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Thursday, April 5, 2012

ऐतिहासिक अक्षयवट वृक्ष​​


खबरों में इतिहास
  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए यह ब्लाग  इतिहास की नई खोजों व पुरातत्व, मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित खबरों को संकलित करके पेश करता है। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१- ऐतिहासिक अक्षयवट वृक्ष​​
२- ९०० साल पुराना चीनी मिट्टी का कटोरा
३- नेपाल में कुसुंडा भाषा की एकमात्र वारिस..
४- डायनासोर के लिए सबसे बड़ा खतरा थी जंगल की आग
५- जल में रहते थे डायनोसोर!
६- यूरोप में डायनासोर की सबसे बड़ी खोपड़ी बरामद

ऐतिहासिक अक्षयवट वृक्ष​​
​hindi.webdunia.com/1100629062_1.htm
इलाहाबाद स्थित अकबर के किले में एक ऐसा वट है जो कभी यमुना न‍दी के किनारे हुआ करता था और जिस पर चढ़कर लोग मोक्ष की कामना से नदी में छलांग लगा देते थे। इस अंधविश्वास ने अनगिनत लोगों की जान ली है। शायद यही कारण है कि अतीत में इसे नष्ट किए जाने के अनेक प्रयास हुए हालाँ‍कि यह आज भी हरा-भरा है। यह ऐतिहासिक वृक्ष किले के जिस हिस्से में आज भी स्थित है वहाँ आमजन नहीं जा सकते पर इसे अक्षयवट कहते हैं। यूँ तो अक्षयवट का जिक्र पुराणों में भी हुआ है पर वह वृक्ष अकबर के किले में स्थित यही वृक्ष है कि नहीं, यह कहना आसान नहीं।

इस वृक्ष को सातवीं शताब्दी में व्हेनत्सांग की यात्रा के संस्मरण को आधार बनाकर इतिहासकार वाटर्स ने 'आदमखोर वृक्ष' की संज्ञा दी है। संभवत: इस वृक्ष से कूदकर आत्महत्या करने की प्रवृत्ति के मद्देनजर उसे यह नाम दिया गया होगा। सन 1030 में अलबरूनी ने इसे प्रयाग का पेड़ बताते हुए लिखा कि इस अजीबोगरीब पेड़ की कुछ शाखाएँ ऊपर की तरफ और कुछ नीचे की तरफ जा रही हैं। इनमें पत्तियाँ नहीं हैं। इस पर चढ़कर लोग नदी में छलाँग लगाकर जान दे देते हैं। 11वीं शताब्दी में समकालीन इतिहासकार मेहमूद गरदीजी ने लिखा है कि एक बड़ा सा वट वृक्ष गंगा-यमुना तट पर स्थित है, जिस पर चढ़कर लोग आत्महत्या करते हैं।

13वीं शताब्दी में जामी-उत-तवारीख के लेखक फजलैउल्लाह रशीउद्दीन अब्दुल खैर भी इस पेड़ पर चढ़कर आत्महत्याएँ किए जाने का जिक्र करते हैं। अकबर के समकालीन इतिहासकार बदायूनी ने भी लिखा है कि मोक्ष की आस में तमाम काफिर इस पर चढ़कर नदी में कूदकर अपनी जान देते हैं। जिस समय अकबर यहाँ पर किला बनवा रहा था तब उसकी परिधि में कई मंदिर आ गए थे। अकबर ने उन मंदिरों की मूर्तियों को एक जगह इकट्‍ठा करवा दिया। बाद में जब इस स्थान को लोगों के लिए खोला गया तो उसे पातालपुरी नाम दिया गया। जिस जगह पर अक्षयवट था वहाँ पर रानीमहल बन गया। हिंदुओं की आस्था का ख्याल रखते हुए प्राचीन वृक्ष का तना पातालपुरी में स्थापित कर दिया गया।

