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Sunday, February 26, 2012

30 हजार साल पुराने बीज से पौधे उगे

    30 हजार साल पहले के पौधे रूस में फिर से जीवन्त किए गए हैं। एक स्टडी में यह बात सामने आई है कि रूसी वैज्ञानिकों ने साइबेरिया में मिले बीजों से पौधे उगाए हैं। रूस की एकेडमी ऑफ साइंसेस की रिसर्चर स्वेतलाना याशिना और डेविड गिलिचिंस्की का कहना है कि हेर्बाकस सिलेन स्टेनोफिला के बीज अब तक के सबसे पुराने पौधे के बीज हैं जिन्हें फिर से जीवन मिला है। ये बीज कभी गिलहरियों ने जमा किए थे। ताजा रिसर्च प्राचीन काल के बायोलॉजिकल तत्वों के शोध में मील का पत्थर साबित हो सकता है। इनमें से कुछ तो इस बीच लुप्त हो गए हैं। शोधकर्ताओं ने लिखा है कि वे धरती की सतह से गायब हो चुके पुराने जेनेटिक पूल की खोज में पर्माफ्रॉस्ट के महत्व को भी उजागर करते हैं। इससे पहले इस्राएल में मसादा किले में 2000 साल पुराने खजूर के बीज को उगाया गया था। रिसर्चरों का कहना है कि रेडियो कार्बन कालावधि से इस बात पुष्टि हुई है कि टिश्यू 31,800 साल पुराने हैं। यह स्टडी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस के मंगलवार के अंक में प्रकाशित हो रही है। इसमें रूस के उत्तर पूर्वी साइबेरिया में कोलिमा नदी के किनारे पर गिलहरी के 70 बिलों के पता चलने की बात कही गई है, जिसमें विभिन्न पौधों के लाखों बीज हैं। 'सभी बिल वर्तमान सतह से 20 से 40 मीटर की गहराई में मिले हैं और प्रातिनूतन युग के हाथी, गेंडा, घोड़े और हिरण जैसे जानवरों की हड्डियों वाली सतहों में स्थित थे।' शोधकर्ताओं का कहना है कि पर्माफ्रॉस्ट ने बड़े फ्रीजर का काम किया और गिलहरियों द्वारा जमा बीज और फल बिना किसी बाधा के बंद दुनिया में औसत माइनस 7 डिग्री सेल्सियस तापमान पर दसियों हजार साल तक सुरक्षित रहे।

पुराने मैटेरियल से वैज्ञानिक नए नमूने इसलिए उगा पाए कि बिल बर्फ से ढके थे और उसके बाद नियमित रूप से जमे रहते थे और पिघलते नहीं थे। इसकी वजह से पर्माफ्रॉस्ट डिग्रेडेशन नहीं हुआ। मॉस्को के निकट अपनी प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों ने पहले विकसित स्टेनोफिला से पौधे उगाने की कोशिश की। लेकिन जब उसमें सफलता नहीं मिली तो नियंत्रित प्रकाश और तापमान में पौधा उगाने के लिए प्लांट के टिश्यु का इस्तेमाल किया। वैज्ञानिकों को काफी समय से पता है कि कुछ प्लांट सेल सही परिस्थितियों में लाखों साल तक सुरक्षित रह सकते हैं। पौधों को पुनर्जीवित करने के कुछ पिछले दावे वैज्ञानिक जांच पर खरे नहीं उतरे हैं, लेकिन याशिना और गिलिचिंस्की की टीम ने रेडियो कॉर्बन डेटिंग विधि का इस्तेमाल किया है ताकि साफ हो सके कि पर्माफ्रॉस्ट में मिले बीज और फल स्टेनोफिला के आधुनिक संदूषक नहीं हैं। कनाडा के यूकॉन पैलेऑनटोलॉजी प्रोग्राम के ग्रांट जजूला कहते हैं कि उन्हें कोई संदेह नहीं कि यह वैध दावा है। उत्तर अमेरिका में आर्कटिक लुपिन उन बीजों से उगाया गया जिन्हें 10,000 साल पुराना समझा गया था। जजूला ने हाल में रेडियो कॉर्बन विधि से पाया कि वे पुराने बीज न होकर आधुनिक प्रदूषित बीज थे।

दो करोड़ साल पुरानी झील के राज
रूस में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने दो करोड़ साल पुरानी झील 'लेक वोस्तोक' में छेद किया है। लेक वोस्तोक एक सबग्लेशियल झील है यानी हिमनदी के नीचे बनी मीठे पानी की झील। इस झील तक पहुंचने के लिए वैज्ञानिकों को बर्फ में करीब चार किलोमीटर गहरा छेद करना पड़ा। लेक वोस्तोक अंटार्कटिका की सबसे बड़ी सबग्लेशियल झील है। वैज्ञानिक झील के नीचे के जीवन के बारे में जानकारी हासिल करना चाहते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से वे नए प्रकार के सूक्ष्मजीवों के बारी में जानकारी पा सकेंगे।

रूस की आरआईए समाचार एजेंसी को एक सूत्र ने इस बारे में बताया, 'हमारे वैज्ञानिकों ने 3768 मीटर तक छेद किया तब वह झील की सतह तक पहुंच पाए हैं।' आर्कटिक एंड अंटार्कटिक साइंटिफिक रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रवक्ता सेर्जी लेसेनकोव ने समाचार एजेंसी एएफपी से बातचीत में कहा कि यह एक 'महत्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि' है। लेसेनकोव ने कहा कि झील के ऊपर बर्फ में गैस के बुलबुले मिले हैं। यह जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए हो रहे शोध में मददगार साबित होंगे, 'क्योंकि इसकी निचली सतह चार लाख साल पहले बनी, इसलिए गैस के अणुओं की सरंचना को देख कर पता किया जा सकता है कि चार लाख साल पहले वातावरण कैसा था। इसी के आधार पर जलवायु परिवर्तन को पहचाना जा सकता है और भविष्य में होने वाले बदलावों का अनुमान लगाया जा सकता है।'

