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Thursday, December 31, 2009

नष्ट हो रही है त्रिपुरा की ७०० साल पुरानी एक कलाकृति

खबरों में इतिहास ( भाग-४)

अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास या मिथकीय इतिहास से संबंधित होंगी। मूल रूप में देने के साथ इन खबरों का मूल लिंक भी है ताकि आपको मूल स्रोत की पहचान और प्रमाणिकता भी बनी रहे। इस अंक में पढ़िए--------।

१-नष्ट हो रही है त्रिपुरा की ७०० साल पुरानी एक कलाकृति


२-झुग्गियों में रहने को मजबूर हैं बहादुरशाह जफर की प्रपौत्र वधू सुल्ताना बेगम




  
दक्षिण त्रिपुरा के घने जंगलों में पहाड़ पर उकेरी गई ५०० से लेकर ७०० साल पुरानी देवी प्रतिमा (कलाकृति ) उपेक्षित पड़ी हुई है। इतिहास के पन्नों में बतौर साक्ष्य जुड़ने से पहले ही नष्ट होने की कगार पर है। जहां यह पुरातात्विक महत्व की प्रतिमा अवस्थित है, वह इलाका देवतामुरा कहलाता है और पूरी तरह से निर्जन है। इसके ६० किलोमाटर के दायरे में सिर्फ घना जंगल है। गोमती नदी यहां से होकर गुजरती है। नदी के सतह से करीब २०० फीट सीधे ऊपर पहाड़ पर हिंदू देवी ( संभवतः दुर्गा ) की आकृति तराशी गई है।

दक्षिण त्रिपुरा के अमरपुर के पास रांगामांटी घाट से गोमती नदी में नाव से यहां पहुंचने में करीब तीन-चार घंटे लग जाते हैं। वही लौटनें में पांच घंटे से ज्यादा समय लग जाता है। लौटनें में ज्यादा समय इसलिए लगता है क्यों कि नाव को तब नदी की धारा के विपरीत चलना होता है। देवतामुरा चारों तरफ से हरियाली से घिरा ऐसा निर्जन इलाका है जहीं की नीरवता सिर्फ पक्षियों के यदा-कदा कोलाहल से ही टूटता है। त्रिपुरा के मशहूर कलाकार स्वपन नंदी, त्रिपुरा सरकार के सूचना, सास्कृतिक मामले व पर्यटन विभाग में निदेशक रह चुके सुभाष दास और एक आईटी प्रोफेशनल विशवजीत भट्टाचार्य व नाव खेने वाले केवट धर्म जमातिया ने इस इलाके का यात्रा की। विश्वजीत के मुताबिक यहां से गुजरना उस अमेजन नदी से गुजरने जैसा हो जिसमें अनाकोंडा का खौफ न हो। धर्म जमातीया का कहना है कि कुछ ङठी लोग ही यहां सकते हैं।

सुभाष दास की राय में यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि सीधे पहाड़ पर जहां खड़े होने की भी जगह नहीं है, हिंदू देवी की आकृति प्राचीन कलाकारों ने कब तराशी होगी ? उनकी राय में यह ५०० से लेकर ७०० वर्ष तक पुरानी होगी।

कहा जाता है कि अमरपुर के राजा अमर माणिक्य ( १५७७- ८६ ई.) को मुगल शासक होतन खान आक्रमण करके हरा दिया। राजपाट छिन जाने पर राजा अमर ने गोमती नदी वाले घने जंगल में नदी के किनारे शरण ली। कहते हैं कि उनके साथ एक कलाकार ( मूर्तिकार ) भी था। शायद उसी ने इस दुर्म पहाड़ पर देवी दुर्गा जैसी आकृति पहाड़ काटकर बनाई होगी। इस स्थल को देखने गईं इस टीम को वहां लोहे के कुछ टुकड़े मिले जो इनकी राय में बंदूकों से चली गोलियां हैं। इन्हें देवी की आकृति के पास फायर की गई गोलियों से निशान भी देखने को मिले। इस बारें में स्वपन नंदी का कहना है कि यहां से नदी के रास्ते से गुजर रहे मुगल सिपाहियों ने शायद फायर किए होंगे। स्वपन नंदी इसे देवी दुर्गा की आकृति मानते हैं।नंदी के मुताबिक यहां मुगल सिपाही आए रहे होंगे और दुर्गा देवी की आकृति नष्ट करने की मंशा से फायर किए होंगे। नंदी आकृति के पास ही सुरा के ऐसे गिलास की आकृति होने की बात कहते हैं जिसे मुगल प्रयोग में लाते थे। उनका कहना है कि जब इस आकृति को मुगल सिपाही नष्ट नहीं कर पाए तो वहीं देवी की आकृति के नीचे एक सुरा की गिलास भी बना दिया। फिलहाल इस दुर्गम जगह में अवस्थित इस महत्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य का कई सालों से संरक्षण स्वपन नंदी और कुछ स्थानीय कलाकार कर रहे हैं। वे अमरपुर में ठहरकर देवतामुरा जाते हैं।


सुभाष दास की राय में इस स्थल को इतिहास के पन्नों में जोड़ने के लिए विशेषग्यों की तलाश है। कहते हैं कि देवतामुरा की आकृति कलाकारों ने कैसे तराशी होगी जबकि वहां खड़ा होना भी मुश्किल है। छिन्नी व हथौड़ियों के सहारे इस दुर्गम स्थल पर उन साधनहीन दिनों में ऐसी कलाकारी का नमूना पेश करना ताज्जुब की बात है। अगर आप उस स्थल को देखें तो आपको भी लगा होगा कि कलाकार वहां कैसे पहुंचे होंगे। यह प्राचीन युग का चमत्कार ही है। दास का कहना है कि उन्होंने दुनिया के की हैरतअंगेज स्थलों का दौरा किया है मगर देवतामुरा का यह पुरातात्विक महत्व का स्थल कम आश्चर्यजनक नहीं है। इसके बादजूद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और त्रिपुरा राज्य सरकार ने इसके संरक्षण में कभी रुचि नहीं दिखाई। यह आकृति संरक्षण के अभाव में नष्ट हो रही है। इतिहास के साक्ष्यों के प्रति ऐसी उदासीनता अक्षम्य है। या फिर कह सकते हैं इसको राजकीय संरक्षण देने के जिम्मेदार लोगों में इतिहास बोध का अभाव है। इन लोगों की राय में अगर फौरन संरक्षण नहीं मिला तो चार पांच सालों में यह कलाकृति में नष्ट हो जाएगी।

झुग्गियों में रहने को मजबूर हैं बहादुरशाह जफर की पौत्रवधू


 आज के चमकते-दमकते और आर्थिक रू प से तेजी से बढ़ते भारत में इतिहास के सशक्त हस्ताक्षरों के वंशजों की दशा के बारे में सोचने की किसी को फुरसत नहीं है। शायद इसीलिए मुगल शासन के अंतिम बादशाह बहादुरशाह जफर की प्रपौत्र वधू सुल्ताना बेगम  आज झुग्गियों में रहने को मजबूर हैं।
बहादुरशाह जफर की प्रपौत्र वधू सुल्ताना बेगम वर्तमान में कोलकाता की एक छोटी-सी झुग्गी में रहती हैं और जीवन-यापन के लिए वह एक चाय की दुकान चला रही हैं। अब मुगलकाल के अंतिम नरेश की प्रपौत्र वधू सुल्ताना बेगम की जिंदगी को झुग्गियों से निकालने के लिए आगे आए हैं पत्रकार शिवनाथ झा। इस के लिए झा ने ‘प्राइम मिनिस्टर्स आॅफ इंडिया- भारत भाग्य विधाता’ नामक एक किताब लिखी है, जिसमें 1947 से अब तक के सभी प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल का लेखा-जोखा है।

झा इस किताब के माध्यम से सुल्ताना की जिंदगी को झुग्गियों से निकालने के काम में लगे हैं। झा इसमें सुल्ताना की दुर्दशा की कहानी को बताने के साथ ही, किताब की बिक्री से अर्जित राशि को सुल्ताना के जीवनस्तर को सुधारने में लगाएंगे। झा ने बताया कि मैंने इससे पहले शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खां और 1857 के सैन्य विद्रोह के महान योद्धा टात्या टोपे के वंशज विजयराव टोपे को किताबों के माध्यम से आर्थिक मदद देने का सफल प्रयास किया। 2006 से मैं हरेक साल इस तरह के किसी एक व्यक्ति के ऊपर किताब लिखता हूं, जिससे उस व्यक्ति के जीवन स्तर में कुछ सुधार किया जा सके।

शिवनाथ ने कहा कि बिस्मिल्लाह खां साहब और टोपे की हमने हरसंभव मदद करने की कोशिश की। अब बारी सुल्ताना बेगम की है। उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र से जुडेÞ सभी लोगों से इस तरह के लोगों को सहायता देने की अपील करते हुए कहा कि हम सभी को इस काम के लिए अपने-अपने स्तर से प्रयास करना चाहिए। अंग्रेजी भाषा में छपी ‘प्राइममिनिस्टर्स आॅफ इंडिया- भारत भाग्य विधाता’ में कुल 444 पन्ने हैं और इसमें जाने-माने इतिहासकार विपिन चंद्रा, लेखक इंद्रजीत बधवार, पत्रकार वीर सांघवी, पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह और केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद आदि लेखकों ने अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल की समीक्षा की है।

इस किताब में कुछ ऐसे दुर्लभ फोटो लगाए गए हैं, जो आम तौर पर उपलब्ध नहीं होते। इसकी ऊंची कीमत इसको आम आदमी के पहुंच से दूर कर देती है। इस किताब की कीमत सात हजार नौ सौ 95 रुपए रखी गई है। लेकिन झा को उम्मीद है कि इस बार भी उनका प्रयास सफल होगा।( भाषा )।
 

Tuesday, December 29, 2009

सारनाथ में ढाई हजार वर्ष पुरानी दीवार

खबरों में इतिहास ( भाग-३)

अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास या मिथकीय इतिहास से संबंधित होंगी। मूल रूप में देने के साथ इन खबरों का मूल लिंक भी है ताकि आपको मूल स्रोत की पहचान और प्रमाणिकता भी बनी रहे। इस अंक में पढ़िए--------।
१-सारनाथ में ढाई हजार वर्ष पुरानी दीवार

२-कांस्य युगीन आभूषण, हथियार सहित 12 हजार से ज्यादा वस्तुओं का संग्रह

३- 35 हज़ार साल पुरानी बांसुरी

४-यूपी में मिलीं 300 साल पुरानी तलवारें

५-मंदिर जहां भगवान शिव पर चढ़ाए जाते हैं झाड़ू!

६-सोने की 300 साल पुरानी कुरान


सारनाथ में ढाई हजार वर्ष पुरानी दीवार मिली

  सारनाथ बुद्ध की तपोस्थली है। विश्व पर्यटन के नक्शे में होने के कारण प्रतिदिन हजारों की संख्या में विभिन्न देशों से यहां पर्यटक आते हैं। यहां पिछले आठ वर्षों से भारतीय पुरातत्व विभाग की ओर से गुप्तकाल के समय बने चौखंडी स्तूप परिसर की वैज्ञानिक तरीके से खुदाई तथा सफाई कार्य चल रहा है। मंगलवार की शाम कर्मचारियों ने सफाई के दौरान गुप्तकालीन ढाई हजार वर्ष पूर्व की दीवार देखी।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षणविद अजय कुमार श्रीवास्तव ने बताया कि स्तूप की गुप्तकालीन दीवार मिलने से पुराने इतिहास की सच्चाई सामने आ रही है। श्रीवास्तव के मुताबिक सारनाथ चौखंडी स्तूप पर ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध से बिछड़े उनके शिष्य सारनाथ में मिले थे। यह निर्माण उन्हीं अनुयायियों की देन है। इसके पूर्व भी दो दीवारें पहले ही खोजी जा चुकी हैं। प्राचीन स्वरूप बना रहे अब वैज्ञानिक विधि से उसे संरक्षित भी कराया जाएगा।

मिलने वाली दीवार उत्तर दिशा की ओर है। चौखंडी स्तूप की पूरी चौतरफा दीवार मिलने पर ही स्तूप की मजबूती की कार्य योजना भी बनाई जाएगी। इसी तरह सारनाथ की खुदाई में मिले अशोक स्तम्भ, जर्जर स्थिति में न हो इसलिए इसे संरक्षित करने में वैज्ञानिक टीम कार्य में लगी है।

कांस्य युगीन आभूषण हथियार सहित 12 हजार से ज्यादा वस्तुओं का संग्रह


 इटली की पुलिस ने पुरा महत्व की बहुमूल्य वस्तुओं का एक विशाल जखीरा बरामद किया है जिन्हें एक पेंशनर ने अपना निजी संग्रहालय बनाने के लिए स्वयं खुदाई कराके इकट्ठा किया था 1 वेनिस के पास पुलिस अधिकारियों ने जब इस व्यक्ति के घर छापा मारा तो कांस्य युगीन कंघे से लेकर आभूषण हथियार और बर्तनों सहित 12 हजार से ज्यादा वस्तुओं का संग्रह देखकर उनकी आंखें चौंधिया गयी

वेनिस पुलिस के कर्नल पीर लुइगी पिसानो ने बताया .. यह व्यक्ति अपने स्तर पर खुदाई करा रहा था 1 हमें इसके पास से अमूल्य धरोहर मिली है जो ईसा से 18 वीं पूर्व से लेकर 18 वीं सदी तक के 3600 वषो के इस कालखंड के इस क्षेत्र के पूरे इतिहास को समेटे है 1.. इटली के कानून के मुताबिक यदि किसी व्यक्ति को पुरातात्विक महत्व की कोई वस्तु या स्थान का पता चलता है तो उसे इसकी जानकारी सरकार को देनी होती है 1लेकिन पुलिस को लगातार अवैध खुदाई के माघ्यम से पुरा महत्व की वस्तुओं को हासिल करने वालों के खिलाफ नजर रखी पडती है



35 हज़ार साल पुरानी बांसुरी मिली


जर्मनी में खोजकर्ताओं ने लगभग 35 हज़ार साल पुराना बाँसुरी खोज निकाला है और वैज्ञानिकों का कहना है कि यह दुनिया का पहला संगीत यंत्र हो सकता है.ये बाँसुरी गिद्ध की हड्डी को तराश कर बनाई गई है. दक्षिणी जर्मनी में होल फेल्स की गुफ़ाओं से इसे निकाला गया है. यह उस समय का है जब आधुनिक मानव जाति यूरोप में बसना शुरु हुई थी.बांसुरी के इस्तेमाल से पता लगता है कि उस समय समाज संगठित हो रहा था और उनमें सृजन करने की क्षमता थी. विशेषज्ञों का ये भी कहना है कि इससे ये पता लगाने में भी मदद मिल सकती है कि उस समय जाति का अस्तित्व कैसे बचा रहा.तूबिंजेन विश्वविद्यालय के पुरातत्व विज्ञानी निकोलस कोनार्ड ने बताया कि बांसुरी बीस सेंटीमीटर लंबी है और इसमें पाँच छेद बनाए गए हैं. इस बांसुरी के अलावा हाथी दाँत के बने दो बांसुरियों के अवशेष भी मिले हैं. अब तक इस इलाक़े से आठ बांसुरी मिली है.कोनार्ड कहते हैं, "साफ़ है कि उस समय भी समाज में संगीत का कितना महत्व था."

