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Friday, October 4, 2013

कर्मकांडी ब्राह्मण नहीं होते, कोई भी बन सकता है ब्राह्मण


   पूर्वकाल में ब्राह्मण होने के लिए शिक्षा, दीक्षा और कठिन तप करना होता था। इसके बाद ही उसे ब्राह्मण कहा जाता था। गुरुकुल की अब वह परंपरा नहीं रही। जिन लोगों ने ब्राह्मणत्व अपने प्रयासों से हासिल किया था उनके कुल में जन्मे लोग भी खुद को ब्राह्मण समझने लगे। ऋषि-मुनियों की वे संतानें खुद को ब्राह्मण मानती हैं, जबकि उन्होंने न तो शिक्षा ली, न दीक्षा और न ही उन्होंने कठिन तप किया। वे जनेऊ का भी अपमान करते देखे गए हैं।

   आजकल के तथाकथित ब्राह्मण लोग शराब पीकर, मांस खाकर और असत्य वचन बोलकर भी खुद को ब्राह्मण समझते हैं। उनमें से कुछ तो धर्मविरोधी हैं, कुछ धर्म जानते ही नहीं, कुछ गफलत में जी रहे हैं, कुछ ने धर्म को धंधा बना रखा और कुछ पोंगा-पंडित और कथावाचक बने बैठे हैं। ऐसे ही सभी कथित ब्राह्मणों के लिए हमने कुछ जानकारी इकट्ठा की है।
          ब्रह्म  सत्य, जगत मिथ्या : जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर किसी अन्य को नहीं पूजता वह ब्राह्मण। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता वह ब्राह्मण नहीं।

न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥

अर्थात : भगवान बुद्ध कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं।

तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥

अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।

न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥

अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।

शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥
पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः ।
पारदाः पहल्वाश्चीनाः किरताः दरदाः खशाः॥- मनुसंहिता (1- (/43-44)

अर्थात : ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक, पारद, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये सभी क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गईं।
जाति के आधार पर तथाकथित ब्राह्मणों के हजारों प्रकार हैं। उत्तर भारतीय ब्राह्मणों के प्रकार अलग तो दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के अलग प्रकार। लेकिन हम यहां जाति के आधार के प्रकार की बात नहीं कर रहे हैं।

उत्तर भारत में जहां सारस्वत, सरयुपा‍रि, गुर्जर गौड़, सनाठ्य, औदिच्य, पराशर आदि ब्राह्मण मिल जाएंगे तो दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन संप्रदाय हैं- स्मर्त संप्रदाय, श्रीवैष्णव संप्रदाय तथा माधव संप्रदाय। इनके हजारों उप संप्रदाय हैं।

    पुराणों के अनुसार पहले विष्‍णु के नाभि कमल से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा का ब्रह्मर्षिनाम करके एक पुत्र था। उस पुत्र के वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ, उससे कृपाचार्य हुए, कृपाचार्य के दो पुत्र हुए, उनका छोटा पुत्र शक्ति था। शक्ति के पांच पुत्र हुए। उसमें से प्रथम पुत्र पाराशर से पारीक समाज बना, दूसरे पुत्र सारस्‍वत के सारस्‍वत समाजा, तीसरे ग्‍वाला ऋषि से गौड़ समाजा, चौथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़ समाजा, पांचवें पुत्र श्रृंगी से उनके वंश शिखवाल समाजा, छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच समाज बना।...इस तरह ‍पुराणों में हजारों प्रकार मिल जाएंगे।

    इसके अलावा माना जाता है कि सप्तऋषियों की संतानें हैं ब्राह्मण। जैन धर्म के ग्रंथों को पढ़ें तो वहां ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन अलग मिल जाएगा। बौद्धों के धर्मग्रंथ पढ़ें तो वहां अलग वर्णन है। लेकिन सबसे उत्तम तो वेद और स्मृतियों में ही मिलता है।
कोई भी बन सकता है ब्राह्मण : ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो। लेकिन ब्राह्मण होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना होता है।

स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है:- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।

1. मात्र : ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं। उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह के तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी हैं।

2. ब्राह्मण : ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है।

3. श्रोत्रिय : स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है।

4. अनुचान : कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है।

5. भ्रूण : अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।

6. ऋषिकल्प : जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है उसे ऋषिकल्प कहा जाता है।

7. ऋषि : ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।

8. मुनि : जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं। (वेबदुनिया संदर्भ)

Tuesday, August 13, 2013

अफगानिस्तान में मिला महाभारतकालीन विमान..!






अफगानिस्तान में मिला महाभारतकालीन विमान..!
  अभी तक हम धर्मग्रंथों में ही पढ़ते ही रहे हैं कि रामायणकाल और महाभारत काल में विमान होते थे। पुष्पक विमान के बारे में भी हम सबने पढ़ा है।...लेकिन हाल ही में एक सनसनीखेज जानकारी सामने आई है। इसके मुताबिक अफगानिस्तान में एक 5000 साल पुराना विमान मिला है, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि यह महाभारतकालीन हो सकता है।

वायर्ड डॉट कॉम की एक रिपोर्ट में दावा किया जा रहा है कि प्राचीन भारत के पांच हजार वर्ष पुराने एक विमान को हाल ही में अफ‍गानिस्तान की एक गुफा में पाया गया है। कहा जाता है कि यह विमान एक 'टाइम वेल' में फंसा हुआ है अथवा इसके कारण सुरक्षित बना हुआ है। यहां इस बात का उल्लेख करना समुचित होगा कि 'टाइम वेल' इलेक्ट्रोमैग्नेटिक शॉकवेव्‍स से सुरक्षित क्षेत्र होता है और इस कारण से इस विमान के पास जाने की चेष्टा करने वाला कोई भी व्यक्ति इसके प्रभाव के कारण गायब या अदृश्य हो जाता है।
कहा जा रहा है कि यह विमान महाभारत काल का है और इसके आकार-प्रकार का विवरण महाभारत और अन्य प्राचीन ग्रंथों में‍ किया गया है। इस कारण से इसे गुफा से निकालने की कोशिश करने वाले कई सील कमांडो गायब हो गए हैं या फिर मारे गए हैं।

रशियन फॉरेन इंटेलिजेंस सर्विज (एसवीआर) का कहना है कि यह महाभारत कालीन विमान है और जब इसका इंजन शुरू होता है तो इससे बहुत सारा प्रकाश ‍निकलता है। इस एजेंसी ने 21 दिसंबर 2010 को इस आशय की रिपोर्ट अपनी सरकार को पेश की थी।

रूसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस विमान में चार मजबूत पहिए लगे हुए हैं और यह प्रज्जवलन हथियारों से सुसज्जित है। इसके द्वारा अन्य घातक हथियारों का भी इस्तेमाल किया जाता है और जब इन्हें किसी लक्ष्य पर केन्द्रित कर प्रक्षेपित किया जाता है तो ये अपनी शक्ति के साथ लक्ष्य को भस्म कर देते हैं।

ऐसा माना जा रहा है कि यह प्रागेतिहासिक मिसाइलों से संबंधित विवरण है। अमेरिकी सेना के वैज्ञानिकों का भी कहना है कि जब सेना के कमांडो इसे निकालने का प्रयास कर रहे थे तभी इसका टाइम वेल सक्रिय हो गया और इसके सक्रिय होते ही आठ सील कमांडो गायब हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि यह टाइम वेल सर्पिलाकार में आकाशगंगा की तरह होता है और इसके सम्पर्क में आते ही सभी जीवित प्राणियों का अस्तित्व इस तरह समाप्त हो जाता है मानो कि वे मौके पर मौजूद ही नहीं रहे हों।

एसवीआर रिपोर्ट का कहना है कि यह क्षेत्र 5 अगस्त को पुन: एक बार सक्रिय हो गया था और इसके परिणामस्वरूप 40 सिपाही और प्रशिक्षित जर्मन शेफर्ड डॉग्स इसकी चपेट में आ गए थे। संस्कृत भाषा में विमान केवल उड़ने वाला वाहन ही नहीं होता है वरन इसके कई अर्थ हो सकते हैं, यह किसी मंदिर या महल के आकार में भी हो सकता है।
ऐसा भी दावा किया जाता है कि कुछेक वर्ष पहले ही चीनियों ने ल्हासा, ति‍ब्बत में संस्कृत में लिखे कुछ दस्तावेजों का पता लगाया था और बाद में इन्हें ट्रांसलेशन के लिए चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में भेजा गया था।

यूनिवर्सिटी की डॉ. रूथ रैना ने हाल ही इस बारे में जानकारी दी थी कि ये दस्तावेज ऐसे निर्देश थे जो कि अंतरातारकीय अंतरिक्ष विमानों (इंटरस्टेलर स्पेसशिप्स) को बनाने से संबंधित थे।

हालांकि इन बातों में कुछ बातें अतरंजित भी हो सकती हैं कि अगर यह वास्तविकता के धरातल पर सही ठहरती हैं तो प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के बारे में ऐसी जानकारी सामने आ सकती है जो कि आज के जमाने में कल्पनातीत भी हो सकती है।
   रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीताजी को हर ले गया था। हनुमान भी सीता की खोज में समुद्र पार लंका में उड़ कर ही पहुंचे थे। रावण के पास पुष्पक विमान था जिसे उसने अपने भाई कुबेर से हथिया लिया था।
  राम-रावण युद्ध के बाद श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण तथा अन्य लोगों के साथ सुदूर दक्षिण में स्थित लंका से कई हजार किमी दूर उत्तर भारत में अयोध्या तक की दूरी हवाई मार्ग से पुष्पक विमान द्वारा ही तय की थी। पुष्पक विमान रावण ने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक हासिल किया था। रामायण में मेघनाद द्वारा उड़ने वाले रथ का प्रयोग करने का भी उल्लेख मिलता है।

आज भी इंका सभ्यता के खंडहरों और पिरामिडों (मिस्र के बाद पिरामिड यहां भी मिले हैं) के भित्तिचित्रों में मनुष्यों के पंख दर्शाए गए हैं तथा उड़नतश्तरी और अंतरिक्ष यात्रियों सरीखी पोशाक में लोगों के चित्र बने हैं। इसके अलावा मध्य अमेरिका से मिले पुरातात्विक अवशेषों में धातु की बनी आकृतियां बिलकुल आधुनिक विमानों से मिलती हैं। माचू-पिच्चू की धुन्ध भरी पहाड़ियों में रहने वाले कुछ समुदाय वहाँ पाए जाने वाले विशालकाय पक्षी कांडोर को पूजते हैं और इस क्षेत्र में मिले प्राचीन भित्ति चित्रों में लोगों को इसकी पीठ पर बैठ कर उड़ते हुए भी दिखाया गया है।

    इन सभी उल्लेखों में मनुष्य द्वारा आकाश में उड़ने की बात इतनी बार बताई गई है, जिससे विश्वास होता है कि कई प्राचीन सभ्यताएं कोई ऐसी तकनीक का आविष्कार कर चुकी थीं जिनकी सहायता से वे आसानी से आकाश में उड़ सकती थीं। इन सभ्यताओं ने हजारों साल पहले पिरामिड, चीन की दीवार से लेकर झूलते बचीगे जैसे स्थापत्य कला के जो नायाब नमूने बनाए थे उसे देखकर इस बात पर कतई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
खोज लिए रावण के हवाई अड्डे
अशोक वाटिका, राम-रावण युद्ध भूमि, रावण की गुफा, रावण के हवाई अड्डे, रावण का शव, रावण का महल और ऐसे 50 रामायणकालीन स्थलों की खोज करने का दावा ‍किया गया है। बकायदा इसके सबूत भी पेश किए गए हैं।

इस बात को कुछ साल हो गए हैं अब तो श्रीलंका पर्यटन विमान इन स्थानों की सैर करवाता है। 'श्रीलंकाज रामायण ट्रेल' नामक 'स्प्रिच्युअल टूरिज्म' की इस योजना और टूर को लेकर श्रीलंका सरकार के पास काफी प्रस्ताव आएं हैं।

श्रीलंका का इंटरनेशनल रामायण रिसर्च सेंटर और वहां के पर्यटन मंत्रालय ने मिलकर रामायण से जुड़े ऐसे 50 स्थल ढूंढ लिए हैं जिनका पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व है और जिनका रामायण में भी उल्लेख मिलता है। हाल ही में रावण के चार हवाई अड्डे भी ढूंढ लिए गए हैं।

रावण के पुष्पक विमान के उतरने के स्थान और रामायणकाल के कुछ हवाई अड्डे भी ढूंढ लिए गए हैं। वेरांगटोक (जो महियांगना से 10 किलोमीटर दूर है) में हैं ये हवाई अड्डे। यहीं पर रावण ने सीता का हरण कर पुष्पक विमान को उतारा था।

महियांगना मध्य, श्रीलंका स्थित नुवारा एलिया का एक पर्वतीय क्षेत्र है। इसके बाद सीता माता को जहां ले जाया गया था उस स्थान का नाम गुरुलपोटा है। इसे अब 'सीतोकोटुवा' नाम से जाना जाता है। यह स्थान भी महियांगना के पास है।

रावणैला गुफा : 16 मई 1970 को वैलाव्या और ऐला के बीच सत्रह मील लम्बे मार्ग का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन राज्यमंत्री ने कहा था, '...उस मार्ग पर एक बहुत सुन्दर स्थान, जिसने उनका ध्यान खींचा है, रावणैला गुफा है। रावण ने सीता से भेंट करने के लिए उस गुफा में प्रवेश करने का प्रयत्न किया था, परन्तु वह न तो गुफा के अन्दर जा सका और न सीता के ही दर्शन कर सका।'
श्रीलंका की श्रीरामायण रिसर्च कमेटी के अनुसार रावण के चार हवाई अड्डे थे। उनके चार हवाई अड्डे ये हैं- उसानगोड़ा, गुरुलोपोथा, तोतूपोलाकंदा और वारियापोला। इन चार में से एक उसानगोड़ा हावाई अड्डा नष्ट हो गया था। कमेटी अनुसार सीता की तलाश में जब हनुमान लंका पहुंचे तो लंका दहन में रावण का उसानगोड़ा हवाई अड्डा नष्ट हो गया था।
उसानगोड़ा हवाई अड्डे को स्वयं रावण निजी तौर पर इस्तेमाल करता था। यहां रनवे लाल रंग का है। इसके आसपास की जमीन कहीं काली तो कहीं हरी घास वाली है।

रिसर्च कमेटी के अनुसार पिछले चार साल की खोज में ये हवाई अड्डे मिले हैं। कमेटी की रिसर्च के मुता‍बिक रामायण काल से जुड़ी लंका वास्तव में श्रीलंका ही है। कैंथ ने बताया कि श्रीलंका में 50 जगहों पर रिसर्च की गई है।
कुबेर का था पुष्पक विमान : रामायण अनुसार रावण सीता का हरण कर पुष्पक विमान द्वारा श्रीलंका ले गया था। रामायण में वर्णित है कि युद्ध के बाद श्रीराम, सीता, लक्ष्मण तथा अन्य लोगों के साथ दक्षिण में स्थित लंका से अयोध्या पुष्पक विमान द्वारा ही आए थे। पुष्पक विमान को रावण ने अपने भाई धनपति कुबेर से बलपूर्वक हासिल किया था।

