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Tuesday, November 24, 2009

इतिहास की जरूरत किसे है ?




पढ़िए नई दुनिया में इतिहास पर प्रासंगिक लेख।

http://www.naidunia.com/Details.aspx?id=104511&boxid=29736048

खबरों में इतिहास ( भाग-२ )

  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आज से आपको  उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास या मिथकीय इतिहास से संबंधित होंगी। मूल रूप में देने के साथ इन खबरों का मूल लिंक भी रहेगा ताकि आपको मूल स्रोत का भी पता चल सके।

इस अंक के प्रमुख शीर्षक

1767 में स्थापित मां दुर्गा की प्रतिमा

श्रीराम की जन्म तिथि

रामसेतु तथा राम के युग की प्रामाणिकता

४५ हजार साल पुरानी है भारत की जाति व्यवस्था : शोध

India's caste system 'is thousands of years old', DNA shows

रामसेतु तथा राम के युग की प्रामाणिकता
हम भारतीय विश्व की प्राचीनतम सभ्यता के वारिस है तथा हमें अपने गौरवशाली इतिहास तथा उत्कृष्ट प्राचीन संस्कृति पर गर्व होना चाहिए। किंतु दीर्घकाल की परतंत्रता ने हमारे गौरव को इतना गहरा आघात पहुंचाया कि हम अपनी प्राचीन सभ्यता तथा संस्कृति के बारे में खोज करने की तथा उसको समझने की इच्छा ही छोड़ बैठे। परंतु स्वतंत्र भारत में पले तथा पढ़े-लिखे युवक-युवतियां सत्य की खोज करने में समर्थ है तथा छानबीन के आधार पर निर्धारित तथ्यों तथा जीवन मूल्यों को विश्व के आगे गर्वपूर्वक रखने का साहस भी रखते है। श्रीराम द्वारा स्थापित आदर्श हमारी प्राचीन परंपराओं तथा जीवन मूल्यों के अभिन्न अंग है। वास्तव में श्रीराम भारतीयों के रोम-रोम में बसे है। रामसेतु पर उठ रहे तरह-तरह के सवालों से श्रद्धालु जनों की जहां भावना आहत हो रही है,वहीं लोगों में इन प्रश्नों के समाधान की जिज्ञासा भी है। हम इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयत्‍‌न करे:- श्रीराम की कहानी प्रथम बार महर्षि वाल्मीकि ने लिखी थी। वाल्मीकि रामायण श्रीराम के अयोध्या में सिंहासनारूढ़ होने के बाद लिखी गई। महर्षि वाल्मीकि एक महान खगोलविद् थे। उन्होंने राम के जीवन में घटित घटनाओं से संबंधित तत्कालीन ग्रह, नक्षत्र और राशियों की स्थिति का वर्णन किया है। इन खगोलीय स्थितियों की वास्तविक तिथियां 'प्लैनेटेरियम साफ्टवेयर' के माध्यम से जानी जा सकती है। भारतीय राजस्व सेवा में कार्यरत पुष्कर भटनागर ने अमेरिका से 'प्लैनेटेरियम गोल्ड' नामक साफ्टवेयर प्राप्त किया, जिससे सूर्य/ चंद्रमा के ग्रहण की तिथियां तथा अन्य ग्रहों की स्थिति तथा पृथ्वी से उनकी दूरी वैज्ञानिक तथा खगोलीय पद्धति से जानी जा सकती है। इसके द्वारा उन्होंने महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित खगोलीय स्थितियों के आधार पर आधुनिक अंग्रेजी कैलेण्डर की तारीखें निकाली है। इस प्रकार उन्होंने श्रीराम के जन्म से लेकर 14 वर्ष के वनवास के बाद वापस अयोध्या पहुंचने तक की घटनाओं की तिथियों का पता लगाया है। इन सबका अत्यंत रोचक एवं विश्वसनीय वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक 'डेटिंग द एरा ऑफ लार्ड राम' में किया है। इसमें से कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण यहां भी प्रस्तुत किए जा रहे है।

श्रीराम की जन्म तिथि

महर्षि वाल्मीकि ने बालकाण्ड के सर्ग 18 के श्लोक 8 और 9 में वर्णन किया है कि श्रीराम का जन्म चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को हुआ। उस समय सूर्य,मंगल,गुरु,शनि व शुक्र ये पांच ग्रह उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे। ग्रहों,नक्षत्रों तथा राशियों की स्थिति इस प्रकार थी-सूर्य मेष में,मंगल मकर में,बृहस्पति कर्क में, शनि तुला में और शुक्र मीन में थे। चैत्र माह में शुक्ल पक्ष नवमी की दोपहर 12 बजे का समय था।

जब उपर्युक्त खगोलीय स्थिति को कंप्यूटर में डाला गया तो 'प्लैनेटेरियम गोल्ड साफ्टवेयर' के माध्यम से यह निर्धारित किया गया कि 10 जनवरी, 5114 ई.पू. दोपहर के समय अयोध्या के लेटीच्यूड तथा लांगीच्यूड से ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों की स्थिति बिल्कुल वही थी, जो महर्षि वाल्मीकि ने वर्णित की है। इस प्रकार श्रीराम का जन्म 10 जनवरी सन् 5114 ई. पू.(7117 वर्ष पूर्व)को हुआ जो भारतीय कैलेण्डर के अनुसार चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि है और समय 12 बजे से 1 बजे के बीच का है।

श्रीराम के वनवास की तिथि

वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड (2/4/18) के अनुसार महाराजा दशरथ श्रीराम का राज्याभिषेक करना चाहते थे क्योंकि उस समय उनका(दशरथ जी) जन्म नक्षत्र सूर्य, मंगल और राहु से घिरा हुआ था। ऐसी खगोलीय स्थिति में या तो राजा मारा जाता है या वह किसी षड्यंत्र का शिकार हो जाता है। राजा दशरथ मीन राशि के थे और उनका नक्षत्र रेवती था ये सभी तथ्य कंप्यूटर में डाले तो पाया कि 5 जनवरी वर्ष 5089 ई.पू.के दिन सूर्य,मंगल और राहु तीनों मीन राशि के रेवती नक्षत्र पर स्थित थे। यह सर्वविदित है कि राज्य तिलक वाले दिन ही राम को वनवास जाना पड़ा था। इस प्रकार यह वही दिन था जब श्रीराम को अयोध्या छोड़ कर 14 वर्ष के लिए वन में जाना पड़ा। उस समय श्रीराम की आयु 25 वर्ष (5114- 5089) की निकलती है तथा वाल्मीकि रामायण में अनेक श्लोक यह इंगित करते है कि जब श्रीराम ने 14 वर्ष के लिए अयोध्या से वनवास को प्रस्थान किया तब वे 25 वर्ष के थे।