लेक वोस्तोक : हालांकि अब तक इसकी आधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं की गई है। सूत्रों का कहना है कि सरकार को जल्द ही इसकी घोषणा करेगी। एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मार्टिन सीगर्ट ने इस बारे में कहा, 'अगर यह सच है और यह सफल है तो यह एक मील का पत्थर साबित होगा। रूसियों के लिए यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि वे कई सालों से इस पर काम कर रहे हैं।' सीगर्ट ने कहा कि लेक वोस्तोक में मौजूद जीवों के बारे में जानकारी मिलने से वैज्ञानिक यह भी समझ पाएंगे कि क्या सौर मंडल में अन्य जगहों पर भी जीवन मौजूद है। लम्बे समय से वैज्ञानिक इस बात पर चर्चा करते आए हैं कि क्या बृहस्पति और शनि के चांद पर भी जीवन हो सकता है। यहां भी झीलें पाई गई हैं और वे लेक वोस्तोक जैसी ही हैं। 1957 में पहली बार पूर्व सोवियत संघ के एक वैज्ञानिक ने इस झील के होने का दावा किया था। 1989 में इस पर काम शुरू किया गया और 1996 में पहली बार इसके होने की पुष्टि की गई।

Wednesday, February 22, 2012

तीस करोड़ साल पुरानी राख के नीचे मिला सुरक्षित जंगल

खबरों में इतिहास 
अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए यह ब्लाग इतिहास की नई खोजों व पुरातत्व, मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित खबरों को संकलित करके पेश करता है। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
 १- तीस करोड़ साल पुरानी राख के नीचे मिला सुरक्षित जंगल 
 २- हज़ारों साल पहले भी खाए जाते थे पॉपकॉर्न !
 ३- राशिचक्र के पुराने अंशों का पता लगा
 तीस करोड़ साल पुरानी राख के 
नीचे मिला सुरक्षित जंगल
http://www.bbc.co.uk/hindi/china/2012/02/120222_chinese_pompeii_sdp.shtml
शोधकर्ताओं ने चीन में राख की परत की नीचे सुरक्षित एक जंगल को खोज निकाला है। राख की ये परत 30 करोड़ वर्ष से जमा है। वुडा ज़िले के इनर मंगोलिया के पश्चिम में मिला ये जंगल इतालवी शहर पोमपेई जैसा है.करोड़ो वर्ष पहले ये इलाका कैसा दिखता रहा होगा, इसका भी परिकल्पना की गई है।
पेड़-पौधों की हालत देखकर शोधकर्ताओं ने राख की मात्रा का अनुमान लगाया है। उन्होंने पाया कि पेड़-पौधे राख के नीचे भले ही दब गए लेकिन वे नष्ट नहीं हुए। इस शोध से जुड़े अमरीका की पेनसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के हरमन फेफरकोर्न कहते हैं, "ये जंगल बड़े ही आश्चर्यजनक तरीके से सुरक्षित हैं. हम वहां खड़े हो सकते हैं और ऐसी टहनिया खोज सकते हैं जिसमें पत्तियां हैं।  एक के बाद एक टहनियां मिलती जाती हैं और तभी हमें उसे पेड़ का तना मिलता है. ये वाकई रोचक है.'' शोधकर्ताओं के दल ने यहां पेड़ों की छह समूहों की पहचान की है।  इनमें छोटे पेड़ों से लेकर 25 मीटर ऊंचे पेड़ शामिल हैं।

शोध के नतीजो के आधार पर दल ने एक चित्रकार की मदद से एक तस्वीर बनवाकर ये जानने की कोशिश की है कि राख के बादल गिरने से पहले ये जंगल कैसा नज़र आता होगा।
हरमन फेफरकोर्न कहते हैं, ''ये इतालवी शहर पोमपेई जैसा है. पोमपेई से रोमन संस्कृति को समझने में मदद मिली थी लेकिन इससे रोम के इतिहास के बारे में कुछ पता नहीं चलता.'' वे कहते हैं, ''लेकिन दूसरी ओर, इससे तत्कालीन समय और बाद के समय के बारे में जानकारी मिलती है. ये शोध भी इससे मिलता-जुलता है। ये एक टाइम-कैप्सूल है जो हमें ये व्याख्या करने में मदद करता है कि पहले क्या हुआ था।

राशिचक्र के पुराने अंशों का पता लगा
क्रोएशिया में एड्रिआटिक सागर के नजदीक एक गुफा में दो हजार साल से अधिक पुराने राशिचक्र के अंशों का पता लगा है। इस खोज के बारे में जर्नल ऑफ हिस्ट्री ऑफ एस्ट्रोनामी में प्रकाशित हुआ है। यह खोज नाकोवाने कस्बे के समीप की गई। एंथ्रापोलॉजी इंस्टीट्यूट ऑफ जागरेब के पुरातत्वविद और इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूयार्क के विशेषज्ञ एलेक्सेंडर जोन ने कहा कि यह प्राचीन ज्योतिष चक्र का एक असाधारण उदाहरण है। राशिचक्र के करीब 30 टुकड़े मिले हैं। इन पर हैलेनिक शैली में राशियां उकेरी गई हैं। लाइव साइंस के अनुसार कर्क, मिथुन और मीन राशियों को स्पष्ट तौर पर पहचाना जा सकता है लेकिन धनु राशि अधिक स्पष्ट नहीं है। जोंस ने कहा कि उन्होंने जब हाथी दांत से बने टुकड़ों को एकत्र करना शुरू किया तो उन्हें हैलेनिक भांडों के टुकड़ों के संग राशिचक्र के टुकड़े भी मिले।