पुष्पक विमान का प्रारूप एवं निर्माण विधि ब्रह्मर्षि अंगिरा ने बनाई थी और इसका निर्माण डिजाइल और कार्यक्षमता को भगवान विश्वकर्मा ने निर्मित किया था। इस अद्भुत रचना के कारण ही वे 'शिल्पी' कहलाए।

पुष्पक विमान की विशेषता : पुष्पक विमान की यह विशेषता थी कि वह छोटा या बड़ा किया जा सकता था। पुष्पक विमान में इच्छानुसार गति होती थी और बहुत से लोगों को यात्रा करवाने की क्षमता थी। यह विमान आकाश में स्वामी की इच्छानुसार भ्रमण करता था अर्थात उसमें मन की गति से चलने की क्षमता थी।

अंतरिक्ष एजेंसी नासा का प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर रामायणकालीन हर घटना की गणना कर सकता है। इसमें राम को वनवास हो, राम-रावण युद्ध हो या फिर अन्य कोई घटनाक्रम। इस सॉफ्टवेयर की गणना बताती है कि ईसा पूर्व 5076 साल पहले राम ने रावण का संहार किया था।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सेवानिवृत्त पुरातत्वविद् डॉ. एलएम बहल कहते हैं कि रामायण में वर्णित श्लोकों के आधार पर इस गणना का मिलान किया जाए तो राम-रावण के युद्ध की भी पुष्टि होती है। इसके अलावा इन घटनाओं का खगोलीय अध्ययन करने वाले विद्वान भी हैं। भौतिकशास्त्री डॉ. पुष्कर भटनागर ने रामायण की तिथियों का खगोलीय अध्ययन किया है।
श्रीरामायण रिसर्च कमेटी : वर्ष 2004 में पंजाब के बांगा इलाके के रहने वाले अशोक कैंथ श्रीलंका में अशोक वाटिका की खोज की सुर्खियां में आथे था। श्रीलंका सरकार ने 2007 में रिसर्च कमेटी का गठन किया।

  कमेटी में श्रीलंका के पर्यटन मंत्रालय के डायरेक्टर जनरल क्लाइव सिलवम, ऑस्ट्रेलिया के डेरिक बाक्सी, श्रीलंका के पीवाई सुंदरेशम, जर्मनी की उर्सला मुलर, इंग्लैंड की हिमी जायज शामिल हैं। अब तक कमेटी ने श्रीलंका में रावण के महल, विभीषण महल, श्रीगुरु नानक के लंका प्रवास पर रिसर्च की है।
चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित ‘वैमानिक शास्त्र’ जिसमें एक उड़ने वाले यंत्र ‘विमान’ के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए।

‘गोधा’ ऐसा विमान था जो अदृश्य हो सकता था। ‘परोक्ष’ दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था। ‘प्रलय’ एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था, जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था। ‘जलद रूप’ एक ऐसा विमान था जो देखने में बादल की भांति दिखता था। - वेबदुनिया संदर्भ

प्राचीन उड़न खटोले : हकीकत या कल्पना?
पक्षियों को आसमान में स्वछंद उड़ते देख सदियों से मनुष्य के मन में भी आसमान छूने की तमन्ना रही है। 1903 में राइट बन्धुओं ने किटी हॉक बनाकर इस सपने को सच कर दिखाया पर सवाल यह है कि क्या इससे पहले भी मनुष्य के आसमान में उड़ने की कोई कोशिश सफल हुई है?

पहले परवाज : 1780 में दो फ्रेंच नागरिकों ने पेरिस में हवा से हलके गुब्बारे में हवा में कुछ दूर तक उड़ान भरी थी, पर अब कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कई सभ्यताओं ने इससे कहीं पहले उड़ने की तकनीक विकसित कर ली थी। वर्षों की खोज के बाद मिले पुरातात्विक सबूत भी इस ओर इशारा करते हैं।

प्राचीन युग में भी बेबीलोन, मिस्र तथा चीनी सभ्यता में उड़नखटोलों या उड़ने वाले यांत्रिक उपकरणों की कहानियाँ प्रचलित हैं। इन सभ्यताओं के पौराणिक ग्रंथों में पौराणिक नायकों तथा देवताओं के आकाश में उड़ने के कई किस्से मिलते हैं।

भारतीय पौराणिक प्रमाण : भारतीय हिंदू पौराणिक और वैदिक साहित्य में ऐसे कई उल्लेख मिलते हैं जिनमें ऋषि-मुनि तथा देवपुरुष सशरीर अथवा किसी यांत्रिक उपकरण के माध्यम से उड़कर अपनी यात्रा पूरी करते थे।

स्कंद पुराण के खंड तीन अध्याय 23 में उल्लेख मिलता है कि ऋषि कर्दम ने अपनी पत्नी के लिए एक विमान की रचना की थी जिसके द्वारा कहीं भी आया जाया सकता था। उक्त पुराण में विमान की रचना और विमान की सुविधा का वर्णन भी मिलता है।

विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ने 'इन्द्रविजय' नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखा है जिसमें कहा गया है कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था।

रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीताजी को हर ले गया था। हनुमान भी सीता की खोज में समुद्र पार लंका में उड़ कर ही पहुँचे थे। राम-रावण युद्ध के बाद श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण तथा अन्य लोगों के साथ सुदूर दक्षिण में स्थित लंका से कई हजार किमी दूर उत्तर भारत में अयोध्या तक की दूरी हवाई मार्ग से पुष्पक विमान द्वारा ही तय की थी। पुष्पक विमान रावण ने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक हासिल किया था। रामायण में मेघनाद द्वारा उड़ने वाले रथ का प्रयोग करने का भी उल्लेख मिलता है।

भरद्वाज का वैमानिक शास्त्र : सबसे महत्वपूर्ण है चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में महर्षि भरद्वाज द्वारा लिखित ‘वैमानिक शास्त्र’ जिसमें एक उड़ने वाले यंत्र ‘विमान’ के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए।

वैमानिक शास्त्र में भरद्वाज मुनि ने विमान की परिभाषा, विमान का चालक जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का जैसा वर्णन किया गया है वह आधुनिक युग में विमान निर्माण प्रकिया से काफी मिलता है।

भरद्वाज मुनि ने उनसे पूर्व के विमानशास्त्री आचार्य और उनके ग्रंथों के बारे में भी लिखा है जो निम्नानुसार हैं- 1.नारायण द्वारा रचित विमान चन्द्रिका, 2.शौनक द्वारा रचित व्योमयान तंत्र, 3.गर्ग द्वारा रचित यन्त्रकल्प 4. वायस्पति द्वारा रचित यान बिन्दु, 5.चाक्रायणी द्वारा रचित खेटयान प्रदीपिका और 6. धुण्डीनाथ द्वारा रचित व्योमयानार्क प्रकाश।

वैमानिक शास्त्र में उल्लेखित प्रमुख पौराणिक विमान :
*‘गोधा’ ऐसा विमान था जो अदृश्य हो सकता था। इसके जरिए दुश्मन को पता चले बिना ही उसके क्षेत्र में जाया जा सकता था।
*‘परोक्ष’ दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था। इसकी कल्पना एक मुख्य युद्धक विमान के रूप में की जा सकती है। इसमें ‘प्रलय’ नामक एक शस्त्र भी था जो एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था, जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था।
*‘जलद रूप’ एक ऐसा विमान था जो देखने में बादल की भाँति दिखता था। यह विमान छ्द्मावरण में माहिर होता था।

अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य : 1898 में मिस्र के सक्कारा में एक मकबरे से 6 इंच लम्बा लकड़ी का बना ग्लाइडर जैसा दिखने वाला एक मॉडल मिला जो संभवत: 200 ई.पू. में बना था। कई सालों बाद मिस्र के एक वैमानिक विशेषज्ञ डॉ. खलीली मसीहा ने इसका अध्ययन कर बताया कि इसकी बनावट पूरी तरह आजकल के विमानों की तरह है। यहाँ तक कि इसकी टेल भी उतने ही कोण पर बनी है जिस पर वर्तमान ग्लाइडर बहुत कम ऊर्जा में भी उड़ सकता है।

हालाँकि अभी तक मिस्र के किसी भी मकबरे या पिरामिड से किसी विमान के कोई अवशेष या ढाँचा नहीं मिला है, पर एबीडोस के मंदिर पर उत्कीर्ण चित्रों में आजकल के विमानों से मिलती-जुलती आकृतियाँ उकेरी हुई मिली हैं। इसके खोजकर्ता डॉ. रूथ होवर का कहना है कि ‘पूरे मंदिर में ऐसी कई आकृतियाँ देखने को मिलती हैं जिसमें विमानों तथा हवा में उड़ने वाले उपकरणों को प्रदर्शित किया गया है। इनमें से कुछ तो आधुनिक हेलिकॉप्टर तथा जेट से मिलते-जुलते हैं’। इसके अलावा मिस्र की कई लोककथाओं तथा अरब देश की मशहूर कहानी अलिफ-लैला (अरेबियन नाइट्स) में भी उड़ने वाले कालीन का जिक्र मिलता है।

इसी तरह सदियों तक पेरू के धुंधभरे पहाड़ों में छिपी इंका सभ्यता की नाज़्का रेखाएँ तथा आकृतियाँ आज भी अंतरिक्ष से देखी जा सकती हैं। लेटिन अमेरिकी भूमि के समतल और रेतीले पठार पर बनी मीलों लंबी यह रेखाएँ ज्यामिति का एक अनुपम उदाहरण हैं। यहाँ बनी जीव-जंतुओं की 18 विशाल आकृतियाँ भी इतनी कुशलता से बनाई गई हैं कि लगता है मानो किसी विशाल से ब्रश के जरिये अंतरिक्ष से उकेरी गई हों।

आज भी इंका सभ्यता के खंडहरों और पिरामिडों (मिस्र के बाद पिरामिड यहाँ भी मिले हैं) के भित्तिचित्रों में मनुष्यों के पंख दर्शाए गए हैं तथा उड़नतश्तरी और अंतरिक्ष यात्रियों सरीखी पोशाक में लोगों के चित्र बने हैं। इसके अलावा मध्य अमेरिका से मिले पुरातात्विक अवशेषों में धातु की बनी आकृतियाँ बिलकुल आधुनिक विमानों से मिलती हैं। माचू-पिच्चू की धुन्ध भरी पहाड़ियों में रहने वाले कुछ समुदाय वहाँ पाए जाने वाले विशालकाय पक्षी कांडोर को पूजते हैं और इस क्षेत्र में मिले प्राचीन भित्ति चित्रों में लोगों को इसकी पीठ पर बैठ कर उड़ते हुए भी दिखाया गया है।

इन सभी उल्लेखों में मनुष्य द्वारा आकाश में उड़ने की बात इतनी बार बताई गई है, जिससे विश्वास होता है कि कई प्राचीन सभ्यताएँ कोई ऐसी तकनीक का आविष्कार कर चुकी थीं जिनकी सहायता से वे आसानी से आकाश में उड़ सकती थीं। इन सभ्यताओं ने हजारों साल पहले पिरामिड, चीन की दीवार से लेकर झूलते बचीगे जैसे स्थापत्य कला के जो नायाब नमूने बनाए थे उसे देखकर इस बात पर कतई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

लोककथाओं, धार्मिक साहित्य, अभिलेखों, भित्तिचित्रों, प्राचीन वस्तुओं तथा प्राचीन लेखों को इतिहास जानने का एक अत्यंत महत्वपूर्ण व प्रामाणिक जरिया माना जाता है, तो क्या यह संभव नहीं कि प्राचीनकाल में किसी सभ्यता के पास उड़ने की तकनीक रही हो जो कालांतर में कहीं लुप्त हो गई हो।

दशानन रावण का रहस्य, यहां रखा है शव!
श्रीलंका में वह स्थान ढूंढ लिया गया है, जहां रावण की सोने की लंका थी और जहां रावण के मरने के बाद उसका शव रखा गया है। रावण से जुड़े ऐसे 50 स्थान ढूंढ लिए गए हैं जिनका ऐतिहासिक महत्व है।

श्रीलंका का इंटरनेशनल रामायण रिसर्च सेंटर और वहां के पर्यटन मंत्रालय ने मिलकर रामायण से जुड़े ऐसे 50 स्थल ढूंढ लिए हैं जिनका पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व है और जिनका रामायण में भी उल्लेख मिलता है।

श्रीलंका सरकार ने 'रामायण' में आए लंका प्रकरण से जुड़े तमाम स्थलों पर शोध करवाकर उनकी ऐतिहासिकता सिद्ध कर इन स्थानों को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की योजना बना ली है। इसमें भारत भी मदद कर रहा है।
यहां रखा है रावण का शव : ऐसा माना जाता है कि रैगला के जंगलों के बीच एक विशालकाय पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहां उसने घोर तपस्या की थी। उसी गुफा में आज भी रावण का शव सुरक्षित रखा हुआ है। रैगला के घने जंगलों और गुफाओं में कोई नहीं जाता है, क्योंकि यहां जंगली और खूंखार जानवरों का बसेरा है।
रैगला के इलाके में रावण की यह गुफा 8 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। जहां 17 फुट लंबे ताबूत में रखा है रावण का शव। इस ताबूत के चारों तरफ लगा है एक खास लेप जिसके कारण यह ताबूत हजारों सालों से जस का तस रखा हुआ है।

गौरतलब है‍ कि मिस्र में प्राचीनकाल में ममी बनाने की परंपरा थी, जहां आज भी पिरामिडों में हजारों साल से कई राजाओं के शव रखे हुए हैं। यह भी जानना जरूरी है कि उस समय शैव संप्रदाय में समाधि देने की रस्म थी। रावण शैवपंथी था।
रामायणकाल के रहस्य
रामायण काल को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं। ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं होने के कारण कुछ लोग जहां इसे नकारते हैं, वहीं कुछ इसे सत्य मानते हैं। हालांकि इसे आस्था का नाम दिया जाता है, लेकिन नासा द्वारा समुद्र में खोजा गया रामसेतु ऐसे लोगों की मान्यता को और पुष्ट करता है। आइए देखते हैं कुछ ऐसे ही साक्ष्य, जो रामायण काल के अस्तित्व को स्वीकारते हैं...
रावण का महल
कहा जाता है कि लंकापति रावण के महल, जिसमें अपनी पटरानी मंदोदरि के साथ निवास करता था, के अब भी अवशेष मौजूद हैं। यह वही महल है, जिसे पवनपुत्र हनुमान ने लंका के साथ जला दिया था।

लंका दहन को रावण के विरुद्ध राम की पहली बड़ी रणनीतिक जीत माना जा सकता है क्योंकि महाबली हनुमान के इस कौशल से वहां के सभी निवासी भयभीत होकर कहने लगे कि जब सेवक इतना शक्तिशाली है तो स्वामी कितना ताकतवर होगा। ...और जिस राजा की प्रजा भयभीत हो जाए तो वह आधी लड़ाई तो यूं ही हार जाता है।