यूपी में मिलीं 300 साल पुरानी तलवारें


 उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के एक ईंट भट्ठे में खुदाई के दौरान प्राचीन काल की तलवारें और भाले मिले हैं। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इनके लगभग 300 साल पुराने होने की संभावना जताई है।} बहराइच के दरगाह थाना-प्रभारी शिवपत सिंह ने रविवार को आईएएनएस को बताया कि सांसापारा गांव में शनिवार को एक ईंट भट्ठे में मजदूर फुट गहरी खुदाई के बाद प्राचीन शस्त्रों का जखीरा मिला। शस्त्रों को बाहर निकालकर पुलिस को इसकी सूचना दी गई।

तीन भाले भी मिले
सिंह ने बताया, "खुदाई में सात प्राचीन तलवारें और तीन भाले मिले हैं। तलवारों की लंबाई करीब दो मीटर और भालों की लंबाई लगभग चार मीटर है। दिखने में ये राजसी शस्त्र जैसे लगते हैं।" पुलिस ने जब पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारियों को फोन पर तलवारों और भालों की बनावट और रंग-रूप के बारे में बताया तो अधिकारियों ने इनके 300 साल पुराने होने की संभावना जताई।

मंदिर जहां भगवान शिव पर चढ़ाए जाते हैं झाड़ू!
   भगवान शिव पर बेलपत्र और धतूरे का चढ़ावा तो आपने सुना होगा, लेकिन उत्तर प्रदेश के एक शिव मंदिर में भक्त उनकी आराधना झाड़ू चढ़ाकर करते हैं।
    मुरादाबाद जिले के बीहाजोई गांव के प्राचीन शिवपातालेश्वर मंदिर (शिव का मंदिर) में श्रद्धालु अपने त्वचा संबंधी रोगों से छुटकारा पाने और मनोकामना पूर्ण करने के लिए झाड़ू चढाते हैं। इस मंदिर में दर्शन के लिए भारी संख्या में भक्त सिर्फ मुरादाबाद जिले से ही नहीं बल्कि आस-पास के जिलों और दूसरे प्रांतों से भी आते हैं।
    मंदिर के एक पुजारी पंडित ओंकार नाथ अवस्थी ने आईएएनएस को बताया कि मान्यता है कि यह मंदिर करीब 150 वर्ष पुराना है। इसमें झाड़ू चढ़ाने की रस्म प्राचीन काल से ही है। इस शिव मंदिर में कोई मूर्ति नहीं बल्कि एक शिवलिंग है, जिस पर श्रद्धालु झाड़ू अर्पित करते हैं।

     पुजारी ने बताया कि वैसे तो शिवजी पर झ्झाड़ू चढ़ाने वाले भक्तों की भारी भीड़ नित्य लगती है, लेकिन सोमवार को यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। धारणा है कि इस मंदिर की चमत्कारी शक्तियों से त्वचा के रोगों से मुक्ति मिल जाती है। इस धारणा के पीछे एक दिलचस्प कहानी है।
65 वर्षीय ग्रामीण मकरध्वज दीक्षित ने बताया कि गांव में भिखारीदास नाम का एक व्यापारी रहता था, जो गांव का सबसे धनी व्यक्ति था। वह त्वचा रोग से ग्रसित था। उसके शरीर पर काले धब्बे पड़ गये थे, जिनसे उसे पीड़ा होती थी।

    एक दिन वह निकट के गांव के एक वैद्य से उपचार कराने जा रहा था कि रास्ते में उसे जोर की प्यास लगी। तभी उसे एक आश्रम दिखाई पड़ा। जैसे ही भिखारीदास पानी पीने के लिए आश्रम के अंदर गया वैसे ही दुर्घटनावश आश्रम की सफाई कर रहे महंत के झाड़ू से उसके शरीर का स्पर्श हो गया। झाड़ू के स्पर्श होने के क्षण भर के अंदर ही भिखारी दास दर्द ठीक हो गया। जब भिखारीदास ने महंत से चमत्कार के बारे में पूछा तो उसने कहा कि वह भगवान शिव का प्रबल भक्त है। यह चमत्कार उन्हीं की वजह से हुआ है। भिखारीदास ने महंत से कहा कि उसे ठीक करने के बदले में सोने की अशर्फियों से भरी थैली ले लें। महंत ने अशर्फी लेने से इंकार करते हुए कहा कि वास्तव में अगर वह कुछ लौटाना चाहते हैं तो आश्रम के स्थान पर शिव मंदिर का निर्माण करवा दें।

    कुछ समय बाद भिखारीदास ने वहां पर शिव मंदिर का निर्माण करवा दिया। धीरे-धीरे मान्यता हो गई कि इस मंदिर में दर्शन कर झाड़ू चढ़ाने से त्वचा के रोगों से मुक्ति मिल जाती है। हालांकि इस मंदिर में ज्यादातर श्रद्धालु त्वचा संबंधी रोगों से छुटकारा पाने के लिए आते हैं, लेकिन संतान प्राप्ति व दूसरी तरह की समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए भी श्रद्धालु भारी संख्या में मंदिर में झाड़ू चढ़ाने आते हैं। मंदिर में श्रद्धालुओं द्वारा झाड़ू चढ़ाए जाने के कारण यहां झाड़ुओं की बहुत जबरदस्त मांग है। मंदिर परिसर के बाहर बड़ी संख्या में अस्थाई झाड़ू की दुकानें देखी जा सकती हैं।


सोने की 300 साल पुरानी कुरान
  उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के हामिद परिवार को अपनी सोने की पुश्तैनी कुरान पर गर्व है और हो भी क्यों न अब तो केंद्र सरकार ने भी उसकी पहचान महत्वपूर्ण पांडुलिपि के रूप में की है। यह कोई साधारण कुरान नहीं, यह 300 साल पुरानी सोने की कुरान है, जिसको जौनपुर शहर के रहट्टा मुहल्ले में रहने वाला हामिद परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी संजोते आ रहा है। परिवार के मुखिया साजिद हमीद (55) ने कहा कि हमें आज फक्र है कि हमारी अनोखी सुनहरी कुरान को सरकार की तरफ से भी अहिमयत मिली है। हमारे जिले में ये तो पहले से ही सालों से ही चर्चा का विषय बनी रही है।

    इस कुरान का आकर्षण उसकी सोने की जिल्द है। 1756 पन्नों वाली कुरान में जहां जिल्द सोने की बारीक कलाकृतियों से गढ़ी हुई है, वहीं इसके पन्ने सोने के पत्ती के रूप में हैं। हामिद परिवार के मुताबिक पांच पीढ़ियों से उन्होंने यह कुरान संजोकर रखी है। साजिद के दादा वाजिद अली को यह उनके दादा से मिली थी और तब से पीढ़ी दर पीढ़ी हम लोग इसे संजोते आ रहे हैं।

मन्नत पूरी होने पर बनवाई थी

साजिद के अनुसार उनके परिवार की कोई एक मन्नत पूरी होने पर उनके पूर्वजों ने अल्लाह के लिए अपनी मोहब्बत जाहिर करने के लिए विशेष कारीगरों द्वारा ये कुरान बनवाई थी। अपने पूर्वजों से मिली कुरान का रखरखाव के लिए साजिद खास ध्यान देते हैं। सिर्फ इसी कुरान के लिए एक पारदर्शी आलमारी बनवाई है, जिसमें इसको रखा है। पढ़ने के लिए वो इसको नहीं निकालते क्योंकि उनका मानना है कि रोज खोलकर पढ़ने से इस कुरान के पन्नों को नुकसान पहुंच सकता है।

        वह कहते हैं कि मैं इसको किसी भी हाल में खोना नहीं चाहता है। यह मेरे पूर्वजों की पहचान है। मैंने अभी से अपने बेटे को सख्त हिदायत दे दी है कि मेरे न रहने पर इस कुरान को मेरी याद सझकर उसी तरह संजोकर मिसाल कायम करेगा, जो हमारा परिवार वर्षो से करता आ रहा है।
    साजिद के मुताबिक कुछ समय पहले केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय ने जिला प्रशासन से संप साधा जिसके बाद कुछ अधिकारी मुझसे मिलने आए। उस समय मुझे बताया गया कि सरकार ने इसकी पहचान महत्वपूर्ण पांडुलुपि के रूप में की है और वह जब चाहेगी इस धरोहर को अपने संरक्षण में ले सकती है। अनोखी सुनहरी कुरान को रखने के लिए हामिद परिवार की वर्षो से केवल मुहल्ले ही नहीं पूरे जौनपुर में चर्चा होती है। उसे देखने के लिए लोगों को तांता लगा रहता है। पड़ोसी तौफीक अहमद कहते हैं कि हम लोगों को इस बात का फक्र है कि ऐसी नायाब चीज हमारे शहर में मौजूद है।

Friday, December 25, 2009

क्रिसमस का इतिहास


 उन्हे तो आम त्योहार ही लगता है क्रिसमस
   क्रिसमस पूरी दुनिया में बड़ी मौजमस्ती से मनाया जाता है। पश्चिम बंगाल में तो यह भाईचारा का प्रतीक बन चुका है। मैं एक हिंदू परिवार से नाता रखता हूं मगर हर साल मेरे परिवार में क्रिसमस के दिन जो देखने को मिलता है अगर भी जानें तो आप भी मान लेंगे कि क्रिसमस का यहां लोगों से सिर्फ धार्मिक नाता नहीं है। ज्यादातर बंगाली परिवार तो इस दिन बड़ी मौजमस्ती करता है और सुबह ही बच्चों को लेकर घूमने निकल जाता है। मैं कभी ऐसा नहीं कर पाता हूं और बच्चों के बीच क्रिसमस को लेकर कभी ऐसी बात नहीं कहता जिससे वे बंगाली परिवारों का अनुसरण करें मगर यहां माहौल ही ऐसा बन जाता है कि सभी बड़ा दिन मनाने लगते हैं। जी हां मेरे उत्तरप्रदेश में यह दिन बड़ा दिन के तौरपर मनाया जाता है। आइए वह घटना बता दूं जो कई साल से बड़ा दिन पर मेरे परिवार में घटती आ रही है।



आज शाम को रात्रि की पाली मेरी ड्यूटी थी। मेरी धर्मपत्नी श्रीमती भारती सिंह ने कहा- क्या बना दूं। रोज की तरह कोई हरी सब्जी व चार रोटियां देने को मैंने पत्नी से कहा और तैयार होने लगा। पत्नी ने पूड़ियां बनाई और मेरी टिफिन में भर दिया। मैंने पूछा यह क्यों ? तो उन्होंने कहा- आज क्रिसमस है ( यानी त्योहार का दिन है ) और आप सिर्फ रोटी सब्जी क्यों खाएंगे। ऐसा वे स्वाभाविक तौरपर कह गईं मगर मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि हिंदू धर्म व अपने देवी देवताओं में धर्मांडंबर की हद तक आस्था रखने वाली औरत को क्रिसमस भी उसी तरह का त्योहार लगता है, जैसे होली-दिवाली हो। दरअसल सभी हिंदू त्योहारों पर अलग किस्म के व्यंजन बनाने की परंपरा बेरोकटोक मेरे घर में क्रिसमस पर भी जारी है। और क्रिसमस भी उन त्योहारों से अलग नहीं समझा जाता। यहां साफगोई से यह कहने में कतई परहेज नहीं करूंगा कि बाकी धर्मों के त्योहार मसलन ईद वगैरह से कोई विरोध नही है मेरी पत्नी को, मगर पता नहीं उन त्योहारों को क्रिसमस का दर्जा क्यों नहीं दे पाती हैं। मैं भी आस्तिक हूं मगर किसी भी धर्म का निंदक या विरोधी नहीं हूं। मैं ईद पर अपने बीरा मामा ( गांव में मेरे परिवार के शुभचिंतकों में से एक मुसलमान परिवार ) के घर की सेवईंया भी खाता था। अपने गांव में मुसलमान दोस्तों के साथ ताजिया में भी शामिल होता था। और मेरा मुसलमान दोस्त हमारी गांव की रामलीला में बिना किसी हिचक के जटायु की भूमिका निभाता था। जब मैं कोलकाता आया तो अपने मित्र फजल ईमाम मल्लिक के साथ अक्सर रात्रि ड्यूटी के बाद उनके साथ जाकर रोजे के हलवे वगैरह खाता था। लेकिन मैंने पत्नी को कभी अपनी तरफ से कोई दबाव नहीं डाला कि तुम धर्म निरपेक्ष बनो। ताज्जुब यह है कि धर्म व आस्तिकता व आडंबर की हद तक पूजापाठ करने वाली और इस मायने में छुआछूत को भी मानने वाली मेरी धर्मपत्नी को क्रिसमस अपने ही त्योहार जैसा लगता है।

क्रिसमस किसी एक समुदाय का त्योहार नहीं

शायद क्रिसमस के इसी तरह के ऐतिहासिक प्रादुर्भाव का जादू है जो मेरी पत्नी को भी प्रभावित करता है। कहते हैं कि करीब चार हजार साल पहले क्रिसमस किसी एक समुदाय का त्योहार नहीं था। आज जो क्रिसमस का स्वरूप देखने को मिलता है वह तो दो हजार साल पहले भी नहीं था। यहीं तक कि २५ दिसंबर को ईसीमसीह के जन्मदिन पर बी विवाद है। कहा जाता है कि ईसीमसीह जाड़े के दिनों में २५ दिसंबर को नहीं बल्कि किसी और दिन पैदा हुए थे। जबकि आज २५ दिसंबर ईसामसीह के जन्मदिन के तौरपर मनाया जाता है। यानी ईसामसीह के जन्म से भी पहले से क्रिसमस मनाया जाता है और यह विभिन्न समदायों का सम्मिलित त्यौहार है। ( आगे यह विस्तार से जानने के लिए क्रिसमस के इतिहास पर भी मैंने रोशनी डाली हैं। कृपया आप भी पढ़ लें )।---


अब आप कह सकते हैं कि कहीं से मेरी पत्नी ने यह इतिहास पढ़ लिया होगा जो इनको क्रिसमस को एक अपना त्योहार मानने जैसी मानसिकता के करीब लाया होगा। मगर आपको बता दूं मेरी पत्नी इतनी पढ़ाकू भी नहीं है। वह खुद अपने कई त्योहारों के बारे में इतिहासपरक जानकारी नहीं रखती हैं। अब उन्हें भले पता नहो मगर मुझे तो लगता है कि क्रिसमस ( बड़ा दिन ) सर्वधर्म का त्योहार बनता जा रहा है। क्यों कट्टर धार्मिक मेरी धर्मपत्नी श्रीमती भारती सिंह को भी इसमें कोई धार्मिक विरोध नजर नहीं आता। उन्हें तो आम त्योहारों जैसा उल्लास इसमें भी नजर आता है। क्या ही अच्छा होता कि भारत के लोगों के मानस में सभी धर्मों के त्योहार ऐसे ही नजर आते और कोई राजनीतिक राक्षस अपने वोट के लिए इन्हें न बरगला पाता और न ही कोई दंगा करा पाता।

क्रिसमस का इतिहास

क्रिसमस का इतिहास लगभग चार हजार वर्ष पुराना है। क्रिसमस की परम्परा ईसा के जन्म से शताब्दियों पुरानी है। क्रिसमस के दिनों उपहारों का लेन देन, प्रार्थना गीत, अवकाश की पार्टी तथा चर्च के जुलूस- सभी हमें बहुत पीछे ले जाते हैं। यह त्योहार सौहार्द, आह्लाद तथा स्नेह का संदेश देता है। एक शोध के अनुसार क्रिसमस एक रोमन त्योहार सैंचुनेलिया का अनुकरण है।सैंचुनेलियारोमन देवता है। यह त्योहार दिसम्बर के मध्यान्ह से जनवरी तक चलता है। लोग तरह तरह के पकवान बनाते थे। मित्रों से मिलते थे। उपहारों का अदल-बदल होता था। फूलों और हरे वृक्षों से घर सजाए जाते थे। स्वामी और सेवक अपना स्थान बदलते थे।


एन्साइक्लोपीडिया के अनुसार कालान्तर में यह त्योहार बरुमेलिया यानी सर्दियों के बड़े दिन के रूप में मनाया जाने लगा। ईसवी सन् की चौथी शती तक यह त्योहार क्रिसमस में विलय हो गया। क्रिसमस मनाने की विधि बहुत कुछ रोमन देवताओं के त्योहार मनाने की विधि से उधार ली गई है। कहते हैं कि यह त्योहार ईसा मसीह के जन्मोत्सव के रूप में सन् 98 से मनाया जाने लगा। सन् 137 में रोम के बिशप ने इसे मनाने का स्पष्ट ऐलान किया। सन् 350 में रोम के यक अन्य बिशपयूलियस ने दिसम्बर 25 को क्रिसमस के लिए चुना था। इतिहासकारों की यह राय भी मिलती है कि 25 दिसम्बर ईसा मसीह का जन्म दिन नहीं नहीं था। इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर कहीं नहीं मिलता कि 25 दिसम्बर ही ईसा मसीह का जन्म कब हुआ। न तो बाईबल इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देती है और न ही इतिहासकार ईसा की जन्म तिथि की दृढ़ स्वर में घोषणा करते हैं। ऐसे तथ्य भी मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि ईसा का जन्म सर्दियों में नहीं हुआ था। यहीं पर यह तथ्य हमारा ध्यान आकर्षित करता है कि क्रिसमस सर्दियों में ही क्यों मनाया जाता है।


