इतिहास ब्लाग में आप जैसे जागरूक पाठकों का स्वागत है।​

Website templates

Tuesday, July 31, 2012

मध्य प्रदेश के ओरछा में हर जगह बिखरा है इतिहास ,असंख्य दुर्ग और किले

ओरछा वह अभिशप्त शहर है जिसे पुराने लोगों के मुताबिक कई बार उजड़ने का शाप मिला था पर आज भी यह शहर इस आदिवासी अंचल में पर्यटन से रोजगार की नई संभावनाओ को दिखा रहा है। बुंदेलखंड में खजुराहो के बाद ओरछा में सबसे ज्यादा सैलानी आते है पर इसके बाद वे यहीं से लौट भी जाते हैं। शाम होते ही बेतवा के तट पर विदेशी सैलानी नजर आते है जो बुंदेला राजाओं की ऐतिहासिक और भव्य इमारतों को देखने के बाद पत्थरों से टकराती बेतवा की फोटो लेते हैं। बात करने पर पता चला कि अब वे खजुराहो से लौट जाएंगे क्योकि और किसी ऐतिहासिक जगह की ज्यादा जानकारी उन्हें है ही नहीं। यह बताता है कि पर्यटन क्षेत्र यहां किसी की भी प्राथमिकता में नहीं है। तेरह जिलों में फैले बुंदेलखंड में जगह जगह पुरातत्व और इतिहास बिखरा है पर कही भी बड़ी संख्या में सैलानी नहीं आते क्योकि पर्यटन क्षेत्र को विकसित ही नहीं किया गया। जबकि विशेषज्ञों के मुताबिक बुंदेलखंड में पर्यटन कम से कम खर्च में ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार भी दे सकता है। बुंदेलखंड की राजनीति और पैकेज की राजनीति करने वालों का इस तरफ ज्यादा ध्यान ही नहीं गया। अगर सिर्फ इस अंचल की धरोहर को सहेज कर उन्हें पर्यटन के नक़्शे पर लाया जाए बड़ी संख्या में लोगो को रोजगार मिल सकता है और यहीं पर रोजगार पैदा होने से पलायन भी रुक सकता है।
इस अंचल में सैलानियों को आकर्षित करने के लिए बहुत कुछ है। ऐतिहासिक दुर्ग, किले, घने जंगल, हजार साल पुराने मीलों फैले तालाब और शौर्य व संघर्ष का इतिहास। चरखारी का किला है जो लाल किले से बड़ा है तो झाँसी का किला शौर्य का प्रतीक है। गढ़ कुंडार का रहस्मय किला है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते है और कुछ समाजशास्त्री इसे सन 1152 के बाद के दौर में दलित राज के रूप में भी देखते हैं। जिस राम लला के लिए अयोध्या में मंदिर आंदोलन हुआ वह वे राम लला इसी ओरछा के राजा के रूप में पूजे जाते हैं। यहाँ आल्हा ऊदल के किस्से है तो लोक संगीत और नृत्य की पुरानी परंपरा भी। इस क्षेत्र में औसत वर्षा ९५ सेमी होती है जबकि राष्टÑीय आंकड़ा 117 सेमी का है जो बताता है कि कृषि के लिए कैसी जटिल परिस्थियां होंगी।
असंख्य किले, दुर्ग, ताल तालाब और ऐतिहासिक विरासत वाला यह अंचल दो राज्यों के साथ केंद्र सरकार की प्राथमिकता पर नजर आ रहा है। यह बात अलग है कि बुंदेलखंड पैकेज का बहुत कम हिस्सा आम लोगों के काम आया। आसपास के इलाकों का दौरा करने और लोगों से बात करने पर यह बात सामने आई। बुंदेलखंड की समस्याओं पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों का प्रबंध करने वालीं सुविज्ञा जैन ने कहा - यहां जल भंडारण के एतिहासिक स्थल हैं, पुरातत्व और इतिहास है, लोक संस्कृति है जो किसी भी पर्यटन स्थल के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है जिसके चलते अगर कम पैसों की भी कुछ योजनाए बनाई जाएं तो पलायन से बुरी तरह प्रभावित इस क्षेत्र को फौरी राहत मिल सकती है।