खर-दूषण के साथ युद्ध के समय सूर्यग्रहण

वाल्मीकि रामायण के अनुसार वनवास के 13 वें साल के मध्य में श्रीराम का खर-दूषण से युद्ध हुआ तथा उस समय सूर्यग्रहण लगा था और मंगल ग्रहों के मध्य में था। जब इस तारीख के बारे में कंप्यूटर साफ्टवेयर के माध्यम से जांच की गई तो पता चला कि यह तिथि 5 अक्टूबर 5077 ई.पू. ; अमावस्या थी। इस दिन सूर्य ग्रहण हुआ जो पंचवटी (20 डिग्री सेल्शियस एन 73 डिग्री सेल्शियस इ) से देखा जा सकता था। उस दिन ग्रहों की स्थिति बिल्कुल वैसी ही थी, जैसी वाल्मीकि जी ने वर्णित की- मंगल ग्रह बीच में था-एक दिशा में शुक्र और बुध तथा दूसरी दिशा में सूर्य तथा शनि थे।

अन्य महत्वपूर्ण तिथियां

किसी एक समय पर बारह में से छह राशियों को ही आकाश में देखा जा सकता है। वाल्मीकि रामायण में हनुमान के लंका से वापस समुद्र पार आने के समय आठ राशियों, ग्रहों तथा नक्षत्रों के दृश्य को अत्यंत रोचक ढंग से वर्णित किया गया है। ये खगोलीय स्थिति श्री भटनागर द्वारा प्लैनेटेरियम के माध्यम से प्रिन्ट किए हुए 14 सितंबर 5076 ई.पू. की सुबह 6:30 बजे से सुबह 11 बजे तक के आकाश से बिल्कुल मिलती है। इसी प्रकार अन्य अध्यायों में वाल्मीकि द्वारा वर्णित ग्रहों की स्थिति के अनुसार कई बार दूसरी घटनाओं की तिथियां भी साफ्टवेयर के माध्यम से निकाली गई जैसे श्रीराम ने अपने 14 वर्ष के वनवास की यात्रा 2 जनवरी 5076 ई.पू.को पूर्ण की और ये दिन चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी ही था। इस प्रकार जब श्रीराम अयोध्या लौटे तो वे 39 वर्ष के थे (5114-5075)।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम से श्रीलंका तक समुद्र के ऊपर पुल बनाया। इसी पुल को पार कर श्रीराम ने रावण पर विजय पाई। हाल ही में नासा ने इंटरनेट पर एक सेतु के वो अवशेष दिखाए है, जो पॉक स्ट्रेट में समुद्र के भीतर रामेश्वरम(धनुषकोटि) से लंका में तलाई मन्नार तक 30 किलोमीटर लंबे रास्ते में पड़े है। वास्तव में वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि विश्वकर्मा की तरह नल एक महान शिल्पकार थे जिनके मार्गदर्शन में पुल का निर्माण करवाया गया। यह निर्माण वानर सेना द्वारा यंत्रों के उपयोग से समुद्र तट पर लाई गई शिलाओं, चट्टानों, पेड़ों तथा लकड़ियों के उपयोग से किया गया। महान शिल्पकार नल के निर्देशानुसार महाबलि वानर बड़ी-बड़ी शिलाओं तथा चट्टानों को उखाड़कर यंत्रों द्वारा समुद्र तट पर ले आते थे। साथ ही वो बहुत से बड़े-बड़े वृक्षों को, जिनमें ताड़, नारियल,बकुल,आम,अशोक आदि शामिल थे, समुद्र तट पर पहुंचाते थे। नल ने कई वानरों को बहुत लम्बी रस्सियां दे दोनों तरफ खड़ा कर दिया था। इन रस्सियों के बीचोबीच पत्थर,चट्टानें, वृक्ष तथा लताएं डालकर वानर सेतु बांध रहे थे। इसे बांधने में 5 दिन का समय लगा। यह पुल श्रीराम द्वारा तीन दिन की खोजबीन के बाद चुने हुए समुद्र के उस भाग पर बनवाया गया जहां पानी बहुत कम गहरा था तथा जलमग्न भूमार्ग पहले से ही उपलब्ध था। इसलिए यह विवाद व्यर्थ है कि रामसेतु मानव निर्मित है या नहीं, क्योंकि यह पुल जलमग्न, द्वीपों, पर्वतों तथा बरेतीयों वाले प्राकृतिक मार्गो को जोड़कर उनके ऊपर ही बनवाया गया था।



1767 में स्थापित मां दुर्गा की प्रतिमा

वाराणसी। उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी वाराणसी के मदनपुरा क्षेत्र में एक बंगाली परिवार की ओर से सन 1767 में स्थापित मां दुर्गा की प्रतिमा का अभी भी विसर्जन नहीं किया गया है। दुर्गा प्रतिमा की देख-रेख आज भी मुखर्जी परिवार पारंपरिक रूप से करता है। हजारों लोग प्रतिमा का दर्शन विशेषकर रात्रि में प्रतिदिन करते हैं। प्रतिमा में वही आकर्षण आज भी है जो 1767 में स्थापित होने के समय थी। परिवार के मुखिया प्रशान्त कुमार मुखर्जी बिजली विभाग में जूनियर इंजीनियर है। उन्होंनें कहा कि उनके परिवार के लोग पश्चिम बंगाल के हुगली जिले से आकर वर्षों पहले यहां बस गये थे। सन 1767 में शारदीय नवरात्रि में दुर्गा जी की प्रतिमा घर में स्थापित की गयी। नवरात्रि भर देवी की पारम्परिक ढंग से पूजा होती रही, लेकिन नवरात्रि के अंतिम दिन जब गंगा में विसर्जन के लिये मां दुर्गा की प्रतिमा उठाई जाने लगी तो वह टस से मस नहीं हुई। प्रतिमा को उठाने के लिये दर्जनों लोगों ने मिलकर प्रयास किया लेकिन वह हिली तक नहीं।उस दिन परिवार वालों ने प्रतिमा के विसर्जन करने का फैसला छोड़ दिया। तभी से मां दुर्गा उसी स्थान पर विराजमान है और पारम्परिक ढंग से आज भी प्रतिदिन पूजा हो रही है। मुखर्जी परिवार ने पूजा पाठ के लिये पुजारी रखा है। सिंह पर सवार मां दुर्गा तथा उनके बगल में विराजमान लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती और कार्तिकेय की मूर्तियां मिट्टी, पुआल और बांस से बनी है। प्रतिमा को देखने से ऐसा लगता है कि अभी-अभी कोई बनाकर गया है। प्रतिमा में आज भी वही आकर्षण है जो 242 साल पहले था। प्रतिमा का दर्शन करने के बाद लोग अपने को धन्य मानते हैं। कुछ लोग तो मनौतियां भी मानते है और मां की कृपा से उनकी मनोकामना पूरी होती है यह दावा है प्रशान्त कुमार मुखर्जी का।

दुर्गा जी की प्रतिमा के साथ में काले रंग के पत्थर से बनी विष्णु भगवान की प्रतिमा स्थापित है। इसी के साथ ही साथ मंदिर मे 12 शिवलिंग स्थापित हैं जो मकान बनवाते समय जमीन से मुखर्जी परिवार को मिले थे। मुखर्जी ने बताया कि पूजा पाठ के लिये अलग से पुजारी रखा गया है जो प्रतिदिन आकर विधि विधान से मां दुर्गा की पूजा करता है। उन्होंने कहा कि जरूरत पड़ने पर मां दुर्गा समेत अन्य प्रतिमाओं की मरम्मत और रंगाई होती है। प्रत्येक पूजा पर भक्तों को प्रसाद बांटा जाता है।