एक शोध हमें इस त्योहार का मूल मैसोपोटामिया सभ्यता ( वर्तमान ईराक में प्राचीन काल में दजला व फरात नदियों के बीच फली-फूली विश्व की प्रचान सभ्यताओं में से एक ) में खोजने को मजबूर करता है। मैसोपोटामिया में लोग अनेक देवताओं पर विश्वास करते थे, किन्तु उनका प्रधान देवता मार्डुक था। हर वर्ष सर्दियों के आगमन पर माना जाता था कि मार्डुक अव्यवस्था के दानवों से युद्ध करता है। मार्डुक के इस संघर्ष के सहायतार्थ नव वर्ष का त्योहार मनाया जाता था। मैसोपोटेमिया का राजा मार्डुक के मंदिर में देव प्रतिमा के समक्ष वफादारी की सौगंध खाता था। परम्पराएं राजा को वर्ष के अंत में युद्ध का आमन्त्रण देती थी ताकि वह मार्डुक की तरफ से युद्ध करता हुआ वापिस लौट सके। अपने राजा को जीवित रखने के लिए मैसोपोटामिया के लोग एक अपराधी का चयन करके उसे राजसी वस्त्र पहनाते थे। उसे राजा का सम्मान और सभी अधिकार दिए जाते थे और अंत में वास्तविक राजा को बचाने के लिए उसकी हत्या कर दी जाती थी। क्रिसमस के अन्तर्गत मुख्य ध्वनि भगवान को प्रसन्न करने की ही है।


परशिया तथा बेबिलोनिया में ऐसा ही एक त्योहार सैसिया नाम से मनाया जाता था। शेष सभी रस्मों के साथ-साथ इसमें एक और रस्म थी। दासों को स्वामी और स्वामियों को दास बना दिया जाता था।


आदि यूरोपियन लोग चुड़ैलों, भूतों और दुष्ट आत्माओं में विश्वास करते थे। जैसे ही सर्दी के छोटे दिन और लम्बी-ठंडी रातें आती, लोगों के मन में भय समा जाता कि सूर्य देवता वापिस नहीं लौटेंगें। सूर्य को वापिस लाने के लिए इन्हीं दिनों विशेष रीति रिवाजों का पालन होता। समारोह का आयोजन होता।


सकैण्डीनेविया में सर्दी के महीनों में सूर्य दिनों तक गायब रहता। सूर्य की वापसी के लिए पैंतीस दिन के बाद पहाड़ की चोटियों पर लोग स्काउट भेज देते। प्रथम रश्मि के आगमन की शुभ सूचना के साथ ही स्काउट वापिस लौटते। इसी अवसर पर यूलटाइड (yuletide) नामक त्योहार मनाया जाता। प्रज्वलित अग्नि के आसपास खानपान का आयोजन चलता है। अनेक स्थलों पर लोग वृक्षों की शाखाओं से सेब लटका देते हैं। जिसका अर्थ होता है कि बसंत और ग्रीष्म अवश्य आएंगे।


पहले यूनान में भी इससे मिलता जुलता एक त्योहार मनाया जाता था। इसमें लोग देवता क्रोनोस की सहायता करते थे ताकि वह ज्यूस तथा उसकी साथी दुष्ट आत्माओं से लड़ सके।


कुछ किवंदंतियां यह भी कहती हैं कि ईसाइयों का क्रिसमस त्योहार नास्तिकों के दिसम्बर समारोह को चुनौती है, क्योंकि 25 दिसम्बर मात्र रोम मैसोपेटामिया, बेबिलोन, सकैण्डिनेनिया या यूनान के लिसटपिविज का दिन ही नहीं था, अपितु उन पश्चिमी लोगों के लिए भी था, जिनका मिथराइज धर्म ईसाइयत के विरूद्ध था।


ईसाइयों का धर्मग्रंथ बाइबल के नाम से माना जाता है। मूलत: यह यहूदियों और ईसाइयों का साझा धर्म ग्रंथ है। जिसके ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट दो भाग हैं। ओल्ड टेस्टामेंट में क्राइस्ट के जन्म से पहले के हालात अंकित हैं। इसमें 39 पुस्तकें हैं। न्यू टेस्टामेंट में ईसा का जीवन, शिक्षाएं एवं विचार हैं। इसमें 27 पुस्तकें है। यानी बाईबल 66 पुस्तकों का संग्रह है, जिसे 1600 वर्षों में 40 लेखकों ने लिखा। इसमें मिथकीय, काल्पनिक और ऐतिहासिक प्रसंग हैं। ओल्ड टेस्टामेंट में क्राइस्ट के जन्म विषयक भविष्यवाणी है। एक किंवदंती के अनुसार बढ़ई यूसुफ तथा उसकी मंगेतर मेरी नजरेन में रहते थे। मेरी को स्वप्न में भविष्यवाणी हुई कि उसे देवशिशु के जन्म के लिए चुना गया है। इसी बीच सम्राट ने नए कर लगाने हेतु लोगों के पंजीकरण की घोषणा की, जिसके लिए यूसुफ और मेरी को अपने गांव बेथलहम जाना पड़ा। मेरी गर्भवती थी। कई दिनों की यात्रा के बाद वह बेथलहम पहुँची। तब तक रात हो चुकी थी। उसे सराय में विश्राम के लिए कोई स्थान न मिल सका। जब यूसुफ ने विश्रामघर के रक्षक को बताया कि मेरी गर्भवती है और उसका प्रसव समय निकट है तो उसने पास के पहाड़ों की उन गुफाओं के विषय में बताया, जिनमें गडरिए रहते थे । यूसुफ और मेरी एक गुफा में पहुँचे। यूसुफ ने खुरली साफ की। उसमें नर्म, सूखी, साफ घास का गद्दा बनाया। अगली सुबह मेरी ने वहीं शिशु को जन्म दिया। देवेच्छा के अनुसार उसका नाम यूसुफ रखा गया। कालान्तर में बारह वर्षीय यीशू ने ही धर्मचर्या में श्रोताओं को मुग्ध कर लिया। तीस वर्ष की आयु में अपने चचेरे भाई जान से बपतिसमा (अमृत) ग्रहण किया। शासक द्वारा जान की हत्या के बाद वे खुद बपतिसमा देने लगे। यीशु के प्रचारों के कारण यहूदी शासक और कट्टरपंथी उनके विरोधी बन गए। उन पर अनेक अपराध थोपे गये। कोड़े मारे गए। सूली पर लटकाया गया। मृत्युदंड दिया गया। आज का क्रिसमस का त्योहार प्रतिवर्ष यीशू के जन्म दिन यानी मुक्तिदाता मसीहा के आविर्भाव के उपलक्ष में मनाया जाता है, भले ही इसके मूल में अनेक देशों की परम्पराओं का सम्मिश्रण है।
 
  क्रिसमस के इतिहास पर विस्तार से रोशनी डालने वाले कुछ और लेख व उनके लिंक---------।
 
 
क्रिसमस : कुछ तथ्य



मौसम की सर्द हवाएँ क्रिसमस को दस्तक देते हुए नववर्ष का आगमन का संदेश हौले से देती हैं और लाल हरी छटा, प्रकृति में हर तरफ़ नज़र आने लगती है। क्रिसमस यानि बड़ा दिन २५ दिसम्बर को ईसा मसीह के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है मगर इस मंज़िल तक पहुचने में इस पर्व को लम्बा समय लगा।


ईसा मसीह का जन्मदिन


ईसा के पूर्व रोम राज्य में २५ दिसम्बर को सूर्य देव डायनोसियस की उपासना के लिए मनाया जाता था। रोमन जाति का मानना था कि इसी दिन सूर्य का जन्म हुआ था। उन दिनों सूर्य उपासना रोमन सम्राटों का राजकीय धर्म हुआ करता था बाद में जब ईसाई धर्म का प्रचार हुआ तो कुछ लोग ईसा को सूर्य का अवतार मानकर इसी दिन उनका भी पूजन करने लगे।


धीरे-धीरे ईसा की प्रथम शताब्दी में ईसाई लोग ईसा मसीह का जन्म दिन इसी दिन मनाने लगे। ३६० ईसवी के आसपास रोम के चर्च में ईसा मसीह के जन्मदिवस का प्रथम समारोह आयोजित किया गया जिसमें पोप ने भाग लिया था। इन सब के बावजूद तारीख के सम्बन्ध में मतभेद बने रहे, वो इसलिए कि उन दिनों इस तारीख पर अन्य समारोह भी आयोजित किए जाते थे जिसमें नोर्समेन जाति के यूलपर्व और रोमन लोगों का सेटरनोलिया पर्व प्रमुख थे जिनका आयोजन ३० नवम्बर से २ फरवरी के बीच में होता था। इन उत्सवों का ईसाई धर्म से उस समय को सम्बन्ध नहीं था। कुछ समय के बाद अधिकांश धर्मधिकारों और ईसाई धर्मावलंबियों की लम्बी बहस और विचार विमर्श के बाद चौथी शताब्दी में रोमन चर्च व सरकार ने संयुक्त रूप से २५ दिसम्बर को ईसा मसीह का जन्मदिवस घोषित कर दिया। यरूशलम में इस तारीख को पाँचवी शताब्दी के मध्य में स्वीकार किया गया। इसके बाद भी क्रिसमस दिवस को लेकर विरोध अंतविरोध चलते रहे। अन्त में १९३६ मेंअमेरिका में इस दिवस को कानूनी मान्यता मिली और २५ दिसम्बर को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया। इस से अन्य देशों में भी इस पर्व को बल मिला और यह बड़ा दिन यानि क्रिसमस के रूप में मनाया जाने लगा। क्रिसमस के समय को यूलूटाइड् भी कहते थे। १९ वी शताब्दी तक 'यूल' लकड़ी के टुकड़े को क्रिसमस के अवसर पर घर लाने की परम्परा थी।


मदर मरियम


ईसा को जन्म देने वाली मरिया गलीलिया इसराइल प्रदेश में नाजरेथ शहर की रहने वाली थी। ईसा के जन्म को लेकर न्यूटेस्टामेंट में उस कहानी का वर्णन है जिसमें लिखा है कि एक दिन ईश्वर ने अपने दूत गाब्रियल को मरिया के पास भेजा। देवदूत नें मरिया से कहा कि वह ईश्वर के पुत्र को जन्म देगी और उस बच्चे का नाम जीसस होगा वह ऐसा राजा होगा जिसके राज्य की कोई सीमा नहीं होगी, तब मरिया ने कहा कि ऐसा सम्भव नहीं है क्योकि मैं किसी पुरुष को नहीं जानती, तब देवदूत ने कहा पवित्रात्मा के वरदान से आप दैवीय बालक को जन्मेंगी जो ईश्वर पुत्र कहलाएँगे। मेरी का विवाह जोसेफ नामक युवक से हुआ था। वह दोनों नाजरथ में रहा करते थे। उस समय नाजरथ रोमन साम्राज्य में था और तत्कालीन रोमन साम्राट आगस्तस ने जिस समय जनगणना किए जाने का आदेश दिया था, उस समय मेरी गर्भवती थी। सभी लोगों को नाम लिखवाने बैथलहम जाना पड़ा। दम्पति जोसेफ और मैरी को कहीं जगह न मिलने पर एक अस्तबल में जगह मिली और यही पर ईसा या जीसस का जन्म हुआ। ईसाइयों के लिए यह घटना अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वे मानते है कि जीसस ईश्वर के पुत्र थे इसलिए क्रिसमस खुशी और उल्लास का त्यौहार है क्योंकि उस दिन ईश्वर का पुत्र, कल्याण के लिए पृथ्वी पर आया था।


परम्परा का प्रतीक क्रिसमस ट्री


सदाबहार झाड़ियाँ तथा सितारों से लदें क्रिसमस वृक्ष को सदियों से याद किया जाता रहा है। हॉलिड् ट्री नाम से जाना जाने वाला यह वृक्ष ईसा युग से पूर्व भी पवित्र माना जाता था। इसका मूल आधार यह रहा है, कि फर वृक्ष की तरह सदाबहार वृक्ष बर्फ़ीली सर्दियों में भी हरे भरे रहते हैं। इसी धारणा से रोमनवासी सूर्य भगवान के सम्मान में मनाए जाने वाले सैटर्नेलिया पर्व में चीड़ के वृक्षों को सजाते थे। यूरोप के अन्य भागों में हँसी खुशी के विभिन्न अवसरों पर भी वृक्षों की सजाने की प्राचीन परम्परा थी। इंग्लैंड़ और फ्रांस के लोग ओक के वृक्षों को फसलों के देवता के सम्मान में फूलों तथा मोमबतियों से सजाते थे। क्रिसमस ट्री को लेकर कई किंवदंतिया हैं-


ईसाई संत बोनिफेस जर्मनी के यात्रा करते हुए एक रोज़ ओक के वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे जहाँ गैर ईसाई ईश्वर की सन्तुष्टि के लिए बच्चे की बलि देने की तैयारी कर रहे थे। संत बोनिफेस ने बलि रोकने के लिए यह वृक्ष काट डाला और उसके स्थान पर फर का वृक्ष लगाया जिसे वह जीवन वृक्ष तथा यीशू के जीवन का प्रतीक बताते है। एक जर्मन किंवदंती यह भी है कि जब यीसू का जन्म हुआ तब वहाँ चर रहे पशुओं ने उन्हें प्रणाम किया और देखते ही देखते जंगल के सारे वृक्ष सदाबहार हरी पत्तियों से लद गए। बस तभी से क्रिसमस ट्री को ईसाई धर्म का परम्परागत प्रतीक माना जाने लगा। घरों के अन्दर क्रिसमस ट्री सजाने की परम्परा जर्मनी में आरम्भ हुई थी। १८४२ में विंडसर महल में वृक्ष को सजा कर राजपरिवार ने इसे लोकप्रिय बनाया।


क्रिसमस की सजावट के सम्बन्ध कुछ सदाबहार चीज़ें और भी हैं जिन्हे परम्परा का हिस्सा व पवित्र माना जाता है जिसमें 'होली माला' को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है इसे त्यौहार पर परम्परागत रूप से घरों और गिरजाघरों में लटकाया जाता है। 'मिसलटों' का सम्बन्ध भी क्रिसमस पर की जाने वाली सजावट से ही है। मिसलटों की नुकीली पत्तियाँ जीसस के ताज में लगे कंटीले काँटे को दर्शाती है और इस पौधे की लाल बेरी उनके खून की बूँद का प्रतीक मानी जाती है। शायद यही वजह थी कि मध्य युग में चचों में किसी भी रूप में इसके इस्तेमाल पर मनाही थी।


सांता क्लांज :


इस शब्द की उत्पति डचसिंटर से हुई थी। यह संत निकोलस का लोकप्रिय नाम था। ऐसी धारणा है कि वह ईसाई पादरी थे, जो माइनर में कोई डेढ़ हजार साल पहले रहते थे। वे बहुत दयालु और उदार थे व हमेशा ज़रूरतमंदो की मदद करते थे। बच्चों से जुड़े उनके सम्बन्धों के बारे में किंवदंती प्रचलित है कि एक बार उन्होंने तीन गरीब लड़कियों की मदद की थी कहा जाता है कि लड़कियों के बाहर लटक रहे मोजों में उन्होंने सोने के सिक्के डाल कर आर्थिक मदद की थी जो उनकी शादी करने में मददगार साबित हुई। तब से लेकर अब तक दुनियाभर के बच्चों में क्रिसमस पर जुराबों को लटकाने की परम्परा चली आ रही है। उनका मानना है कि संत निकोलस और उन्हें ढेर सारे उपहार दिए जाएँगे। दुनियाभर में इससे मिलती जुलती परम्पराएँ है। फ्रांस में बच्चे चिमनी पर अपने जूते लटकाते हैं। हॉलेंड में बच्चें अपने जूतों में गाजर भर देते हैं, यह गाजर वे सांता क्लॉज के घोडे के लिए रखते हैं। हंगरी में बच्चे खिड़की के नज़दीक अपने जूते रखने से पहले खूब चमकाते हैं ताकि सांता खुश होकर उन्हे उपहार दे। यानि की उपहार बाँटने वाले दूत को खुश कर उपहार पाने की यह परम्परा सारी दुनिया में प्रचलित है। इसी प्रचलन से उन्हे बच्चों का सन्त कहा जाने लगा। मध्ययुग में संत निकोलस का जन्म दिवस ६ दिसम्बर को मनाया जाता था। अब यह मान्यता है कि वह क्रिसमस की रात को आते है और बच्चों को तरह-तरह के उपहार वितरित करते हैं जिससे क्रिसमस का हर्षोल्लास बना रहे। इस तरह क्रिसमस व बच्चों के साथ संत निकोलस के रिश्ते जुड़ गए। यही अमेरिकी बच्चों के सांता क्लाज बन गए और वहाँ से यह नाम सम्पूर्ण विश्व में लोकप्रिय हो गया।


