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Thursday, August 11, 2011

ताजमहल के पहले बना था हुमायूं का मकबरा


  मुगल शासक हुमायूं का मकबरे को देखकर लगता है कि इस पर गुजरते वक्त की परछाई नहीं पड़ी है। आज भी इस मकबरे का अनछुआ सौंदर्य बेहद प्रभावशाली है। यह मकबरा ताजमहल की पूर्ववर्ती इमारत है। इसी के आधार पर बाद में ताजमहल का निर्माण हुआ। हुमायूं की मौत 19 जनवरी 1556 को शेरशाह सूरी की बनवाई गई दो मंजिला इमारत शेरमंडल की सीढ़ियों से गिर कर हुई थी। इस इमारत को हुमायूं ने ग्रंथालय में तब्दील कर दिया था। मौत के बाद हुमायूं को यहीं दफना दिया गया।
पुरातत्वविद वाईडी शर्मा के मुताबिक, हुमायूं का मकबरा 1565 में उसकी विधवा हमीदा बानू बेगम ने बनवाया था। मकबरे का निर्माण पूरा होने के बाद हुमायूं के पार्थिव अवशेष यहां लाकर दफनाए गए। पूरे परिसर में सौ से अधिक कब्र हैं जिनमें हुमायूं, उसकी दो रानियों और दारा शिकोह की कब्र भी है। दारा शिकोह की उसके भाई औरंगजेब ने हत्या करवा दी थी। विश्व विरासत स्थल में शामिल इसी स्थान से 1857 की क्रांति के बाद ब्रितानिया फौजों ने अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार किया था। फिर निर्वासित कर बर्मा (वर्तमान म्यामां) भेज दिया था।
इतिहासकारों के मुताबिक, हुमायूं के मकबरे के स्थापत्य के आधार पर ही शाहजहां ने दुनिया का आठवां अजूबा ताजमहल बनाया। इसके बाद इसी आधार पर औरंगजेब ने महाराष्ट्र के औरंगाबाद में ‘बीबी का मकबरा’ बनवाया, जिसे दक्षिण का ताजमहल कहा जाता है। यह इमारत मुगलकालीन अष्टकोणीय वास्तुशिल्प का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इसका इस्लामिक स्थापत्य स्वर्ग के नक्शे को प्रदर्शित करता हैं।
मकबरा परिसर में प्रवेश करते ही दाहिनी ओर ईसा खान की कब्र है। यह कब्र इतनी खूबसूरत है कि अनजान पर्यटक इसे ही हुमायूं का मकबरा समझ लेते हैं। ईसा खान हुमायूं के प्रतिद्वंद्वी शेर शाह सूरी के दरबार में था। इसके अष्टकोणीय मकबरे के आसपास खूबसूरत मेहराबें और छत पर छतरियां बनी हैं। कुल 30 एकड़ क्षेत्र में फैले बगीचों के बीच हुमायूं का मकबरा एक ऊंचे प्लेटफार्म पर बना है, जो मुगल वास्तुकला का शानदार नमूना है। भारत में पहली बार बड़े पैमाने पर संगमरमर और बलुआ पत्थरों का इस्तेमाल हुआ। मकबरे में बलुआ पत्थरों की खूबसूरत जाली से छन कर आती रोशनी मानो आंखमिचौली करती है।
हुमायूं का मकबरा एक विशाल कक्ष में है। इसके ठीक पीछे अफसरवाला मकबरा है। कोई नहीं जानता कि यह मकबरा किसने बनवाया, यहां किसे दफनाया गया। इस मकबरे का हुमायूं के मकबरे से क्या संबंध है। हुमायूं के मकबरे के पास ही अरब सराय है। दीवारों से घिरी इस इमारत में हुमायूं के मकबरे के निर्माण के लिए फारस से आए शिल्पकार रहते थे। सिरेमिक की टाइलों से सजी अरब सराय में कई झरोखे और रोशनदान हैं। ( साभार-नई दिल्ली, 11 अगस्त (भाषा)।

  प्राचीन गोवा के 16वीं सदी के एक प्राचीन किले का निर्माण किस राजवंश ने किया ?