गुसाईं जी पंक्तियां देखिए- 'चलत महाधुनि गर्जेसि भारी, गर्भ स्रवहि सुनि निसिचर नारी'। अर्थात लंका दहन के पश्चात जब हनुमान पुन: राम के पास जा रहे थे तो उनकी महागर्जना सुनकर राक्षस स्त्रियों का गर्भपात हो गया।
सुग्रीव गुफा
सुग्रीव अपने भाई बाली से डरकर जिस कंदरा में रहता था, उसे सुग्रीव गुफा के नाम से जाना जाता है। यह ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित थी। ऐसी मान्यता है कि दक्षिण भारत में प्राचीन विजयनगर साम्राज्य के विरुपाक्ष मंदिर से कुछ ही दूर पर स्थित एक पर्वत को ऋष्यमूक कहा जाता था और यही रामायण काल का ऋष्यमूक है। मंदिर के निकट सूर्य और सुग्रीव आदि की मूर्तियां स्थापित हैं।

रामायण की एक कहानी के अनुसार वानरराज बाली ने दुंदुभि नामक राक्षस को मारकर उसका शरीर एक योजन दूर फेंक दिया था। हवा में उड़ते हुए दुंदुभि के रक्त की कुछ बूंदें मातंग ऋषि के आश्रम में गिर गईं। ऋषि ने अपने तपोबल से जान लिया कि यह करतूत किसकी है।

क्रुद्ध ऋषि ने बाली को शाप दिया कि यदि वह कभी भी ऋष्यमूक पर्वत के एक योजन क्षेत्र में आएगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी। यह बात उसके छोटे भाई सुग्रीव को ज्ञात थी और इसी कारण से जब बाली ने उसे प्रताड़ित कर अपने राज्य से निष्कासित किया तो वह इसी पर्वत पर एक कंदरा में अपने मंत्रियों समेत रहने लगा। यहीं उसकी राम और लक्ष्मण से भेंट हुई और बाद में राम ने बाली का वध किया और सुग्रीव को किष्किंधा का राज्य मिला।
अशोक वाटिका
अशोक वाटिका लंका में स्थित है, जहां रावण ने सीता को हरण करने के पश्चात बंधक बनाकर रखा था। ऐसा माना जाता है कि एलिया पर्वतीय क्षेत्र की एक गुफा में सीता माता को रखा गया था, जिसे 'सीता एलिया' नाम से जाना जाता है। यहां सीता माता के नाम पर एक मंदिर भी है।
   यहीं पर आंजनेय हनुमान ने निशानी के रूप में राम की अंगूठी सीता को सौंपी थी। ऐसा माना जाता है कि अशोक वाटिका में नाम अनुरूप अशोक के वृक्ष काफी मात्रा में थे। राम की विरह वेदना से दग्ध सीता अपनी इहलीला समाप्त कर लेना चाहती थीं। वे चाहती थीं कि अग्नि मिल जाए तो वे खुद को अग्नि को समर्पित कर दें। इतना हीं नहीं उन्होंने नूतन कोंपलों से युक्त अशोक के वृक्षों से भी अग्नि की मांग की थी।

तुलसीदास जी ने लिखा भी है- 'नूतन किसलय अनल समाना, देहि अगिनि जन करहि निदाना'। अर्थात तेरे नए पत्ते अग्नि के समान हैं। अत: मुझे अग्नि प्रदान कर और मेरे दुख का शमन कर।
रामसेतु
रामसेतु जिसे अंग्रेजी में एडम्स ब्रिज भी कहा जाता है, भारत (तमिलनाडु) के दक्षिण पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम द्वीप तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के मध्य चूना पत्थर से बनी एक श्रृंखला है। भौगोलिक प्रमाणों से पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू-मार्ग से आपस में जोड़ता था। यह पुल करीब 18 मील (30 किलोमीटर) लंबा है।

ऐसा माना जाता है कि 15वीं शताब्दी तक पैदल पार करने योग्य था। एक चक्रवात के कारण यह पुल अपने पूर्व स्वरूप में नहीं रहा। रामसेतु एक बार फिर तब सुर्खियों में आया था, जब नासा के उपग्रह द्वारा लिए गए चित्र मीडिया में सुर्खियां बने थे।

समुद्र पर सेतु के निर्माण को राम दूसरी बड़ी रणनीतिक जीत कहा जा सकता है, क्योंकि समुद्र की तरफ से रावण को कोई खतरा नहीं था और उसे विश्वास था कि इस विराट समुद्र को पार कोई भी उसे चुनौती नहीं दे सकता।

गोस्वामी तुलसीदासजी के मुताबिक जब दशानन रावण ने समुद्र पर पुल बनने की बात सुनी तो उसके दसों मुख एकसाथ बोल पड़े- बांध्यो जलनि‍धि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस, सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीश'। मानस के इस दोहे में आपको समुद्र के 10 पर्यायवाची भी मिल सकते हैं।

मानस और नासा से इतर महाकवि जयशंकर प्रसाद की पंक्तियों में भी रामसेतु होने के संकेत मिलते हैं-
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह,
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह।                                                                                                                                      साभार - वेबदुनिया http://hindi.webdunia.com

Thursday, June 27, 2013

बहुत ही मजबूत है केदारनाथ का मंदिर

   400 साल तक बर्फ में दबा रहा केदारनाथ का मंदिर
    अगर वैज्ञानिकों की मानें तो केदारनाथ का मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा था, लेकिन फिर भी वह सुरक्षित बचा रहा। 13वीं से 17वीं शताब्दी तक यानी 400 साल तक एक छोटा हिमयुग (Little Ice Age) आया था जिसमें हिमालय का एक बड़ा क्षेत्र बर्फ के अंदर दब गया था।
वैज्ञानिकों के मुताबिक केदारनाथ मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा फिर भी इस मंदिर को कुछ नहीं हुआ, इसलिए वैज्ञानिक इस बात से हैरान नहीं है कि ताजा जल प्रलय में यह मंदिर बच गया।
देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट के हिमालयन जियोलॉजिकल वैज्ञानिक विजय जोशी ने कहा कि 400 साल तक केदारनाथ के मंदिर के बर्फ के अंदर दबे रहने के बावजूद यह मंदिर सुरक्षित रहा, लेकिन वह बर्फ जब पीछे हटी तो उसके हटने के निशान मंदिर में मौजूद हैं जिसकी वैज्ञानिकों ने स्टडी की है उसके आधार पर ही यह निष्कर्ष निकाला गया है।
जोशी कहते हैं कि 13वीं से 17वीं शताब्दी तक यानी 400 साल तक एक छोटा हिमयुग आया था जिसमें हिमालय का एक बड़ा क्षेत्र बर्फ के अंदर दब गया था। मंदिर ग्लैशियर के अंदर नहीं था बल्कि बर्फ में ही दबा था।
वैज्ञानिकों के अनुसार मंदिर की दीवार और पत्थरों पर आज भी इसके निशान हैं। ये निशान ग्लैशियर की रगड़ से बने हैं। ग्लैशियर हर वक्त खिसकते रहते हैं। वे न सिर्फ खिसकते हैं बल्कि उनके साथ उनका वजन भी होता है और उनके साथ कई चट्टानें भी, जिसके कारण उनके मार्ग में आई हर वस्तुएं रगड़ खाती हुई चलती हैं। जब 400 साल तक मंदिर बर्फ में दबा रहा होगा तो सोचिए मंदिर ने इन ग्लैशियर के बर्फ और पत्थरों की रगड़ कितनी झेली होगी।
वैज्ञानिकों के मुताबिक मंदिर के अंदर भी इसके निशान दिखाई देते हैं। बाहर की ओर दीवारों के पत्थरों की रगड़ दिखती है तो अंदर की ओर पत्थर समतल हैं, जैसे उनकी पॉलिश की गई हो।
मंदिर का निर्माण : विक्रम संवत् 1076 से 1099 तक राज करने वाले मालवा के राजा भोज ने इस मंदिर को बनवाया था, लेकिन कुछ लोगों के अनुसार यह मंदिर 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। बताया जाता है कि मौजूदा केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे पांडवों ने एक मंदिर बनवाया था, लेकिन वह मंदिर वक्त के थपेड़ों की मार नहीं झेल सका।
वैसे गढ़वाल ‍विकास निगम अनुसार मौजूदा मंदिर 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। यानी छोटा हिमयुग का दौर जो 13वीं शताब्दी में शुरू हुआ था उसके पहले ही यह मंदिर बन चुका था।
लाइकोनोमेट्री डेटिंग : वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने केदारनाथ इलाके की लाइकोनोमेट्री डेटिंग भी की। इस तकनीक से शैवाल और उनके कवक को मिलाकर उनके समय का अनुमान लगाया जाता है। इस तकनीक के अनुसार केदारनाथ के इलाके में ग्लैशियर का निर्माण 14वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ और इस घाटी में ग्लैशियर का बनना 1748 ईसवीं तक जारी रहा यानी तकरीबन 400 साल।
जोशी ने कहा कि सबसे बड़ी बात यह है कि लाखों साल पहले केदारनाथ घाटी बनी है चोराबरी ग्लैशियर के पीछे हटने से। जब ग्लैशियर पीछे हटते हैं तो वे रोड रोलर की तरह अपने नीचे की सारी चट्टानों को पीस देते हैं और साथ में बड़ी-बड़ी चट्टानों के टुकड़े छोड़ जाते हैं।
जोशी कहते हैं कि ऐसी जगह में मंदिर बनाने वालों की एक कला थी। उन्होंने एक ऐसी जगह और एक ऐसा सेफ मंदिर बनाया कि आज तक उसे कुछ नुकसान नहीं हुआ। लेकिन उस दौर के लोगों ने ऐसी संवेदनशील जगह पर आबादी भी बसने दी तो स्वाभाविक रूप से वहां नुकसान तो होना ही था।
मजबूत है केदारनाथ का मंदिर : वैज्ञानिक डॉ. आरके डोभाल भी इस बात को दोहराते हैं। डोभाल कहते हैं कि मंदिर बहुत ही मजबूत बनाया गया है। मोटी-मोटी चट्टानों से पटी है इसकी दीवारें और उसकी जो छत है वह एक ही पत्थर से बनी है।
85 फीट ऊंचा, 187 फीट लंबा और 80 फीट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फीट मोटी है और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। मंदिर को 6 फीट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है। यह हैरतअंगेज है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल ‍दी गई होगी। जानकारों का मानना है कि पत्थरों को एक-दूसरे में जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया होगा। यह मजबूती और तकनीक ही मंदिर को नदी के बीचोबीच खड़े रखने में कामयाब हुई है।
केदार घाटी : केदानाथ धाम और मंदिर तीन तरफ पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फुट ऊंचा केदारनाथ तो दूसरी तरफ है 21 हजार 600 फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ है 22 हजार 700 फुट ऊंचा भरतकुंड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पांच ‍नदियों का संगम भी है यहां। मं‍दाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में से कुछ को काल्पनिक माना जाता है। इस इलाके में मंदाकिनी ही स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। यहां सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में जबरदस्त पानी।
भविष्य की आशंका : दरअसल केदारनाथ का यह इलाका चोराबरी ग्लैशियर का एक हिस्सा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लैशियरों के लगातार ‍पिघलते रहने और चट्टानों के खिसकते रहने से आगे भी इस तरह का जलप्रलय या अन्य प्राकृतिक आपदाएं जारी रहेंगी।
पुराणों की भविष्यवाणी : पुराणों की भविष्यवाणी अनुसार इस समूचे इलाके के तीर्थ लुप्त हो जाएंगे। माना जाता है कि जिस दिन नर और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे, बद्रीनाथ का मार्ग पूरी तरह बंद हो जाएगा। भक्त बद्रीनाथ के दर्शन नहीं कर पाएंगे। उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा इस बात की ओर इशारा करती है। पुराणों अनुसार आने वाले कुछ वर्षों में वर्तमान बद्रीनाथ धाम और केदारेश्वर धाम लुप्त हो जाएंगे और वर्षों बाद भविष्य में भविष्यबद्री नामक नए तीर्थ का उद्गम होगा।
  Source--- http://hindi.webdunia.com/news-national/400-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%A4%E0%A4%95-%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AB-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A4%BE-%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5-%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B0-1130627033_1.htm

Wednesday, June 26, 2013

पांचवें ज्योतिर्लिंग वाला केदारनाथमंदिर - स्थापना की कहानी, आपदा से पहले और आपदा के बाद मंदिर की तस्वीरें

उत्तराखंड में भीषण तबाही में नष्ट हो गया केदारनाथ मंदिर इलाका और आसपास के गांव। अब आप कभी केदारनाथ जाएंगे तो प्राचीन केदारनाथ मंदिर और पूरा इलाका वह नहीं होगा जो आपने चारोधाम की तीर्थयात्रा कर चुके अपने बुजुर्गों से सुने होंगे या उनकी लाई हुई तस्वीरों को देखें होंगे। यह ठीक उसी तरह जिस तरह प्राचीन मंदिर का प्रारूप अभीहाल तक नहीं था। बदलते युग में मंदिर व आसपास के परिवेश में जो बदलाव हुआ उसे मानवों ने किया मगर इसबार दैवीआपदा का तांडव जो बदलाव लाया है वह भयावह है। यह शायद सदियों से इस प्राकृतिक शांत क्षेत्र से मानवों की छेड़छाड़ का नतीजा है।
  मैंने यहां तस्वीरें व इतिहास विभिन्न स्रोंतों से संकलित करके उस इतिहास के एक साथ प्रस्तुत करने की कोशिश की है जिससे आपको स्थापना से लेकर आजतक के केदारनाथ का जानकारी मिल सके। पूरा विवरण इन शीर्षकों में विभाजित है। फोटो मैंने दैनिक भाष्कर की वेबसाइट से साभार लिया है। सामग्री भी दैनिक भाष्कर के अलावा वेबदुनिया, बीबीसी हिंदी व अन्य कुछ समाचार स्रोंतों से साभार लिया है। कृपया अवलोकन करें....
   