आज सामान्य जन उसी अक्षयवट के दर्शन करते हैं जबकि असली अक्षयवट आज भी किले के भीतर मौजूद है। अक्षयवट को जलाकर पूरी तरह से नष्ट करने के ‍प्रयास जहाँगीर के समय में भी हुए लेकिन हर बार राख से अक्षयवट की शाखाएँ फूट पड़ीं, जिसने वृक्ष का रूप धारण कर लिया। वर्ष 1611 में विलियम फ्रिंच ने लिखा कि महल के भीतर एक पेड़ है जिसे भारतीय जीवन वृक्ष कहते हैं। मान्यता है कि यह वृक्ष कभी नष्ट नहीं होता। पठान राजाओं और उनके पूर्वजों ने भी इसे नष्ट करने की असफल कोशिशें की हैं। जहाँगीर ने भी ऐसा किया है लेकिन पेड़ पुनर्जीवित हो गया और नई शाखाएँ निकल आईं। व्हेनत्सांग जब प्रयाग आया था तो उसने लिखा - नगर में एक देव मंदिर है जो अपनी सजावट और विलक्षण चमत्कारों के लिए विख्‍यात है। इसके विषय में प्रसिद्ध है कि जो कोई यहाँ एक पैसा चढ़ाता है वह मानो और तीर्थ स्थानों में सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ चढ़ाने जैसा है और यदि यहाँ आत्मघात द्वारा कोई अपने प्राण विसर्जन कर दे तो वह सदैव के लिए स्वर्ग में चला जाता है।

मंदिर के आँगन में एक विशाल वृक्ष है जिसकी शाखाएँ और पत्तियाँ बड़े क्षेत्र तक फैली हुई हैं। इसकी सघन छाया में दाईं और बाईं ओर स्वर्ग की लालसा में इस वृक्ष से गिरकर अपने प्राण दे चुके लोगों की अस्थियों के ढेर लगे हैं। यहाँ एक ब्राह्मण वृक्ष पर चढ़कर स्वयं आत्मघात करने को तत्पर हो रहा है। वह बड़े ओजस्वी शब्दों में लोगों को प्राण देने के लिए उत्तेजित कर रहा है परंतु जब वह गिरता है तो उसके साधक मित्र नीचे उसको बचा लेते हैं। वह कहता है, 'देखो, देवता मुझे स्वर्ग से बुला रहे हैं परंतु ये लोग बाधक बन गए।' वर्ष 1693 में खुलासत उत्वारीख ग्रंथ में भी इसका उल्लेख है कि जहाँगीर के आदेश पर इस अक्षयवट को काट दिया गया था लेकिन वह फिर उग आया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी अक्षयवट को नष्ट करने संबंधी ऐतिहासिक तथ्यों में सत्यता पाते हैं और उसे सही भी ठहराते हैं। वह मानते हैं कि इस तरह के अंधविश्वास लोगों में नकारात्मक विचार भरते हैं, उन्हें जीवन से विमुख करते हैं। यह वृक्ष अपनी गहरी जड़ों के कारण बार-बार पल्लवित होकर हमें भी जीवन के प्रति ऐसा ही जीवट रवैया अपनाने की प्रेरणा देता है न कि अनजानी उम्मीदों में आत्महत्या करने की।९

९०० साल पुराना चीनी मिट्टी का कटोरा
http://www.bbc.co.uk/hindi/china/2012/04/120405_china_bowl_auction_vd.shtml
चीन में सौंग वंश का एक पुराना कटोरा 267 लाख डॉलर (करीब 139 करोड़ रुपए) में नीलाम हुआ है. लगभग 900 साल पुराना ये सिरेमिक यानी चीनी मिट्टी का कटोरा सौंग वंश का था और इसे हॉंगकॉंग में सूदबीज ने नीलाम किया.फूल के आकार में ढला ये कटोरा बेहद दुर्लभ है. इसे जापान के खरीददार ने लिया जिसने अपनी पहचान नहीं बताई और फोन पर बोली लगाई. सूदबीज एशिया के उप चेयरमैन निकोलस चाउ ने कहा, "शायद ये चीज़ सौंग वंश की सबसे महान कलाकृति है जिसे हमने हॉंगकॉंग में नीलाम किया है." ऐसा अनुमान है कि दुनिया में अब केवल 79 पूरी तरह से सुरक्षित सिरेमिक की कलाकृतियाँ मौजूद है जिसमें सिर्फ पांच निजी हाथों में हैं. नीलामी के अधिकारियों को इस कलाकृति से मिली राशि पर हैरानी हुई है. बिक्री से पहले इसकी जितनी कीमत लगाई गई थी, ये उससे तीन गुणा कीमत में बिकी. न्यूयॉर्क और लंदन के बाद हॉंग कॉंग एक मशहूर नीलामी केंद्र के रूप में उभरा है. संवाददाताओं का कहना है कि इसकी कीमत ये बताती कि एशिया का कला बाजार कितना मजबूत है और इसमें पिछले दस सालों में बड़ा विकास देखा गया है.