यह भी कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पुराने डाक बंगलों को अगर दुरुस्त कर हेरिटेज होटल में तब्दील कर दिया जाए तो पैसा भी बचेगा और देश विदेश के सैलानियों के लिए सुविधा का भी आसानी से प्रबंध हो जाएगा। दूसरी तरफ इस क्षेत्र में 50 साल से सामाजिक कार्य कर रहे वीरसिंह भदौरिया ने कहा -बुंदेलखंड को बचाने के लिए अगर पर्यटन पर फोकस किया जाए तो काफी कुछ हो सकता है। पर इसके लिए कुछ बुनियादी सुविधाएं मसलन अच्छी सड़कें,परिवहन सेवाएं और मोटल के साथ कानून व्यवस्था पर ध्यान देना होगा। दरअसल यहां खेती से ज्यादा कुछ संभव नहीं है और अन्य उद्योगों के मुकाबले पर्यटन क्षेत्र में अपार संभावनाए हैं। यह बात बेतवा के किनारे कभी बुंदेलों की राजधानी रही ओरछा में नजर आती है जो इस इलाके में खजुराहो के बाद दूसरे नंबर का पर्यटन स्थल है जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिला है। यानी कुलमिलाकर मध्य प्रदेश के हिस्से में पड़ने वाले बुंदेलखंड की स्थिति कुछ बेहतर नजर आती है। लेकिन उत्तर प्रदेश में ये बहुत कम क्या, न के बराबर हैं।
ओरछा में बेतवा का पानी है तो घने जंगल सामने दिखाई पड़ते है। बेतवा तट पर विदेशी पर्यटकों को देख हैरानी भी होती है। पर दूसरी तरफ झांसी, बरुआ सागर, देवगढ ,चंदेरी ,महोबा, चित्रकूट, कालिंजर और कालपी जैसे ऐतिहासिक पर्यटन स्थल होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के इस क्षेत्र में सैलानी नजर नहीं आते। सड़क तो उरई छोड़ ज्यादातर जगह ठीक हो गई है पर न तो परिवहन व्यवस्था ठीक है न ढंग के होटल- मोटल ।
बहुत ही दुर्गम इलाके में गढ़ कुडार का ऐतिहासिक किला बुंदेलखंड में ही है। कहा जाता है कि आक्रमण में हार से पहले आठवी शताब्दी में यहां के राजा के साथ प्रजा ने भी एक कुंड में कूदकर जान दे दी थी। इस तरह की कहानियां और किस्से बुंदेलखंड में उसी तरह बिखरे हुए है जैसे दुर्ग और किले। ओरछा के फिल्मकार जगदीश तिवारी के मुताबिक इस क्षेत्र में पर्यटन और लोक संस्कृति के क्षेत्र में बहुत संभावनाएं हैं। अगर सरकार पहल करे तो बहुत कुछ हो सकता है। मुंबई से फिल्म उद्योग के लोगों ने ओरछा और आसपास कई फिल्मो की शूटिंग की है जिनमें बड़ी फिल्मों से लेकर विज्ञापन फिल्में भी शामिल हैं। यही वजह है कि ओरछा में कई बड़े रिसॉर्ट है और अगर उत्तर प्रदेश सरकार चाहे तो वह भी अपने हिस्से में पड़ने वाले इलाकों में काफी कुछ कर सकती है। पहले तो नहीं पर अब अखिलेश यादव सरकार से लोगों को उम्मीद भी है । वैसे उत्तर प्रदेश हो या मध्य प्रदेश सभी का हाल बेहाल है। सागर विवि से पुरातत्व में पीएचडी डा सुरेंद्र चौरसिया ने बुंदेलखंड के पुनर्निर्माण पर आयोजित एक सामूहिक विमर्श में कहा - बुंदेलखंड की ऐतिहासिक धरोहरों की अनदेखी की जा रही है। यहां के संग्रहालयों में पुरातात्विक महत्व अवशेषों और इतिहास के दस्तावेज सीलन भरी जमीन पर बिखरे मिल जाएंगे। ( साभार-जनसत्ता-अंबरीश कुमार)

