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Thursday, October 8, 2015

नर्क में है जीवों के लिए अजब-गजब दंड का प्रावधान, हर बुरे कर्म के लिए अलग नर्क

 अगर आप आस्तिक हैं तो आप धर्मानुशासन से भी पूरी तरफ वाकिफ भी होंगे। हमारे धर्म में संसारी मानव को गलत कार्यों से रोकने के लिेए स्वर्ग व नरक का प्रावधान इस कदर रखा गया कि कोई उससे परे जाने की हिम्मत न कर सके। पुराणों व उपनिषदों वगैरह में इसका विस्तार से उल्लेख है। हिंदू धर्म के अलावा जैन व बौद्ध धर्म में भी कर्मो के आधार पर जीवन के संचालन की बात कहीं गई है। यह बेहद ही मनोवैज्ञानिक तरीके से समाज को नियत्रित करने का तरीका तलाशा गया जो आज भी सामाजिक नियंत्रण की बड़ी भूमिका निभाता है।
    हिंदू धर्मग्रन्थों यथा गरुड़ पुराण से लेकर कठोपन‌िषद् तक हर जगह मृत्यु और मृत्यु के बाद की स्‍थ‌ित‌ि का उल्लेख क‌िया गया है। इनमें बताया गया है क‌ि धरती पर जीव जो भी कर्म करते हैं उनका फल उन्हें परलोक में म‌िलता है। यमराज कर्म के अनुसार जीव को स्वर्ग और नर्क में भेजते हैं। नर्क के बारे में कहा गया है क‌ि यहां जीवों को अजब-गजब दंड द‌िया जाता है और इसके ल‌िए अलग-अलग नर्क बने हुए हैं। पुराणों में  36 तरह के नर्क बताए गए हैं।
महावीच‌ि:
महावीच‌ि नाम का नर्क रक्त से भरा हुआ है इसमें वज्र के समान कांटे। इसमें गया हुआ जीव कांटों से ब‌िंधकर कष्ट पाता है। कहते हैं गाय का वध करने वाला इस नर्क में एक लाख वर्ष तक रहकर कष्ट भोगता है।
कुंभीपाक
इस नर्क में गर्म रेत और अंगारे ब‌िछे हुए हैं। इस नर्क में दूसरों की जमीन और धरोहर हड़पने वाले के अलावे ब्राह्मणों की हत्या करने वालों को भेजा जाता है।
रौरव
जो लोग झूठी गवाही देते हैं उन्हें इस नर्क में ईख की तरह पेरा जाता जाता है।
मंजूस
इस नर्क में उन्हें दंड द‌िया जाता है जो न‌िर्दोष को बंदी बनाते हैं। यह नर्क जलते हुए सलाखों का बना है ज‌िसमें दोषी जीव को डालकर जलाया जाता है।
अप्रत‌िष्ठ
इस नर्क में उन लोगों को डाला जाता है जो धार्म‌िक व्यक्त‌ियों को कष्ट देते हैं। यह नर्क मल, मूत्र पीब से भरा हुआ है। इसमें पापी जीव को उलटा करके ग‌िराया जाता है।
व‌िलेपकः
इस नर्क में वैसे ब्राह्मण जाते हैं जो मद‌िरापान करते हैं। यह नर्क लाह की आग से जलता रहता है। इस आग में जीव को झोंक द‌िया जाता है।
महाप्रभ
यह नर्क बहुत ऊंचा है। इसमें बड़ा सा शूल गड़ा है। जो व्यक्त‌ि पत‌ि-पत्नी में व‌िभेद करवाकर उन्हें अलग करवाते हैं उन्हे इस नर्क में डालकर शूल से छेदा जाता है।
जयंती
इस नर्क में एक व‌िशाल चट्टान है। इस नर्क में परायी स्‍त्र‌ियों के साथ शारीर‌िक संबंध बनाने वाले को इसी चट्टान के नीचे दबाया जाता है।
शल्मल‌ि
यह नर्क जलते हुए कांटों से भरा हुआ है। इस नर्क में उन स्‍त्र‌ियों को जलते हुए शल्म‌ल‌ि वृक्ष का आल‌िंगन करना पड़ता है जो पर पुरुष से संबंध बनाती है। यहां परायी स्‍त्र‌ियों से संबंध बनाने और कुदृष्ट‌ि रखने वालों की यमदूत आंखें फोड़ देते हैं।
महारौरव
जो लोग खेत, खल‌िहान और गांव, घर में आग लगाते हैं उन्हें युगों तक इस नर्क में पकाया जाता है।
ताम‌िस्र
इस नर्क में यमदूत भयानक अस्‍त्र शस्‍त्र से चोरों की प‌िटाई करते हैं।
अस‌िपत्र
इस वन के पत्ते तलवार जैसे हैं। म‌ित्रों को धोखा देने वालों को इस वन में डाल द‌िया जाता है जहां वर्षों तक इस वन के पत्तों से कट फट कर जीव दुःखी होता रहता है।
करंभबालुका
यह नर्क कुएं जैसा है ज‌िसमें गर्म रेत, अंगारे और कांटे ब‌िछे हुए हैं जहां पाप कर्म करने वाले को 10 हजार वर्ष तक दंड भोगना पड़ता है
काकोल
कीड़े और पीब से भरे इस नर्क में उन्हें ग‌िराया जाता है जो दूसरों को द‌िए ब‌िना अकेले म‌िष्टान खाते हैं।
कड‍्मल
पंचयज्ञ को जो नहीं करते हैं उन्हें मल, मूत्र और रक्त से भरे इस नर्क में ग‌िराया जाता है।
त‌िलपाक
दूसरों को सताने वाले लोगों को इस नर्क में डाला जाता है जहां त‌िल से जैसे तेल न‌िकाला जाता है उसी प्रकार उन्हें पेर कर उन्हें दंड द‌िया जाता है।
महावट
यह नर्क मुर्दों और कीटों से भरा है। जो व्यक्त‌ि अपनी बेट‌ियों को बेचता है उसे इस नर्क में उलटा करके ग‌िराया जाता है।
महाभीम
यह नर्क सड़े हुए मांस और रक्त से भरा है जहां मांस, मद‌‌िरा और अखाद्य पदार्थों को खाने वालों को डाला जाता है
तैलपाक
इस नर्क में शरण में आए हुए लोगों की मदद नहीं करने वाले को तेल के कड़ाही में पकाया जाता है।
वज्रकपाट
वज्र के समान कठोर इस नर्क में उन लोगों को दंड द‌िया जाता है जो पशुओं पर अत्याचार करके उनका दूध बेचते हैं।
    इसके अलावा अन्य कई प्रकार के नर्क हैं ज‌िनमें न‌िरुच्छवास, अंड्गरोपचय, महापायी, महाज्वाल, क्रकच, गुडपाक, छुरधार, अंबरीष, वज्रकुठार, पर‌िताभ, कालसूत्र, कश्मल, उग्रगंध, दुर्धर, वज्रमहापीर।
कहते हैं मृत्यु के बाद हर क‌िसी की आत्मा को सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करके जीवों का न्याय करने वाले यमलोक के पास जाना पड़ता है। यमलोक के बारे में कहा जाता है क‌ि यह बहुत ही डरावना है। यहां जीवों को तरह-तरह की यातनाएं दी जाती हैं।
 यमराज का ही दूसरा नाम धर्मराज है क्योंक‌ि यह धर्म और कर्म के अनुसार जीवों को अलग-अलग लोकों और योन‌ियों में भेजते हैं। धर्मात्मा व्यक्त‌ि को यह कुछ-कुछ व‌िष्‍णु भगवान की तरह दर्शन देते हैं और पाप‌ियों को उग्र रुप में।

Sunday, September 27, 2015

200 साल पुरानी 'रामनगर की रामलीला' दिखेगी टीवी पर


यूनेस्को की अमूर्त विरासत सूची में शामिल देश की सबसे पुरानी 'रामनगर की मशहूर रामलीला' को पहली बार दूरदर्शन एक फिल्म के रूप में लगातार एक महीने तक दिखाएगा। करीब 200 साल से चली आ रही इस पुश्तैनी रामलीला को 27 सितंबर से 27 अक्टूबर तक हर रोज रात 8:30 बजे डी.डी भारती पर दिखाया जाएगा।

इसी दौरान राष्ट्रीय इंदिरा गांधी कला केंद्र भी हर रोज शाम 6:00 बजे से इस फिल्म का एक-एक अंश दिखाएगा। केंद्र ने इस रामलीला पर एक अनोखी प्रदर्शनी भी आयोजित की है। देश में किसी भी रामलीला पर यह पहली प्रदर्शनी है। साथ ही दूरदर्शन पहली बार किसी रामलीला को लगातार एक महीने दिखाएगा।

वाराणसी से 20 किलोमीटर दूर रामनगर में हर साल यह रामलीला होती है। रामनगर के महाराजा गत 200 सालों से इस रामलीला का आयोजन करते रहे हैं जो 31 दिन तक रोज होती है। देश के किसी भी हिस्से में इतने दिनों तक कोई भी रामलीला नहीं होती है।

प्रदर्शनी के संयोजक गौतम चटर्जी और दूरदर्शन के क्रिएटिव प्रोड्यूसर डॉ. गौरीशंकर रैना ने बताया कि रामनगर के महाराजा आदित्य नारायण सिंह ने इस रामलीला की शुरुआत की थी। बाद में उनके पुत्र महाराजा विभूति नारायाण इसे आयोजित करते रहे और अब उनके निधन के बाद उनके पुत्र महाराजा अनंत कुमार सिंह इसे आयोजित करते हैं।

हर साल महाराजा के गुरुकुल के बच्चे इस रामलीला के पात्र होते हैं। रामनगर के महाराजा ही इन बच्चों की पढ़ाई लिखाई का खर्च उठाते हैं और ये बच्चे 31 दिनों तक संयमित ढंग से खान-पान और आचरण भी करते हैं। उन्हें रामलीला के लिए प्रशिक्षण भी दिया जाता है। हर साल गुरुकुल के नए बच्चे इस रामलीला में अभिनय करते हैं।

यह रामलीला रामनगर में 4 किलोमीटर के दायरे में 31 स्थानों पर जगह बदल-बदल कर होती हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पूर्व निदेशक और मशहूर रंगकर्मी अनुराधा कपूर ने इस रामलीला पर पीएचडी भी की है। उनका कहना है कि यह रामलीला दुनिया का पहला गतिशील (मूविंग) नाट्य मचंन है जो हर दिन अलग अलग स्थानों पर किया जाता है। रामचरित मानस की चौपाइयों पर आधारित अवधि में होने वाली इस रामलीला में न तो कोई माइक होता है और न ही लाईट बल्कि पेट्रोमैक्स की रोशनी में इस रामलीला को खेला जाता है और 40 किलोमीटर दूर के गांवों से लाखों लोग इसे देखने आते हैं।

इस रामलीला की खासियत यह है कि रामलीला के दौरान रावण दहन या आतिशबाजी और मंच सज्जा के सभी कारीगर मुस्लिम होते हैं। रामलीला के पात्र वही होते हैं जो 200 साल से पुश्तैनी रूप से अभिनय करते रहे हैं। दूरदर्शन की करीब 40 लोगों की टीम ने पिछले साल 27 सितंबर से 27 अक्टूबर तक इस रामलीला की रिकॉर्डिंग की थी। उस रिकॉर्डिंग को एडिट कर इस साल इसे दिखाया जा रहा है।


Thursday, September 17, 2015

खुदाई में मिला विजयनगर का खजाना!