नेपाल में कुसुंडा भाषा की एकमात्र वारिस..
http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2012/04/120403_kusunda_sb.shtml
फर्ज़ कीजिए कि एक सुबह आप उठें,अपने आस पास के लोगों से बातचीत करना चाहें लेकिन कोई आपकी भाषा समझ ही ना पाए. उलझन की बात है ना फिर सोचिए उस शख़्स का क्या हाल होगा जिसकी बोली बोलने और समझने वाला पूरे देश में ही कोई ना हो.
ये कोरी कल्पना नहीं नेपाल की 75 वर्षीय ग्यानी मेइया सेन के जीवन का सच है.ग्यानी कुसुंडा भाषा बोलती हैं जिसे बोलने वाली वो नेपाल की अकेली जीवित नागरिक हैं और इसी वजह से भाषा वैज्ञानिकों के आकर्षण का केन्द्र भी. कुछ समय पहले तक पुनी ठाकुरी और उनकी बेटी कमला खेत्री नेपाल में कुसुंडा भाषा बोलने वाला दूसरा परिवार था लेकिन पुनी ठाकुरी की मौत औऱ कमला के देश छोड़ने के बाद नेपाल में फिलहाल कुसुंडा भाषा परिवार का अस्तित्व टिका है सिर्फ ग्यानी पर.
नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में भाषा-विज्ञान के प्रोफेसर माधव प्रसाद पोखरेल इस मृतप्राय भाषा को बचाने की मुहिम में लगे हैं.पोखरेल ने बीबीसी को बताया "दुनिया भर में बोली जाने वाले 20 भाषा परिवारों में सबसे अलग है. कुसुंडा भाषा की किसी भी अन्य भाषा परिवार से कोई समानता नही है. ये एक विशेष भाषा परिवार की नुमाइंदगी करती है."
भाषाविदों की अपील है कि इस विशिष्ट भाषा को बचाया जाए वरना ये बहुत जल्द नष्ट हो जाएगी. इसके लिए सरकार से भी गुज़ारिश की गई है.उधर सरकारी अधिकारियों की दलील है कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी ही नहीं है कि ये भाषा बोलने वाले कितने लोग जीवित हैं. नेपाल के केन्द्रीय सांख्यिकीय ब्यूरो में निदेशक रूद्र सुवल कहते हैं " 2001 की जनगणना के मुताबिक़ कुसुंडा बोलने वाले 164 लोग जीवित हैं जबकि 2011 की जनगणना के अंतिम आंकडो़ का अभी इंतज़ार है."

