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Thursday, December 31, 2009

नष्ट हो रही है त्रिपुरा की ७०० साल पुरानी एक कलाकृति

खबरों में इतिहास ( भाग-४)

अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास या मिथकीय इतिहास से संबंधित होंगी। मूल रूप में देने के साथ इन खबरों का मूल लिंक भी है ताकि आपको मूल स्रोत की पहचान और प्रमाणिकता भी बनी रहे। इस अंक में पढ़िए--------।

१-नष्ट हो रही है त्रिपुरा की ७०० साल पुरानी एक कलाकृति


२-झुग्गियों में रहने को मजबूर हैं बहादुरशाह जफर की प्रपौत्र वधू सुल्ताना बेगम




  
दक्षिण त्रिपुरा के घने जंगलों में पहाड़ पर उकेरी गई ५०० से लेकर ७०० साल पुरानी देवी प्रतिमा (कलाकृति ) उपेक्षित पड़ी हुई है। इतिहास के पन्नों में बतौर साक्ष्य जुड़ने से पहले ही नष्ट होने की कगार पर है। जहां यह पुरातात्विक महत्व की प्रतिमा अवस्थित है, वह इलाका देवतामुरा कहलाता है और पूरी तरह से निर्जन है। इसके ६० किलोमाटर के दायरे में सिर्फ घना जंगल है। गोमती नदी यहां से होकर गुजरती है। नदी के सतह से करीब २०० फीट सीधे ऊपर पहाड़ पर हिंदू देवी ( संभवतः दुर्गा ) की आकृति तराशी गई है।

दक्षिण त्रिपुरा के अमरपुर के पास रांगामांटी घाट से गोमती नदी में नाव से यहां पहुंचने में करीब तीन-चार घंटे लग जाते हैं। वही लौटनें में पांच घंटे से ज्यादा समय लग जाता है। लौटनें में ज्यादा समय इसलिए लगता है क्यों कि नाव को तब नदी की धारा के विपरीत चलना होता है। देवतामुरा चारों तरफ से हरियाली से घिरा ऐसा निर्जन इलाका है जहीं की नीरवता सिर्फ पक्षियों के यदा-कदा कोलाहल से ही टूटता है। त्रिपुरा के मशहूर कलाकार स्वपन नंदी, त्रिपुरा सरकार के सूचना, सास्कृतिक मामले व पर्यटन विभाग में निदेशक रह चुके सुभाष दास और एक आईटी प्रोफेशनल विशवजीत भट्टाचार्य व नाव खेने वाले केवट धर्म जमातिया ने इस इलाके का यात्रा की। विश्वजीत के मुताबिक यहां से गुजरना उस अमेजन नदी से गुजरने जैसा हो जिसमें अनाकोंडा का खौफ न हो। धर्म जमातीया का कहना है कि कुछ ङठी लोग ही यहां सकते हैं।

सुभाष दास की राय में यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि सीधे पहाड़ पर जहां खड़े होने की भी जगह नहीं है, हिंदू देवी की आकृति प्राचीन कलाकारों ने कब तराशी होगी ? उनकी राय में यह ५०० से लेकर ७०० वर्ष तक पुरानी होगी।

कहा जाता है कि अमरपुर के राजा अमर माणिक्य ( १५७७- ८६ ई.) को मुगल शासक होतन खान आक्रमण करके हरा दिया। राजपाट छिन जाने पर राजा अमर ने गोमती नदी वाले घने जंगल में नदी के किनारे शरण ली। कहते हैं कि उनके साथ एक कलाकार ( मूर्तिकार ) भी था। शायद उसी ने इस दुर्म पहाड़ पर देवी दुर्गा जैसी आकृति पहाड़ काटकर बनाई होगी। इस स्थल को देखने गईं इस टीम को वहां लोहे के कुछ टुकड़े मिले जो इनकी राय में बंदूकों से चली गोलियां हैं। इन्हें देवी की आकृति के पास फायर की गई गोलियों से निशान भी देखने को मिले। इस बारें में स्वपन नंदी का कहना है कि यहां से नदी के रास्ते से गुजर रहे मुगल सिपाहियों ने शायद फायर किए होंगे। स्वपन नंदी इसे देवी दुर्गा की आकृति मानते हैं।नंदी के मुताबिक यहां मुगल सिपाही आए रहे होंगे और दुर्गा देवी की आकृति नष्ट करने की मंशा से फायर किए होंगे। नंदी आकृति के पास ही सुरा के ऐसे गिलास की आकृति होने की बात कहते हैं जिसे मुगल प्रयोग में लाते थे। उनका कहना है कि जब इस आकृति को मुगल सिपाही नष्ट नहीं कर पाए तो वहीं देवी की आकृति के नीचे एक सुरा की गिलास भी बना दिया। फिलहाल इस दुर्गम जगह में अवस्थित इस महत्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य का कई सालों से संरक्षण स्वपन नंदी और कुछ स्थानीय कलाकार कर रहे हैं। वे अमरपुर में ठहरकर देवतामुरा जाते हैं।


सुभाष दास की राय में इस स्थल को इतिहास के पन्नों में जोड़ने के लिए विशेषग्यों की तलाश है। कहते हैं कि देवतामुरा की आकृति कलाकारों ने कैसे तराशी होगी जबकि वहां खड़ा होना भी मुश्किल है। छिन्नी व हथौड़ियों के सहारे इस दुर्गम स्थल पर उन साधनहीन दिनों में ऐसी कलाकारी का नमूना पेश करना ताज्जुब की बात है। अगर आप उस स्थल को देखें तो आपको भी लगा होगा कि कलाकार वहां कैसे पहुंचे होंगे। यह प्राचीन युग का चमत्कार ही है। दास का कहना है कि उन्होंने दुनिया के की हैरतअंगेज स्थलों का दौरा किया है मगर देवतामुरा का यह पुरातात्विक महत्व का स्थल कम आश्चर्यजनक नहीं है। इसके बादजूद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और त्रिपुरा राज्य सरकार ने इसके संरक्षण में कभी रुचि नहीं दिखाई। यह आकृति संरक्षण के अभाव में नष्ट हो रही है। इतिहास के साक्ष्यों के प्रति ऐसी उदासीनता अक्षम्य है। या फिर कह सकते हैं इसको राजकीय संरक्षण देने के जिम्मेदार लोगों में इतिहास बोध का अभाव है। इन लोगों की राय में अगर फौरन संरक्षण नहीं मिला तो चार पांच सालों में यह कलाकृति में नष्ट हो जाएगी।

झुग्गियों में रहने को मजबूर हैं बहादुरशाह जफर की पौत्रवधू


 आज के चमकते-दमकते और आर्थिक रू प से तेजी से बढ़ते भारत में इतिहास के सशक्त हस्ताक्षरों के वंशजों की दशा के बारे में सोचने की किसी को फुरसत नहीं है। शायद इसीलिए मुगल शासन के अंतिम बादशाह बहादुरशाह जफर की प्रपौत्र वधू सुल्ताना बेगम  आज झुग्गियों में रहने को मजबूर हैं।
बहादुरशाह जफर की प्रपौत्र वधू सुल्ताना बेगम वर्तमान में कोलकाता की एक छोटी-सी झुग्गी में रहती हैं और जीवन-यापन के लिए वह एक चाय की दुकान चला रही हैं। अब मुगलकाल के अंतिम नरेश की प्रपौत्र वधू सुल्ताना बेगम की जिंदगी को झुग्गियों से निकालने के लिए आगे आए हैं पत्रकार शिवनाथ झा। इस के लिए झा ने ‘प्राइम मिनिस्टर्स आॅफ इंडिया- भारत भाग्य विधाता’ नामक एक किताब लिखी है, जिसमें 1947 से अब तक के सभी प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल का लेखा-जोखा है।

झा इस किताब के माध्यम से सुल्ताना की जिंदगी को झुग्गियों से निकालने के काम में लगे हैं। झा इसमें सुल्ताना की दुर्दशा की कहानी को बताने के साथ ही, किताब की बिक्री से अर्जित राशि को सुल्ताना के जीवनस्तर को सुधारने में लगाएंगे। झा ने बताया कि मैंने इससे पहले शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खां और 1857 के सैन्य विद्रोह के महान योद्धा टात्या टोपे के वंशज विजयराव टोपे को किताबों के माध्यम से आर्थिक मदद देने का सफल प्रयास किया। 2006 से मैं हरेक साल इस तरह के किसी एक व्यक्ति के ऊपर किताब लिखता हूं, जिससे उस व्यक्ति के जीवन स्तर में कुछ सुधार किया जा सके।