     तेलंगाना में खम्मम जिले के गर्लाबाय्याराम पुलिस थाना क्षेत्र में विजयनगर काल के 40 सोने के सिक्के और एक पीतल का बर्तन मिला है। तेलंगाना पुरातत्व और संग्रहालय की निदेशक सुनिता ने बताया कि सिक्कों की शुरुआती जांच में ये खजाना विजयनगर काल का लग रहा है। ये सिक्के तुलुव राजवंश के  राजा कृष्णदेवराय (1506-1530) और अच्युताराय (1530-1542) के काल के प्रतीत हो रहे हैं। सुनिता ने बताया कि गर्लाबाय्याराम के पुलिस के उप निरीक्षक की रिपोर्ट के मुताबिक यह खजाना पांच महीने पहले  पाथयातंडा शिवार में मिला था।
उन्होंने बताया कि इन कुछ सिक्कों पर बैठे हुए भगवान बालकृष्ण का चित्र अंकित है जिन्होंने अपने दाएं हाथ में मक्खन लिया हुआ है और उनका बायां हाथ पैर बांये पैर के घुटने पर है। सिक्के पर भगवान बालकृष्ण के बांई ओर शंख और दाई ओर चक्र रखा हुआ है।
    दूसरे तरह के सिक्के की एक तरफ दो सिर वाले गरुड़ को ऊपर की तरफ उड़ते हुए दिखाया गया है जिसने अपनी दोनों चोंचों और दोनों पंजों से एक हाथी को पकड़ा हुआ है।
   सिक्के के पीछे की तरफ नगरी भाषा में तीन लाइनों में श्री प्रा ता पा च्यु ता रा या लिखा हुआ है। ये सिक्के गोलाकार है और इनका वजन 1650 मिलिग्राम से लेकर 3380 मिलिग्राम तक है। (वार्ता)

Friday, August 28, 2015

गीता प्रेस, गोरखपुर में लगा 'ताला'

     शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसने कभी हिन्दू धार्मिक पुस्तक पर 'गीता प्रेस, गोरखपुर' की लाइन न देखी हो। भारत में धर्म की गंगा बहाने वाली गीता प्रेस, गोरखपुर इन दिनों 'संकट' में है। खबरों के मुताबिक ट्रस्ट और कर्मचारियों के बीच विवाद से गीता प्रेस, गोरखपुर पर 25 दिनों से ताला लगा हुआ है। ट्रस्ट और कर्मचारियों के विवाद के बाद प्रेस बंद पड़ी है। हर हिन्दू को संस्कृति का पाठ पढ़ाने वाली ‍गीता प्रेस, गोरखपुर वर्तमान में बदहाल स्थिति में है। 

हर हिन्दू धर्म को मानने वाले व्यक्ति के लिए गीता प्रेस, गोरखपुर एक तीर्थ की तरह है, लेकिन आज इस तीर्थ से ज्ञान की गंगा नहीं बह रही है। जानकारी के मुताबिक गीता प्रेस, गोरखपुर रोजाना करीब 50 हजार से ज्यादा धार्मिक पुस्तकें बेचती हैं।

कब हुई थी शुरुआत : गीता प्रेस, गोरखपुर की स्थापना 1923 में हुई थी। गीता प्रेस, गोरखपुर का संचालन कोलकाता स्थित गोविंद भवन संस्था करती है। आम लोगों के बीच सनातन धर्म के प्रचार के लिए गीता प्रेस की स्थापना की गई थी।

कम लागत पर पुस्तकें : प्रेस का स्थापना का उद्देश्य कम मूल्य पर धार्मिक किताबें उपलब्ध कराना था। गीता प्रेस, गोरखपुर धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी संस्था है। प्रेस में करीब 780 पुस्तकों का प्रकाशन हिन्दी और संस्कृत में होता है।

गीता प्रेस वह पहली प्रेस है, जिसने नेपाली भाषा में रामायण का प्रकाशन किया था। इसकी लाइब्रेरी में कई दुर्लभ पांडुलिपियां मौजूद हैं। इसके कुल में 35 प्रतिशत हिस्सा रामचरित मानस का है। गीता प्रेस बिना लाभ के पुस्तकों का विक्रय करती है। लागत से 40 से 90 प्रतिशत कम कीमतों पर किताबों को बेचा जाता है।  इस बात का उदाहरण है कि यहां छपी हनुमान चालीसा चाय से भी कम कीमत 2 रुपए में मिल जाती है।

यह है विवाद : खबरों के मुताबिक प्रेस में करीब 180 स्थायी और 300 अस्थायी कर्मचारी काम करते हैं। बताया जाता है कि ट्रस्ट और कर्मचारियों के बीच दो मांगों पर विवाद है। पहली, कर्मचारी सभी के लिए समान वेतन की मांग कर रहे हैं। दूसरी, अस्थायी कर्मचारियों को स्थायी करने को लेकर है।

इसी विवाद के बाद बाद गीता प्रेस, गोरखपुर में छपाई का काम नहीं हो रहा है। खबरों के अनुसार ट्रस्ट ने कर्मचारियों पर मारपीट का आरोप भी लगाया है। मारपीट के आरोप में ट्रस्ट ने 17 कर्मचारियों को निलंबित किया है। कर्मचारी इन 17 कर्मचारियों को भी वापस लेने की मांग कर रहे हैं।

किसी से नहीं लेती आर्थिक मदद : गीता प्रेस, गोरखपुर में हर महीने करीब 400 टन कागजों पर छपाई होती है। प्रेस इस पर किसी भी प्रकार की सब्सिडी नहीं लेती है। गीता प्रेस बाजार भाव पर ही कागजों की खरीदी करती है। गीता प्रेस की नीति के मुताबिक वह सरकार, संस्था या किसी व्यक्ति से भी किसी भी तरह की आर्थिक मदद भी नहीं ली जाती है।

गलती पर इनाम : गांधीजी की सलाह पर प्रेस की किसी धार्मिक पुस्तक पर विज्ञापन और किसी पुस्तक की समीक्षा नहीं छापी जाती है। यहां तक की किसी जीवित व्यक्ति का फोटो भी किसी पुस्तक में नहीं प्रकाशित किया जाता है। धार्मिक पुस्तक में किसी प्रकार की गलती होने पर बताने वाले पाठक को प्रेस इनाम भी देती है।

गीता प्रेस ने दी सफाई : इस पूरे विवाद पर गीता प्रेस गोरखपुर ने ट्‍वीट कर सफाई दी है कि गीता प्रेस को किसी प्रकार के अनुदान की आवश्यकता नहीं है। कर्मचारियों से बात चल रही है और सभी कर्मचारी जल्द काम पर लौटेंगे।
http://hindi.webdunia.com/regional-hindi-news/gita-press-gorakhpur-115082800076_1.html

Thursday, August 6, 2015

काशी के भूगर्भीय इतिहास में जुड़ेगा नया अध्याय

   
                    शहर के नीचे दबे अनजान नालों का बनेगा नक्शा
  विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक है काशी। इसे वर्तमान में बनारस या वाराणसी के नाम से जाना जाता है. यह शहर जितना पुराना है ,उतना ही रहस्यमय है इसकी संरचना की बात। इस शहर के पुराने सीवर और पेयजल की पुरानी पाईपलाइनें कहां से होकर गुजरती हैं, ठीक ठीक किसी को भी पता नहीं। अब शहर में मेट्रो केनिर्माण के कारण ऐसे कई रहस्यों से पर्दा उठनेवाला है। फिलहाल तो मुगलकालीन शाहीनाला का मामला सामने आया है। यह नाला आज भी अस्तित्व में है मगर कहां से कहां तक फैला है इसका किसी को भी ठीक पता नहीं हैं। इस कवायद से यह भी संभव है कि प्राचीन काशी के कुछ अनजाने रहस्यों से पर्दा उठेगा और शहर के पुराने सीवर व पानी के पाईपलाईनों का नक्शा तैयार हो पाए।

   मुगलकाल के दौरान ‘शाही नाला’ को ‘शाही सुरंग’ के नाम से जाना जाता था। इसकी खासियत यह बताई जाती है कि इसके अंदर से दो हाथी एक साथ गुजर सकते हैं। शहर के पुरनियों का कहना है कि अंग्रेजों ने इसी ‘शाही सुरंग’ के सहारे बनारस की सीवर समस्या सुलझाने का काम शुरू किया। जेम्स प्रिंसेप के अनुसार, इसका काम वर्ष 1827 में पूरा हुआ था। इसे लाखौरी ईंट और बरी मसाला से बनाया गया था। अस्सी से कोनिया तक इसकी लंबाई 24 किलोमीटर बताई जाती है।
    यह अब भी अस्तित्व में है लेकिन उसकी भौतिक स्थिति के बारे में सटीक जानकारी किसी के पास नहीं है। पुरनियों के मुताबिक यह नाला अस्सी, भेलूपुर, कमच्छा, गुरुबाग, गिरिजाघर, बेनियाबाग, चौक, पक्का महाल, मछोदरी होते हुए कोनिया तक गया है।
    वाराणसी शहर के लिए पहेली बने ‘शाही नाला’ की भौतिक स्थिति के अध्ययन, बाधाओं को चिह्नित करने के साथ ही उसके जीर्णोद्धार की पहल शुरू हो गई है। मुगलकाल के दौरान ‘शाही नाला’ को ‘शाही सुरंग’ के नाम से जाना जाता था। रोबोटिक कैमरों के जरिये काशी के इस प्राचीन नाले के स्वरूप की जानकारी की जाएगी। इसके लिए जापान इंटरनेशनल को-आपरेशन एजेंसी (जायका) ने 92 करोड़ रुपये मंजूर किए हैं। गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई की निगरानी में चयनित निजी एजेंसी यह कार्य कराएगी। इसके लिए प्रारंभिक सर्वे शुरू हो गया है। तय कार्ययोजना के मुताबिक सितंबर बाद रोबोटिक सर्वे का काम शुरू हो जाएगा। प्राचीन ‘शाही नाला’ मौजूदा समय में भी शहर के सीवर सिस्टम का एक बड़ा आधार है लेकिन इसका नक्शा नगर निगम या जलकल के पास नहीं है। शहर की घनी आबादी से होकर गुजरा यह नाला पूरी तरह भूमिगत है।
     यह प्राचीन काशी की जलनिकासी व्यवस्था की एक नजीर भी है। शहर के पुरनिये बताते हैं कि अंदर ही अंदर शहर के कई अन्य छोटे-बड़े नाले इससे जुड़े हैं लेकिन इसकी भौतिक स्थिति का पता न होने से नालों के जाम होने या क्षतिग्रस्त होने पर उसकी मरम्मत तक नहीं हो पाती। गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई के महाप्रबंधक जेबी राय ने बुधवार को बताया कि यह हकीकत है कि इसका नक्शा नगर निगम या जलकल के पास नहीं है। इस प्राचीन नाले की मुख्य लाइन अस्सी से कोनिया तक 7.2 किलोमीटर लंबी है, जो भेलूपुर चौराहा, बेनियाबाग मैदान, मछोदरी होते हुए गुजरी है। इसकी सहायक लाइनें शहर के अन्य हिस्सों में फैली हैं। उदाहरण के तौर पर, अर्दली बाजार से आकर एक शाखा इसमें मिलती है। सितंबर बाद रोबोटिक कैमरों की मदद से इस नाले की भौतिक स्थिति का बारीकी से अध्ययन होगा।
    मंडलायुक्त सभागार में बुधवार को मेट्रो रेल परियोजना के संबंध में हुई बैठक के दौरान ‘शाही नाला’ के नक्शे के बारे में भी चर्चा हुई। जीएम जेबी राय ने बताया कि सर्वे के आधार पर इसका नक्शा तैयार किया जाएगा। सर्वे के बाद ही इसकी वास्तविक गहराई, लंबाई, चौड़ाई और अन्य संबंधित जानकारियों का पता चल पाएगा।