Monday, July 16, 2012

क्या सचमुच महान था सिकंदर महान ?

सिकंदर एक महान विजेता था- ग्रीस के प्रभाव से लिखी गई पश्चिम के इतिहास की किताबों में यही बताया जाता है। मगर ईरानी इतिहास के नजरिए से देखा जाए तो ये छवि कुछ अलग ही दिखती है।
प्राचीन ईरानी अकेमेनिड साम्राज्य की राजधानी 'पर्सेपोलिस' के खंडहरों को देखने जाने वाले हर सैलानी को तीन बातें बताई जाती हैं- कि इसे डेरियस महान ने बनाया था, कि इसे उसके बेटे जेरक्सस ने और बढ़ाया, और कि इसे ‘उस इंसान‘ ने तबाह कर दिया- सिकंदर।

उस इंसान सिकंदर को, पश्चिमी संस्कृति में सिकंदर महान कहा जाता है जिसने ईरानी साम्राज्य को जीता और जो इतिहास के महान योद्धाओं में से एक था। हालत ये है, कि यदि कोई पश्चिमी इतिहास की किताबों को पढ़े तो उसे ये सोचने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि ईरानी बने ही इसलिए थे कि सिकंदर आए और उनको जीत ले। जो थोड़ा और कौतूहल रखेगा, उसे शायद ये भी पता लग सकता है कि ईरानियों को इससे पहले भी यूनानियों ने दो बार हराया था, जब ईरानियों ने उन पर हमला करने की नाकाम कोशिश की, और इसलिए सिकंदर ने ईरान पर हमला बदला लेने के लिए किया था।

मगर ईरानी दृष्टिकोण से देखें तो पाएंगे कि सिकंदर महानता से कोसों दूर था।

हमला, मगर क्यों : वहां दिखेगा कि सिकंदर ने पर्सेपोलिस को जमींदोज कर दिया, एक रात एक ग्रीक नर्तकी के प्रभाव में आकर जमकर शराब पीने के बाद, और ये दिखाने के लिए कि वो ऐसा ईरानी शासक जेरक्सस से बदला लेने के लिए कर रहा है जिसने कि ग्रीस के शहर ऐक्रोपोलिस को जला दिया था। ईरानी सिकंदर की ये कहकर भी आलोचना करते हैं कि उसने अपने साम्राज्य में सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाने को बढ़ावा दिया। उसके समय में ईरानियों के प्राचीन धर्म, पारसी धर्म के मुख्य उपासना स्थलों पर हमले किए गए। सिकंदर के हमले की कहानी बुनने में पश्चिमी देशों को ग्रीक भाषा और संस्कृति से मदद मिली जो ये कहती है कि सिकंदर का अभियान उन पश्चिमी अभियानों में पहला था जो पूरब के बर्बर समाज को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए किए गए।

मगर असल में ईरानी साम्राज्य पर विजय का महत्व था, इसलिए नहीं कि उनको सभ्य बनाना था, बल्कि इसलिए क्योंकि वो उस समय तक का विश्व का महानतम साम्राज्य था, मध्य एशिया से लीबिया तक फैला हुआ। ईरान एक बेशकीमती इनाम था। करीब से देखने पर इस बात के भी बहुत सारे प्रमाण मिलते हैं कि ग्रीक लोग ईरानी शासन और इसके शासकों के प्रशंसक थे। उन बर्बरों की तरह जिन्होंने रोम को जीता था, सिकंदर भी उस साम्राज्य की प्रशंसा सुनकर आया था। सिकंदर ईरान की प्रशंसा करने वाली कहानियों से अवगत रहा होगा। ईरानी साम्राज्य एक ऐसी चीज था जिसे जीतने से ज्यादा बड़ी बात उसे हासिल करना था।

सम्मान भी : ईरानी बेशक उसे आततायी बताते हैं, एक बेलगाम युवा योद्धा, मगर सबूतों से यही पता चलता है कि सिकंदर का ईरानियों में एक आदर भी था। उसे हमले के कारण ईरान में हुई तबाही का अफसोस था। पर्सेपोलिस से थोड़ी दूर एक मकबरे का नुकसान देखकर वो बड़ा व्यथित हुआ था और उसने तत्काल उसकी मरम्मत के आदेश दिए। अगर 32 साल में मौत के मुंह में चला जाने वाला सिकंदर और अधिक जिया होता तो शायद वो और भी बहुत कुछ चीजों का जीर्णोद्धार करवाता। फिर शायद ईरानियों का मैसिडोनियाई आक्रमणकारियों से संबंध सुधरता और वे उन्हें भी अपने देश के इतिहास में शामिल करते। और तब शायद 10वीं शताब्दी में लिखे गए ईरानी कृति शाहनामा में सिकंदर केवल एक विदेशी राजकुमार नहीं कहलाता।