१-स्थापना की कहानी।
  २-उत्तराखंड: बाढ़ के बीच कैसे बचा केदारनाथ मंदिर?
  ३-लुप्त हो जाएंगे बद्रीनाथ और केदारनाथ (भविष्यवाणी)
  ४-उत्तराखंड आपदा : जानिए पूरा घटनाक्रम




 










  फोटो व विवरण साभार-http://religion.bhaskar.com/article/JYO-DD-jyts-know-the-importance-of-kedarnath-dham-4301168-NOR.html?seq=1&RHS-religion-1=

    केदारनाथ मंदिर प्राचीन है। ऐसा माना जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने भारत में चार धाम स्थापित करने के यहीं समाधी ली थी। तब शंकराचार्य की आयु मात्र 32 वर्ष थी। आदिगुरु ने ही इस मंदिर का निर्माण करवाया था। हिमालय में बसा केदारनाथ उत्तरांचल राज्य का एक कस्बा है। यह रुद्रप्रयाग की एक नगर पंचायत है। हिन्दू धर्म के लिए एक पवित्र स्थान है। केदारनाथ शिवलिंग 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ ही चार धामों में भी शामिल है। श्रीकेदारनाथ मंदिर 3,593 फीट की ऊँचाई पर बना हुआ एक भव्य एवं विशाल मंदिर है। इतनी ऊंचाई पर मंदिर को कैसे बनाया गया, यह आज भी एक रहस्य के समान है। शास्त्रों के अनुसार सतयुग में शासन करने वाले एक राजा हुए थे उनका नाम था केदार। राजा केदार के नाम पर भी इस स्थान को केदार पुकारा जाने लगा। राजा केदार ने सातों महाद्वीपों पर शासन किया था। वे एक बहुत धर्म के मार्ग पर चलने और तेजस्वी राजा थे।
  उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के अनुसार शिवपुराण की कोटीरुद्र संहिता के अनुसार बदरीवन में विष्णु के अवतार नर-नारायण पार्थिव शिवलिंग बनाकर भगवान शिव का नित्य पूजन करते थे। उनके पूजन से प्रसन्न होकर भगवान शंकर वहां प्रकट हुए तथा वरदान मांगनें को कहा तब जगत के कल्याण के लिए नर-नारायण ने शंकर को वहीं पर स्थापित होने के लिए वरदान मांगा। शिव प्रसन्न हुए तथा कहा कि यह क्षेत्र आज से केदार क्षेत्र के नाम से जाना जाएगा।
   महादेव ने कहा कि जो भी भक्त केदारनाथ के साथ ही नर-नारायण के दर्शन करेगा वह सभी पापों से मुक्त होगा और अक्षय पुण्य प्राप्त करेगा। ऐसे भक्त मृत्यु के बाद शिवलोक प्राप्त करेंगे। इसके बाद शिवजी प्रसन्न होकर ज्योति स्वरूप में वहां स्थित लिंग में समाविष्ट हो गए। देश में बारह ज्योर्तिलिंगों में से इस ज्योतिर्लिंग का क्रम पांचवां है। कई ऋषियों एवं योगियों ने यहां भगवान शिव की अराधना की है और मनचाहे वरदान भी प्राप्त किए हैं।
केदारनाथ में शिवजी को कड़ा चढ़ाने का विशेष महत्व माना जाता है। जो भी व्यक्ति वहां कड़ा चढ़ाकर शिव सहित उस कड़े के एवं नर-नारायण पर्वत के दर्शन करता है। वह फिर जन्म और मृत्यु के चक्र में नहीं फंसता है। ऐसे भक्त को भवसागर से मुक्ति प्राप्ति होती है।
शिवपुराण के कोटिरुद्र संहिता में वर्णन है कि-
केदारेशस्य भक्ता ये मार्गस्थास्तस्य वै मृता:। तेपि मुक्ता भवन्त्येव नात्र कार्या विचारणा।।
शिवपुराण के अनुसार केदारनाथ के मार्ग में या उस क्षेत्र में जो भी भक्त मृत्यु को प्राप्त होगा वह भी भवसागर से मुक्ति प्राप्त करेगा।
केदारनाथ क्षेत्र में पंहुचकर उनके पूजन के पश्चात वहां का जल पी लेने से भी मनुष्य मुक्ति को प्राप्त करता है। वहां के जल का पुराणों में विशेष महत्व बताया गया है।
 पं. शर्मा के अनुसार 18 जून 2013 मंगलवार के दिन हस्त नक्षत्र था और चंद्रमा कन्या राशि में था। मंगल ग्रह वृषभ राशि में था जो शुक्र के स्वामित्व वाली राशि है। मंगल, शुक्र शत्रु हैं तथा वक्री शनि का उच्च का होकर राहु के साथ होना इस तबाही का मुख्य कारण बना है। जीवन मंत्र पर पूर्व में कई बार यह भविष्यवाणी की जा चुकी है कि किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा के आने की संभावनाएं हैं।
केदारनाथ क्षेत्र में एक झील है जिसमें अधिकांश समय बर्फ तैरती रहती है। इस झील का संबंध महाभारत काल से है। ऐसा माना जाता है कि इसी झील से पाण्डव पुत्र युद्धिष्ठिर स्वर्ग की ओर गए थे।
पं. शर्मा ने बताया कि इस जल आपदा के साथ ही कई स्थानों पर भूकंप के भी योग बन रहे हैं। देश-दुनिया के लिए भी आने वाले समय में प्राकृतिक आपदा के योग बने हुए हैं। विशेषकर जापान, आसाम, मलेशिया, चीन आदि। इसके अलावा भारत में दिल्ली, कश्मीर, उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्र एवं राजस्थान के लिए आने वाले समय में प्राकृतिक आपदा आ सकती है। इन क्षेत्रों में भारी वर्षा के योग बन रहे हैं।
केदारनाथ धाम मंदिर से करीब छह किलोमीटर दूर एक पर्वत स्थित है। इस पर्वत का नाम है चौखम्बा पर्वत। यहां वासुकी नाम का तालब है जहां ब्रह्म कमल काफी अधिक होते हैं। शास्त्रों के अनुसार ब्रह्म कमल के दर्शन करने पर पुण्य लाभ प्राप्त होता है। इसी वजह से काफी लोग यहां ब्रह्म कमल देखने आते हैं।
ज्योतिष के अनुसार जब-जब मंगल वृषभ राशि में आता है प्राकृतिक आपदा के योग बनते हैं। लेकिन इस वर्ष 27 वर्षों बाद वक्री शनि का उच्च में होना बड़ी घटना का कारण बना है।
उत्तर के राज्यों में दिल्ली तक एवं उत्तर प्रदेश में भी आगे बाढ़ का खतरा बना रहेगा। 4 जुलाई तक इस खतरे से सभी को सावधान रहना चाहिए। 
१५-१६ जून २०१३ को बादल फटने के बाद हुई तबाही के बाद ऐसा दिख रहा है केदारनाथ धाम मंदिर...





उत्तराखंड: बाढ़ के बीच कैसे बचा केदारनाथ मंदिर?
- डॉ. खड्ग सिंह वल्दिया (मानद प्रोफेसर, जेएनसीएएसआर)
http://hindi.webdunia.com/samayik-bbchindi/%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%82%E0%A4%A1-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A2%E0%A4%BC-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%9A-%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%9A%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5-%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B0-1130624058_1.htm
  आखिर उत्तराखंड में इतनी सारी बस्तियां, पुल और सड़कें देखते ही देखते क्यों उफनती हुई नदियों और टूटते हुए पहाड़ों के वेग में बह गईं? जिस क्षेत्र में भूस्खलन और बादल फटने जैसी घटनाएं होती रही हैं, वहां इस बार इतनी भीषण तबाही क्यों हुई? उत्तराखंड की त्रासद घटनाएं मूलतः प्राकृतिक थीं। अति-वृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ का होना प्राकृतिक है लेकिन इनसे होने वाला जान-माल का नुकसान मानव-निर्मित हैं। अंधाधुंध निर्माण की अनुमति देने के लिए सरकार जिम्मेदार है। वो अपनी आलोचना करने वाले विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती। यहां तक कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों की भी अच्छी-अच्छी राय पर सरकार अमल नहीं कर रही है। वैज्ञानिक नजरिए से समझने की कोशिश करें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस बार नदियां इतनी कुपित क्यों हुईं। नदी घाटी काफी चौड़ी होती है। बाढ़ग्रस्त नदी के रास्ते को फ्लड वे (वाहिका) कहते हैं। यदि नदी में सौ साल में एक बार भी बाढ़ आई हो तो उसके उस मार्ग को भी फ्लड वे माना जाता है। इस रास्ते में कभी भी बाढ़ आ सकती है। लेकिन इस छूटी हुई जमीन पर निर्माण कर दिया जाए तो खतरा हमेशा बना रहता है।
नदियों का पथ : केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं। कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी। लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी। जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपनी पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी। जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए। केदारनाथ मंदिर इसलिए बच गया क्योंकि ये मंदाकिनी की पूर्वी और पश्चिमी पथ के बीच की जगह में बहुत साल पहले ग्लेशियर द्वारा छोड़ी गई एक भारी चट्टान के आगे बना था। नदी के फ्लड वे के बीच मलबे से बने स्थान को वेदिका या टैरेस कहते हैं। पहाड़ी ढाल से आने वाले नाले मलबा लाते हैं। हजारों साल से ये नाले ऐसा करते रहे हैं।
पुराने गांव ढालों पर बने होते थे। पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे। वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे। लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गांव, संस्थान, होटल इत्यादि बना दिए गए हैं। यदि आप नदी के स्वाभाविक, प्राकृतिक पथ पर निर्माण करेंगे तो नदी के रास्ते में हुए इस अतिक्रमण को हटाने के लिए बाढ़ अपना काम करेगी ही। यदि हम नदी के फ्लड वे के किनारे सड़कें बनाएंगे तो वे बहेंगे ही।
विनाशकारी मॉडल : मैं इस क्षेत्र में होने वाली सड़कों के नुकसान के बारे में भी बात करना चाहता हूं। पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुंचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं। इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते। चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता। यह काफी महंगा भी होता है। भू-स्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है। इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं। ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे। ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू इत्यादि से बने होते हैं। ये अंदर से ठोस नहीं होते। काटने के कारण ये मलबे और ज्यादा अस्थिर हो गए हैं। इसके अलावा यह भी दुर्भाग्य की बात है कि इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय नहीं किया। उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था और जो नालियां पहले से बनी हुई हैं उन्हें साफ रखना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता। हिमालय अध्ययन के अपने पैंतालिस साल के अनुभव में मैंने आज तक भू-स्खलन के क्षेत्रों में नालियां बनते या पहले के अच्छे इंजीनियरों की बनाई नालियों की सफाई होते नहीं देखा है। नालियों के अभाव में बरसात का पानी धरती के अंदर जाकर मलबों को कमजोर करता है। मलबों के कमजोर होने से बार-बार भू-स्खलन होते रहते हैं।  इन क्षेत्रों में जल निकास के लिए रपट्टा (काज-वे) या कलवर्ट (छोटे-छोटे छेद) बनाए जाते हैं। मलबे के कारण ये कलवर्ट बंद हो जाते हैं। नाले का पानी निकल नहीं पाता। इंजीनियरों को कलवर्ट की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी अपने मलबे के साथ स्वत्रंता के साथ बह सके।
हिमालयी क्रोध : पर्यटकों के कारण दुर्गम इलाकों में होटल इत्यादि बना लिए गए हैं। ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने होते हैं जो मलबों से बना होता है। नाले से आए मलबे पर मकानों का गिरना तय था। हिमालय और आल्प्स जैसे बड़े-बड़े पहाड़ भूगर्भीय हलचलों (टैक्टोनिक मूवमेंट) से बनते हैं। हिमालय एक अपेक्षाकृत नया पहाड़ है और ये अभी भी उसकी ऊंचाई बढ़ने की प्रक्रिया में है। हिमालय अपने वर्तमान वृहद् स्वरूप में करीब दो करोड़ वर्ष पहले बना है। भू-विज्ञान की दृष्टि से किसी पहाड़ के बनने के लिए यह समय बहुत कम है। हिमालय अब भी उभर रहा है, उठ रहा है यानी अब भी वो हरकतें जारी हैं जिनके कारण हिमालय का जन्म हुआ था। हिमालय के इस क्षेत्र को ग्रेट हिमालयन रेंज या वृहद् हिमालय कहते हैं। संस्कृत में इसे हिमाद्रि कहते हैं यानी सदा हिमाच्छादित रहने वाली पर्वत श्रेणियां। इस क्षेत्र में हजारों-लाखों सालों से ऐसी घटनाएं हो रही हैं। प्राकृतिक आपदाएं कम या अधिक परिमाण में इस क्षेत्र में आती ही रही हैं। केदारनाथ, चौखम्बा या बद्रीनाथ, त्रिशूल, नन्दादेवी, पंचचूली इत्यादि श्रेणियां इसी वृहद् हिमालय की श्रेणियां हैं। इन श्रेणियों के निचले भाग में, करीब-करीब तलहटी में कई लम्बी-लम्बी झुकी हुई दरारें हैं। जिन दरारों का झुकाव 45 डिग्री से कम होता है उन्हें झुकी हुई दरार कहा जाता है।
कमजोर चट्टानें : वैज्ञानिक इन दरारों को थ्रस्ट कहते हैं। इनमें से सबसे मुख्य दरार को भू-वैज्ञानिक मेन सेंट्रल थ्रस्ट कहते हैं। इन श्रेणियों की तलहटी में इन दरारों के समानांतर और उससे जुड़ी हुई ढेर सारी थ्रस्ट हैं। इन दरारों में पहले भी कई बार बड़े पैमाने पर हरकतें हुईं थी। धरती सरकी थी, खिसकी थी, फिसली थीं, आगे बढ़ी थी, विस्थापित हुई थी। परिणामस्वरूप इस पट्टी की सारी चट्टानें कटी-फटी, टूटी-फूटी, जीर्ण-शीर्ण, चूर्ण-विचूर्ण हो गईं हैं। दूसरों शब्दों में कहें तो ये चट्टानें बेहद कमजोर हो गई हैं। इसीलिए बारिश के छोटे-छोटे वार से भी ये चट्टाने टूटने लगती हैं, बहने लगती हैं और यदि भारी बारिश हो जाए तो बरसात का पानी उसका बहुत सा हिस्सा बहा ले जाता है। कभी-कभी तो यह चट्टानों के आधार को ही बहा ले जाता है। भारी जल बहाव में इन चट्टानों का बहुत बड़ा अंश धरती के भीतर समा जाता है और धरती के भीतर जाकर भीतरघात करता है। धरती को अंदर से नुकसान पहुंचाता है। इसके अलावा इन दरारों के हलचल का एक और खास कारण है। भारतीय प्रायद्वीप उत्तर की ओर साढ़े पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से सरक रहा है यानी हिमालय को दबा रहा है। धरती द्वारा दबाए जाने पर हिमालय की दरारों और भ्रंशों में हरकतें होना स्वाभाविक है।
लुप्त हो जाएंगे बद्रीनाथ और केदारनाथ (भविष्यवाणी)
   भविष्य में गंगा नदी पुन: स्वर्ग चली जाएगी फिर गंगा किनारे बसे तीर्थस्थलों का कोई महत्व नहीं रहेगा। वे नाममात्र के तीर्थ स्थल होंगे। केदारनाथ को जहां भगवान शंकर का आराम करने का स्थान माना गया है वहीं बद्रीनाथ को सृष्टि का आठवां वैकुंठ कहा गया है, जहां भगवान विष्णु 6 माह निद्रा में रहते हैं और 6 माह जागते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह 12 धाराओं में बंट गई। इस स्थान पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से विख्यात हुई और यह स्थान बद्रीनाथ, भगवान विष्णु का वास बना। अलकनंदा की सहचरणी नदी मंदाकिनी नदी के किनारे केदार घाटी है, जहां बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक सबसे महत्वपूर्ण केदारेश्वर है। यह संपूर्ण इलाका रुद्रप्रयाग जिले का हिस्सा है। रुद्रप्रयाग में भगवान रुद्र का अवतार हुआ था।
केदार घाटी में दो पहाड़ हैं- नर और नारायण पर्वत। पुराणों अनुसार गंगा स्वर्ग की नदी है और इस नदी को किसी भी प्रकार से प्रदूषित करने और इसके स्वाभाविक रूप से छेड़खानी करने का परिणाम होगा संपूर्ण जंबूखंड का विनाश और गंगा का पुन: स्वर्ग में चले जाना।
हिंदुओं के अधिकतर तीर्थस्‍थल गंगा, यमुना, कृष्णा, गोदावरी, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, नर्मदा आदि नदियों के किनारे स्थित हैं। भारत के लोगों ने जहां गंगा नदी को पूरी तरह से तबाह कर दिया है वहीं सभी हिंदू तीर्थस्थलों पर व्यापारिक विकास और गंदगी के चलते बर्बाद कर दिया है। इस सबके चलते अब गंगा ने पुन: स्वर्ग में जाने की तैयारी कर ली है।
पुराणों अनुसार भूकंप, जलप्रलय और सूखे के बाद गंगा लुप्त हो जाएगी और इसी गंगा की कथा के साथ जुड़ी है बद्रीनाथ और केदारनाथ तीर्थस्थल की रोचक कहानी...
  नृसिंह भगवान की मूर्ति : अब बद्रीनाथ में नहीं होंगे भगवान के दर्शन, क्योंकि मान्यता अनुसार जोशीमठ में स्थित नृसिंह भगवान की मूर्ति का एक हाथ साल-दर-साल पतला होता जा रहा है। माना जाता है कि जिस दिन नर और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे, बद्रीनाथ का मार्ग पूरी तरह बंद हो जाएगा। भक्त बद्रीनाथ के दर्शन नहीं कर पाएंगे। उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा इस बात की ओर इशारा करती है कि मनुष्य ने विकास के नाम पर तीर्थों को विनाश की ओर धकेला है और तीर्थों को पर्यटन की जगह समझकर मौज-मस्ती करने का स्थान समझा है तो अब इसका भुगतान भी करना होगा। पुराणों अनुसार आने वाले कुछ वर्षों में वर्तमान बद्रीनाथ धाम और केदारेश्वर धाम लुप्त हो जाएंगे और वर्षों बाद भविष्य में भविष्यबद्री नामक नए तीर्थ का उद्गम होगा।
अलकनंदा और मंदाकिनी इन दोनों नदियों का पवित्र संगम रुद्रप्रयाग में होता है और वहां से ये एक धारा बनकर पुन: देवप्रयाग में ‘भागीरथी-गंगा’ से संगम करती हैं। देवप्रयाग में गंगा उत्तराखंड के पवित्र तीर्थ 'गंगोत्री' से निकलकर आती है। देवप्रयाग के बाद अलकनंदा और मंदाकिनी का अस्तित्व विलीन होकर गंगा में समाहित हो जाता है तथा वहीं गंगा प्रथम बार हरिद्वार की समतल धरती पर उतरती है। भगवान केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद बद्री क्षेत्र में भगवान नर-नारायण का दर्शन करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे जीवन-मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। इसी आशय को शिवपुराण के कोटि रुद्र संहिता में भी व्यक्त किया गया है-