क्रिसमस आधुनिक परिवेश में १९वी सदी की देन है। क्रिसमस पर आतिशबाजी १९वी सदी के अन्त में टोम स्मिथ द्वारा शुरू की गई थी। सन १८४४ में प्रथम क्रिसमस कार्ड बनाया गया था। जिसका प्रचलन सन १८६८ तक सर्वत्र हो गया। सान्ता क्लाज या क्रिसमस फादर का ज़िक्र सन १८६८ की एक पत्रिका में मिलता है। १८२१ में इंग्लैंड की महारानी ने क्रिसमस ट्री में देव प्रतिमा रखने की परम्परा को जन्म दिया था।


कैरोल :


क्रिसमस के कई दिन पहले से ही सभी ईसाई समुदायों द्वारा कैरोल गाए जाते है। कैरोल वह ईसाई गीत है, जिसे क्रिसमस के अवसर पर सामूहिक रूप से गाया जाता है। कैरोल का इतिहास बहुत पुराना है। स्वर्गीय मारिया आंगस्टा ने अपनी पुस्तक 'द साउंड ऑफ म्यूज़िक' में लिखा था कि क्रिसमस पर गीत गाने की परम्परा ईसाईवाद की बरसों पुरानी परम्परा का हिस्सा है। यह सबसे पुरानी लोक परम्परा है जो अभी तक जीवित है। कैरोल के मूल स्वरूप में घेरा बनाकर नृत्य किया जाता था। इसमें गीतो का समावेश बाद में किया गया। कैरोल को लोकप्रिय और वर्तमान स्व्रूप में लाने का श्रेय संत फ्रांसिस को जाता है। उन्होंने १२२३ में क्रिसमस के समय मघ्यरात्रि के दौरान एक गुफा में गाया था। यह गीत एक तरह के भजन जैसा था। तब से ईसाई समुदायों में २४-२५ दिसम्बर के बीच की रात को गिरजाघरों में पूजा आराधना व भक्तिभावपूर्ण गीत गाने की परम्परा चली आ रही है।


ईसा को उपहार :


क्रिसमस का त्यौहार बिना उपहार के अधूरा है। इस अवसर पर एक दूसरे को उपहार देने की परम्परा है। क्रिसमस पर उपहार देने का चलन जीसस के जन्म से शुरू हुआ था। कहते है जीसस की जन्म की सूचना पाकर न्यूबिया व अरब के शासक मेलक्यांर, टारसस के राजा गॅसपर और इथीयोपिया के सम्राट बलथासर येरूशलम पहुँचे थे। जब वे घर में घुसे तब उन्होंने अपने सामने जोसेफ और मदर मैरी को पाया। वे प्रभु के चरणों में गिर गए और उनका यशोगान करने लगे और अपने साथ लाए खजाने से स्वर्ण व लोबान जीसस के चरणों में अर्पित किया।


यह भी कहा जाता है कि संत डेनियल की यह भविष्यवाणी, कि ईश्वरीय शक्ति प्राप्त एक बालक का जन्म हुआ है के आधार पर विद्वान मजीथियस, जो स्वयम भी दैवज्ञ व खगोल विद्या के ज्ञाता थे, दैवीय बालक यीशु के दर्शन करने बेथलेहम गए तब उन्होंने सारे उपहार दिए। इस तरह जीसस के जन्म के साथ ही उपहार देने की परम्परा शुरू हो गयी।


ईसाई धार्मिक स्थल :


यीशु के जन्म से जुड़े कुछ ईसाई धर्म स्थलों में नाजरेथ-जहाँ यीशु की परवरिश हुई थी, गॅलिली-जहाँ उन्होंने अपना धर्मोपदेश दिया था और यरूशलम- जहाँ मौत के साथ उन्होने आँख मिचौली खेली थी, बेथलेहम- जहाँ ईसा मसीह जन्मे महत्वपूर्ण हैं।


नाजरेथ के सेंट जोसफ के पास वह स्थान है जहाँ यीशु का पवित्र परिवार रहता था। बालक यीशु यहीं पास के जंगलो से अपने पिता के साथ लकड़ियाँ काट कर लाते थे। वही पास में प्राचीन कुँआ है जहाँ से मदर मेरी परिवार के लिए रोज़ पानी भर कर लाती थी। नाजरेथ में वह स्तंभ भी देखा जा सकता है, जिस पर खड़े होकर जिब्रील फरिश्ते ने माँ मरियम की कोख से जीसस के जन्म की भविष्यवाणी की थी। इसके समीप ही मदर मेरी का घर है। नाजरेथ नगर ने अपनी ऐतिहासिक धरोहर को संजोकर रखा है।


इज़राइल के बेथलेहम नगर में मदर मेरी के गिरजाघर में पत्थर की वह ऐतिहासिक दीवार आज तक मौजूद है, जिसका निर्माण धर्मयुद्ध के दौरान किया गया था। यहीं एक नक्काशीदार चबूतरे पर वह टोकरी भी रखी हुई है, जिसमें जीसस का जन्म हुआ था।


जॉर्डन की सीमा के पास गॉलिली झील के समीप यीशु ने अपना दैवीय उपदेश मानव जाति को दिया था। गॉलिली के सागर तट से उत्तर में कॉपेनां गाँव है जो संत पीटर का निवास स्थान था। इसी गाँव से उन्होंने यीशु के उपदेशों का प्रचार किया था। यही एक सभागृह है जहाँ से ईसामसीह धर्मोपदेश देते थे। 'इस धरती पर विन्रम और शालीन लोग राज करेंगे', ईसा ने अपना प्रसिद्ध आध्यात्मिक संदेश इसी गाँव के पास परमानंद पर्वत शृंखला के गिरजे की एक चट्टान पर बैठ कर दिया था। इसी गिरजाधर में एक चट्टान नज़र आती है जहाँ मत्स्य व डबलरोटी की प्रतिकृति है जो एक प्रतीक चिह्न है। यही बैठ कर यीशु अपने अनुयायियों के साथ मछली व डबल रोटी का भोजन करते थे। जीसस ने अपने प्रारंभिक वर्ष यही गुज़ारे थे।


उनके जीवन का उत्तरार्द्ध यरूशलम के समीप गुज़रा था। यरूशलम का मंदिर ७२वीं ईस्वीं में नष्ट हो चुका था अब वहाँ केवल कुछ अवशेष बचें है। यहीं पर पाषाण मकबरा है। किंग डेविड के मकबरे पर हर साल यहूदी श्रद्वालुओं का जमघट रहता है। नगर में कई प्राचीन इमारतें भी है। यरूशलम से तेल अबीब लौटते हुए यीशु की यादों से जुड़े कई धर्म स्थल मिलते हैं। काल्वेरी में पवित्र सेपल्श्रे गिरजाघर है, जहाँ ईसा को सूली पर चढ़ाया गया था। अन्दर जाने पर वह जगह देखी जा सकती है, जहाँ ईसा ने परमपिता को अपनी आत्मा सौपी। गिरजाघर के परिसर में ही वह गुफ़ा भी है, जहाँ सूली पर चढाए़ जाने बाद यीशु का शरीर दफनाया गया था।


क्रिसमस आमोद प्रमोद, मौज मस्ती, मेहमान नवाजी और सौभाग्य का सूचक माना जाता है। हर साल गीत संगीत के जरिये दमकती रोशनी में यीशु की जन्मगाथाएँ क्रिसमस की झाँकियों के रूप में दोहरायी जाती है।


देश विदेश में क्रिसमस

क्रिसमस एक ऐसा त्यौहार है, जो सारी दुनिया में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इसकी शुरुआत दो हज़ार साल पूर्व ईसा मसीह के जन्मदिवस के रूप में हुई थी और केवल ईसाई धर्म से जुड़े लोग ही इसे मनाते थे, लेकिन कालांतर में सभी धर्म के लोग इस त्यौहार को मौज-मस्ती के त्यौहार के रूप में मनाने लगे। इस त्यौहार के सर्वव्यापी बनने का सबसे बड़ा कारण शायद सांता क्लाज़ रहा है, जिसने दुनियाभर के बच्चों का मन मोह लिया। बचपन में हमने अपने माता-पिता को, जो अपने घोर गांधीवादी तथा प्रगतिशील विचारों के लिए प्रसिद्ध थे, हर साल इस त्यौहार पर सभी भाई-बहनों के लिए क्रिसमस ट्री के नीचे तोहफ़े रखकर हमें आश्चर्यचकित करते देखा था।


तब हमारा बालसुलभ मन कंधे पर उपहारों का बड़ा-सा बोरा लादे इस महान संत के विषय में तरह-तरह की कल्पनाएँ करता रहता था और २५ दिसंबर की रात को हम इस विश्वास के साथ गहरी नींद में खो जाते थे कि रात को चुपके से वह हमारे घर आकर हमारा मनपसंद उपहार पेड़ के नीचे रख जाएगा। जिस प्रकार हमारे माता-पिता हमारे बाल मन को भरमाते थे, उसी तरह हम भी बाद में अपने बच्चों के लिए क्रिसमस के उपहार रखने लगे। हमारे दोनों बच्चे हर साल बड़ी तन्मयता से सांता क्लाज के नाम अपनी चिठ्ठी लिखने के बाद उसे एक मोजे में रखकर खिड़की में टाँग देते थे और अगले दिन जब वे सोकर उठते थे तो उन्हें अपने उपहार जगमगाते क्रिसमस पेड़ के नीचे रखे मिलते थे। सच्चाई बताकर उनका विश्वास तोड़ने की हमारी कभी हिम्मत नहीं हुई। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही इस परंपरा की मज़ेदार बात यह है कि जब हमारे बच्चे बड़े हुए, तब सच्चाई जान लेने के बावजूद वे भी सांता क्लाज के उपहारों से अपने बच्चों का मन लुभाने लगे।


इस त्यौहार के सर्वव्यापी होने का सबसे बड़ा सबूत हमें अपनी हाल ही की चीन यात्रा के दौरान मिला। हमने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि इस कम्यूनिस्ट देश में, जिसके शासक धर्म को जनता को गुमराह करनेवाली अफीम की संज्ञा देते रहे हैं, हमें क्रिसमस का हंगामा देखने को मिलेगा। गुआंगचाऊ के एक पाँच सितारा होटल में प्रवेश करते ही जीज़स की जन्म की झाँकियाँ तथा बिजली की रोशनी में जगमगाता क्रिसमस पेड़ देखकर हम आश्चर्यचकित रह गए।


त्यौहार धन कमाने का साधन


बाद में हमें पता चला कि चीन में क्रिसमस से जुड़ी चीज़ों का उत्पादन बहुत बड़े पैमाने पर होता है और ईसाई धर्म से जुड़ा यह त्यौहार उसके लिए धन कमाने का बहुत बड़ा साधन बन गया है। पहले ताइवान, फिलिप्पीन तथा थाईलैंड जैसे देश इस व्यापार में अग्रणी थे, लेकिन अब चीन ने उन सभी को बहुत पीछे छोड़ दिया है। चीनी लोग हर साल इनमें परिवर्तन करते रहते हैं और इन्हें अन्य देशों से अधिक आकर्षक बनाने की होड़ में लगे रहते हैं।


जापान तो मूल रूप से एक बौद्ध देश है, लेकिन चीन की ही तरह १९ वीं शताब्दी में वहाँ भी इस त्यौहार से संबंधित चीज़ों का निर्माण शुरू हो गया था। तभी से जापानी लोग क्रिसमस के नाम से परिचित होने लगे। हालाँकि जापान में केवल एक प्रतिशत लोग ही ईसाई धर्म के अनुयायी हैं, लेकिन यह त्यौहार बच्चों से जुड़ा होने के कारण लगभग हरेक जापानी घर में आपको सजा हुआ क्रिसमस पेड़ देखने को मिल जाएगा। जापानवासियों के लिए यह एक छुट्टी का दिन होता है, जिसे वे बच्चों के प्रति अपने प्यार को समर्पित करते हैं। २४ दिसंबर को सांता क्लाज बच्चों के लिए अनेक उपहार लेकर आता है। इस अवसर पर हर शहर दुल्हन की तरह सजाया जाता है और जगह-जगह आपको खिलौनों, गुड़ियों, रंग-बिरंगे कंदीलों और अन्य चीज़ों से सजे बड़े-बड़े क्रिसमस के पेड़ देखने को मिल जाएँगे। जापान की सबसे ख़ास चीज़ है ऑरिगैमी से बना (काग़ज़ मोड़ कर तथा काट कर बनाया गया) पक्षी, जिसे ये लोग शांति का दूत कहते हैं। इसे जापानी बच्चे एक-दूसरे को उपहार में देते हैं।


जापान में क्रिसमस प्रेम का प्रतीक


जापानियों के लिए क्रिसमस रोमांस अर्थात प्रेम का पर्यायवाची भी बन गया है। इस दिन जापानी लोग इंटरनेट पर अपने साथी की तलाश करते हैं और मज़े की बात यह है कि उन्हें कोई न कोई साथी मिल भी जाता है। ज़्यादातर लोगों के लिए यह दोस्ती केवल इस त्यौहार के दिन तक ही सीमित रहती है, लेकिन कभी-कभी वह ज़िंदगी भर के साथ में भी परिणित हो जाती है।


ऑस्ट्रेलिया के क्रिसमस का ज़ायका हमें ब्रिस्बेन हवाई अडडे पर उतरते मिल गया था। हवाई अडडे पर स्थित दूकानें तथा क्रिसमस ट्री तो सुंदर ढंग से सजायी गई थीं, साथ ही सांता क्लाज़ की वेशभूषा धारण किया एक व्यक्ति घूम-घूमकर बच्चों को चाकलेट भी बाँट रहा था। बाद में हमने गौ़र किया वहाँ इस त्यौहार को मनाने का अपना अलग ही अंदाज़ है। दिसंबर में जब अन्य देश ठंड से सिकुड़ रहे होते हैं और कहीं-कहीं बऱ्फ भी पड़ रही होती हैं, वहीं दूसरी ओर ऑस्ट्रेलिया में यह गर्मियों का मौसम होता है। वहां के लोग इस त्यौहार को समुद्र के किनारे मनाते हैं और इस अवसर पर अपने मित्रों तथा स्वजनों के लिए एक विशेष रात्रि-भोज का आयोजन करते हैं, जिसमें 'बार्बेक्यू पिट' में भुना अलग-अलग किस्म का मांस शामिल होता है। इसके अलावा आलूबुखारे की खीर विशेषरूप से बनाई जाती है। ऑस्ट्रेलियायी लोग अपने सगे-संबंधियों के साथ ही क्रिसमस मनाते हैं, चाहे इसके लिए उन्हें हज़ारों मील लंबी यात्रा ही क्यों न करनी पड़े। पड़ोसी देश न्यूज़ीलैंड में भी यह त्यौहार ऑस्ट्रेलिया की ही तरह बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।


इज़राइल में तीर्थ यात्रा


इज़राइल में, जहाँ ईसा मसीह का जन्म हुआ था, क्रिसमस के अवसर पर दुनिया भर के अलग-अलग धर्मों के लोग तीर्थयात्रा पर आते हैं। बेथलेहेम में जिस स्थान पर ईसा ने जन्म लिया था, वहाँ आज 'चर्च ऑफ नेटिविटी' स्थित है। चर्च के आँगन में एक सुनहरा तारा बनाया गया है, कहते हैं कि ठीक उसी स्थान पर ईसा पैदा हुए थे। इस तारे के ऊपर चाँदी के १५ दिये लटके हुए हैं, जो सदैव जलते रहते हैं। क्रिसमस के एक दिन पहले यहाँ लेटिन भाषा में विशेष प्रार्थना के बाद वहाँ घास-फूँस बिछाकर जीज़स के प्रतीक स्वरूप एक बालक की प्रतिमा रख दी जाती है। इज़राइल के बहुसंख्यक यहूदी लोग क्रिसमस के दिन 'हनुक्का' नामक पर्व मनाते हैं। दो हज़ार साल पहले आज ही के दिन यहूदियों ने यूनानियों को हराकर जेस्र्सलेम के मंदिर पर फिर से अपना अधिकार कर लिया था। इस विजय की स्मृति में ही यह त्यौहार मनाया जाता है। कहते हैं कि यूनानियों को मंदिर से खदेड़ने के बाद यहूदियों ने इस मंदिर में जो दिया जलाया था, उसमें तेल केवल एक दिन के लायक होने के बावजूद वह पूरे आठ दिन तक जलता रहा था। यह पर्व यहूदियों को उस चमत्कार की भी याद दिलाता है और इसीलिए यह त्यौहार को प्रकाश का पर्व भी कहा जाता है।