( वेबदुनिया से साभार- यह धारणा प्रोफेसर अली अंसारी ने प्रतिपादित की है। वे स्कॉटलैंड के सेंट एंड्रूयूज विश्वविद्यालय में आधुनिक इतिहास के प्राध्यापक और ईरानी अध्ययन विभाग के निदेशक हैं।)

Wednesday, July 11, 2012

बबार्द हो रहे हैं चंदेल व मुगलकालीन जलाशय

 बुंदेलखंड को तालाबों का खंड कहा जाता था, जहां दसवीं सदी से लेकर तेरहवीं सदी तक के सैकड़ों तालाब देखने को मिल सकते हैं। इसके साथ-साथ मुगलों के शासन में भी तालाब बनवाए गए। यही नहीं तालाबों के सहारे शुद्घ पेयजल के लिए कुएं भी बनाए जाते थे। इन कुओं में पानी तालाबों के सहारे रीचार्ज होकर कुओं को जीवित रखते थे। तालाबों को बरसात के पानी से भरने के लिये पहले से बंदोबस्त होता था। जिससे उसका पानी दूषित न हो। तालाबों के पानी की निकासी की समुचित व्यवस्था होती थी। बड़े तालाबों में पानी की स्वच्छता के लिए मछली पालन कराया जाता था इसके अलावा कंकरीट भी तालाबों में डलवाई जाती थी। जिससे तालाब का पानी फिल्टर होकर पीने लायक बना रहे। यह सब मनुष्य की इच्छा शक्ति से होता था पर जैसे-जैसे आबादी का विस्तार हुआ, सबसे पहले स्वार्थी लोगों ने तालाबों की खाली पड़ी जमीन पर कब्जा कर इमारतें खड़ीं कर दीं। यही नहीं जो नालियां तालाबों को भरने का काम करती थी, उनको हमेशा के लिए बंद कर दिया।
 
 
चंदेकालीन और मुगल कालीन तालाबों का जो डिजाइन हैं वह आज भी इंजीनियरों के लिए चुनौती है। इसी प्रकार मेहराबदार दीवारों से कुओं का जो निर्माण कराया जाता था, वह भी लुप्त हो गए। जो कुएं बुंदेलखंड पैकेज से महोबा व ललितपुर में बनाए जा रहे हैं। उनके डिजाइन देख बुंदेलखंड में सौ से अधिक चंदेलकालीन तालाब हैं। ये सभी तालाब अपने सौंदर्य को खोते जा रहे हैं।
  वाल्मीकि तालाब को छोड़ कर सभी तालाब शहर की आबादी से घिर चुके हैं। जल निकासी के सभी स्रोत बंद कर दिए हैं। इन तालाबों को बरसात के पानी से भरने के लिए कोई इंतजाम नहीं है, यह है जल प्रबंधन का हाल। इसी तरह महोबा के मदन सागर तालाब, कल्याण सागर, तालाब, कीरत सागर तालाब, बीझा नगर तालाब, सागर तालाब यह सभी चंदेलकालीन हैं। ये सभी तालाब बड़े क्षेत्रफल में फैले हैं। इनमें पानी भरने के लिए 1990 से 2000 के दशक में व्यवस्था थी पर धीरे-धीरे आबादी बढ़ने से इनमें अधिकांश तालाबों की जल निकासी न होने से गंदा पानी सड़ांध मारने लगा है।
बारिश का पानी भरने का बंदोबस्त अब नहीं रहा। हमीरपुर जिले में चरखारी रियासत को खूबसूरत तालाबों के साथ कुएं जुड़े मिलते थे, जो खंडहर में तब्दील हो गए हैं। तालाब सूख गए हैं। इन्हें भी सरकारी बजट की दरकार है। यहां तालाबों और कुओं को ऐसे बनाया गया है कि बारिश हो तो एक बूंद पानी भी बाहर न जाए।
ऐसे तालाबों-कुओं का निर्माण अब संभव नहीं। आज भी प्रत्येक गांव में एक या दो प्राचीन कुएं देखने को मिल जाते है। ( साभार- जनसत्ता )

संबंधित विवरण व संदर्भ के लिए यहां भी देखें। राजस्थान, मध्यप्रदेश व उत्तर प्रदेश के इन इलाकों में प्राचीन शासकों (नौवीं से सोलहवीं शताब्दी तक ) ने जलापूर्ति के वैज्ञानिक इंतजाम किए थे। आज उनके नष्ट होते ही पूरा सूबा पीने के पानी तक को तरस गया है।लिंक पर क्लिक कर देखें पूरा विवरण।

