शांति उपदेशक बुद्ध बन सकते हैं अशांति की वजह !
अहिंसा और शांति का मार्ग दुनिया को दिखाने वाले गौतम बुद्ध के जन्मस्थान को लेकर
दो मित्र देशों में विवाद की स्थिति बन सकती है। भारत और नेपाल के बीच
गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी को लेकर पहले एक विवाद उठ चुका है। इस
विवाद के मूल में थी भारत के सांस्कृतिक विभाग की एक गलती। विभाग ने भूलवश
गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी को जो नेपाल की तराई के जिले कपिलवस्तु
में है उसे भारत में बता दिया था। बाद में जानकारी मिलने पर भारत की ओर से
इस भूल को सुधारते हुए माफी मांग ली गई थी। लेकिन चीन ने भारत-नेपाल के बीच
के इस विवाद से अपना फायदा उठाना शुरू कर दिया।
चीन, नेपाल में बढ़ते
अपने प्रभाव क्षेत्र को मजबूत करने के लिए अपने कुछ संगठनों के जरिए नेपाल
में यह दुष्प्रचार करवा रहा है कि भारत बौद्ध धर्म के जरिए मिलने वाले
वैश्विक पर्यटन और दूसरे लाभों को नेपाल से छीनना चाहता है। साथ ही इन
संगठनों से नेपाल में यह भी भावना पहुंचाई जा रही है कि भारत नेपाल से उसके
बौद्ध धर्म पर्यटन के महत्त्व को मिटाना चाहता है। नेपाल में राष्टÑवादी
दृष्टिकोण रखने वाले समरेश कहते हैं कि विश्व मानचित्र पर नेपाल, भारत और
चीन जैसे एशिया के दो अहम शक्ति केंद्रों केबीच एक बफर राज्य है। इस कारण
से नेपाल भारत और चीन दोनों के सामरिकमहत्त्व के लिए एक अहम कड़ी है। लेकिन
नेपाल के साथ भारत के संबंध सांस्कृतिक, धार्मिक या राजनीतिक रूप से हमेशा
अच्छे रहे हैं। साथ ही चीन की विस्तारवादी नीतियों ने उसकी मंशा को हमेशा
शंका के घेरे में रखा है।
वैसे तो चीन ने 1960 से ही नेपाल पर डोरे
डालने शुरू कर दिए थे। लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध से मिले सबक ने भारत
और नेपाल दोनों को चीन की नीयत को लेकर सजग कर दिया था। समरेश कहते हैं-
2008 में राजशाही के खत्म होने और चीन के ऐतिहासिक नेता माओ की विचारधारा
पर चलने वाले नेपाल के प्रमुख सशस्त्र विद्रोही माओवादी दल के नेपाल की
सत्ता में आने के साथ हालात तेजी से चीन के पक्ष में बदलने लगे। चीन के
प्रभाव में रहने वाले इन दलों ने भारत विरोधी प्रचार करना शुरू कर दिया।
चीन ने परोक्ष रूप से अंतरराष्टÑीय स्तर पर इन मुद्दों को उठाने में कोई
कसर नहीं बचा रखी है। इसी तरह चीन के ही उकसावे पर नेपाल में भगवान बुद्ध
को लेकर इस तरह की बातें कही जा रही हैं।
बेजिंग में बौद्ध दर्शन पर हुए
सम्मेलन में भारत द्वारा बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति स्थल के रूप में विख्यात
बोधगया और उनके प्रथम प्रवचन स्थल सारनाथ को बढ़ावा दिए जाने की बात से
विरोधी गुट गलत तरीके से प्रचार कर रहा है। नेपाल में भारत विरोधी गुट का
कहना है कि भारत अंतराष्टÑीय स्तर पर लुंबिनी के महत्त्व को कम करके बौद्ध
धर्म के नाम पर केवल भारत में स्थित स्थलों को बढ़ावा देना चाहता है।
नेपाल
में लुंबिनी और बौद्ध पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर चीन की संस्था
‘एशिया पैसेफिक एक्सचेंज एंड कोआपरेशन फाउंडेश’ को नेपाल में काफी अहमियत
दी जा रही है। काठमांडू में सूत्र बताते हैं कि चीन की इस संस्था से नेपाल