हज़ारों साल पहले भी खाए जाते थे पॉपकॉर्न !
http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2012/01/120119_popcorn_peru_ancient_sy.shtml
उत्तरी पेरू के लोग साधारण अनुमान से 1,000 साल पहले भी पॉपकॉर्न खाया करते थे। शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्हें पेरू में मकई के फूले हुए दाने मिले हैं, जो कि इस बात का संकेत है कि वहां रहने वाले लोग इसका इस्तेमाल मकई का आटा और पॉपकॉर्न बनाने में करते थे.वाशिंगटन के प्राकृतिक इतिहास संग्राहलय के मुताबिक़ पाए गए मकई के फूले हुए दानों में से सबसे पुराने करीब 6,700 साल पुराने थे.'स्मिथसोनियन म्यूज़म ऑफ़ नेचुरल हिस्ट्री' के न्यू वर्ल्ड आर्केलॉजी विभाग की निरीक्षक डोलोर्स पिपर्नो ने कहा कि मैक्सिको में 9,000 साल पहले मकई को जंगली घास के ज़रिए उगाया जाता था।  उनका कहना था कि उनकी शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि साउथ अमरीका में मकई के आने के एक हज़ार साल बाद ये महाद्वीप के दूसरे क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में पाया गया।
शोधकर्ताओं की टीम को मकई के बालों के अवशेष पारेदोन्स और हुआका प्रीटा नाम के प्राचीन स्थलों पर मिला। हालांकि शोधकर्ताओं का मानना है कि उस समय मकई लोगों के आहार का अहम हिस्सा नहीं था।

Thursday, February 16, 2012

मालदीव के पुरातात्विक अवशेषः बामियान की तरह मालदीव में भी ऐतिहासिक सामग्री नष्ट कर रहे हैं कट्टरपंथी ​!

​​ ​ जैसे तालिबानियों ने बामियान में बुद्ध की विशालकाय मूर्ति को तोड़ा था उसी तरह मालदीव में भी संग्रहालय में रखी बुद्ध की मूर्तियों को कट्टरपंथियों ने तोड़ दिया है। यानी बामियान की तरह मालदीव में भी ऐतिहासिक सामग्री नष्ट कर रहे हैं कट्टरपंथी।
 ​ ​ मालदीव दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन [दक्षेस] का ऐसा सदस्य देश है जहां की सरकार के पीछे हमेशा से सेना रही है। मालदीव में पहली बार ऐसा हुआ है। देश में राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद के इस्तीफा देने और नए शासक के सत्ता संभालने के बाद हालात अशांत हो गए हैं। सात फरवरी को तत्कालीन राष्ट्रपति नशीद के इस्तीफे के बाद से मालदीव में अनिश्चितता का वातावरण बना हुआ है। पिछले सप्ताह नशीद के इस्तीफे से पहले और बाद में वहां हिंसा भड़क गई थी। नशीद का परिवार श्रीलंका चला गया। लेकिन नशीद ने एक श्रीलंकाई अखबार से कहा कि वह मालदीव में ही रहेंगे और लोकतंत्र के लिए लड़ाई जारी रखेंगे।​ ​ पिछले साल 23 दिसंबर को जब सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ तब उसमें कट्टरपंथी मुस्लिम आंदोलनकारी शामिल थे। उसमें कुछ अतिवादी तत्व भी थे। पूर्व सलाहकार ने जोर देकर कहा कि 23 दिसंबर को माले की सड़कों पर जिन लोगों ने प्रदर्शन किया था वे मालदीव के चरमपंथी तत्व थे।मालदीव के राष्ट्रपति नशीद के इस्तीफे से साफ हो गया है कि यह छोटा-सा देश अब कमोबेश कट्टरपंथियों के हवाले है। उसके लोकतंत्र के सामने जीवन-मरण का प्रश्न आ खड़ा हुआ है। चार साल पहले नशीद मालदीव के राष्ट्रपति चुने गए थे। उन्होंने कई वजहों से दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा।​​ ​ ​
पुरातात्विक व ऐतिहासिक महत्व की बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ दिया ​​ ​