डायनासोर के लिए सबसे बड़ा खतरा थी जंगल की आग
http://www.samaylive.com/science-news-in-hindi/146074/dinosaurs-forest-fires-scientists-greenhouse.html
वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि करोड़ों साल पहले धरती पर मौजूद रहे डायनासोर के लिए जंगल में लगने वाली आग भी एक बड़ा खतरा था.
जीवाश्म रिकॉर्ड में चारकोल यानी लकड़ी के कोयले की मात्रा का विश्लेषण करने वाले वैज्ञानिकों ने पाया कि 14.5 और 6.5 करोड़ साल की अवधि के बीच के ‘क्रिटेसियस पीरियड’ के दौरान जंगलों में इतनी आग लगती थी जितना इंसानों ने सोचा भी नहीं था. शोधकर्ताओं ने उक्त अवधि के दौरान के चारकोल का एक वैश्विक डेटाबेस तैयार कर लिया. ‘लाइव साइंस’ में लंदन की रॉयल हॉलोवे यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और प्रमुख शोधकर्ता एंड्रयू स्कॉट के हवाले से कहा गया ‘‘चारकोल उन पेड़ों के अवशेष हैं जो जल चुके थे और इन्हें जीवाश्म रिकॉर्ड में आसानी से सहेज लिया गया.’’
वैज्ञानिकों ने कहा कि जंगल में लगने वाली आग की कई वजहें हो सकती हैं. वायुमंडल में ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण उस वक्त तापमान भी बहुत अधिक होता था. ऑक्सीजन की अत्यधिक मात्रा से प्राचीन वायुमंडल भी भरा होता था और इससे आग को भड़कने में मदद मिलती है. कुसुंडा भाषा परिवार और इसे बोलने वालों की सरकारी सहायता के लिए लगातार मांग उठ रही है लेकिन नेपाल में फ़िलहाल इस दिशा में कोई प्रगति होती दिखाई नहीं दे रही है.

जल में रहते थे डायनोसोर!
 वैज्ञानिकों का लंबे समय से यह दावा रहा है कि सभी डायनोसोर जमीन पर रहते थे। कुछ विशालकाय पक्षी भले ही जल में गोते लगाते थे लेकिन वे महासागर , झील या नदियों में नहीं रहते थे। अब, इन सबसे उलट एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने एक भिन्न सिद्धांत का दावा किया है । उनका कहना है कि डायनोसोर इतने बड़े और भारी थे कि सूखी भूमि पर उनका रह पाना मुश्किल था और वे अवश्य ही जल में रहते होंगे। प्रोफेसर ब्रायन जे फोर्ड के मुताबिक, दशकों तक जैसे वैज्ञानिक समझते रहे वैसे ये प्रागैतिहासिक जीव रहते ही नहीं थे। उनका मानना है कि इन जीवों की पूंछ इतनी विशाल और भारी भरकम थी कि इस कारण उनका शिकार कर पाना या चपलता से चल पाना भी मुश्किल था। फोर्ड ने कहा कि डायनोसोर अवश्य ही जल में रहते होंगे जहां का वातावरण उनकी विशालता का सफलतापूर्वक साथ देता होगा। (एजेंसी)​
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यूरोप में डायनासोर की सबसे बड़ी खोपड़ी बरामद
http://khabar.ibnlive.in.com/news/70087/9
 स्पेन के जीवाश्मिकी फाउंडेशन ने यूरोप में मिली डायनासोर की अब तक की सबसे बड़ी जीवाश्म खोपड़ी पेश की है। समाचार एजेंसी ईएफई के अनुसार, यह खोपड़ी 14 करोड़ 50 लाख वर्षो पहले पृथ्वी पर पाए जाने वाले टूरिएसॉरस रिओडेवेंसिस प्रजाति के सॉरोपोड डायनासोर की है, जो 30 मीटर से भी अधिक लम्बा और 40 टन वजनी हुआ करता था।
तेरुएल डायनोपोलिस फाउंडेशन की जीवाश्मिकी प्रयोगशाला में बीते बुधवार को डायनासोर की जो खोपड़ी दिखाई गई, उसमें 35 से अधिक हड्डियां और सात दांत हैं। ये अवशेष रिओदेवा नगरपालिका में बेरीहोंडा-एल हुमेरो से वर्ष 2005 के खुदाई अभियान के दौरान मिले थे।
शोधकर्ताओं के अनुसार इस प्रजाति के डायनासोर की खोपड़ी बहुत नाजुक होती थी। यही वजह है कि ये कम मिलती है। अब तक मिले इस प्रजाति के डायनासोरों के अवशेषों में से प्रत्येक पांच में चार की खोपड़ी नहीं है। एक विज्ञान पत्रिका 'सिस्टेमैटिक पालेओंटोलॉजी' की रपट के मुताबिक, करीब 30-35 मीटर लंबे टूरिएसॉरस रिओडेवेंसिस प्रजाति के डायनासोर आईबेरियन द्वीप में पाए जाते थे। विशालकाय सॉरोपोड के अवशेष अब तक दक्षिण अमेरिका में अर्जेटीनोसॉरूस, उत्तरी अमेरिका में सेइसमोसॉरूस, अफ्रीका में गिराफाटिटन और पारालिटिटन, एशिया में मामेंचिसॉरूस और यूरोप में टूरिएसॉरस से बरामद किए गए हैं।