 गोवा में विरासतों के संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारियों के बीच इस बात को लेकर मतभेद हैं कि प्राचीन गोवा के 16वीं सदी के एक प्राचीन किले का निर्माण किस राजवंश ने किया। विरासत कार्यकर्ताओं का मानना है कि आदिलशाह महल के प्रसिद्ध द्वार का निर्माण कदंब वंश के हिंदू राजाओं ने करवाया था। लेकिन, एएसआई के अधिकारियों का कहना है कि इसका निर्माण मुसलिम शासक आदिल शाह ने कराया था।
विरासत संरक्षणकर्ता संजीव सरदेसाई का कहना है कि एएसआई ने आदिलशाह महल के द्वार पर इस आशय की एक पट्टिका लगाई है। लेकिन द्वार के दोनों तरफ ग्रेनाइट की जाली में शेर, मोर, फूल और हिंदू देवताओं की आकृति से साफ होता है कि यह हिंदू कदंब राजाओं ने बनवाया है।
पुराने गोवा के सेंट कजेटान चर्च के सामने यह ऐतिहासिक इमारत यूनेस्को के विश्व विरासत स्थलों की सूची में भी शामिल की गई है। एएसआई के अधीक्षण पुरातत्वविद डाक्टर शिवानंदा राव का कहना है कि इस इमारत को पुर्तगाली दौर के समय से अधिसूचित किया गया है। कुछ लोग इसके विपरीत दावा कर रहे हैं। जब तक एएसआई इस जगह की खुदाई नहीं करेगा तब तक कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता।
 सरदेसाई ने कहा कि यह अजीब लगता है कि एक मुसलिम शासक अपने किले के प्रवेश द्वार पर हिंदू देवताओं की आकृति बनवाएगा। गोवा हेरिटेज एक्शन ग्रुप के अधिशासी सदस्य और सक्रिय विरासत संरक्षणकर्ता प्रजल शखरदांडे का कहना है कि उन्होंने इस संबंध में अनेक बार एएसआई के अधिकारियों को पत्र लिखा है। लेकिन अधिकारियों ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है। गोवा पर एक समय कदंब वंश का राज था जिसके बाद 1469 से बीजापुर के आदिलशाह ने यहां शासन किया था। ( साभार-पणजी, 11 अगस्त (भाषा)।

Wednesday, August 10, 2011

दिल्ली के इतिहास का आइना है ‘पुराना किला’