Bundelkhand - Drought and environmental destruction
http://kkasturi.blogspot.in/2009/11/bundelkhand-drought-and-environmental.html
Dr Bharatendu Prakash ,Vikram Sarabhai fellow at the MP Council of Science & Technology has been studying the water resources of Bundelkhand from many years.Dr Prakash explains that..................The solutions evolved over a 1000 years have been to construct innumerable rain water harvesting structures taking into account the lay of the land, designed to capture the runoff in surface ponds and recharge underground sources. Water harvesting structures – ponds in every village and town and at other strategic locations - had been crafted in the region as early as 800-900 AD by the Chandela kings and reinforced by subsequent rulers – the Bundela’s and the Peshwa’s.

  A pond at Charkhari, UP. Part of a system of 11 interconnected ponds, the rain water storage structures built nearly a 1000 years ago by the Chandela rulers are decaying due to lack of maintenance. This neglect of old water storage structures we witness again and again in different parts of Bundelkhand. Every village or small town we visit has one or more large ponds usually dating hundreds of years. The water bodies are now filthy with sewage allowed to flow in, garbage dumped on the banks, silt accumulation and weeds.

 ( साभार- http://kkasturi.blogspot.in/2009/11/bundelkhand-drought-and-environmental.html )

Bundelkhand, Madhya Pradesh, established a network of several hundred tanks

http://cpreec.org/pubbook-traditional.htm
The Chandela Kings (851 – 1545 A.D.) of Bundelkhand, Madhya Pradesh, established a network of several hundred tanks that ensured a satisfactory level of groundwater. They were constructed by stopping the flow of a nullah or a rivulet running between 2 hills with a massive earthen embankment. The quartz reefs running under the hills confined the water between them.

The Bundela Kings who came later used lime and mortar masonry and were bordered by steps, pavilions and royal gardens. The tanks were built close to palaces and temples and were not originally meant for irrigation at all, but for the use of all. Breaching of embankments and cultivation on the tank bed has destroyed many. But the wells in the command area of these tanks continue to yield well and also serve to recharge the groundwater. ( http://cpreec.org/pubbook-traditional.htm )

Wednesday, July 4, 2012

रामसेतु विवाद घटनाक्रम

    भारत के पौराणिक महत्व तथा करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक रामसेतु पर सेतु समुद्रम परियोजना बनाई गई है। इसमें पौराणिक रामसेतु को तोड़कर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द गिर्द समुद्र में छोटा नौवहन मार्ग बनाए जाने पर केंद्रित है। लेकिन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि सेतुसमुद्रम परियोजना के लिए रामसेतु के अलावा दूसरा मार्ग न तो आर्थिक तौर पर लाभकारी है और न ही पर्यावरण की दृष्टि से ठीक है। सालिसिटर जनरल आर नरीमन ने जस्टिस एचएल दत्तू और सीके प्रसाद की बेंच को यह जानकारी दी।
भौगिलिक स्थिति: भारत के दक्षिण में धनुषकोटि तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिम में पम्बन के मध्य समुद्र में 48 किमी चौड़ी पट्टी के रूप में उभरे एक भू-भाग के उपग्रह से खींचे गए चित्रों को अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (नासा) ने जब 1993 में दुनिया भर में जारी किया तो भारत में इसे लेकर राजनीतिक वाद-विवाद का जन्म हो गया था।
इस पुल जैसे भू-भाग को राम का पुल या रामसेतु कहा जाने लगा। ईसाई या पश्चिमी लोग इसे एडम ब्रिज कहने लगे हैं। रामसेतु का चित्र नासा ने 14 दिसम्बर 1966 को जेमिनी-11 से अंतरिक्ष से प्राप्त किया था। इसके 22 साल बाद आई.एस.एस 1 ए ने तमिलनाडु तट पर स्थित रामेश्वरम और जाफना द्वीपों के बीच समुद्र के भीतर भूमि-भाग का पता लगाया और उसका चित्र लिया। इससे अमेरिकी उपग्रह के चित्र की पुष्टि हुई। वैज्ञानिकों में इस ब्रिज को लेकर विवाद है। कुछ वैज्ञानिक इसे प्राकृतिक ब्रिज मानते हैं तो कुछ इसे मानव निर्मित मानते हैं।