Tuesday, April 3, 2012

मणिपुर के गुम आदिवासियों की 3000 साल बाद घर जाने की बेचैनी


खबरों में इतिहास
  अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए यह ब्लाग  इतिहास की नई खोजों व पुरातत्व, मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित खबरों को संकलित करके पेश करता है। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१-गुम आदिवासियों की 3000 साल बाद घर जाने की बेचैनी
२-प्राचीन ग्रह प्रणाली की खोज
३- दम तोड़ रही है 19 वीं सदी में शुरू हुई कालीघाट पेंटिंग


गुम आदिवासियों की 3000 साल बाद घर जाने की बेचैनी
भारत में कुछ लोग प्रार्थना कर रहे हैं। उनकी तमन्ना है कि 3000 साल बाद वह किसी तरह अपने घर लौट जाएं। गुम आदिवासी कहे जाने वाले ये लोग मणिपुर पहुंच गए हैं, लेकिन वे हैं कहां के और हजारों साल अपने घर से दूर कैसे रहे। भारत हमारा देश नहीं है,' 72 साल के हानियल रुएबन जब यह कहते हैं तो उनकी आंखों से बेबसी और पराएपन का भाव छलक जाता है। वह छोटी सी कम्युनिटी के सबसे बुजुर्ग सदस्य हैं, जो मणिपुर के एक सिनेगॉग (यहूदी मंदिर) में अपने लोगों के साथ प्रार्थना करने पहुंचे हैं। ये जाति है यहूदियों की कुकी चिन मीजो और समझा जाता है कि इन लोगों को 720 ईसा पूर्व में इसराइल से भागना पड़ा। उस वक्त इसराइल पर मेसोपोटामिया सभ्यता के असीरियाई लोगों ने कब्जा कर लिया था। बाइबिल में जिन कुछेक गुम जातियों का जिक्र है, उनमें ये लोग भी शामिल होने का दावा करते हैं। रुएबन का कहना है, 'हमारे पूर्वज यहां आकर बस गए। लेकिन हमारा असली घर इसराइल है। हम एक दिन जरूर अपने घर, अपने लोगों को साथ जाकर रहने में सफल होंगे।'

दर दर भटके : इल समुदाय को बनाई मेनाशा कहते हैं, जो कुकी चिन मीजो नाम के आदिवासियों में गिने जाते हैं। इनकी संख्या करीब 7200 है। ये लोग म्यांमार की सीमा के पास मिजोरम और मणिपुर में रहते हैं। उनका इतिहास लिखित नहीं, मौखिक है। वे लोग बताते हैं कि किस तरह फारस, अफगानिस्तान, चीन और तिब्बत से उनके तार जुड़े। ये यहूदी धर्म की रिवायतों का पालन करते हैं। भारत आने के बाद मिशनरियों की वजह से ये लोग ईसाई बन गए। लेकिन बाइबिल पढ़ते हुए ही इन्हें अपने बारे में जानकारी मिलती रही और इनका दावा है कि वे जो आस्था रखते हैं, वह तो यहूदियों का है। रुएबन का कहना है, 'हम गुम आदिवासियों में हैं।' उनके दोमंजिला लकड़ी के मकान में एक यहूदी कैलेंडर टंगा है और मुख्यद्वार के पास पवित्र पुस्तक तोरा की कुछ पंक्तियां लगी हैं। मणिपुर की राजधानी इम्फाल में जब वह दिन में तीन बार प्रार्थना करते हैं, तो उनका चेहरा पश्चिम की तरफ होता है, जिधर यहूदियों का पवित्र शहर येरुशलम है।