    दिल्ली का इतिहास जानने के लिए पुराना किले के उत्खनन में मिले अवशेष महत्त्वपूर्ण रहे हैं। इतिहास के मुताबिक पहले मुगल बादशाह बाबर का बेटा हुमायूं 1530 में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा और तीन साल बाद उसने एक शहर ‘दीनपनाह’ की नींव रखी।  छह साल बाद शेरशाह सूरी ने  हुमायूं   को हराकर दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा कर लिया और दीनपनाह को नष्ट कर उस स्थान पर नया दुर्ग शेरगढ़ बनवाया। इतिहासकार वाईडी शर्मा ने लिखा है कि 1955 में पुराने किले के दक्षिण पूर्वी भाग में परीक्षण के तौर पर खुदाई हुई, चित्रित भूरे बर्तनों के टुकड़े निकले। इन बर्तनों के बारे में कुछ इतिहासकारों ने अनुमान लगाया कि वे ईसा पूर्व 1000 साल पुराने थे और फिर इस स्थान के महाभारत काल से जुड़े होने की बात को बल दिया गया।  सन् 1969 में पूर्वी दीवार में जल द्वार तक जाने वाले रास्ते के साथ उत्खनन फिर शुरू  किया गया। यह 1973 तक चलता रहा। इससे मिले चित्रित बर्तन से बस्ती के बारे में तो पता नहीं चला, लेकिन मौर्यकाल से लेकर प्रारंभिक मुगल काल तक के स्तर विन्यास उभरकर सामने आए। 
यह भी तथ्य है कि सन् 1913 तक यहां मजबूत दीवारों से घिरा एक गांव था। इस गांव का नाम इंद्रपत था।  इसी आधार पर कुछ लोगों ने यह परिकल्पना की कि पुराने किले इंद्र्रप्रस्थ के अवशेषों पर बना है। वैसे पुराने किले के हर कोने पर बुर्ज और पश्चिम में मजबूत दीवार हैं। इसमें तीन द्वार - हुमायूं दरवाजा, तलाकी दरवाजा और बड़ा दरवाजा हैं। आजकल लोग बड़ा दरवाजा होकर ही किले के अंदर जाते हैं। दक्षिण का द्वार हुमायूं दरवाजा कहलाता है। इतिहासकार वाईडी शर्मा के मुताबिक तलाकी दरवाजे की अस्पष्ट लिखावट में हुमायूं का जिक्र है जिससे लगता है कि इस द्वार का निर्माण या मरम्मत हुमायूं ने कराई।  किले के अंदर स्थित वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने ‘कला ए कुहना’ मस्जिद को शेरशाह ने बनवाया था। पुराने किले के अंदर अब तक बची कुछ इमारतों में से एक इस मस्जिद का मध्य भाग सफेद संगमरमर से बना है, लेकिन शायद इस पत्थर की कमी की वजह से शेष भाग गहरे लाल बलुआ पत्थरों से बनाया गया।
अंदर मेहराबों वाले पांच द्वार हैं। अंदर ही संगमरमर की एक पट्टिका है जिस पर लिखा है - जब तक पृथ्वी पर लोग रहेंगे तब तक यह जगह किसी के नियंत्रण में न रहे और यहां आ कर लोग हमेशा खुश रहें। शेरशाह ने पास में ही दो मंजिली इमारत शेरमंडल का निर्माण कराया था, जिसे देखकर लगता है कि यह एक आरामगाह थी। शेरशाह से अपनी सल्तनत दोबारा हासिल करने के बाद हुमायूं ने इस इमारत को ग्रंथालय में तब्दील कर दिया था। 19 जनवरी 1556 को इसी ग्रंथालय की सीढ़ियों से गिर जाने से उसकी मौत हो गई थी। शेरमंडल के पश्चिम में विशाल हमाम है।
इतिहासकारों के मुताबिक शेरशाह ने पुराना किले का निर्माण अधूरा छोड़ दिया था और जब हुमायूं ने दोबारा सत्ता हासिल की तो इसे पूरा कराया। पुराना किले के सामने 1561 में निर्मित खैरु ल मंजिल मस्जिद है। यहां जिस कक्ष में नमाज पढ़ी जाती है उसके बीच की मेहराब में एक शिलालेख है जिस पर लिखा है कि यह मस्जिद सम्राट अकबर के शासनकाल में उनकी धाय मां माहम अंगा ने बनवाई थी। खैरुल मंजिल मस्जिद के सामने शेरशाह द्वार है जो शायद शेरगढ़ का दक्षिणी द्वार था। लाल पत्थरों से बने इस द्वार को लाल दरवाजा भी कहा जाता है।(साभार--नई दिल्ली, 10 अगस्त (भाषा)।