शिवनाथ ने कहा कि बिस्मिल्लाह खां साहब और टोपे की हमने हरसंभव मदद करने की कोशिश की। अब बारी सुल्ताना बेगम की है। उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र से जुडेÞ सभी लोगों से इस तरह के लोगों को सहायता देने की अपील करते हुए कहा कि हम सभी को इस काम के लिए अपने-अपने स्तर से प्रयास करना चाहिए। अंग्रेजी भाषा में छपी ‘प्राइममिनिस्टर्स आॅफ इंडिया- भारत भाग्य विधाता’ में कुल 444 पन्ने हैं और इसमें जाने-माने इतिहासकार विपिन चंद्रा, लेखक इंद्रजीत बधवार, पत्रकार वीर सांघवी, पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह और केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद आदि लेखकों ने अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल की समीक्षा की है।

इस किताब में कुछ ऐसे दुर्लभ फोटो लगाए गए हैं, जो आम तौर पर उपलब्ध नहीं होते। इसकी ऊंची कीमत इसको आम आदमी के पहुंच से दूर कर देती है। इस किताब की कीमत सात हजार नौ सौ 95 रुपए रखी गई है। लेकिन झा को उम्मीद है कि इस बार भी उनका प्रयास सफल होगा।( भाषा )।
 

Tuesday, December 29, 2009

सारनाथ में ढाई हजार वर्ष पुरानी दीवार

खबरों में इतिहास ( भाग-३)

अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करेगा, जो इतिहास या मिथकीय इतिहास से संबंधित होंगी। मूल रूप में देने के साथ इन खबरों का मूल लिंक भी है ताकि आपको मूल स्रोत की पहचान और प्रमाणिकता भी बनी रहे। इस अंक में पढ़िए--------।
१-सारनाथ में ढाई हजार वर्ष पुरानी दीवार

२-कांस्य युगीन आभूषण, हथियार सहित 12 हजार से ज्यादा वस्तुओं का संग्रह

३- 35 हज़ार साल पुरानी बांसुरी

४-यूपी में मिलीं 300 साल पुरानी तलवारें

५-मंदिर जहां भगवान शिव पर चढ़ाए जाते हैं झाड़ू!

६-सोने की 300 साल पुरानी कुरान


सारनाथ में ढाई हजार वर्ष पुरानी दीवार मिली

  सारनाथ बुद्ध की तपोस्थली है। विश्व पर्यटन के नक्शे में होने के कारण प्रतिदिन हजारों की संख्या में विभिन्न देशों से यहां पर्यटक आते हैं। यहां पिछले आठ वर्षों से भारतीय पुरातत्व विभाग की ओर से गुप्तकाल के समय बने चौखंडी स्तूप परिसर की वैज्ञानिक तरीके से खुदाई तथा सफाई कार्य चल रहा है। मंगलवार की शाम कर्मचारियों ने सफाई के दौरान गुप्तकालीन ढाई हजार वर्ष पूर्व की दीवार देखी।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षणविद अजय कुमार श्रीवास्तव ने बताया कि स्तूप की गुप्तकालीन दीवार मिलने से पुराने इतिहास की सच्चाई सामने आ रही है। श्रीवास्तव के मुताबिक सारनाथ चौखंडी स्तूप पर ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध से बिछड़े उनके शिष्य सारनाथ में मिले थे। यह निर्माण उन्हीं अनुयायियों की देन है। इसके पूर्व भी दो दीवारें पहले ही खोजी जा चुकी हैं। प्राचीन स्वरूप बना रहे अब वैज्ञानिक विधि से उसे संरक्षित भी कराया जाएगा।

मिलने वाली दीवार उत्तर दिशा की ओर है। चौखंडी स्तूप की पूरी चौतरफा दीवार मिलने पर ही स्तूप की मजबूती की कार्य योजना भी बनाई जाएगी। इसी तरह सारनाथ की खुदाई में मिले अशोक स्तम्भ, जर्जर स्थिति में न हो इसलिए इसे संरक्षित करने में वैज्ञानिक टीम कार्य में लगी है।

कांस्य युगीन आभूषण हथियार सहित 12 हजार से ज्यादा वस्तुओं का संग्रह


 इटली की पुलिस ने पुरा महत्व की बहुमूल्य वस्तुओं का एक विशाल जखीरा बरामद किया है जिन्हें एक पेंशनर ने अपना निजी संग्रहालय बनाने के लिए स्वयं खुदाई कराके इकट्ठा किया था 1 वेनिस के पास पुलिस अधिकारियों ने जब इस व्यक्ति के घर छापा मारा तो कांस्य युगीन कंघे से लेकर आभूषण हथियार और बर्तनों सहित 12 हजार से ज्यादा वस्तुओं का संग्रह देखकर उनकी आंखें चौंधिया गयी

वेनिस पुलिस के कर्नल पीर लुइगी पिसानो ने बताया .. यह व्यक्ति अपने स्तर पर खुदाई करा रहा था 1 हमें इसके पास से अमूल्य धरोहर मिली है जो ईसा से 18 वीं पूर्व से लेकर 18 वीं सदी तक के 3600 वषो के इस कालखंड के इस क्षेत्र के पूरे इतिहास को समेटे है 1.. इटली के कानून के मुताबिक यदि किसी व्यक्ति को पुरातात्विक महत्व की कोई वस्तु या स्थान का पता चलता है तो उसे इसकी जानकारी सरकार को देनी होती है 1लेकिन पुलिस को लगातार अवैध खुदाई के माघ्यम से पुरा महत्व की वस्तुओं को हासिल करने वालों के खिलाफ नजर रखी पडती है



35 हज़ार साल पुरानी बांसुरी मिली


जर्मनी में खोजकर्ताओं ने लगभग 35 हज़ार साल पुराना बाँसुरी खोज निकाला है और वैज्ञानिकों का कहना है कि यह दुनिया का पहला संगीत यंत्र हो सकता है.ये बाँसुरी गिद्ध की हड्डी को तराश कर बनाई गई है. दक्षिणी जर्मनी में होल फेल्स की गुफ़ाओं से इसे निकाला गया है. यह उस समय का है जब आधुनिक मानव जाति यूरोप में बसना शुरु हुई थी.बांसुरी के इस्तेमाल से पता लगता है कि उस समय समाज संगठित हो रहा था और उनमें सृजन करने की क्षमता थी. विशेषज्ञों का ये भी कहना है कि इससे ये पता लगाने में भी मदद मिल सकती है कि उस समय जाति का अस्तित्व कैसे बचा रहा.तूबिंजेन विश्वविद्यालय के पुरातत्व विज्ञानी निकोलस कोनार्ड ने बताया कि बांसुरी बीस सेंटीमीटर लंबी है और इसमें पाँच छेद बनाए गए हैं. इस बांसुरी के अलावा हाथी दाँत के बने दो बांसुरियों के अवशेष भी मिले हैं. अब तक इस इलाक़े से आठ बांसुरी मिली है.कोनार्ड कहते हैं, "साफ़ है कि उस समय भी समाज में संगीत का कितना महत्व था."

यूपी में मिलीं 300 साल पुरानी तलवारें


 उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के एक ईंट भट्ठे में खुदाई के दौरान प्राचीन काल की तलवारें और भाले मिले हैं। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इनके लगभग 300 साल पुराने होने की संभावना जताई है।} बहराइच के दरगाह थाना-प्रभारी शिवपत सिंह ने रविवार को आईएएनएस को बताया कि सांसापारा गांव में शनिवार को एक ईंट भट्ठे में मजदूर फुट गहरी खुदाई के बाद प्राचीन शस्त्रों का जखीरा मिला। शस्त्रों को बाहर निकालकर पुलिस को इसकी सूचना दी गई।

तीन भाले भी मिले
सिंह ने बताया, "खुदाई में सात प्राचीन तलवारें और तीन भाले मिले हैं। तलवारों की लंबाई करीब दो मीटर और भालों की लंबाई लगभग चार मीटर है। दिखने में ये राजसी शस्त्र जैसे लगते हैं।" पुलिस ने जब पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारियों को फोन पर तलवारों और भालों की बनावट और रंग-रूप के बारे में बताया तो अधिकारियों ने इनके 300 साल पुराने होने की संभावना जताई।

मंदिर जहां भगवान शिव पर चढ़ाए जाते हैं झाड़ू!
   भगवान शिव पर बेलपत्र और धतूरे का चढ़ावा तो आपने सुना होगा, लेकिन उत्तर प्रदेश के एक शिव मंदिर में भक्त उनकी आराधना झाड़ू चढ़ाकर करते हैं।
    मुरादाबाद जिले के बीहाजोई गांव के प्राचीन शिवपातालेश्वर मंदिर (शिव का मंदिर) में श्रद्धालु अपने त्वचा संबंधी रोगों से छुटकारा पाने और मनोकामना पूर्ण करने के लिए झाड़ू चढाते हैं। इस मंदिर में दर्शन के लिए भारी संख्या में भक्त सिर्फ मुरादाबाद जिले से ही नहीं बल्कि आस-पास के जिलों और दूसरे प्रांतों से भी आते हैं।
    मंदिर के एक पुजारी पंडित ओंकार नाथ अवस्थी ने आईएएनएस को बताया कि मान्यता है कि यह मंदिर करीब 150 वर्ष पुराना है। इसमें झाड़ू चढ़ाने की रस्म प्राचीन काल से ही है। इस शिव मंदिर में कोई मूर्ति नहीं बल्कि एक शिवलिंग है, जिस पर श्रद्धालु झाड़ू अर्पित करते हैं।

