खबरों में इतिहास ( भाग-14 ) अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------। 1-सैटेलाइट ने ढूँढे 17 और पिरामिड 2-बूढ़ा हो गया है चुनारगढ़ में चन्द्रकांता का किला! 3- 500 साल बाद मिली मोनालीसा की मॉडल की खोपड़ी 4-लक्ष्मी विलास पैलेस है बकिंघम पैलेस से 4 गुना बडा़! |
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सैटेलाइट ने ढूँढे 17 और पिरामिड
सैटेलाइट के ज़रिए किए गए एक नए सर्वेक्षण से लुप्त हो चुके 17 पिरामिडों और एक हज़ार से अधिक ऐसे मक़बरों का पता चला है जिसकी अब तक खुदाई नहीं की गई है.ये सर्वेक्षण नासा के सहयोग से एक अमरीकी प्रयोगशाला की ओर से किया गया है.इसमें उच्च स्तरीय इंफ़्रा-रेड तकनीक का उपयोग किया गया जिससे भूमिगत वस्तुओं की तस्वीरें हासिल की जा सकती हैं.मिस्र के अधिकारियों का कहना है कि इस तकनीक के उपयोग से प्राचीन स्मारकों को बचाने में सहायता मिलेगी क्योंकि इसके ज़रिए ये पता लगाया जा सकता है कि उनकी खुदाई करके वहाँ लूट तो नहीं हो गई है.
अलाबामा यूनिवर्सिटी की एक टीम ने सैटेलाइट से लिए गए उन तस्वीरों का अध्ययन किया जो इंफ़्रा-रेड कैमरों की मदद से खींची गई थीं.इससे ज़मीन के भीतर मौजूद चीज़ों का पता लगाया जा सकता है.शोध कर रही टीम ने जिस सैटेलाइट का उपयोग किया वह पृथ्वी की सतह से 700 किलोमीटर ऊपर परिक्रमा कर रहा है लेकिन इसके कैमरे इतने शक्तिशाली हैं कि वे पृथ्वी की सतह पर एक मीटर के व्यास में मौजूद चीज़ों की तस्वीरें ले सकते हैं.सैटेलाइट पुरातत्वविदों ने मिट्टी से बने कई इमारतों का पता लगाया है जिनमें पिरामिड के अलावा कुछ मिस्र के पुराने मकान हैं, धर्म स्थल हैं और मक़बरें हैं.उनका कहना है कि आसपास की मिट्टी से ज़्यादा घनत्व वाले ढाँचों के आधार पर इनकी पहचान की गई है.अब तक एक हज़ार से ज़्यादा मक़बरे और तीन हज़ार पुरानी इमारतों का अब तक पता लगाया जा चुका है.
आरंभिक खुदाई से इस शोध में मिली कुछ जानकारियों की पुष्टि भी हो गई है.जिसमें सक़्क़ारा में ज़मीन में दबे गए दो पिरामिड शामिल हैं.जब शोध कर रहा दल वहाँ पहुँचा था तो कम ही लोगों को भरोसा था कि वहाँ कुछ मिलेगा लेकिन खुदाई शुरु हुई तो इन पिरामिडों का पता चला. अब संभावना व्यक्त की जा रही है कि ये मिस्र के सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्मारकों में से एक साबित हो सकते हैं. डॉ सारा पारकैक बरमिंघम और अलाबामा स्थित प्रयोगशालाओं में नासा के सहयोग से इस परियोजना पर काम कर रही हैं.
उन्होंने सैटेलाइट से मिली तस्वीरों की मदद से पुरातात्विक सर्वेक्षण के काम की शुरुआत की है. वे कहती हैं, "हम एक साल से भी अधिक समय से शोधकार्य में लगे हुए थे. मैं सैटेलाइट से मिल रही जानकारियों को देख रही थी लेकिन 'वाह' कहने वाला क्षण उस समय आया जब हमने एक क़दम पीछे हटकर सारी सामग्री को देखा. हमे सहसा विश्वास नहीं हुआ कि हमने मिस्र में इतनी चीज़ों का पता लगा लिया है."
वे मानती हैं कि ये तो शुरुआत भर है. वे कहती हैं, "जिसका हमने पता लगाया है वो तो सतह के क़रीब हैं. इसके अलावा हज़ारों ऐसे स्थान हो सकते हैं जो नील नदी की गाद में दब गए होंगे." डॉ सारा पारकैक कहती हैं कि सबसे अद्भुत क्षण तानिस में आया. वे बताती हैं कि खुदाई में एक तीन हज़ार साल पुराना मकान निकला जिसका पता सैटेलाइट की तस्वीरों से मिला था और सब चकित रह गए जब मकान और तस्वीर में समानता मिली.
बूढ़ा हो गया है चुनारगढ़ में चन्द्रकांता का किला!