सातवीं दिल्ली की स्थापना मुगल बादशाह शाहजहां ने की


  भोजीला पहाड़ी पर बनाई गई थी जामा मस्जिद


    सातवीं दिल्ली की स्थापना मुगल बादशाह शाहजहां ने की और इसके लिए 1638 में यमुना के पश्चिम में व सलीमगढ़ किले के दक्षिण में एक ऊंचा स्थल चुना गया। इसके पश्चिमोत्तर भाग को झोजीला पहाड़ी और मध्य भाग को भोजीला पहाड़ी कहा जाता था। भोजीला पहाड़ी पर ही प्रसिद्ध जामा मस्जिद बनवाई गई, जो भारत की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है।
पुरातत्व सर्वेक्षण के मुताबिक शाहजहांनाबाद को घेरने वाली प्राचीर 1650 में बनी। इसके निर्माण में चार महीने और डेढ़ लाख रुपए लगे थे। पहले यह दीवार पत्थरों से बनाई गई थी लेकिन मिट्टी की चिनाई के कारण यह पहली बारिश के बाद नष्ट हो गई। बाद में इसका पुनर्निर्माण कराया गया और चिनाई चूने से की गई। 27 फुट ऊंची और 12 फुट चौड़ी इस प्राचीर में 30 फुट ऊंची 27 बुर्जियां भी बनवाई गईं लेकिन इसमें तोप चढ़ाने की व्यवस्था नहीं थी।
शहर की योजना सन 1857 तक अपने मूल रू प में मौजूद रही। लेकिन प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों की जीत के बाद शहर और किले का मूल रू प काफी बदल गया। जब अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा किया तो उन्होंने इस प्राचीर की मरम्मत की और गोलाकार बुर्जियों का आकार बढ़ा कर तोप चढ़ाने की व्यवस्था की गई।
शाहजहां ने व्यवस्थित आवागमन के लिए प्राचीर में कई छोटे बड़े दरवाजे और खिड़कियां बनवाई थीं। 1857 के विद्रोह से पहले तक यहां चौदह दरवाजे थे लेकिन आज इनमें से केवल चार दरवाजे दिल्ली दरवाजा, तुर्कमान दरवाजा, कश्मीरी दरवाजा और अजमेरी दरवाजा ही शेष हैं। इनका नामकरण शहरों की ओर जाने वाले रास्तों के नाम पर किया गया था।
इतिहासकारों के मुताबिक शाहजहां ने प्राचीर के अंदर कई मस्जिदों, बगीचों, हवेलियों और अन्य भवनों का भी निर्माण कराया था। ऊंचे पदाधिकारियों और प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भव्य हवेलियां बनवाईं थीं। प्रमुख हवेलियों में दिल्ली दरवाजे के पास सआदुल्ला खान की हवेली, तुर्कमान दरवाजे के पास मुजफ्फर खान की हवेली, अजमेरी दरवाजे के पास खलीउल्ला खान की हवेली और मीर जुमला की हवेली शामिल थी। शाहजहां की बसाई पुरानी दिल्ली यानी शाहजहांनाबाद को मीर तकी मीर ने ‘आलम ए इंतिखाब’ कहा था। पहले दिल्ली के कई इलाके परकोटों से घिरे थे, जो हमलों से बचाने या शहर से कर एकत्र करने की सुविधा के लिए बनाए गए थे।
सन 1857 में ब्रिटिश सेना विद्रोह को दबाने के लिए सक्रिय हुई। हताशा में सैनिकों ने बहुत तोड़फोड़ की और इस परकोटे का भी बड़ा हिस्सा तोड़ दिया गया। इसके बाद शाहजहांनाबाद एक खुला शहर बन गया। इसका विस्तार पश्चिम में सदर बाजार तक और उत्तर में सिविल लाइंस तक किया गया। रेलवे की योजना बनी तो ट्रेन अंदर आ सके, इसके लिए दीवार का कुछ हिस्सा फिर तोड़ा गया। देश के विभाजन के बाद बड़ी संख्या में शाहजहांनाबाद के लोग पाकिस्तान चले गए और वहां के प्रवासियों ने यहां आ कर उनके मकानों पर कब्जा कर लिया।
आजादी के बाद शाहजहांनाबाद को तेजी से फैलती नई दिल्ली के साथ एकीकृत कर दिया गया। यहां से बिजली का सामान, कपड़ा और अन्य वस्तुएं पूरे उत्तर भारत में जाने लगीं और उन पर ‘द वाल्ड सिटी’ का लेबल लगा होता था। बदलते समय के साथ शाहजहांनाबाद में भी बदलाव हुआ। मकान दुकान में बदले, दुकानें छोटे उद्योगों में बदलीं। हवेलियां हिस्सों में बंट गईं। छोटे-छोटे मकानों और दुकानों के समूह को ‘कटरा’ कहा गया।(साभार-नई दिल्ली, 10 अगस्त (भाषा)। 