(  फोटो व सामग्री- साभार अमर उजाला-http://www.amarujala.com/feature/samachar/national/mystery-of-shahi-nala-in-varanasi-hindi-news-dk/?page=0)

Thursday, May 21, 2015

आज भी सटीक हैंं प्राचीन मौसम विज्ञानी घाघ भड्डरी की कहावतें

   
प्राकृतिक लक्षणों के आधार पर दोहे रचकर प्राचीन कवि घाघ भड्डरी ने सटीक भविष्यवाणियां की थीं। आज के वैज्ञानिक युग में मौसम आदि के बारे घाघ भड्डरी की कहावतें गांवों  में आज भी लोगों की जुबान पर हैं। कुछ लोगों के प्रयास से ये कहावतें पुस्तक के रूप में संकलित की गई थी। जिसके कारण बहुत बाद तक लोगों की जानकारी समृद्ध होती रही। खेती के संदर्भ में तो किसान इन कहावतों पर पूरा भरोसा रखते थे, और आज भी लोगों को भरोसा है। दुर्भाग्य से इन कहावतों का लिखित रूप लगभग विलुप्त हो गया है। मेरे पास भी बचपन में घाघ भड्डरी की कहावतें नाम एक पुस्तक थी। मेरे बड़े भैया कृष्णा नन्द सिंह कहीं से लाए थे। हम लोग  उनके के बक्से से इस किताब को लेकर बड़ी चाव से पढ़ते थे। कुछ कहावतें तब ही कंठस्थ हो गईं थीं। आज अचानक वेबदुनिया हिंदी समाचार पोर्टल पर इन कहावतों को देखा तो पुरानी यादें ताजा होगईं। पोर्टल पर भी सीमित कहावतें पोस्ट की गईं हैं।   लोगों से अक्सर सुनी जाने वाली बेहद प्रचलित कहावतों को वेबदुनिया ने पोस्ट किया है। इस लिंक पर जाकर आप भी उन कहावतों को पढ़ सकते हैं। मैंने भी वेबदुनिया से साभार इन कहावतों को लिया है। देखे कितनी सटीक हैं ये। पुरानी पीढ़ी के लोगों के लिए तो नई बातें नहीं हैं मगर नईं पीढ़ी के लिए कौतूहल वाला है। नई पीढ़ी तो आज के मौसम विज्ञानियों को जानती है मगर मेरा अनुरोध है कि वे इस मौसम विज्ञानी को देखें।मौसम से लेकर यात्रा विचार तक की बातें वर्षों के अनुभव के बाद लिखी गई हैं। नीचे वेबदुनिया से साभार ( http://hindi.webdunia.com/astrology-articles/astrology-114111900048_1.html ) कुछ दोहे दे रहा हूं।  इसी तरह  नवभारत टाइम्स पोर्टल में संजय के धरती के गोंद नामक संग्रहीत घाघ भड्डरी की कहावतें छपी हैं। उसे इस लिंक पर देखिए। नीचे अलग से उसे भी दे रहा हूं.। अवलोकन करें।

कपड़ा पहिरै तीन बार। बुध बृहस्पत सुक्रवार।
हारे अबरे इतवार। भड्डर का है यही बिचार।।
अर्थात वस्त्र धारण करने के लिए बुध, बृहस्पति और शुक्रवार का दिन विशेष शुभ होता है। अधिक आवश्यकता पड़ने पर रविवार को भी वस्‍त्र धारण किया जा सकता है, ऐसा भड्डरी का विचार है।

चलत समय नेउरा मिलि जाय। बाम भाग चारा चखु खाय।।
काग दाहिने खेत सुहाय। सफल मनोरथ समझहु भाय।।
अर्थात यदि कहीं जाते समय रास्ते में नेवला मिल जाए और दाहिने ओर खेत में कौवा हो तो जिस कार्य से व्यक्ति निकला है, वह अवश्य सिद्ध होगा।

नारि सुहागिन जल घट लावै। दधि मछली जो सनमुख आवै।।
सनमुख धेनु पिआवै बाछा। यही सगुन हैं सबसे आछा।।
अर्थात यदि सौभाग्यवती स्त्री पानी से भरा घड़ा ला रही हो, कोई सामने से दही और मछली ला रहा हो या गाय बछड़े तो दूध पिला रही हो तो यह सबसे अच्छा शकुन होता है।

पुरुब गुधूली पश्चिम प्रात। उत्तर दुपहर दक्खिन रात।।
का करै भद्रा का दिगसूल। कहैं भड्डर सब चकनाचूर।।
अर्थात भड्डरी कहते हैं कि यदि पूर्व दिशा में यात्रा करनी हो तो गोधूलि (संध्या) के समय, यदि पश्चिम में यात्रा करनी हो तो प्रात:काल, यदि उत्तर दिशा में यात्रा करनी हो तो दोपहर में और यदि दक्षिण की ओर जाना है तो रात में निकलना चाहिए। यदि उस दिन भद्रा या दिशाशूल भी है तो ऐसा करने वाले व्यक्ति को कुछ भी नहीं होगा।

गवन समय जो स्वान। फरफराय दे कान।
एक सूद्र दो बैस असार। तीनि विप्र औ छत्री चार।।
सनमुख आवैं जो नौ नार। कहैं भड्डरी असुभ विचार।।
अर्थात भड्डरी कहते हैं कि यात्रा पर निकलते समय यदि घर के बाहर कुत्ता कान फटफटा रहा हो तो अशुभ होता है। यदि सामने से 1 शूद्र, 2 वैश्य, 3 ब्राह्मण, 4 क्षत्रिय और 9 स्त्रियां आ रही हों तो अशुभ होता है।

भ‍रणि बिसाखा कृत्तिका, आद्रा मघा मूल।
इनमें काटै कूकुरा, भड्डर है प्रतिकूल।।
अर्थात भड्डरी का कहना है कि यदि भरणी, विशाखा, कृत्तिका, आर्द्रा और मूल नक्षत्र में कुत्ता काट ले तो बहुत बुरा होता है।


लोमा फिरि फिरि दरस दिखावे। बायें ते दहिने मृग आवै।।
भड्डर जोसी सगुन बतावै। सगरे काज सिद्ध होइ जावै।।
अर्थात यात्रा पर जाते समय यदि लोमड़ी बार-बार दिखाई पड़े, हिरण बाएं से दाहिने ओर निकल जाए तो व्यक्ति जिन कार्यों के लिए जा रहा होगा, वे सभी सिद्ध हो जाएंगे, ऐसा ज्योतिषी भड्डरी कहते हैं।

सूके सोमे बुधे बाम। यहि स्वर लंका जीते राम।।
जो स्वर चले सोई पग दीजै। काहे क पण्डित पत्रा लीजै।।
अर्थात शुक्रवार, सोमवार और बुधवार को बाएं स्वर में कार्य प्रारंभ करने से सफलता मिलती है। राम ने इसी स्वर में लंका जीती थी। यदि बायां स्वर चले तो बायां पैर आगे निकालना चाहिए। दाहिना चले तो दाहिना पैर आगे निकालना चाहिए। इससे कार्य सिद्ध होता है। ऐसा करने वाले व्यक्ति को पंचांग में विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

सोम सनीचर पुरुब न चालू। मंगल बुद्ध उत्तर दिसि कालू।
बिहफै दक्खिन करै पयाना। नहि समुझें ताको घर आना।।
बूध कहै मैं बड़ा सयाना। मोरे दिन जिन किह्यौ पयाना।।
कौड़ी से नहिं भेट कराऊं। छेम कुसल से घर पहुंचाऊं।।
अर्थात यदि यात्रा पर जाना हो तो सोमवार और शनिवार को पूर्व, मंगल और बुध को उत्तर दिशा में नहीं जाना चाहिए। यदि व्यक्ति बृहस्पति को दक्षिण दिशा की यात्रा करेगा तो उसका घर लौटना संदिग्ध होगा। बुधवार कहता है कि मैं बहुत चतुर हूं, व्यक्ति को मेरे दिन कहीं भी यात्रा नहीं करनी चाहिए; क्योंकि मैं उसको एक कौड़ी से भी भेंट नहीं होने दूंगा। क्षेम-कुशल से उसको घर पहुंचा दूंगा।


यह संकलन नवभारत टाइम्स का है--------------
( ( http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/dharti-ki-god/entry/%E0%A4%98-%E0%A4%98-%E0%A4%B5-%E0%A4%AD%E0%A4%A1-%E0%A4%A1%E0%A4%B0-%E0%A4%95-%E0%A4%95%E0%A4%B9-%E0%A4%B5%E0%A4%A4))


नारि सुहागिन जल घट लावै। दधि मछली जो सनमुख आवै।।
सनमुख धेनु पिआवै बाछा। यही सगुन हैं सबसे आछा।।
अर्थात यदि सौभाग्यवती स्त्री पानी से भरा घड़ा ला रही हो, कोई सामने से दही और मछली ला रहा हो या गाय बछड़े तो दूध पिला रही हो तो यह सबसे अच्छा शकुन होता है।



गवन समय जो स्वान। फरफराय दे कान।
एक सूद्र दो बैस असार। तीनि विप्र औ छत्री चार।।
सनमुख आवैं जो नौ नार। कहैं भड्डरी असुभ विचार।।
अर्थात भड्डरी कहते हैं कि यात्रा पर निकलते समय यदि घर के बाहर कुत्ता कान फटफटा रहा हो तो अशुभ होता है। यदि सामने से 1 शूद्र, 2 वैश्य, 3 ब्राह्मण, 4 क्षत्रिय और 9 स्त्रियां आ रही हों तो अशुभ होता है।



