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Thursday, June 27, 2013

बहुत ही मजबूत है केदारनाथ का मंदिर

   400 साल तक बर्फ में दबा रहा केदारनाथ का मंदिर
    अगर वैज्ञानिकों की मानें तो केदारनाथ का मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा था, लेकिन फिर भी वह सुरक्षित बचा रहा। 13वीं से 17वीं शताब्दी तक यानी 400 साल तक एक छोटा हिमयुग (Little Ice Age) आया था जिसमें हिमालय का एक बड़ा क्षेत्र बर्फ के अंदर दब गया था।
वैज्ञानिकों के मुताबिक केदारनाथ मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा फिर भी इस मंदिर को कुछ नहीं हुआ, इसलिए वैज्ञानिक इस बात से हैरान नहीं है कि ताजा जल प्रलय में यह मंदिर बच गया।
देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट के हिमालयन जियोलॉजिकल वैज्ञानिक विजय जोशी ने कहा कि 400 साल तक केदारनाथ के मंदिर के बर्फ के अंदर दबे रहने के बावजूद यह मंदिर सुरक्षित रहा, लेकिन वह बर्फ जब पीछे हटी तो उसके हटने के निशान मंदिर में मौजूद हैं जिसकी वैज्ञानिकों ने स्टडी की है उसके आधार पर ही यह निष्कर्ष निकाला गया है।
जोशी कहते हैं कि 13वीं से 17वीं शताब्दी तक यानी 400 साल तक एक छोटा हिमयुग आया था जिसमें हिमालय का एक बड़ा क्षेत्र बर्फ के अंदर दब गया था। मंदिर ग्लैशियर के अंदर नहीं था बल्कि बर्फ में ही दबा था।
वैज्ञानिकों के अनुसार मंदिर की दीवार और पत्थरों पर आज भी इसके निशान हैं। ये निशान ग्लैशियर की रगड़ से बने हैं। ग्लैशियर हर वक्त खिसकते रहते हैं। वे न सिर्फ खिसकते हैं बल्कि उनके साथ उनका वजन भी होता है और उनके साथ कई चट्टानें भी, जिसके कारण उनके मार्ग में आई हर वस्तुएं रगड़ खाती हुई चलती हैं। जब 400 साल तक मंदिर बर्फ में दबा रहा होगा तो सोचिए मंदिर ने इन ग्लैशियर के बर्फ और पत्थरों की रगड़ कितनी झेली होगी।
वैज्ञानिकों के मुताबिक मंदिर के अंदर भी इसके निशान दिखाई देते हैं। बाहर की ओर दीवारों के पत्थरों की रगड़ दिखती है तो अंदर की ओर पत्थर समतल हैं, जैसे उनकी पॉलिश की गई हो।
मंदिर का निर्माण : विक्रम संवत् 1076 से 1099 तक राज करने वाले मालवा के राजा भोज ने इस मंदिर को बनवाया था, लेकिन कुछ लोगों के अनुसार यह मंदिर 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। बताया जाता है कि मौजूदा केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे पांडवों ने एक मंदिर बनवाया था, लेकिन वह मंदिर वक्त के थपेड़ों की मार नहीं झेल सका।
वैसे गढ़वाल ‍विकास निगम अनुसार मौजूदा मंदिर 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। यानी छोटा हिमयुग का दौर जो 13वीं शताब्दी में शुरू हुआ था उसके पहले ही यह मंदिर बन चुका था।
लाइकोनोमेट्री डेटिंग : वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने केदारनाथ इलाके की लाइकोनोमेट्री डेटिंग भी की। इस तकनीक से शैवाल और उनके कवक को मिलाकर उनके समय का अनुमान लगाया जाता है। इस तकनीक के अनुसार केदारनाथ के इलाके में ग्लैशियर का निर्माण 14वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ और इस घाटी में ग्लैशियर का बनना 1748 ईसवीं तक जारी रहा यानी तकरीबन 400 साल।
जोशी ने कहा कि सबसे बड़ी बात यह है कि लाखों साल पहले केदारनाथ घाटी बनी है चोराबरी ग्लैशियर के पीछे हटने से। जब ग्लैशियर पीछे हटते हैं तो वे रोड रोलर की तरह अपने नीचे की सारी चट्टानों को पीस देते हैं और साथ में बड़ी-बड़ी चट्टानों के टुकड़े छोड़ जाते हैं।
जोशी कहते हैं कि ऐसी जगह में मंदिर बनाने वालों की एक कला थी। उन्होंने एक ऐसी जगह और एक ऐसा सेफ मंदिर बनाया कि आज तक उसे कुछ नुकसान नहीं हुआ। लेकिन उस दौर के लोगों ने ऐसी संवेदनशील जगह पर आबादी भी बसने दी तो स्वाभाविक रूप से वहां नुकसान तो होना ही था।
मजबूत है केदारनाथ का मंदिर : वैज्ञानिक डॉ. आरके डोभाल भी इस बात को दोहराते हैं। डोभाल कहते हैं कि मंदिर बहुत ही मजबूत बनाया गया है। मोटी-मोटी चट्टानों से पटी है इसकी दीवारें और उसकी जो छत है वह एक ही पत्थर से बनी है।
85 फीट ऊंचा, 187 फीट लंबा और 80 फीट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फीट मोटी है और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। मंदिर को 6 फीट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है। यह हैरतअंगेज है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल ‍दी गई होगी। जानकारों का मानना है कि पत्थरों को एक-दूसरे में जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया होगा। यह मजबूती और तकनीक ही मंदिर को नदी के बीचोबीच खड़े रखने में कामयाब हुई है।
केदार घाटी : केदानाथ धाम और मंदिर तीन तरफ पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फुट ऊंचा केदारनाथ तो दूसरी तरफ है 21 हजार 600 फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ है 22 हजार 700 फुट ऊंचा भरतकुंड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पांच ‍नदियों का संगम भी है यहां। मं‍दाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में से कुछ को काल्पनिक माना जाता है। इस इलाके में मंदाकिनी ही स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। यहां सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में जबरदस्त पानी।
भविष्य की आशंका : दरअसल केदारनाथ का यह इलाका चोराबरी ग्लैशियर का एक हिस्सा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लैशियरों के लगातार ‍पिघलते रहने और चट्टानों के खिसकते रहने से आगे भी इस तरह का जलप्रलय या अन्य प्राकृतिक आपदाएं जारी रहेंगी।
पुराणों की भविष्यवाणी : पुराणों की भविष्यवाणी अनुसार इस समूचे इलाके के तीर्थ लुप्त हो जाएंगे। माना जाता है कि जिस दिन नर और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे, बद्रीनाथ का मार्ग पूरी तरह बंद हो जाएगा। भक्त बद्रीनाथ के दर्शन नहीं कर पाएंगे। उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा इस बात की ओर इशारा करती है। पुराणों अनुसार आने वाले कुछ वर्षों में वर्तमान बद्रीनाथ धाम और केदारेश्वर धाम लुप्त हो जाएंगे और वर्षों बाद भविष्य में भविष्यबद्री नामक नए तीर्थ का उद्गम होगा।
  Source--- http://hindi.webdunia.com/news-national/400-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%A4%E0%A4%95-%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AB-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A4%BE-%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5-%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B0-1130627033_1.htm