 कट्टरपंथी सरकार विरोधी आधे दर्जन प्रदर्शनकारियों ने करीब १२०० द्वीपों वाले देश मालदीव के संग्रहालय में रखी पुरातात्विक व ऐतिहासिक महत्व की बुद्ध की मूर्तियों को भी तोड़ दिया। इनमें से कुछ छठीं शताब्दी की हैं। संग्रहालय के अधिकारियों का कहना है कि प्रदर्शनकारियों ने इन मूर्तियों को संभवतः इस लिए तोड़ा क्यों कि वे इसे इसलाम के खिलाफ मानते हैं। तोड़ी गई मूर्तियों में छह सिरों वाली एक मूर्ति व डेढ़ फुट का बुद्ध का सिर है। संग्रहालय के प्रवक्ता के मुताबिक मूर्तियां तोड़नेवाले पकड़ लिए गए हैं जबकि पुलिस का कहना है कि वह तथ्य जुटा रही है जिससे आरोपियों को गिरफ्तार किया जा सके। इन भ्रामक खबरों से इतर सवाल यह है कि पुरातात्विक महत्व की इन मूर्तियों को तोड़ा ही क्यों गया। ​ अफगानिस्तान के बामियान में २००१ में इसी तरह तालिबानियों ने भी बुद्ध की मूर्ति को उड़ा दिया था। आशंका यह जताई जा रही है कि सुन्नी मुस्लिम समुदाय वाले मालदीव में भी ऐसे उग्रपंथी जमा हो रहे हैं। इनकी धारणा है कि १२वीं शताब्दी में बौद्ध लोगों को ही सुन्नी मुसलमान बनाया गया था। ​ मालदीव के राष्ट्रीय संग्रहालय के निदेशक अली वाहिद ने बताया कि तोड़ी गई मूर्तियों में से दो या तीन को फिर से ठीक किया गया है लेकिन बाकी को ठीक किया जाना संभव नहीं है। पिछले साल इसी संग्रहालय से रिटायर हुईं इतिहासकार नसीमा मोहम्मद मूर्तियों का तोड़ा जाना इतिहास के लिए बड़ा नुकसान है क्यों मालदीव के द्वीपों में बिखरी प्राचीन सामग्री को पहले ही स्थानीय शासकों ने या तो नष्ट कर दिया या फिर गायब हो चुकी हैं। जो बचीं हैं वह भी बहुत कम हैं। हालांकि निदेशक वाहिद बताते हैं कि भवनों के निर्माण वगैरह के दौरान हर साल बुद्ध से संबंधित सामग्री मिल जाती हैं। नसीमा और वाहिद दोनों का कहना है कि कट्रटरपंथी मुसलमानों के उदय के बाद से संग्रहालय पर खतरा बढ़ा है क्यों कि इन्होंने इन्हें हटाने को कहा था। हालांकि मालदीव के इस्लामिक मामलों के मंत्री अब्दुल माजिद अब्दुल बारी ने कहा है कि प्राचीन बौद्ध मूर्तियां वगैरह हमारी विरासत हैं जिसे अपनी आनेवाली पीढियों के लिए सुरक्षित रकना है। संग्रहालय के निदेशक ने बताया कि टूटी मूर्तियों की मरम्मत में मदद के लिए उन्हें कई संग्रहालयों से आश्वासन मिला है।

