Wednesday, June 24, 2009
दो हजार साल पहले एक बड़ा व्यापारिक केंद्र था पुणे शहर
पुणे में दकन कॉलेज के पुरातत्वविदों को प्राचीन मृदभांडों व बर्तनों के कुछ टूटे हुए टुकड़े मिले हैं जो 2000 साल पुराने है। यहां एक प्राचीन स्थल बुद्धवार पेठ के पास नींव के लिए खुदाई का काम चल रहा था। पुरातत्वविदों को ये प्राचीन वस्तुएं इसी खुदाई के दौरान मिली हैं।
इन मृद भांडों व बर्तनों के साक्ष्य के आधार पर पुरातत्वविदों का अनुमान है कि इससे पुणे शहर के २००० साल पहले एक प्रसिद्ध व्यापार केंद्र होने का प्रमाण मिलता है। इतिहासकार पांडुरंग बलकावड़े, जो कि इन पुरातत्वविदों के साथ काम कर रहे हैं और शहर की प्राचीनता का अध्ययन कर रहे हैं, का कहना है कि पुणे शहर के उस समय तक एक बड़े व्यापारिक केंद्र होने का यह सबसे पुराना साक्ष्य है।
बलकावड़े ने बताया कि जो प्राचीन वस्तुएं बुद्धवार पेठ इलाके में १५-२० फीट गहरे गड्ढे से मिली हैं, वह सातवाहन काल की हैं। जो बर्तन मिले हैं उनमें पालिश किए हुए लाल, काले रंग के मृदभाड के टुकड़े हैं। जो संभवतः खाना पकाने और अनाज संग्रह के लिए प्रयुक्त होते थे। ये सभी शहर के उस पुराने हिस्से से पाए गए हैं, जो मूथा नदी के तट पर अवस्थित है। पाए गए उत्कृष्ट मृदभांडों में एक बड़ी प्लेट, जल संग्रह करने वाला एक कंटेनर और अनाज रखने के पात्र के टुकड़े बताते हैं कि इन्हें कुशल कारीगरों ने बनाया होगा। जहां खुदाई हुी है वह नौ स्तरों को दर्शाती है। सबसे उपरी स्तर को इन्होंने १८वीं शताब्दी का बताया है जबकि सबसे निचले स्तर को ईसापूर्व १०० साल पुराना बताया गया है। इसी निचले स्तर से मिले हैं मृदभांड।
कुछ साल पहले कस्बा पेठ इलाके से इसी तरह की प्राचीन सामग्री मिलीं थी। कार्न डेटिंग के आधार पर इन सभी को सातवाहन काल का बताया जा रहा है। पहले जो सामग्री मिलीं थां, उन्हें दकन कालेज संग्रहालय में रखा गया है। इन प्राचीन मृदभांडों का बलकावड़े के साथ शोधकर्ता प्रवीन पाटिल, अभय काले और अमोल बंकर अध्ययन कर रहे हैं।
Tuesday, June 23, 2009
विंध्य नदी घाटी ने खोला जीवन के इतिहास का नया अध्याय
Wednesday, June 17, 2009
क्या प्राचीन काल में मनुष्य उड़ सकते थे?
पक्षियों को आसमान में स्वछंद उड़ते देख सदियों से मनुष्य के मन में भी आसमान छूने की तमन्ना रही है। 1903 में राइट बन्धुओं ने किटी हॉक बनाकर इस सपने को सच कर दिखाया पर सवाल यह है कि क्या इससे पहले भी मनुष्य ने आसमान में उड़ने की कोई सफल कोशिश की है?