Tuesday, August 9, 2011

पांचवीं दिल्ली का निर्माण तुगलक शासक फिरोजशाह ने कराया


    दिल्ली सल्तनत में तुगलक वंश के शासक फिरोजशाह ने पांचवीं दिल्ली का निर्माण कराया।  पूर्ववर्ती बादशाहों की बनाई इमारतों का जीर्णोद्धार कराया और कई शहरों के नए नाम रखे गए। उन्होंने राजस्व प्रणाली में सुधार भी किया। उनके शासनकाल में महामारी नहीं फैलीं और बाहरी आक्रमण नहीं हुए। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुताबिक यमुना  तट पर फिरोजशाह तुगलक ने 1354 में पांचवीं दिल्ली ‘कोटला फिरोजशाह’ को स्थापित किया और फिरोजाबाद दुर्ग का निर्माण कराया। उन्होंने 38 साल के शासनकाल में दिल्ली के पास 1200 बाग बगीचे लगवाए। फिरोजशाह को वास्तुशिल्प का शौक था और उनकी तुलना रोम के सम्राट अगस्तस से की जाती है।
फिरोजशाह के मुख्य शिल्पकारों मल्लिक गाजÞी सहना और अब्दुल हक्क द्वारा तैयार ‘कुश्क ए फिरोज’ ही उसकी राजधानी फिरोजाबाद कहलाई। यह राजभवन योजना में बहुभुजाकार था, जो लंबाई में आधा मील और चौड़ाई में एक चौथाई मील है। इसमें निर्मित इमारतों में खासमहल, जनाना महल, महल ए बार ए आम, सहन ए मियांनगी (स्तंभयुक्त बरामदा), अंगूरी महल, शाही महल, जामी मस्जिद और बाउली प्रमुख थे। भवन निर्माण के बारे में फिरोजशाह का कहना था  - अल्लाह की नियामत से मुझ जैसे एक अदना से बंदे को बहुत सारे तोहफे मिले हैं, जिसमें से एक लोकहित के लिए भवन निर्माण की इच्छा है। इस कारण मैंने कई मस्जिद, मदरसे और सराय बनवार्इं।
 एतिहासिक तथ्यों के मुताबिक सम्राट अशोक के दो स्तंभों को फिरोजशाह तुगलक दिल्ली लाए। पहले स्तंभ को टोपरा (अम्बाला) से लाकर जामी मस्जिद के पास लगवाया, जिसे सुनहरी मीनार भी कहा जाता है। दूसरे स्तंभ को मेरठ के पास से लाकर ‘कुश्क ए शिकार’ पर स्थापित किया गया। इसमें अशोक के पाली, प्राकृत और ब्राही लिपि में सात अभिलेख उत्कीर्ण है। इस पर चौहान शासक बीसलदेव, भद्रमित्र और इब्राहीम लोदी के भी अभिलेख उत्कीर्ण हैं। इस स्तंभ में उत्कीर्ण अशोक की राजाज्ञाओं को सबसे पहले 1837 में जेम्स प्रिन्सेप ने पढ़ा। पहले 27 टन भार वाले स्तंभ की ढुलाई के बारे में समकालीन इतिहासकार अफीक ने लिखा है, जिसे 30 सितंबर 1367 में वर्तमान स्थान पर स्थापित किया गया। फिरोज ने इन्हें लाने के बारे में कहा - अल्लाह के रहम से हम इस विशाल स्तम्भ को लाकर फिरोजाबाद की जामी मस्जिद में मीनार के रूप में स्थापित करेंगे और अल्लाह की इच्छा से यह तब तक रहेगा, जब तक विश्व रहेगा।
 फिरोजशाह ने यमुना नदी की दीवार के साथ भव्य मस्जिद बनवाई। यह तीन तरफ खंभेयुक्त गलियारे और पश्चिम की तरफ पूजास्थल से युक्त हैं, जिसमे केवल किबला की दीवार के अवशेष ही बचे हैं। तैमूर इस मजिस्द से इतना प्रभावित हुआ कि उसने समरकंद में 1398 में बीबी खानम की मजिस्द बनवाई जिसके लिए भारत से गए कारीगरों को लगाया गया।
 इतिहास गवाह है कि फिरोजशाह तुगलक के 38 साल के शासनकाल के बाद वंशानुगत झगड़ों के कारण उसकी सल्तनत 1398 में तैमूर के हमले की शिकार हो गई, जिसके कारण दिल्ली में भारी तबाही हुई। (नई दिल्ली, 9 अगस्त -भाषा)।

Sunday, August 7, 2011

दिल्ली का चौथा नगर ‘जहांपनाह’