Wednesday, February 15, 2012

‘मधुबनी पेंटिग’- गर्दिश में एक चित्र शैली





खबरों में इतिहास
  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।

१- मधुबनी पेंटिंग-गर्दिश में एक चित्र शैली
२-ठहराव आ गया है



मिथिला पेंटिंग आज भले ही ‘मधुबनी पेंटिग’ के नाम से जानी जाती हो, लेकिन  मिथिलांचल के दरंभगा और मधुबनी जिलों के लगभग हर गांव में पारंपरिक रूप से ये चित्र बनाए जाते हैं। सही मायनों में इसे मिथिला पेंटिग नाम देने से ही विस्तार मिलता है। सत्तर और अस्सी के दशक में इस पेटिंग की धूम जर्मनी, फ्रांस, स्विटजरलैंड, अमेरिका, जापान वगैरह देशों की कलादीर्घाओं में रही।
मधुबनी पेंटिंग
पर्व त्योहारों या विशेष उत्सव पर यहाँ घर में पूजागृह एवं भित्ति चित्र का प्रचलन पुराना है। १७वीं शताब्दी के आस-पास आधुनिक मधुबनी कला शैली का विकास माना जाता है। मधुबनी शैली मुख्‍य रुप से जितवारपुर (ब्राह्मण बहुल) और रतनी (कायस्‍थ बहुल) गाँव में सर्वप्रथम एक व्‍यवसाय के रूप में विकसित हुआ था। यहाँ विकसित हुए पेंटिंग को इस जगह के नाम पर ही मधुबनी शैली का पेंटिग कहा जाता है। इस पेंटिग में पौधों की पत्तियों, फलों तथा फूलों से रंग निकालकर कपड़े या कागज के कैनवस पर भरा जाता है। मधुबनी पेंटिंग शैली की मुख्‍य खासियत इसके निर्माण में महिला कलाकारों की मुख्‍य भूमिका है। इन लोक कलाकारों के द्वारा तैयार किया हुआ कोहबर, शिव-पार्वती विवाह, राम-जानकी स्वयंवर, कृष्ण लीला जैसे विषयों पर बनायी गयी पेंटिंग में मिथिला संस्‍कृति की पहचान छिपी है। पर्यटकों के लिए यहाँ की कला और संस्‍कृति खासकर पेंटिंग कौतुहल का मुख्‍य विषय रहता है। मैथिली कला का व्‍यावसायिक दोहन सही मायने में १९६२ में शुरू हुआ जब एक कलाकार ने इन गाँवों का दौरा किया। इस कलाकार ने यहां की महिला कलाकारों को अपनी पेंटिंग कागज पर उतारने के लिए प्रेरित किया। यह प्रयोग व्‍यावसायिक रूप से काफी कारगर साबित हुई। आज मधुबनी कला शैली में अनेकों उत्‍पाद बनाए जा रहे हैं जिनका बाजार फैलता ही जा रहा है। वर्तमान में इन पेंटिग्‍स का उपयोग बैग और परिधानों पर किया जा रहा है। इस कला की मांग न केवल भारत के घरेलू बाजार में बढ़ रही है वरन विदेशों में भी इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। अन्य उत्पादों में कार्ड, परिधान, बैग, दरी आदि शामिल है।
  सदियों से मिथिला की औरतें पारंपरिक रूप से अपने घरों, दरवाजों पर चित्रों को उकरेती रही हैं। इन चित्रों में एक पूरा संसार रचा जाता रहा है। मिथिलांचल में महिलाएं शादी-विवाह और पर्व-त्योहारों पर लंबे समय से दीवारों, कपड़ों और कागजों पर अनुष्ठानिक चित्र बनाती रही हैं। कोहबर, दशावतार, अरिपन,  बांसपर्री और अष्टदल कमल शादी के अवसर पर घरों में बनाए जाते रहे हैं। इन चित्रों का लौकिक और आध्यात्मिक महत्त्व है। कायस्थ, ब्राह्मण घरों में लड़कियों की शादी के समय जहां इन पारंपरिक देवी-देवताओं के चित्रों को घर की दीवारों पर बनाया जाता रहा है, वहीं लड़कों की शादी के अवसर पर लड़की वालों के घर कागज पर उकेरी गई इन्हीं चित्रों में सिंदूर भरकर भेजने का रिवाज आज भी कायम है। पुराने समय में लड़कियां जब शादी के बाद पहली बार नैहर से ससुराल जाती थीं तो द्विरागमन के समय पीले रंग की साड़ी पहना कर भेजा जाता था, जिसमें लाल रंग से कोहबर लिखा रहता था। 
किसी भी लोक कला की तरह मिथिला पेंटिंग पीढ़ी दर पीढ़ी एक परंपरा के रूप में प्रवाहमान रही।  मधुबनी जिले के जितवारपुर गांव की जगदंबा देवी, सीता देवी और रसीदपुर गांव की गंगा देवी के साथ मिथिला पेंटिग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलवाने में महासुंदरी देवी की खास भूमिका है। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित महासुंदरी देवी को  2011 में भारत सरकार ने कला के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए पद्मश्री देकर सम्मानित किया। 
भारत की इस पारंपरिक कला ने पश्चिमी कलाप्रेमियों को  अपनी ओर खींचा। उन्हें इन चित्रों में परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत मेल दिखा। सीता देवी, गंगा देवी की चित्र शैली और विषय वस्तु ने इस कला को नई जुबान दी। लोग इसे एक क्षेत्र विशेष की लोक कला से इतर समकालीन भारतीय मुख्यधारा की पेंटिंग के समांतर देखने लगे। कहते हैं कि पाब्लो पिकासो भी मिथिला पेंटिंग को देख प्रभावित हुए थे। ​
​ए क सरकारी आंकड़े के मुताबिक वैसे तो उत्तरी बिहार में इस चित्र शैली के करीब  15-20 हजार कलाकार पंजीकृत हैं। जगदंबा देवी के परिवार से ताल्लुक रखने वाले कलाकार कमल नारायण बताते हैं कि इनमें से अधिकांश कलाकार कम और कारीगर ज्यादा है। वे कहते हैं,‘ भीड़ बढ़ने से अच्छे और बुरे का फर्क मिटने लगा है।’ गंगा देवी और सीता देवी जैसी सिद्ध कलाकारों ने मिथिला पेंटिग को एक कला के रूप में  देश-विदेश के कलाप्रेमियों और कलादीर्घाओं के बीच प्रतिष्ठित किया लेकिन वर्तमान में यह पेंटिंग पहचान के संकट से गुजर रही है। कमल नारायण इसके लिए सरकारी नीतियों, गैर सरकारी संगठनों के काम-काज के तरीकों और बिचौलियों को दोष देते हैं। उनका कहना है कि सरकार महज खानापूर्ति करती है वह कलाकारों को अपनी कला का बाजार बनाने में सहयोग नहीं करती। इसी तरह दुसाध समुदाय से ताल्लुक  रखने वाली त्रिवेणी देवी बताती हैं कि ‘सरकार बाहर जाने के लिए यात्राभत्ता-दैनिक भत्ता नहीं देती। अपनी पेंटिंग बेचने का हमारे पास कोई साधन नहीं हैं। अपनी कला औने-पौने दामों पर बिचौलिए को सौंपने के लिए हम मजबूर हैं।’ उल्लेखनीय है कि मधुबनी में कोई कलादीर्घा नहीं है। न ही राजधानी पटना तक पेंटिंग पहुंचाने का कोई जरिया।