     पुजारी ने बताया कि वैसे तो शिवजी पर झ्झाड़ू चढ़ाने वाले भक्तों की भारी भीड़ नित्य लगती है, लेकिन सोमवार को यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। धारणा है कि इस मंदिर की चमत्कारी शक्तियों से त्वचा के रोगों से मुक्ति मिल जाती है। इस धारणा के पीछे एक दिलचस्प कहानी है।
65 वर्षीय ग्रामीण मकरध्वज दीक्षित ने बताया कि गांव में भिखारीदास नाम का एक व्यापारी रहता था, जो गांव का सबसे धनी व्यक्ति था। वह त्वचा रोग से ग्रसित था। उसके शरीर पर काले धब्बे पड़ गये थे, जिनसे उसे पीड़ा होती थी।

    एक दिन वह निकट के गांव के एक वैद्य से उपचार कराने जा रहा था कि रास्ते में उसे जोर की प्यास लगी। तभी उसे एक आश्रम दिखाई पड़ा। जैसे ही भिखारीदास पानी पीने के लिए आश्रम के अंदर गया वैसे ही दुर्घटनावश आश्रम की सफाई कर रहे महंत के झाड़ू से उसके शरीर का स्पर्श हो गया। झाड़ू के स्पर्श होने के क्षण भर के अंदर ही भिखारी दास दर्द ठीक हो गया। जब भिखारीदास ने महंत से चमत्कार के बारे में पूछा तो उसने कहा कि वह भगवान शिव का प्रबल भक्त है। यह चमत्कार उन्हीं की वजह से हुआ है। भिखारीदास ने महंत से कहा कि उसे ठीक करने के बदले में सोने की अशर्फियों से भरी थैली ले लें। महंत ने अशर्फी लेने से इंकार करते हुए कहा कि वास्तव में अगर वह कुछ लौटाना चाहते हैं तो आश्रम के स्थान पर शिव मंदिर का निर्माण करवा दें।

    कुछ समय बाद भिखारीदास ने वहां पर शिव मंदिर का निर्माण करवा दिया। धीरे-धीरे मान्यता हो गई कि इस मंदिर में दर्शन कर झाड़ू चढ़ाने से त्वचा के रोगों से मुक्ति मिल जाती है। हालांकि इस मंदिर में ज्यादातर श्रद्धालु त्वचा संबंधी रोगों से छुटकारा पाने के लिए आते हैं, लेकिन संतान प्राप्ति व दूसरी तरह की समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए भी श्रद्धालु भारी संख्या में मंदिर में झाड़ू चढ़ाने आते हैं। मंदिर में श्रद्धालुओं द्वारा झाड़ू चढ़ाए जाने के कारण यहां झाड़ुओं की बहुत जबरदस्त मांग है। मंदिर परिसर के बाहर बड़ी संख्या में अस्थाई झाड़ू की दुकानें देखी जा सकती हैं।


सोने की 300 साल पुरानी कुरान
  उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के हामिद परिवार को अपनी सोने की पुश्तैनी कुरान पर गर्व है और हो भी क्यों न अब तो केंद्र सरकार ने भी उसकी पहचान महत्वपूर्ण पांडुलिपि के रूप में की है। यह कोई साधारण कुरान नहीं, यह 300 साल पुरानी सोने की कुरान है, जिसको जौनपुर शहर के रहट्टा मुहल्ले में रहने वाला हामिद परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी संजोते आ रहा है। परिवार के मुखिया साजिद हमीद (55) ने कहा कि हमें आज फक्र है कि हमारी अनोखी सुनहरी कुरान को सरकार की तरफ से भी अहिमयत मिली है। हमारे जिले में ये तो पहले से ही सालों से ही चर्चा का विषय बनी रही है।

    इस कुरान का आकर्षण उसकी सोने की जिल्द है। 1756 पन्नों वाली कुरान में जहां जिल्द सोने की बारीक कलाकृतियों से गढ़ी हुई है, वहीं इसके पन्ने सोने के पत्ती के रूप में हैं। हामिद परिवार के मुताबिक पांच पीढ़ियों से उन्होंने यह कुरान संजोकर रखी है। साजिद के दादा वाजिद अली को यह उनके दादा से मिली थी और तब से पीढ़ी दर पीढ़ी हम लोग इसे संजोते आ रहे हैं।

मन्नत पूरी होने पर बनवाई थी

साजिद के अनुसार उनके परिवार की कोई एक मन्नत पूरी होने पर उनके पूर्वजों ने अल्लाह के लिए अपनी मोहब्बत जाहिर करने के लिए विशेष कारीगरों द्वारा ये कुरान बनवाई थी। अपने पूर्वजों से मिली कुरान का रखरखाव के लिए साजिद खास ध्यान देते हैं। सिर्फ इसी कुरान के लिए एक पारदर्शी आलमारी बनवाई है, जिसमें इसको रखा है। पढ़ने के लिए वो इसको नहीं निकालते क्योंकि उनका मानना है कि रोज खोलकर पढ़ने से इस कुरान के पन्नों को नुकसान पहुंच सकता है।

        वह कहते हैं कि मैं इसको किसी भी हाल में खोना नहीं चाहता है। यह मेरे पूर्वजों की पहचान है। मैंने अभी से अपने बेटे को सख्त हिदायत दे दी है कि मेरे न रहने पर इस कुरान को मेरी याद सझकर उसी तरह संजोकर मिसाल कायम करेगा, जो हमारा परिवार वर्षो से करता आ रहा है।
    साजिद के मुताबिक कुछ समय पहले केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय ने जिला प्रशासन से संप साधा जिसके बाद कुछ अधिकारी मुझसे मिलने आए। उस समय मुझे बताया गया कि सरकार ने इसकी पहचान महत्वपूर्ण पांडुलुपि के रूप में की है और वह जब चाहेगी इस धरोहर को अपने संरक्षण में ले सकती है। अनोखी सुनहरी कुरान को रखने के लिए हामिद परिवार की वर्षो से केवल मुहल्ले ही नहीं पूरे जौनपुर में चर्चा होती है। उसे देखने के लिए लोगों को तांता लगा रहता है। पड़ोसी तौफीक अहमद कहते हैं कि हम लोगों को इस बात का फक्र है कि ऐसी नायाब चीज हमारे शहर में मौजूद है।

Friday, December 25, 2009

क्रिसमस का इतिहास


 उन्हे तो आम त्योहार ही लगता है क्रिसमस
   क्रिसमस पूरी दुनिया में बड़ी मौजमस्ती से मनाया जाता है। पश्चिम बंगाल में तो यह भाईचारा का प्रतीक बन चुका है। मैं एक हिंदू परिवार से नाता रखता हूं मगर हर साल मेरे परिवार में क्रिसमस के दिन जो देखने को मिलता है अगर भी जानें तो आप भी मान लेंगे कि क्रिसमस का यहां लोगों से सिर्फ धार्मिक नाता नहीं है। ज्यादातर बंगाली परिवार तो इस दिन बड़ी मौजमस्ती करता है और सुबह ही बच्चों को लेकर घूमने निकल जाता है। मैं कभी ऐसा नहीं कर पाता हूं और बच्चों के बीच क्रिसमस को लेकर कभी ऐसी बात नहीं कहता जिससे वे बंगाली परिवारों का अनुसरण करें मगर यहां माहौल ही ऐसा बन जाता है कि सभी बड़ा दिन मनाने लगते हैं। जी हां मेरे उत्तरप्रदेश में यह दिन बड़ा दिन के तौरपर मनाया जाता है। आइए वह घटना बता दूं जो कई साल से बड़ा दिन पर मेरे परिवार में घटती आ रही है।