क्या है रामसेतु : नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली-सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु माना जाता है। भारत के दक्षिणपूर्व में रामेश्वरम और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच उथली चट्टानों की एक चेन है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। इसे भारत में रामसेतु व दुनिया में एडम्स ब्रिज के नाम से जाना जाता है। इस पुल की लंबाई लगभग 48 किमी है। यह ढाँचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक दूसरे से अलग करता है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है।
कहा जाता है कि 15वीं शताब्दी तक इस पुल पर चलकर रामेश्वरम से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था, लेकिन तूफानों ने यहाँ समुद्र को कुछ गहरा कर दिया। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया और समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण यह डूब गया।
दूसरी और पुल की प्राचीनता पर शोधकर्ता एकमत नहीं है। कुछ इसे 3500 साल पुराना पुराना बताते हैं तो कछ इसे आज से 7000 हजार वर्ष पुराना बताते हैं। कुछ का मानना है कि यह 17 लाख वर्ष पूराना है।

क्या है सेतु समुद्रम परियोजना: 2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया गया। भारत सरकार सेतु समुद्रम परियोजना के तहत तमिलनाडु को श्रीलंका से जोड़ने की योजना पर काम कर रही है। इससे व्यापारिक फायदा उठाने की बात कही जा रही है।
इसके तहत रामसेतु के कुछ इलाके को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक बनाया जाएगा। इसके लिए सेतु की चट्टानों को तोड़ना जरूरी है। इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा। तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा और तमिलनाडु के कोस्टल इलाकों में कम से कम 13 छोटे एयरपोर्ट बन जाएँगे।
माना जा रहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें, अनुमान है कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे।
मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी ही, संभावना है कि जलपोतों का 22 हजार करोड़ का तेल बचेगा। 19वें वर्ष तक परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2000 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।
परियोजना से नुकसान : रामसेतु को तोड़े जाने से ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि अगली सुनामी से केरल में तबाही का जो मंजर होगा उससे बचाना मुश्किल हो जाएगा। हजारों मछुआरे बेरोजगार हो जाएँगे।
इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रुपए की वार्षिक आय होती है, से लोगों को वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियाँ नष्ट हो जाएँगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भंडार से हाथ धोना पड़ेगा।

सेतु समुद्रम पर सरकार राम की शरण में :भगवान राम ने जहाँ धनुष मारा था उस स्थान को 'धनुषकोटि' कहते हैं। राम ने अपनी सेना के साथ लंका पर चढ़ाई करने के लिए उक्त स्थान से समुद्र में एक ब्रिज बनाया था इसका उल्लेख 'वाल्मिकी रामायण' में मिलता है।
केन्द्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल किए गए एक हलफनामें कहा था कि रामसेतु को खुद भगवान राम ने अपने एक जादुई बाण से तोड़ दिया था, इसके सुबूत के तौर पर सरकार ने 'कंबन रामायण' और 'पद्मपुराण' को पेश किया। सरकार ने रामसेतु के वर्तमान हिस्से के बारे में कहा कि यह हिस्सा मानव निर्मित न होकर भौगोलिक रूप से प्रकृति द्वारा निर्मित है। इसमें रामसेतु नाम की कोई चीज नहीं है।
विवाद का कारण : इससे पूर्व जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने सितंबर 2007 में उच्चतम न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामें में रामायण में उल्‍लेखित पौराणिक चरित्रों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिए थे, जिसे हिंदू भावनाओं को ठेस पहुँचाना माना गया।
एएसआई के हलफनामें में उसके निदेशक (स्मारक) सी. दोरजी ने कहा था कि राहत की माँग कर रहे याचिकाकर्ता मूल रूप से वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास की रचित राम चरित्र मानस और पौराणिक ग्रंथों पर विश्वास कर रहे हैं, जो प्राचीन भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है, लेकिन इन्हें ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं कहा जा सकता और उनमें वर्णित चरित्रों तथा घटनाओं को भी प्रामाणिक सिद्ध नहीं किया जा सकता।
इससे पूर्व अहमदाबाद के मैरीन ऐंड वाटर रिसोर्सेज ग्रुप स्पेस एप्लिकेशन सेंटर ने कहा कि माना जाता है कि एडम्स ब्रिज या रामसेतु भगवान राम ने समुद्र पारकर श्रीलंका जाने के लिए बनाया था, जो मानव निर्मित नहीं है। सरकार और एएसआई ने भी इस मामले में इसी अध्ययन से मिलते जुलते विचार प्रकट किए हैं।
गौरतलब है कि रामसेतु की रक्षार्थ याचिकाकर्ता ने अदालत से रामसेतु को संरक्षित एवं प्राचीन स्मारक घोषित करने का अनुरोध किया था। यह निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया था कि रामेश्वरम को श्रीलंका से जोड़ने वाले सेतु समुद्रम के निर्माण के समय रामसेतु को नष्ट न किया जाए। इस याचिका पर 14 सितम्बर 20007 को उच्चतम न्यायालय में सुनवाई हुई।
सरकारी हलफनामा: विवाद के चलते भारत सरकार ने हलमनामें को वापस लेते हुए 29 फरवरी 2008 को उच्चतम न्यायालय में नया हलफनामा पेश कर कहा कि रामसेतु के मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक बनावट सुनिश्चित करने के लिए कोई वैज्ञानिक विधि मौजूद नहीं है।
इस विवाद के चलते उधर तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार ने रामसेतु को तोड़कर सेतु समुद्रम परियोजना को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए कमर कस ली। हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि खनन गतिविधियों के दौरान रामसेतु को किसी प्रकार का नुकसान नहीं हो, लेकिन इस आदेश का पालन किस हद तक किया जा रहा है यह राज्य सरकार ही बता सकती है।