४५ हजार साल पुरानी है भारत की जाति व्यवस्था : शोध

भारतीय जनसंख्या दो पुश्तों की आबादी का मिश्रण है। एक ताजा अध्ययन में यह बात सामने आई है। हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एण्ड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी :सीसीएमबी: का हार्वर्ड मेडिकल स्कूल, हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ और ब्रॉड इंस्टीट्यूट ऑफ हार्वर्ड और एमआईटी के सहयोग से किया गया यह अध्ययन जीनोम आधारित पहला तथा सबसे बड़ा शोध माना जा रहा है। शोध दल के सदस्य लालजी सिंह ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा ‘‘यह अध्ययन बताता है कि भारत महज एक तरह की आबादी वाला मुल्क नहीं बल्कि बहुविध जनसंख्या वाला देश है।’’ सिंह ने कहा कि अंडमान के लोगों को छोड़ दें तो मौजूदा भारतीय जनसंख्या पैतृक उत्तर भारतीय :एएनआई: और पैतृक दक्षिण भारतीय :एएसआई: आबादी का मिश्रण है। उन्होंने कहा कि जीनोम विश्लेषण सेपता चला है कि आज की आबादी ४५००० साल पुरानी उत्तर व दक्षिण की दो पैतृक आबादियों का मिश्रण है। शोध से दो पैतृक आबादियां एएनआई और एएसआई के बारे में पता लगा है।शोध से यह बात भी सामने आई है कि आधुनिक मानव जातियां अफ्रीका से दक्षिण, मध्य व दक्षिण एशियाकी तरफ करीब ७०००० हजार वर्ष पहले कूच करना शुरू किया था। भारत में 4635 तरह की परिभाषित आबादियां हैं जिनमें 532 आदिवासी जातियां और 72 आदिम आदिवासी जातियां शामिल हैं। इस शोध के नतीजे अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ के ताजा अंक में प्रकाशित हुए हैं। सिंह ने कहा कि भारत में जाति प्रथा कई युगों से चली आ रही है। उन्होंने कहा कि तथाकथित आर्य लोग कहीं बाहर से नहीं आए थे बल्कि वे भारत में ही रहते थे। ‘‘हमारा अध्ययन मैक्स म्यूलर के सिद्धांत को नहीं मानता।’’



Two roots for Indians G.S. MUDUR

A new genetic study has provided glimpses of India’s population patterns from deeper in the past than before, revealing the existence of two distinct, ancestral populations in the country about 45,000 years ago. Indian and US scientists have used human genes to explore a largely uncharted domain of prehistoric populations and shown that nearly all Indians are descendants in varying genetic proportions of these two distinct populations. The researchers also found that after the ancient admixture, endogamy has shaped marriage patterns in India for thousands of years, predating the caste system.

They analysed more than 560,000 genetic markers from the genomes of 132 Indians representing 25 population groups, six language families and several castes and tribes. The findings will appear in the journal Nature on Thursday. The study has suggested two ancient populations — ancestral North Indians and ancestral South Indians — that had diverged from older population groups, derived from the earliest modern humans who trudged out of Africa some 70,000 years ago.

“They appear to be progenitor populations — nearly all the groups we studied have descended from mixtures of the two,” said Kumarasamy Thangaraj, a co-author and senior scientist at the Centre for Cellular and Molecular Biology (CCMB), Hyderabad. Thangaraj and Lalji Singh from the CCMB collaborated with scientists at the Broad Institute of Harvard and the Massachusetts Institute of Technology to study variations of a large number of genetic markers in individuals from different population groups. The patterns of variation can provide information about genetic distances between the groups and their history.

The genetic patterns suggest that most present-day Indian population groups have inherited 39 per cent to 71 per cent of their ancestry from the ancestral North Indians who are genetically close to central Asians or Eurasians. The balance comes from ancestral South Indians who do not appear to share genetic proximity with any group outside India. “The ancestral South Indians may have diverged from the earliest of modern humans to arrive in India,” Thangaraj said.

The new study was not designed to explore how far back in time the distinct populations arrived, or when they began to mix. But the new data combined with earlier research would put the ancestral South Indians in India about 65,000 years ago and the ancestral North Indians about 20,000 years later.Although there is abundant archaeological evidence — rock shelters, stone tools and wooden spears — for prehistoric human settlements in India, population patterns and movements of the earliest modern humans in India remain unclear. “It seems to me that attempts to postulate a population pattern so far back in history, going back to before 10,000 BC, would have many uncertainties,” said Romila Thapar, emeritus professor of ancient Indian history at Jawaharlal Nehru University, Delhi. “Our data on population groups for such early periods is limited,” Thapar told The Telegraph.

Genetic studies by other research teams have indicated that modern humans began walking out of Africa into West Asia, central Asia and South Asia, about 70,000 years ago. The new study has also confirmed earlier findings from the CCMB that the Onges in the Andamans are the descendants of the first modern humans who moved out of Africa, but have remained isolated on the islands. The Onges appear exclusively related to the ancestral South Indians. “Understanding the origins of the Andamanese (tribes) could provide a window into the history of ancestral South Indians,” Nick Patterson, a mathematician and a team member from the Broad Institute, said in a statement.

The CCMB-Broad Institute study has shown that genetic contribution of ancestral North Indians is high in upper caste and Indo-European language speakers on the subcontinent — such as the Pathans from Pakistan or the Kashmiri Pandits, Vaish, Srivastava groups from India. But some tribal and lower caste groups appear closer to the ancestral South Indians. The study also indicated that four groups — the Onges from Andamans, the Siddhis from Karnataka, and the Nyshi and Ao Naga from the Northeast — have genetic proximity to populations outside India and do not have detectable contributions from either the ancestral North Indians or ancestral South Indians.



India's caste system 'is thousands of years old', DNA shows

India's caste system stretches back thousands of years and was not largely a creation of colonial rule, as some historians claim, a genetic study has shown.

Researchers analysed the DNA of 132 individuals with wide-ranging backgrounds from 25 diverse groups around India. They found evidence of strong inbreeding leading to genetic groups that had been isolated from each other for thousands of years. Most people had a mixture of genes from two ancient populations representing traditionally upper-caste individuals and everyone else. The first was genetically close to people from the Middle East, Central Asia and Europe, while the second had an 'Ancestral South Indian' lineage confined to the subcontinent. The research challenges the notion that India's notorious rigid caste system, with its priestly Brahmans and low-status 'untouchables', was largely manufactured by the British. Some historians claim that while a caste system of sorts had existed since ancient times, in its original form it was not hereditary or inflexible and allowed people to move up and down the social ladder.

It was the British who cemented the caste system into Indian society and culture by using it as a basis of a ''divide and rule'' policy, it is alleged. The caste system was a convenient means of keeping society under control. The new findings published in the journal Nature indicate that, genetically at least, Indians had been divided long before the British arrived. The scientists analysed more than 500,000 genetic markers from people representing 13 states, all six language families in India, traditionally ''upper'' and ''lower'' castes, and tribal groups. One group of Andaman islanders was, unusually, related exclusively to the Ancestral South Indian lineage.