Wednesday, June 26, 2013

पांचवें ज्योतिर्लिंग वाला केदारनाथमंदिर - स्थापना की कहानी, आपदा से पहले और आपदा के बाद मंदिर की तस्वीरें

उत्तराखंड में भीषण तबाही में नष्ट हो गया केदारनाथ मंदिर इलाका और आसपास के गांव। अब आप कभी केदारनाथ जाएंगे तो प्राचीन केदारनाथ मंदिर और पूरा इलाका वह नहीं होगा जो आपने चारोधाम की तीर्थयात्रा कर चुके अपने बुजुर्गों से सुने होंगे या उनकी लाई हुई तस्वीरों को देखें होंगे। यह ठीक उसी तरह जिस तरह प्राचीन मंदिर का प्रारूप अभीहाल तक नहीं था। बदलते युग में मंदिर व आसपास के परिवेश में जो बदलाव हुआ उसे मानवों ने किया मगर इसबार दैवीआपदा का तांडव जो बदलाव लाया है वह भयावह है। यह शायद सदियों से इस प्राकृतिक शांत क्षेत्र से मानवों की छेड़छाड़ का नतीजा है।
  मैंने यहां तस्वीरें व इतिहास विभिन्न स्रोंतों से संकलित करके उस इतिहास के एक साथ प्रस्तुत करने की कोशिश की है जिससे आपको स्थापना से लेकर आजतक के केदारनाथ का जानकारी मिल सके। पूरा विवरण इन शीर्षकों में विभाजित है। फोटो मैंने दैनिक भाष्कर की वेबसाइट से साभार लिया है। सामग्री भी दैनिक भाष्कर के अलावा वेबदुनिया, बीबीसी हिंदी व अन्य कुछ समाचार स्रोंतों से साभार लिया है। कृपया अवलोकन करें....
   
१-स्थापना की कहानी।
  २-उत्तराखंड: बाढ़ के बीच कैसे बचा केदारनाथ मंदिर?
  ३-लुप्त हो जाएंगे बद्रीनाथ और केदारनाथ (भविष्यवाणी)
  ४-उत्तराखंड आपदा : जानिए पूरा घटनाक्रम




 










  फोटो व विवरण साभार-http://religion.bhaskar.com/article/JYO-DD-jyts-know-the-importance-of-kedarnath-dham-4301168-NOR.html?seq=1&RHS-religion-1=