खबरों में इतिहास ( भाग-१४ )
अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व या मिथकीय इतिहास वगैरह से संबंधित होंगी। अगर आपके पास भी ऐसी कोई सामग्री है तो मुझे drmandhata@gmail पर हिंदी या अंग्रेजी में अपने परिचय व फोटो के साथ मेल करिए। इस अंक में पढ़िए--------।
१- दिल्ली का चौथा नगर ‘जहांपनाह’
२--बोथनिया की समुद्रतल पर मिली उड़नतश्तरी ?
३- 4 लाख साल पुराना मानव दांत मिला


दिल्ली का चौथा नगर ‘जहांपनाह’


 दिल्ली का चौथा नगर ‘जहांपनाह’ पहले दो नगरों ‘किला राय पिथौरा’ और ‘सीरी’ को जोड़ने वाला दीवारनुमा अहाता था। इसका निर्माण मंगोल आक्रमण से बचने के लिए कराया गया था। इसका निर्माण तुगलक वंश के शासक जौना शाह यानी मुहम्मद बिन तुगलक ने कराया था। दिल्ली से लगभग साढ़े 14 किलोमीटर दूर पर ये दीवारें दिल्ली-महरौली सड़क को काटती हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी-दिल्ली) के उत्तर में, बेगमपुरी मस्जिद के उत्तर में, खिड़की मस्जिद के दक्षिण में, चिराग दिल्ली के उत्तर में और सतपुल के निकट इस नगर के अवशेषों को देखा जा सकता है।
इतिहासकार वाईडी शर्मा के मुताबिक, 1964-65 में थोड़े पैमाने पर की गई खुदाई के बाद ‘किला राय पिथौरा’ की पूर्वी दीवार के साथ उसके संधि स्थल पर ‘जहांपनाह’ का एक हिस्सा मिला है। खुदाई से निर्माण और विस्तार के तीन स्थानों का पता चलता है। इसकी बुनियाद खुरदरे छोटे पत्थर हैं और जमीन से ऊपरी दीवार तक का हिस्सा चिनाई का है। बीसवीं सदी में दिल्ली में बढ़ते हुए उपनगरों की जरूरतों के कारण इस शहर की पत्थर से निर्मित दीवारों को अब हटाकर दूर फैला दिया गया है। स्थापत्य के लिहाज से खिलजी शासकों ने बादामी पत्थरों के स्थान पर लाल पत्थरों को तरजीह दी थी। तुगलकों ने इसे पूरी तरह बदल दिया। उनकी इमारतों में भूरे पत्थर के सीधे-सादे और कठोरतल, बड़े बड़े कमरों के ऊपर मेहराबी छत, भीतर की ओर ढालू दीवारें, किनारों की तरफ बुर्ज, चार केंद्रीय मेहराबें और खुले भागों पर सरदल होते थे।
शर्मा के मुताबिक, मिट्टी और र्इंटों से बनी मोटी दीवारों के लिए बाहर की तरफ ढालू बनाना जरूरी था। लेकिन वह पत्थर की दीवार के लिए जरूरी नहीं था। इस पद्धति को तुगलकों ने संभवत: सिंध, पंजाब या अफगानिस्तान से लिया था जहां गारे या र्इंटों का इस्तेमाल होता था। बर्नी के मुताबिक, मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में दिल्ली के कोषागार में सबसे अधिक कर संग्रह किया। सुल्तान ने दिल्ली में रहने के दौरान कृषि उत्पादन को बढ़ाने का प्रयास किया और अकाल के दौरान कुंओं का निर्माण करवाया। कृषि के लिए अलग विभाग ‘दीवान-ए-अमीरकोट’ की स्थापना की।
तुगलक को भारतीय उपमहाद्वीप का एक विशाल क्षेत्र शासन करने को प्राप्त हुआ था। उसे राजधानी दक्षिण के दौलताबाद ले जाने और मुद्रा नीति के लिए जाना जाता है। महत्वाकांक्षी सुल्तान ने तुगलकाबाद के दक्षिण पूर्व में 1327 में एक छोटी पहाड़ी पर आदिलाबाद के किले का निर्माण कराया था। इस किले का नाम मुहम्मदाबाद था। लेकिन बाद में इसे आदिलाबाद नाम से जाना जाने लगा। पुरातत्वविदों के मुताबिक, इसकी प्राचीर की सुरक्षा तीन स्तरों बाह्य दुर्ग प्राचीर, गलियारा और अंतर्कोट में थी। इसका निर्माण विशुद्ध रूप से स्थानीय शैली में किया गया है। केंद्र में निर्मित तल का विन्यास आयताकार है। चारों ओर से अनगढ़ पत्थरों की प्राचीर से घिरा हुआ है। ( नई दिल्ली, 7 अगस्त -भाषा)। 

बोथनिया की समुद्रतल पर मिली उड़नतश्तरी?