1780 में दो फ्रेंच नागरिकों ने पेरिस में हवा से हलके गुब्बारे में हवा में कुछ दूर तक उड़ान भरी थी, पर अब कुछ इतिहासकारो का मानना है कि कई सभ्यताओं ने इसके कहीं पहले उड़ने की तकनीक विकसित कर ली थी। वर्षों की खोज के बाद मिले पुरातात्विक सबूत भी इस ओर इशारा करते हैं। प्राचीन युग में भी बेबीलोन, मिस्र तथा चीनी सभ्यता में उड़नखटोलों या उड़ने वाले यांत्रिक उपकरणों की कहानियाँ प्रचलित हैं।
भारतीय हिंदू धार्मिक ग्रंथ में ऐसे कई उल्लेख मिलते हैं जिनमें ऋषि-मुनि, मनीषियों तथा देवपुरुष सशरीर अथवा किसी यांत्रिक उपकरण के माध्यम से उड़कर अपनी यात्रा पूरी करते थे। रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीता माता को हर ले गया था तथा सीता माता की खोज में हनुमान द्वारा उड़कर सागर पार करना, राम-रावण युद्ध में मेघनाद द्वारा उड़ने वाले रथ का प्रयोग करने का भी उल्लेख है।
ऐसी मान्यता है कि युद्ध के बाद श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण तथा अन्य लोगों के साथ सुदूर दक्षिण में स्थित लंका से कई हजार किमी दूर उत्तर भारत में अयोध्या तक की दूरी पुष्पक विमान से हवाई मार्ग से ही तय की थी। पुष्पक विमान रावण ने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक हासिल किया था।
सबसे महत्वपूर्ण है चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित ‘वैमानिक शास्त्र’ जिसमें एक उड़ने वाले यंत्र ‘विमान’ के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए। ‘गोधा’ ऐसा विमान था जो अदृश्य हो सकता था। ‘परोक्ष’ दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था। ‘प्रलय’ एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था, जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था। ‘जलद रूप’ एक ऐसा विमान था जो देखने में बादल की भाँति दिखता था। 1898 में मिस्र के सक्कारा में एक मकबरे से 6 इंच लम्बा लकड़ी का बना ग्लाइडर जैसा दिखने वाला एक मॉडल मिला जो संभवत: 200 ई।पू. में बना था। कई सालों बाद मिस्र के एक वैमानिक विशेषज्ञ डॉ. खलीली मसीहा ने इसका अध्ययन कर बताया कि इसकी बनावट पूरी तरह आजकल के विमानों की तरह है। यहाँ तक कि इसकी टेल भी उतने ही कोण पर बनी है जिस पर वर्तमान ग्लाइडर बहुत कम ऊर्जा में ही उड़ सकता है।
हालाँकि अभी तक मिस्र के किसी भी मकबरे या पिरामिड से किसी विमान के कोई अवशेष या ढाँचा नहीं मिला है, पर एबीडोस के मंदिर पर उत्कीर्ण चित्रों में आजकल के विमानो से मिलती-जुलती आकृतियाँ उकेरी हुई मिली हैं। इसके खोजकर्ता डॉ. रूथ होवर का कहना है कि ‘पूरे मंदिर में ऐसी कई आकृतियाँ देखने को मिलती हैं जिसमें विमानों तथा हवा में उड़ने वाले उपकरणों को प्रदर्शित किया गया है। इनमें से कुछ तो आधुनिक हेलिकॉप्टर तथा जेट से मिलते-जुलते हैं’। इसी तरह सदियों तक पेरू के धुंधभरे पहाड़ों में छिपी इंका सभ्यता की नाज़्का रेखाएँ तथा आकृतियाँ आज भी अंतरिक्ष से देखी जा सकती हैं।
लेटिन अमेरिकी भूमि के समतल और रेतीले पठार पर बनी मीलों लंबी यह रेखाएँ ज्यामिति का एक अनुपम उदाहरण हैं। यहाँ बनी जीव-जंतुओं की 18 विशाल आकृतियाँ भी इतनी कुशलता से बनाई गई हैं कि लगता है मानो किसी विशाल से ब्रश के जरिये अंतरिक्ष से उकेरी गई हों।