आज शाम को रात्रि की पाली मेरी ड्यूटी थी। मेरी धर्मपत्नी श्रीमती भारती सिंह ने कहा- क्या बना दूं। रोज की तरह कोई हरी सब्जी व चार रोटियां देने को मैंने पत्नी से कहा और तैयार होने लगा। पत्नी ने पूड़ियां बनाई और मेरी टिफिन में भर दिया। मैंने पूछा यह क्यों ? तो उन्होंने कहा- आज क्रिसमस है ( यानी त्योहार का दिन है ) और आप सिर्फ रोटी सब्जी क्यों खाएंगे। ऐसा वे स्वाभाविक तौरपर कह गईं मगर मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि हिंदू धर्म व अपने देवी देवताओं में धर्मांडंबर की हद तक आस्था रखने वाली औरत को क्रिसमस भी उसी तरह का त्योहार लगता है, जैसे होली-दिवाली हो। दरअसल सभी हिंदू त्योहारों पर अलग किस्म के व्यंजन बनाने की परंपरा बेरोकटोक मेरे घर में क्रिसमस पर भी जारी है। और क्रिसमस भी उन त्योहारों से अलग नहीं समझा जाता। यहां साफगोई से यह कहने में कतई परहेज नहीं करूंगा कि बाकी धर्मों के त्योहार मसलन ईद वगैरह से कोई विरोध नही है मेरी पत्नी को, मगर पता नहीं उन त्योहारों को क्रिसमस का दर्जा क्यों नहीं दे पाती हैं। मैं भी आस्तिक हूं मगर किसी भी धर्म का निंदक या विरोधी नहीं हूं। मैं ईद पर अपने बीरा मामा ( गांव में मेरे परिवार के शुभचिंतकों में से एक मुसलमान परिवार ) के घर की सेवईंया भी खाता था। अपने गांव में मुसलमान दोस्तों के साथ ताजिया में भी शामिल होता था। और मेरा मुसलमान दोस्त हमारी गांव की रामलीला में बिना किसी हिचक के जटायु की भूमिका निभाता था। जब मैं कोलकाता आया तो अपने मित्र फजल ईमाम मल्लिक के साथ अक्सर रात्रि ड्यूटी के बाद उनके साथ जाकर रोजे के हलवे वगैरह खाता था। लेकिन मैंने पत्नी को कभी अपनी तरफ से कोई दबाव नहीं डाला कि तुम धर्म निरपेक्ष बनो। ताज्जुब यह है कि धर्म व आस्तिकता व आडंबर की हद तक पूजापाठ करने वाली और इस मायने में छुआछूत को भी मानने वाली मेरी धर्मपत्नी को क्रिसमस अपने ही त्योहार जैसा लगता है।

क्रिसमस किसी एक समुदाय का त्योहार नहीं

शायद क्रिसमस के इसी तरह के ऐतिहासिक प्रादुर्भाव का जादू है जो मेरी पत्नी को भी प्रभावित करता है। कहते हैं कि करीब चार हजार साल पहले क्रिसमस किसी एक समुदाय का त्योहार नहीं था। आज जो क्रिसमस का स्वरूप देखने को मिलता है वह तो दो हजार साल पहले भी नहीं था। यहीं तक कि २५ दिसंबर को ईसीमसीह के जन्मदिन पर बी विवाद है। कहा जाता है कि ईसीमसीह जाड़े के दिनों में २५ दिसंबर को नहीं बल्कि किसी और दिन पैदा हुए थे। जबकि आज २५ दिसंबर ईसामसीह के जन्मदिन के तौरपर मनाया जाता है। यानी ईसामसीह के जन्म से भी पहले से क्रिसमस मनाया जाता है और यह विभिन्न समदायों का सम्मिलित त्यौहार है। ( आगे यह विस्तार से जानने के लिए क्रिसमस के इतिहास पर भी मैंने रोशनी डाली हैं। कृपया आप भी पढ़ लें )।---


अब आप कह सकते हैं कि कहीं से मेरी पत्नी ने यह इतिहास पढ़ लिया होगा जो इनको क्रिसमस को एक अपना त्योहार मानने जैसी मानसिकता के करीब लाया होगा। मगर आपको बता दूं मेरी पत्नी इतनी पढ़ाकू भी नहीं है। वह खुद अपने कई त्योहारों के बारे में इतिहासपरक जानकारी नहीं रखती हैं। अब उन्हें भले पता नहो मगर मुझे तो लगता है कि क्रिसमस ( बड़ा दिन ) सर्वधर्म का त्योहार बनता जा रहा है। क्यों कट्टर धार्मिक मेरी धर्मपत्नी श्रीमती भारती सिंह को भी इसमें कोई धार्मिक विरोध नजर नहीं आता। उन्हें तो आम त्योहारों जैसा उल्लास इसमें भी नजर आता है। क्या ही अच्छा होता कि भारत के लोगों के मानस में सभी धर्मों के त्योहार ऐसे ही नजर आते और कोई राजनीतिक राक्षस अपने वोट के लिए इन्हें न बरगला पाता और न ही कोई दंगा करा पाता।

क्रिसमस का इतिहास

क्रिसमस का इतिहास लगभग चार हजार वर्ष पुराना है। क्रिसमस की परम्परा ईसा के जन्म से शताब्दियों पुरानी है। क्रिसमस के दिनों उपहारों का लेन देन, प्रार्थना गीत, अवकाश की पार्टी तथा चर्च के जुलूस- सभी हमें बहुत पीछे ले जाते हैं। यह त्योहार सौहार्द, आह्लाद तथा स्नेह का संदेश देता है। एक शोध के अनुसार क्रिसमस एक रोमन त्योहार सैंचुनेलिया का अनुकरण है।सैंचुनेलियारोमन देवता है। यह त्योहार दिसम्बर के मध्यान्ह से जनवरी तक चलता है। लोग तरह तरह के पकवान बनाते थे। मित्रों से मिलते थे। उपहारों का अदल-बदल होता था। फूलों और हरे वृक्षों से घर सजाए जाते थे। स्वामी और सेवक अपना स्थान बदलते थे।


एन्साइक्लोपीडिया के अनुसार कालान्तर में यह त्योहार बरुमेलिया यानी सर्दियों के बड़े दिन के रूप में मनाया जाने लगा। ईसवी सन् की चौथी शती तक यह त्योहार क्रिसमस में विलय हो गया। क्रिसमस मनाने की विधि बहुत कुछ रोमन देवताओं के त्योहार मनाने की विधि से उधार ली गई है। कहते हैं कि यह त्योहार ईसा मसीह के जन्मोत्सव के रूप में सन् 98 से मनाया जाने लगा। सन् 137 में रोम के बिशप ने इसे मनाने का स्पष्ट ऐलान किया। सन् 350 में रोम के यक अन्य बिशपयूलियस ने दिसम्बर 25 को क्रिसमस के लिए चुना था। इतिहासकारों की यह राय भी मिलती है कि 25 दिसम्बर ईसा मसीह का जन्म दिन नहीं नहीं था। इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर कहीं नहीं मिलता कि 25 दिसम्बर ही ईसा मसीह का जन्म कब हुआ। न तो बाईबल इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देती है और न ही इतिहासकार ईसा की जन्म तिथि की दृढ़ स्वर में घोषणा करते हैं। ऐसे तथ्य भी मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि ईसा का जन्म सर्दियों में नहीं हुआ था। यहीं पर यह तथ्य हमारा ध्यान आकर्षित करता है कि क्रिसमस सर्दियों में ही क्यों मनाया जाता है।


एक शोध हमें इस त्योहार का मूल मैसोपोटामिया सभ्यता ( वर्तमान ईराक में प्राचीन काल में दजला व फरात नदियों के बीच फली-फूली विश्व की प्रचान सभ्यताओं में से एक ) में खोजने को मजबूर करता है। मैसोपोटामिया में लोग अनेक देवताओं पर विश्वास करते थे, किन्तु उनका प्रधान देवता मार्डुक था। हर वर्ष सर्दियों के आगमन पर माना जाता था कि मार्डुक अव्यवस्था के दानवों से युद्ध करता है। मार्डुक के इस संघर्ष के सहायतार्थ नव वर्ष का त्योहार मनाया जाता था। मैसोपोटेमिया का राजा मार्डुक के मंदिर में देव प्रतिमा के समक्ष वफादारी की सौगंध खाता था। परम्पराएं राजा को वर्ष के अंत में युद्ध का आमन्त्रण देती थी ताकि वह मार्डुक की तरफ से युद्ध करता हुआ वापिस लौट सके। अपने राजा को जीवित रखने के लिए मैसोपोटामिया के लोग एक अपराधी का चयन करके उसे राजसी वस्त्र पहनाते थे। उसे राजा का सम्मान और सभी अधिकार दिए जाते थे और अंत में वास्तविक राजा को बचाने के लिए उसकी हत्या कर दी जाती थी। क्रिसमस के अन्तर्गत मुख्य ध्वनि भगवान को प्रसन्न करने की ही है।


परशिया तथा बेबिलोनिया में ऐसा ही एक त्योहार सैसिया नाम से मनाया जाता था। शेष सभी रस्मों के साथ-साथ इसमें एक और रस्म थी। दासों को स्वामी और स्वामियों को दास बना दिया जाता था।