   इस चित्र शैली ने पिछले कुछ दशकों में समाज के हाशिए पर रहने वाली महिलाओं को एक नई पहचान दी है और घर से बाहर कदम रखने की आजादी भी। उत्तरी बिहार के मधुबनी जिले के ‘रांटी’ के मछुआरा जाति में जन्मी दुलारी देवी की जिंदगी किसी लोककथा से मिलती-जुलती है। बिना किसी शिक्षा-दीक्षा के उनकी शादी बचपन में एक निठल्ले से कर दी गई। कम उम्र में एक लड़की को जन्म दिया जो जिंदा न रह सकी। ऊपर से  पति के ताने। पंद्रह साल की होते होते उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया। खेतों में मजदूरी और संपन्न लोगों के घर झाड़ू-बुहारी करते उनका समय बीतता रहा। इसी क्रम में जब वह मिथिला चित्र शैली की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कलाकार कर्पूरी देवी के घर काम करती थीं तो उनकी उत्सुकता इन चित्रों के प्रति बढ़ी। पचास साल की दुलारी देवी कहती हैं,‘मैं जब महासुंदरी देवी, कर्पूरी देवी को चित्र बनाते देखती थी तो मेरी भी इच्छा होती थी मैं भी बनाऊं। मैंने महासुंदरी देवी के साथ छह महीने की ट्रेनिंग ली और फिर चित्र बनाने लगी।’ अब दुलारी देवी को लोग एक मिथिला पेंटर के तौर पर जानते हैं। वे कहती हैं,‘मेरे लिए आमदनी का स्रोत अब मिथिला पेंटिंग ही है। मुझे किसी के घर में काम करने की जरूरत नहीं पड़ती।’
    हजारों कलाकारों को प्रशिक्षित कर चुकी मिथिला पेंटिंग की प्रतिष्ठित कलाकार महासुंदरी देवी की ‘कर्ची कलम (बांस से बनी कूंची)’ अब रंग नहीं भरती है। उनके  आंगन में प्रवेश करते ही ऐसा लगता है जैसे कि आप किसी कला दीर्घा में आ गए हों। रांटी स्थित उनके घर की दीवारों, दरवाजों पर मधुबनी चित्रशैली में राम-सीता,  राधा-कृष्ण, पशु-पक्षियों, फूल-पत्तियों का मोहक संसार और कमरों में कोहबर की चिर-परिचित सधी हुई रेखाएं और गहरे चटख रंगों की छटा छाई है। नब्बे साल की वजह से उनके हाथ कांपने लगे हैं लेकिन दृष्टि स्थिर और आवाज अनुभव और विश्वास से पूर्ण है। 
     इ न कलाकारों की विदेश यात्राओं और सम्मानों ने आस-पड़ोस के गांव की महिलाओं को इस कला की ओर तेजी से आकृष्ट किया। इस बीच सरकार ने भी कलाकारों को कला का इस्तेमाल आमदनी के एक जरिए के रूप में करने को प्रोत्साहित किया। पुराने कलाकारों ने नए कलाकारों को मिथिला के सामंती समाज की घेरेबंदियों को तोड़ने के लिए उकसाया। दुलारी देवी बताती हैं कि वे पेंटिंग करने के लिए कोलकाता, मुंबई, बेंग्लुरु, मद्रास और केरल तक की यात्रा कर चुकी हैं। लेकिन दो दशक से इस कला में कमी आई है। दिल्ली जैसे शहर में मिथिला पेंटिंग थोक के भाव खरीदी और बेची जाती है। इस पर किसी सिद्ध कलाकार की छाप नहीं मिलती। शिल्प बाजारों और दिल्ली हाट जैसी जगहों पर यह देशी-विदेशी सैलानियों के लिए महज एक ‘गिफ्ट आइटम’ या ‘सोविनेयर’ होकर रह गई है। गंगा देवी, सीता देवी, जगदंबा देवी जैसे कलाकारों का देहांत हो चुका है। महासुंदरी देवी, कर्पूरी देवी ने पेंटिंग करनी छोड़ रखी है। पुरानी पीढ़ी के बउआ देवी, गोदावरी दत्ता जैसे कलाकार बचे हैं और नई पीढ़ी के कलाकार बेगाने हो रहे हैं। किसी को न तो उनकी सुध है और न ही चिंता।
मिथिला पेंटिंग को पहली बार बाहर की दुनिया के सामने लेकर आने वाले ब्रिटिश कलाप्रेमी डब्ल्यूजी आर्चर ने मिथिला चित्र शैली के बारे में लिखा था,‘ ब्राह्मणों की पेंटिंग में प्रयुक्त रंग मिरो की पेंटिंग के समांतर हैं, जबकि कायस्थों की पेंटिंग काले टेराकोटा रंगों के ग्रीक गुलदानों से मिलते-जुलते है। ब्राह्मणों की पेंटिंग में पतली, अस्थिर और कमजोर रेखाएं होती हैं जबकि कायस्थों की पेंटिंग की रेखाएं सधी हुई, मजबूत और स्पष्ट होती है। ’ हालांकि मौजूदा दौर में इस तरह का ठोस विभाजन नहीं मिलता है और दोनों शैलियों के बीच आवाजाही होती है। फिर भी विशिष्टता कायम है।
सत्तर के दशक से इस कला में मैथिल समाज के हाशिए पर रहने वाले दुसाध और मल्लाह समुदाय के लोगों की दखल बढ़ी, जिसने इस कला को एक नई भंगिमा और तेवर दिया। इन समुदायों के निजी-जीवन, आस-पड़ोस की जिंदगी की झलक इनके चित्रों में देखी जा सकती है। दुसाध कलाकारों ने खास तौर से गोदान शैली अपनाया है जिसमें समांतर रेखाओं, वृत्तों और आयातों में गोदाना को ज्यामितीय ढंग से सजाया जाता है। इनमें उनके लोक देवता वीर योद्धा राजा सहलेस का जीवन वृत्त मिलता है। साथ ही काम-काज और पेशे का चित्रण भी है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन चित्रों में सधी रेखाएं और चटख रंग गायब हों। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त शांति देवी के चित्र भरनी शैली से मिलते-जुलते हैं।
   मिथिला के समाज पर तंत्र-मंत्र का काफी प्रभाव रहा है और शक्ति पीठ के रूप में इसकी चर्चा रही है। लोक में पूजा-पाठ, विधि विधान का काफी महत्त्व रहा है और स्वाभाविक रूप से इसकी झलक मिथिला चित्र शैली में देखी जाती है। इस चित्र शैली की एक विशेषता उत्सवधर्मी होना है। नव विवाहित जोड़े के लिए बने कोहबर घर में प्रतीक रूप में प्रजनन के अवयवों, मिथकों और लोक कथाओं का चित्रण जीवन दर्शन को ही निरूपित करता है। साथ ही नदी, नाले, पेड़-पौधे, सूर्य, चंद्र, मछली और दूसरे   पशुओं की एक साथ उपस्थिति जीवन को संपूर्णता में देखने को प्रेरित करती हैं। कोहबर का रूपक कवि विद्यापति की कविताओं में भी प्रमुखता से मिलता है। हालांकि समय के साथ इस चित्र शैली के विषय-वस्तुओं में भी विस्तार हुआ है।
    पिछले तीन दशकों से मिथिला चित्र शैली के प्रचार-प्रसार में जुटी अमेरिका की  ‘एथनिक आर्टस फाउंडेशन’ ने  2007 में दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में ‘मिथिला   पेंटिंग:एक कला रूप का विकास’ नाम से एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था। इस प्रदर्शनी में पुराने कलाकारों मसलन गंगा देवी, सीता देवी की चित्रों के अलावा युवा कलाकरों-उर्मिला देवी,लीला देवी, कृष्णकांत झा, संतोष कुमार दास वगैरह के चित्रों का प्रदर्शन किया गया। जिसे काफी सराहना मिली थी। और उच्चे दामों पर इनकी ब्रिकी भी हुई। इन पेंटिगों में अपने समय और समाज की चिंता थी।