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मिर्जापुर। उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर के चुनार में रहस्य, रोमांच, विस्मय और जादू की रोमांचक दास्तानों से भरपूर किवदंतियों एवं लोककथाओं के लिए विख्यात देश का अनोखा चन्द्रकांता का चुनारगढ़ का किला बूढ़ा हो गया है। गढ़ की दीवारें, प्राचीरें और चट्टानी जीवट वाले बुर्ज शताब्दियों से समय के निर्मम थपेड़ों की चोट झेलते-झेलते अब जर्जर हो चुकी है। समय के साथ अब इसकी चोट सहने की शक्ति लगभग खत्म हो रही है।
राजा भर्तहरी की तपोस्थली व हिन्दी के पहले उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की तिलिस्म स्थली चुनारगढ़ अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है और इस ओर किसी का ध्यान नही है। उत्तर भारत के शासकों के जय-पराजय का हमराज किसी समय ध्वस्त हो सकता है। हिन्दुओं की पवित्र धार्मिक नगरी वाराणसी जाने के लिए गंगा के लिए मार्ग प्रशस्थ करने वाले विंध्य पर्वत पर चरण आकार वाले इस किले का प्राचीन नाम चरणाद्रिगढ़ रहा है।
यदि विंध्याचल पर्वत नहीं होता तो गंगा वाराणसी की ओर न जाकर दक्षिण दिशा की ओर जाती। गंगा पर पुस्तक लिखने वाले विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में इसका उल्लेख किया है। इतिहासकारों के अनुसार उत्तर भारत के प्रत्येक शासकों की दिलचस्पी चुनार के किले पर कब्जा जमाने की रही है। जिस विजेता का शासन दिल्ली से बंगाल तक हो जाता था उसके लिए चुनार का किला एक महत्वपूर्ण पड़ाव हो जाता था। इसके अतिरिक्त जलमार्ग से इस किले तक पहुंचना भी काफी आसान होता था।
मिर्जापुर के तत्कालीन कलक्टर द्वारा 18 अप्रैल सन 1924 को दुर्ग पर लगाये एक शिलापत्र पर उत्कीर्ण विवरण के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद इस किले पर 1141 से 1191 ई. तक पृथ्वीराज चौहान, 1198 में शहाबुद्दीन गौरी, 1333 से स्वामीराज, 1445 से जौनपुर के मुहम्मदशाह शर्की, 1512 से सिकन्दर शाह लोदी, 1529 से बाबर, 1530 से शेरशाहसूरी और 1536 से हुमायूं आदि शासकों का अधिपत्य रहा है। शेरशाह सूरी से हुए युद्ध में हुमायूं ने इसी किले में शरण ली थी।
जहां तक इस किले के निर्माण का सम्बंध है कुछ इतिहासकार 56 ईपू में राजा विक्रमादित्य द्वारा इसे बनाया गया मानते हैं। कुछ इतिहासकार इसके निर्माण वर्ष पर अपनी मान्यता प्रदान नहीं करते। शेरशाह सूरी ने चुनार के दुर्ग का महत्व बेहतर समझा। चुनार से बंगाल तक सूरी के शासनकाल में कोई अन्य किला नहीं था। हालांकि बाद में शेरशाह ने बिहार के सासाराम में एक किले का निर्माण खुद कराया।
शेरशाह सूरी के पश्चात 1545 से 1552 तक इस्लामशाह, 1575 से अकबर के सिपहसालार मिर्जामुकी और 1750 से मुगलों के पंचहजारी मंसूर अली खां का शासन इस किले पर था। तत्पश्चात 1765 ई. में किला कुछ समय के लिए अवध के नवाब शुजाउदौला के कब्जे में आने के बाद शीघ्र ही ब्रिटिश आधिपत्य में चला गया। शिलापट्ट पर 1781 ई में वाटेन हेस्टिंग्स के नाम का उल्लेख अंकित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस किले पर उत्तर प्रदेश सरकार का कब्जा है।
किले की ऐतिहासिकता का विवरण अबुलफजल के चर्चित आईने अकबरी में भी मिलता है। फजल ने इसका नाम चन्नार दिया है। लोकगाथाओं में पत्थरगढ़, नैनागढ़, चरणाद्रिगढ़ आदि नामों से जाने जानेवाला यह किला किवंदतियों के अनुसार विक्रमादित्य ने अपने भाई भतृहरि के लिए बनवाया था। विलासिता व भोग के जीवन से विरक्त भतृहरि ने यही तप साधना की थी। दुर्ग में आज भी उनकी समाधि बनी हुई है। हालांकि तमाम इतिहासकार इसे मान्यता नहीं देते हैं पर मिर्जापुर गजेटियर में इसका उल्लेख किया गया है।
गजेटियर में संदेश नामक राज का सम्बन्ध का भी उल्लेख है। माना जाता है कि महोबा के वीर बांकुरे आल्हा का विवाह इसी किले में सोनवा के साथ हुआ था। सोनवा मण्डप आज भी किले में मौजूद है। ऐतिहासिक एवं रहस्य रोमांच का इतिहास अपने हृदय में समेटे इस किले का इस्तेमाल फिलहाल पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र के रुप में किया जा रहा है। लिहाजा पर्यटक इस किले के दीदार से वंचित रह जाते हैं।
