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Monday, March 4, 2013

दिल्ली का इतिहास पाषाण युग तक, आदि मानव के रहवास के संकेत मिले !

        दिल्ली में महाभारत, मौर्य, तोमर, चौहान, सल्तनत, मुगल और ब्रिटिश काल के अवशेष हैं। लेकिन एक रॉक आर्ट विशेषज्ञ को दिल्ली में कुछ ऐसे चिह्न मिले हैं, जिनके बारे में माना जा रहा है कि वे पाषाण युग के हो सकते हैं। यदि ‘साइंटफिक डेटिंग’ के बाद इसे सही पाया गया तो दिल्ली का इतिहास पाषाण युग तक जा सकता है। संभवत: यह पहला मौका है जब दिल्ली में आदि मानव के रहवास के संकेत मिले हैं।
रॉक आर्ट विशेषज्ञ रघुवीर सिंह ठाकुर ने दावा किया,‘अरावली पर्वत श्रृंखला में दक्षिण दिल्ली के महरौली में कुतुब मीनार के करीब ‘कपमार्क’ मिले हैं। एक हजार मीटर के क्षेत्र में तीन स्थानों में करीब 150 की संख्या में ‘कपमार्क’ है, जिनमें एकरूपता पाई गई है।’ दिल्ली में ‘कपमार्क’ खोजकर्ता ने दावा किया,‘इसके अलावा एक पत्थर पर अर्धचंद्राकार आकृति बनी हुई है। इसकी रेखाओं को जोड़कर देखा जाए तो अंग्रेजी अक्षर ‘एस’ आकार की आकृति बनती है। यह आकृति भी पाषाण युग की है।’
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व सुरक्षा अधिकारी ठाकुर ने कहा,‘यदि इस ‘कपमार्क’ का उचित तरीके से समय काल का निर्धारण कर दिया जाए तो यह दिल्ली के इतिहास को दो लाख साल से भी अधिक पीछे ले जा सकता है।’ उन्होंने बताया कि उन्होंने यह खोज 26 जनवरी को उस वक्त की जब पूरी दिल्ली गणतंत्र दिवस के जश्न में डूबी थी। उन्होंने इस स्थान को मेट्रो से देखा था और 26 जनवरी का दिन उन्हें इसके लिए सबसे अच्छा दिन लगा। ठाकुर ने बताया कि इसके समय निर्धारण के लिए एक टीम के साथ वह काम करना चाहते हैं, क्योंकि यह बेहद श्रमसाध्य और धैर्य का काम है। यदि इस स्थान के आस पास बेहतर तरीके से काम किया जाये तो यहां इस तरह के और भी चकित करने वाली जानकारियां मिल सकती हैं।
इस बारे में पेलिंयॅटोलाजिस्ट जीएल बादाम ने कहा,‘इस तरह के‘कपमार्क’ का काल निर्धारण करना बेहद कठिन है, क्योंकि रेडियो डेटिंग के जरिए केवल बीस हजार साल पहले तक के समय का निर्धारण ही किया जा सकता है, जबकि यह 20 लाख साल पुराना भी हो सकता है। पोटेशियम आर्गन डेटिंग या यूरेनियम थोरियम डेटिंग से इसका काल निर्धारण हो सकता है।’ उन्होंने बताया,‘आम तौर पर विशेषज्ञ ‘कपमार्क’ के बारे में अधिक ध्यान नहीं देते थे। हालांकि, पिछले कुछ समय से विशेषज्ञ इस तरफ ध्यान देने लगे हैं। इस तरह के हैरिटेज स्थलों के उचित रखरखाव के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और इंटेक जैसे संगठनों को आगे आना चाहिए और इसकी सुरक्षा का इंतजाम किया जाना चाहिए।’
मध्य प्रदेश के भीमबैठका और मंदसौर में ‘दर की चट्टान’ में काम कर चुके बादाम ने कहा,‘कपमार्क’ की डेटिंग करके काल निर्धारण कैसे किया जाए। इसे बनाने के लिए कठोर पत्थर का इस्तेमाल क्यों किया गया। लोगों में जागरूकता और सुरक्षा के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए।’