   2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद संतोष कुमार दास ने सांप्रदायिकता को लेकर गुजरात शृंखला  बनाई थी जो काफी चर्चित रही। संतोष कुमार दास ने बड़ौदा के महाराजा सैयाजीराव विश्वविद्यालय से फाइन आर्टस में प्रशिक्षण लिया। बताते हैं कि गुजरात में हुए दंगों के बाद वे काफी दिनों तक अवसाद में रहे थे, जिसके बाद उन्होंने अपनी भावनाओं को कागज पर उतारा।
इसी तरह से मिथिला चित्र शैली में भ्रूण हत्या, दहेज, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद जैसे समसामयिक विषय पारंपरिक विषयों के साथ-साथ चित्रित किए जा रहे हैं। 2003 में एथनिक आर्टस फाउंडेशन ने मधुबनी में ‘मिथिला कला संस्थान’ की स्थापना की जो हर वर्ष समाज के विभिन्न तबकों से 20 छात्रों को चुन कर उन्हें मिथिला चित्र शैली में प्रशिक्षित करता है और छात्रवृत्ति देता है। हालांकि यह संस्थान इस समय कोष की समस्या से जूझ रहा है। संस्थान के अध्यक्ष डेविड जेंटन  का कहना है,‘दिनोंदिन मिथिला चित्र शैली में लोगों की रुचि बढ़ती जा रही है लेकिन अपने कला संस्थान को जारी रखने के लिए हम कोष  नहीं जुटा पा रहे हैं। हर साल इसे चलाने के लिए हमें छह लाख रुपए चाहिए। अमेरिकी कोष का हम इस्तेमाल कर चुके हैं। हम विभिन्न शहरों में प्रदर्शनियों के जरिए पैसा उगाहने की कोशिश कर रहे हैं।’
स्थानीय लोग और राज्य शुरू से उदासीन
ताज्जुब है कि मिथिला पेंटिंग को लेकर स्थानीय लोग और राज्य शुरू से उदासीन रहे हैं। सिर्फ परंपरा के नाम पर वे इसका निर्वहन पीढ़ी दर पीढ़ी करते चले आ रहे हैं। 1934 में बिहार में भारी भूकंप आया था जिसमें जान-माल की काफी क्षति हुई थी। भूकंप पीड़ितों को सहायता पहुंचाने के दौरान तत्कालीन ब्रितानी अफसर और कला प्रेमी डब्ल्यूजी आर्चर की निगाहें क्षतिग्रस्त मकानों की भीतों पर बनी रेल, कोहबर वगैरह पर पड़ी। मंत्रमुग्ध उन्होंने इन चित्रों को अपने कैमरे में कैद कर लिया। बाद में वे इस कला के संग्रह और अध्ययन में जुट गए। 1949 में ‘मार्ग’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में उन्होंने ‘मैथिली पेंटिग’ नाम से एक लेख लिखा जिसमें इस कला में प्रयुक्त बिंबों और प्रतीकों का विवेचन है।  चित्रों के आध्यात्मिक अर्थ और विभिन्न शैली की पड़ताल की गई है। इस लेख के बाद देश-विदेश के कलाप्रेमियों की नजर इस चित्रशैली पर गई। साठ के दशक में आॅल इंडिया हैंडिक्राफ्ट बोर्ड के तबकी निदेशक पुपुल जयकर ने मुंबई के कलाकार भाष्कर कुलकर्णी को मिथिला क्षेत्र में इस कला को परखने के लिए भेजा।
    महासुंदरी देवी ने बताया,‘1961-62 में भास्कर कुलकुर्णी ने मुझसे कोहबर, दशावतार, बांस और पूरइन के चित्रों को कागज पर बना देने के लिए कहा। कागज वे खुद लेकर आए थे। करीब एक साल बाद वे इसे लेकर गए और मुझे चालीस रुपए बतौर प्रोत्साहन दे गए।’ बाद में महासुंदरी ने भास्कर कुलकर्णी के लिए आठ चित्र और बनाए थे। उनका कहना है कि शुरुआत में घर वाले इन चित्रों के बदले मिलने वाले पैसे को अच्छी निगाह से नहीं देखते थे, लेकिन धीरे-धीरे स्थिति बदली। लेकिन पचास साल के बाद भी यह बात हर गांव और परिवार पर लागू नहीं होती है। आज भी कई प्रतिभावान कलाकार महज घरों में इसके आर्थिक पहलुओं से बेखबर पेंटिंग कर रहे हैं। 1965-66 में बिहार में पड़े भीषण अकाल के दौरान भास्कर कुलकर्णी ने इस क्षेत्र की महिलाओं को कागज पर चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया ताकि आमदनी के स्रोत के रूप में यह कला विकसित हो सके। धीरे-धीरे इस कला की प्रदशर्नी और ख्याति फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका और जापान में बढ़ती चली गई। फ्रांस के वैक्स वैकुआद, जर्मनी की एरेका स्मिथ मोसर, अमेरिका के रेमेंड ओएंस, जापान के हासेगावा और भारत के उपेंद्र महर्षि और ज्योतिंद्र जैन वगैरह ने इस चित्र शैली को व्यवस्थित रूप से सहेजा और इसका प्रचार-प्रसार किया। 1988 में जापान में मिथिला लोकचित्र कला संग्रहालय की शुरुआत की गई। महासुंदरी देवी बताती हैं कि पहली बार उनके चित्रों की ही वहां प्रदशर्नी लगाई गई थी। एक पुराने कलाकार ने बताया कि,‘जापान में भले ही आपको मिथिला पेंटिंग की बहुमूल्य तस्वीरें मिल जाएं, लेकिन हमारे पास नहीं है। बिहार सरकार वर्षों से मधुबनी में एक संग्रहालय बनाने की बात करती रही है लेकिन  अभी तक उसे अमलीजामा नहीं पहनाया गया है।
बहरहाल, इन वर्षों में मिथिला चित्र शैली की विषय वस्तु और भाव ही नहीं बदले हैं बल्कि रंग भी बदले हैं। पहले लोक में आसानी से मिलने वाली रंगों का इस पेंटिंग में इस्तेमाल होता था। मसलन, हरी पत्तियों से हरा, गेरू से लाल, काजल और कालिख से काला, सरसों और हल्दी से पीला, सिंदूर से सिंदूरी, पिसे हुए चावल, दूध और गोबर से बने रंगों से ही कलाकार चित्रों को उकेरते थे। लेकिन नए दौर में ज्यादातर कलाकार देशज और प्राकृतिक रंगों के बदले एक्रिलिक रंगों का इस्तेमाल करने लगे हैं, जिससे इनके बिखरने का खतरा नहीं रहता। ​
​   यह सच है कि मिथिला पेंटिग ने अपने बदलते रंगों के साथ चार दशकों में विदेशों में भी गहरी छाप छोड़ी है, लेकिन अपने देश में अब भी उसे ठीक  ठिकाना नहीं मिला है। जहां बाजार में भारतीय कला को मुंह-मांगी कीमतों पर खरीदा-बेचा जा रहा है वहीं मिथिला शैली पर पहचान का संकट है। उसे एक बार फिर से ‘लोक कला’ के खांचे में फिट करके उसकी परवाज रोकने की साजिश की जा रही है। गैरसरकारी संस्थानों और सरकार, दोनों इसके लिए जिम्मेदार हैं। कलाकारों के पास न कोई संगठनशक्ति है, न दबाव बनाने के कोई और तरीके। उनकी चिंता तो बस इतनी है कि किसी तरह गुजारा हो जाए!