के सांस्कृतिक मंत्रालय ने चीनी सरकार के इशारे पर कई समझौते किए हैं। इन
समझौतों के तहत यह संस्था भारत के सीमावर्ती इलाकों के पास लुंबिनी क्षेत्र
जो भारत के उत्तर प्रदेश के बहराइच, सिद्धार्थनगर, गोरखपुर और महाराजगंज
जिलों के करीब है में पर्यटन और इससे संबंधित रोजगार के अवसर को बढ़ावा देने
के नाम पर इसे अंतरराष्टÑीय बौद्ध क्षेत्र के रूप में विकसित करेगी। इसी
आड़ में यह चीनी संस्था भारत के बेहद नजदीक क्षेत्रों में हवाई अड्डे, होटल,
संचार, जल और विद्युत परियोजनाओं पर भी काम करेगी।
नेपाल के प्रमुख
माओवादी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड भी इस संस्था
के साथ 22 अरब रुपए जुटाने के लिए एक करार कर चुके हैं। चीन ने बौद्ध धर्म
के नाम पर भारत के खिलाफ परोक्ष रूप से जंग छेड़ दी है। उससे सजग रहने की
जरूरत है। चीन अपने विस्तारवादी रवैए को पूरा करने के लिए हर तरह की रणनीति
में माहिर है।
( साभार-जनसत्ता-हरीशंकर शाही -बलरामपुर/बहराइच, 23 सितंबर।)
ऐतिहासिक बलदेवज्यू मंदिर की हालत खस्ता, प्रवेश द्वार से गिरा शिलाखंड
ओड़िशा
के केंद्रपाड़ा जिले के 300 साल पुराने बलदेवज्यू मंदिर के प्रवेश द्वार से
दो शिलाखंड गिर पड़े। हालांकि घटना में कोई घायल नहीं हुआ लेकिन यह मंदिर
के बेबस हाल को बयां करता है। मध्यकालीन मंदिर के ‘झूलन’ मंडप के प्रवेश
द्वार के करीब करीब 30 किलोग्राम के दो शिलाखंड तीन दिन पहले गिर पड़े। यह
मंडप श्रद्धालुओं के लिए विश्राम कक्ष के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।
मंदिर
न्यास के सदस्य अक्षय पाणि ने कहा, ‘18वीं सदी की शुरुआत में मराठा शासन
काल के दौरान मंदिर का निर्माण हुआ था। मंडप तो उसके मुकाबले नया निर्माण
है। 60 के दशक के शुरुआत में इसका निर्माण हुआ। रखरखाव में कमी के कारण
मंदिर खतरे में है।’ पाणि ने कहा कि राज्य पुरातत्व विभाग के नजरअंदाज करने
की वजह से बलदेवज्यू मंदिर की खस्ताहाल स्थिति है। पिछले दो साल से मंदिर
जीर्णशीर्ण हालत में है लेकिन संबंधित अधिकारी इसके संरक्षण पर आंखेंं बंद
किए हुए हैं। जिला प्रशासन ने राज्य पुरातत्व विभाग का ध्यान इस विरासत
मंदिर की संरक्षण परियोजना की ओर दिलाया है।
केंद्रपाड़ा के जिलाधिकारी
दुर्गा प्रसाद बेहरा ने कहा, ‘हमनें पुरातत्व विभाग से बिना किसी विलंब के
पूर्ण संरक्षण का काम शुरू करने का अनुरोध किया है। विभाग ने 15 दिनों के
भीतर काम शुरू करने की प्रतिबद्धता जताई है।’ दो साल पहले, मध्यकालीन मंदिर
के पूजास्थल पर बनी दाढी नौती में बड़ी दरार आ गई थी । उसके एक महीने बाद
भोग घर का कुछ हिस्सा गिर पड़ा। इन घटनाओं के बाद पुरातत्त्ववेत्ताओं ने
वहां का निरीक्षण किया और एक व्यापक संरक्षण परियोजना की घोषणा की गई लेकिन
डेढ़ साल बीत जाने के बाद भी जीर्णोंद्धार के तत्काल शुरू होने के आसार
नहीं है।
( साभार-केंद्रपाड़ा, 23 सितंबर (भाषा)।)
मेला परम्परा- उत्तराखंड की एकता का प्रतीक मशहूर नंदा देवी राज जात मेला
नैनीताल के प्रसिद्ध नयना देवी मंदिर प्रांगण में मां नंदा-सुनंदा की युगल मुखाकृति
उत्तराखंड का मशहूर नंदा देवी राज जात मेला धूमधाम से शुरू हो गया है। रविवार २३ सितंबर
को ब्रह्म मुहूर्त में वैदिक मंत्रोच्चार के बीच नैनीताल के प्रसिद्ध नयना