आदि यूरोपियन लोग चुड़ैलों, भूतों और दुष्ट आत्माओं में विश्वास करते थे। जैसे ही सर्दी के छोटे दिन और लम्बी-ठंडी रातें आती, लोगों के मन में भय समा जाता कि सूर्य देवता वापिस नहीं लौटेंगें। सूर्य को वापिस लाने के लिए इन्हीं दिनों विशेष रीति रिवाजों का पालन होता। समारोह का आयोजन होता।


सकैण्डीनेविया में सर्दी के महीनों में सूर्य दिनों तक गायब रहता। सूर्य की वापसी के लिए पैंतीस दिन के बाद पहाड़ की चोटियों पर लोग स्काउट भेज देते। प्रथम रश्मि के आगमन की शुभ सूचना के साथ ही स्काउट वापिस लौटते। इसी अवसर पर यूलटाइड (yuletide) नामक त्योहार मनाया जाता। प्रज्वलित अग्नि के आसपास खानपान का आयोजन चलता है। अनेक स्थलों पर लोग वृक्षों की शाखाओं से सेब लटका देते हैं। जिसका अर्थ होता है कि बसंत और ग्रीष्म अवश्य आएंगे।


पहले यूनान में भी इससे मिलता जुलता एक त्योहार मनाया जाता था। इसमें लोग देवता क्रोनोस की सहायता करते थे ताकि वह ज्यूस तथा उसकी साथी दुष्ट आत्माओं से लड़ सके।


कुछ किवंदंतियां यह भी कहती हैं कि ईसाइयों का क्रिसमस त्योहार नास्तिकों के दिसम्बर समारोह को चुनौती है, क्योंकि 25 दिसम्बर मात्र रोम मैसोपेटामिया, बेबिलोन, सकैण्डिनेनिया या यूनान के लिसटपिविज का दिन ही नहीं था, अपितु उन पश्चिमी लोगों के लिए भी था, जिनका मिथराइज धर्म ईसाइयत के विरूद्ध था।


ईसाइयों का धर्मग्रंथ बाइबल के नाम से माना जाता है। मूलत: यह यहूदियों और ईसाइयों का साझा धर्म ग्रंथ है। जिसके ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट दो भाग हैं। ओल्ड टेस्टामेंट में क्राइस्ट के जन्म से पहले के हालात अंकित हैं। इसमें 39 पुस्तकें हैं। न्यू टेस्टामेंट में ईसा का जीवन, शिक्षाएं एवं विचार हैं। इसमें 27 पुस्तकें है। यानी बाईबल 66 पुस्तकों का संग्रह है, जिसे 1600 वर्षों में 40 लेखकों ने लिखा। इसमें मिथकीय, काल्पनिक और ऐतिहासिक प्रसंग हैं। ओल्ड टेस्टामेंट में क्राइस्ट के जन्म विषयक भविष्यवाणी है। एक किंवदंती के अनुसार बढ़ई यूसुफ तथा उसकी मंगेतर मेरी नजरेन में रहते थे। मेरी को स्वप्न में भविष्यवाणी हुई कि उसे देवशिशु के जन्म के लिए चुना गया है। इसी बीच सम्राट ने नए कर लगाने हेतु लोगों के पंजीकरण की घोषणा की, जिसके लिए यूसुफ और मेरी को अपने गांव बेथलहम जाना पड़ा। मेरी गर्भवती थी। कई दिनों की यात्रा के बाद वह बेथलहम पहुँची। तब तक रात हो चुकी थी। उसे सराय में विश्राम के लिए कोई स्थान न मिल सका। जब यूसुफ ने विश्रामघर के रक्षक को बताया कि मेरी गर्भवती है और उसका प्रसव समय निकट है तो उसने पास के पहाड़ों की उन गुफाओं के विषय में बताया, जिनमें गडरिए रहते थे । यूसुफ और मेरी एक गुफा में पहुँचे। यूसुफ ने खुरली साफ की। उसमें नर्म, सूखी, साफ घास का गद्दा बनाया। अगली सुबह मेरी ने वहीं शिशु को जन्म दिया। देवेच्छा के अनुसार उसका नाम यूसुफ रखा गया। कालान्तर में बारह वर्षीय यीशू ने ही धर्मचर्या में श्रोताओं को मुग्ध कर लिया। तीस वर्ष की आयु में अपने चचेरे भाई जान से बपतिसमा (अमृत) ग्रहण किया। शासक द्वारा जान की हत्या के बाद वे खुद बपतिसमा देने लगे। यीशु के प्रचारों के कारण यहूदी शासक और कट्टरपंथी उनके विरोधी बन गए। उन पर अनेक अपराध थोपे गये। कोड़े मारे गए। सूली पर लटकाया गया। मृत्युदंड दिया गया। आज का क्रिसमस का त्योहार प्रतिवर्ष यीशू के जन्म दिन यानी मुक्तिदाता मसीहा के आविर्भाव के उपलक्ष में मनाया जाता है, भले ही इसके मूल में अनेक देशों की परम्पराओं का सम्मिश्रण है।
 
  क्रिसमस के इतिहास पर विस्तार से रोशनी डालने वाले कुछ और लेख व उनके लिंक---------।
 
 
क्रिसमस : कुछ तथ्य



मौसम की सर्द हवाएँ क्रिसमस को दस्तक देते हुए नववर्ष का आगमन का संदेश हौले से देती हैं और लाल हरी छटा, प्रकृति में हर तरफ़ नज़र आने लगती है। क्रिसमस यानि बड़ा दिन २५ दिसम्बर को ईसा मसीह के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है मगर इस मंज़िल तक पहुचने में इस पर्व को लम्बा समय लगा।


ईसा मसीह का जन्मदिन


ईसा के पूर्व रोम राज्य में २५ दिसम्बर को सूर्य देव डायनोसियस की उपासना के लिए मनाया जाता था। रोमन जाति का मानना था कि इसी दिन सूर्य का जन्म हुआ था। उन दिनों सूर्य उपासना रोमन सम्राटों का राजकीय धर्म हुआ करता था बाद में जब ईसाई धर्म का प्रचार हुआ तो कुछ लोग ईसा को सूर्य का अवतार मानकर इसी दिन उनका भी पूजन करने लगे।


धीरे-धीरे ईसा की प्रथम शताब्दी में ईसाई लोग ईसा मसीह का जन्म दिन इसी दिन मनाने लगे। ३६० ईसवी के आसपास रोम के चर्च में ईसा मसीह के जन्मदिवस का प्रथम समारोह आयोजित किया गया जिसमें पोप ने भाग लिया था। इन सब के बावजूद तारीख के सम्बन्ध में मतभेद बने रहे, वो इसलिए कि उन दिनों इस तारीख पर अन्य समारोह भी आयोजित किए जाते थे जिसमें नोर्समेन जाति के यूलपर्व और रोमन लोगों का सेटरनोलिया पर्व प्रमुख थे जिनका आयोजन ३० नवम्बर से २ फरवरी के बीच में होता था। इन उत्सवों का ईसाई धर्म से उस समय को सम्बन्ध नहीं था। कुछ समय के बाद अधिकांश धर्मधिकारों और ईसाई धर्मावलंबियों की लम्बी बहस और विचार विमर्श के बाद चौथी शताब्दी में रोमन चर्च व सरकार ने संयुक्त रूप से २५ दिसम्बर को ईसा मसीह का जन्मदिवस घोषित कर दिया। यरूशलम में इस तारीख को पाँचवी शताब्दी के मध्य में स्वीकार किया गया। इसके बाद भी क्रिसमस दिवस को लेकर विरोध अंतविरोध चलते रहे। अन्त में १९३६ मेंअमेरिका में इस दिवस को कानूनी मान्यता मिली और २५ दिसम्बर को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया। इस से अन्य देशों में भी इस पर्व को बल मिला और यह बड़ा दिन यानि क्रिसमस के रूप में मनाया जाने लगा। क्रिसमस के समय को यूलूटाइड् भी कहते थे। १९ वी शताब्दी तक 'यूल' लकड़ी के टुकड़े को क्रिसमस के अवसर पर घर लाने की परम्परा थी।