कितना सच्चा दावा : हालांकि कुकी चिन मीजो के लोग उनके दावों को खारिज करते हैं। इस बारे में 1980 में पहली बार पता चला। उसके बाद से यहूदी संगठन इनके संपर्क में आने लगे। 1990 के दशक में कुछ लोगों को इसराइल ले जाया गया, उनका धर्मांतरण करके उन्हें यहूदी बनाया गया। कुछ लोग वहीं बस गए। लेकिन 2005 में बड़ी बात हुई, जब इसराइल के मुख्य रब्बी ने इस पूरे समुदाय को इसराइलियों का हिस्सा बताया और कहा कि उन्हें घर लौटने का अधिकार है। लेकिन 2007 में इसराइल में बनी सरकार ने इस प्रक्रिया पर रोक लगा दी। बाद में 2011 में मंत्रीस्तरीय समिति ने इसके लिए हरी झंडी दे दी और बनाई मेनाशा के 7200 लोगों को इसराइल ले जाने की तैयारी हो रही है। यहूदियों के संगठन शवाई इसराइल का भारत में प्रतिनिधित्व करने वाले योशानन फालतुआल का कहना है, 'यह एक विशाल प्रोजेक्ट है। यह बहुत जटिल काम है क्योंकि इसमें कई सरकारों का योगदान चाहिए।' शवाई इसराइल के प्रमुख माइकल फ्रोएंड ने भी इस अभियान को लेकर काफी काम किया है। उनका कहना है कि भले ही यह मुश्किल काम हो, लेकिन हो जाएगा। फ्रोएंड का कहना है, 'यह एक सरकारी काम है और किसी भी सरकारी काम की तरह इसमें वक्त लगेगा। हमें उम्मीद है कि जल्द ही अच्छी खबर सुनने को मिलेगी और बनाई मेनाशा के लोग अपने घर लौट सकेंगे।'

मणिपुर में मुश्किलें : इस समुदाय को कई मुश्किलों का भी सामना करना पड़ता है। ताल्या बेम 45 साल की विधवा हैं और उनके तीन बच्चे हैं। बेम का कहना है, 'मैं यहूदी हूं। भारत में पैदा हुई हूं लेकिन मेरा दिल इसराइल के साथ है। हम यहां तोरा के बताए तरीकों पर नहीं जी पाते। मैं वहां जल्द से जल्द जाना चाहती हूं।' बनाई मेनाशा समुदाय के लोग मणिपुर के रेस्तरां में खाने नहीं जाते। वे सड़क किनारे खोमचे लगाने वालों से सामान नहीं खरीदते। उनका कहना है कि यहां बिकने वाला गोश्त कोशर नहीं होता। यहूदी जिस तरह से खाने के लिए जानवरों को मारते हैं, उसे कोशर कहते हैं। उन्हें डर लगा रहता है कि कहीं खाने में पोर्क न मिल जाए। मणिपुर में बहुत गरीबी है, जबकि इसराइल एक संपन्न देश है। अगर इन लोगों को वहां जाने की इजाजत मिल गई, तो जाहिर है कि इनका रहन सहन भी बदल जाएगा। हालांकि इन लोगों का कहना है कि वे धार्मिक आस्था की वजह से इस्राएल जाना चाहते हैं, पैसों या जीवनस्तर के लिए नहीं। 3000 साल तक इंतजार करने के बाद अब ये देख रहे हैं कि यह इंतजार और कितना लंबा होता है। (साभार- एएफपी)

प्राचीन ग्रह प्रणाली की खोज
 यूरोप के खगोलशास्त्रियों ने एक प्राचीन ग्रह प्रणाली को खोज निकाला है। उनका दावा है कि यह 13 अरब वर्ष पहले सबसे पुराने ब्रह्मांड का उत्तरजीवी है। जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर एस्ट्रोनॉमी की नेतृत्व वाले एक दल का कहना है कि ग्रह प्रणाली में ‘एचआईपी 11952’ नामक तारा तथा दो ग्रह हैं । दोनों ग्रहों क्रमश: 290 और सात दिन में कक्षा की परिक्रमा पूरी करते हैं।
खगोलशास्त्रियों का कहना है कि इससे शुरूआती ब्रह्मांड में ग्रहों के निर्माण के बारे में जानकारी हासिल होगी। इस ग्रह प्रणाली का तारा ‘एचआईपी 11952’ पृथ्वी से 375 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है। (एजेंसी)