देवी मंदिर प्रांगण में मां नंदा-सुनंदा की युगल मुखाकृति की विधिवत प्राण
प्रतिष्ठा की गई। नंदा-सुनंदा देवी को पारंपरिक वस्त्रों, गहनों और
सोने-चांदी के छत्रों से मंडित किया गया।
मां नंदा के दर्शनों व
पूजा-अर्चना के लिए पौ फटने से पहले ही नंदा देवी परिसर में श्रद्धालुओं का
आना शुरू हो गया था। देवी के दर्शन के लिए सुबह से ही लंबी कतारें लग गई
थीं और यह सिलसिला दिन भर जारी रहा। श्रद्धालुओं को देवी के दर्शनों के लिए
घंटों कतारों में खड़ा रहना पड़ा। नंदा राज जात मेला तीन दिन चलेगा। 26
सितंबर को मां नंदा-सुनंदा के सुसज्जित डोले को नगर भ्रमण कराया जाएगा।
उत्तराखंड
में होने वाले मेलों में नंदा देवी का मेला सबसे बड़ा माना जाता है। यह
मेला उत्तराखंड की एकता का प्रतीक है। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन
पहाड़ के अनेक स्थानों में लगने वाला नंदा देवी मेला इस अंचल के समृद्ध
सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक पक्ष को व्यक्त करता है। नंदा देवी संपूर्ण
उत्तराखंड में प्रतिष्ठित और पूज्य हैं।
हिमालय पर्वत अनंतकाल से शिव
और पार्वती के निवास स्थान माने गए हैं। पुराणों में एक हिमालय राज का
उल्लेख है। पार्वती को हिमालय राज की पुत्री बताया गया है। गिरिजा, गिरिराज
किशोरी, शैलेश्वरी और नंदा आदि पार्वती के ही नाम हैं। हिमालय के अनेक
शिखरों के नाम भी नंदा के नाम पर हैं। इनमें नंदा देवी, नंदा भनार, नंदा
खानी, नंदा कोट और नंदा घुघटी आदि प्रमुख हैं। पौराणिक ग्रंथों में नंदा
पर्वत को हिमाद्रि, मेरु, सुमेरु आदि नामों से जाना जाता है। मानसखंड और
केदारखंड जैसे ग्रंथों में इसे नंदा देवी के नाम से पुकारा गया है। मानसखंड
में नंदा पर्वत को नंदा देवी का निवास स्थान बताया गया है। हिमालय की सबसे
ऊंची चोटी नंदा देवी को नंदा, गौरी और पार्वती का रूप माना जाता है। नंदा
देवी को शक्ति का रूप माना गया है। शक्ति की पूजा नंदा, उमा, अंबिका, काली,
चंडिका, चंडी, दुर्गा, गौरी, पार्वती, ज्वाला, हेमवती, जयंती, मंगला, काली
और भद्रकाली के नाम से भी होती है।
उत्तराखंड के राजवंशों में नंदा की
पूजा कुलदेवी के रूप में होती आई है। कुमाऊं का राजवंश नंदा देवी को तीनों
लोकों का आनंद प्रदान करने वाली शक्ति रूपा देवी के रूप में पूजता था।
गढ़वाल के राजाओं ने नंदा देवी को राजराजेश्वरी के नाम से प्रतिष्ठित किया।
यही कारण है कि उत्तराखंड में अनेक स्थानों पर नंदा देवी के मंदिर हैं। हर
साल नंदा देवी के मेलों से लेकर नंदा देवी लोक जात यात्रा और नंदा राज जात
यात्रा के रूप में नंदा देवी को पूजने की एक समृद्ध परंपरा उत्तराखंड में
कई सदियों से अनवरत चली आ रही है।
नंदा देवी उत्तराखंड की साझा
संस्कृति, समसामयिक चेतना और एकता का प्रतीक हैं। नंदा देवी के निमित्त
उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर होने वाले अनेक उत्सवों में
पहाड़ की समृद्ध लोक संस्कृति की गहरी जड़ें, धार्मिक विश्वास व परंपराएं
जुड़ी हैं। लोकजीवन के आधार स्तंभों पर पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभावों
के बावजूद पहाड़ के धार्मिक लोक पर्वों के प्रति यहां के आम लोगों के
उत्साह और श्रद्धा में कोई कमी नहीं आई है।( साभार -जनसत्ता-प्रयाग पांडे-नैनीताल, 23 सितंबर।)