सरकारी दावे का खंडन : रामकथा के लेखक नरेंद्र कोहली के अनुसार, सरकार यह झूठ प्रचारित कर रही है कि राम ने लौटते हुए सेतु को तोड़ दिया था। जबकि रामायण के मुताबिक राम लंका से वायुमार्ग से लौटे थे, तो सोचे वह पुल कैसे तुड़वा सकते थे। रामायण में सेतु निर्माण का जितना जीवंत और विस्तृत वर्णन मिलता है, वह कल्पना नहीं हो सकता। यह सेतु कालांतर में समुद्री तूफानों आदि की चोटें खाकर टूट गया, मगर इसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
लालबहादुर शास्त्री विद्यापीठ के लेक्चरर डॉ. राम सलाई द्विवेदी का कहना है कि वाल्मीकि रामायण के अलावा कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में राम के आकाश मार्ग से लौटने का वर्णन किया है। इस सर्ग में राम द्वारा सीता को रामसेतु के बारे में बताने का वर्णन है। इसलिए यह कहना गलत है कि राम ने लंका से लौटते हुए सेतु तोड़ दिया था।
भारतीय नौ सेना की चिंता : सेतुसमुद्रम परियोजना को लेकर चल रही राजनीति के बीच कोस्ट गार्ड के डायरेक्टर जनरल आर.एफ. कॉन्ट्रैक्टर ने कहा था कि यह परियोजना देश की सुरक्षा के लिए एक खतरा साबित हो सकती है।
वाइस एडमिरल कॉन्ट्रैक्टर ने कहा था कि इसकी पूरी संभावना है कि इस चैनल का इस्तेमाल आतंकवादी कर सकते हैं। वाइस एडमिरल कॉन्ट्रैक्टर का इशारा श्रीलांकाई तमिल उग्रवादियों तथा अन्य आतंकवादियों की ओर है, जो इसका इस्तेमाल भारत में घुसने के लिए कर सकते हैं।
धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख : वाल्मीकि रामायण कहता है कि जब श्रीराम ने सीता को लंकापति रावण से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्‍वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद माँगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता माँगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया।
डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्रीराम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की।
नल सेतु : वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पाँच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन और चौड़ाई दस योजन थी। रामायण में इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है। नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया था।- (वाल्मीक रामायण-6/22/76)।
वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं कि सेतु बनाने में उच्च तकनीक प्रयोग किया गया था। कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा समुद्रतट पर ले आए ते। कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से सीध में हो रहा था।- (वाल्मीक रामायण- 6/22/62)
गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में वर्णन है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा बताई गई तकनीक से संपन्न हुआ था। महाभारत में भी राम के नल सेतु का जिक्र आया है।
अंन्य ग्रंथों में कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्रीराम के सेतु का जिक्र किया गया है। (वेबदुनिया )http://hindi.webdunia.com/news-national