लोमा फिरि फिरि दरस दिखावे। बायें ते दहिने मृग आवै।।
भड्डर जोसी सगुन बतावै। सगरे काज सिद्ध होइ जावै।।
अर्थात यात्रा पर जाते समय यदि लोमड़ी बार-बार दिखाई पड़े, हिरण बाएं से दाहिने ओर निकल जाए तो व्यक्ति जिन कार्यों के लिए जा रहा होगा, वे सभी सिद्ध हो जाएंगे, ऐसा ज्योतिषी भड्डरी कहते हैं।

सूके सोमे बुधे बाम। यहि स्वर लंका जीते राम।।
जो स्वर चले सोई पग दीजै। काहे क पण्डित पत्रा लीजै।।
अर्थात शुक्रवार, सोमवार और बुधवार को बाएं स्वर में कार्य प्रारंभ करने से सफलता मिलती है। राम ने इसी स्वर में लंका जीती थी। यदि बायां स्वर चले तो बायां पैर आगे निकालना चाहिए। दाहिना चले तो दाहिना पैर आगे निकालना चाहिए। इससे कार्य सिद्ध होता है। ऐसा करने वाले व्यक्ति को पंचांग में विचार करने की आवश्यकता नहीं है।


"ज्यादा खाये जल्द मरि जाय, सुखी रहे जो थोड़ा खाय। रहे निरोगी जो कम खाये, बिगरे काम न जो गम खाये।" ऐसी अनेक कहावतों से हमें जिन्दगी के विभिन्न पहलुओं का सटीक मार्गदर्शन मिलता है। घर के बुजुर्ग ऐसी अनेक कहावतों से, समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन करते रहते हैं। कान्वेन्ट विद्यालयों में पढ़कर आयी नयी पीढ़ी इन कहावतों से अनभिज्ञ है, क्योंकि ये हिन्दी में है, हिन्दी में भी देहाती भाषा में, जिसे वे आसानी से नहीं समझ पाते। ये कहावतें, मैं विशेष रूप से नयी पीढ़ी के लिए लाया हूंँ, ताकि वे इन्हें पढ़कर इनकी विश्वसनियता को जांचे और न केवल अपने ज्ञान में वृद्धि करें, साथ ही  'हिन्दी' की महान 'साहित्यिक विरासत' पर भी गर्व कर सकें। पाठकजनों!! आज मैं आपके सम्मुख रख रहा हूं ‘‘घाघ व भड्डरी की कहावतें‘‘। शुद्ध देहाती हिन्दी भाषा में लिखी गयी इन कहावतों को हम आसानी से कंठस्थ करके अपने ज्ञान में वृद्धि कर सकते हैं। इस लेख में मैंने केवल "नीति व स्वास्थ्य" संबंधी कहावतों को ही शामिल किया है।

चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठ मे पंथ आषाढ़ में बेल।
सावन साग न भादों दही, क्वारें दूध न कातिक मही।
मगह न जारा पूष घना, माघेै मिश्री फागुन चना।
घाघ! कहते हैं, चैत (मार्च-अप्रेल) में गुड़, वैशाख (अप्रैल-मई) में तेल, जेठ (मई-जून) में यात्रा, आषाढ़ (जून-जौलाई) में बेल, सावन (जौलाई-अगस्त) में हरे साग, भादों (अगस्त-सितम्बर) में दही, क्वार (सितम्बर-अक्तूबर) में दूध, कार्तिक (अक्तूबर-नवम्बर) में मट्ठा, अगहन (नवम्बर-दिसम्बर) में जीरा, पूस (दिसम्बर-जनवरी) में धनियां, माघ (जनवरी-फरवरी) में मिश्री, फागुन (फरवरी-मार्च) में चने खाना हानिप्रद होता है।

जाको मारा चाहिए बिन मारे बिन घाव।
वाको  यही बताइये घुॅँइया  पूरी  खाव।।
घाघ! कहते हैं, यदि किसी से शत्रुता हो तो उसे अरबी की सब्जी व पूडी खाने की सलाह दो। इसके लगातार सेवन से उसे कब्ज की बीमारी हो जायेगी और वह शीघ्र ही मरने योग्य हो जायेगा।

पहिले जागै पहिले सौवे, जो वह सोचे वही होवै।
घाघ! कहते हैं, रात्रि मे जल्दी सोने से और प्रातःकाल जल्दी उठने से बुध्दि तीव्र होती है। यानि विचार शक्ति बढ़ जाती हैै।

प्रातःकाल खटिया से उठि के पिये तुरन्ते पानी।
वाके घर मा वैद ना आवे बात घाघ के  जानी।।
भड्डरी! लिखते हैं, प्रातः काल उठते ही, जल पीकर शौच जाने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक रहता है, उसे डाक्टर के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

सावन हरैं भादों चीता, क्वार मास गुड़ खाहू मीता।
कातिक मूली अगहन तेल, पूस में करे दूध सो मेल
माघ मास घी खिचरी खाय, फागुन उठि के प्रातः नहाय।
चैत मास में नीम सेवती, बैसाखहि में खाय बसमती।
जैठ मास जो दिन में सोवे, ताको जुर अषाढ़ में रोवे
भड्डरी! लिखते हैं, सावन में हरै का सेवन, भाद्रपद में चीता का सेवन, क्वार में गुड़, कार्तिक मास में मूली, अगहन में तेल, पूस में दूध, माघ में खिचड़ी, फाल्गुन में प्रातःकाल स्नान, चैत में नीम, वैशाख में चावल खाने और जेठ के महीने में दोपहर में सोने से स्वास्थ्य उत्तम रहता है, उसे ज्वर नहीं आता।

कांटा बुरा करील का, औ बदरी का घाम।
सौत बुरी है चून को, और साझे का काम।।
घाघ! कहते हैं, करील का कांटा, बदली की धूप, सौत चून की भी, और साझे का काम बुरा होता है।

बिन बेैलन खेेती करै, बिन भैयन के रार।
बिन महरारू घर करै, चैदह साख गवांँर।।
भड्डरी! लिखते हैं, जो मनुष्य बिना बैलों के खेती करता है, बिना भाइयों के झगड़ा या कोर्ट कचहरी करता है और बिना स्त्री के गृहस्थी का सुख पाना चाहता है, वह वज्र मूर्ख है।

ताका भैंसा गादरबैल, नारि कुलच्छनि बालक छैल।
इनसे बांचे चातुर लौग, राजहि त्याग करत हं जौग।।
घाघ! लिखते हैं, तिरछी दृष्टि से देखने वाला भैंसा, बैठने वाला बैल, कुलक्षणी स्त्री और विलासी पुत्र दुखदाई हैं। चतुर मनुष्य राज्य त्याग कर सन्यास लेना पसन्द करते हैं, परन्तु इनके साथ रहना पसन्द नहीं करते।

जाकी छाती न एकौ बार, उनसे सब रहियौ हुशियार।
घाघ! कहते हैं, जिस मनुष्य की छाती पर एक भी बाल नहीं हो, उससे सावधान रहना चाहिए। क्योंकि वह कठोर ह्दय, क्रोधी व कपटी हो सकता है। ‘‘मुख-सामुद्रिक‘‘ के ग्रन्थ भी घाघ की उपरोक्त बात की पुष्टि करते हैं।
खेती  पाती  बीनती,  और घोड़े की  तंग।
अपने हाथ संभारिये, लाख लोग हों संग।।
घाघ! कहते हैं, खेती, प्रार्थना पत्र, तथा घोड़े के तंग को अपने हाथ से ठीक करना चाहिए किसी दूसरे पर विश्वास नहीं करना चाहिए।

जबहि तबहि डंडै करै, ताल नहाय, ओस में परै।
दैव न मारै आपै मरैं।
भड्डरी! लिखते हैं, जो पुरूष कभी-कभी व्यायाम करता हैं, ताल में स्नान करता हैं और ओस में सोता है, उसे भगवान नहीं मरता, वह तो स्वयं मरने की तैयारी कर रहा है।

विप्र टहलुआ अजा धन और कन्या की बाढि़।
इतने से न धन घटे तो करैं बड़ेन सों रारि।।
घाघ! कहते हैं, ब्र्राह्मण को सेवक रखना, बकरियों का धन, अधिक कन्यायें उत्पन्न होने पर भी, यदि धन न घट सकें तो बड़े लोगों से झगड़ा मोल ले, धन अवश्य घट जायेगा।

औझा कमिया, वैद किसान। आडू बैल और खेत मसान।
भड्डरी! लिखते हैं, नौकरी करने वाला औझा, खेती का काम करने वाला वैद्य, बिना बधिया किया हुआ बैल और मरघट के पास का खेत हानिकारक है।

Sunday, April 5, 2015

भदोही में मिले बुद्ध कालीन अवशेष

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एंव पुरातत्व विभाग के शोध छात्रों की खोज 

उत्तर प्रदेश के भदोही एवं मिर्जापुर जिले की सीमा में स्थित अगियाबीर के प्राचीन टीले की खुदाई के दौरान उत्तर कृष्ण कालीन परिमार्जित व मृदभांड कालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एंव पुरातत्व विभाग के शोध छात्रों के दल की ओर से यह खुदाई की जा रही है।

विभाग के निदेशक डॉ. अशोक कुमार सिंह ने बताया कि यह स्थल मिर्जापुर-भदोही की सीमा में पड़ता है। खुदाई के दौरान यहां गौतम बुद्धकालीन 600 ईसा पूर्व के सभ्यता के अवशेष मिले हैं। मिप्ती के चमकीले प्राचीन वर्तन, मनिया और हड्डी के औजार शामिल हैं। यह वस्तुएं विकसित नगरीय सभ्यता से संबंधित श्रमिकों की खास बस्ती से हैं। अभी यह खुदाई जारी रहेगी।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पुरात्व विभाग के निदेशक डॉ. अशोक कुमार सिंह ने बताया कि यह अवशेष भदोही के द्वारिकापुर के कुछ दूरी पर मिले कुषाण कालीन सभ्यता के अवशेष से कुछ दूरी पर हैं, लेकिन यह स्थान मिर्जापुर जिले में पड़ता है।

सिंह ने बताया कि यह टीला बेहद प्राचीन है। खुदाई में मृदा के चमकीले वर्तन जिसमें थाली, कटोरा, हड्डी के औजार और मनिया मिली है। यह सभ्यता आज से तकरीबन 2500 साल पहले विकसित हुई थी। इसे गौतम बुद्ध काल भी कहते हैं। जबकि पुरातत्व की तकनीकी भाषा में इसे एनबीपी काल के नाम से जाना जाता है। खुदाई में कुशल कर्मकारों यानी श्रमिकों की बस्ती होने के प्रमाण मिले हैं।

इस तरह के अवशेष नगरीय सभ्यताओं के विकास में ही मिलते हैं। वाराणसी के राजघाट के सरायमोहना में भी खुदाई के दौरान इस प्रकार की वस्तुएं मिली थीं। यह तकरीबन 6०० ईसा पूर्व की एक खास नगरीय सभ्यता की पहचान है। यह बस्ती कुलीन सभ्यता से आस-पास विकसित होती हैं।