दोनों रात साथ बिताते हैं


मेक्सिको में क्रिसमस पर ईसाई धर्म तथा प्राचीन अजटेक धर्म का मिला-जुला स्वरूप देखने को मिलता है। वहाँ यह त्यौहार १६ दिसंबर को ही शुरू हो जाता है। लोग अपने घरों को रंग-बिरंगे फूलों, सदाबहार पेड़-पौधों तथा सुंदर काग़ज़ के कंदीलों से सजाते हैं। सूर्य भगवान की भव्य मूर्ति के समक्ष जीजस के जन्म को दर्शानेवाली झाँकियाँ बनाई जाती हैं। इस दौरान हर शाम को मैरी तथा जोजफ की प्रतीकात्मक यात्रा दिखाई जाती है, जब वे दोनों रात बिताने के लिए एक सराय की खोज में निकलते हैं।


इटली में उपहार


यूरोप के देशों में क्रिसमस अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। फ्रांस में यह मान्यता प्रचलित है कि पेयर फुटार्ड उन सभी बच्चों का ध्यान रखते हैं, जो अच्छे काम करते हैं और 'पेयर नोएल' के साथ मिलकर वे उन बच्चों के उपहार देते हैं। इटली में सांता को 'ला बेफाना' के नाम से जाना जाता है, जो बच्चों को सुंदर उपहार देते हैं। यहाँ ६ जनवरी को भी लोग एक-दूसरे को उपहार देते हैं, क्योंकि उनकी मान्यता के अनुसार इसी दिन 'तीन बुद्धिमान पुरुष' बालक जीजस के पास पहुँचे थे।


हॉलैंड में 'सिंतर क्लास' घोड़े पर सवार होकर बच्चों को उपहार देने आता है। रात को सोने से पहले बच्चे अपने जूतों में 'सिंतर क्लास' के घोड़े के लिए चारा तथा शक्कर भर कर घरों के बाहर रख देते हैं। सुबह उठने के बाद जब वे घर से निकलकर अपने जूतों की तरफ़ दौड़ते हैं, तब उन्हें उनमें घास तथा शक्कर के स्थान पर चाकलेट तथा मेवा भरे देखकर बहुत आश्चर्य होता है। हालैंड के पड़ोसी बेल्जियम में सांता को सैंट निकोलस के नाम से जाना जाता है। सेंट निकोलस दो बार लोगों के घर जाते हैं। पहले ४ दिसंबर को बच्चों का व्यवहार देखने जाते हैं, उसके बाद ६ दिसंबर को वे अच्छे बच्चों को उपहार देने जाते हैं।


आइसलैंड में यह दिन एक अनोखे ढंग से मनाया जाता है। वहाँ एक के बजाय १३ सांता क्लाज होते हैं और उन्हें एक पौराणिक राक्षस 'ग्रिला' का वंशज माना जाता है। उनका आगमन १२ दिसंबर से शुरू होता है और यह क्रिसमस वाले दिन तक जारी रहता है। ये सभी सांता विनोदी स्वभाव के होते हैं। इसके विपरीत डेनमार्क में 'जुलेमांडेन' (सांता) बर्फ़ पर चलनेवाली गाड़ी- स्ले पर सवार होकर आता है। यह गाड़ी उपहारों से लदी होती है और इसे रेंडियर खींच रहे होते हैं। नॉर्वे के गाँवों में कई सप्ताह पहले ही क्रिसमस की तैयारी शुरू हो जाती है। वे इस अवसर पर एक विशेष प्रकार की शराब तथा लॉग केक (लकड़ी के लठ्ठे के आकार का केक) घर पर ही बनाते हैं। त्यौहार से दो दिन पहले माता-पिता अपने बच्चों से छिपकर जंगल से देवदार का पेड़ काटकर लाते हैं और उसे विशेष रूप से सजाते हैं। इस पेड़ के नीचे बच्चों के लिए उपहार भी रखे जाते हैं। क्रिसमस के दिन जब बच्चे सोकर उठते हैं तो क्रिसमस ट्री तथा अपने उपहार देखकर उन्हें एक सुखद आश्चर्य होता है। डेनमार्क के बच्चे परियों को 'जूल निसे' के नाम से जानते हैं और उनका विश्वास है कि ये पारियाँ उनके घर के टांड पर रहती हैं। फिनलैंड के निवासियों के अनुसार सांता उत्तरी ध्रुव में 'कोरवातुनतुरी' नामक स्थान पर रहता है। दुनिया भर के बच्चे उसे इसी पते पर पत्र लिख कर उसके समक्ष अपनी अजीबोग़रीब माँगे पेश करते हैं। उसके निवास स्थान के पास ही पर्यटकों के लिए क्रिसमस लैंड नामक एक भव्य थीम पार्क बन गया है। यहाँ के निवासी क्रिसमस के एक दिन पहले सुबह को चावल की खीर खाते हैं तथा आलू बुखारे का रस पीते हैं। इसके बाद वे अपने घरों में क्रिसमस ट्री सजाते हैं। दोपहर को वहाँ रेडियो पर क्रिसमस के विशेष शांति-पाठ का प्रसारण होता है।


गरीबों को दान


इंग्लैंड में इस त्यौहार की तैयारियाँ नवंबर के अंत में शुरू हो जाती हैं। बच्चे बड़ी बेताबी से क्रिसमस का इंतज़ार करते हैं और क्रिसमस का पेड़ सजाने में अपने माता-पिता की सहायता करते हैं। २४ दिसंबर की रात को वे पलंग के नीचे अपना मोजा अथवा तकिये का गिलाफ़ रख देते हैं, ताकि 'फादर क्रिसमस' आधी रात को आकर उन्हें विभिन्न उपहारों से भर दें। जब वे अगले दिन सोकर उठते हैं तो उन्हें अपने पैर के अंगूठे के पास एक सेब तथा ऐड़ी के पास एक संतरा रखा हुआ मिलता है। इस अवसर पर बच्चे पटाखे भी जलाते हैं। यहाँ क्रिसमस के अगले दिन 'बॉक्सिंग डे' भी मनाया जाता है, जो सेंट स्टीफेन को समर्पित होता है। कहते हैं कि सेंट, स्टीफेन घोड़ों को स्वस्थ रखते हैं। यहाँ बाक्सिंग का मतलब घूसेबाजी से नहीं है, बल्कि उन 'बाक्स' (डिब्बों) से है, जो गिरजाघरों में क्रिसमस के दौरान दान एकत्र करने के लिए रखे जाते थे। २६ दिसंबर को इन दानपेटियों में एकत्र धन गरीबों में बाँट दिया जाता था। रूस में इन दिनों भयंकर बर्फ़ पड़ी रही होती है, फिर भी लोगों के उत्साह में कोई कमी नहीं आती। वे २३ दिसंबर से ५ जनवरी तक इस त्यौहार को मनाते हैं।


बर्फ़ ही बर्फ़


उत्सवों के नगर सिंगापुर में भी इस त्यौहार का विशेष महत्व है। यहाँ महीनों पहले से ही इसकी तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं और सभी बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल में सजावट तथा रोशनी के मामले में परस्पर होड़ लग जाती है। अगर इन दिनों आप कभी सिंगापुर आएँ तो चांगी हवाई अडडे पर उतरते ही वहाँ सजे क्रिसमस ट्री देखकर आपको यह अहसास हो जाएगा कि यहाँ क्रिसमस की बहार शुरू हो गई है। हर साल यहाँ क्रिसमस के लिए कोई नई थीम ली जाती है, मसलन पिछले साल की थीम थी 'बर्फ़ीली क्रिसमस' जिसकी जगह से पूरे सिंगापुर में इस दौरान चारों तरफ़ सजावट तथा रोशनी में बर्फ़ का ही अहसास होता था। सिंगापुर की ही तरह मकाऊ तथा हांगकांग में भी हमने क्रिसमस की अनोखी सजावट देखी, जिस पर हर साल लाखों डालर खर्च किए जाते हैं। अमरीका में सांता क्लाज के दो घर हैं - एक कनेक्टीकट स्थित टोरिंगटन में तथा दूसरा न्यूयार्क स्थित विलमिंगटन में। टोरिंगटन में सांता क्लाज अपने 'क्रिसमस गाँव' में आनेवाले बच्चों को अपनी परियों के साथ मिलकर उपहार देता है। इस अवसर पर इस गाँव को स्वर्ग के किसी कक्ष की तरह सजाया जाता है। व्हाइटफेस पर्वत के निकट विलिंगटन में सांता का स्थायी घर है। इस गाँव में एक गिरजाघर तथा एक डाकघर है। यहाँ एक लुहार भी रहता है। हर साल एक लाख से अधिक लोग इस गाँव के दर्शन करने आते हैं। अमरीका में सांता क्लाज नामक एक नगर भी है, जिसमें सांता की एक २३ फीट ऊँची मूर्ति है। सांता के नाम लिखे अमरीकी बच्चों के सभी पत्र यहीं आते हैं।

कुछ और लेख क्रिसमस





Tuesday, November 24, 2009

इतिहास की जरूरत किसे है ?




पढ़िए नई दुनिया में इतिहास पर प्रासंगिक लेख।

http://www.naidunia.com/Details.aspx?id=104511&boxid=29736048

खबरों में इतिहास ( भाग-२ )

  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आज से आपको  उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास या मिथकीय इतिहास से संबंधित होंगी। मूल रूप में देने के साथ इन खबरों का मूल लिंक भी रहेगा ताकि आपको मूल स्रोत का भी पता चल सके।

इस अंक के प्रमुख शीर्षक

1767 में स्थापित मां दुर्गा की प्रतिमा

श्रीराम की जन्म तिथि

रामसेतु तथा राम के युग की प्रामाणिकता

४५ हजार साल पुरानी है भारत की जाति व्यवस्था : शोध

India's caste system 'is thousands of years old', DNA shows

रामसेतु तथा राम के युग की प्रामाणिकता
हम भारतीय विश्व की प्राचीनतम सभ्यता के वारिस है तथा हमें अपने गौरवशाली इतिहास तथा उत्कृष्ट प्राचीन संस्कृति पर गर्व होना चाहिए। किंतु दीर्घकाल की परतंत्रता ने हमारे गौरव को इतना गहरा आघात पहुंचाया कि हम अपनी प्राचीन सभ्यता तथा संस्कृति के बारे में खोज करने की तथा उसको समझने की इच्छा ही छोड़ बैठे। परंतु स्वतंत्र भारत में पले तथा पढ़े-लिखे युवक-युवतियां सत्य की खोज करने में समर्थ है तथा छानबीन के आधार पर निर्धारित तथ्यों तथा जीवन मूल्यों को विश्व के आगे गर्वपूर्वक रखने का साहस भी रखते है। श्रीराम द्वारा स्थापित आदर्श हमारी प्राचीन परंपराओं तथा जीवन मूल्यों के अभिन्न अंग है। वास्तव में श्रीराम भारतीयों के रोम-रोम में बसे है। रामसेतु पर उठ रहे तरह-तरह के सवालों से श्रद्धालु जनों की जहां भावना आहत हो रही है,वहीं लोगों में इन प्रश्नों के समाधान की जिज्ञासा भी है। हम इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयत्‍‌न करे:- श्रीराम की कहानी प्रथम बार महर्षि वाल्मीकि ने लिखी थी। वाल्मीकि रामायण श्रीराम के अयोध्या में सिंहासनारूढ़ होने के बाद लिखी गई। महर्षि वाल्मीकि एक महान खगोलविद् थे। उन्होंने राम के जीवन में घटित घटनाओं से संबंधित तत्कालीन ग्रह, नक्षत्र और राशियों की स्थिति का वर्णन किया है। इन खगोलीय स्थितियों की वास्तविक तिथियां 'प्लैनेटेरियम साफ्टवेयर' के माध्यम से जानी जा सकती है। भारतीय राजस्व सेवा में कार्यरत पुष्कर भटनागर ने अमेरिका से 'प्लैनेटेरियम गोल्ड' नामक साफ्टवेयर प्राप्त किया, जिससे सूर्य/ चंद्रमा के ग्रहण की तिथियां तथा अन्य ग्रहों की स्थिति तथा पृथ्वी से उनकी दूरी वैज्ञानिक तथा खगोलीय पद्धति से जानी जा सकती है। इसके द्वारा उन्होंने महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित खगोलीय स्थितियों के आधार पर आधुनिक अंग्रेजी कैलेण्डर की तारीखें निकाली है। इस प्रकार उन्होंने श्रीराम के जन्म से लेकर 14 वर्ष के वनवास के बाद वापस अयोध्या पहुंचने तक की घटनाओं की तिथियों का पता लगाया है। इन सबका अत्यंत रोचक एवं विश्वसनीय वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक 'डेटिंग द एरा ऑफ लार्ड राम' में किया है। इसमें से कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण यहां भी प्रस्तुत किए जा रहे है।

श्रीराम की जन्म तिथि

महर्षि वाल्मीकि ने बालकाण्ड के सर्ग 18 के श्लोक 8 और 9 में वर्णन किया है कि श्रीराम का जन्म चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को हुआ। उस समय सूर्य,मंगल,गुरु,शनि व शुक्र ये पांच ग्रह उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे। ग्रहों,नक्षत्रों तथा राशियों की स्थिति इस प्रकार थी-सूर्य मेष में,मंगल मकर में,बृहस्पति कर्क में, शनि तुला में और शुक्र मीन में थे। चैत्र माह में शुक्ल पक्ष नवमी की दोपहर 12 बजे का समय था।

जब उपर्युक्त खगोलीय स्थिति को कंप्यूटर में डाला गया तो 'प्लैनेटेरियम गोल्ड साफ्टवेयर' के माध्यम से यह निर्धारित किया गया कि 10 जनवरी, 5114 ई.पू. दोपहर के समय अयोध्या के लेटीच्यूड तथा लांगीच्यूड से ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों की स्थिति बिल्कुल वही थी, जो महर्षि वाल्मीकि ने वर्णित की है। इस प्रकार श्रीराम का जन्म 10 जनवरी सन् 5114 ई. पू.(7117 वर्ष पूर्व)को हुआ जो भारतीय कैलेण्डर के अनुसार चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि है और समय 12 बजे से 1 बजे के बीच का है।

श्रीराम के वनवास की तिथि

वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड (2/4/18) के अनुसार महाराजा दशरथ श्रीराम का राज्याभिषेक करना चाहते थे क्योंकि उस समय उनका(दशरथ जी) जन्म नक्षत्र सूर्य, मंगल और राहु से घिरा हुआ था। ऐसी खगोलीय स्थिति में या तो राजा मारा जाता है या वह किसी षड्यंत्र का शिकार हो जाता है। राजा दशरथ मीन राशि के थे और उनका नक्षत्र रेवती था ये सभी तथ्य कंप्यूटर में डाले तो पाया कि 5 जनवरी वर्ष 5089 ई.पू.के दिन सूर्य,मंगल और राहु तीनों मीन राशि के रेवती नक्षत्र पर स्थित थे। यह सर्वविदित है कि राज्य तिलक वाले दिन ही राम को वनवास जाना पड़ा था। इस प्रकार यह वही दिन था जब श्रीराम को अयोध्या छोड़ कर 14 वर्ष के लिए वन में जाना पड़ा। उस समय श्रीराम की आयु 25 वर्ष (5114- 5089) की निकलती है तथा वाल्मीकि रामायण में अनेक श्लोक यह इंगित करते है कि जब श्रीराम ने 14 वर्ष के लिए अयोध्या से वनवास को प्रस्थान किया तब वे 25 वर्ष के थे।


खर-दूषण के साथ युद्ध के समय सूर्यग्रहण

वाल्मीकि रामायण के अनुसार वनवास के 13 वें साल के मध्य में श्रीराम का खर-दूषण से युद्ध हुआ तथा उस समय सूर्यग्रहण लगा था और मंगल ग्रहों के मध्य में था। जब इस तारीख के बारे में कंप्यूटर साफ्टवेयर के माध्यम से जांच की गई तो पता चला कि यह तिथि 5 अक्टूबर 5077 ई.पू. ; अमावस्या थी। इस दिन सूर्य ग्रहण हुआ जो पंचवटी (20 डिग्री सेल्शियस एन 73 डिग्री सेल्शियस इ) से देखा जा सकता था। उस दिन ग्रहों की स्थिति बिल्कुल वैसी ही थी, जैसी वाल्मीकि जी ने वर्णित की- मंगल ग्रह बीच में था-एक दिशा में शुक्र और बुध तथा दूसरी दिशा में सूर्य तथा शनि थे।