रॉक आर्ट विशेषज्ञ डॉक्टर मुरारी लाल शर्मा ने बताया,‘पाषाण युग को दो लाख साल पहले से दस हजार साल पहले तक विभिन्न चरणों में बांटा जाता है। हालांकि, 25 से 28 हजार साल पहले शतुरमुर्ग के अंडे मिले थे। इसका सीधा मतलब है कि उस वक्त मानव ने चित्राकंन प्रारंभ कर दिया था। यह ‘कपमार्क’ प्रारंभिक पाषाण युग के होने की संभावना है।’ शर्मा ने बताया,‘कला इतिहास के क्षेत्र में अरावली पर्वत श्रृंखला के एक छोर में इस तरह के प्रमाण पहली बार मिले हैं। दिल्ली के पास ‘कपमार्क’ मिलना अपने आप में क्रांतिकारी खोज है। अभी तक सुदूर क्षेत्रों में पाषाण युग के अवशेष मिलते थे। इसकी फोटो को माइक्रोस्कोप से देखने में इसके कटाव बेहद सहज लगते हैं, जो इसकी प्राचीनता के स्पष्ट प्रमाण है।’ शर्मा ने हालांकि बताया कि इसकी प्राचीनता के बारे में स्पष्ट निर्धारण ‘साइंटिफिक डेटिंग’ के बाद ही किया जा सकता है। इसे क्यों बनाया गया इस बारे में कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता। इस बारे में पश्चिम और भारतीय राक आर्ट विशेषज्ञों की कई तरह की राय है।  (साभार-(भाषा) नई दिल्ली, 3 मार्च ।)

    संसार के प्राचीन नगरों में से एक है दिल्ली
   दिल्ली की संसार के प्राचीन नगरों में गणना की जाती है। महाभारत के अनुसार दिल्ली को पहली बार पांडवों ने इंद्रप्रस्थ नाम से बसाया था, किंतु आधुनिक विद्दानों का मत है कि दिल्ली के आसपास उदाहरणार्थ रोपड़ (पंजाब) के निकट सिंधु घाटी सभ्यता के चिह्न प्राप्त हुए हैं और पुराने क़िले के निम्नतम खंडहरों में आदिम दिल्ली के अवशेष मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं वास्तव में देश में अपनी मध्यवर्ती स्थिति के कारण तथा उत्तरपश्चिम से भारत के चतुर्दिक भागों को जाने वाले मार्गों के केंद्र पर बसी होने से दिल्ली भारतीय इतिहास में अनेक साम्राज्यों की राजधानी रही है।
    जातकों के अनुसार इंद्रप्रस्थ सात कोस के घेरे में बसा हुआ था। पांडवों के वंशजों की राजधानी इंद्रप्रस्थ में कब तक रही यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता किंतु पुराणों के साक्ष्य के अनुसार परीक्षित तथा जनमेजय के उत्तराधिकारियों ने हस्तिनापुर में भी बहुत समय तक अपनी राजधानी रखी थी और इन्हीं के वंशज निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा में बह जाने पर अपनी नई राजधानी प्रयाग के निकट कौशाम्बी में बनाई। मौर्य काल में दिल्ली या इंद्रप्रस्थ का कोई विशेष महत्त्व न था क्योंकि राजनीतिक शक्ति का केंद्र इस समय मगध में था। बौद्ध धर्म का जन्म तथा विकास भी उत्तरी भारत के इसी भाग तथा पाश्रर्ववर्ती प्रदेश में हुआ इसी कारण बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा बढने के साथ ही भारत की राजनीतिक सत्ता भी इसी भाग (पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार) में केंद्रित रही।