Co-author Dr Nick Patterson, from the Harvard University/MIT Broad Institute in Massachusetts, US, said: ''The Andamanese are unique. Understanding their origins provides a window onto the history of the Ancestral South Indians, and the period tens of thousands of years ago when they diverged from other Eurasians.'' The research has important health implications for Indians. Other genetically isolated groups such as Ashkenazi Jews are well known to suffer from an increased incidence of genetic diseases. The same may be true for many groups in India, the scientists believe. "The finding that a large proportion of modern Indians descend from founder events means that India is genetically not a single large population, but instead is best described as many smaller isolated populations," said Dr Lalji Singh, one of the study leaders from the Centre for Cellular and Molecular Biology in Hyderabad, India.


India’s caste system descended from two tribes ‘not colonialism’

Mark Henderson Science Editor

Genetic profiling shows that the structure of Indian society today reflects early social groupings, not just colonialism India’s caste system is not a relic of colonialism but has existed in some form for thousands of years, the most comprehensive study yet of the genetic diversity of the sub-continent has suggested. The genetic profiles typical of modern castes are indistinguishable from those of much older tribal groups, Indian and American scientists have found. This suggests that they emerged from populations of shared ancestry who have married among themselves for many generations.

The researchers wrote in the journal Nature: “Some historians have argued that caste in modern India is an ‘invention’ of colonialism, in the sense that it became more rigid under colonial rule. However, our results indicate that many current distinctions among groups are ancient and that strong endogamy [marriage within a group] must have shaped marriage patterns in India for thousands of years.”

Kumarasamy Thangaraj, of the Centre for Cellular and Molecular Biology (CCMB) in Hyderabad, and a leader of the study, said: “It is impossible to distinguish castes from tribes using the data. The genetics proves that they are not systematically different. This supports the view that castes grew directly out of tribal-like organisations during the formation of Indian society.” Researchers analysed more than 500,000 genetic markers from 132 people from 25 different groups.

The research established that modern Indians of all castes are descended from two ancestral groups. Indians can trace between 39 per cent and 71 per cent of their ancestry to a population known as the Ancestral Northern Indians (ANI), who are quite closely related to Europeans and Asians. Those with a higher ancestral contribution from the ANI group are more likely to belong to higher castes, and to speak Indo-European languages such as Hindi and Bengali.

The other ancient population are the Ancestral Southern Indians (ASI), who are not genetically close to any group outside the sub-continent. People with a higher ASI ancestry are more likely to belong to lower castes, and to speak non Indo-European languages such as Tamil. The research, by scientists from CCMB in India and Harvard University and the Massachusetts Institute of Technology (MIT) in the United States, has also established that Indians are much more genetically diverse than Europeans.

This result indicates that many modern Indian groups are descended from a small number of “founding individuals”, whose descendants interbred among themselves to create genetically isolated populations. Lalji Singh, director of CCMB, said: “India is genetically not a single large population, but instead is best described as many smaller isolated populations.” This insight has important medical implications for people of Indian origin, because groups that are descended from small founding populations often have a high incidence of inherited diseases. Ashkenazi Jews, for example, have a high risk of Tay-Sachs disease.

This may explain why several genetic conditions are more common in India than elsewhere: a mutation in a gene called MYBPC3, which raises the risk of heart failure sevenfold, is found in 4 per cent of Indians but is exceptionally rare elsewhere. The only ethnic group who do not have this shared ancestry is the indigenous population of the Andaman Islands in the Indian Ocean, who appear to be of exclusively ASI descent.

Nick Patterson, of the Broad Institute of Harvard and MIT, said: “The Andamanese are unique. Understanding their origins provides a window on to the history of the Ancestral South Indians, and the period tens of thousands of years ago when they diverged from other Eurasians.” Mr Singh added: “Our project to sample the disappearing tribes of the Andaman Islands has been more successful than we could have hoped, as the Andamanese are the only surviving remnant of the ancient colonisers of South Asia.”

Aravinda Chakravarti, of Johns Hopkins School of Medicine in Baltimore, Maryland, wrote in a commentary for Nature: “Greater ANI ancestry is significantly associated with Indo-European speakers and with traditionally ‘higher’ caste membership. This provides a model of how diversity within India came about. As such, its details are imperfect and will surely be contested, revised and improved. “Caste and custom may be strong barriers between groups, perhaps even today. But the common shared ancestry and rampant ANI/ASI mixture may be the strong, invisible thread that binds all Indians.”

Wednesday, November 18, 2009

खबरों में इतिहास ( भाग-१ )

  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आज से आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास या मिथकीय इतिहास से संबंधित होंगी। मूल रूप में देने के साथ इन खबरों का मूल लिंक भी रहेगा ताकि आपको मूल स्रोत का भी पता चल सके।

झांसी की रानी का ऐतिहासिक पत्र

http://thatshindi.oneindia.in/news/2009/11/17/letterranijhansias.html

भारत में ब्रितानी शासन के ख़िलाफ़ हुए 1857 के विद्रोह में अहम भूमिका निभाने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की एक महत्वपूर्ण चिट्ठी लंदन में ब्रिटिश लाइब्रेरी के आर्काइव्स में मिली है. झांसी की रानी ने 1857 के विद्रोह से कुछ ही देर पहले यह पत्र ईस्ट इंडिया कंपनी के राजाओं-महाराजाओं के बारे में दस्तावेज़, तस्वीरें और अन्य चीज़े एकत्र की थीं."

झांसी की रानी के इस पत्र में उस रात का विवरण है जब उनके पति की मृत्यु हुई थी. लक्ष्मीबाई ने पत्र में लिखा है कि डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स के डर से उनके पति ने विधिवत ढंग से पुत्र को गोद लिया था ताकि उसे झांसी का अगला राजा स्वीकार किया जाए लेकिन लॉर्ड डल्हाऊसी ने इसे स्वीकार नहीं किया.

वर्ष 1857 में भारत में ब्रितानी शासन के ख़िलाफ़ भड़के विद्रोह में झांसी की रानी ने विद्रोहियों का साथ दिया और जंग के मैदान में ख़ुद अपने सैनिकों का नेतृत्व किया और लड़ते-लड़ते मारी गईं.

मिले डायनासोर के पैरों के निशान

न्यूजीलैंड में डायनासोर के सात करोड़ वर्ष पुराने पदचिह्न् मिले हैं। डायनासोर के पैरों के ये निशान नेल्सन के दक्षिणी द्वीप क्षेत्र में पाए गए हैं। न्यूजीलैंड में डायनासोर के अस्तित्व का यह पहला प्रमाण है।

न्यूजीलैंड सरकार की शोध संस्था जी.एन.एस. साइंस के भू-विज्ञानी ग्रेग ब्राउन को डायनासोर के पैरों के ये निशान मिले हैं। डायनासोर के पैरों के ये निशान करीब 10 किलोमीटर क्षेत्र में छह स्थानों पर फैले हुए हैं। जीवाश्म विज्ञानी हैमिश कैम्पबेल ने कहा कि यह खोज बहुत उत्तेजक है और अब वह उस युग की चट्टानों का अध्ययन करने जा रहे हैं। ( इंडो-एशियन न्यूज सर्विस )।

अब सभी समझ पाएंगे काग की भाषा!
http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_5951744/