अन्य महत्वपूर्ण तिथियां

किसी एक समय पर बारह में से छह राशियों को ही आकाश में देखा जा सकता है। वाल्मीकि रामायण में हनुमान के लंका से वापस समुद्र पार आने के समय आठ राशियों, ग्रहों तथा नक्षत्रों के दृश्य को अत्यंत रोचक ढंग से वर्णित किया गया है। ये खगोलीय स्थिति श्री भटनागर द्वारा प्लैनेटेरियम के माध्यम से प्रिन्ट किए हुए 14 सितंबर 5076 ई.पू. की सुबह 6:30 बजे से सुबह 11 बजे तक के आकाश से बिल्कुल मिलती है। इसी प्रकार अन्य अध्यायों में वाल्मीकि द्वारा वर्णित ग्रहों की स्थिति के अनुसार कई बार दूसरी घटनाओं की तिथियां भी साफ्टवेयर के माध्यम से निकाली गई जैसे श्रीराम ने अपने 14 वर्ष के वनवास की यात्रा 2 जनवरी 5076 ई.पू.को पूर्ण की और ये दिन चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी ही था। इस प्रकार जब श्रीराम अयोध्या लौटे तो वे 39 वर्ष के थे (5114-5075)।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम से श्रीलंका तक समुद्र के ऊपर पुल बनाया। इसी पुल को पार कर श्रीराम ने रावण पर विजय पाई। हाल ही में नासा ने इंटरनेट पर एक सेतु के वो अवशेष दिखाए है, जो पॉक स्ट्रेट में समुद्र के भीतर रामेश्वरम(धनुषकोटि) से लंका में तलाई मन्नार तक 30 किलोमीटर लंबे रास्ते में पड़े है। वास्तव में वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि विश्वकर्मा की तरह नल एक महान शिल्पकार थे जिनके मार्गदर्शन में पुल का निर्माण करवाया गया। यह निर्माण वानर सेना द्वारा यंत्रों के उपयोग से समुद्र तट पर लाई गई शिलाओं, चट्टानों, पेड़ों तथा लकड़ियों के उपयोग से किया गया। महान शिल्पकार नल के निर्देशानुसार महाबलि वानर बड़ी-बड़ी शिलाओं तथा चट्टानों को उखाड़कर यंत्रों द्वारा समुद्र तट पर ले आते थे। साथ ही वो बहुत से बड़े-बड़े वृक्षों को, जिनमें ताड़, नारियल,बकुल,आम,अशोक आदि शामिल थे, समुद्र तट पर पहुंचाते थे। नल ने कई वानरों को बहुत लम्बी रस्सियां दे दोनों तरफ खड़ा कर दिया था। इन रस्सियों के बीचोबीच पत्थर,चट्टानें, वृक्ष तथा लताएं डालकर वानर सेतु बांध रहे थे। इसे बांधने में 5 दिन का समय लगा। यह पुल श्रीराम द्वारा तीन दिन की खोजबीन के बाद चुने हुए समुद्र के उस भाग पर बनवाया गया जहां पानी बहुत कम गहरा था तथा जलमग्न भूमार्ग पहले से ही उपलब्ध था। इसलिए यह विवाद व्यर्थ है कि रामसेतु मानव निर्मित है या नहीं, क्योंकि यह पुल जलमग्न, द्वीपों, पर्वतों तथा बरेतीयों वाले प्राकृतिक मार्गो को जोड़कर उनके ऊपर ही बनवाया गया था।



1767 में स्थापित मां दुर्गा की प्रतिमा

वाराणसी। उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी वाराणसी के मदनपुरा क्षेत्र में एक बंगाली परिवार की ओर से सन 1767 में स्थापित मां दुर्गा की प्रतिमा का अभी भी विसर्जन नहीं किया गया है। दुर्गा प्रतिमा की देख-रेख आज भी मुखर्जी परिवार पारंपरिक रूप से करता है। हजारों लोग प्रतिमा का दर्शन विशेषकर रात्रि में प्रतिदिन करते हैं। प्रतिमा में वही आकर्षण आज भी है जो 1767 में स्थापित होने के समय थी। परिवार के मुखिया प्रशान्त कुमार मुखर्जी बिजली विभाग में जूनियर इंजीनियर है। उन्होंनें कहा कि उनके परिवार के लोग पश्चिम बंगाल के हुगली जिले से आकर वर्षों पहले यहां बस गये थे। सन 1767 में शारदीय नवरात्रि में दुर्गा जी की प्रतिमा घर में स्थापित की गयी। नवरात्रि भर देवी की पारम्परिक ढंग से पूजा होती रही, लेकिन नवरात्रि के अंतिम दिन जब गंगा में विसर्जन के लिये मां दुर्गा की प्रतिमा उठाई जाने लगी तो वह टस से मस नहीं हुई। प्रतिमा को उठाने के लिये दर्जनों लोगों ने मिलकर प्रयास किया लेकिन वह हिली तक नहीं।उस दिन परिवार वालों ने प्रतिमा के विसर्जन करने का फैसला छोड़ दिया। तभी से मां दुर्गा उसी स्थान पर विराजमान है और पारम्परिक ढंग से आज भी प्रतिदिन पूजा हो रही है। मुखर्जी परिवार ने पूजा पाठ के लिये पुजारी रखा है। सिंह पर सवार मां दुर्गा तथा उनके बगल में विराजमान लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती और कार्तिकेय की मूर्तियां मिट्टी, पुआल और बांस से बनी है। प्रतिमा को देखने से ऐसा लगता है कि अभी-अभी कोई बनाकर गया है। प्रतिमा में आज भी वही आकर्षण है जो 242 साल पहले था। प्रतिमा का दर्शन करने के बाद लोग अपने को धन्य मानते हैं। कुछ लोग तो मनौतियां भी मानते है और मां की कृपा से उनकी मनोकामना पूरी होती है यह दावा है प्रशान्त कुमार मुखर्जी का।

दुर्गा जी की प्रतिमा के साथ में काले रंग के पत्थर से बनी विष्णु भगवान की प्रतिमा स्थापित है। इसी के साथ ही साथ मंदिर मे 12 शिवलिंग स्थापित हैं जो मकान बनवाते समय जमीन से मुखर्जी परिवार को मिले थे। मुखर्जी ने बताया कि पूजा पाठ के लिये अलग से पुजारी रखा गया है जो प्रतिदिन आकर विधि विधान से मां दुर्गा की पूजा करता है। उन्होंने कहा कि जरूरत पड़ने पर मां दुर्गा समेत अन्य प्रतिमाओं की मरम्मत और रंगाई होती है। प्रत्येक पूजा पर भक्तों को प्रसाद बांटा जाता है।



४५ हजार साल पुरानी है भारत की जाति व्यवस्था : शोध

भारतीय जनसंख्या दो पुश्तों की आबादी का मिश्रण है। एक ताजा अध्ययन में यह बात सामने आई है। हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एण्ड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी :सीसीएमबी: का हार्वर्ड मेडिकल स्कूल, हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ और ब्रॉड इंस्टीट्यूट ऑफ हार्वर्ड और एमआईटी के सहयोग से किया गया यह अध्ययन जीनोम आधारित पहला तथा सबसे बड़ा शोध माना जा रहा है। शोध दल के सदस्य लालजी सिंह ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा ‘‘यह अध्ययन बताता है कि भारत महज एक तरह की आबादी वाला मुल्क नहीं बल्कि बहुविध जनसंख्या वाला देश है।’’ सिंह ने कहा कि अंडमान के लोगों को छोड़ दें तो मौजूदा भारतीय जनसंख्या पैतृक उत्तर भारतीय :एएनआई: और पैतृक दक्षिण भारतीय :एएसआई: आबादी का मिश्रण है। उन्होंने कहा कि जीनोम विश्लेषण सेपता चला है कि आज की आबादी ४५००० साल पुरानी उत्तर व दक्षिण की दो पैतृक आबादियों का मिश्रण है। शोध से दो पैतृक आबादियां एएनआई और एएसआई के बारे में पता लगा है।शोध से यह बात भी सामने आई है कि आधुनिक मानव जातियां अफ्रीका से दक्षिण, मध्य व दक्षिण एशियाकी तरफ करीब ७०००० हजार वर्ष पहले कूच करना शुरू किया था। भारत में 4635 तरह की परिभाषित आबादियां हैं जिनमें 532 आदिवासी जातियां और 72 आदिम आदिवासी जातियां शामिल हैं। इस शोध के नतीजे अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ के ताजा अंक में प्रकाशित हुए हैं। सिंह ने कहा कि भारत में जाति प्रथा कई युगों से चली आ रही है। उन्होंने कहा कि तथाकथित आर्य लोग कहीं बाहर से नहीं आए थे बल्कि वे भारत में ही रहते थे। ‘‘हमारा अध्ययन मैक्स म्यूलर के सिद्धांत को नहीं मानता।’’



Two roots for Indians G.S. MUDUR

A new genetic study has provided glimpses of India’s population patterns from deeper in the past than before, revealing the existence of two distinct, ancestral populations in the country about 45,000 years ago. Indian and US scientists have used human genes to explore a largely uncharted domain of prehistoric populations and shown that nearly all Indians are descendants in varying genetic proportions of these two distinct populations. The researchers also found that after the ancient admixture, endogamy has shaped marriage patterns in India for thousands of years, predating the caste system.

They analysed more than 560,000 genetic markers from the genomes of 132 Indians representing 25 population groups, six language families and several castes and tribes. The findings will appear in the journal Nature on Thursday. The study has suggested two ancient populations — ancestral North Indians and ancestral South Indians — that had diverged from older population groups, derived from the earliest modern humans who trudged out of Africa some 70,000 years ago.

“They appear to be progenitor populations — nearly all the groups we studied have descended from mixtures of the two,” said Kumarasamy Thangaraj, a co-author and senior scientist at the Centre for Cellular and Molecular Biology (CCMB), Hyderabad. Thangaraj and Lalji Singh from the CCMB collaborated with scientists at the Broad Institute of Harvard and the Massachusetts Institute of Technology to study variations of a large number of genetic markers in individuals from different population groups. The patterns of variation can provide information about genetic distances between the groups and their history.

The genetic patterns suggest that most present-day Indian population groups have inherited 39 per cent to 71 per cent of their ancestry from the ancestral North Indians who are genetically close to central Asians or Eurasians. The balance comes from ancestral South Indians who do not appear to share genetic proximity with any group outside India. “The ancestral South Indians may have diverged from the earliest of modern humans to arrive in India,” Thangaraj said.

The new study was not designed to explore how far back in time the distinct populations arrived, or when they began to mix. But the new data combined with earlier research would put the ancestral South Indians in India about 65,000 years ago and the ancestral North Indians about 20,000 years later.Although there is abundant archaeological evidence — rock shelters, stone tools and wooden spears — for prehistoric human settlements in India, population patterns and movements of the earliest modern humans in India remain unclear. “It seems to me that attempts to postulate a population pattern so far back in history, going back to before 10,000 BC, would have many uncertainties,” said Romila Thapar, emeritus professor of ancient Indian history at Jawaharlal Nehru University, Delhi. “Our data on population groups for such early periods is limited,” Thapar told The Telegraph.

Genetic studies by other research teams have indicated that modern humans began walking out of Africa into West Asia, central Asia and South Asia, about 70,000 years ago. The new study has also confirmed earlier findings from the CCMB that the Onges in the Andamans are the descendants of the first modern humans who moved out of Africa, but have remained isolated on the islands. The Onges appear exclusively related to the ancestral South Indians. “Understanding the origins of the Andamanese (tribes) could provide a window into the history of ancestral South Indians,” Nick Patterson, a mathematician and a team member from the Broad Institute, said in a statement.

The CCMB-Broad Institute study has shown that genetic contribution of ancestral North Indians is high in upper caste and Indo-European language speakers on the subcontinent — such as the Pathans from Pakistan or the Kashmiri Pandits, Vaish, Srivastava groups from India. But some tribal and lower caste groups appear closer to the ancestral South Indians. The study also indicated that four groups — the Onges from Andamans, the Siddhis from Karnataka, and the Nyshi and Ao Naga from the Northeast — have genetic proximity to populations outside India and do not have detectable contributions from either the ancestral North Indians or ancestral South Indians.



India's caste system 'is thousands of years old', DNA shows

India's caste system stretches back thousands of years and was not largely a creation of colonial rule, as some historians claim, a genetic study has shown.

Researchers analysed the DNA of 132 individuals with wide-ranging backgrounds from 25 diverse groups around India. They found evidence of strong inbreeding leading to genetic groups that had been isolated from each other for thousands of years. Most people had a mixture of genes from two ancient populations representing traditionally upper-caste individuals and everyone else. The first was genetically close to people from the Middle East, Central Asia and Europe, while the second had an 'Ancestral South Indian' lineage confined to the subcontinent. The research challenges the notion that India's notorious rigid caste system, with its priestly Brahmans and low-status 'untouchables', was largely manufactured by the British. Some historians claim that while a caste system of sorts had existed since ancient times, in its original form it was not hereditary or inflexible and allowed people to move up and down the social ladder.

It was the British who cemented the caste system into Indian society and culture by using it as a basis of a ''divide and rule'' policy, it is alleged. The caste system was a convenient means of keeping society under control. The new findings published in the journal Nature indicate that, genetically at least, Indians had been divided long before the British arrived. The scientists analysed more than 500,000 genetic markers from people representing 13 states, all six language families in India, traditionally ''upper'' and ''lower'' castes, and tribal groups. One group of Andaman islanders was, unusually, related exclusively to the Ancestral South Indian lineage.

Co-author Dr Nick Patterson, from the Harvard University/MIT Broad Institute in Massachusetts, US, said: ''The Andamanese are unique. Understanding their origins provides a window onto the history of the Ancestral South Indians, and the period tens of thousands of years ago when they diverged from other Eurasians.'' The research has important health implications for Indians. Other genetically isolated groups such as Ashkenazi Jews are well known to suffer from an increased incidence of genetic diseases. The same may be true for many groups in India, the scientists believe. "The finding that a large proportion of modern Indians descend from founder events means that India is genetically not a single large population, but instead is best described as many smaller isolated populations," said Dr Lalji Singh, one of the study leaders from the Centre for Cellular and Molecular Biology in Hyderabad, India.


India’s caste system descended from two tribes ‘not colonialism’

Mark Henderson Science Editor

Genetic profiling shows that the structure of Indian society today reflects early social groupings, not just colonialism India’s caste system is not a relic of colonialism but has existed in some form for thousands of years, the most comprehensive study yet of the genetic diversity of the sub-continent has suggested. The genetic profiles typical of modern castes are indistinguishable from those of much older tribal groups, Indian and American scientists have found. This suggests that they emerged from populations of shared ancestry who have married among themselves for many generations.

The researchers wrote in the journal Nature: “Some historians have argued that caste in modern India is an ‘invention’ of colonialism, in the sense that it became more rigid under colonial rule. However, our results indicate that many current distinctions among groups are ancient and that strong endogamy [marriage within a group] must have shaped marriage patterns in India for thousands of years.”

Kumarasamy Thangaraj, of the Centre for Cellular and Molecular Biology (CCMB) in Hyderabad, and a leader of the study, said: “It is impossible to distinguish castes from tribes using the data. The genetics proves that they are not systematically different. This supports the view that castes grew directly out of tribal-like organisations during the formation of Indian society.” Researchers analysed more than 500,000 genetic markers from 132 people from 25 different groups.

The research established that modern Indians of all castes are descended from two ancestral groups. Indians can trace between 39 per cent and 71 per cent of their ancestry to a population known as the Ancestral Northern Indians (ANI), who are quite closely related to Europeans and Asians. Those with a higher ancestral contribution from the ANI group are more likely to belong to higher castes, and to speak Indo-European languages such as Hindi and Bengali.

The other ancient population are the Ancestral Southern Indians (ASI), who are not genetically close to any group outside the sub-continent. People with a higher ASI ancestry are more likely to belong to lower castes, and to speak non Indo-European languages such as Tamil. The research, by scientists from CCMB in India and Harvard University and the Massachusetts Institute of Technology (MIT) in the United States, has also established that Indians are much more genetically diverse than Europeans.