तस्यैव रूपं दृष्ट्वा च सर्वपापै: प्रमुच्यते।
जीवन्मक्तो भवेत् सोऽपि यो गतो बदरीबने।।
दृष्ट्वा रूपं नरस्यैव तथा नारायणस्य च।
केदारेश्वरनाम्नश्च मुक्तिभागी न संशय:।।

बद्रीनाथ की कथा अनुसार सतयुग में देवताओं, ऋषि-मुनियों एवं साधारण मनुष्यों को भी भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन प्राप्त होते थे। इसके बाद आया त्रेतायुग- इस युग में भगवान सिर्फ देवताओं और ऋषियों को ही दर्शन देते थे, लेकिन द्वापर में भगवान विलीन ही हो गए। इनके स्थान पर एक विग्रह प्रकट हुआ। ऋषि-मुनियों और मनुष्यों को साधारण विग्रह से संतुष्ट होना पड़ा। शास्त्रों अनुसार सतयुग से लेकर द्वापर तक पाप का स्तर बढ़ता गया और भगवान के दर्शन दुर्लभ हो गए। द्वापर के बाद आया कलियुग, जो वर्तमान का युग है।
  पुराणों में बद्री-केदारनाथ के रूठने का जिक्र मिलता है। पुराणों अनुसार कलियुग के पांच हजार वर्ष बीत जाने के बाद पृथ्‍वी पर पाप का साम्राज्य होगा। कलियुग अपने चरम पर होगा तब लोगों की आस्था लोभ, लालच और काम पर आधारित होगी। सच्चे भक्तों की कमी हो जाएगी। ढोंगी और पाखंडी भक्तों और साधुओं का बोलबाला होगा। ढोंगी संतजन धर्म की गलत व्याख्‍या कर समाज को दिशाहीन कर देंगे, तब इसका परिणाम यह होगा कि धरती पर मनुष्यों के पाप को धोने वाली गंगा स्वर्ग लौट जाएगी।
   उत्तराखंड आपदा : जानिए पूरा घटनाक्रम
चारधाम के यात्रियों को क्या पता था कि 16 जून की रात उनके लिए कहर लेकर आ रही है। उत्तराखंड के चारधाम में मौसम का बदलना आम बात है। कभी वहां बारिश होने लगती है तो कभी मौसम साफ हो जाता है। उस रात भी केदारनाथ के तीर्थयात्रियों को लगा कि आसमान से बरस रहा पानी सामान्य बारिश है। उन्हें क्या पता था कि यह पानी प्रलय का रूप लेकर उन्हें ही लील जाएगा।
   उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित चारधाम में से एक केदारनाथ मंदिर में 16 जून की रात बादल फटने और ग्लैशियर टूटने से पानी का सैलाब आ गया। पानी के साथ पहाड़ों के पत्थर भी बह रहे थे। मंदिर परिसर और हमेशा गुलजार रहने वाला रामबाड़ा इलाका पूरी तरह से पानी और पत्थरों की चपेट में आ गए। उस समय वहां करीब 5 से 10 हजार लोग फंसे हुए थे। पानी की चपेट में आसपास के निर्माणधीन मकान, होटल तिनकों की तरह पानी में बहने लगे। लोग जान बचाने के लिए पहाड़ों और पेड़ों की तरफ भागने लगे। रुद्रप्रयाग जिले में 40 होटल सहित 73 इमारतें अलकनंदा नदी की उफनती धारा में बह गईं।
- भारी भूस्खलन और सड़कें टूटने के कारण प्रसिद्ध चार धाम यात्रा रोक दी गई है। केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री कुल 71440 लोग फंसे हुए थे।
- केदारनाथ मंदिर परिसर का एक बड़ा हिस्सा पानी में बहा।
- सेना ने यात्रियों को बचाने के लिए चलाया 'ऑपरेशन गंगा।'
- सेना अनुसार करीब 18 हजार 500 तीर्थयात्री उत्तराखंड में फंसे हुए।
- केदारनाथ में जलजले से सोन बाजार झील में तब्दील।
- टीम इंडिया के पूर्व क्रिकेटर हरभजन सिंह भी हेमकुंड साहिब की यात्रा के दौरान जोशीमठ में फंसे।
 - उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा केदारनाथ मंदिर सुरक्षित। एक वर्ष तक दर्शनों पर प्रतिबंध।
 - आपदा में हजारों लोग बेघर, 60 गांव लापता।
- जलजले में जिंदा बचे लोगों ने कहा सामने तैर रही थीं अपनों की लाशें।
- प्राकृतिक आपदा से चार सड़क खंडों पर 50 बड़े भूस्खलन।
- रक्षा मंत्रालय ने सेना और नौसेना के 45 से ज्यादा हेलीकॉप्टर और 10000 सैनिकों को वर्षा से घिरे पर्वतीय राज्य में तैनात किया।
- सेना ने बचाव कार्य तेज किया।
 तीर्थयात्रियों से लूट और महिला तीर्थयात्रियों से बलात्कार की अफवाहों से राहत कार्यों में अव्यवस्था।
- हरिद्वार में गंगा से निकाले 48 शव।
- बचाव अभियान तेज, 40 हेलीकॉप्टर तैनात।
- उत्तराखंड के मंत्री बोले, कब्रिस्तान में बदला केदारनाथ।
- तबाही के बाद बिछी लाशें सड़ने की कगार पर।
- तबाही का दर्द, साधुओं के वेश में शैतान।
- सेना ने बचाया 18 हजार लोगों को।
- उत्तराखंड आपदा पीड़ितों से मनमाने दामों की वसूली।
- उत्तराखंड त्रासदी पर राष्ट्रपति से मिलीं उमा।
- उमा ने कहा धारा देवी का मंदिर हटाने से आई विपदा।
- सरकार का दावा है कि उसने मंगलवार तक 97 हज़ार लोगों को बचा लिया है सरकार के पास ऐसा भी कोई आंकड़ा नहीं है कि कितने लोग हर साल यात्रा करने जाते हैं.केदारनाथ में एक दिन में औसतन 13 से 15 हज़ार लोग होते हैं. हज़ारों लोग रास्ते में होते हैं जो दर्शन के लिए जा रहे होते हैं या लौट रहे होते हैं.
- केदारनाथ में मारे गए लोगों की सामूहिक क्लिक करें अंत्येष्टि की जाएगी.

Thursday, June 13, 2013

मुर्शिदाबाद के इतिहास की टूटी कड़ी जोड़ेंगे सागरदिघी इलाके से मिले गुप्तकालीन सोने के सिक्के !

  
 पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में सागरदिघी थाना इलाके के राष्ट्रीय राजमार्ग नं. 34 पर अहिरान पुल के पास निर्माण के दौरान 1 जून 2013 को गुप्तकालीन सोने के11 सिक्के मिले हैं। इन सिक्कों की तिथि चौथी शताब्दी बताई गई है। इससे पहले भी पश्चिम बंगाल से गुप्तकालीन  सिक्के मिल चुके हैं। ये सिक्के कालीघाट से मिले थे। अब जो सिक्के सागरदिघी इलाके से मिले हैं वे गुप्त साम्राज्य की सीमाओं के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इतना ही नहीं ये सिक्के मुर्शिदाबाद के इतिहास वह कड़ी बन सकते हैं जिसपर प्रकाश डालने के लिए महत्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। मुर्शिदाबाद के बसने और विकसित होने का इतिहास प्रथम व द्वितीय शताब्दी का मिलता है। तब यहां कुषाणों का साम्राज्य था। इसके बाद छठवीं और सातवीं शताब्दी में शशांक वंश के कार्यकाल में मुर्शिदाबाद का उल्लेख मिलता है। बीच में मुर्शिदाबाद के इतिहास की जो कड़ी नदारद वह शायद इन नए साक्ष्यों से खोजना संभव होगा। यह काल गुप्तों का है और गुप्तकालीन सिक्कों का यहां से मिलना इस बात का संकेत है कि मुर्शिदाबाद तब भी महत्वपूर्ण केंद्र था। अभी जो सिक्के मिले हैं उनपर अध्ययन किया जाना बाकी है। फिलहाल जो तथ्य सामने आए हैं उनके मुताबिक ये चंद्रगुप्त द्वितीय और समुद्रगुप्त के जारी किए गए सिक्के हैं। सिक्के के एक तरफ गरुड़ स्तम्भ के साथ राजा खड़ा है और दूसरी तरफ देवी लक्ष्मी की आकृति है। पश्चिम बंगाल के पुरातत्व विभाग के उपनिदेशक अमर राय ने भी यह पुष्टि की है कि जिस जगह से ये सिक्के मिले हैं वह शशाक राजाओं की राजधानी कर्णसुवर्ण से काफी करीब है। यही नहीं इसके पास ही व्यापारिक केंद्र भागीरथी भी था जहां छठवीं शताब्दी में काफी व्यापारिक गतिविधियां हुआ करती थी। अमर राय इस पुरातात्विक स्थल व सिक्कों का मुआयना करने के बाद इनके समुद्रगुप्त व चंद्रगुप्त द्वितीय के होने की पुष्टि की है।  महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार यह ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के संघ को परास्त किया था।

 अधिकतर सिक्के गांववालों ने गायब कर दिए ?
   अखबारों व समाचार एजंसियों के हवाले से छपी खबरों के मुताबिक करीब 60 सिक्के थे जिसमें से सिर्फ 11 ही मिल पाए। दरअसल वहां जयचंद मंडल और मिलन मंडल काम कर रहे थे तभी उनको फेकी गई बालू में कुछ चमकता हुआ दिखा। स्थानीय निवासी सरल मांझी की मानें तो जो बालू साइट पर डाली गई थी उसमें ही ये सिक्के थे। कई दिन की बारिश से जब उसपर का कीचड़ हटा तो ये कुछ सिक्के चमकते हुए दिखे। जैसे ही यह खबर पास के बाबूपाड़ा और डांगापाड़ा गांव के लोगों तक पहुंची, सभी वहां पहुंच गए और बालू को खगालने लगे। गांववालों का तो कहना है कि उसदिन तक 8-10 सिक्के ही मिले थे मगर 24 घंटे में इसकी तादाद छह गुनी यानी 60 के आसपास पहुंच गई। इन सिक्कों के ऐतिहासिक महत्व का होने की पुष्टि होने के बाद जसि जगह से बालू लाई जा रही थी उस जगह ( मिर्जापुर और गनकार ) पर  जंगीपुर के बीडीओ को सूचित किए जाने के बाद पुलिस का पहरा लगा दिया गया। मगर तबतक काफी देर हो चुकी थी। तमाम सिक्के लेकर गांववाले गायब हो गए। दरअसल अखबारों में जब यह खबर छपी तब मुर्शिदाबाद के भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की क्यूरेटर मौसमी बनर्जी को यह सूचना मिल पाई। उन्होंने ही बताया कि ये सिक्के गुप्तकालीन हैं। एक दिन बाद ही उस पूरे इलाके की घेरेबंदी कर दी गई। तीनदिन बाद भा वहां से दो सिक्के मिले। सूत्रों की मानें तो गांववाले जो सिक्के ले गए उस एक सिक्के को 70 हजार रुपए में बेंच दिया है। पुलिस छानबीन में लगी है। एक स्थानीय अयन घोष का कहना है कि एक स्वर्णकार उसे एक सिक्के के 25000 रुपए देने को कह रहा था मगर पंचायत प्रधान ने ऐसा करने से मना करके इसकी सूचना बीडीओ को देने के कहा। यह अलग बात है कि जो सिक्के गांववाले ले गए उनको वापस नहीं लाया जा सका है।

समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त  
   ३२० ई.  में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना। गुप्त साम्राज्य की समृद्धि का युग यहीं से आरंभ होता है। 335 ई. में चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद उसका तथा कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठा। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है।  समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपधि दी। उसका सबसे महत्वपूर्ण अभियान दक्षिण की तरफ़ (दक्षिणापथ) था। इसमें उसके बारह विजयों का उल्लेख मिलता है।
  समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर पश्चिमी  पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे। दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमत्तर भारत की विदेशी शक्तियांउसकी अधीनता स्वीकार करती थीं। 

    चन्द्रगुप्त द्वितीय ३७५ ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ। वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था। वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने ३७५ से ४१५ ई. तक (४०   वर्ष) शासन किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर अपनी विजय हासिल की जिसके बाद गुप्त साम्राज्य एक शक्तिशाली राज्य बन गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में क्षेत्रीय तथा सांस्कृतिक विस्तार हुआ। हालांकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं। उसने विक्रयांक, विक्रमादित्य, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की। उसने नागवंश, वाकाटक और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये।
   विद्वानों को इसमें संदेह है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा विक्रमादित्य एक ही व्यक्ति थे। उसके शासनकाल में चीनी बौद्ध यात्री फाहियान ने 399 ईस्वी से 414 ईस्वी तक भारत की यात्रा की। उसने भारत का वर्णन एक सुखी और समृद्ध देश के रूप में किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल को स्वर्ण युग भी कहा गया है।
 अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसका साम्राज्य पश्चिमी में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तापघटी से दक्षिण में नमर्दा नदी तक विस्तृत था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल कला-साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। उसके दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय प्राप्त था। उसके दरबार में नौ रत्न थे- कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि उल्लेखनीय थे।
 ( साभार- टाईम्स आफ इंडिया ( कोलकाता संस्करण ), द इंडियन एक्सप्रेस ( कोलकाता संस्करण ), प्रभात खबर व हिंदी विकीपीडिया)।
 


  

Thursday, April 25, 2013

यहां हुआ था हनुमानजी का जन्म...