  दम तोड़ रही है 19 वीं सदी में शुरू हुई कालीघाट पेंटिंग
कोलकाता के प्रख्यात काली मंदिर के आसपास कभी कालीघाट पेंटिंग की धूम रहती थी जो कालांतर में नदारद होती चली गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय इस शहरी लोक कला को दशकों बाद एक किताब के माध्यम से फिर से खोजने की कोशिश की गई है।
लंदन के विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम (वीएंडए) और कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल हाल के दुर्लभ संग्रह की कई कृतियों के बारे में लोगों को जानकारी नहीं है। अब मैपिन प्रकाशन की ‘कालीघाट पेंटिंग्स’ में कला प्रेमियों को इस दुर्लभ खजाने की जानकारी मिल सकेगी।
बांग्ला में ‘पट’ कहलाने वाली कालीघाट पेंटिंग 19 वीं सदी में शुरू हुई और शहरी लोक कला के तौर पर लोकप्रिय हो गई। इस परंपरागत चित्रकारी से जुड़े कलाकार पटुआ कहलाते थे और कालीघाट मंदिर के समीप उनकी छोटी-छोटी गुमटियां लगती थीं।
विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम के निर्देशक मार्टिन रोथ ने बताया, ‘19 वीं सदी में कोलकाता के सामाजिक परिवेश में पटुआ फैले हुए थे। धीरे-धीरे उनकी ख्याति फैलती गई और बीसवीं सदी के भारतीय और यूरोपीय कलाकार उनकी कला से प्रेरित होने लगे।’
गौरतलब है कि विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम में कालीघाट पेंटिंग का दुनिया का सबसे बड़ा संग्रह है। बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में कालीघाट पेंटिंग की परंपरा फीकी पड़ने लगी। नए दौर का असर कालीघाट पेंटिंग पर भी पड़ा और परंपरागत तकनीक तथा आइकॉनोग्राफी की जगह जलरंग (वाटर कलर) तथा पश्चिमी प्रभाव ने ले ली।
नई किताब ‘कालीघाट पेंटिंग’ में इस लुप्तप्राय: कला को कोलकाता के सामाजिक सांस्कृतिक और ग्रामीण बंगाल के प्ररिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की गई है। किताब में 1873 के बहुचर्चित तारकेश्वर मामले का भी जिक्र है। इसमें कहा गया है कि कई कालीघाट पेंटिंग्स में इस मामले को दर्शाने की कोशिश की गई। तत्कालीन बांग्ला सरकार के एक कर्मचारी को जब पता चला कि उसकी पत्नी इलोकेशी का तारकेश्वर मंदिर के पुजारी के साथ संबंध है तो उसने अपनी पत्नी का सिर काट डाला और पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। ब्रिटिश अदालत ने उसे और पुजारी दोनों को दोषी ठहराया था।
किताब के एक अध्याय में बताया गया है कि कालीघाट पेंटिंग्स में उस दौर के सामाजिक धार्मिक ढांचे में व्याप्त भ्रष्टाचार और कुरीतियों को भी दिखाया गया। इसके अलावा भगवान कृष्ण की लीलाएं, रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों की कहानियों पर सामाजिक विसंगतियों पर तथा सम-सामयिक विषयों पर भी कालीघाट पेंटिंग के जरिए अभिव्यक्ति दी गई।
1870 के दशक में कालीघाट के ‘पटुआ’ को मजाक में कोलकाता के ‘बाबू’ कहा जाने लगा। फिर कोलकाता में नई शहरी संस्कृति के उदय के साथ ही एक ‘बाबू संस्कृति’ भी चलन में आई। रहन-सहन और चाल ढाल में आया यह बदलाव बहुत कुछ बदलता गया। किताब के अंतिम अध्याय में 21 वीं सदी की कला और मेदिनीपुर तथा बीरभूम जिलों के समकालीन कलाकारों की कला का भी जिक्र है। ( भाषा)

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