मदर मरियम


ईसा को जन्म देने वाली मरिया गलीलिया इसराइल प्रदेश में नाजरेथ शहर की रहने वाली थी। ईसा के जन्म को लेकर न्यूटेस्टामेंट में उस कहानी का वर्णन है जिसमें लिखा है कि एक दिन ईश्वर ने अपने दूत गाब्रियल को मरिया के पास भेजा। देवदूत नें मरिया से कहा कि वह ईश्वर के पुत्र को जन्म देगी और उस बच्चे का नाम जीसस होगा वह ऐसा राजा होगा जिसके राज्य की कोई सीमा नहीं होगी, तब मरिया ने कहा कि ऐसा सम्भव नहीं है क्योकि मैं किसी पुरुष को नहीं जानती, तब देवदूत ने कहा पवित्रात्मा के वरदान से आप दैवीय बालक को जन्मेंगी जो ईश्वर पुत्र कहलाएँगे। मेरी का विवाह जोसेफ नामक युवक से हुआ था। वह दोनों नाजरथ में रहा करते थे। उस समय नाजरथ रोमन साम्राज्य में था और तत्कालीन रोमन साम्राट आगस्तस ने जिस समय जनगणना किए जाने का आदेश दिया था, उस समय मेरी गर्भवती थी। सभी लोगों को नाम लिखवाने बैथलहम जाना पड़ा। दम्पति जोसेफ और मैरी को कहीं जगह न मिलने पर एक अस्तबल में जगह मिली और यही पर ईसा या जीसस का जन्म हुआ। ईसाइयों के लिए यह घटना अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वे मानते है कि जीसस ईश्वर के पुत्र थे इसलिए क्रिसमस खुशी और उल्लास का त्यौहार है क्योंकि उस दिन ईश्वर का पुत्र, कल्याण के लिए पृथ्वी पर आया था।


परम्परा का प्रतीक क्रिसमस ट्री


सदाबहार झाड़ियाँ तथा सितारों से लदें क्रिसमस वृक्ष को सदियों से याद किया जाता रहा है। हॉलिड् ट्री नाम से जाना जाने वाला यह वृक्ष ईसा युग से पूर्व भी पवित्र माना जाता था। इसका मूल आधार यह रहा है, कि फर वृक्ष की तरह सदाबहार वृक्ष बर्फ़ीली सर्दियों में भी हरे भरे रहते हैं। इसी धारणा से रोमनवासी सूर्य भगवान के सम्मान में मनाए जाने वाले सैटर्नेलिया पर्व में चीड़ के वृक्षों को सजाते थे। यूरोप के अन्य भागों में हँसी खुशी के विभिन्न अवसरों पर भी वृक्षों की सजाने की प्राचीन परम्परा थी। इंग्लैंड़ और फ्रांस के लोग ओक के वृक्षों को फसलों के देवता के सम्मान में फूलों तथा मोमबतियों से सजाते थे। क्रिसमस ट्री को लेकर कई किंवदंतिया हैं-


ईसाई संत बोनिफेस जर्मनी के यात्रा करते हुए एक रोज़ ओक के वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे जहाँ गैर ईसाई ईश्वर की सन्तुष्टि के लिए बच्चे की बलि देने की तैयारी कर रहे थे। संत बोनिफेस ने बलि रोकने के लिए यह वृक्ष काट डाला और उसके स्थान पर फर का वृक्ष लगाया जिसे वह जीवन वृक्ष तथा यीशू के जीवन का प्रतीक बताते है। एक जर्मन किंवदंती यह भी है कि जब यीसू का जन्म हुआ तब वहाँ चर रहे पशुओं ने उन्हें प्रणाम किया और देखते ही देखते जंगल के सारे वृक्ष सदाबहार हरी पत्तियों से लद गए। बस तभी से क्रिसमस ट्री को ईसाई धर्म का परम्परागत प्रतीक माना जाने लगा। घरों के अन्दर क्रिसमस ट्री सजाने की परम्परा जर्मनी में आरम्भ हुई थी। १८४२ में विंडसर महल में वृक्ष को सजा कर राजपरिवार ने इसे लोकप्रिय बनाया।


क्रिसमस की सजावट के सम्बन्ध कुछ सदाबहार चीज़ें और भी हैं जिन्हे परम्परा का हिस्सा व पवित्र माना जाता है जिसमें 'होली माला' को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है इसे त्यौहार पर परम्परागत रूप से घरों और गिरजाघरों में लटकाया जाता है। 'मिसलटों' का सम्बन्ध भी क्रिसमस पर की जाने वाली सजावट से ही है। मिसलटों की नुकीली पत्तियाँ जीसस के ताज में लगे कंटीले काँटे को दर्शाती है और इस पौधे की लाल बेरी उनके खून की बूँद का प्रतीक मानी जाती है। शायद यही वजह थी कि मध्य युग में चचों में किसी भी रूप में इसके इस्तेमाल पर मनाही थी।


सांता क्लांज :


इस शब्द की उत्पति डचसिंटर से हुई थी। यह संत निकोलस का लोकप्रिय नाम था। ऐसी धारणा है कि वह ईसाई पादरी थे, जो माइनर में कोई डेढ़ हजार साल पहले रहते थे। वे बहुत दयालु और उदार थे व हमेशा ज़रूरतमंदो की मदद करते थे। बच्चों से जुड़े उनके सम्बन्धों के बारे में किंवदंती प्रचलित है कि एक बार उन्होंने तीन गरीब लड़कियों की मदद की थी कहा जाता है कि लड़कियों के बाहर लटक रहे मोजों में उन्होंने सोने के सिक्के डाल कर आर्थिक मदद की थी जो उनकी शादी करने में मददगार साबित हुई। तब से लेकर अब तक दुनियाभर के बच्चों में क्रिसमस पर जुराबों को लटकाने की परम्परा चली आ रही है। उनका मानना है कि संत निकोलस और उन्हें ढेर सारे उपहार दिए जाएँगे। दुनियाभर में इससे मिलती जुलती परम्पराएँ है। फ्रांस में बच्चे चिमनी पर अपने जूते लटकाते हैं। हॉलेंड में बच्चें अपने जूतों में गाजर भर देते हैं, यह गाजर वे सांता क्लॉज के घोडे के लिए रखते हैं। हंगरी में बच्चे खिड़की के नज़दीक अपने जूते रखने से पहले खूब चमकाते हैं ताकि सांता खुश होकर उन्हे उपहार दे। यानि की उपहार बाँटने वाले दूत को खुश कर उपहार पाने की यह परम्परा सारी दुनिया में प्रचलित है। इसी प्रचलन से उन्हे बच्चों का सन्त कहा जाने लगा। मध्ययुग में संत निकोलस का जन्म दिवस ६ दिसम्बर को मनाया जाता था। अब यह मान्यता है कि वह क्रिसमस की रात को आते है और बच्चों को तरह-तरह के उपहार वितरित करते हैं जिससे क्रिसमस का हर्षोल्लास बना रहे। इस तरह क्रिसमस व बच्चों के साथ संत निकोलस के रिश्ते जुड़ गए। यही अमेरिकी बच्चों के सांता क्लाज बन गए और वहाँ से यह नाम सम्पूर्ण विश्व में लोकप्रिय हो गया।


क्रिसमस आधुनिक परिवेश में १९वी सदी की देन है। क्रिसमस पर आतिशबाजी १९वी सदी के अन्त में टोम स्मिथ द्वारा शुरू की गई थी। सन १८४४ में प्रथम क्रिसमस कार्ड बनाया गया था। जिसका प्रचलन सन १८६८ तक सर्वत्र हो गया। सान्ता क्लाज या क्रिसमस फादर का ज़िक्र सन १८६८ की एक पत्रिका में मिलता है। १८२१ में इंग्लैंड की महारानी ने क्रिसमस ट्री में देव प्रतिमा रखने की परम्परा को जन्म दिया था।


कैरोल :


क्रिसमस के कई दिन पहले से ही सभी ईसाई समुदायों द्वारा कैरोल गाए जाते है। कैरोल वह ईसाई गीत है, जिसे क्रिसमस के अवसर पर सामूहिक रूप से गाया जाता है। कैरोल का इतिहास बहुत पुराना है। स्वर्गीय मारिया आंगस्टा ने अपनी पुस्तक 'द साउंड ऑफ म्यूज़िक' में लिखा था कि क्रिसमस पर गीत गाने की परम्परा ईसाईवाद की बरसों पुरानी परम्परा का हिस्सा है। यह सबसे पुरानी लोक परम्परा है जो अभी तक जीवित है। कैरोल के मूल स्वरूप में घेरा बनाकर नृत्य किया जाता था। इसमें गीतो का समावेश बाद में किया गया। कैरोल को लोकप्रिय और वर्तमान स्व्रूप में लाने का श्रेय संत फ्रांसिस को जाता है। उन्होंने १२२३ में क्रिसमस के समय मघ्यरात्रि के दौरान एक गुफा में गाया था। यह गीत एक तरह के भजन जैसा था। तब से ईसाई समुदायों में २४-२५ दिसम्बर के बीच की रात को गिरजाघरों में पूजा आराधना व भक्तिभावपूर्ण गीत गाने की परम्परा चली आ रही है।


ईसा को उपहार :