इतिहास के मिथकीय साक्ष्य भी इतिहास के तथ्यों को समझने में सहायक रहे हैं। इन्हीं में से एक हनमानजी के जन्मस्थल से भी जुड़ी कहानी है।
              नवसारी (गुजरात) स्थित डांग जिला रामायण काल में दंडकारण्य प्रदेश के रूप में पहचाना जाता था। डांग जिले के आदिवासियों की हमेशा से यह मान्यता रही है कि भगवान राम वनवास के दौरान पंचवटी की ओर जाते समय डांग प्रदेश से गुजरे थे। डांग जिले के सुबिर के पास भगवान राम और लक्ष्मण को शबरी माता ने बेर खिलाए थे। आज यह स्थल शबरी धाम नाम से जाना जाता है।
शबरी धाम से लगभग 7 किमी की दूरी पर पूर्णा नदी पर स्थित पंपा सरोवर है। यहीं मातंग ऋषि का आश्रम था। डांग जिले के आदिवासियों की सबसे प्रबल मान्यता यह भी है कि डांग जिले के अंजनी पर्वत में स्थित अंजनी गुफा में ही हनुमानजी का भी जन्म हुआ था।
          कहा जाता है कि अंजनी माता ने अंजनी पर्वत पर ही कठोर तपस्या की थी और इसी तपस्या के फलस्वरूप उन्हें पुत्र रत्न यानी हनुमान जी की प्राप्ति हुई थी। माता अंजनी ने अंजनी गुफा में ही हनुमानजी को जन्म दिया था ।यही है वह स्थान, परंपरागत मान्यता के अनुसार हनुमान जी ने जन्म लिया था। डांग जिले का हरेक व्यक्ति हनुमानजी का भक्त है। अंजनी पर्वत की तलहटी में ही अंजनकुंड गांव बसा हुआ है। इसके अलावा अंजनी पर्वत के बारे में यह भी कहा जाता है कि वनवास के दौरान राम भगवान पंचवटी की ओर जाने के लिए यहां से दानवों का संहार कर ऋषि-मुनियों का उद्धार करने के लिए ही गुजरे थे।  अंजनी पर्वत आज भी अनेक प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियों और जड़ी-बूटियों से भरा पड़ा है। यहां रहने वाले अनेक लोग अपने आपको शबरी माता का वंशज भी मानते हैं। (फोटो व विवरण- साभार दैनिक भाष्कर )
 

Monday, March 4, 2013

दिल्ली का इतिहास पाषाण युग तक, आदि मानव के रहवास के संकेत मिले !

        दिल्ली में महाभारत, मौर्य, तोमर, चौहान, सल्तनत, मुगल और ब्रिटिश काल के अवशेष हैं। लेकिन एक रॉक आर्ट विशेषज्ञ को दिल्ली में कुछ ऐसे चिह्न मिले हैं, जिनके बारे में माना जा रहा है कि वे पाषाण युग के हो सकते हैं। यदि ‘साइंटफिक डेटिंग’ के बाद इसे सही पाया गया तो दिल्ली का इतिहास पाषाण युग तक जा सकता है। संभवत: यह पहला मौका है जब दिल्ली में आदि मानव के रहवास के संकेत मिले हैं।
रॉक आर्ट विशेषज्ञ रघुवीर सिंह ठाकुर ने दावा किया,‘अरावली पर्वत श्रृंखला में दक्षिण दिल्ली के महरौली में कुतुब मीनार के करीब ‘कपमार्क’ मिले हैं। एक हजार मीटर के क्षेत्र में तीन स्थानों में करीब 150 की संख्या में ‘कपमार्क’ है, जिनमें एकरूपता पाई गई है।’ दिल्ली में ‘कपमार्क’ खोजकर्ता ने दावा किया,‘इसके अलावा एक पत्थर पर अर्धचंद्राकार आकृति बनी हुई है। इसकी रेखाओं को जोड़कर देखा जाए तो अंग्रेजी अक्षर ‘एस’ आकार की आकृति बनती है। यह आकृति भी पाषाण युग की है।’
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व सुरक्षा अधिकारी ठाकुर ने कहा,‘यदि इस ‘कपमार्क’ का उचित तरीके से समय काल का निर्धारण कर दिया जाए तो यह दिल्ली के इतिहास को दो लाख साल से भी अधिक पीछे ले जा सकता है।’ उन्होंने बताया कि उन्होंने यह खोज 26 जनवरी को उस वक्त की जब पूरी दिल्ली गणतंत्र दिवस के जश्न में डूबी थी। उन्होंने इस स्थान को मेट्रो से देखा था और 26 जनवरी का दिन उन्हें इसके लिए सबसे अच्छा दिन लगा। ठाकुर ने बताया कि इसके समय निर्धारण के लिए एक टीम के साथ वह काम करना चाहते हैं, क्योंकि यह बेहद श्रमसाध्य और धैर्य का काम है। यदि इस स्थान के आस पास बेहतर तरीके से काम किया जाये तो यहां इस तरह के और भी चकित करने वाली जानकारियां मिल सकती हैं।
इस बारे में पेलिंयॅटोलाजिस्ट जीएल बादाम ने कहा,‘इस तरह के‘कपमार्क’ का काल निर्धारण करना बेहद कठिन है, क्योंकि रेडियो डेटिंग के जरिए केवल बीस हजार साल पहले तक के समय का निर्धारण ही किया जा सकता है, जबकि यह 20 लाख साल पुराना भी हो सकता है। पोटेशियम आर्गन डेटिंग या यूरेनियम थोरियम डेटिंग से इसका काल निर्धारण हो सकता है।’ उन्होंने बताया,‘आम तौर पर विशेषज्ञ ‘कपमार्क’ के बारे में अधिक ध्यान नहीं देते थे। हालांकि, पिछले कुछ समय से विशेषज्ञ इस तरफ ध्यान देने लगे हैं। इस तरह के हैरिटेज स्थलों के उचित रखरखाव के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और इंटेक जैसे संगठनों को आगे आना चाहिए और इसकी सुरक्षा का इंतजाम किया जाना चाहिए।’
मध्य प्रदेश के भीमबैठका और मंदसौर में ‘दर की चट्टान’ में काम कर चुके बादाम ने कहा,‘कपमार्क’ की डेटिंग करके काल निर्धारण कैसे किया जाए। इसे बनाने के लिए कठोर पत्थर का इस्तेमाल क्यों किया गया। लोगों में जागरूकता और सुरक्षा के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए।’
रॉक आर्ट विशेषज्ञ डॉक्टर मुरारी लाल शर्मा ने बताया,‘पाषाण युग को दो लाख साल पहले से दस हजार साल पहले तक विभिन्न चरणों में बांटा जाता है। हालांकि, 25 से 28 हजार साल पहले शतुरमुर्ग के अंडे मिले थे। इसका सीधा मतलब है कि उस वक्त मानव ने चित्राकंन प्रारंभ कर दिया था। यह ‘कपमार्क’ प्रारंभिक पाषाण युग के होने की संभावना है।’ शर्मा ने बताया,‘कला इतिहास के क्षेत्र में अरावली पर्वत श्रृंखला के एक छोर में इस तरह के प्रमाण पहली बार मिले हैं। दिल्ली के पास ‘कपमार्क’ मिलना अपने आप में क्रांतिकारी खोज है। अभी तक सुदूर क्षेत्रों में पाषाण युग के अवशेष मिलते थे। इसकी फोटो को माइक्रोस्कोप से देखने में इसके कटाव बेहद सहज लगते हैं, जो इसकी प्राचीनता के स्पष्ट प्रमाण है।’ शर्मा ने हालांकि बताया कि इसकी प्राचीनता के बारे में स्पष्ट निर्धारण ‘साइंटिफिक डेटिंग’ के बाद ही किया जा सकता है। इसे क्यों बनाया गया इस बारे में कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता। इस बारे में पश्चिम और भारतीय राक आर्ट विशेषज्ञों की कई तरह की राय है।  (साभार-(भाषा) नई दिल्ली, 3 मार्च ।)

    संसार के प्राचीन नगरों में से एक है दिल्ली
   दिल्ली की संसार के प्राचीन नगरों में गणना की जाती है। महाभारत के अनुसार दिल्ली को पहली बार पांडवों ने इंद्रप्रस्थ नाम से बसाया था, किंतु आधुनिक विद्दानों का मत है कि दिल्ली के आसपास उदाहरणार्थ रोपड़ (पंजाब) के निकट सिंधु घाटी सभ्यता के चिह्न प्राप्त हुए हैं और पुराने क़िले के निम्नतम खंडहरों में आदिम दिल्ली के अवशेष मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं वास्तव में देश में अपनी मध्यवर्ती स्थिति के कारण तथा उत्तरपश्चिम से भारत के चतुर्दिक भागों को जाने वाले मार्गों के केंद्र पर बसी होने से दिल्ली भारतीय इतिहास में अनेक साम्राज्यों की राजधानी रही है।
    जातकों के अनुसार इंद्रप्रस्थ सात कोस के घेरे में बसा हुआ था। पांडवों के वंशजों की राजधानी इंद्रप्रस्थ में कब तक रही यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता किंतु पुराणों के साक्ष्य के अनुसार परीक्षित तथा जनमेजय के उत्तराधिकारियों ने हस्तिनापुर में भी बहुत समय तक अपनी राजधानी रखी थी और इन्हीं के वंशज निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा में बह जाने पर अपनी नई राजधानी प्रयाग के निकट कौशाम्बी में बनाई। मौर्य काल में दिल्ली या इंद्रप्रस्थ का कोई विशेष महत्त्व न था क्योंकि राजनीतिक शक्ति का केंद्र इस समय मगध में था। बौद्ध धर्म का जन्म तथा विकास भी उत्तरी भारत के इसी भाग तथा पाश्रर्ववर्ती प्रदेश में हुआ इसी कारण बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा बढने के साथ ही भारत की राजनीतिक सत्ता भी इसी भाग (पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार) में केंद्रित रही।
    मौर्यकाल के पश्चात लगभग 13 सौ वर्ष तक दिल्ली और उसके आसपास का प्रदेश अपेक्षाकृत महत्त्वहीन बना रहा। हर्ष के साम्राज्य के छिन्न भिन्न होने के पश्चात उत्तरीभारत में अनेक छोटी मोटी राजपूत रियासतें बन गईं और इन्हीं में 12 वीं शती में पृथ्वीराज चौहान की भी एक रियासत थी जिसकी राजधानी दिल्ली बनी। दिल्ली के जिस भाग में क़ुतुब मीनार है वह अथवा महरौली का निकटवर्ती प्रदेश ही पृथ्वीराज के समय की दिल्ली है। वर्तमान जोगमाया का मंदिर मूल रूप से इन्हीं चौहान नरेश का बनवाया हुआ कहा जाता है। एक प्राचीन जनश्रुति के अनुसार चौहानों ने दिल्ली को तोमरों से लिया था जैसा कि 1327 ई. के एक अभिलेख से सूचित होता है। यह भी कहा जाता है कि चौथी शती ई. में अनंगपाल तोमर ने दिल्ली की स्थापना की थी। इन्होंने इंद्रप्रस्थ के क़िले के खंडहरों पर ही अपना क़िला बनवाया।
   महाकाव्य-महाभारत काल से ही दिल्ली का विशेष उल्लेख रहा है। दिल्ली का शासन एक वंश से दूसरे वंश को हस्तांतरित होता गया। एक चौहान राजपूत विशाल देव द्वारा 1153 में इसे जीतने के पूर्व लाल कोट पर लगभग एक शताब्दी तक तोमर राजाओं का आधिपत्य रहा। विशाल देव के पौत्र पृथ्वीराज तृतीय या राय पिथोरा ने 1164 ई. में लाल कोट के चारों ओर विशाल परकोट बनाकर इसका विस्तार किया। यह दिल्ली का तीसरा शहर कहलाता है। और क़िला राय पिथोरा के नाम से जाना गया। कई इतिहासकार इसे दिल्ली के सात शहरों में प्रथम मानते हैं। 1192 की लड़ाई में मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद ग़ोरी ने पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में हराकर उसकी हत्या कर दी। ग़ोरी यहाँ से दौलत लूटकर चला गया और अपने ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक को यहाँ का उपशासक नियुक्त कर गया। 1206 में ग़ोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वंय को भारत का सुल्तान घोषित कर दिया और लालकोट को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। अगली तीन शताब्दियों तक यहाँ छोटे अंतरालों के साथ ग़ुलाम वंश और सुल्तान वंश का शासन रहा। यहीं से दिल्ली का शासन खिलजी, तुगलक से लेकर मुगलों तक एक वंश से दूसरे वंश को हस्तांतरित होता गया। मुगलों से छीनकर दिल्ली  अंग्रेजों ने हथिया ली। १९११ में अंग्रेजों ने कोलकाता की जगह दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। जनवरी 1912 में राजनीतिक निर्णय के व्यावहारिक कार्यांवन के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की गई। प्रसिद्ध वास्तुविद सर एडविन लुटियंस ने अंतत इस शहर को नया स्वरूप दिया।      
    गंदी बस्ती की तरह दिखने वाली पुरानी दिल्ली, जिसमें लाला किला भी आता है, को वैसे ही छोड़कर नई दिल्ली बसाने के लिए अंग्रेजों ने रायसीना पहाड़ी चुनी जो वहां से न तो बहुत दूर थी और न ही बहुत पास। यहीं पर वाइसरॉय हाउस, संसद भवन और सचिवालय को एक जगह बनाया गया। आज भी इस इलाके को लुटियंस जोन कहा जाता है। १९४७ में आजादी की जंग के बाद दिल्ली को गुलामी से मुक्ति मिली। ( साभार- http://bharatdiscovery.org )