    केदारनाथ मंदिर प्राचीन है। ऐसा माना जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने भारत में चार धाम स्थापित करने के यहीं समाधी ली थी। तब शंकराचार्य की आयु मात्र 32 वर्ष थी। आदिगुरु ने ही इस मंदिर का निर्माण करवाया था। हिमालय में बसा केदारनाथ उत्तरांचल राज्य का एक कस्बा है। यह रुद्रप्रयाग की एक नगर पंचायत है। हिन्दू धर्म के लिए एक पवित्र स्थान है। केदारनाथ शिवलिंग 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ ही चार धामों में भी शामिल है। श्रीकेदारनाथ मंदिर 3,593 फीट की ऊँचाई पर बना हुआ एक भव्य एवं विशाल मंदिर है। इतनी ऊंचाई पर मंदिर को कैसे बनाया गया, यह आज भी एक रहस्य के समान है। शास्त्रों के अनुसार सतयुग में शासन करने वाले एक राजा हुए थे उनका नाम था केदार। राजा केदार के नाम पर भी इस स्थान को केदार पुकारा जाने लगा। राजा केदार ने सातों महाद्वीपों पर शासन किया था। वे एक बहुत धर्म के मार्ग पर चलने और तेजस्वी राजा थे।
  उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के अनुसार शिवपुराण की कोटीरुद्र संहिता के अनुसार बदरीवन में विष्णु के अवतार नर-नारायण पार्थिव शिवलिंग बनाकर भगवान शिव का नित्य पूजन करते थे। उनके पूजन से प्रसन्न होकर भगवान शंकर वहां प्रकट हुए तथा वरदान मांगनें को कहा तब जगत के कल्याण के लिए नर-नारायण ने शंकर को वहीं पर स्थापित होने के लिए वरदान मांगा। शिव प्रसन्न हुए तथा कहा कि यह क्षेत्र आज से केदार क्षेत्र के नाम से जाना जाएगा।
   महादेव ने कहा कि जो भी भक्त केदारनाथ के साथ ही नर-नारायण के दर्शन करेगा वह सभी पापों से मुक्त होगा और अक्षय पुण्य प्राप्त करेगा। ऐसे भक्त मृत्यु के बाद शिवलोक प्राप्त करेंगे। इसके बाद शिवजी प्रसन्न होकर ज्योति स्वरूप में वहां स्थित लिंग में समाविष्ट हो गए। देश में बारह ज्योर्तिलिंगों में से इस ज्योतिर्लिंग का क्रम पांचवां है। कई ऋषियों एवं योगियों ने यहां भगवान शिव की अराधना की है और मनचाहे वरदान भी प्राप्त किए हैं।
केदारनाथ में शिवजी को कड़ा चढ़ाने का विशेष महत्व माना जाता है। जो भी व्यक्ति वहां कड़ा चढ़ाकर शिव सहित उस कड़े के एवं नर-नारायण पर्वत के दर्शन करता है। वह फिर जन्म और मृत्यु के चक्र में नहीं फंसता है। ऐसे भक्त को भवसागर से मुक्ति प्राप्ति होती है।
शिवपुराण के कोटिरुद्र संहिता में वर्णन है कि-
केदारेशस्य भक्ता ये मार्गस्थास्तस्य वै मृता:। तेपि मुक्ता भवन्त्येव नात्र कार्या विचारणा।।
शिवपुराण के अनुसार केदारनाथ के मार्ग में या उस क्षेत्र में जो भी भक्त मृत्यु को प्राप्त होगा वह भी भवसागर से मुक्ति प्राप्त करेगा।
केदारनाथ क्षेत्र में पंहुचकर उनके पूजन के पश्चात वहां का जल पी लेने से भी मनुष्य मुक्ति को प्राप्त करता है। वहां के जल का पुराणों में विशेष महत्व बताया गया है।
 पं. शर्मा के अनुसार 18 जून 2013 मंगलवार के दिन हस्त नक्षत्र था और चंद्रमा कन्या राशि में था। मंगल ग्रह वृषभ राशि में था जो शुक्र के स्वामित्व वाली राशि है। मंगल, शुक्र शत्रु हैं तथा वक्री शनि का उच्च का होकर राहु के साथ होना इस तबाही का मुख्य कारण बना है। जीवन मंत्र पर पूर्व में कई बार यह भविष्यवाणी की जा चुकी है कि किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा के आने की संभावनाएं हैं।
केदारनाथ क्षेत्र में एक झील है जिसमें अधिकांश समय बर्फ तैरती रहती है। इस झील का संबंध महाभारत काल से है। ऐसा माना जाता है कि इसी झील से पाण्डव पुत्र युद्धिष्ठिर स्वर्ग की ओर गए थे।
पं. शर्मा ने बताया कि इस जल आपदा के साथ ही कई स्थानों पर भूकंप के भी योग बन रहे हैं। देश-दुनिया के लिए भी आने वाले समय में प्राकृतिक आपदा के योग बने हुए हैं। विशेषकर जापान, आसाम, मलेशिया, चीन आदि। इसके अलावा भारत में दिल्ली, कश्मीर, उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्र एवं राजस्थान के लिए आने वाले समय में प्राकृतिक आपदा आ सकती है। इन क्षेत्रों में भारी वर्षा के योग बन रहे हैं।
केदारनाथ धाम मंदिर से करीब छह किलोमीटर दूर एक पर्वत स्थित है। इस पर्वत का नाम है चौखम्बा पर्वत। यहां वासुकी नाम का तालब है जहां ब्रह्म कमल काफी अधिक होते हैं। शास्त्रों के अनुसार ब्रह्म कमल के दर्शन करने पर पुण्य लाभ प्राप्त होता है। इसी वजह से काफी लोग यहां ब्रह्म कमल देखने आते हैं।
ज्योतिष के अनुसार जब-जब मंगल वृषभ राशि में आता है प्राकृतिक आपदा के योग बनते हैं। लेकिन इस वर्ष 27 वर्षों बाद वक्री शनि का उच्च में होना बड़ी घटना का कारण बना है।
उत्तर के राज्यों में दिल्ली तक एवं उत्तर प्रदेश में भी आगे बाढ़ का खतरा बना रहेगा। 4 जुलाई तक इस खतरे से सभी को सावधान रहना चाहिए। 
१५-१६ जून २०१३ को बादल फटने के बाद हुई तबाही के बाद ऐसा दिख रहा है केदारनाथ धाम मंदिर...





