Thursday, June 13, 2013
मुर्शिदाबाद के इतिहास की टूटी कड़ी जोड़ेंगे सागरदिघी इलाके से मिले गुप्तकालीन सोने के सिक्के !
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में सागरदिघी थाना इलाके के राष्ट्रीय राजमार्ग नं. 34 पर अहिरान पुल के पास निर्माण के दौरान 1 जून 2013 को गुप्तकालीन सोने के11 सिक्के मिले हैं। इन सिक्कों की तिथि चौथी शताब्दी बताई गई है। इससे पहले भी पश्चिम बंगाल से गुप्तकालीन सिक्के मिल चुके हैं। ये सिक्के कालीघाट से मिले थे। अब जो सिक्के सागरदिघी इलाके से मिले हैं वे गुप्त साम्राज्य की सीमाओं के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इतना ही नहीं ये सिक्के मुर्शिदाबाद के इतिहास वह कड़ी बन सकते हैं जिसपर प्रकाश डालने के लिए महत्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। मुर्शिदाबाद के बसने और विकसित होने का इतिहास प्रथम व द्वितीय शताब्दी का मिलता है। तब यहां कुषाणों का साम्राज्य था। इसके बाद छठवीं और सातवीं शताब्दी में शशांक वंश के कार्यकाल में मुर्शिदाबाद का उल्लेख मिलता है। बीच में मुर्शिदाबाद के इतिहास की जो कड़ी नदारद वह शायद इन नए साक्ष्यों से खोजना संभव होगा। यह काल गुप्तों का है और गुप्तकालीन सिक्कों का यहां से मिलना इस बात का संकेत है कि मुर्शिदाबाद तब भी महत्वपूर्ण केंद्र था। अभी जो सिक्के मिले हैं उनपर अध्ययन किया जाना बाकी है। फिलहाल जो तथ्य सामने आए हैं उनके मुताबिक ये चंद्रगुप्त द्वितीय और समुद्रगुप्त के जारी किए गए सिक्के हैं। सिक्के के एक तरफ गरुड़ स्तम्भ के साथ राजा खड़ा है और दूसरी तरफ देवी लक्ष्मी की आकृति है। पश्चिम बंगाल के पुरातत्व विभाग के उपनिदेशक अमर राय ने भी यह पुष्टि की है कि जिस जगह से ये सिक्के मिले हैं वह शशाक राजाओं की राजधानी कर्णसुवर्ण से काफी करीब है। यही नहीं इसके पास ही व्यापारिक केंद्र भागीरथी भी था जहां छठवीं शताब्दी में काफी व्यापारिक गतिविधियां हुआ करती थी। अमर राय इस पुरातात्विक स्थल व सिक्कों का मुआयना करने के बाद इनके समुद्रगुप्त व चंद्रगुप्त द्वितीय के होने की पुष्टि की है। महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार यह ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के संघ को परास्त किया था।
अधिकतर सिक्के गांववालों ने गायब कर दिए ?
अखबारों व समाचार एजंसियों के हवाले से छपी खबरों के मुताबिक करीब 60 सिक्के थे जिसमें से सिर्फ 11 ही मिल पाए। दरअसल वहां जयचंद मंडल और मिलन मंडल काम कर रहे थे तभी उनको फेकी गई बालू में कुछ चमकता हुआ दिखा। स्थानीय निवासी सरल मांझी की मानें तो जो बालू साइट पर डाली गई थी उसमें ही ये सिक्के थे। कई दिन की बारिश से जब उसपर का कीचड़ हटा तो ये कुछ सिक्के चमकते हुए दिखे। जैसे ही यह खबर पास के बाबूपाड़ा और डांगापाड़ा गांव के लोगों तक पहुंची, सभी वहां पहुंच गए और बालू को खगालने लगे। गांववालों का तो कहना है कि उसदिन तक 8-10 सिक्के ही मिले थे मगर 24 घंटे में इसकी तादाद छह गुनी यानी 60 के आसपास पहुंच गई। इन सिक्कों के ऐतिहासिक महत्व का होने की पुष्टि होने के बाद जसि जगह से बालू लाई जा रही थी उस जगह ( मिर्जापुर और गनकार ) पर जंगीपुर के बीडीओ को सूचित किए जाने के बाद पुलिस का पहरा लगा दिया गया। मगर तबतक काफी देर हो चुकी थी। तमाम सिक्के लेकर गांववाले गायब हो गए। दरअसल अखबारों में जब यह खबर छपी तब मुर्शिदाबाद के भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की क्यूरेटर मौसमी बनर्जी को यह सूचना मिल पाई। उन्होंने ही बताया कि ये सिक्के गुप्तकालीन हैं। एक दिन बाद ही उस पूरे इलाके की घेरेबंदी कर दी गई। तीनदिन बाद भा वहां से दो सिक्के मिले। सूत्रों की मानें तो गांववाले जो सिक्के ले गए उस एक सिक्के को 70 हजार रुपए में बेंच दिया है। पुलिस छानबीन में लगी है। एक स्थानीय अयन घोष का कहना है कि एक स्वर्णकार उसे एक सिक्के के 25000 रुपए देने को कह रहा था मगर पंचायत प्रधान ने ऐसा करने से मना करके इसकी सूचना बीडीओ को देने के कहा। यह अलग बात है कि जो सिक्के गांववाले ले गए उनको वापस नहीं लाया जा सका है।
समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त
३२० ई. में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना। गुप्त साम्राज्य की समृद्धि का युग यहीं से आरंभ होता है। 335 ई. में चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद उसका तथा कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठा। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपधि दी। उसका सबसे महत्वपूर्ण अभियान दक्षिण की तरफ़ (दक्षिणापथ) था। इसमें उसके बारह विजयों का उल्लेख मिलता है।
समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे। दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमत्तर भारत की विदेशी शक्तियांउसकी अधीनता स्वीकार करती थीं।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ३७५ ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ। वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था। वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने ३७५ से ४१५ ई. तक (४० वर्ष) शासन किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर अपनी विजय हासिल की जिसके बाद गुप्त साम्राज्य एक शक्तिशाली राज्य बन गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में क्षेत्रीय तथा सांस्कृतिक विस्तार हुआ। हालांकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं। उसने विक्रयांक, विक्रमादित्य, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की। उसने नागवंश, वाकाटक और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये।
विद्वानों को इसमें संदेह है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा विक्रमादित्य एक ही व्यक्ति थे। उसके शासनकाल में चीनी बौद्ध यात्री फाहियान ने 399 ईस्वी से 414 ईस्वी तक भारत की यात्रा की। उसने भारत का वर्णन एक सुखी और समृद्ध देश के रूप में किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल को स्वर्ण युग भी कहा गया है।
अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसका साम्राज्य पश्चिमी में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तापघटी से दक्षिण में नमर्दा नदी तक विस्तृत था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल कला-साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। उसके दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय प्राप्त था। उसके दरबार में नौ रत्न थे- कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि उल्लेखनीय थे।
( साभार- टाईम्स आफ इंडिया ( कोलकाता संस्करण ), द इंडियन एक्सप्रेस ( कोलकाता संस्करण ), प्रभात खबर व हिंदी विकीपीडिया)।
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