इन रिहायशी प्राचीन बस्तियों में कुशल श्रमिक और शिल्पकार रहते हैं। सिंह ने बताया कि वस्तुओं के निर्माण की तकनीक उस दौरान में आज से कहीं अधिक उन्नतशील और विकासित थी, क्योंकि वर्तनों के उपयोग में जिस मिप्ती का उपयोग किया गया है। उनकी चमक आज भी कायम है।

यह शोध का विषय है कि आज से 2500 साल पूर्व मिप्ती में वह कौन सा रसायन प्रयोग की किया जाता था, जिसकी चमक और जीवनकाल आज भी जस का तस है। इन वर्तनों को डिलक्स वेयर कहा जाता है। आधुनिक काल में जिस प्रकार बोन चाइना की चमक होती है उससे भी कई गुना अधिक इनकी चमक है।

खुदाई में मिली मिप्ती की थालियां, कटोरे आज भी गोल्डेन कलर की चमक बिखेर रहे हैं। प्राचीन सभ्यताओं के नगर आम तौर पर नदी सभ्यता के आसपास विकसित होते थे। जहां से व्यापार और विकास के साथ आवागमन की सुविधा उपलब्ध होती थी। यह स्थान भी गंगा के करीब है। मृद पात्रों को नष्ट नहीं किया जाता था।

इसका उपयोग तत्कालीन सभ्यता और समाज के कुलीन परिवारों की तरफ से किया जाता था। आम लोग इस तरह के मृद पात्रों का उपयोग नहीं करते थे, क्योंकि उनकी बनावट और निर्माण पर अधिक खर्च आता था। इसका उपयोग तत्कालीन नगरीय सभ्यता में आम आदमी नहीं कर सकता था।
डॉ. सिंह ने बताया कि अभी यह खुदाई जारी रहेगी। पुरातत्व विभाग के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है।
साभार -http://www.livehindustan.com/news/national/article1-Uttar-Pradesh-Bhadohi-Mirzapur-district-culture-relics-475835.html

Thursday, February 19, 2015

वलसाड़ में दो गैरपारंपरिक हनुमान व शिवमंदिर, बगल में गदा रखे हनुमान और शयन मुद्रा में भगवान शिव का शिलाखंड शिवलिंग

  आखिर में यह भी पढ़ें----इतिहास बजरंगबली का, शोध और मिथकीय इतिहास

   वलसाड़ में दो गैरपारंपरिक हनुमान व शिवमंदिर, बगल में गदा रखे हनुमान और शयन मुद्रा में भगवान शिव का शिलाखंड शिवलिंग
पिछले दिनों ( 6 फरवरी से 13 फरवरी के मध्य ) मैं अपने भांजे सोनू ( नीरज कुमार सिंह) की शादी में गुजरात के वापी शहर गया था। वापी गुजरात का औद्योगिक शहर है जो अरब सागर के किनारे केंद्र शासित प्रदेश दमन का जुड़वा शहर है। वापी गुजरात के वलसाड़ जिले के अंतर्गत आता है। मैं यह भौगोलिक विवरण इसलिए दे रहा हूं ताकि जब मैं वहां के कुछ ऐतिहासिक स्थलों के बारे में बताऊं तो आपको यह जानने में आसानी हो कि वह स्थल कहां और कैसा है। हो सकता है कि आप भी वहां गए हों।
   शादी से लौटकर मैं वापी में ही अपने दूसरे भांजे डब्बू ( अजीत सिंह ) के घर गया। कई सालों से वापी मैं अपने जीजाजी रामजन्म सिंह के घर जाता रहा हूं मगर न तो वलसाड़ के कुछ ऐतिहासिक स्थलों पर जा पाया और नही अपने दूसरे भांजे अजीत के यहां गया। हालांकि पहले के दौरे में दमन में अरब सागर के किनारे स्थित पुर्तगालियों के किले और धरमपुर के ऐतिहासिक शिवमंदिर को देखा। पुर्तगाली ज्यादातर तो चले गए हैं मगर अब भी भारी तादाद में पुर्तगाली परिवार दमन में मौजूद हैं। स्थानीय परिवेश से संतुलन बनाए हुए हैं। खपड़ैल व लकड़ी के विशिष्ट किस्म के इनके घरों को देखने से लगता है कि इस शहर की आबोहवा कभी पुर्तगाली थी। केंद्र सरकार और दमन प्रशासन ने शहर की इस खिचड़ी विशिष्टता को बनाए रखा है। भांजी रागिनी के सौजन्य से मैंने इन जगहों को देखा था। मगर इन सबमें ऐसा ज्यादा कुछ विशेष नहीं दिखा जिसे विस्तार से आपको बताना चाहिए था। मगर इस बार वलसाड़ के दो स्थलों को दिखाने जब अजीत ले गया तभी मैंने समझ लिया कि इनके बारे में लोगों को बताना चाहिए। मिथकीय इतिहास की यह भी एक जरूरी कड़ी लगी मुझे। इस संदर्भ में मैं वलसाड़ स्थित पारनेरा पार्डी का मारुतिधाम मंदिर और तड़केश्वर महादेव मंदिर की चर्चा करूंगा। तड़केश्वर महादेव तो ऐसा मंदिर है, जिसके बारे तरह-तरह के किस्से प्रचलित हैं। दोनों मंदिर पारंपरिक हनुमान मंदिर और शिवमंदिरों से बिल्कुल अलग हैं।



  पारनेरा पार्डी का मारुतिधाम मंदिर साधारणत: एक आम हनुमान मंदिर लगता है मगर जब इस मंदिर में दाखिल हुआ तब इसकी विशिष्टता समझ में आई। काफी बड़े परिसर में फैले इस मंदिर में पुजारियों का तामझाम कम था। हालाकि यहां जो पुजारी नियुक्त है वह यहां हमेशा उपलब्ध नहीं रहता। इस मंदिर की खासियत बजरंगबली की मूर्ति में है। साधारणत: हनुमान मंदिरों में बजरंगबली गदा अपने साथ रखते हैं। मगर यहां उनकी गदा बगल में रखी हुई है। यह मुझे विचित्र लगा। ऐसा कोई प्रसंग भी मुझे नहीं मालूम जिसमें बजरंगबली को ऐसी मुद्रा में होने की बात कही गई हो। दीवार में पत्थर पर उकेरी गई इस मूर्ति में गदा दाहिनी तरफ रखी हुई है। यहां मैं मंदिर व इस मंदिर में स्थित इस मूर्ति दोनों का फोटो दे रहा हूं। बगल में गदा रखी हुई हनुमान की इस मूर्ति का आप भी अवलोकन करें।



   दूसरा है तड़केश्वर महादेव मंदिर। इस मंदिर के बारे दो कहानियां प्रचलित हैं। पहली कथा उस शिवलिंग के बारे में है, जो शिवलिंग जैसा नहीं बल्कि एक शिलाखंड है और उसे भगवान की शयन मुद्रा की मूर्ति बताई जाती है। ज्यादातर शिवमंदिरों में या तो भगवान शिव या शिव-पार्वती की प्रतिमाएं होती हैं। अधिकतर शिवमंदिरों में प्रतिमाओं की जगह शिवलिंग की स्थापनी रहती है। इस मायने में यह मंदिर बहुत ही विशिष्ट है। मैंने ऐसा कोई शिवमंदिर नहीं देखा जहां शिवलिंग की जगह शयनमुद्रा में एक शिलाखंड है। इसशिलाखंड को एक सर्प आकृति घेरे हुए है। कहा जाता है दूसरे समुदाय के 50-60 लोग इस शिलाखंड को कहीं और ले जाना चाहते थे मगर वे इस शिलाखंड को वे लोग उठा नहीं पााए। कथा यह भी है कि इस शिलाखंड को ले जाने की कोशिश करने वाले वहीं जलकर भस्म हो गए। इन भस्म हुए लोगों की भी मजार मंदिर से थोड़ी दूर पर बनी हुई है।
 एक और कथा यह है कि काफी दिनों बाद एक भक्त को भगवान ने दर्शन देकर मंदिर बनाने का आदेश दिया। उसने मंदिर बनवाकर इसमें इस शिलाखंड की स्थापना करवाई। मगर मंदिर बनने के साथ ही इसकी छत उड़ गई। कई बार छत बनवाने का प्रयास हुआ मगर हर बार छत उड़ जाती थी। तब भगवान ने उस भक्त को फिर स्वप्न दिया किया कि छत मत बनाओ। मुझे सुबह की पहली चाहिए। तब से इस शिवमंदिर की छत खुली हुई है। इनका नाम भी इसी आधार पर तड़केश्वर महादेव पड़ा। यानी तड़के सुबह की धूप वाले महादेव। मंदिर इस हिसाब से बना है कि सूरज की पहली किरण महादेव के शयनमुद्रा शिलाखंड पर पड़ती है। यह दोनों गैरपारंपरिक मंदिर देशभर के तमाम हनुमान व शिवमंदिरों से अलग हैं। यहां मैं तड़केश्वर महादेव मंदिर और शिलाखंड वाले शिवलिंग दोनों का चित्र दे रहा हूं। वहां फोटो खींचना मना है मगर इस आदेश का उल्लंघन करके मैंने फोटो खींचा। इसके लिए मैं मंदिर प्रबंधन से क्षमा चाहूंगा। मेरा इतिहासकार मन धैर्य खो बैठा और लोगों को इस मंदिर से परिचित कराने के लिए फोटो खींच लिया। मंदिर के इतिहास के बारे में दरवाजे पर गुजराती में लिखा हुआ है। आप भी अगर वलसाड़ जाएं तो इन दोनों मंदिरों को अवश्य देखें। प्रसंगवश मैंने यहां हनुमान   जी के प्रादुर्भाव, महत्ता व इतिहास के बारे में दिया है। कृपया उसका भी अवलोकन करें। इसे मैंने वेबदुनिया से साभार लिया है।

इतिहास बजरंगबली का, शोध और मिथकीय इतिहास  
एक वेबसाइट का दावा है कि प्रत्येक 41 साल बाद हनुमानजी श्रीलंका के जंगलों में प्राचीनकाल से रह रहे आदिवासियों से मिलने के लिए आते हैं। वेबसाइट के मुताबिक श्रीलंका के जंगलों में कुछ ऐसे कबीलाई लोगों का पता चला है जिनसे मिलने हनुमानजी आते हैं।
हनुमानजी इस कलियुग के अंत तक अपने शरीर में ही रहेंगे। वे आज भी धरती पर विचरण करते हैं। वे कहां रहते हैं, कब-कब व कहां-कहां प्रकट होते हैं और उनके दर्शन कैसे और किस तरह किए जा सकते हैं।

चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा॥
संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥
अंतकाल रघुवरपुर जाई, जहां जन्म हरिभक्त कहाई॥
और देवता चित्त ना धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई॥