उत्तराखंड: बाढ़ के बीच कैसे बचा केदारनाथ मंदिर?
- डॉ. खड्ग सिंह वल्दिया (मानद प्रोफेसर, जेएनसीएएसआर)
http://hindi.webdunia.com/samayik-bbchindi/%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%82%E0%A4%A1-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A2%E0%A4%BC-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%9A-%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%9A%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5-%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B0-1130624058_1.htm
  आखिर उत्तराखंड में इतनी सारी बस्तियां, पुल और सड़कें देखते ही देखते क्यों उफनती हुई नदियों और टूटते हुए पहाड़ों के वेग में बह गईं? जिस क्षेत्र में भूस्खलन और बादल फटने जैसी घटनाएं होती रही हैं, वहां इस बार इतनी भीषण तबाही क्यों हुई? उत्तराखंड की त्रासद घटनाएं मूलतः प्राकृतिक थीं। अति-वृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ का होना प्राकृतिक है लेकिन इनसे होने वाला जान-माल का नुकसान मानव-निर्मित हैं। अंधाधुंध निर्माण की अनुमति देने के लिए सरकार जिम्मेदार है। वो अपनी आलोचना करने वाले विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती। यहां तक कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों की भी अच्छी-अच्छी राय पर सरकार अमल नहीं कर रही है। वैज्ञानिक नजरिए से समझने की कोशिश करें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस बार नदियां इतनी कुपित क्यों हुईं। नदी घाटी काफी चौड़ी होती है। बाढ़ग्रस्त नदी के रास्ते को फ्लड वे (वाहिका) कहते हैं। यदि नदी में सौ साल में एक बार भी बाढ़ आई हो तो उसके उस मार्ग को भी फ्लड वे माना जाता है। इस रास्ते में कभी भी बाढ़ आ सकती है। लेकिन इस छूटी हुई जमीन पर निर्माण कर दिया जाए तो खतरा हमेशा बना रहता है।
नदियों का पथ : केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं। कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी। लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी। जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपनी पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी। जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए। केदारनाथ मंदिर इसलिए बच गया क्योंकि ये मंदाकिनी की पूर्वी और पश्चिमी पथ के बीच की जगह में बहुत साल पहले ग्लेशियर द्वारा छोड़ी गई एक भारी चट्टान के आगे बना था। नदी के फ्लड वे के बीच मलबे से बने स्थान को वेदिका या टैरेस कहते हैं। पहाड़ी ढाल से आने वाले नाले मलबा लाते हैं। हजारों साल से ये नाले ऐसा करते रहे हैं।
पुराने गांव ढालों पर बने होते थे। पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे। वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे। लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गांव, संस्थान, होटल इत्यादि बना दिए गए हैं। यदि आप नदी के स्वाभाविक, प्राकृतिक पथ पर निर्माण करेंगे तो नदी के रास्ते में हुए इस अतिक्रमण को हटाने के लिए बाढ़ अपना काम करेगी ही। यदि हम नदी के फ्लड वे के किनारे सड़कें बनाएंगे तो वे बहेंगे ही।
विनाशकारी मॉडल : मैं इस क्षेत्र में होने वाली सड़कों के नुकसान के बारे में भी बात करना चाहता हूं। पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुंचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं। इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते। चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता। यह काफी महंगा भी होता है। भू-स्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है। इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं। ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे। ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू इत्यादि से बने होते हैं। ये अंदर से ठोस नहीं होते। काटने के कारण ये मलबे और ज्यादा अस्थिर हो गए हैं। इसके अलावा यह भी दुर्भाग्य की बात है कि इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय नहीं किया। उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था और जो नालियां पहले से बनी हुई हैं उन्हें साफ रखना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता। हिमालय अध्ययन के अपने पैंतालिस साल के अनुभव में मैंने आज तक भू-स्खलन के क्षेत्रों में नालियां बनते या पहले के अच्छे इंजीनियरों की बनाई नालियों की सफाई होते नहीं देखा है। नालियों के अभाव में बरसात का पानी धरती के अंदर जाकर मलबों को कमजोर करता है। मलबों के कमजोर होने से बार-बार भू-स्खलन होते रहते हैं।  इन क्षेत्रों में जल निकास के लिए रपट्टा (काज-वे) या कलवर्ट (छोटे-छोटे छेद) बनाए जाते हैं। मलबे के कारण ये कलवर्ट बंद हो जाते हैं। नाले का पानी निकल नहीं पाता। इंजीनियरों को कलवर्ट की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी अपने मलबे के साथ स्वत्रंता के साथ बह सके।
