि रामायण को प्रमाण मान लिया जाए मगर रामसेतु के मसले पर रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज मानने से इन्कार कर दिया जाए। जाने माने पुरातत्त्ववेत्ता गोवर्धन राय शर्मा के अनुसार प्रो. लाल को परिहार से ताम्रयुगीन संस्कृति के तीर भी मिले थे जो स्थानीय लागों के अनुसार लव और कुश के तीर थे। किन्तु इन सभी पुरातत्त्वीय सामग्री की व्याख्या तभी संभव है जब वाल्मीकि रामायण को इतिहास का स्रोत माना जाए।

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