चारों युग में हनुमानजी के ही परताप से जगत में उजियारा है। हनुमान को छोड़कर और किसी देवी-देवता में चित्त धरने की कोई आवश्यकता नहीं है। द्वंद्व में रहने वाले का हनुमानजी सहयोग नहीं करते हैं। हनुमानजी हमारे बीच इस धरती पर सशरीर मौजूद हैं। किसी भी व्यक्ति को जीवन में श्रीराम की कृपा के बिना कोई भी सुख-सुविधा प्राप्त नहीं हो सकती है। श्रीराम की कृपा प्राप्ति के लिए हमें हनुमानजी को प्रसन्न करना चाहिए। उनकी आज्ञा के बिना कोई भी श्रीराम तक पहुंच नहीं सकता। हनुमानजी की शरण में जाने से सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त होती हैं। इसके साथ ही जब हनुमानजी हमारे रक्षक हैं तो हमें किसी भी अन्य देवी, देवता, बाबा, साधु, ज्योतिष आदि की बातों में भटकने की जरूरत नहीं।

युवाओं के आइडल बजरंग बली

हनुमान इस कलियुग में सबसे ज्यादा जाग्रत और साक्षात हैं। कलियुग में हनुमानजी की भक्ति ही लोगों को दुख और संकट से बचाने में सक्षम है। बहुत से लोग किसी बाबा, देवी-देवता, ज्योतिष और तांत्रिकों के चक्कर में भटकते रहते हैं और अंतत: वे अपना जीवन नष्ट ही कर लेते हैं... क्योंकि वे हनुमान की भक्ति-शक्ति को नहीं पहचानते। ऐसे भटके हुए लोगों का राम ही भला करे।

क्यों प्रमुख देव हैं हनुमान : हनुमानजी 4 कारणों से सभी देवताओं में श्रेष्ठ हैं। पहला यह कि वे रीयल सुपरमैन हैं, दूसरा यह कि वे पॉवरफुल होने के बावजूद ईश्वर के प्रति समर्पित हैं, तीसरा यह कि वे अपने भक्तों की सहायता तुरंत ही करते हैं और चौथा यह कि वे आज भी सशरीर हैं। इस ब्रह्मांड में ईश्वर के बाद यदि कोई एक शक्ति है तो वह है हनुमानजी। महावीर विक्रम बजरंगबली के समक्ष किसी भी प्रकार की मायावी शक्ति ठहर नहीं सकती।

क्या हनुमानजी बंदर थे? : हनुमान का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। नए शोधानुसार प्रभु श्रीराम का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व अयोध्या में हुआ था। श्रीराम के जन्म के पूर्व हनुमानजी का जन्म हुआ था अर्थात आज (फरवरी 2015) से लगभग 7129 वर्ष पूर्व हनुमानजी का जन्म हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम कपि था।
हनुमानजी के संबंध में यह प्रश्न प्राय: सर्वत्र उठता है कि 'क्या हनुमानजी बंदर थे?' इसके लिए कुछ लोग रामायणादि ग्रंथों में लिखे हनुमानजी और उनके सजातीय बांधव सुग्रीव अंगदादि के नाम के साथ 'वानर, कपि, शाखामृग, प्लवंगम' आदि विशेषण पढ़कर उनके बंदर प्रजाति का होने का उदाहरण देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि उनकी पुच्छ, लांगूल, बाल्धी और लाम से लंकादहन का प्रत्यक्ष चमत्कार इसका प्रमाण है। यह ‍भी कि उनकी सभी जगह सपुच्छ प्रतिमाएं देखकर उनके पशु या बंदर जैसा होना सिद्ध होता है। रामायण में वाल्मीकिजी ने जहां उन्हें विशिष्ट पंडित, राजनीति में धुरंधर और वीर-शिरोमणि प्रकट किया है, वहीं उनको लोमश ओर पुच्छधारी भी शतश: प्रमाणों में व्यक्त किया है।

दरअसल, आज से 9 लाख वर्ष पूर्व मानवों की एक ऐसी जाति थी, जो मुख और पूंछ से वानर समान नजर आती थी, लेकिन उस जाति की बुद्धिमत्ता और शक्ति मानवों से कहीं ज्यादा थी। अब वह जाति भारत में तो दुर्भाग्यवश विनष्ट हो गई, परंतु बाली द्वीप में अब भी पुच्छधारी जंगली मनुष्यों का अस्तित्व विद्यमान है जिनकी पूछ प्राय: 6 इंच के लगभग अवशिष्ट रह गई है। ये सभी पुरातत्ववेत्ता अनुसंधायक एकमत से स्वीकार करते हैं कि पुराकालीन बहुत से प्राणियों की नस्ल अब सर्वथा समाप्त हो चुकी है।

हनुमानजी का जन्म स्‍थान कहां है, जानिए

पहला जन्म स्थान : हनुमानजी की माता का नाम अंजना है, जो अपने पूर्व जन्म में एक अप्सरा थीं। हनुमानजी के पिता का नाम केसरी है, जो वानर जाति के थे। माता-पिता के कारण हनुमानजी को आंजनेय और केसरीनंदन कहा जाता है। केसरीजी को कपिराज कहा जाता था, क्योंकि वे वानरों की कपि नाम की जाति से थे। केसरीजी कपि क्षेत्र के राजा थे। कपिस्थल कुरु साम्राज्य का एक प्रमुख भाग था। हरियाणा का कैथल पहले करनाल जिले का भाग था। यह कैथल ही पहले कपिस्थल था। कुछ लोग मानते हैं कि यही हनुमानजी का जन्म स्थान है।
दूसरा जन्म स्थान : गुजरात के डांग जिले के आदिवासियों की मान्यता अनुसार डांग जिले के अंजना पर्वत में स्थित अंजनी गुफा में ही हनुमानजी का जन्म हुआ था।

तीसरा स्थान : कुछ लोग मानते हैं कि हनुमानजी का जन्म झारखंड राज्य के उग्रवाद प्रभावित क्षे‍त्र गुमला जिला मुख्‍यालय से 20 किलोमीटर दूर आंजन गांव की एक गुफा में हुआ था।

अंत में आखिर कहां जन्म लिया? : 'पंपासरोवर' अथवा 'पंपासर' होस्पेट तालुका, मैसूर का एक पौराणिक स्थान है। हंपी के निकट बसे हुए ग्राम अनेगुंदी को रामायणकालीन किष्किंधा माना जाता है। तुंगभद्रा नदी को पार करने पर अनेगुंदी जाते समय मुख्य मार्ग से कुछ हटकर बाईं ओर पश्चिम दिशा में, पंपासरोवर स्थित है। यहां स्थित एक पर्वत में एक गुफा भी है जिसे रामभक्तनी शबरी के नाम पर 'शबरी गुफा' कहते हैं। इसी के निकट शबरी के गुरु मतंग ऋषि के नाम पर प्रसिद्ध 'मतंगवन' था। हंपी में ऋष्यमूक के राम मंदिर के पास स्थित पहाड़ी आज भी मतंग पर्वत के नाम से जानी जाती है। कहते हैं कि मतंग ऋषि के आश्रम में ही हनुमानजी का जन्म हआ था। मतंग नाम की आदिवासी जाति से हनुमानजी का गहरा संबंध रहा है

क्यों आज भी जीवित हैं हनुमानजी?
 हनुमानजी इस कलयुग के अंत तक अपने शरीर में ही रहेंगे। वे आज भी धरती पर विचरण करते हैं। हनुमानजी को धर्म की रक्षा के लिए अमरता का वरदान मिला था। इस वरदान के कारण आज भी हनुमानजी जीवित हैं और वे भगवान के भक्तों तथा धर्म की रक्षा में लगे हुए हैं। जब कल्कि रूप में भगवान विष्णु अवतार लेंगे तब हनुमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, विश्वामित्र, विभीषण और राजा बलि सार्वजनिक रूप से प्रकट हो जाएंगे।
कलयुग में श्रीराम का नाम लेने वाले और हनुमानजी की भक्ति करने वाले ही सुरक्षित रह सकते हैं। हनुमानजी अपार बलशाली और वीर हैं और उनका कोई सानी नहीं है। धर्म की स्थापना और रक्षा का कार्य 4 लोगों के हाथों में है- दुर्गा, भैरव, हनुमान और कृष्ण।

चारों जुग परताप तुम्हारा : लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम उन्हें युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को कृतज्ञतास्वरूप उपहार देते हैं तो हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं- यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले। तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।

अर्थात : 'हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।' इस पर श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं- 'एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:। चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा। लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।'

अर्थात् : 'हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।'

चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा।।

1. त्रेतायुग में हनुमान : त्रेतायुग में तो पवनपुत्र हनुमान ने केसरीनंदन के रूप में जन्म लिया और वे राम के भक्त बनकर उनके साथ छाया की तरह रहे। वाल्मीकि 'रामायण' में हनुमानजी के संपूर्ण चरित्र का उल्लेख मिलता है।

2. द्वापर में हनुमान : द्वापर युग में हनुमानजी भीम की परीक्षा लेते हैं। इसका बड़ा ही सुंदर प्रसंग है। महाभारत में प्रसंग है कि भीम उनकी पूंछ को मार्ग से हटाने के लिए कहते हैं तो हनुमानजी कहते हैं कि तुम ही हटा लो, लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूंछ नहीं हटा पाते हैं। इस तरह एक बार हनुमानजी के माध्यम से श्रीकृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र और गरूड़ की शक्ति के अभिमान का मान-मर्दन करते हैं।

3. कलयुग में हनुमान : यदि मनुष्य पूर्ण श्रद्घा और विश्वास से हनुमानजी का आश्रय ग्रहण कर लें तो फिर तुलसीदासजी की भांति उसे भी हनुमान और राम-दर्शन होने में देर नहीं लगेगी। कलियुग में हनुमानजी ने अपने भ‍क्तों को उनके होने का आभास कराया है।
ये वचन हनुमानजी ने ही तुलसीदासजी से कहे थे- 'चित्रकूट के घाट पै, भई संतन के भीर। तुलसीदास चंदन घिसै, तिलक देत रघुबीर।।'

कहां रहते हैं हनुमानजी? : हनुमानजी कलियुग में गंधमादन पर्वत पर निवास करते हैं, ऐसा श्रीमद् भागवत में वर्णन आता है। उल्लेखनीय है कि अपने अज्ञातवास के समय हिमवंत पार करके पांडव गंधमादन के पास पहुंचे थे। एक बार भीम सहस्रदल कमल लेने के लिए गंधमादन पर्वत के वन में पहुंच गए थे, जहां उन्होंने हनुमान को लेटे देखा और फिर हनुमान ने भीम का घमंड चूर कर दिया था।

''यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलि।
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तक॥''

अर्थात : कलियुग में जहां-जहां भगवान श्रीराम की कथा-कीर्तन इत्यादि होते हैं, वहां हनुमानजी गुप्त रूप से विराजमान रहते हैं। सीताजी के वचनों के अनुसार- 'अजर-अमर गुन निधि सुत होऊ।। करहु बहुत रघुनायक छोऊ।।'