हिमालयी क्रोध : पर्यटकों के कारण दुर्गम इलाकों में होटल इत्यादि बना लिए गए हैं। ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने होते हैं जो मलबों से बना होता है। नाले से आए मलबे पर मकानों का गिरना तय था। हिमालय और आल्प्स जैसे बड़े-बड़े पहाड़ भूगर्भीय हलचलों (टैक्टोनिक मूवमेंट) से बनते हैं। हिमालय एक अपेक्षाकृत नया पहाड़ है और ये अभी भी उसकी ऊंचाई बढ़ने की प्रक्रिया में है। हिमालय अपने वर्तमान वृहद् स्वरूप में करीब दो करोड़ वर्ष पहले बना है। भू-विज्ञान की दृष्टि से किसी पहाड़ के बनने के लिए यह समय बहुत कम है। हिमालय अब भी उभर रहा है, उठ रहा है यानी अब भी वो हरकतें जारी हैं जिनके कारण हिमालय का जन्म हुआ था। हिमालय के इस क्षेत्र को ग्रेट हिमालयन रेंज या वृहद् हिमालय कहते हैं। संस्कृत में इसे हिमाद्रि कहते हैं यानी सदा हिमाच्छादित रहने वाली पर्वत श्रेणियां। इस क्षेत्र में हजारों-लाखों सालों से ऐसी घटनाएं हो रही हैं। प्राकृतिक आपदाएं कम या अधिक परिमाण में इस क्षेत्र में आती ही रही हैं। केदारनाथ, चौखम्बा या बद्रीनाथ, त्रिशूल, नन्दादेवी, पंचचूली इत्यादि श्रेणियां इसी वृहद् हिमालय की श्रेणियां हैं। इन श्रेणियों के निचले भाग में, करीब-करीब तलहटी में कई लम्बी-लम्बी झुकी हुई दरारें हैं। जिन दरारों का झुकाव 45 डिग्री से कम होता है उन्हें झुकी हुई दरार कहा जाता है।
कमजोर चट्टानें : वैज्ञानिक इन दरारों को थ्रस्ट कहते हैं। इनमें से सबसे मुख्य दरार को भू-वैज्ञानिक मेन सेंट्रल थ्रस्ट कहते हैं। इन श्रेणियों की तलहटी में इन दरारों के समानांतर और उससे जुड़ी हुई ढेर सारी थ्रस्ट हैं। इन दरारों में पहले भी कई बार बड़े पैमाने पर हरकतें हुईं थी। धरती सरकी थी, खिसकी थी, फिसली थीं, आगे बढ़ी थी, विस्थापित हुई थी। परिणामस्वरूप इस पट्टी की सारी चट्टानें कटी-फटी, टूटी-फूटी, जीर्ण-शीर्ण, चूर्ण-विचूर्ण हो गईं हैं। दूसरों शब्दों में कहें तो ये चट्टानें बेहद कमजोर हो गई हैं। इसीलिए बारिश के छोटे-छोटे वार से भी ये चट्टाने टूटने लगती हैं, बहने लगती हैं और यदि भारी बारिश हो जाए तो बरसात का पानी उसका बहुत सा हिस्सा बहा ले जाता है। कभी-कभी तो यह चट्टानों के आधार को ही बहा ले जाता है। भारी जल बहाव में इन चट्टानों का बहुत बड़ा अंश धरती के भीतर समा जाता है और धरती के भीतर जाकर भीतरघात करता है। धरती को अंदर से नुकसान पहुंचाता है। इसके अलावा इन दरारों के हलचल का एक और खास कारण है। भारतीय प्रायद्वीप उत्तर की ओर साढ़े पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से सरक रहा है यानी हिमालय को दबा रहा है। धरती द्वारा दबाए जाने पर हिमालय की दरारों और भ्रंशों में हरकतें होना स्वाभाविक है।
लुप्त हो जाएंगे बद्रीनाथ और केदारनाथ (भविष्यवाणी)
   भविष्य में गंगा नदी पुन: स्वर्ग चली जाएगी फिर गंगा किनारे बसे तीर्थस्थलों का कोई महत्व नहीं रहेगा। वे नाममात्र के तीर्थ स्थल होंगे। केदारनाथ को जहां भगवान शंकर का आराम करने का स्थान माना गया है वहीं बद्रीनाथ को सृष्टि का आठवां वैकुंठ कहा गया है, जहां भगवान विष्णु 6 माह निद्रा में रहते हैं और 6 माह जागते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह 12 धाराओं में बंट गई। इस स्थान पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से विख्यात हुई और यह स्थान बद्रीनाथ, भगवान विष्णु का वास बना। अलकनंदा की सहचरणी नदी मंदाकिनी नदी के किनारे केदार घाटी है, जहां बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक सबसे महत्वपूर्ण केदारेश्वर है। यह संपूर्ण इलाका रुद्रप्रयाग जिले का हिस्सा है। रुद्रप्रयाग में भगवान रुद्र का अवतार हुआ था।
केदार घाटी में दो पहाड़ हैं- नर और नारायण पर्वत। पुराणों अनुसार गंगा स्वर्ग की नदी है और इस नदी को किसी भी प्रकार से प्रदूषित करने और इसके स्वाभाविक रूप से छेड़खानी करने का परिणाम होगा संपूर्ण जंबूखंड का विनाश और गंगा का पुन: स्वर्ग में चले जाना।
हिंदुओं के अधिकतर तीर्थस्‍थल गंगा, यमुना, कृष्णा, गोदावरी, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, नर्मदा आदि नदियों के किनारे स्थित हैं। भारत के लोगों ने जहां गंगा नदी को पूरी तरह से तबाह कर दिया है वहीं सभी हिंदू तीर्थस्थलों पर व्यापारिक विकास और गंदगी के चलते बर्बाद कर दिया है। इस सबके चलते अब गंगा ने पुन: स्वर्ग में जाने की तैयारी कर ली है।
पुराणों अनुसार भूकंप, जलप्रलय और सूखे के बाद गंगा लुप्त हो जाएगी और इसी गंगा की कथा के साथ जुड़ी है बद्रीनाथ और केदारनाथ तीर्थस्थल की रोचक कहानी...
  नृसिंह भगवान की मूर्ति : अब बद्रीनाथ में नहीं होंगे भगवान के दर्शन, क्योंकि मान्यता अनुसार जोशीमठ में स्थित नृसिंह भगवान की मूर्ति का एक हाथ साल-दर-साल पतला होता जा रहा है। माना जाता है कि जिस दिन नर और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे, बद्रीनाथ का मार्ग पूरी तरह बंद हो जाएगा। भक्त बद्रीनाथ के दर्शन नहीं कर पाएंगे। उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा इस बात की ओर इशारा करती है कि मनुष्य ने विकास के नाम पर तीर्थों को विनाश की ओर धकेला है और तीर्थों को पर्यटन की जगह समझकर मौज-मस्ती करने का स्थान समझा है तो अब इसका भुगतान भी करना होगा। पुराणों अनुसार आने वाले कुछ वर्षों में वर्तमान बद्रीनाथ धाम और केदारेश्वर धाम लुप्त हो जाएंगे और वर्षों बाद भविष्य में भविष्यबद्री नामक नए तीर्थ का उद्गम होगा।
अलकनंदा और मंदाकिनी इन दोनों नदियों का पवित्र संगम रुद्रप्रयाग में होता है और वहां से ये एक धारा बनकर पुन: देवप्रयाग में ‘भागीरथी-गंगा’ से संगम करती हैं। देवप्रयाग में गंगा उत्तराखंड के पवित्र तीर्थ 'गंगोत्री' से निकलकर आती है। देवप्रयाग के बाद अलकनंदा और मंदाकिनी का अस्तित्व विलीन होकर गंगा में समाहित हो जाता है तथा वहीं गंगा प्रथम बार हरिद्वार की समतल धरती पर उतरती है। भगवान केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद बद्री क्षेत्र में भगवान नर-नारायण का दर्शन करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे जीवन-मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। इसी आशय को शिवपुराण के कोटि रुद्र संहिता में भी व्यक्त किया गया है-