ठहराव आ गया है.......................
 मिथिला कला संस्थान के पूर्व निदेशक संतोष कुमार दास से अरविंद दास की बातचीत
’मिथिला पेंटिग के युवा कलाकारों के बारे में आपका क्या कहना है?
सत्तर-अस्सी के दशक में गंगा देवी, सीता देवी इस कला के क्षेत्र में सक्रिय थीं और इस कला के प्रति समर्पित थीं। लेकिन पिछले दशकों में ज्यादातर साधारण कलाकारों का बोल बाला बढ़ा है। एक भीड़ बढ़ी है। उनकी कला ‘हाइब्रिड’ है। वर्तमान में जो कलाकार सक्रिय है, उनमें ज्यादातरों को सही पद्धति का अता-पता नहीं है। ये कारीगर ज्यादा, कलाकार कम हैं। ये प्रयोग करने को तैयार नहीं है। ज्यादातर पेंटिंग आज बाजार को ध्यान में रख कर बनाई जा रही है। जैसे संगीत में जब तक सुर पक्का नहीं होता राग नहीं सध सकता, उसी तरह जब तक रेखाओं पर पूर्ण अधिकार न हो तब तक आप पक्के-कलाकार नहीं बन सकते। फिर भी नीलकांत चौधरी, रौदी पासवान, पुष्पा कुमारी, रामभरोसे जैसे कलाकार अच्छा काम कर रहे हैं।
’सम-सामयिक विषयों को लेकर अन्य कलाकार प्रयोग कर रहे हैं, आपने खुद गुजरात शृंखला बनाकर मिथिला पेंटिंग को एक नई भंगिमा दी?
यह सच है कि कुछ कलाकारों ने प्रयोग किए हैं। इनमें से कुछ को मैंने प्रशिक्षित किया है। यहाँ के पारंपरिक कलाकारों का मानना है कि मैंने इस कला के शिल्प की अवहेलना की है, लेकिन ऐसा नहीं है। मैं एक अलग परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखता हूं और जब मैं मिथिला कला संस्थान में था तो छात्रों को प्रयोग करने, नए विषयों को तलाशने के लिए प्रेरित करता रहा। लेकिन यहां लोगों को यह पसंद नहीं है। मैं पैसे के लिए पेंटिग नहीं बनाता। मेरे लिए विचार और कला ज्यादा अहम है।
’इस कला की संभावनाएं और उसे लेकर परेशानियां क्या हैं?
संभावनाएं अपार हैं लेकिन परेशानियां भी बहुत हैं। मैंने बुद्ध शृंखला को लेकर पचास पेंटिंग बनाई है। मैं इसे बाहर ले जाना चाहता हूं, लेकिन मुझे प्रदर्शनी को लेकर परेशानी हो रही है। यहां कोई कलादीर्घा गैलरी नहीं हैं। सरकार और गैरसरकारी संस्थानों ने बिचौलियों को बढ़ावा दिया है, जिसका असर दिल्ली में दिखता है। दिल्ली  हाट जैसी जगहों पर सिर्फ पर्यटकों को ध्यान में रख कर पेंटिंग बेची जाती है। इसका परिणाम यह हुआ है कि कलाप्रेमियों, कलादीर्घा के पास अच्छी पेंटिग नहीं पहुंच पा रही है।  ( जनसत्ता रविवारीय से साभार   ) ​

    

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