गंधमादन पर्वत क्षेत्र और वन : गंधमादन पर्वत का उल्लेख कई पौराणिक हिन्दू धर्मग्रंथों में हुआ है। महाभारत की पुरा-कथाओं में भी गंधमादन पर्वत का वर्णन प्रमुखता से आता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि यहां के विशालकाय पर्वतमाला और वन क्षेत्र में देवता रमण करते हैं। पर्वतों में श्रेष्ठ इस पर्वत पर कश्यप ऋषि ने भी तपस्या की थी। गंधमादन पर्वत के शिखर पर किसी भी वाहन से नहीं पहुंचा जा सकता। गंधमादन में ऋषि, सिद्ध, चारण, विद्याधर, देवता, गंधर्व, अप्सराएं और किन्नर निवास करते हैं। वे सब यहां निर्भीक विचरण करते हैं।

वर्तमान में कहां है गंधमादन पर्वत? : इसी नाम से एक और पर्वत रामेश्वरम के पास भी स्थित है, जहां से हनुमानजी ने समुद्र पार करने के लिए छलांग लगाई थी, लेकिन हम उस पर्वत की नहीं बात कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं हिमालय के कैलाश पर्वत के उत्तर में (दक्षिण में केदार पर्वत है) स्थित गंधमादन पर्वत की। यह पर्वत कुबेर के राज्यक्षेत्र में था। सुमेरू पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित गजदंत पर्वतों में से एक को उस काल में गंधमादन पर्वत कहा जाता था। आज यह क्षेत्र तिब्बत के इलाके में है।

पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप के इलावृत्त खंड और भद्राश्व खंड के बीच में गंधमादन पर्वत कहा गया है, जो अपने सुगंधित वनों के लिए प्रसिद्ध था।

कैसे पहुंचे गंधमादन : पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप के इलावृत्त खंड और भद्राश्व खंड के बीच में गंधमादन पर्वत कहा गया है, जो अपने सुगंधित वनों के लिए प्रसिद्ध था। इस क्षेत्र में दो रास्तों से जाया जा सकता है। पहला नेपाल के रास्ते मानसरोवर से आगे और दूसरा भूटान की पहाड़ियों से आगे और तीसरा अरुणाचल के रास्ते चीन होते हुए। संभवत महाभारत काल में अर्जुन ने असम के एक तीर्थ में जब हनुमानजी से भेंट की थी, तो हनुमानजी भूटान या अरुणाचल के रास्ते ही असम तीर्थ में आए होंगे। गौरतलब है कि एक गंधमादन पर्वत उड़िसा में भी बताया जाता है लेकिन हम उस पर्वत की बात नहीं कर रहे हैं।

मकरध्वज था हनुमानजी का पुत्र : अहिरावण के सेवक मकरध्वज थे। मकरध्वज को अहिरावण ने पाताल पुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया था।
पवनपुत्र हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे तब कैसे कोई उनका पुत्र हो सकता है? वाल्मीकि रामायण के अनुसार उनके पुत्र की कथा हनुमानजी के लंकादहन से जुड़ी है।
हनुमानजी की ही तरह मकरध्वज भी वीर, प्रतापी, पराक्रमी और महाबली थे। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल लोक का अधिपति नियुक्त करते हुए उसे धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी थी।

क्यों सिन्दूर चढ़ता है हनुमानजी को? : हनुमानजी को सिन्दूर बहुत ही प्रिय है। इसके पीछे ये कारण बताया जाता है कि एक दिन भगवान हनुमानजी माता सीता के कक्ष में पहुंचे। उन्होंने देखा माता लाल रंग की कोई चीज मांग में सजा रही है। हनुमानजी ने जब माता से पूछा, तब माता ने कहा कि इसे लगाने से प्रभु राम की आयु बढ़ती है और प्रभु का स्नेह प्राप्त होता है।

तब हनुमानजी ने सोचा जब माता इतना-सा सिन्दूर लगाकर प्रभु का इतना स्नेह प्राप्त कर रही है तो अगर मैं इनसे ज्यादा लगाऊं तो मुझे प्रभु का स्नेह, प्यार और ज्यादा प्राप्त होगा और प्रभु की आयु भी लंबी होगी। ये सोचकर उन्होंने अपने सारे शरीर में सिन्दूर का लेप लगा लिया। इसलिए कहा जाता है कि भगवान हनुमानजी को सिन्दूर लगाना बहुत पसंद है।

पहली हनुमान स्तुति : हनुमानजी की प्रार्थना में तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमान बहुक आदि अनेक स्तोत्र लिखे, लेकिन हनुमानजी की पहली स्तुति किसने की थी? तुलसीदासजी के पहले भी कई संतों और साधुओं ने हनुमानजी की श्रद्धा में स्तुति लिखी है। लेकिन क्या आप जानते हैं सबसे पहले हनुमानजी की स्तुति किसने की थी?

जब हनुमानजी लंका का दहन कर रहे थे तब उन्होंने अशोक वाटिका को इसलिए नहीं जलाया, क्योंकि वहां सीताजी को रखा गया था। दूसरी ओर उन्होंने विभीषण का भवन इसलिए नहीं जलाया, क्योंकि विभीषण के भवन के द्वार पर तुलसी का पौधा लगा था। भगवान विष्णु का पावन चिह्न शंख, चक्र और गदा भी बना हुआ था। सबसे सुखद तो यह कि उनके घर के ऊपर 'राम' नाम अंकित था। यह देखकर हनुमानजी ने उनके भवन को नहीं जलाया।

विभीषण के शरण याचना करने पर सुग्रीव ने श्रीराम से उसे शत्रु का भाई व दुष्ट बताकर उनके प्रति आशंका प्रकट की और उसे पकड़कर दंड देने का सुझाव दिया। हनुमानजी ने उन्हें दुष्ट की बजाय शिष्ट बताकर शरणागति देने की वकालत की। इस पर श्रीरामजी ने विभीषण को शरणागति न देने के सुग्रीव के प्रस्ताव को अनुचित बताया और हनुमानजी से कहा कि आपका विभीषण को शरण देना तो ठीक है किंतु उसे शिष्ट समझना ठीक नहीं है।


इस पर श्री हनुमानजी ने कहा कि तुम लोग विभीषण को ही देखकर अपना विचार प्रकट कर रहे हो मेरी ओर से भी तो देखो, मैं क्यों और क्या चाहता हूं...। फिर कुछ देर हनुमानजी ने रुककर कहा- जो एक बार विनीत भाव से मेरी शरण की याचना करता है और कहता है- 'मैं तेरा हूं, उसे मैं अभयदान प्रदान कर देता हूं। यह मेरा व्रत है इसलिए विभीषण को अवश्य शरण दी जानी चाहिए।'

इंद्रा‍दि देवताओं के बाद धरती पर सर्वप्रथम विभीषण ने ही हनुमानजी की शरण लेकर उनकी स्तुति की थी। विभीषण को भी हनुमानजी की तरह चिरंजीवी होने का वरदान मिला है। वे भी आज सशरीर जीवित हैं। विभीषण ने हनुमानजी की स्तुति में एक बहुत ही अद्भुत और अचूक स्तोत्र की रचना की है। विभीषण द्वारा रचित इस स्तोत्र को 'हनुमान वडवानल स्तोत्र कहते हैं।

सब सुख लहे तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डरना।।

हनुमान की शरण में भयमुक्त जीवन : हनुमानजी ने सबसे पहले सुग्रीव को बाली से बचाया और सुग्रीव को श्रीराम से मिलाया। फिर उन्होंने विभीषण को रावण से बचाया और उनको राम से मिलाया। हनुमानजी की कृपा से ही दोनों को ही भयमुक्त जीवन और राजपद मिला। इसी तरह हनुमानजी ने अपने जीवन में कई राक्षसों और साधु-संतों को भयमुक्त और जीवनमुक्त किया है।

हनुमानजी की पत्नी का नाम : क्या अपने कभी सुना है कि हनुमानजी का विवाह भी हुआ था? आज तक यह बात लोगों से छिपी रही, क्योंकि लोग हिन्दू शास्त्र नहीं पढ़ते और जो पंडित या आचार्य शास्त्र पढ़ते हैं वे ऐसी बातों का जिक्र नहीं करते हैं लेकिन आज हम आपको बता रहे हैं हनुमानजी का एक ऐसा सच जिसको जानकर आप रह जाएंगे हैरान...

आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में एक मंदिर ऐसा विद्यमान है, जो प्रमाण है हनुमानजी के विवाह का। इस मंदिर में हनुमानजी की प्रतिमा के साथ उनकी पत्नी की प्रतिमा भी विराजमान है। इस मंदिर के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। माना जाता है कि हनुमानजी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद पति-पत्नी के बीच चल रहे सारे विवाद समाप्त हो जाते हैं। उनके दर्शन के बाद जो भी विवाद की शुरुआत करता है, उसका बुरा होता है।

हनुमानजी की पत्नी का नाम सुवर्चला था। वैसे तो हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी हैं और आज भी वे ब्रह्मचर्य के व्रत में ही हैं, विवाह करने का मतलब यह नहीं कि वे ब्रह्मचारी नहीं रहे। कहा जाता है कि पराशर संहिता में हनुमानजी का किसी खास परिस्थिति में विवाह होने का जिक्र है। कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन में बंधना पड़ा।

इस संबंध में एक कथा है कि हनुमानजी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था। हनुमानजी भगवान सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमानजी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ-साथ उड़ना पड़ता था और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। लेकिन हनुमानजी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया।

कुल 9 तरह की विद्याओं में से हनुमानजी को उनके गुरु ने 5 तरह की विद्याएं तो सिखा दीं, लेकिन बची 4 तरह की विद्याएं और ज्ञान ऐसे थे, जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे। हनुमानजी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वे मानने को राजी नहीं थे। इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वे धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखा सकते थे। ऐसी स्थिति में सूर्यदेव ने हनुमानजी को विवाह की सलाह दी।

अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमानजी ने विवाह करने की सोची। लेकिन हनुमानजी के लिए वधू कौन हो और कहां से वह मिलेगी? इसे लेकर सभी सोच में पड़ गए। ऐसे में सूर्यदेव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमानजी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया। इसके बाद हनुमानजी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई। इस तरह हनुमानजी भले ही शादी के बंधन में बंध गए हो, लेकिन शारीरिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।

एक वेबसाइट का दावा है कि प्रत्येक 41 साल बाद हनुमानजी श्रीलंका के जंगलों में प्राचीनकाल से रह रहे आदिवासियों से मिलने के लिए आते हैं। वेबसाइट के मुताबिक श्रीलंका के जंगलों में कुछ ऐसे कबीलाई लोगों का पता चला है जिनसे मिलने हनुमानजी आते हैं।

इन कबीलाई लोगों पर अध्ययन करने वाले आध्यात्मिक संगठन 'सेतु' के अनुसार पिछले साल ही हनुमानजी इन कबीलाई लोगों से मिलने आए थे। अब हनुमानजी 41 साल बाद आएंगे। इन कबीलाई या आदिवासी समूह के लोगों को 'मातंग' नाम दिया गया है। उल्लेखनीय है कि कर्नाटक में पंपा सरोवर के पास मातंग ऋषि का आश्रम है, जहां हनुमानजी का जन्म हुआ था।