तस्यैव रूपं दृष्ट्वा च सर्वपापै: प्रमुच्यते।
जीवन्मक्तो भवेत् सोऽपि यो गतो बदरीबने।।
दृष्ट्वा रूपं नरस्यैव तथा नारायणस्य च।
केदारेश्वरनाम्नश्च मुक्तिभागी न संशय:।।

बद्रीनाथ की कथा अनुसार सतयुग में देवताओं, ऋषि-मुनियों एवं साधारण मनुष्यों को भी भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन प्राप्त होते थे। इसके बाद आया त्रेतायुग- इस युग में भगवान सिर्फ देवताओं और ऋषियों को ही दर्शन देते थे, लेकिन द्वापर में भगवान विलीन ही हो गए। इनके स्थान पर एक विग्रह प्रकट हुआ। ऋषि-मुनियों और मनुष्यों को साधारण विग्रह से संतुष्ट होना पड़ा। शास्त्रों अनुसार सतयुग से लेकर द्वापर तक पाप का स्तर बढ़ता गया और भगवान के दर्शन दुर्लभ हो गए। द्वापर के बाद आया कलियुग, जो वर्तमान का युग है।
  पुराणों में बद्री-केदारनाथ के रूठने का जिक्र मिलता है। पुराणों अनुसार कलियुग के पांच हजार वर्ष बीत जाने के बाद पृथ्‍वी पर पाप का साम्राज्य होगा। कलियुग अपने चरम पर होगा तब लोगों की आस्था लोभ, लालच और काम पर आधारित होगी। सच्चे भक्तों की कमी हो जाएगी। ढोंगी और पाखंडी भक्तों और साधुओं का बोलबाला होगा। ढोंगी संतजन धर्म की गलत व्याख्‍या कर समाज को दिशाहीन कर देंगे, तब इसका परिणाम यह होगा कि धरती पर मनुष्यों के पाप को धोने वाली गंगा स्वर्ग लौट जाएगी।
   उत्तराखंड आपदा : जानिए पूरा घटनाक्रम
चारधाम के यात्रियों को क्या पता था कि 16 जून की रात उनके लिए कहर लेकर आ रही है। उत्तराखंड के चारधाम में मौसम का बदलना आम बात है। कभी वहां बारिश होने लगती है तो कभी मौसम साफ हो जाता है। उस रात भी केदारनाथ के तीर्थयात्रियों को लगा कि आसमान से बरस रहा पानी सामान्य बारिश है। उन्हें क्या पता था कि यह पानी प्रलय का रूप लेकर उन्हें ही लील जाएगा।
   उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित चारधाम में से एक केदारनाथ मंदिर में 16 जून की रात बादल फटने और ग्लैशियर टूटने से पानी का सैलाब आ गया। पानी के साथ पहाड़ों के पत्थर भी बह रहे थे। मंदिर परिसर और हमेशा गुलजार रहने वाला रामबाड़ा इलाका पूरी तरह से पानी और पत्थरों की चपेट में आ गए। उस समय वहां करीब 5 से 10 हजार लोग फंसे हुए थे। पानी की चपेट में आसपास के निर्माणधीन मकान, होटल तिनकों की तरह पानी में बहने लगे। लोग जान बचाने के लिए पहाड़ों और पेड़ों की तरफ भागने लगे। रुद्रप्रयाग जिले में 40 होटल सहित 73 इमारतें अलकनंदा नदी की उफनती धारा में बह गईं।
- भारी भूस्खलन और सड़कें टूटने के कारण प्रसिद्ध चार धाम यात्रा रोक दी गई है। केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री कुल 71440 लोग फंसे हुए थे।
- केदारनाथ मंदिर परिसर का एक बड़ा हिस्सा पानी में बहा।
- सेना ने यात्रियों को बचाने के लिए चलाया 'ऑपरेशन गंगा।'
- सेना अनुसार करीब 18 हजार 500 तीर्थयात्री उत्तराखंड में फंसे हुए।
- केदारनाथ में जलजले से सोन बाजार झील में तब्दील।
- टीम इंडिया के पूर्व क्रिकेटर हरभजन सिंह भी हेमकुंड साहिब की यात्रा के दौरान जोशीमठ में फंसे।
 - उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा केदारनाथ मंदिर सुरक्षित। एक वर्ष तक दर्शनों पर प्रतिबंध।
 - आपदा में हजारों लोग बेघर, 60 गांव लापता।
- जलजले में जिंदा बचे लोगों ने कहा सामने तैर रही थीं अपनों की लाशें।
- प्राकृतिक आपदा से चार सड़क खंडों पर 50 बड़े भूस्खलन।
- रक्षा मंत्रालय ने सेना और नौसेना के 45 से ज्यादा हेलीकॉप्टर और 10000 सैनिकों को वर्षा से घिरे पर्वतीय राज्य में तैनात किया।
- सेना ने बचाव कार्य तेज किया।
 तीर्थयात्रियों से लूट और महिला तीर्थयात्रियों से बलात्कार की अफवाहों से राहत कार्यों में अव्यवस्था।
- हरिद्वार में गंगा से निकाले 48 शव।
- बचाव अभियान तेज, 40 हेलीकॉप्टर तैनात।
- उत्तराखंड के मंत्री बोले, कब्रिस्तान में बदला केदारनाथ।
- तबाही के बाद बिछी लाशें सड़ने की कगार पर।
- तबाही का दर्द, साधुओं के वेश में शैतान।
- सेना ने बचाया 18 हजार लोगों को।
- उत्तराखंड आपदा पीड़ितों से मनमाने दामों की वसूली।
- उत्तराखंड त्रासदी पर राष्ट्रपति से मिलीं उमा।
- उमा ने कहा धारा देवी का मंदिर हटाने से आई विपदा।
- सरकार का दावा है कि उसने मंगलवार तक 97 हज़ार लोगों को बचा लिया है सरकार के पास ऐसा भी कोई आंकड़ा नहीं है कि कितने लोग हर साल यात्रा करने जाते हैं.केदारनाथ में एक दिन में औसतन 13 से 15 हज़ार लोग होते हैं. हज़ारों लोग रास्ते में होते हैं जो दर्शन के लिए जा रहे होते हैं या लौट रहे होते हैं.
- केदारनाथ में मारे गए लोगों की सामूहिक क्लिक करें अंत्येष्टि की जाएगी.