Sunday, January 20, 2013

बंगाल के इतिहास में अघोर परम्परा का प्रसिद्ध स्थल तारापीठ

    हमारी तारापीठ यात्रा
  कहते हैं जबतक बुलावा न होतो किसी धर्मस्थल ( शक्तिपीठों यथा मां वैष्णवी, मां तारा या मां विंध्यवासिनी, दक्षिणेश्वर व कोलकाता के कालीघाट में मां काली  के दर  ) पर पहुंचने के प्रयास विफल होते रहते हैं। ऐसा इसलिए भी कह रहा हूं क्यों कि इसी समय मैंने अपनी पत्नी भारती सिंह से भी आग्रह किया कि तारापीठ चलो मां के दर्शन कर आओ मगर उसने कोई रुचि ही नहीं दिखाई। जबकि धर्म-कर्म में वह हमेशा आगे रहती है। यह शायद उसी बुलावे का चक्र था जो उसे तो रोक रहा था मगर मेरा जाना तय हो रहा था।
    २१ सालों से कोलकाता  में था। आस्था भी थी मगर कभी ऐसा संयोग नहीं बन पाया कि मां तारा के दर्शन हो पाएं। बीते साल अक्तूबर में बनारस से मेरे भांजे डा. विजय कुमार सिंह और उनकी पत्नी डा. शीला सिंह का फोन कि मामा हमलोग तारापीठ जाएंगे। मुझे लगा कि अब शायद मां का बुलावा आ गया है तभी तो भांजे लोगों को मां के दर्शन का निमित्त बना दिया। तीनों लोगों के टिकट बनवा लिया और निश्चिंत था अब तारापीठ जाना तय है। तभी वापी में रह रहे मेरे जीजा रामजन्म सिंह ने सूचित किया मेरी बहन रमा कोलकाता आ रही है और बेटी विक्की की तिलक की तैयारी के लिए खरीदारी वगैरह करनी है। वह भी उसी समय जब मुझे तारापीठ जाना था। मुझे लगा कि अब शायद मां के दर्शन नहीं हो पाएंगे।
   कई बार सोचा कि अपना टिकट रद्द करवा दूं और भांजे लोगों से कह दूं कि आप लोगों के साथ मेरा जाना नहीं हो पाएगा। इस उहापोह में फंस गया कि किस बात को तरजीह दूं। मां शायद मेरी परीक्षा ले रही थी। आखिर में तय किया कि तारापीठ तो जरूर ही जाउंगा भले ही रमा के साथ किसी और को लगाना पड़े। दरअसल ना मैं तारापीठ जाने के भांजे लोगों के आग्रह को टाल सकता था और न ही रमा को मना कर सकता था। दोनों के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए तय किया कि कुछ भी हो जाए तारापीठ अवश्य जाउंगा। मैंने रमा को बताया ही नहीं कि जब तुम कोलकाता आ रही हो तभी मैं तारापीठ जा रहा हूं और अपनी इस मुश्किल को भांजे लोगों को भी बताकर उन्हें मुश्किल में नहीं डालना चाहता था।
   बहरहाल हम २४ अक्तूबर विजयादशमी के दिन तारापीठ पहुंच गए। और वर्षों की वह साध भी पूरी हुई जिसकी फिलहाल तो कोई संभावना ही नहीं दिख रही थी। हम तीनों इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं इसलिए अपनी आस्था व तत्थान्वेषण दोनों को साथ रखकर उसी दिन शाम को ही मंदिर व श्मशान इलाके में काफी देर तक भटकते रहे। मेरे दोनों भांजे डां विजय कुमार सिंह और डा. शीला सिंह मुझसे उम्र में बड़े हैं मगर हम एक दूसरे से मित्रवत व्यवहार रखते हैं। मेरे लिए दोनों सम्माननीय भी हैं क्यों कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीनइतिहास विभाग में दोनों मुझसे सीनियर रहे हैं। एक ही गुरू  डा. सुदर्शना देवी सिंहल के निर्देशन में मैं और डा. शीला सिंह ने अपनी पीएचडी पूरी की। सीनियर होने के कारण दोनों का मार्गदर्शन मेरे लिए काफी अहमियत भरा था।
   इस पूरी यात्रा में बहुत कुछ जानने के कौतूहल के कारण हम कई मुद्दों पर बहस मुबाहिसा भी करते रहे। आभारी हूं  कि दोनों लोगों के  सानिध्य में यह यात्रा काफी शुकून वाली थी। मां के दर्शन करके तो मैं धन्य ही हो गया। जीवन का वह सर्वाधिक मूल्यवान क्षण था जब गर्भगृह में मां के सामने खुद को खड़ा पाया। इतने दिन से बंगाल में रह रहा हूं मगर सपने में भी नहीं सोचा था कि मां इस तरह अपने दर पर बुला लेगी। मां की इस कृपा से अभिभूत हूं मैं।
    एक  इतिहासकार ( डा.. शीला सिंह ) को तो मां तारामय होते देखना मेरे लिए अद्भुत अनुभव रहा। कहते हैं भक्ति हर किसी को नसीब नहीं होती। इतिहास गवाह है कि वर्षों की तपस्या के बाद जब किसी भक्त को अपने आराध्य से कुछ मांगना हुआ तो  वह बिना देरी किए जन्म-जन्म की भक्ति का वरदान मांगना नहीं भूला।  मेरे पिताजी भी कहते थे कि बिना पूर्व जन्म के पुण्य के भक्ति संभव नहीं। डा. शीला को देखकर यही आभास हुआ। बिना भक्ति के उनका मां के ध्यान में ऐसे लीन होना संभव नहीं। मंदिर में जबतक रहे और जब दर्शन करके दूसरे दिन कोलकाता लौट रहे थे तो  जिस आत्मसंतुष्टि का अनुभव हुआ वैसा मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था।
   मैं और डा. विजय कुमार सिंह ने मंदिर व आसपास के कई फोटो खींचे जिसमें होटल से लेकर उस द्वारका नदी तक का फोटो है जिसे धर्मस्थलों पर जाने वाले  श्रद्धालुओं की सेवा के बहाने जीविकोपार्जन में लगे स्थानीय लोगों , दुकानदारों और खासतौर पर होटल वालों ने नरक बना रखा है।
   शायद प्रशासन भी इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है जिसके कारण पवित्र द्वारका नदी गंदगी के नाले में बदल गई है। धर्मस्थल अगर साफ सुथरे दिखते हैं तो मन भी विचलित नहीं होता है। किसी धर्मस्थान को साफ रखना भी हमारा ही उत्तरदायित्व है। प्रशासन को इस और भी ध्यान देना चाहिए।
  इस संस्मरण के साथ तारापीठ मंदिर व वामाखेपा के बारे में कुछ इतिहास व कुछ जनश्रुतियों पर आधारित जानकारी भी दे रहा हूं। यह विवरण वामाखेपा के चमत्कार और तारिणी मां तारा की कृपा कहानी भी है।













  बंगाल के इतिहास में अघोर परम्परा का प्रसिद्ध स्थल तारापीठ

    बंगाल के इतिहास में वीरभूमि जिला एक विख्यात जिला है। हिन्दुओं के ५१ शक्तिपीठों में से पाँच शक्ति पीठ वीरभूमि में ही हैं। इसी कड़ी में उनीस्वी शताब्दी में वीरभूमिकी पवित्रता साधक वामा खेपा ने एक बार फ़िर बढाई।   राजा दशरथ के कुल पुरोहित वशिष्ठ मुनि ने भी वीरभूमि से जुड़ कर इतिहास में इस भूमि की शान बढाई। इसलिए वीरभूमि जिला हिंदू वाम मर्गियों का महा तीर्थ बना। यहाँ पर स्थापित वशिष्ठ मुनि के सिंघासन पर अनेको साधको ने अपनी सिद्धिया प्राप्त की। जिनमें से प्रमुख महाराज राजा राम कृष्ण परमहंस, आनंदनाथ, मोक्ष्दानंद , वामा खेपा के नाम आते है।
      इस स्थान पर दक्ष यज्ञ विध्वंश के पश्चात मोहाविष्ट शिव जी के कंधों से शिव भार्या दाक्षायणी, सती की आँखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र ने काट कर गिराया था। यह शक्तिपीठ बन गया और इसीलिये इसे तारापीठ कहते हैं । मातृ रुप माँ तारा का यह स्थल तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सब में समान रुप से श्रद्धास्पद, पूजनीय माना जाता है ।
       शताब्दियों से साधकों, सिद्धों में प्रसिद्ध यह स्थल पश्चिम बँगाल के बीरभूम अँचल में रामपुर हाट रेलस्टेशन के पास द्वारका नदी के किनारे स्थित है । कोलकाता से तारापीठ की दूरी लगभग २६५ किलोमीटर है । यह स्थल रेलमार्ग एवं सड़क मार्ग दोनो से जुड़ा है । इस जगह द्वारका नदी का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर है, जो कि भारत में सामान्यतः नहीं पाया जाता । नाम के अनुरुप यहाँ माँ तारा का एक मन्दिर है तथा पार्श्व में महाश्मशान है । द्वारका नदी इस महाश्मशान को चक्राकार घेरकर कच्छपपृष्ट बनाते हुए बहती है ।
    तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे अत: इस स्थान को देवी तारा को नयन तारा भी कहा जाता है. तारापीठ का महात्म्य है कि यहां श्रद्धा-भक्ति के साथ देवी का ध्यान करके जो मुराद मांगा जाता है वह पूर्ण होता है. देवी तारा की सेवा आराधना से रोग से मुक्ति मिलती है. इस स्थान पर सकाम और निष्काम दोनों प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती है.

    यह स्थल तारा साधन के लिये जगत प्रसिद्ध रहा है । पुरातन काल में महर्षि वशिष्ठ जी इस तारापीठ में बहुत काल तक साधना किये थे और सिद्धि प्राप्त कर सफल काम हुए थे । उन्होने इस पीठ में माँ तारा का एक भव्य मन्दिर बनवाया था जो अब भूमिसात हो चुका है । कहते हैं वशिष्ठ जी कामाख्या धाम के निकट नीलाचल पर्वत पर दीर्घकाल तक संयम पूर्वक भगवती तारा की उपासना करते रहे थे , किन्तु भगवती तारा का अनुग्रह उन्हें प्राप्त न हो सका, कारण कि चीनाचार को छोड़कर अन्य साधना विधि से भगवती तारा प्रसन्न नहीं होतीं । एकमात्र बुद्ध ही भगवती तारा की उपासना और चीनाचार विधि जानते हैं । महर्षि वशिष्ठ , यह जानकर भगवान बुद्ध के समीप उपस्थित हुए और उनसे आराधना विधि एवं आचार का ज्ञान प्राप्तकर इस पीठ में आये थे । बौधों में बज्रयानी साधक इस विद्या के जानकार बतलाये जाते हैं । औघड़ों को भी इस विद्या की सटीक जानकारी है ।

       वर्तमान मन्दिर बनने की कथा
" जयब्रत नाम के एक व्यापारी थे । उनका इस अँचल में लम्बाचौड़ा व्यापार फैला हुआ था । श्मशान होने के कारण तारापीठ का यह क्षेत्र सुनसान हुआ करता था । भय से लोग इधर कम ही आते थे । विशेष दिनों में इक्का दुक्का साधक इस ओर आते जाते दिख जाया करते थे । व्यापार के सिलसिले में जयब्रत को प्रायः इस क्षेत्र से गुजरना पड़ता था । एक बार जयब्रत को पास के गाँव में रात्रि विश्राम हेतू रुकना पड़ा । ब्राह्म मुहुर्त में जयब्रत को स्वप्न में माँ तारा के दर्शन हुए । माँ ने आदेश दिया कि श्मशान की परिधि में धरती के नीचे ब्रह्मशिला गड़ा हुआ है । उसे उखाड़ो और वहीं पर विधिपूर्वक प्राण प्रतिष्ठित करो । स्वप्न में प्राप्त आदेश के अनुसार जयब्रत ब्रह्मशिला उखड़वाया और वर्तमान मन्दिर का निर्माण कराकर माँ तारा की भव्य मूर्ति स्थापित किया ।"

मातृरुपा माँ तारा की मूर्ति दिव्य भाव लिये हुए है । माता ने अपने वाम बाजु में शिशु रुप में शिव जी को लिया हुआ है । शिव जी माता के वाम स्तन से दुग्धामृत का पान कर रहे हैं और माता के स्नेहसिक्त नयन अपलक शिशु शिव जी को निहार रहे हैं । कहते हैं समुद्र मँथन से निकले विष का देवाधिदेव भगवान शिव जी ने पान कर संसार की रक्षा की थी । इस विषपान के प्रभाव से भगवान शँकर को उग्र जलन एवं पीड़ा होने लगी । कोई उपाय न था । माता ने तब शिव जी को इस प्रकार अपना स्तनपान कराकर उन्हें कष्ट से त्राण दिलाया था । इसीलिये माँ को तारिणी भी कहते हैं ।

वामा खेपा की कहानी...

