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Thursday, May 24, 2012

उपेक्षा के कारण जर्जर हुआ 350 साल पुराना राधा-कृष्ण का ऐतिहासिक मंदिर

     शाहजहांपुर से करीब 42 किमी दूर पुवायां तहसील के मुड़िया कुमिर्यात गांव में करीब 350 साल पुराना राधा-कृष्ण का मंदिर  है। बावन दरवाजों वाले इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैली है।  जर्जर होते इस मंदिर को मरम्मत की जरूरत है, लेकिन मरम्मत के लिए धन की मांग वाली फाइल पुरातत्व विभाग में धूल फांक रही है।
   यह ऐतिहासिक मंदिर जिला मुख्यालय से करीब 42 किमी दूर है। जिले की सबसे समृद्ध तहसील पुवायां नगर से बंडा रोड पर करीब दस किमी चलने पर जुझारपुर मोड़ पड़ता है। यहीं से पश्चिम के लिए पतली सी पक्की सड़क जाती है। इसी सड़क पर चार किमी दूरी पर है मुड़िया कुमिर्यात गांव। मुड़िया कुमिर्यात से पहले एक गांव और पड़ता है वनगवां। वनगवां से आगे बढ़ते ही मंदिर के विशाल बुर्ज दिखाई देने लगते हैं।
मंदिर अक्सर बंद ही रहता है। मंदिर के पुजारी बिहारी सुबह-शाम यहां पूजा करते हैं। यह मंदिर गांव के ही पुष्कर वर्मा के पूर्वज चूड़ामणि व उनके भाई बुद्धसेन ने करीब 350 साल पहले बनवाया था। यह करीब 13 पीढ़ी पहले की बात है। पुष्कर वर्मा मंदिर से कुछ दूर ही रहते हैं। वर्मा ने बताया कि उनके पूर्वज निगोही के रहने वाले थे। तब लड़ाइयों के कारण राजा पुवायां ने उनके पूर्वजों से मदद मांगी थी। राजा पुवायां ने ही उनके पूर्वजों को मुड़िया कुमिर्यात की रियासत दी थी। पुष्कर वर्मा ने बताया कि मंदिर बनने में 12 साल लगे थे। हर साल भादो में मंदिर में रौनक रहती है। जन्माष्टमी में विशाल मेला लगता है। दूर-दूर से लोग आते हैं। मेला पास ही बाग में लगता है। बाग मंदिर की ही संपत्ति है। मंदिर का परिसर पहले पांच एकड़ का था। लोग मकान बनाते गए और मंदिर का परिसर सिकुड़ कर अब करीब तीन एकड़ रह गया है।
पुष्कर वर्मा के मुताबिक, इस मंदिर पर सच्चे मन से मांगी गई हर मनौती पूरी होती है। जिसकी मनौती पूरी हो जाती है वह अपनी श्रद्धानुसार चांदी का सिक्का चढ़ाता है। मंदिर के फर्श और चौखटों पर लगे अनगिनत चांदी के सिक्के इस बात को प्रमाणित करते हैं। हालांकि चोर यहां से सिक्कों को उखाड़ भी ले जाते हैं। जहां से सिक्के उखड़े हैं, वहां निशान छूट जाते हैं। इसके अलावा गांव वाले अपने धार्मिक उत्सव भी मंदिर में मनाते हैं। मुंडन, बच्चे का मुंहवौर और ऐसे ही दूसरे कार्यक्रम मंदिर में किए जाते हैं। मंदिर के नाम से गांव में दो दिन बाजार भी लगता है। यह मंदिर की ही जमीन है और इससे होने वाली आय मंदिर के कार्यों पर खर्च की जाती है। बुधवार और शनिवार को मंदिर का बाजार लगता है।
राधा-कृष्ण के इस बेमिसाल मंदिर का निर्माण करने वाले कारीगर मुसलिम थे। इन कारीगरों ने बारह साल तक दिन-रात काम करके मंदिर बनाया था। सुर्खी को बड़ी सी चक्की से पीसकर मसाला बनाया जाता था। इसमें 12 अन्य तत्व मिलाए जाते थे। दिन भर में बमुश्किल दस से बारह तसला मसाला ही तैयार हो पाता था। सुर्खी मसाला की मजबूती के कारण आज भी मंदिर ज्यों का त्यों खड़ा है। मंदिर के चारों ओर बेलबूटों की चित्रकारी 350 साल बाद भी बरकरार है।
मंदिर के अंदर की बनावट भूलभुलैया जैसी है। मंदिर में तेरह बुर्ज हैं। 52 दरवाजे हैं। लेकिन सिर्फ दो ही दरवाजे खोले जाते हैं। पूरबी दरवाजे पर मंदिर का मुख्य भाग है। इस दरवाजे के खुलते ही देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के दर्शन हो जाते हैं। यही मंदिर का मुख्य भाग है।
मंदिर में राधा-कृष्ण की पांच फुट ऊंची और करीब 86 किलो बजनी अष्टधातु की संयुक्त प्रतिमा थी। यह प्रतिमा 1988 में चोरी चली गई। करोड़ों की कीमत वाली यह प्रतिमा नहीं मिल पाई। इसके बाद मंदिर में पत्थर की प्रतिमा स्थापित की गई। मंदिर में काले रंग के पत्थर से बनी भगवान विष्णु की भी प्रतिमा है जो काफी प्राचीन है।
350 साल से मंदिर की मरम्मत नहीं की गई है। कई बुर्जों में दरारें पड़ने लगी हैं। मंदिर परिसर के आसपास की इमारत खंडहर बन गई हैं। पुष्कर वर्मा ने इसकी मरम्मत के लिए पुरातत्व विभाग का दरवाजा खटखटाया तो सौंदर्यीकरण के लिए 24 लाख मंजूर हो गया। लेकिन मरम्मत वाली फाइल अभी भी धूल चाट रही है। पुष्कर वर्मा का कहना है बिना मरम्मत के मंदिर का सौंदर्यीकरण कराना बेमतलब है। उन्हें पुरातत्व विभाग से मरम्मत के धन के लिए फाइल की मंजूरी का इंतजार है। ( साभार-जनसत्ता )