Thursday, June 13, 2013

मुर्शिदाबाद के इतिहास की टूटी कड़ी जोड़ेंगे सागरदिघी इलाके से मिले गुप्तकालीन सोने के सिक्के !

  
 पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में सागरदिघी थाना इलाके के राष्ट्रीय राजमार्ग नं. 34 पर अहिरान पुल के पास निर्माण के दौरान 1 जून 2013 को गुप्तकालीन सोने के11 सिक्के मिले हैं। इन सिक्कों की तिथि चौथी शताब्दी बताई गई है। इससे पहले भी पश्चिम बंगाल से गुप्तकालीन  सिक्के मिल चुके हैं। ये सिक्के कालीघाट से मिले थे। अब जो सिक्के सागरदिघी इलाके से मिले हैं वे गुप्त साम्राज्य की सीमाओं के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इतना ही नहीं ये सिक्के मुर्शिदाबाद के इतिहास वह कड़ी बन सकते हैं जिसपर प्रकाश डालने के लिए महत्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। मुर्शिदाबाद के बसने और विकसित होने का इतिहास प्रथम व द्वितीय शताब्दी का मिलता है। तब यहां कुषाणों का साम्राज्य था। इसके बाद छठवीं और सातवीं शताब्दी में शशांक वंश के कार्यकाल में मुर्शिदाबाद का उल्लेख मिलता है। बीच में मुर्शिदाबाद के इतिहास की जो कड़ी नदारद वह शायद इन नए साक्ष्यों से खोजना संभव होगा। यह काल गुप्तों का है और गुप्तकालीन सिक्कों का यहां से मिलना इस बात का संकेत है कि मुर्शिदाबाद तब भी महत्वपूर्ण केंद्र था। अभी जो सिक्के मिले हैं उनपर अध्ययन किया जाना बाकी है। फिलहाल जो तथ्य सामने आए हैं उनके मुताबिक ये चंद्रगुप्त द्वितीय और समुद्रगुप्त के जारी किए गए सिक्के हैं। सिक्के के एक तरफ गरुड़ स्तम्भ के साथ राजा खड़ा है और दूसरी तरफ देवी लक्ष्मी की आकृति है। पश्चिम बंगाल के पुरातत्व विभाग के उपनिदेशक अमर राय ने भी यह पुष्टि की है कि जिस जगह से ये सिक्के मिले हैं वह शशाक राजाओं की राजधानी कर्णसुवर्ण से काफी करीब है। यही नहीं इसके पास ही व्यापारिक केंद्र भागीरथी भी था जहां छठवीं शताब्दी में काफी व्यापारिक गतिविधियां हुआ करती थी। अमर राय इस पुरातात्विक स्थल व सिक्कों का मुआयना करने के बाद इनके समुद्रगुप्त व चंद्रगुप्त द्वितीय के होने की पुष्टि की है।  महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार यह ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के संघ को परास्त किया था।