    शास्त्र में कहा गया है समाज में जब भी जातिवाद की प्रथा बढ़ी है तो उसके उद्धार के लिए माँ ने अपने किसी न किसी दूत को जरुर भेजा है। इसी कड़ी में धरती पर वाम अवतार के रूप में वामा खेपा को माँ ने भेजा। तारापीठ में साधना कर अनेक सिद्धियाँ हस्तगत करने वाले एक महान अघोराचार्य हो गये हैं । उनका नाम है " वामाक्षेपा" । आप सांसारिक नियमों की अवहेलना करने के कारण ग्रामवासियों के द्वारा पागल घोषित कर दिये गये और आपके नाम बामा के साथ खेपा, जिसका अर्थ पागल होता है, जोड़ दिया गया । यह ऐसे साधक हुए जो ब्रह्मण कुल में जनम लेने के बाद भी किसी प्रकार के छूतछात में विश्वास नही रखते थे। तारापीठ से तीन मील की दुरी पर स्थित आतला ग्राम में १२४४ साल के फागुन महीने में शिव चतुर्दशी के दिन उनका जनम हुआ। उनके पिता का नाम सर्वानन्द चटोपाध्याय था एवं वह एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनकी माता का नाम श्रीमती राजकुमारी था तथा वह एक धर्मपरायण साध्वी स्त्री थीं। वामा खेपा की ४ बहने थी तथा वह दो भाई थे। वामा खेपा का नाम था वामा चरण एवं उनके छोटे भाई का नाम राम चरण था। ब्रह्मण परिवार होते हुए भी यह परिवार आर्थिक दृष्टि से कमजोर था। जिस कारण हमेशा घर में आभाव रहता था। कभी घर में चावल नही होता, तो कभी दाल नही तथा कभी सब्जी नही होती थी। तब भी वामा खेपा जी के पिता आनंदमय रहते थे तथा आँखों में आंसू लिए हुए सदा माँ का भजन करते रहते थे। गावं के लोग उनको सर्वा खेपा के नाम से चिढाते थे ( खेपा का अर्थ बंगाली में पगला होता है ) परन्तु वह हमेशा मस्त रहते थे। अपने पिता के संस्कार को देखते हुए बाल अवस्था में ही वामा चरण पाँच वर्ष की अल्प आयु में अपने हाथों से मिटटी की बहुत सुंदर माँ तारा की प्रतिमा बना लेते थे। एवं वह ऐसे भक्त थे की जब उन्हे माँ के बाल कैसे बनाएं समझ नही आया तो उन्होंने स्वयं अपने सारे बाल नोच कर माँ तारा की मूर्ति के सर पर लगा दिया था।
   अपने तन मन की लगन से बनाई हुई यह मूर्ति एकदम सजीव लगती थी। पास में ही एक जावाफूल का पेड़ था। उसमें से फूल ले कर बालक वामा चरण एकाग्र होकर माँ तारा की पूजा करते रहते थे। घर में ही एक जामुन का भी वृक्ष था, उसी जामुन के फल से वह माँ तारा का भोग लगाते थे। तथा माँ से कहते थे की माँ तू पहले जामुन खा तभी मैं खाऊँगा। पर मूर्ति तो न कुछ बोलती थी और ना ही हिलती थी। इसपर बालक वामा चरण रोने लगते थे।
और जामुन वैसे ही मूर्ति के सामने रखे रहते थे। एक दिन उनके पिता ने यह देखा। तो उनकी आँखों में भी बाल भक्ति का यह अविस्मरनीय दृश देख कर आंसू आ गए। वामा चरण पिता जी को देखते ही उनसे पूछने लगे की माँ तारा कौन सा फल खाती हैं ? आप तो कितने फल ले कर पूजा करते हैं और कहते हैं की माँ मन ही मन फल खा लेती है और फ़िर हम प्रसाद ग्रहण करते हैं। तो फिर मेरे फल क्यों नही खाती? तब सर्वानन्द जी ने वामा चरण को समझाया की तुम्हारी माँ तुम्हे खिलाये बिना क्या कभी खाती है या सोती है? माँ पहले अपने बालक को खिला कर ही स्वयम कुछ खाती है। उसी प्रकार यह जगत की माता सारे संसार के बच्चो को खिलाये बिना नही खाती। तब वामा चरण ने फ़िर पुछा की माँ तारा बोलती क्यों नही है? तब उनके पिता ने कहा की माँ से बात करने के लिए तपस्या करनी पड़ती है।
   यह बात सुन कर बालक वामा चरण अपनी जन्मदात्री माँ के पास पहुंचे और उनसे जा कर पुछा की माँ क्या तुम तारा माँ के साथ मेरी बात करा सकती हो ? ऐसा सुन कर वामा चरण की माँ उन्हे ले कर चुपचाप पूजा ग्रह में माँ तारा के सामने बैठ गयीं। इसी तरह नित्य माँ तारा की आराधना करते करते वामा चरण की उम्र ग्यारह वर्ष तथा उनके भाई की उम्र पाँच वर्ष की हो गई। इसी बीच उनके पिता की सेहत ख़राब हो गई और मृत्यु शैया पर माँ तारा का नाम जपते हुए उनके प्राण निकल गए। उसी वक्त जब माँ तारापीठ के शमशान में वामा चरण ने अपने पिता का अन्तिम शंस्कार किया तब उन्हे माँ तारा के प्रथम बार शमशान में दर्शन हुए। विधवा माँ ने किसी तरह भीख मांग कर अपने पति के श्राद्ध का काम पूरा किया। मृत्यु की ख़बर पा कर वामा चरण के मामा नौ ग्राम से आ कर दोनों भाइयों को अपने घर ले गए। वामा चरण गाय चराने ले जाते थे तथा उनके छोटे भाई गायों के लिए घास कटते थे। इसके एवज में उन्हे आधा पेट झूठा भात खाने को दिया जाता था।
एक बार वामा चरण को एक बड़ी से टोकरी ले कर गोबर उठाने और राम चरण को घास काटने के लिए उनके मामा ने कहा। राम चरण की असावधानी के कारन वामा चरण की ऊँगली कट गई। तब राम चरण भाई भाई कह कर रोने लगे। तब तक इनकी गाय ने बगल के खेत में खड़ी फसल को नष्ट कर दिया। उस खेत के मालिक ने मामा से शिकायत कर दी। मामा ने छड़ी लेकर वामा चरण को खूब मारा। उसी के बाद वामा भाग कर अपनी माँ के पास आतला ग्राम वापस लौट आए। और राम चरण को एक साधू अपने साथ गाना सिखाने ले गए। तभी से वामा ने शमशान में रहना निश्चित किया।
   उस दिन पूरनमासी थी, और शमशान में कई लोग बैठे थे। उनके पैर दबाते दबाते वामा सो गए।उसी बीच शमशान में बैरागी साधक गांजा पी कर उसके आग को एक जगह फेक दिया। हवा के झोंके से वह आग एक झोपडी में लग गई और देखते देखते सारे गाँव को झुलस दिया। गाँव वालों ने समझा की यह वामा चरण की गलती है। गाँव वाले उन्हें खोजने लगे। उनके डर से वामा चरण भक्त प्रहलाद की कहानी याद करते हुए आग में ख़ुद ही कूद गए। वह चिल्लाते रहे की मैंने आग नही लगायी है। धीरे धीरे पूरा गाँव आग में झुलस गया परन्तु वामा चरण कुंदन के समान आग से सकुशल निकल आए। और दौड़ते हुए अपनी माँ के पास अपने गाँव भाग गए।
आर्थिक स्तिथि ख़राब होने के कारन एक दिन उनकी माँ ने उन्हे बहुत भला बुरा कहा, उसी समय वामा घर से जो निकले तो फ़िर कभी अपने घर वापस नही आए। यहाँ से ही वामा चरण की साधना प्रारम्भ हुई। उसी समय तारापीठ के महा शमशान में शिमल वृक्ष के नीचे सिद्ध महापुरुष कैलाशपति बाबा आनेवाले थे। मोक्षानंद बाबा, गोसाईं बाबा आदि सभी ने वामा को वहा आश्रय दिया। प्रति दिन वामा जीवन कुंडा में स्नान करते और गांजा चुगते थे। कैलाशपति बाबा उनको बहुत मानते थे। कैलाशपति बाबा ने वामा को अपने शमशान में रहने का स्थान दिया। उनका खद्दोऊ पहन कर द्वारका नदी के ऊपर चलना और मुरझाये हुए तुलसी वृक्ष को हरा भरा कर देना जैसे आलौकिक कार्यों को देख कर वामा चकित रह गए। एक बार रात में कैस्लाश्पति बाबा ने वामा को गांजा तैयार करने के लिए बुलाया। उस दिन वामा को बहुत डर लगा। असंख्य दैत्याकार आकृतियाँ उनके चारो तरफ़ घेर कर खड़ी थी। यह देख कर वामा बेहोश हो गए। बाद में जय गुरु जय तारा कहते हुए वह सब आकृतियाँ विलीन हो गयीं। तब वामा ने साहस करके कैलाशपति बाबा को गांजा दिया।

वामा खेपा की लीला...

    काली पूजा की रात में वामा का अभिषेक कैलाशपति बाबा द्वारा हुआ। सिद्ध मंत्र पा कर वामा खेपा बिल्कुल उलट पलट हो गए। वह हमेशा शीमल वृक्ष के नीचे बैठ कर जाप किया करते,परन्तु हमेशा अजीब अजीब आवाजें बिन बादल गर्जन होना, मरे बच्चो की कूदफांद, कान के पास गरम साँस का महसूस होना जैसी घटनाये वामा को और चंचल कर देती थी। शिव चतुर्दशी के दिन गुरुदेव का आदेश पा कर वामा फ़िर अपने आसन पर बैठे और सिद्ध बीज मंत्र का जाप शुरू किया। सुबह से शाम हो गई पर वामा तब भी तन्मय हो कर देवी माँ तारा के ध्यान में लगे रहे। रात बढ़ने लगी और घोर अन्धकार हो गया, वातावरण पूरा शांत था। रात में २ बजे के बाद वामा का शरीर कापने लगा और पूरा शमशान फूलो की महक से सुगन्धित हो उठा। अचानक आकाश से नीले प्रकाश की ज्योति फुट पड़ी। चारो तरफ़ प्रकाश ही प्रकाश हो गया और प्रकाश के बीचों बीच तारा माँ ने वामा खेपा को दर्शन दिए।
    उस भव्य और सुंदर देवी को देख कर आनंद में वामा सबकुछ भूल गए। इतनी कम उम्र में वामा को माँ का दर्शन होना सिर्फ़ भक्ति और विश्वास के कारण था। सबने शमशान में प्रकाश देखा पर माँ के दर्शन तो सिर्फ़ वामा खेपा को ही हुए, तब से वाम देव जगत में पूज्य हो गए। तारापीठ के महंत मोक्षानंद पहले से ही वामा की महानता को जानते और इसलिए ही उन्होंने वामा को अपना शिष्य बनाया था। मोक्षानंद के मरने के बाद १८ वर्ष की उम्र में ही वामा चरण को तारापीठ का पीठाधीश बना दिया गया।
एक बार द्वारका नदी में स्नान करते समय उन्हे द्वारका नदी के उस पार राम नाम की ध्वनि सुनाई दी। कुछ देर बाद उन्होंने देखा की कुछ लोग घाट के उस पार एक शव ले कर आए हैं। वामा ने उत्सुकता वश वह शव देखा तो पता चला की वह उनकी माँ का ही शव था। माँ का शव देखते ही वह माँ माँ कह कर चिल्लाने लगे। कुछ भक्तो ने वामा चरण को सान्तवना दिया। वामा की इक्षा थी की उनकी माँ का शव माँ तारा के शमशान में ही जलाया जाए।
परन्तु बरसात के दिन थे और शव को नदी के दुसरे पार तारा शमशान तक ले जाना नामुमकिन था। सभी लोगों ने बामा खेपा को समझाया औरघाट के इस पार ही क्रिया कर्म करने की सलाह दी। परन्तु वामा खेपा माँ तारा का नाम लेते हुए अपनी माँ का शव अपने पीठ पर ले कर नदी को पैदल ही पार कर गए। और अंत में उन्होंने अपनी माँ का अन्तिम संस्कार माँ तारा के शमशान में पूरा किया।
उनके माँ के श्राद्ध का दिन नज़दीक आने लगा था। वह अपने गाव आतला गए। श्राद्ध से तीन दिन पहले वह पहुँच कर उन्होंने अपने छोटे भाई राम चरण से कहा की माँ के श्राद्ध के लिए घर के सामने वाली जमीन को साफ़ सुथरा कर दो, तथा आस पास के गाव के लोगों को निमंत्रण दे आओ। राम चरण ने अपने पागल भाई की बात पर ध्यान नही दिया और उनसे कहा की अभी तो हम स्वयं कष्ट में हैं। ऐसी हालत में हम लोगों को कहा से खिलाएंगे?
राम चरण के मना करने के बाद वामा खेपा ने स्वयं जमीन अपने हाथों से साफ़ की और वापस शमशान चले गए।
श्राद्ध वाले दिन अपने आप बडे बडे राजा महाराजों ने वामा के घर अपने आप अन्न और भोजन का सामग्री भेजनाशुरू कर दिया। यह देख कर राम चरण दंग रह गए और उन्हे तब अपने भाई की शक्ति का एहसास हुआ।
शाम को ब्राह्मण भोज के समय अचानक से मुसलाधार वर्षा होने लगी। राम चरण यह देख कर रोने लगे और इश्वर को याद करने लगे। तब तक वामा खेपा वह पहुंचे। उन्हे देखते ही राम चरण अपने भाई के चरण पकड़ कर रोने लगे। उन्होंने कहा की इतनी तेज़ बारिश में ब्रह्मण कैसे भोजन कर पाएंगे? तब वामा खेपा ने अपने शमशान का डंडा आकाश की तरफ़ कर दिया। और मुसलाधार बारिश होने के बाद भी ब्राह्मण भोज की जगह एक बूँद पानी नही गिरा। और उनकी माँ का श्राद्ध बिना किसी रूकावट के संपन्न हुआ। यह देख कर सभी चकित रह गए और वामा खेपा की शक्ति को प्रणाम करने लगे। अब ब्राह्मणों को अपने घर भी वापस जाना था, परन्तु बारिश काफी तेज़ पड़ रही थी। तब वामा खेप ने आकाश में चिल्लाते हुए माँ तारा से कहा की हे माँ क्या तू भी बाप के सामान कठोर हो गई है!! उनके इतना कहते ही ब्राह्मणों के घर जाने के मार्गो पर बारिश पड़ना बंद हो गया।

     वामा खेपा शमशान में माँ तारा की पूजा अर्चना करते थे। वह रोज माँ को भोग लगते थे और माँ स्वयं आकर उनका भोग ग्रहण करती थी। एक दिन उन्होंने माँ को भोग लगाया परन्तु माँ नही आई। क्रोधित हो कर वामा ने माँ की मूर्ती पर मूत्र कर दिया। ऐसा करते देख मन्दिर के बाकि लोगों ने देख लिया। उन लोगों को बहुत बुरा लगा और उन्होंने रानी से वामा के इस घटना की शिकायत कर दी। रानी ने क्रोधित हो कर अपने दरबानों को आदेश दिया और वामा को पीट कर मन्दिर से बहार निकल फेंका। वामा को शमशान में फेंक दिया। फ़िर रानी ने दुसरे पंडित को माँ का भोग लगाने का कार्य दे दिया। चार दिन तक वामा खेपा शमशान में बिना कुछ खाए पिए पड़े रहे।
तब चार दिन के उपरांत माँ तारा ने रानी को अर्ध चैतन्य अवस्था में दर्शन दिए और कहा की रानी मैंने चार दिनों से भोग ग्रहण नही किया है। तब रानी ने चकित होकर माँ से कहा की हे माँ आपको तो रोज़ भोग लगता है। माँ तारा ने कहा की मेरा एक पागल बेटा है जिसे तुम्हारे दरबानों ने पीट कर बाहर फेंक दिया। उसने भी चार दिनों से कुछ नही खाया है। अतः मैंने भी चार दिन से उपवास किया है। इसपर रानी बोली। " माँ उस व्यक्ति ने आप की मूर्ति पर मूत्र कर दिया था इसलिए मैंने उसे दंड दिया"। इस पर माँ तारा बोली यदि बालक अपनी माँ पर मूत्र कर दे तो क्या माँ उसे दंड देती है? वह मेरा बेटा है। वह मुझपर मूत्र करे या फ़िर मुझे मारे तुम्हे दंड देना का अधिकार नही है। यदि अपने राज्य का भला चाहती हो तो सम्मानपूर्वक मेरे बेटे को वापस लाओ। और आजके बाद वामा को पहले भोग लगेगा तब ही मैं भोग ग्रहण करुँगी। ऐसा कह कर माँ अंतर्ध्यान हो गई। तब रानी ने वामा खेपा को आदरसहित मन्दिर में बुलाया। तब से हमेशा वामा खेपा को भोग लगने लगा और तब ही माँ तारा भोग ग्रहण करती थी।
   इस प्रकार वामा खेप के जीवन में अनेको चमत्कार होते रहे। वामा खेपा के पहले वाम मार्ग एकदम विलुप्त हो रहा था। परन्तु उनकी भक्ति और चमत्कारों की वजह से वाम मार्ग को प्रसिद्धि मिली।
तारापीठ का यह पागल संत अब अनेक सिद्धियों का स्वामी हो गया था । आसपास के लोग बाबा के पास बड़ी संख्या में आने लगे थे । अनेक लोगों का बाबा के आशीर्वाद से कष्टनिवारण भी हो जाया करता था । बाबा के चमत्कार की, अलौकिक क्रियाकलाप की अनेक कथाएँ कही सुनी जाती हैं ।
       बाबा बामाखेपा की महासमाधि सन् १९११ ई० को हुई थी ।

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