 लंदन। बोथनिया की खाड़ी में स्वीडन के एक व्यापारी जहाज के मलबे की खोज के दौरान अभियानकर्ताओं ने सोनार किरणों के माध्यम से एक ऐसी रहस्यमय चीज का मलबा खोजने का दावा किया है, जो अज्ञात उड़न तश्तरी (यूएफओ) हो सकती है।
इस रहस्यमय आकार के यूएफओ की खोज स्वीडन और फिनलैंड के बीच स्थित समुद्री हिस्से में करीब 100 मीटर गहराई पर की गई। इस खोज के आधार पर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दूसरे ग्रह के लोग धरती पर आते रहे हैं।
समाचार पत्र 'डेली मेल' के अनुसार यूएफओ की खोज करने वाले खोजी दल की राय है कि कीचड़ से सने इस वस्तु ने समुद्रतल से हटने का प्रयास किया होगा क्योंकि उसके आसपास हिलने-डुलने के निशान पाए गए हैं।
शराब और शैम्पेन से लदे स्वीडन के डूबे जहाजों की खोज में लगे स्वीडिश विशेषज्ञ पीटर लिंडबर्ग ने इस यूएफओ के मलबे की खोज की। कुछ लोगों का मत है कि इस यूएफओ का आकार स्टार वार्स श्रृंखला की फिल्मों में दिखाए जाने वाली मिलेनियम फाल्कन उड़न तश्तरी से मिलता है, जिसका आकार गोलाकार था।
लिंडबर्ग ने कहा कि यह 60 फुट बड़ा है और इसे आसानी से देखा जा सकता है। बकौल लिंडबर्ग, " इस पेशे में हम अक्सर अजीबोगरीब चीजें देखते हैं लेकिन अपने 18 वर्ष के पेशेवर करियर के दौरान मैंने इस तरह की चीज पहले कभी नहीं देखी।"

4 लाख साल पुराना मानव दांत मिला


तेल अवीव। तेल अवीव विश्वविद्यालय ने अपनी वेबसाइट पर मंगलवार को लिखा कि इजराइली शहर रोश हाइन में एक गुफा में चार लाख साल पुराना मानव दांत मिला है। यह प्राचीन आधुनिक मानव का सबसे पुराना प्रमाण है।समाचार एजेंसी डीपीए के मुताबिक वेबसाइट पर इसके साथ ही लिखा गया कि अब तक मानव के जिस समय काल से अस्तित्व में होने की बात मानी जा रही थी, यह मानव उससे दोगुना अधिक समय पहले जीवित था। यह दांत 2000 में गुफा में मिला था।
इससे पहले आधुनिक मानव का सबसे प्राचीन अवशेष अफ्रीका में मिला था, जो दो लाख साल पुराना था। इसके कारण शोधार्थी यह मान रहे थे कि मानव कि उत्पत्ति अफ्रीका से हुई थी।सीटी स्कैन और एक्स रे से पता चलता है कि ये दांत बिल्कुल आधुनिक मानवों जैसे हैं और इजरायल के ही दो अलग जगहों पर पाए गए दांत से मेल खाते हैं। इजरायल के दो अलग जगहों पर पाए गए दांत एक लाख साल पुराने हैं।
गुफा में काम कर रहे शोधार्थियों के मुताबिक इस खोज से वह धारणा बदल जाएगी कि मानव की उत्पत्ति अफ्रीका में हुई थी।गुफा की खोज करने वाले तेल अवीव विश्वविद्यालय के अवि गाफेर और रैन बरकाई ने कहा कि चीन और स्पेन में मिले मानव अवशेष और कंकाल से हालांकि मानव की अफ्रीका में उत्पत्ति की अवधारणा कमजोर पड़ी थी, लेकिन यह खोज उससे भी महत्वपूर्ण है।

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