This result indicates that many modern Indian groups are descended from a small number of “founding individuals”, whose descendants interbred among themselves to create genetically isolated populations. Lalji Singh, director of CCMB, said: “India is genetically not a single large population, but instead is best described as many smaller isolated populations.” This insight has important medical implications for people of Indian origin, because groups that are descended from small founding populations often have a high incidence of inherited diseases. Ashkenazi Jews, for example, have a high risk of Tay-Sachs disease.

This may explain why several genetic conditions are more common in India than elsewhere: a mutation in a gene called MYBPC3, which raises the risk of heart failure sevenfold, is found in 4 per cent of Indians but is exceptionally rare elsewhere. The only ethnic group who do not have this shared ancestry is the indigenous population of the Andaman Islands in the Indian Ocean, who appear to be of exclusively ASI descent.

Nick Patterson, of the Broad Institute of Harvard and MIT, said: “The Andamanese are unique. Understanding their origins provides a window on to the history of the Ancestral South Indians, and the period tens of thousands of years ago when they diverged from other Eurasians.” Mr Singh added: “Our project to sample the disappearing tribes of the Andaman Islands has been more successful than we could have hoped, as the Andamanese are the only surviving remnant of the ancient colonisers of South Asia.”

Aravinda Chakravarti, of Johns Hopkins School of Medicine in Baltimore, Maryland, wrote in a commentary for Nature: “Greater ANI ancestry is significantly associated with Indo-European speakers and with traditionally ‘higher’ caste membership. This provides a model of how diversity within India came about. As such, its details are imperfect and will surely be contested, revised and improved. “Caste and custom may be strong barriers between groups, perhaps even today. But the common shared ancestry and rampant ANI/ASI mixture may be the strong, invisible thread that binds all Indians.”

Wednesday, November 18, 2009

खबरों में इतिहास ( भाग-१ )

  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आज से आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास या मिथकीय इतिहास से संबंधित होंगी। मूल रूप में देने के साथ इन खबरों का मूल लिंक भी रहेगा ताकि आपको मूल स्रोत का भी पता चल सके।

झांसी की रानी का ऐतिहासिक पत्र

http://thatshindi.oneindia.in/news/2009/11/17/letterranijhansias.html

भारत में ब्रितानी शासन के ख़िलाफ़ हुए 1857 के विद्रोह में अहम भूमिका निभाने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की एक महत्वपूर्ण चिट्ठी लंदन में ब्रिटिश लाइब्रेरी के आर्काइव्स में मिली है. झांसी की रानी ने 1857 के विद्रोह से कुछ ही देर पहले यह पत्र ईस्ट इंडिया कंपनी के राजाओं-महाराजाओं के बारे में दस्तावेज़, तस्वीरें और अन्य चीज़े एकत्र की थीं."

झांसी की रानी के इस पत्र में उस रात का विवरण है जब उनके पति की मृत्यु हुई थी. लक्ष्मीबाई ने पत्र में लिखा है कि डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स के डर से उनके पति ने विधिवत ढंग से पुत्र को गोद लिया था ताकि उसे झांसी का अगला राजा स्वीकार किया जाए लेकिन लॉर्ड डल्हाऊसी ने इसे स्वीकार नहीं किया.

वर्ष 1857 में भारत में ब्रितानी शासन के ख़िलाफ़ भड़के विद्रोह में झांसी की रानी ने विद्रोहियों का साथ दिया और जंग के मैदान में ख़ुद अपने सैनिकों का नेतृत्व किया और लड़ते-लड़ते मारी गईं.

मिले डायनासोर के पैरों के निशान

न्यूजीलैंड में डायनासोर के सात करोड़ वर्ष पुराने पदचिह्न् मिले हैं। डायनासोर के पैरों के ये निशान नेल्सन के दक्षिणी द्वीप क्षेत्र में पाए गए हैं। न्यूजीलैंड में डायनासोर के अस्तित्व का यह पहला प्रमाण है।

न्यूजीलैंड सरकार की शोध संस्था जी.एन.एस. साइंस के भू-विज्ञानी ग्रेग ब्राउन को डायनासोर के पैरों के ये निशान मिले हैं। डायनासोर के पैरों के ये निशान करीब 10 किलोमीटर क्षेत्र में छह स्थानों पर फैले हुए हैं। जीवाश्म विज्ञानी हैमिश कैम्पबेल ने कहा कि यह खोज बहुत उत्तेजक है और अब वह उस युग की चट्टानों का अध्ययन करने जा रहे हैं। ( इंडो-एशियन न्यूज सर्विस )।

अब सभी समझ पाएंगे काग की भाषा!
http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_5951744/

पशु-पक्षियों की बोली में भी कोई न कोई संदेश छिपा होता है। प्राचीन काल में लोग पशु-पक्षियों की भाषा पर भविष्यवाणी करते थे जो सटीक बैठती थी। ऐसी ही एक हस्तलिखित पांडुलिपि शिमला के पांडुलिपि रिसोर्स सेंटर को मिली है जिसमें कौव्वे की कांव-कांव का रहस्य छिपा है।

टांकरी लिपि में करीब दो सौ पृष्ठ के इस ग्रंथ का नाम है 'काग भाषा'। यदि रिसोर्स सेंटर इसका अनुवाद करवाता है तो छिपे रहस्य का भी पता चल सकेगा।

तीन सौ साल पुराना, दो सौ पन्नों का यह ग्रंथ शिमला जिले से मिला है जिसमें कौव्वे की बोली से संबंधित जानकारी है। शाम, सुबह या दोपहर को कौव्वे की कांव-कांव का अर्थ क्या होता है,पुस्तक में यह जानकारी है। कौव्वा किस घर के किस दिशा में बैठा है, किस दिशा में मुंह है। इन रहस्यों से पर्दा इसके अनुवाद के बाद ही उठेगा।

रिसोर्स सेंटर में सैकड़ों साल पुराने रजवाड़ाशाही का इतिहास के अलावा आयुर्वेद, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र और यंत्र के अलावा धार्मिक ग्रंथ भी शामिल हैं। यह पांडुलिपियां विभिन्न भाषाओं मसलन पाउची, फारसी, पंडवाणी, चंदवाणी, ब्रह्माी, शारदा, भोटी, भटाक्षरी, संस्कृत, टांकरी, देवनागरी आदि लिपियों में हैं। केंद्रीय पांडुलिपि मिशन ने हिमाचल रिसोर्स सेंटर को पांडुलिपि तलाश अभियान में अव्वल माना है।

सैकड़ों साल पहले जब पुस्तक प्रकाशित करने के संसाधन कम थे तो लोग हाथों से लिखा करते थे। इसमें धार्मिक साहित्य के अलावा ज्योतिष, आयुर्वेद, नाड़ी शास्त्र, तंत्र-मंत्र-यंत्र, इतिहास, काल और घटनाएं होती थी। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने देश में बिखरी इन दुर्लभ पांडुलिपियों को एकत्रित करने के लिए राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन की शुरूआत की। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के तहत हिमाचल भाषा, संस्कृति एवं कला अकादमी को 2005 में रिसोर्स सेंटर घोषित किया गया है।

रिसोर्स सेंटर का कार्य हिमाचल में पांडुलिपियों को ढूंढ़ना, उन्हें संरक्षित करना तथा उसमें छिपे रहस्य को जनता के सामने लाना था। रिसोर्स सेंटर को अभी तक प्रदेश के विभिन्न कोने से 44,642 पांडुलिपियां मिली हैं जो अब ऑनलाइन हैं जबकि 600 के करीब पांडुलिपियां रिसोर्स सेंटर में हैं।

गौरतलब है कि इस भाषा के ज्ञाता बहुत कम ही रह गए हैं। इसलिए रिसोर्स सेंटर ने इसके लिए गुरु-शिष्य परंपरा भी शुरू की है। अधिकतर पांडुलिपियां तंत्र-मंत्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, इतिहास और धर्मग्रंथ से संबंधित पुस्तकें मिल रही हैं।

रिसोर्स सेंटर का कहना है कि सबसे अधिक पांडुलिपियां लाहुल-स्पीति में मिल रही हैं। वहां अभी 3038 पांडुलिपियों का पता चला है। यहां मोनेस्ट्री से संबंधित दस्तावेज ज्यादा हैं। अभी तक टांकरी लिपि में पांच शिष्य गुरु हरिकृष्ण मुरारी से यह लिपि सीख रहे हैं। यह सेंटर कांगड़ा के शाहपुर में खोला गया है। केंद्र सरकार से सिरमौर में पाउची लिपि सिखाने के लिए सेंटर खोलने की अनुमति मिल चुकी है।

पांडुलिपि रिसोर्स सेंटर के कोर्डिनेटर बीआर जसवाल कहते हैं कि कुछ पांडुलिपियों का अनुवाद किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि हिमाचल के कोने-कोने में प्राचीन पांडुलिपियां पड़ी हैं, जिनमें अकूत ज्ञान का भंडार छुपा है। पांडुलिपि के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए समय-समय पर सेमीनार गोष्ठियों का आयोजन किया जाता है।

पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए अलग से सेंटर भी स्थापित किया गया है जहां इन पर केमिकल लगाकर इन्हें संरक्षित किया जाता है। पांडुलिपियों को उपचारात्मक और सुरक्षात्मक उपाय किए जाते हैं। धुएं, फंगस, कीटों का असर नहीं रहता। इसके लिए पैराडाइ क्लोरोवैंजीन, थाइमोल, ऐसीटोन, मीथेन आयल, बेरीक हाइड्राओक्साइड, अमोनिया आदि रसायनों का प्रयोग कर संरक्षित किया जाता है।

खजाने में क्या-क्या

हिमाचल संस्कृति एवं भाषा अकादमी में अब तक जो पांडुलिपियां मिली हैं उनमें प्रमुख कांगड़ा में 600 साल पुराना आयुर्वेद से संबंधित कराड़ा सूत्र है जो भोटी लिपि में लिखा गया है। इसके अलावा कहलूर-हंडूर, बिलासपुर-नालागढ़, सिरमौर रियासत का इतिहास [उर्दू], कटोच वंश का इतिहास, कनावार जिसमें किन्नौर का इतिहास, राजघराने, नूरपूर पठानिया, पठानिया वंश का इतिहास, बृजभाषा में रसविलास, सिरमौर सांचा [पाउची में], रामपुर के ढलोग से मंत्र-तंत्र, राजगढ़ से 300 साला पुराना इतिहास, 12वीं शताब्दी में राजस्थान के पंडित रानी के दहेज में आए थे उनके ग्रंथ भी मिले हैं जो पाउची में हैं।

पांगी में चस्क भटोरी नामक एक पांडुलिपि ऐसी मिली हैं जिसका वजन 18 किलो बताया जा रहा है। एक अन्य पांडुलिपि लाहुल-स्पीति में भोटी भाषा में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। जपुजी साहब, महाभारत, आयुर्वेद, स्कंद पुराण, कुर्सीनामा, राजाओं के वनाधिकार, कुरान तक की प्राचीन पांडुलिपियां मिली हैं।[ब्रह्मानंद देवरानी]

Tuesday, November 3, 2009

नष्ट होने को है महान सम्राट अशोक का एक शिलालेख

     सर्वविदित है कि अशोक ने धर्म प्रचार और प्रशासन के निमित्त देश-विदेश में तमाम अभिलेख व शिलालेख खुदवाकर महत्वपूर्ण स्थलों पर रखवाए थे। तब ये शिलालेख-अभिलेख उसके सुशासन में मदद किए और कालान्तर में प्राचीन भारत का इतिहास लिखने में भी इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी तरह का एक लघुलेख बिहार के कैमूर जिले में एक पहाड़ी पर अवस्खित मगर कुछ विवाद के कारण इसके नष्ट होने की आशंका पैदा हो गई है। सवाल हैदा हो गया है कि इतिहास की कड़ियों को जोड़ने वाले इस ऐतिहासिक साक्ष्य को कैसे बचाया जाए।

      बिहार में कैमूर पहाड़ी पर मौजूद है मौर्य सम्राट अशोक महान का लघु शिलालेख । ब्राह्मी लिपि में इस पर उत्कीर्ण लेख है--एलेन च अंतलेन जंबुदीपसि। इस पंक्ति का अर्थ है- जम्बू द्वीप [भारत] में सभी धर्मो के लोग सहिष्णुता से रहें। आज यह शिलालेख पहाड़ी पर वर्षो से ताले में कैद है।

      इतिहासकार, पुरातत्वविद् व पर्यटक शिलालेख को पढ़ने की चाहत में पहाड़ी पर पहुंचने के बाद वहा से निराश होकर लौटते हैं। खासकर बौद्ध पर्यटक ज्यादा निराश होते हैं। सासाराम से सटी चंदतन पीर नाम की पहाड़ी पर अशोक महान के इस शिलालेख को लोहे के दरवाजे में कैद कर दिया गया है। इस पर इतनी बार चूना पोता गया है कि इसका अस्तित्व ही मिटने को है। यह स्थल पुरातत्व विभाग के अधीन है, पर इस पर दावा स्थानीय मरकजी दरगाह कमेटी का है, कमेटी ने ही यह ताला जड़ा है।

     जिला प्रशासन से लेकर राज्य सरकार तक से गुहार लगाकर थक चुके पुरातत्व विभाग ने अब इस विरासत से अपने हाथ खड़े कर लिए हैं। इतिहास गवाह है कि सम्राट अशोक महान ने तीसरी शताब्दी ई. पूर्व देशभर में आठ स्थानों पर लघु शिलालेख लगाए थे। इनमें से बिहार में एकमात्र शिलालेख सासाराम में है। शिलालेख उन्हीं स्थानों पर लगाए गए थे, जहा से होकर व्यापारी या आमजन गुजरते थे। सम्राट अशोक ने यहा रात भी गुजारी थी।

   व्यूठेना सावने कटे 200506 सत विवासता। इस पंक्ति में कहा गया है कि अशोक ने जनता के दुखदर्द को जानने के लिए कुल 256 रातें महल से बाहर गुजारी थीं। पुरातत्व विभाग के अधिकारी नीरज कुमार बताते हैं कि चार वर्ष पूर्व आए कुछ बौद्ध पर्यटकों ने तत्कालीन डीएम विवेक कुमार सिंह से मिलकर बंद ताले पर विरोध जताया था। डीएम ने इस पर पुरातत्व विभाग से ब्योरा देने के लिए कहा था। रिपोर्ट मागने पर विभाग ने पूरी स्थिति स्पष्ट की थी। मई 2009 में पुरातत्व विभाग, पटना ने सासाराम के डीएम, एसपी, एसडीओ को पत्र लिखकर शिलालेख के संरक्षण की माग की थी। अफसरों ने वस्तुस्थिति का जायजा लेकर हर पक्षों को सुना था, परंतु मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। फिलहाल वहा पुरातत्व का एक बोर्ड तक नहीं है। तालाबंदी के पीछे मरकजी दरगाह कमेटी के अपने तर्क हैं। ( साभार -याहू जागरण )



इतिहास के आईने में महान सम्राट अशोक

अपने भाइयों के रक्त से रंजित मगध के सिंहासन पर आरूढ़ होकर अशोक ने अपना साम्राज्य शुरू किया था, किंतु कलिंग विजय के पश्चात इसके जीवन में एक ऐसा मोड़ आया। जिसमें उसके संपूर्ण जीवन-दर्शन को बदल दिया। उसे अपनाकर वह बना ‘प्रियदर्शी’ और हृदय सम्राट-महान अशोक !
अशोक की महत्वाकांक्षा कलिंग विजय के बाद क्षत-विक्षत हो गई। इस विजय से अशोक का हृदय हिल उठा। रही-सही कसर महारानी विदिशा के उस पुत्र ने पूरी कर दी, जिसमें उसने लिखा था-‘हिंसा का मार्ग अपनाकर क्योंकि आप अपने वचन से हट गये हैं, इसलिए मैं आपका और आपकी संतान का त्याग करती हूं।’ अभी अशोक इन अघातों से उभर ही नहीं पाए थे कि उस बालभिक्षु की बातों ने, जो उसका भतीजा था- जिसके पिता की हत्या अशोक ने की थी, सम्राट के दिलो-दिमाग को बुरी तरह मथ दिया और वे भी बुद्ध की शरण में चले गए। देश-विदेश में बौद्धधर्म का प्रचार अशोक ने जिस तरह से किया, उसकी बराबरी इतिहास में नहीं मिलती। पहले संक्षेप में देखें अशोक के जीवन के घटनाक्रम जिसने खुद उनका जीनदर्शन और भारत के इतिहास को नया आयाम दिया।

अशोक (२७३ ई. पू. से २३६ ई. पू.)

     राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष लगे । इस कारण राज्यारोहण चार साल बाद २६९ ई. पू. में हुआ था । वह २७३ ई. पू. में सिंहासन पर बैठा । अभिलेखों में उसे देवाना प्रिय एवं राजा आदि उपाधियों से सम्बोधित किया गया है । मास्की तथा गर्जरा के लेखों में उसका नाम अशोक तथा पुराणों में उसे अशोक वर्धन कहा गया है । सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने ९९ भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था, लेकिन इस उत्तराधिकार के लिए कोई स्वतंत्र प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ है ।
     दिव्यादान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी है, जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी । सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जयिनी जाते समय अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने श्रेष्ठी की पुत्री देवी से विवाह किया जिससे महेन्द्र और संघमित्रा का जन्म हुआ । दिव्यादान में उसकी एक पत्नीस का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है । उसके लेख में केवल उसकी पत्नी् का नाम करूणावकि है जो तीवर की माता थी । बौद्ध परम्परा एवं कथाओं के अनुसार बिन्दुसार अशोक को राजा नहीं बनाकर सुसीम को सिंहासन पर बैठाना चाहता था, लेकिन अशोक एवं बड़े भाई सुसीम के बीच युद्ध की चर्चा है ।

अशोक का कलिंग युद्ध

अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष २६१ ई. पू. में कलिंग पर आक्रमण किया था । आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद २६९ ई. पू. में उसका विधिवत्‌ अभिषेक हुआ । तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख ५० हजार व्यक्तिु बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी । सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा । इससे द्रवित होकर अशोक ने शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया ।
कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया । उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया । उसने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की । यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग शुरू हुआ । उसने बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया ।
   सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी । तत्पश्चाषत्‌ मोगाली पुत्र निस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था । दिव्यादान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुक को जाता है । अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी । तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी तथा लुम्बिनी ग्राम को करमुक्तस घोषित कर दिया था ।

अशोक एवं बौद्ध धर्म

कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने व्यक्ति गत रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया । अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की । इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्नी देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया ।
दिव्यादान में उसकी एक पत्नीज का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है । उसके लेख में केवल उसकी पत्नीी करूणावकि है । दिव्यादान में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगताशोक का नाम का उल्लेख है ।  विद्वानों अशोक की तुलना विश्वि इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस, अकबर, सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है ।
     अशोक ने अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वनविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं । एच. जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है ।" अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया ।

अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-

(अ) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ, (ब) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्तिे, (स) धर्म महापात्रों की नियुक्तिन, (द) दिव्य रूपों का प्रदर्शन, (य) धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था, (र) लोकाचारिता के कार्य, (ल) धर्मलिपियों का खुदवाना, (ह) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि ।
    अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया । वह अभिषेक के १०वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया । कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी । अपने अभिषेक २०वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की । नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई । बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त किया । स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया । अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे धर्म महापात्र कहा गया था । इसका कर्य विभिन्न् धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था ।

अशोक के शिलालेख

अशोक के १४ शिलालेख विभिन्न लेखों का समूह है जो आठ भिन्नध-भिन्नक स्थानों से प्राप्त किए गये हैं-

(१) धौली- यह उड़ीसा के पुरी जिला में है ।

(२) शाहबाज गढ़ी- यह पाकिस्तान (पेशावर) में है ।

(३) मान सेहरा- यह हजारा जिले में स्थित है ।

(४) कालपी- यह वर्तमान उत्तरांचल (देहरादून) में है ।

(५) जौगढ़- यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है ।
(६) सोपरा- यह महराष्ट्र के थाणे जिले में है ।

(७) एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है ।

(८) गिरनार- यह काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास है ।

अशोक के लघु शिलालेख

अशोक के लघु शिलालेख चौदह शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं है जिसे लघु शिलालेख कहा जाता है । ये निम्नांकित स्थानों से प्राप्त हुए हैं-

(१) रूपनाथ- यह मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में है ।

(२) गुजरी- यह मध्य प्रदेश के दतुया जिले में है ।

(३) भबू- यह राजस्थान के जयपुर जिले में है ।

(४) मास्की- यह रायचूर जिले में स्थित है ।

(५) सहसराम- यह बिहार के शाहाबाद जिले में है ।
     धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अशोक ने मानव व पशु जाति के कल्याण हेतु पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मानव तथा पशु के लिए अलग चिकित्सा की व्य्वस्था की । अशोक के महान पुण्य का कार्य एवं स्वर्ग प्राप्ति का उपदेश बौद्ध ग्रन्थ संयुक्त निकाय में दिया गया है ।
अशोक ने दूर-दूर तक बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु दूतों, प्रचारकों को विदेशों में भेजा अपने दूसरे तथा १३वें शिलालेख में उसने उन देशों का नाम लिखवाया जहाँ दूत भेजे गये थे । दक्षिण सीमा पर स्थित राज्य चोल, पाण्ड्या, सतिययुक्तर केरल पुत्र एवं ताम्रपार्णि बताये गये हैं ।

अशोक के अभिलेख

अशोक के अभिलेखों में शाहनाज गढ़ी एवं मान सेहरा (पाकिस्तान) के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण हैं । तक्षशिला एवं लघमान (काबुल) के समीप अफगानिस्तान अभिलेख आरमाइक एवं ग्रीक में उत्कीर्ण हैं । इसके अतिरिक्त् अशोक के समस्त शिलालेख लघुशिला स्तम्भ लेख एवं लघु लेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं । अशोक का इतिहास भी हमें इन अभिलेखों से प्राप्त होता है ।
अभी तक अशोक के ४० अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं । सर्वप्रथम १८३७ ई. पू. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता हासिल की थी ।
रायपुरबा- यह भी बिहार राज्य के चम्पारण जिले में स्थित है ।
प्रयाग- यह पहले कौशाम्बी में स्थित था जो बाद में मुगल सम्राट अकबर द्वारा इलाहाबाद के किले में रखवाया गया था ।

अशोक के लघु स्तम्भ लेख

सम्राट अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है जो निम्न स्थानों पर स्थित हैं-

१. सांची- मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में है ।

२. सारनाथ- उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में है ।

३. रूभ्मिनदेई- नेपाल के तराई में है ।

४. कौशाम्बी- इलाहाबाद के निकट है ।

५. निग्लीवा- नेपाल के तराई में है ।

६. ब्रह्मगिरि- यह मैसूर के चिबल दुर्ग में स्थित है ।

७. सिद्धपुर- यह ब्रह्मगिरि से एक मील उ. पू. में स्थित है ।

८. जतिंग रामेश्वैर- जो ब्रह्मगिरि से तीन मील उ. पू. में स्थित है ।

९. एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है ।

१०. गोविमठ- यह मैसूर के कोपवाय नामक स्थान के निकट है ।

११. पालकिगुण्क- यह गोविमठ की चार मील की दूरी पर है ।

१२. राजूल मंडागिरि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है ।

१३. अहरौरा- यह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है ।

१४. सारो-मारो- यह मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में स्थित है ।

१५. नेतुर- यह मैसूर जिले में स्थित है ।

अशोक के गुहा एवं स्तम्भ लेख

दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित बराबर नामक तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण प्राप्त हुए हैं । इन सभी की भाषा प्राकृत तथा ब्राह्मी लिपि में है । केवल दो अभिलेखों शाहवाजगढ़ी तथा मान सेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है । यह लिपि दायीं से बायीं और लिखी जाती है ।
तक्षशिला से आरमाइक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख कन्धार के पास शारे-कुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमाइक द्विभाषीय अभिलेख प्राप्त हुआ है ।



अशोक के स्तम्भ लेख

अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या सात है जो छः भिन्नन स्थानों में पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं । इन स्थानों के नाम हैं-

(१) दिल्ली तोपरा- यह स्तम्भ लेख प्रारंभ में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में पाया गया था । यह मध्य युगीन सुल्तान फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया । इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं ।

(२) दिल्ली मेरठ- यह स्तम्भ लेख भी पहले मेरठ में था जो बाद में फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया ।

(३) लौरिया अरराज तथा लौरिया नन्दगढ़- यह स्तम्भ लेख बिहार राज्य के चम्पारण जिले में है ।

विराट नगर में अशोक के शिलालेख

राजस्थान के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग ने महाभारतकालीन विराटनगर में पहाड़ी चट्टान पर उत्कीर्ण सम्राट अशोक धर्मलेख को संरक्षित स्मारक घोषित किया है। जयपुर जिले के विराटनगर में भीम की डूँगरी के तले एक स्वतंत्र चट्टान पर यह धर्मलेख मौजूद है। इसके निकट ही अकबरी दरवाजा या मुगल गेट है, जिसमें मुगल कालीन भिति चित्रकारी है। कुछ माह पूर्व ही इस ऐतिहासिक स्थल को संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है। पानी इत्यादि से सुरक्षा के उपायों के साथ ही इसके निकट एक दरवाजा लगाया गया है। इस चट्टान पर उत्कीर्ण आलेख को हिंदी और अंग्रेजी में अनूदित करके एक पृथक पट्ट भी शीघ्र लगाया जाएगा। अभी तक यह शिलालेख केन्द्र या राज्य सरकार की ओर से संरक्षित नहीं था। शिरोरेखाविहीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण एवं पाली भाषा में लिखित इस अभिलेख में आठ पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इसमें सम्राट प्रियदर्शी अशोक ने अपने बारे में कहा है 'अढ़ाई वर्ष से अधिक हुए हैं, मैं उपासक हुआ।' दरअसल यह धर्मलेख सम्राट अशोक के रूपनाथ एवं सहसराम लेख का विराटनगर संस्करण माना जाता है।

    वर्ष 1871-72 में कारलायल ने अपनी शोधयात्रा के दौरान इस शिलालेख को खोज निकाला था। बीच में पर्याप्त घिसा हुआ होने के कारण कारलायल ने भ्रमवश इसे दो भिन्न लेखों के रूप में मान लिया, लेकिन कालांतर में कनिघम ने इसका निराकरण कर दिया। ऐतिहासिक विराटनगर में अशोक महान के दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं। राजस्थान में प्राप्त यह प्राचीनतम अभिलेख बौद्ध धर्म के इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। अपने जमाने में विराटनगर की बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र के नाते पहचान थी।

भारत में ब्रिटिशकाल में कैप्टन बर्ट ने 1837 में विराटनगर से 12 मील उत्तर में स्थित भाब्रू गाँव से सम्राट अशोक का अभिलेखयुक्त शिलाफलक खोजा था। इसका आकार दो फुट गुणा दो फुट गुणा डेढ़ फुट है। यह माना जाता है कि मूलतः शिलाफलक बीजक की पहाड़ी से मिला था, जो कालांतर में भाब्रू पहुँच गया। बाद में यह सम्राट अशोक के भाब्रू बैराठ कोलकाता अभिलेख के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यह कोलकाता में बंगाल एशियाटिक सोसायटी के भवन में जेम्सप्रिंसेप की मूर्ति के सामने लगा हुआ है।

अशोक ने इस अभिलेख के आरंभ में बौद्ध धर्म के त्रिरत्न बुद्ध धर्म और संघ में अपनी निष्ठा का उल्लेख किया है। सम्राट ने गर्व के साथ यह भी घोषणा की है कि भगवान बुद्ध ने जो कुछ कहा है, वह सब अच्छा ही कहा है। अभिलेख में बौद्ध धर्म के सात उद्धरणों के नाम भी गिनाए हैं।
राजस्थान के जयपुर जिले में शाहपुरा से 25 किलोमीटर दूर विराटनगर कस्बा अपनी पौराणिक ऐतिहासिक विरासत को आज भी समेटे हुए है। यह स्थल राजा विराट के मत्स्य प्रदेश की राजधानी के रूप में विख्यात था। यही पर पांडवों ने अपने अज्ञातवास का समय व्यतीत किया था। महाभारत कालीन स्मृतियों के भौतिक अवशेष तो अब यहां नहीं रहे किंतु यहां ऐसे अनेक चिन्ह हैं जिनसे पता चलता है कि यहां पर कभी बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय के अनुयायियों का विशेष प्रभाव था। विराट नगर, जिसे पूर्व में वैराठ के नाम से भी जाना जाता था, के दक्षिण की ओर बीजक पहाड़ी है।विराट नगर की बुद्ध-धाम बीजक पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक चट्टान है जिस पर भब्रू बैराठ शिलालेख उत्कीर्ण है। इसे बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों के अलावा आम लोग भी पढ़ सकते थे। इस शिलालेख को भब्रू शिलालेख के नाम से भी जाना जाता था। यह शिलालेख पाली व ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ था।

    इसे सम्राट अशोक ने स्वयं उत्कीर्ण करवाया था ताकि जनसाधारण उसे पढ़कर तदनुसार आचरण कर सके। इस शिला लेख को कालान्तर में 1840 में ब्रिटिश सेनाधिकारी कैप्टन बर्ट द्वारा कटवा कर कलकत्ता के संग्रहालय में रखवा दिया गया। आज भी विराटनगर का यह शिलालेख वहां सुरक्षित रखा हुआ है। इसी प्रकार एक और शिला लेख भीमसेन डूंगरी के पास आज भी स्थित है। यह उस समय मुख्य राजमार्ग था।

    बीजक की पहाड़ी पर बने गोलाकार मन्दिर के प्लेटफार्म के समतल मैदान से कुछ मीटर ऊंचाई पर पश्चिम की तरफ एक चबूतरा है जिसके सामने भिक्षु बैठकर मनन व चिन्तन करते थे। यहीं पर एक स्वर्ण मंजूषा थी जिसमें भगवान बुद्ध के दो दांत एवं उनकी अस्थियां रखी हुई थीं। अशोक महान बैराठ में स्वयं आए थे। यहां आने के पहले वे 255 स्थानों पर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार कर चुके थे। बैराठ वर्षों तक बुद्धम् शरणम् गच्छामी, धम्मम् शरणम् गच्छामी से गुंजायमान रहा है।
अशोक ने बनवाया बोधगया का पहला मंदिर

महाबोधि मंदिर परिसर भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित चार पवित्र स्थलों में से एक और विशेष रूप से उनके बुद्धत्व की प्राप्ति का स्थल है. पहला मंदिर सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व 3 री शताब्दी में बनवाया था, और वर्तमान मंदिर 5 वीं से 6 वीं शताब्दी का है. यह भारत में पूर्ण रूप से ईंटों से बने शुरुआती बौद्ध मंदिरों में से एक है, यह गुप्त काल के अंतिम समय का है और आज भी विद्यमान है.

अभिलेख की प्रामाणिकता

मापदंड (i): विशाल 50 मीटर ऊँचा महाबोधि मंदिर 5 वीं से 6 ठी शताब्दी का है, और भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद प्राचीनतम मंदिरों में से एक है. यह मंदिर उस युग में ईंट से बने पूर्ण रूप से विकसित मंदिरों के भारतीय स्थापत्य की निपुणता के कुछ उदाहरणों में से एक है.
मापदंड (ii) महाबोधि मंदिर, भारत के ईंट से बने शुरुआती मंदिरों में से बचे हुए मंदिरों में से एक है, शताब्दियों तक स्थापत्य के विकास में इसका बहुत प्रभाव रहा है. मापदंड (iii) महाबोधि मंदिर स्थल बुद्ध के जीवन और उसके बाद, सम्राट अशोक ने पहला मंदिर, जंगला और स्मारक स्तंभ बनाया तब से पूजा से संबंधित घटनाओं का अभिलेख है.

मापदंड (iv) वर्तमान मंदिर प्राचीनतम में से एक हैं और गुप्त काल के उत्तराद्ध में पूरी तरह से ईंट की बनी सबसे प्रभावशाली संरचना है. तराशा गया पत्थर का जंगला पत्थर में शिल्प का प्रारंभिक उत्कृष्ट उदाहरण है.

मापदंड (vi) बोधगया का महाबोधि मंदिर परिसर का भगवान बुद्ध के जीवन से सीधा संबंध है, यही वह स्थान भी है जहाँ उन्होंने बुद्धत्व को प्राप्त किया था.
 
नेपाल के बौद्धस्तूप



भारतीय कैलेंडर की विकास यात्रा


प्राचीन भारत की झलक


धूमधाम से मनी सम्राट अशोक जयंती


बिहार और अशोक


इतिहास के पन्नों में बिहार


सफलता और उद्यम – अशोक का शिलालेख


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