पर्यटन को बढ़ावा देने का ढिढोरा पीटने वाली सरकारों का इस ओर ध्यान नही है दुर्ग जगह-जगह से दरक रहा है। यह ऐतिहासिक धरोहर किसी भी समय ध्वस्त हो सकता है। भले ही चन्द्रप्रकाश द्विवेदी के लोकप्रिय धारावाहिक चन्द्रकांता के बाद इसी नाम से एक और टेलीविजन धारावाहिक का प्रदर्शन शुरू होने वाला हो पर सरकार का ध्यान इस किले को बचाने की ओर नहीं है।
500 साल बाद मिली मोनालीसा की मॉडल की खोपड़ी
फ्लोरेंस। पुरातत्वविदों को इटली के फ्लोरेंस शहर में एक खोपड़ी का कंकाल मिला है। ऐसा माना जा रहा है कि यह खोपड़ी उसी महिला की है जो चित्रकार लियोनार्दो दा विंची की मोनालीसा कृति के लिए उनकी मॉडल बनी थी। यह कंकाल 500 साल पुराना है।
समाचार एजेंसी एकेआई के मुताबिक रेशम व्यापारी फ्रासेंस्को डेल गियोकोंडो की पत्नी लीसा ज्योर्जियो का शव सेंट ऑरसोला में दफनाया गया था। उनकी जुलाई 1542 में 63 वर्ष की आयु में मौत हो गई थी। पुरातत्वविदों ने पिछले महीने ही सेंट ऑरसोला में खुदाई शुरू की थी। बोलोग्ना विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद ज्योर्जियो ग्रुपियोनी का कहना है कि एक कब्र की खुदाई की गई थी, जिसमें एक महिला की खोपड़ी व श्रोणी के हिस्से मिले।
जब इस खोपड़ी के टूटे हुए हिस्सों को जोड़ा गया तो जो आकृति बनी वह मोनालीसा की विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग से मिलती-जुलती है। अब इतिहासकार इस महिला के डीएनए की तुलना फ्लोरेंस के सैंटिसिमा एनुन्जिएंटा गिरजाघर में दफनाए गए उसके दोनों बच्चों के डीएनए से करेंगे।
ज्यादातर आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि लियोनार्दो की विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग मोनालीसा के लिए ज्योर्जिया ही मॉडल बनी थी, जो बाद में अपने पति की मौत के बाद नन बन गई थीं। वैसे कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि लियोनार्दो की यह कृति कई चेहरों का सम्मिलित रूप थी।
लक्ष्मी विलास पैलेस है बकिंघम पैलेस से 4 गुना बडा़!
वडोदरा। वडोदरा के गायकवाड़ राजपरिवार को पूरे गुजरात में काफी सम्मान से देखा जाता है। अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद इस राजपरिवार ने वडोदरा के विकास से लेकर सामाजिक और आर्थिक सुधारों से जुड़े कई कार्यक्रम चलाए।
वडोदरा के लक्ष्मी विलास पैलेस का निर्माण 1890 में महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ के वक्त हुआ था। तब से लेकर अभी तक राजपरिवार का मुख्य ठिकाना यही है। एक जमाने में वडोदरा स्टेट पर गायकवाड़ राजपरिवार की हुकूमत चलती थी। लक्ष्मी विलास पैलेस और उसके आसपास के 700 एकड़ का इलाका राजपरिवार के नाम है। बताया जाता है कि लक्ष्मी विलास पैलेस ब्रिटिश राजघराने के महल बकिंघम पैलेस से 4 गुना बडा़ है। इस महल के दायरे में एक म्यूजियम, एक क्रिकेट ग्राउंड, इनडोर टेनिस कोर्ट और बैडमिंटन कोर्ट मौजूद है।
महल के पास की जमीन पर एक गोल्फ कोर्स और चिड़ियाघर भी बनाया गया है। राजपरिवार के बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल से लेकर लक्ष्मी विलास पैलेस तक एक रेल लाइन बिछाई गई थी। फिलहाल इस राजपरिवार के सबसे बड़े भाई रंजीत सिंह यहां अपने परिवार के साथ रहते हैं। उनको इस राजघराने में महाराजा का दर्जा हासिल है। लक्ष्मी विलास पैलेस के अलावा वडोदरा में दो और महल- मकरपुर पैलेस और प्रताप विलास पैलेस इस मराठा राजपरिवार के नाम है।
भारत की आजादी से पहले इस राजपरिवार ने वडोदरा स्टेट में शिक्षा और टेक्सटाइल इंडस्ट्री के विकास में अहम भूमिका निभाई थी। बाल विवाह पर रोक, छूआछूत मिटाने और संस्कृत के विकास में भी वडोदरा राजपरिवार का खास योगदान माना जाता है। 1908 में बैंक ऑफ बड़ौदा की नींव भी इसी राजपरिवार के सहयोग से डाली गई थी जो आज भी देश के बड़े बैंकों की सूची में शामिल है।