आज भी इंका सभ्यता के खंडहरों और पिरामिडों (मिस्र के बाद पिरामिड यहाँ भी मिले हैं) के भित्तिचित्रों में मनुष्यों के पंख दर्शाए गए हैं तथा उड़नतश्तरी और अंतरिक्ष यात्रियों सरीखी पोशाक में लोगों के चित्र बने हैं। इसके अलावा मध्य अमेरिका से मिले पुरातात्विक अवशेषों में धातु की बनी आकृतियाँ बिलकुल आधुनिक विमानों से मिलती हैं।इन सभी उल्लेखों में मनुष्य द्वारा आकाश में उड़ने की बात इतनी बार बताई गई है, जिससे विश्वास होता है कि कई प्राचीन सभ्यताएँ कोई ऐसी तकनीक का आविष्कार कर चुकी थीं जिनकी सहायता से वे आसानी से उड़ सकती थीं। पुराणों, अभिलेखों, भित्तिचित्रों, प्राचीन वस्तुओं तथा प्राचीन लेखों को इतिहास जानने का एक अत्यंत महत्वपूर्ण व प्रामाणिक जरिया माना जाता है, तो क्या यह संभव नहीं कि प्राचीनकाल में किसी सभ्यता के पास उड़ने की तकनीक रही हो जो कालांतर में कहीं लुप्त हो गई हो। ( लेखक-संदीपसिंह सिसोदिया। वेबदुनिया से साभार।)
Wednesday, June 3, 2009
उत्तरकाशी में मिली महाभारत काल की गुफा
उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में तीन किमी लंबी गुफा मिली है, जिसमें दीवारों पर देवी-देवताओं की आकृतियां उकेरी हुई हैं। गुफा तीन मंजिला है इसमें शिवलिंग जैसी आकृति भी मौजूद है। फिलवक्त गुफा की दो मंजिलों व भित्तिचित्रों का अध्ययन शुरू कर दिया गया है। तीसरी मंजिल पर जाने की कोशिश की जा रही है। लोगों का मानना है कि गुफा महाभारत काल की हो सकती है।
तहसील मुख्यालय पुरोला से 15 किलोमीटर दून ठढुंग गांव से सटे जंगल में इस गुफा को एक साधु और कुछ चरवाहों ने सबसे पहले देखा। इसकी जानकारी ग्राम प्रधान जनक सिंह राणा को दी। इसके बाद केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर गढ़वाल के पुरातत्व विभाग से डा. बीएस पंवार ने जाकर गुफा का निरीक्षण किया। डा. पंवार ने बताया कि करीब तीन किलो मीटर लंबी गुफा का व्यास पांच मीटर है व यह तीन मंजिला है।
पहली मंजिल में प्रवेश के लिए दो फुट ऊंची व बीस फीट लंबी सुरंग से गुजरना पड़ता है। अंदर तीन बड़े हालनुमा कमरे हैं, जिनकी दीवारें सफेद मारबल जैसे पत्थरों की बनी है। इनकी दीवारों पर देवी देवताओं व मनुष्य की आकृतियां बनी हैं। दूसरी मंजिल में दीवारों पर कुछ चित्र, खड़ाऊं व मूर्तियां बनी है। गुफा के भीतर एक छोटा तालाब भी है, जिसके बीचों-बीच सफेद पत्थरों से बने दो छोटे व एक बड़ा शिवलिंग है। तीसरी मंजिल के आगे काफी संकरी है, इसलिए अब तक यहां कोई प्रवेश नहीं कर सका है। गुफा के बारे में गांव के बुजुर्ग मेयराम, सब्बल सिंह रावत, गुलाब सिंह का मानना है कि पांडवों ने वन प्रवास के समय लाखामंडल में यज्ञ करने के लिए श्रृंग ऋषि को बुलाया था। लाखामंडल जाते हुए श्रृंगी ऋषि ने इसी गुफा में कुछ समय विश्राम किया था। उधर डा. पंवार ने भी माना कि पुरोला व आसपास का इलाके में महाभारत काल के अवशेष मिलते रहे हैं। उन्होंने बताया कि यह गुफा भी महाभारत काल की हो सकती है। साभार-याहू जागरण ( http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_5515101.html )