 अधिकतर सिक्के गांववालों ने गायब कर दिए ?
   अखबारों व समाचार एजंसियों के हवाले से छपी खबरों के मुताबिक करीब 60 सिक्के थे जिसमें से सिर्फ 11 ही मिल पाए। दरअसल वहां जयचंद मंडल और मिलन मंडल काम कर रहे थे तभी उनको फेकी गई बालू में कुछ चमकता हुआ दिखा। स्थानीय निवासी सरल मांझी की मानें तो जो बालू साइट पर डाली गई थी उसमें ही ये सिक्के थे। कई दिन की बारिश से जब उसपर का कीचड़ हटा तो ये कुछ सिक्के चमकते हुए दिखे। जैसे ही यह खबर पास के बाबूपाड़ा और डांगापाड़ा गांव के लोगों तक पहुंची, सभी वहां पहुंच गए और बालू को खगालने लगे। गांववालों का तो कहना है कि उसदिन तक 8-10 सिक्के ही मिले थे मगर 24 घंटे में इसकी तादाद छह गुनी यानी 60 के आसपास पहुंच गई। इन सिक्कों के ऐतिहासिक महत्व का होने की पुष्टि होने के बाद जसि जगह से बालू लाई जा रही थी उस जगह ( मिर्जापुर और गनकार ) पर  जंगीपुर के बीडीओ को सूचित किए जाने के बाद पुलिस का पहरा लगा दिया गया। मगर तबतक काफी देर हो चुकी थी। तमाम सिक्के लेकर गांववाले गायब हो गए। दरअसल अखबारों में जब यह खबर छपी तब मुर्शिदाबाद के भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की क्यूरेटर मौसमी बनर्जी को यह सूचना मिल पाई। उन्होंने ही बताया कि ये सिक्के गुप्तकालीन हैं। एक दिन बाद ही उस पूरे इलाके की घेरेबंदी कर दी गई। तीनदिन बाद भा वहां से दो सिक्के मिले। सूत्रों की मानें तो गांववाले जो सिक्के ले गए उस एक सिक्के को 70 हजार रुपए में बेंच दिया है। पुलिस छानबीन में लगी है। एक स्थानीय अयन घोष का कहना है कि एक स्वर्णकार उसे एक सिक्के के 25000 रुपए देने को कह रहा था मगर पंचायत प्रधान ने ऐसा करने से मना करके इसकी सूचना बीडीओ को देने के कहा। यह अलग बात है कि जो सिक्के गांववाले ले गए उनको वापस नहीं लाया जा सका है।

समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त  
   ३२० ई.  में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना। गुप्त साम्राज्य की समृद्धि का युग यहीं से आरंभ होता है। 335 ई. में चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद उसका तथा कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठा। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है।  समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपधि दी। उसका सबसे महत्वपूर्ण अभियान दक्षिण की तरफ़ (दक्षिणापथ) था। इसमें उसके बारह विजयों का उल्लेख मिलता है।
  समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर पश्चिमी  पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे। दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमत्तर भारत की विदेशी शक्तियांउसकी अधीनता स्वीकार करती थीं। 

    चन्द्रगुप्त द्वितीय ३७५ ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ। वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था। वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने ३७५ से ४१५ ई. तक (४०   वर्ष) शासन किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर अपनी विजय हासिल की जिसके बाद गुप्त साम्राज्य एक शक्तिशाली राज्य बन गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में क्षेत्रीय तथा सांस्कृतिक विस्तार हुआ। हालांकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं। उसने विक्रयांक, विक्रमादित्य, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की। उसने नागवंश, वाकाटक और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये।
   विद्वानों को इसमें संदेह है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा विक्रमादित्य एक ही व्यक्ति थे। उसके शासनकाल में चीनी बौद्ध यात्री फाहियान ने 399 ईस्वी से 414 ईस्वी तक भारत की यात्रा की। उसने भारत का वर्णन एक सुखी और समृद्ध देश के रूप में किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल को स्वर्ण युग भी कहा गया है।
 अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसका साम्राज्य पश्चिमी में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तापघटी से दक्षिण में नमर्दा नदी तक विस्तृत था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल कला-साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। उसके दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय प्राप्त था। उसके दरबार में नौ रत्न थे- कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि उल्लेखनीय थे।
 ( साभार- टाईम्स आफ इंडिया ( कोलकाता संस्करण ), द इंडियन एक्सप्रेस ( कोलकाता संस्करण ), प्रभात खबर व हिंदी विकीपीडिया)।
 


  

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