    मौर्यकाल के पश्चात लगभग 13 सौ वर्ष तक दिल्ली और उसके आसपास का प्रदेश अपेक्षाकृत महत्त्वहीन बना रहा। हर्ष के साम्राज्य के छिन्न भिन्न होने के पश्चात उत्तरीभारत में अनेक छोटी मोटी राजपूत रियासतें बन गईं और इन्हीं में 12 वीं शती में पृथ्वीराज चौहान की भी एक रियासत थी जिसकी राजधानी दिल्ली बनी। दिल्ली के जिस भाग में क़ुतुब मीनार है वह अथवा महरौली का निकटवर्ती प्रदेश ही पृथ्वीराज के समय की दिल्ली है। वर्तमान जोगमाया का मंदिर मूल रूप से इन्हीं चौहान नरेश का बनवाया हुआ कहा जाता है। एक प्राचीन जनश्रुति के अनुसार चौहानों ने दिल्ली को तोमरों से लिया था जैसा कि 1327 ई. के एक अभिलेख से सूचित होता है। यह भी कहा जाता है कि चौथी शती ई. में अनंगपाल तोमर ने दिल्ली की स्थापना की थी। इन्होंने इंद्रप्रस्थ के क़िले के खंडहरों पर ही अपना क़िला बनवाया।
   महाकाव्य-महाभारत काल से ही दिल्ली का विशेष उल्लेख रहा है। दिल्ली का शासन एक वंश से दूसरे वंश को हस्तांतरित होता गया। एक चौहान राजपूत विशाल देव द्वारा 1153 में इसे जीतने के पूर्व लाल कोट पर लगभग एक शताब्दी तक तोमर राजाओं का आधिपत्य रहा। विशाल देव के पौत्र पृथ्वीराज तृतीय या राय पिथोरा ने 1164 ई. में लाल कोट के चारों ओर विशाल परकोट बनाकर इसका विस्तार किया। यह दिल्ली का तीसरा शहर कहलाता है। और क़िला राय पिथोरा के नाम से जाना गया। कई इतिहासकार इसे दिल्ली के सात शहरों में प्रथम मानते हैं। 1192 की लड़ाई में मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद ग़ोरी ने पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में हराकर उसकी हत्या कर दी। ग़ोरी यहाँ से दौलत लूटकर चला गया और अपने ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक को यहाँ का उपशासक नियुक्त कर गया। 1206 में ग़ोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वंय को भारत का सुल्तान घोषित कर दिया और लालकोट को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। अगली तीन शताब्दियों तक यहाँ छोटे अंतरालों के साथ ग़ुलाम वंश और सुल्तान वंश का शासन रहा। यहीं से दिल्ली का शासन खिलजी, तुगलक से लेकर मुगलों तक एक वंश से दूसरे वंश को हस्तांतरित होता गया। मुगलों से छीनकर दिल्ली  अंग्रेजों ने हथिया ली। १९११ में अंग्रेजों ने कोलकाता की जगह दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। जनवरी 1912 में राजनीतिक निर्णय के व्यावहारिक कार्यांवन के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की गई। प्रसिद्ध वास्तुविद सर एडविन लुटियंस ने अंतत इस शहर को नया स्वरूप दिया।      
    गंदी बस्ती की तरह दिखने वाली पुरानी दिल्ली, जिसमें लाला किला भी आता है, को वैसे ही छोड़कर नई दिल्ली बसाने के लिए अंग्रेजों ने रायसीना पहाड़ी चुनी जो वहां से न तो बहुत दूर थी और न ही बहुत पास। यहीं पर वाइसरॉय हाउस, संसद भवन और सचिवालय को एक जगह बनाया गया। आज भी इस इलाके को लुटियंस जोन कहा जाता है। १९४७ में आजादी की जंग के बाद दिल्ली को गुलामी से मुक्ति मिली। ( साभार- http://bharatdiscovery.org )

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