सेतु समुद्रम परियोजना के लिए वैकल्पिक मार्ग व्यावाहारिक नहीं: रिपोर्ट

   केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि पचौरी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना के लिए पौराणिक राम सेतु को छोड़कर वैकल्पिक मार्ग आर्थिक और पारिस्थितिकी रूप से व्यावहारिक नहीं है।
न्यायमूर्ति एचएल दत्तू और न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की खंडपीठ के समक्ष सॉलिसिटर जनरल रोहिंटन नरीमन ने सोमवार को पर्यावरणविद आरके पचौरी की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति की 37 पेज की रिपोर्ट पेश की। उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट पर अभी केंद्रीय मंत्रिमंडल को विचार कर फैसला लेना है। समिति ने इस परियोजना से जुड़े विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण के आधार पर अपनी रिपोर्ट में कहा है कि राम सेतु को सुरक्षित रखने के इरादे से इस परियोजना के लिए वैकल्पिक मार्ग स्वीकार्य विकल्प नहीं है। यह जनहित में भी नहीं होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि धनुषकोडि के पूर्व से वैकल्पिक मार्ग निकालने का सुझाव आर्थिक और पारिस्थितिकी रूप से व्यावहारिक नहीं है।’
समिति ने गहन विश्लेषण और जोखिम प्रबंधन के महत्व का जिक्र करते हुए वैकल्पिक मार्ग की आर्थिक व्यावहारिकता पर सवाल उठाते हुए कहा है कि इससे पारिस्थितिकी को गंभीर खतरा हो सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद नाजुक इलाके में किसी परियोजना की आर्थिक व्यावहारिकता का पता लगाने के लिए और अधिक विश्लेषण करना होगा। न्यायालय ने संक्षिप्त सुनवाई के बाद इस परियोजना पर स्थिति साफ करने के लिए केंद्र सरकार को आठ सप्ताह का समय दिया।
सेतु समुद्रम परियोजना शुरू  होते ही पौराणिक रामसेतु के संरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई थीं। इन याचिकाओं के कारण ही सेतु समुद्रम परियोजना न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ गई थी। इन याचिकाओं में कहा गया था कि इस परियोजना से पौराणिक महत्व का रामसेतु क्षतिग्रस्त हो सकता है। सेतु समुद्रम परियोजना का उद्देश्य पौराणिक पुल राम सेतु के बीच से रास्ता बनाकर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द-गिर्द समुद्र में छोटा नौवहन मार्ग तैयार करना है। सेतु समुद्रम परियोजना के तहत प्रस्तावित नौवहन मार्ग 30 मीटर चौड़ा, 12 मीटर गहरा और 167 किलोमीटर लंबा होगा।
इस मामले के तूल पकड़ने और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद प्रधानमंत्री ने आरके पचौरी की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया था। न्यायालय ने सरकार से कहा था कि वह पौराणिक राम सेतु को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए वैकल्पिक मार्ग की संभावना तलाशे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में आर्थिक और पारिस्थितिकी बिंदुओं से जुड़े विभिन्न पहलुओं के आकलन के बाद वैकल्पिक मार्ग की व्यवहारिकता पर कई सवाल उठाए हैं। रिपोर्ट में परियोजना के आर्थिक पहलू का विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि वैकल्पिक मार्ग 4-ए के अवलोकन से पता चलता है कि इससे 12 फीसद की दर से आमदनी का लक्ष्य हासिल नहीं हो सकेगा। रिपोर्ट में यह निष्कर्ष भी निकाला गया है कि इससे इसकी व्यावहारिकता पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक राम सेतु के बारे में कहा जाता है कि भगवान राम की बंदर-भालुओं की सेना ने लंका के राजा रावण तक पहुंचने के लिए इस पुल को बनाया था।
केंद्र सरकार ने 19 अप्रैल को राम सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने पर कोई कदम उठाने से इनकार करते हुए न्यायालय से ही इस पर फैसला करने का आग्रह किया था। सरकार ने कहा था कि वह 2008 में दायर अपने पहले हलफनामे पर कायम रहेगी जिसे राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति ने मंजूरी दी थी। इसमें कहा गया था कि सरकार सभी धर्मों का सम्मान करती है। भगवान राम और राम सेतु के अस्तित्व पर सवाल उठाए जाने पर संघ परिवार की नाराजगी के बाद शीर्ष अदालत ने 14 सितंबर 2007 को केंद्र सरकार को 2,087 करोड़ रुपए की परियोजना की नए सिरे से समीक्षा करने के लिए समूची सामग्री के फिर से निरीक्षण की इजाजत दी थी। (नई दिल्ली, 2 जुलाई (भाषा)।)

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...