क्रिसमस का त्यौहार बिना उपहार के अधूरा है। इस अवसर पर एक दूसरे को उपहार देने की परम्परा है। क्रिसमस पर उपहार देने का चलन जीसस के जन्म से शुरू हुआ था। कहते है जीसस की जन्म की सूचना पाकर न्यूबिया व अरब के शासक मेलक्यांर, टारसस के राजा गॅसपर और इथीयोपिया के सम्राट बलथासर येरूशलम पहुँचे थे। जब वे घर में घुसे तब उन्होंने अपने सामने जोसेफ और मदर मैरी को पाया। वे प्रभु के चरणों में गिर गए और उनका यशोगान करने लगे और अपने साथ लाए खजाने से स्वर्ण व लोबान जीसस के चरणों में अर्पित किया।


यह भी कहा जाता है कि संत डेनियल की यह भविष्यवाणी, कि ईश्वरीय शक्ति प्राप्त एक बालक का जन्म हुआ है के आधार पर विद्वान मजीथियस, जो स्वयम भी दैवज्ञ व खगोल विद्या के ज्ञाता थे, दैवीय बालक यीशु के दर्शन करने बेथलेहम गए तब उन्होंने सारे उपहार दिए। इस तरह जीसस के जन्म के साथ ही उपहार देने की परम्परा शुरू हो गयी।


ईसाई धार्मिक स्थल :


यीशु के जन्म से जुड़े कुछ ईसाई धर्म स्थलों में नाजरेथ-जहाँ यीशु की परवरिश हुई थी, गॅलिली-जहाँ उन्होंने अपना धर्मोपदेश दिया था और यरूशलम- जहाँ मौत के साथ उन्होने आँख मिचौली खेली थी, बेथलेहम- जहाँ ईसा मसीह जन्मे महत्वपूर्ण हैं।


नाजरेथ के सेंट जोसफ के पास वह स्थान है जहाँ यीशु का पवित्र परिवार रहता था। बालक यीशु यहीं पास के जंगलो से अपने पिता के साथ लकड़ियाँ काट कर लाते थे। वही पास में प्राचीन कुँआ है जहाँ से मदर मेरी परिवार के लिए रोज़ पानी भर कर लाती थी। नाजरेथ में वह स्तंभ भी देखा जा सकता है, जिस पर खड़े होकर जिब्रील फरिश्ते ने माँ मरियम की कोख से जीसस के जन्म की भविष्यवाणी की थी। इसके समीप ही मदर मेरी का घर है। नाजरेथ नगर ने अपनी ऐतिहासिक धरोहर को संजोकर रखा है।


इज़राइल के बेथलेहम नगर में मदर मेरी के गिरजाघर में पत्थर की वह ऐतिहासिक दीवार आज तक मौजूद है, जिसका निर्माण धर्मयुद्ध के दौरान किया गया था। यहीं एक नक्काशीदार चबूतरे पर वह टोकरी भी रखी हुई है, जिसमें जीसस का जन्म हुआ था।


जॉर्डन की सीमा के पास गॉलिली झील के समीप यीशु ने अपना दैवीय उपदेश मानव जाति को दिया था। गॉलिली के सागर तट से उत्तर में कॉपेनां गाँव है जो संत पीटर का निवास स्थान था। इसी गाँव से उन्होंने यीशु के उपदेशों का प्रचार किया था। यही एक सभागृह है जहाँ से ईसामसीह धर्मोपदेश देते थे। 'इस धरती पर विन्रम और शालीन लोग राज करेंगे', ईसा ने अपना प्रसिद्ध आध्यात्मिक संदेश इसी गाँव के पास परमानंद पर्वत शृंखला के गिरजे की एक चट्टान पर बैठ कर दिया था। इसी गिरजाधर में एक चट्टान नज़र आती है जहाँ मत्स्य व डबलरोटी की प्रतिकृति है जो एक प्रतीक चिह्न है। यही बैठ कर यीशु अपने अनुयायियों के साथ मछली व डबल रोटी का भोजन करते थे। जीसस ने अपने प्रारंभिक वर्ष यही गुज़ारे थे।


उनके जीवन का उत्तरार्द्ध यरूशलम के समीप गुज़रा था। यरूशलम का मंदिर ७२वीं ईस्वीं में नष्ट हो चुका था अब वहाँ केवल कुछ अवशेष बचें है। यहीं पर पाषाण मकबरा है। किंग डेविड के मकबरे पर हर साल यहूदी श्रद्वालुओं का जमघट रहता है। नगर में कई प्राचीन इमारतें भी है। यरूशलम से तेल अबीब लौटते हुए यीशु की यादों से जुड़े कई धर्म स्थल मिलते हैं। काल्वेरी में पवित्र सेपल्श्रे गिरजाघर है, जहाँ ईसा को सूली पर चढ़ाया गया था। अन्दर जाने पर वह जगह देखी जा सकती है, जहाँ ईसा ने परमपिता को अपनी आत्मा सौपी। गिरजाघर के परिसर में ही वह गुफ़ा भी है, जहाँ सूली पर चढाए़ जाने बाद यीशु का शरीर दफनाया गया था।


क्रिसमस आमोद प्रमोद, मौज मस्ती, मेहमान नवाजी और सौभाग्य का सूचक माना जाता है। हर साल गीत संगीत के जरिये दमकती रोशनी में यीशु की जन्मगाथाएँ क्रिसमस की झाँकियों के रूप में दोहरायी जाती है।


देश विदेश में क्रिसमस

क्रिसमस एक ऐसा त्यौहार है, जो सारी दुनिया में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इसकी शुरुआत दो हज़ार साल पूर्व ईसा मसीह के जन्मदिवस के रूप में हुई थी और केवल ईसाई धर्म से जुड़े लोग ही इसे मनाते थे, लेकिन कालांतर में सभी धर्म के लोग इस त्यौहार को मौज-मस्ती के त्यौहार के रूप में मनाने लगे। इस त्यौहार के सर्वव्यापी बनने का सबसे बड़ा कारण शायद सांता क्लाज़ रहा है, जिसने दुनियाभर के बच्चों का मन मोह लिया। बचपन में हमने अपने माता-पिता को, जो अपने घोर गांधीवादी तथा प्रगतिशील विचारों के लिए प्रसिद्ध थे, हर साल इस त्यौहार पर सभी भाई-बहनों के लिए क्रिसमस ट्री के नीचे तोहफ़े रखकर हमें आश्चर्यचकित करते देखा था।


तब हमारा बालसुलभ मन कंधे पर उपहारों का बड़ा-सा बोरा लादे इस महान संत के विषय में तरह-तरह की कल्पनाएँ करता रहता था और २५ दिसंबर की रात को हम इस विश्वास के साथ गहरी नींद में खो जाते थे कि रात को चुपके से वह हमारे घर आकर हमारा मनपसंद उपहार पेड़ के नीचे रख जाएगा। जिस प्रकार हमारे माता-पिता हमारे बाल मन को भरमाते थे, उसी तरह हम भी बाद में अपने बच्चों के लिए क्रिसमस के उपहार रखने लगे। हमारे दोनों बच्चे हर साल बड़ी तन्मयता से सांता क्लाज के नाम अपनी चिठ्ठी लिखने के बाद उसे एक मोजे में रखकर खिड़की में टाँग देते थे और अगले दिन जब वे सोकर उठते थे तो उन्हें अपने उपहार जगमगाते क्रिसमस पेड़ के नीचे रखे मिलते थे। सच्चाई बताकर उनका विश्वास तोड़ने की हमारी कभी हिम्मत नहीं हुई। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही इस परंपरा की मज़ेदार बात यह है कि जब हमारे बच्चे बड़े हुए, तब सच्चाई जान लेने के बावजूद वे भी सांता क्लाज के उपहारों से अपने बच्चों का मन लुभाने लगे।


इस त्यौहार के सर्वव्यापी होने का सबसे बड़ा सबूत हमें अपनी हाल ही की चीन यात्रा के दौरान मिला। हमने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि इस कम्यूनिस्ट देश में, जिसके शासक धर्म को जनता को गुमराह करनेवाली अफीम की संज्ञा देते रहे हैं, हमें क्रिसमस का हंगामा देखने को मिलेगा। गुआंगचाऊ के एक पाँच सितारा होटल में प्रवेश करते ही जीज़स की जन्म की झाँकियाँ तथा बिजली की रोशनी में जगमगाता क्रिसमस पेड़ देखकर हम आश्चर्यचकित रह गए।


त्यौहार धन कमाने का साधन


बाद में हमें पता चला कि चीन में क्रिसमस से जुड़ी चीज़ों का उत्पादन बहुत बड़े पैमाने पर होता है और ईसाई धर्म से जुड़ा यह त्यौहार उसके लिए धन कमाने का बहुत बड़ा साधन बन गया है। पहले ताइवान, फिलिप्पीन तथा थाईलैंड जैसे देश इस व्यापार में अग्रणी थे, लेकिन अब चीन ने उन सभी को बहुत पीछे छोड़ दिया है। चीनी लोग हर साल इनमें परिवर्तन करते रहते हैं और इन्हें अन्य देशों से अधिक आकर्षक बनाने की होड़ में लगे रहते हैं।