वेबसाइट सेतु एशिया ने दावा किया है कि 27 मई 2014 को हनुमानजी श्रीलंका में मातंग के साथ थे। सेतु के अनुसार कबीले का इतिहास रामायणकाल से जुड़ा है। कहा जाता है कि भगवान राम के स्वर्ग चले जाने के बाद हनुमानजी दक्षिण भारत के जंगलों में लौट आए थे और फिर समुद्र पार कर श्रीलंका के जंगलों में रहने लगे। जब तक पवनपुत्र हनुमान श्रीलंका के जंगलों में रहे, वहां के कबीलाई लोगों ने उनकी बहुत सेवा की।

जब हनुमानजी वहां से जाने लगे तब उन्होंने वादा किया कि वे हर 41 साल बाद आकर वहां के कबीले की पीढ़ियों को ब्रह्मज्ञान देंगे। कबीले का मुखिया हनुमानजी के साथ की बातचीत को एक लॉग बुक में दर्ज कराता है। 'सेतु' नामक संगठन इस लॉग बुक का अध्ययन कर उसका खुलासा करने का दावा करता है।

हनुमान दर्शन और कृपा : हनुमानजी बहुत ही जल्द प्रसन्न होने वाले देवता हैं। उनकी कृपा आप पर निरंतर बनी रहे इसके लिए पहली शर्त यह है कि आप मन, वचन और कर्म से पवित्र रहें अर्थात कभी भी झूठ न बोलें, किसी भी प्रकार का नशा न करें, मांस न खाएं और अपने परिवार के सदस्यों से प्रेमपूर्ण संबंध बनाए रखें। इसके अलावा प्रतिदिन श्रीहनुमान चालीसा या श्रीहनुमान वडवानल स्तोत्र का पाठ करें। मंगलवार और शनिवार के दिन हनुमानजी को चोला चढ़ाएं। इस तरह ये कार्य करते हुए नीचे लिखे उपाय करें...

हनुमान जयंती या महीने के किसी भी मंगलवार के दिन सुबह उठकर स्नान कर साफ कपड़े पहनें। 1 लोटा जल लेकर हनुमानजी के मंदिर में जाएं और उस जल से हनुमानजी की मूर्ति को स्नान कराएं।

पहले दिन एक दाना साबुत उड़द का हनुमानजी के सिर पर रखकर 11 परिक्रमा करें और मन ही मन अपनी मनोकामना हनुमानजी को कहें, फिर वह उड़द का दाना लेकर घर लौट आएं तथा उसे अलग रख दें।

दूसरे दिन से 1-1 उड़द का दाना रोज बढ़ाते रहें तथा लगातार यही प्रक्रिया करते रहें। 41 दिन 41 दाने रखने के बाद 42वें दिन से 1-1 दाना कम करते रहें। जैसे 42वें दिन 40, 43वें दिन 39 और 81वें दिन 1 दाना। 81वें दिन का यह अनुष्ठान पूर्ण होने पर उसी दिन, रात में श्रीहनुमानजी स्वप्न में दर्शन देकर साधक को मनोकामना पूर्ति का आशीर्वाद देते हैं। इस पूरी विधि के दौरान जितने भी उड़द के दाने आपने हनुमानजी को चढ़ाए हैं, उन्हें नदी में प्रवाहित कर दें। ( अनिरुद्ध जोशी 'शतायु' ) http://hindi.webdunia.com/sanatan-dharma-mahapurush/mystery-of-lord-hanuman-115021200016_1.html

Sunday, January 4, 2015

आर्यों ने ही बसाया था हड़प्पा सभ्यता को - रामशरण शर्मा

 हड़प्पा सभ्यता आर्यों की पूर्ववर्ती सभ्यता - संजीव कुमार सिंह

   भारत में आर्य बाहर से आए या फिर स्वदेशी थे, इस बात पर बरसों से जारी चर्चा के बीच भारत के कई इतिहासकार मानते हैं कि भारत में आर्यों का आगमन 1500 ईसा पूर्व मध्य एशिया से हुआ।
प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत का इतिहास’ में लिखा है कि आर्य हिंद-यूरोपीय परिवार की भाषाएं बोलते थे, जो अपने परिवर्तित रूपों में आज भी समूचे यूरोप और ईरान में व भारतीय उपमहादेश के अधिकतर भागों में बोली जाती हैं। लगभग 1600 ईसा पूर्व के कस्साइट अभिलेखों और सीरिया में मिले अभिलेखों में आर्य नामों का उल्लेख है। उनसे पश्चिम एशिया में आर्य भाषा-भाषियों की उपस्थिति का पता चलता है।
राष्ट्रीय संग्रहालय के पुरातत्त्ववेत्ता और प्रकाशन विभाग के प्रभारी संजीव कुमार सिंह ने बताया कि आर्य मूल रूप से भारतीय हैं। वे हड़प्पा सभ्यता को आर्यों की पूर्ववर्ती सभ्यता मानते हैंं। सिंह ने बताया कि आर्य संस्कृति का इतिहास लेखन औपनिवेशिक सोच के आधार पर हुआ है। अंग्रेजी इतिहासकारों ने एक खास वर्ग को बाहरी बताकर समाज को बांटने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि प्रारंभिक इतिहासकारों ने हड़प्पा के बहुत कम स्थलों की खोज के आधार पर निष्कर्ष निकाला था कि हड़प्पा सभ्यता और आर्य सभ्यता अलग-अलग हैं। अब जबकि 2700 से अधिक हड़प्पाई स्थलों की खोज हो चुकी है, तो इसके आधार पर कहा जा सकता है कि हड़प्पा सभ्यता आर्यों की ही सभ्यता थी।
सिंह ने अपनी पुस्तक ‘ग्लोरी दैट वाज हड़प्पन सिविलाइजेशन’ में इन सभी स्थलों की विस्तृत सूची दी है। सिंह ने इसके पीछे तर्क दिया कि हड़प्पा सभ्यता के लोथल से अग्निकुंड के साक्ष्य मिले हैं। अर्थात हड़प्पा सभ्यता में अग्नि को विशेष महत्त्व प्राप्त था। वहीं आर्यों में भी अग्नि को विशेष महत्त्व प्राप्त था। सिंह ने बताया कि अगर भाषाई आधार को छोड़ दिया जाए तो इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि आर्य मध्य एशिया से आए। केवल भाषा के आधार पर तो हम यह भी कह सकते हैं कि यूरोपीय लोगों का मूल स्थान भारत ही था और वे यहीं से यूरोप गए क्योंकि हमारे यहां प्राचीनकाल में उन्नत नौकायन के साक्ष्य मिले हैं। उन्होंने बताया कि हड़प्पा के स्थलों से मिले घोड़े के साक्ष्य के आधार पर भी कहा जा सकता है कि आर्यों ने ही हड़प्पा को बसाया था। ( साभार-  (भाषा)। नई दिल्ली, 4 जनवरी )




कोलकाता की जनरल पोस्ट आॅफिस में क्षतिग्रस्त हो रही हैं ऐतिहासिक महत्त्व वाली सामग्रियां

   कोलकाता की जनरल पोस्ट आॅफिस के एक शताब्दी पुराने डाक संग्रहालय में निरीक्षक की अनुपस्थिति और रखरखाव के अभाव के कारण यहां रखी ऐतिहासिक महत्त्व वाली सामग्रियां क्षतिग्रस्त हो गई हैं। एक साल से भी अधिक समय से बंद पड़ा संग्रहालय खस्ता हालत में है। जीपीओ के अधिकारी जल्द मरम्मत करवाने के लिए भारतीय संग्रहालय से मदद मांग रहे हैं। डाक संग्रहालय जीपीओ के भूतल पर स्थित है।
1806 में निर्माणाधीन जीपीओ की दुर्लभ तस्वीर की एक झलक लेने के लिए जहां क्षतिग्रस्त दीवारों से गिरे मलबे के ढेर को पार कर अलमारी के पीछे तक जाना पड़ता है, वहीं उस दौर में इस इमारत के सामने बने खूबसूरत बगीचों की तस्वीर जमीन पर गिरी पड़ी है और धूल फांक रही है। बगीचों वाले उस क्षेत्र को अब पार्किंग क्षेत्र बना दिया गया है। ब्रिटिशकालीन दौर के देश के नक्शे अब संग्रहालय की सीलन भरी दीवारों के कारण एक-दूसरे से अलग होते नजर आते हैं। जनवरी 1890 की तारीख वाले पुराने डाक नक्शे ‘बेहर सर्कल’ के साथ-साथ सीलन वाली दीवारों ने बंगाल और असम सर्कल रूट के यातायात चार्ट को, देश के रेलवे तंत्र के एक अन्य नक्शे (अप्रैल 1904) को और ब्रिटिश राज के समय के देश की हवाई डाक सेवा के नक्शे को भी नुकसान पहुंचाया है।
इन सब सामानों में से सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों- नोबल विजेता रवींद्रनाथ टैगोर के हस्ताक्षर और एक अन्य नोबल विजेता सीवी रमण के हस्ताक्षर वाली डाकघर की जीवन बीमा पॉलिसी को सेलोफेन शीट में लपेटकर रखा गया है। लेकिन उन्हें भी तत्काल देखभाल की जरूरत है। संग्रहालय में कई वस्तुएं पर्याप्त रखरखाव के अभाव में खतरे के कगार पर हैं। कई वस्तुएं जगह की कमी के कारण जमीन पर पड़ी हैं।
कोलकाता जीपीओ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा- हम जानते हैं कि इन नक्शों और कागजों को तत्काल संरक्षित नहीं किया गया तो वे हमेशा के लिए नष्ट हो जाएंगे। इतने अधिक ऐतिहासिक महत्त्व की चीजें रखने के लिए इस संग्रहालय में जरूरी बुनियादी सुविधाओं के अभाव की बात स्वीकार करते हुए अधिकारी ने कहा कि पुरानी तस्वीरों और मुहरों को संरक्षित करने के लिए जीपीओ भारतीय संग्रहालय की मदद मांग रहा है।
उन्होंने कहा- हमारे पास इस तरह के संग्रहालय के लिए पर्याप्त अवसंरचना नहीं है। न तो हमारे पास निरीक्षक है और न ही प्रदर्शन में रखी गई वस्तुओं के संरक्षण के लिए कोई तकनीकी सहायक ही है।
उन्होंने कहा कि हमने भारतीय संग्रहालय के अधिकारियों से मदद मांगी है। हम इन नक्शों व मुहरों के संरक्षण के लिए संरक्षण विशेषज्ञ को नियुक्त करेंगे। दीवारों पर सीलन-रोधी परत चढ़ाने के अलावा डाक विभाग के अधिकारी संग्रहालय में बिजली की तारों की मौजूदा व्यवस्था को बदलने और ‘फायर एग्जिट’ बनाने की भी योजना तैयार कर रहे हैं। ( साभार-  (भाषा)। कोलकाता, 4 जनवरी )

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