Monday, May 7, 2012

महाकवि सूरदास की ऐतिहासिक की साधना स्थली परासौली

   मथुरा से बीस किलोमीटर दूर महाकवि सूरदास की साधना स्थली परासौली को स्थानीय कृष्ण भक्तों ने खंडहरों में तब्दील होने से बचा लिया है, लेकिन हिंदी के विद्वानों और शासन की ओर से की जाने वाली उपेक्षा यहां साफ दिखाई देती है। प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर ने सूरदास के जीवन पर आधारित उपन्यास ‘खंजन नयन’ के अनेक पृष्ठों की रचना परासौली की इसी सूर कुटी में की थी, जहां महाकवि सूर ने 73 साल निवास कर एक लाख पदों वाले कालजयी ग्रंथ ‘सूरसागर’ की रचना की थी। ‘खंजन नयन’ उपन्यास ने साहित्य प्रेमियों में जन्मांध सूरदास की जिंदगी को जानने की प्रबल जिज्ञासा तो पैदा की लेकिन परासौली का दर्द दूर नहीं हुआ।
जानकारी के मुताबिक सन 1478 में जन्मे सूरदास को श्री बल्लभाचार्य आगरा के पास रुनकता से मथुरा लाए थे और परासौली में श्री कृष्ण के जीवन पर पद गायन की प्रेरणा दी थी। सौ साल तक जीने वाले महाकवि का देहांत 1583 में परासौली की इसी कुटिया में हुआ था। सूरदास की इस साधना स्थली पर उस वक्त का वह पीलू का वृक्ष आज भी मौजूद है। महाकवि की अभूतपूर्व कृष्ण भक्ति और उनकी काव्य प्रतिभा के साक्षी पीलू पर ब्रजभाषा के कई कवियों ने कविताएं भी लिखी हैं। पिछले दो दशकों में आगरा और मथुरा के हिंदी विद्वान समय-समय पर सूर की परासौली को सजाने-सवांरने की मांग करते रहे हैं। आगरा विवि के पूर्व कुलपति मंजूर अहमद ने अपने विवि में 1999 में सूर पीठ की स्थापना की लेकिन साधना स्थली परासौली के संरक्षण पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। विवि की सूरपीठ उबड-खाबड़ पड़ी है ।
गोवर्धन के कवियों और संगीतकारों ने सूर की मधुर स्मृतियों को सहेजकर जीवित रखने का संकल्प ले रखा है। ‘सूरदास ब्रज रास स्थली विकास समिति’ के सचिव हरिबाबू कौशिक ने बताया कि सूर और तुलसी की तुलना अंग्रेजी के महान कवि शेक्सपीयर और मिल्टन जैसे कवियों से की जाती है लेकिन साहित्य प्रेमी और सरकार इन महाकवियों की स्मृतियों को सहेजने के प्रति लापरवाह हैं। परासौली की सूर कुटी में आने वाला आगंतुक महाकवि की कृष्ण भक्ति और उनके जीवन से जुड़े किस्से सुन गदगद और भावुक हो उठता है। कहते हैं कि संवत 1626 में सूर और तुलसी जैसे दो महाकवियों का मिलन परासौली की इसी ऐतिहासिक धरती पर हुआ था। परासौली की उस पगडंडी को रमणिक बनाया जा सकता है, जिस पर चल कर सूरदास गोवर्धन पर्वत पर स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर में पद गायन के लिए जाते थे।
Prayer hall shantinikata
पाठ्य पुस्तकों में अष्टछाप के कवियों को साहित्य के छात्र पढ़ते हैं। इनकी स्मृतियां परासौली में कहां-कहां बिखरी पड़ी हैं, इसकी चिंता किसी को नहीं। सूरदास के पदों को देश-विदेश में गाने वाले आकाशवाणी मथुरा के कलाकार हरी बाबू ने बताया कि उनकी संस्था परासौली की जमीन पर किए जा रहे कब्जे के खिलाफ आवाज बुलंद कर रही है। सरकार चाहे तो परासौली को आकर्षक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर सकती है, क्योंकि यहां चंद्रसरोवर नाम का आठ भुजा वाला सरोवर भी है। (साभार-जनसत्ता)
शांति निकेतन- धरोहर की सूची में शामिल कराने की कवायद
 गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की ओर से स्थापित शांति निकेतन को यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में शामिल कराने की कवायद एक बार फिर शुरू की गई है। जुलाई में पेरिस में होने वाली यूनेस्को की बैठक में इसके लिए नामांकन पेश करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ ठाकुर से जुड़ा विश्व प्रसिद्ध संस्थान पिछले साल भी विश्व धरोहर घोषित किए जाने की दौड़ में था। लेकिन अंतिम सूची में स्थान नहीं बना पाया था। विश्व भारती विश्वविद्यालय एक बार फिर इसे विश्व धरोहर की सूची के संभावितों में शामिल करवाने के प्रयास में लगा हुआ है। यूनेस्को नियमों के मुताबिक किसी भी विश्व धरोहर स्थल को एकीकृत कमान के अधीन होना चाहिए। शांति निकेतन के बारे में कहा गया है कि वह इस मापदंड को पूरा नहीं करता है।
संस्कृति मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि भारत और बांग्लादेश इस साल संयुक्त रूप से रवींद्रनाथ ठाकुर की 150वीं जयंती मना रहे हैं। ऐसे समय में अगर ठाकुर से जुड़े इस स्थल को विश्व धरोहर धोषित किया जाता है तो समारोह का महत्त्व और बढ़ जाएगा। पिछले साल की विफलता के बाद संस्कृति मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल सरकार से समन्वय स्थापित कर इस प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की प्रणाली को और दुरुस्त बनाने का प्रयास कर रहा है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के एक अधिकारी ने कहा कि यह उसके अधीन आने वाला स्थल नहीं हैं। हालांकि एएसआई ऐसे स्थलों के लिए शीर्ष एजंसी है। अधिकारी ने कहा कि पुन: मनोनीत करने का प्रस्ताव मिलने पर एएसआई की सलाहकार समिति इसके विभिन्न पहलुओं पर विचार कर मामले को आगे बढ़ाएगा। विश्वविद्यालय की वर्तमान प्रणाली के संबंध में अभी भी कई मुद्दे सुलझाए जाने हैं। अधिकारियों ने उम्मीद जताई कि संशोधन रिपोर्ट समय पर तैयार हो जाएगी। उन्होंने कहा कि इस संबंध में काम को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है। इस विषय पर फिर से आवेदन करने का काम पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है ताकि अगर सब कुछ ठीक रहा तो जुलाई 2012 में पेरिस में यूनेस्को की बैठक में शांति निकेतन को विश्व धरोहर घोषित किया जा सके।
उल्लेखनीय है कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने 1901 में शांति निकेतन की स्थापना की थी। यह कोलकाता से 158 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 20 जनवरी 2010 को यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में शामिल करने के लिए शांति निकेतन का मनोनयन किया था। लेकिन यह विश्व धरोहर नहीं बन पाया। शिक्षा के विशिष्ट माडल, अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और स्थापत्य का नमूना होने के साथ कला और साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए इसे विश्व धरोहर घोषित करने की अपील की गई थी।

नामांकन में कहा गया था कि शांति निकेतन का मानवता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। संस्थान ने 20वीं शताब्दी में धार्मिक और क्षेत्रीय बाधाओं को दूर करते हुए लोगों को जोड़ने का काम किया है। इसको ध्यान में रखते हुए इसे विश्व धरोहर घोषित किया जाना चाहिए। ( भाषा)

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