पशु-पक्षियों की बोली में भी कोई न कोई संदेश छिपा होता है। प्राचीन काल में लोग पशु-पक्षियों की भाषा पर भविष्यवाणी करते थे जो सटीक बैठती थी। ऐसी ही एक हस्तलिखित पांडुलिपि शिमला के पांडुलिपि रिसोर्स सेंटर को मिली है जिसमें कौव्वे की कांव-कांव का रहस्य छिपा है।

टांकरी लिपि में करीब दो सौ पृष्ठ के इस ग्रंथ का नाम है 'काग भाषा'। यदि रिसोर्स सेंटर इसका अनुवाद करवाता है तो छिपे रहस्य का भी पता चल सकेगा।

तीन सौ साल पुराना, दो सौ पन्नों का यह ग्रंथ शिमला जिले से मिला है जिसमें कौव्वे की बोली से संबंधित जानकारी है। शाम, सुबह या दोपहर को कौव्वे की कांव-कांव का अर्थ क्या होता है,पुस्तक में यह जानकारी है। कौव्वा किस घर के किस दिशा में बैठा है, किस दिशा में मुंह है। इन रहस्यों से पर्दा इसके अनुवाद के बाद ही उठेगा।

रिसोर्स सेंटर में सैकड़ों साल पुराने रजवाड़ाशाही का इतिहास के अलावा आयुर्वेद, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र और यंत्र के अलावा धार्मिक ग्रंथ भी शामिल हैं। यह पांडुलिपियां विभिन्न भाषाओं मसलन पाउची, फारसी, पंडवाणी, चंदवाणी, ब्रह्माी, शारदा, भोटी, भटाक्षरी, संस्कृत, टांकरी, देवनागरी आदि लिपियों में हैं। केंद्रीय पांडुलिपि मिशन ने हिमाचल रिसोर्स सेंटर को पांडुलिपि तलाश अभियान में अव्वल माना है।

सैकड़ों साल पहले जब पुस्तक प्रकाशित करने के संसाधन कम थे तो लोग हाथों से लिखा करते थे। इसमें धार्मिक साहित्य के अलावा ज्योतिष, आयुर्वेद, नाड़ी शास्त्र, तंत्र-मंत्र-यंत्र, इतिहास, काल और घटनाएं होती थी। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने देश में बिखरी इन दुर्लभ पांडुलिपियों को एकत्रित करने के लिए राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन की शुरूआत की। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के तहत हिमाचल भाषा, संस्कृति एवं कला अकादमी को 2005 में रिसोर्स सेंटर घोषित किया गया है।

रिसोर्स सेंटर का कार्य हिमाचल में पांडुलिपियों को ढूंढ़ना, उन्हें संरक्षित करना तथा उसमें छिपे रहस्य को जनता के सामने लाना था। रिसोर्स सेंटर को अभी तक प्रदेश के विभिन्न कोने से 44,642 पांडुलिपियां मिली हैं जो अब ऑनलाइन हैं जबकि 600 के करीब पांडुलिपियां रिसोर्स सेंटर में हैं।

गौरतलब है कि इस भाषा के ज्ञाता बहुत कम ही रह गए हैं। इसलिए रिसोर्स सेंटर ने इसके लिए गुरु-शिष्य परंपरा भी शुरू की है। अधिकतर पांडुलिपियां तंत्र-मंत्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, इतिहास और धर्मग्रंथ से संबंधित पुस्तकें मिल रही हैं।

रिसोर्स सेंटर का कहना है कि सबसे अधिक पांडुलिपियां लाहुल-स्पीति में मिल रही हैं। वहां अभी 3038 पांडुलिपियों का पता चला है। यहां मोनेस्ट्री से संबंधित दस्तावेज ज्यादा हैं। अभी तक टांकरी लिपि में पांच शिष्य गुरु हरिकृष्ण मुरारी से यह लिपि सीख रहे हैं। यह सेंटर कांगड़ा के शाहपुर में खोला गया है। केंद्र सरकार से सिरमौर में पाउची लिपि सिखाने के लिए सेंटर खोलने की अनुमति मिल चुकी है।

पांडुलिपि रिसोर्स सेंटर के कोर्डिनेटर बीआर जसवाल कहते हैं कि कुछ पांडुलिपियों का अनुवाद किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि हिमाचल के कोने-कोने में प्राचीन पांडुलिपियां पड़ी हैं, जिनमें अकूत ज्ञान का भंडार छुपा है। पांडुलिपि के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए समय-समय पर सेमीनार गोष्ठियों का आयोजन किया जाता है।

पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए अलग से सेंटर भी स्थापित किया गया है जहां इन पर केमिकल लगाकर इन्हें संरक्षित किया जाता है। पांडुलिपियों को उपचारात्मक और सुरक्षात्मक उपाय किए जाते हैं। धुएं, फंगस, कीटों का असर नहीं रहता। इसके लिए पैराडाइ क्लोरोवैंजीन, थाइमोल, ऐसीटोन, मीथेन आयल, बेरीक हाइड्राओक्साइड, अमोनिया आदि रसायनों का प्रयोग कर संरक्षित किया जाता है।

खजाने में क्या-क्या

हिमाचल संस्कृति एवं भाषा अकादमी में अब तक जो पांडुलिपियां मिली हैं उनमें प्रमुख कांगड़ा में 600 साल पुराना आयुर्वेद से संबंधित कराड़ा सूत्र है जो भोटी लिपि में लिखा गया है। इसके अलावा कहलूर-हंडूर, बिलासपुर-नालागढ़, सिरमौर रियासत का इतिहास [उर्दू], कटोच वंश का इतिहास, कनावार जिसमें किन्नौर का इतिहास, राजघराने, नूरपूर पठानिया, पठानिया वंश का इतिहास, बृजभाषा में रसविलास, सिरमौर सांचा [पाउची में], रामपुर के ढलोग से मंत्र-तंत्र, राजगढ़ से 300 साला पुराना इतिहास, 12वीं शताब्दी में राजस्थान के पंडित रानी के दहेज में आए थे उनके ग्रंथ भी मिले हैं जो पाउची में हैं।

पांगी में चस्क भटोरी नामक एक पांडुलिपि ऐसी मिली हैं जिसका वजन 18 किलो बताया जा रहा है। एक अन्य पांडुलिपि लाहुल-स्पीति में भोटी भाषा में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। जपुजी साहब, महाभारत, आयुर्वेद, स्कंद पुराण, कुर्सीनामा, राजाओं के वनाधिकार, कुरान तक की प्राचीन पांडुलिपियां मिली हैं।[ब्रह्मानंद देवरानी]

Tuesday, November 3, 2009

नष्ट होने को है महान सम्राट अशोक का एक शिलालेख

     सर्वविदित है कि अशोक ने धर्म प्रचार और प्रशासन के निमित्त देश-विदेश में तमाम अभिलेख व शिलालेख खुदवाकर महत्वपूर्ण स्थलों पर रखवाए थे। तब ये शिलालेख-अभिलेख उसके सुशासन में मदद किए और कालान्तर में प्राचीन भारत का इतिहास लिखने में भी इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी तरह का एक लघुलेख बिहार के कैमूर जिले में एक पहाड़ी पर अवस्खित मगर कुछ विवाद के कारण इसके नष्ट होने की आशंका पैदा हो गई है। सवाल हैदा हो गया है कि इतिहास की कड़ियों को जोड़ने वाले इस ऐतिहासिक साक्ष्य को कैसे बचाया जाए।

      बिहार में कैमूर पहाड़ी पर मौजूद है मौर्य सम्राट अशोक महान का लघु शिलालेख । ब्राह्मी लिपि में इस पर उत्कीर्ण लेख है--एलेन च अंतलेन जंबुदीपसि। इस पंक्ति का अर्थ है- जम्बू द्वीप [भारत] में सभी धर्मो के लोग सहिष्णुता से रहें। आज यह शिलालेख पहाड़ी पर वर्षो से ताले में कैद है।

      इतिहासकार, पुरातत्वविद् व पर्यटक शिलालेख को पढ़ने की चाहत में पहाड़ी पर पहुंचने के बाद वहा से निराश होकर लौटते हैं। खासकर बौद्ध पर्यटक ज्यादा निराश होते हैं। सासाराम से सटी चंदतन पीर नाम की पहाड़ी पर अशोक महान के इस शिलालेख को लोहे के दरवाजे में कैद कर दिया गया है। इस पर इतनी बार चूना पोता गया है कि इसका अस्तित्व ही मिटने को है। यह स्थल पुरातत्व विभाग के अधीन है, पर इस पर दावा स्थानीय मरकजी दरगाह कमेटी का है, कमेटी ने ही यह ताला जड़ा है।

     जिला प्रशासन से लेकर राज्य सरकार तक से गुहार लगाकर थक चुके पुरातत्व विभाग ने अब इस विरासत से अपने हाथ खड़े कर लिए हैं। इतिहास गवाह है कि सम्राट अशोक महान ने तीसरी शताब्दी ई. पूर्व देशभर में आठ स्थानों पर लघु शिलालेख लगाए थे। इनमें से बिहार में एकमात्र शिलालेख सासाराम में है। शिलालेख उन्हीं स्थानों पर लगाए गए थे, जहा से होकर व्यापारी या आमजन गुजरते थे। सम्राट अशोक ने यहा रात भी गुजारी थी।

   व्यूठेना सावने कटे 200506 सत विवासता। इस पंक्ति में कहा गया है कि अशोक ने जनता के दुखदर्द को जानने के लिए कुल 256 रातें महल से बाहर गुजारी थीं। पुरातत्व विभाग के अधिकारी नीरज कुमार बताते हैं कि चार वर्ष पूर्व आए कुछ बौद्ध पर्यटकों ने तत्कालीन डीएम विवेक कुमार सिंह से मिलकर बंद ताले पर विरोध जताया था। डीएम ने इस पर पुरातत्व विभाग से ब्योरा देने के लिए कहा था। रिपोर्ट मागने पर विभाग ने पूरी स्थिति स्पष्ट की थी। मई 2009 में पुरातत्व विभाग, पटना ने सासाराम के डीएम, एसपी, एसडीओ को पत्र लिखकर शिलालेख के संरक्षण की माग की थी। अफसरों ने वस्तुस्थिति का जायजा लेकर हर पक्षों को सुना था, परंतु मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। फिलहाल वहा पुरातत्व का एक बोर्ड तक नहीं है। तालाबंदी के पीछे मरकजी दरगाह कमेटी के अपने तर्क हैं। ( साभार -याहू जागरण )



इतिहास के आईने में महान सम्राट अशोक

अपने भाइयों के रक्त से रंजित मगध के सिंहासन पर आरूढ़ होकर अशोक ने अपना साम्राज्य शुरू किया था, किंतु कलिंग विजय के पश्चात इसके जीवन में एक ऐसा मोड़ आया। जिसमें उसके संपूर्ण जीवन-दर्शन को बदल दिया। उसे अपनाकर वह बना ‘प्रियदर्शी’ और हृदय सम्राट-महान अशोक !
अशोक की महत्वाकांक्षा कलिंग विजय के बाद क्षत-विक्षत हो गई। इस विजय से अशोक का हृदय हिल उठा। रही-सही कसर महारानी विदिशा के उस पुत्र ने पूरी कर दी, जिसमें उसने लिखा था-‘हिंसा का मार्ग अपनाकर क्योंकि आप अपने वचन से हट गये हैं, इसलिए मैं आपका और आपकी संतान का त्याग करती हूं।’ अभी अशोक इन अघातों से उभर ही नहीं पाए थे कि उस बालभिक्षु की बातों ने, जो उसका भतीजा था- जिसके पिता की हत्या अशोक ने की थी, सम्राट के दिलो-दिमाग को बुरी तरह मथ दिया और वे भी बुद्ध की शरण में चले गए। देश-विदेश में बौद्धधर्म का प्रचार अशोक ने जिस तरह से किया, उसकी बराबरी इतिहास में नहीं मिलती। पहले संक्षेप में देखें अशोक के जीवन के घटनाक्रम जिसने खुद उनका जीनदर्शन और भारत के इतिहास को नया आयाम दिया।

अशोक (२७३ ई. पू. से २३६ ई. पू.)

     राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष लगे । इस कारण राज्यारोहण चार साल बाद २६९ ई. पू. में हुआ था । वह २७३ ई. पू. में सिंहासन पर बैठा । अभिलेखों में उसे देवाना प्रिय एवं राजा आदि उपाधियों से सम्बोधित किया गया है । मास्की तथा गर्जरा के लेखों में उसका नाम अशोक तथा पुराणों में उसे अशोक वर्धन कहा गया है । सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने ९९ भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था, लेकिन इस उत्तराधिकार के लिए कोई स्वतंत्र प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ है ।
     दिव्यादान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी है, जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी । सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जयिनी जाते समय अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने श्रेष्ठी की पुत्री देवी से विवाह किया जिससे महेन्द्र और संघमित्रा का जन्म हुआ । दिव्यादान में उसकी एक पत्नीस का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है । उसके लेख में केवल उसकी पत्नी् का नाम करूणावकि है जो तीवर की माता थी । बौद्ध परम्परा एवं कथाओं के अनुसार बिन्दुसार अशोक को राजा नहीं बनाकर सुसीम को सिंहासन पर बैठाना चाहता था, लेकिन अशोक एवं बड़े भाई सुसीम के बीच युद्ध की चर्चा है ।

अशोक का कलिंग युद्ध

अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष २६१ ई. पू. में कलिंग पर आक्रमण किया था । आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद २६९ ई. पू. में उसका विधिवत्‌ अभिषेक हुआ । तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख ५० हजार व्यक्तिु बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी । सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा । इससे द्रवित होकर अशोक ने शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया ।
कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया । उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया । उसने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की । यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग शुरू हुआ । उसने बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया ।
   सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी । तत्पश्चाषत्‌ मोगाली पुत्र निस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था । दिव्यादान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुक को जाता है । अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी । तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी तथा लुम्बिनी ग्राम को करमुक्तस घोषित कर दिया था ।

अशोक एवं बौद्ध धर्म

कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने व्यक्ति गत रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया । अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की । इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्नी देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया ।
दिव्यादान में उसकी एक पत्नीज का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है । उसके लेख में केवल उसकी पत्नीी करूणावकि है । दिव्यादान में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगताशोक का नाम का उल्लेख है ।  विद्वानों अशोक की तुलना विश्वि इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस, अकबर, सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है ।
     अशोक ने अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वनविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं । एच. जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है ।" अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया ।

अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-

(अ) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ, (ब) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्तिे, (स) धर्म महापात्रों की नियुक्तिन, (द) दिव्य रूपों का प्रदर्शन, (य) धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था, (र) लोकाचारिता के कार्य, (ल) धर्मलिपियों का खुदवाना, (ह) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि ।
    अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया । वह अभिषेक के १०वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया । कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी । अपने अभिषेक २०वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की । नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई । बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त किया । स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया । अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे धर्म महापात्र कहा गया था । इसका कर्य विभिन्न् धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था ।

अशोक के शिलालेख

अशोक के १४ शिलालेख विभिन्न लेखों का समूह है जो आठ भिन्नध-भिन्नक स्थानों से प्राप्त किए गये हैं-

(१) धौली- यह उड़ीसा के पुरी जिला में है ।

(२) शाहबाज गढ़ी- यह पाकिस्तान (पेशावर) में है ।

(३) मान सेहरा- यह हजारा जिले में स्थित है ।

(४) कालपी- यह वर्तमान उत्तरांचल (देहरादून) में है ।

(५) जौगढ़- यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है ।
(६) सोपरा- यह महराष्ट्र के थाणे जिले में है ।

(७) एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है ।

(८) गिरनार- यह काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास है ।

अशोक के लघु शिलालेख

अशोक के लघु शिलालेख चौदह शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं है जिसे लघु शिलालेख कहा जाता है । ये निम्नांकित स्थानों से प्राप्त हुए हैं-

(१) रूपनाथ- यह मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में है ।

(२) गुजरी- यह मध्य प्रदेश के दतुया जिले में है ।

(३) भबू- यह राजस्थान के जयपुर जिले में है ।

(४) मास्की- यह रायचूर जिले में स्थित है ।

(५) सहसराम- यह बिहार के शाहाबाद जिले में है ।
     धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अशोक ने मानव व पशु जाति के कल्याण हेतु पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मानव तथा पशु के लिए अलग चिकित्सा की व्य्वस्था की । अशोक के महान पुण्य का कार्य एवं स्वर्ग प्राप्ति का उपदेश बौद्ध ग्रन्थ संयुक्त निकाय में दिया गया है ।
अशोक ने दूर-दूर तक बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु दूतों, प्रचारकों को विदेशों में भेजा अपने दूसरे तथा १३वें शिलालेख में उसने उन देशों का नाम लिखवाया जहाँ दूत भेजे गये थे । दक्षिण सीमा पर स्थित राज्य चोल, पाण्ड्या, सतिययुक्तर केरल पुत्र एवं ताम्रपार्णि बताये गये हैं ।

अशोक के अभिलेख

अशोक के अभिलेखों में शाहनाज गढ़ी एवं मान सेहरा (पाकिस्तान) के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण हैं । तक्षशिला एवं लघमान (काबुल) के समीप अफगानिस्तान अभिलेख आरमाइक एवं ग्रीक में उत्कीर्ण हैं । इसके अतिरिक्त् अशोक के समस्त शिलालेख लघुशिला स्तम्भ लेख एवं लघु लेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं । अशोक का इतिहास भी हमें इन अभिलेखों से प्राप्त होता है ।
अभी तक अशोक के ४० अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं । सर्वप्रथम १८३७ ई. पू. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता हासिल की थी ।
रायपुरबा- यह भी बिहार राज्य के चम्पारण जिले में स्थित है ।
प्रयाग- यह पहले कौशाम्बी में स्थित था जो बाद में मुगल सम्राट अकबर द्वारा इलाहाबाद के किले में रखवाया गया था ।

अशोक के लघु स्तम्भ लेख

सम्राट अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है जो निम्न स्थानों पर स्थित हैं-

१. सांची- मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में है ।

२. सारनाथ- उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में है ।

३. रूभ्मिनदेई- नेपाल के तराई में है ।

४. कौशाम्बी- इलाहाबाद के निकट है ।

५. निग्लीवा- नेपाल के तराई में है ।

६. ब्रह्मगिरि- यह मैसूर के चिबल दुर्ग में स्थित है ।

७. सिद्धपुर- यह ब्रह्मगिरि से एक मील उ. पू. में स्थित है ।

८. जतिंग रामेश्वैर- जो ब्रह्मगिरि से तीन मील उ. पू. में स्थित है ।

९. एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है ।

१०. गोविमठ- यह मैसूर के कोपवाय नामक स्थान के निकट है ।

११. पालकिगुण्क- यह गोविमठ की चार मील की दूरी पर है ।

१२. राजूल मंडागिरि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है ।

१३. अहरौरा- यह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है ।

१४. सारो-मारो- यह मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में स्थित है ।

१५. नेतुर- यह मैसूर जिले में स्थित है ।

अशोक के गुहा एवं स्तम्भ लेख

दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित बराबर नामक तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण प्राप्त हुए हैं । इन सभी की भाषा प्राकृत तथा ब्राह्मी लिपि में है । केवल दो अभिलेखों शाहवाजगढ़ी तथा मान सेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है । यह लिपि दायीं से बायीं और लिखी जाती है ।
तक्षशिला से आरमाइक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख कन्धार के पास शारे-कुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमाइक द्विभाषीय अभिलेख प्राप्त हुआ है ।



अशोक के स्तम्भ लेख

अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या सात है जो छः भिन्नन स्थानों में पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं । इन स्थानों के नाम हैं-

(१) दिल्ली तोपरा- यह स्तम्भ लेख प्रारंभ में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में पाया गया था । यह मध्य युगीन सुल्तान फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया । इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं ।

(२) दिल्ली मेरठ- यह स्तम्भ लेख भी पहले मेरठ में था जो बाद में फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया ।

(३) लौरिया अरराज तथा लौरिया नन्दगढ़- यह स्तम्भ लेख बिहार राज्य के चम्पारण जिले में है ।

विराट नगर में अशोक के शिलालेख

राजस्थान के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग ने महाभारतकालीन विराटनगर में पहाड़ी चट्टान पर उत्कीर्ण सम्राट अशोक धर्मलेख को संरक्षित स्मारक घोषित किया है। जयपुर जिले के विराटनगर में भीम की डूँगरी के तले एक स्वतंत्र चट्टान पर यह धर्मलेख मौजूद है। इसके निकट ही अकबरी दरवाजा या मुगल गेट है, जिसमें मुगल कालीन भिति चित्रकारी है। कुछ माह पूर्व ही इस ऐतिहासिक स्थल को संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है। पानी इत्यादि से सुरक्षा के उपायों के साथ ही इसके निकट एक दरवाजा लगाया गया है। इस चट्टान पर उत्कीर्ण आलेख को हिंदी और अंग्रेजी में अनूदित करके एक पृथक पट्ट भी शीघ्र लगाया जाएगा। अभी तक यह शिलालेख केन्द्र या राज्य सरकार की ओर से संरक्षित नहीं था। शिरोरेखाविहीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण एवं पाली भाषा में लिखित इस अभिलेख में आठ पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इसमें सम्राट प्रियदर्शी अशोक ने अपने बारे में कहा है 'अढ़ाई वर्ष से अधिक हुए हैं, मैं उपासक हुआ।' दरअसल यह धर्मलेख सम्राट अशोक के रूपनाथ एवं सहसराम लेख का विराटनगर संस्करण माना जाता है।

    वर्ष 1871-72 में कारलायल ने अपनी शोधयात्रा के दौरान इस शिलालेख को खोज निकाला था। बीच में पर्याप्त घिसा हुआ होने के कारण कारलायल ने भ्रमवश इसे दो भिन्न लेखों के रूप में मान लिया, लेकिन कालांतर में कनिघम ने इसका निराकरण कर दिया। ऐतिहासिक विराटनगर में अशोक महान के दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं। राजस्थान में प्राप्त यह प्राचीनतम अभिलेख बौद्ध धर्म के इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। अपने जमाने में विराटनगर की बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र के नाते पहचान थी।

भारत में ब्रिटिशकाल में कैप्टन बर्ट ने 1837 में विराटनगर से 12 मील उत्तर में स्थित भाब्रू गाँव से सम्राट अशोक का अभिलेखयुक्त शिलाफलक खोजा था। इसका आकार दो फुट गुणा दो फुट गुणा डेढ़ फुट है। यह माना जाता है कि मूलतः शिलाफलक बीजक की पहाड़ी से मिला था, जो कालांतर में भाब्रू पहुँच गया। बाद में यह सम्राट अशोक के भाब्रू बैराठ कोलकाता अभिलेख के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यह कोलकाता में बंगाल एशियाटिक सोसायटी के भवन में जेम्सप्रिंसेप की मूर्ति के सामने लगा हुआ है।

अशोक ने इस अभिलेख के आरंभ में बौद्ध धर्म के त्रिरत्न बुद्ध धर्म और संघ में अपनी निष्ठा का उल्लेख किया है। सम्राट ने गर्व के साथ यह भी घोषणा की है कि भगवान बुद्ध ने जो कुछ कहा है, वह सब अच्छा ही कहा है। अभिलेख में बौद्ध धर्म के सात उद्धरणों के नाम भी गिनाए हैं।
राजस्थान के जयपुर जिले में शाहपुरा से 25 किलोमीटर दूर विराटनगर कस्बा अपनी पौराणिक ऐतिहासिक विरासत को आज भी समेटे हुए है। यह स्थल राजा विराट के मत्स्य प्रदेश की राजधानी के रूप में विख्यात था। यही पर पांडवों ने अपने अज्ञातवास का समय व्यतीत किया था। महाभारत कालीन स्मृतियों के भौतिक अवशेष तो अब यहां नहीं रहे किंतु यहां ऐसे अनेक चिन्ह हैं जिनसे पता चलता है कि यहां पर कभी बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय के अनुयायियों का विशेष प्रभाव था। विराट नगर, जिसे पूर्व में वैराठ के नाम से भी जाना जाता था, के दक्षिण की ओर बीजक पहाड़ी है।विराट नगर की बुद्ध-धाम बीजक पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक चट्टान है जिस पर भब्रू बैराठ शिलालेख उत्कीर्ण है। इसे बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों के अलावा आम लोग भी पढ़ सकते थे। इस शिलालेख को भब्रू शिलालेख के नाम से भी जाना जाता था। यह शिलालेख पाली व ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ था।

    इसे सम्राट अशोक ने स्वयं उत्कीर्ण करवाया था ताकि जनसाधारण उसे पढ़कर तदनुसार आचरण कर सके। इस शिला लेख को कालान्तर में 1840 में ब्रिटिश सेनाधिकारी कैप्टन बर्ट द्वारा कटवा कर कलकत्ता के संग्रहालय में रखवा दिया गया। आज भी विराटनगर का यह शिलालेख वहां सुरक्षित रखा हुआ है। इसी प्रकार एक और शिला लेख भीमसेन डूंगरी के पास आज भी स्थित है। यह उस समय मुख्य राजमार्ग था।

    बीजक की पहाड़ी पर बने गोलाकार मन्दिर के प्लेटफार्म के समतल मैदान से कुछ मीटर ऊंचाई पर पश्चिम की तरफ एक चबूतरा है जिसके सामने भिक्षु बैठकर मनन व चिन्तन करते थे। यहीं पर एक स्वर्ण मंजूषा थी जिसमें भगवान बुद्ध के दो दांत एवं उनकी अस्थियां रखी हुई थीं। अशोक महान बैराठ में स्वयं आए थे। यहां आने के पहले वे 255 स्थानों पर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार कर चुके थे। बैराठ वर्षों तक बुद्धम् शरणम् गच्छामी, धम्मम् शरणम् गच्छामी से गुंजायमान रहा है।
अशोक ने बनवाया बोधगया का पहला मंदिर

महाबोधि मंदिर परिसर भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित चार पवित्र स्थलों में से एक और विशेष रूप से उनके बुद्धत्व की प्राप्ति का स्थल है. पहला मंदिर सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व 3 री शताब्दी में बनवाया था, और वर्तमान मंदिर 5 वीं से 6 वीं शताब्दी का है. यह भारत में पूर्ण रूप से ईंटों से बने शुरुआती बौद्ध मंदिरों में से एक है, यह गुप्त काल के अंतिम समय का है और आज भी विद्यमान है.

अभिलेख की प्रामाणिकता

मापदंड (i): विशाल 50 मीटर ऊँचा महाबोधि मंदिर 5 वीं से 6 ठी शताब्दी का है, और भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद प्राचीनतम मंदिरों में से एक है. यह मंदिर उस युग में ईंट से बने पूर्ण रूप से विकसित मंदिरों के भारतीय स्थापत्य की निपुणता के कुछ उदाहरणों में से एक है.
मापदंड (ii) महाबोधि मंदिर, भारत के ईंट से बने शुरुआती मंदिरों में से बचे हुए मंदिरों में से एक है, शताब्दियों तक स्थापत्य के विकास में इसका बहुत प्रभाव रहा है. मापदंड (iii) महाबोधि मंदिर स्थल बुद्ध के जीवन और उसके बाद, सम्राट अशोक ने पहला मंदिर, जंगला और स्मारक स्तंभ बनाया तब से पूजा से संबंधित घटनाओं का अभिलेख है.

मापदंड (iv) वर्तमान मंदिर प्राचीनतम में से एक हैं और गुप्त काल के उत्तराद्ध में पूरी तरह से ईंट की बनी सबसे प्रभावशाली संरचना है. तराशा गया पत्थर का जंगला पत्थर में शिल्प का प्रारंभिक उत्कृष्ट उदाहरण है.

मापदंड (vi) बोधगया का महाबोधि मंदिर परिसर का भगवान बुद्ध के जीवन से सीधा संबंध है, यही वह स्थान भी है जहाँ उन्होंने बुद्धत्व को प्राप्त किया था.
 
नेपाल के बौद्धस्तूप



भारतीय कैलेंडर की विकास यात्रा


प्राचीन भारत की झलक


धूमधाम से मनी सम्राट अशोक जयंती


बिहार और अशोक


इतिहास के पन्नों में बिहार


सफलता और उद्यम – अशोक का शिलालेख


इंस्क्रिप्‍शन्‍स ऑफ अशोक


Ashoka the Great


सम्राट अशोक



  

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