जापान तो मूल रूप से एक बौद्ध देश है, लेकिन चीन की ही तरह १९ वीं शताब्दी में वहाँ भी इस त्यौहार से संबंधित चीज़ों का निर्माण शुरू हो गया था। तभी से जापानी लोग क्रिसमस के नाम से परिचित होने लगे। हालाँकि जापान में केवल एक प्रतिशत लोग ही ईसाई धर्म के अनुयायी हैं, लेकिन यह त्यौहार बच्चों से जुड़ा होने के कारण लगभग हरेक जापानी घर में आपको सजा हुआ क्रिसमस पेड़ देखने को मिल जाएगा। जापानवासियों के लिए यह एक छुट्टी का दिन होता है, जिसे वे बच्चों के प्रति अपने प्यार को समर्पित करते हैं। २४ दिसंबर को सांता क्लाज बच्चों के लिए अनेक उपहार लेकर आता है। इस अवसर पर हर शहर दुल्हन की तरह सजाया जाता है और जगह-जगह आपको खिलौनों, गुड़ियों, रंग-बिरंगे कंदीलों और अन्य चीज़ों से सजे बड़े-बड़े क्रिसमस के पेड़ देखने को मिल जाएँगे। जापान की सबसे ख़ास चीज़ है ऑरिगैमी से बना (काग़ज़ मोड़ कर तथा काट कर बनाया गया) पक्षी, जिसे ये लोग शांति का दूत कहते हैं। इसे जापानी बच्चे एक-दूसरे को उपहार में देते हैं।


जापान में क्रिसमस प्रेम का प्रतीक


जापानियों के लिए क्रिसमस रोमांस अर्थात प्रेम का पर्यायवाची भी बन गया है। इस दिन जापानी लोग इंटरनेट पर अपने साथी की तलाश करते हैं और मज़े की बात यह है कि उन्हें कोई न कोई साथी मिल भी जाता है। ज़्यादातर लोगों के लिए यह दोस्ती केवल इस त्यौहार के दिन तक ही सीमित रहती है, लेकिन कभी-कभी वह ज़िंदगी भर के साथ में भी परिणित हो जाती है।


ऑस्ट्रेलिया के क्रिसमस का ज़ायका हमें ब्रिस्बेन हवाई अडडे पर उतरते मिल गया था। हवाई अडडे पर स्थित दूकानें तथा क्रिसमस ट्री तो सुंदर ढंग से सजायी गई थीं, साथ ही सांता क्लाज़ की वेशभूषा धारण किया एक व्यक्ति घूम-घूमकर बच्चों को चाकलेट भी बाँट रहा था। बाद में हमने गौ़र किया वहाँ इस त्यौहार को मनाने का अपना अलग ही अंदाज़ है। दिसंबर में जब अन्य देश ठंड से सिकुड़ रहे होते हैं और कहीं-कहीं बऱ्फ भी पड़ रही होती हैं, वहीं दूसरी ओर ऑस्ट्रेलिया में यह गर्मियों का मौसम होता है। वहां के लोग इस त्यौहार को समुद्र के किनारे मनाते हैं और इस अवसर पर अपने मित्रों तथा स्वजनों के लिए एक विशेष रात्रि-भोज का आयोजन करते हैं, जिसमें 'बार्बेक्यू पिट' में भुना अलग-अलग किस्म का मांस शामिल होता है। इसके अलावा आलूबुखारे की खीर विशेषरूप से बनाई जाती है। ऑस्ट्रेलियायी लोग अपने सगे-संबंधियों के साथ ही क्रिसमस मनाते हैं, चाहे इसके लिए उन्हें हज़ारों मील लंबी यात्रा ही क्यों न करनी पड़े। पड़ोसी देश न्यूज़ीलैंड में भी यह त्यौहार ऑस्ट्रेलिया की ही तरह बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।


इज़राइल में तीर्थ यात्रा


इज़राइल में, जहाँ ईसा मसीह का जन्म हुआ था, क्रिसमस के अवसर पर दुनिया भर के अलग-अलग धर्मों के लोग तीर्थयात्रा पर आते हैं। बेथलेहेम में जिस स्थान पर ईसा ने जन्म लिया था, वहाँ आज 'चर्च ऑफ नेटिविटी' स्थित है। चर्च के आँगन में एक सुनहरा तारा बनाया गया है, कहते हैं कि ठीक उसी स्थान पर ईसा पैदा हुए थे। इस तारे के ऊपर चाँदी के १५ दिये लटके हुए हैं, जो सदैव जलते रहते हैं। क्रिसमस के एक दिन पहले यहाँ लेटिन भाषा में विशेष प्रार्थना के बाद वहाँ घास-फूँस बिछाकर जीज़स के प्रतीक स्वरूप एक बालक की प्रतिमा रख दी जाती है। इज़राइल के बहुसंख्यक यहूदी लोग क्रिसमस के दिन 'हनुक्का' नामक पर्व मनाते हैं। दो हज़ार साल पहले आज ही के दिन यहूदियों ने यूनानियों को हराकर जेस्र्सलेम के मंदिर पर फिर से अपना अधिकार कर लिया था। इस विजय की स्मृति में ही यह त्यौहार मनाया जाता है। कहते हैं कि यूनानियों को मंदिर से खदेड़ने के बाद यहूदियों ने इस मंदिर में जो दिया जलाया था, उसमें तेल केवल एक दिन के लायक होने के बावजूद वह पूरे आठ दिन तक जलता रहा था। यह पर्व यहूदियों को उस चमत्कार की भी याद दिलाता है और इसीलिए यह त्यौहार को प्रकाश का पर्व भी कहा जाता है।


दोनों रात साथ बिताते हैं


मेक्सिको में क्रिसमस पर ईसाई धर्म तथा प्राचीन अजटेक धर्म का मिला-जुला स्वरूप देखने को मिलता है। वहाँ यह त्यौहार १६ दिसंबर को ही शुरू हो जाता है। लोग अपने घरों को रंग-बिरंगे फूलों, सदाबहार पेड़-पौधों तथा सुंदर काग़ज़ के कंदीलों से सजाते हैं। सूर्य भगवान की भव्य मूर्ति के समक्ष जीजस के जन्म को दर्शानेवाली झाँकियाँ बनाई जाती हैं। इस दौरान हर शाम को मैरी तथा जोजफ की प्रतीकात्मक यात्रा दिखाई जाती है, जब वे दोनों रात बिताने के लिए एक सराय की खोज में निकलते हैं।


इटली में उपहार


यूरोप के देशों में क्रिसमस अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। फ्रांस में यह मान्यता प्रचलित है कि पेयर फुटार्ड उन सभी बच्चों का ध्यान रखते हैं, जो अच्छे काम करते हैं और 'पेयर नोएल' के साथ मिलकर वे उन बच्चों के उपहार देते हैं। इटली में सांता को 'ला बेफाना' के नाम से जाना जाता है, जो बच्चों को सुंदर उपहार देते हैं। यहाँ ६ जनवरी को भी लोग एक-दूसरे को उपहार देते हैं, क्योंकि उनकी मान्यता के अनुसार इसी दिन 'तीन बुद्धिमान पुरुष' बालक जीजस के पास पहुँचे थे।


हॉलैंड में 'सिंतर क्लास' घोड़े पर सवार होकर बच्चों को उपहार देने आता है। रात को सोने से पहले बच्चे अपने जूतों में 'सिंतर क्लास' के घोड़े के लिए चारा तथा शक्कर भर कर घरों के बाहर रख देते हैं। सुबह उठने के बाद जब वे घर से निकलकर अपने जूतों की तरफ़ दौड़ते हैं, तब उन्हें उनमें घास तथा शक्कर के स्थान पर चाकलेट तथा मेवा भरे देखकर बहुत आश्चर्य होता है। हालैंड के पड़ोसी बेल्जियम में सांता को सैंट निकोलस के नाम से जाना जाता है। सेंट निकोलस दो बार लोगों के घर जाते हैं। पहले ४ दिसंबर को बच्चों का व्यवहार देखने जाते हैं, उसके बाद ६ दिसंबर को वे अच्छे बच्चों को उपहार देने जाते हैं।


आइसलैंड में यह दिन एक अनोखे ढंग से मनाया जाता है। वहाँ एक के बजाय १३ सांता क्लाज होते हैं और उन्हें एक पौराणिक राक्षस 'ग्रिला' का वंशज माना जाता है। उनका आगमन १२ दिसंबर से शुरू होता है और यह क्रिसमस वाले दिन तक जारी रहता है। ये सभी सांता विनोदी स्वभाव के होते हैं। इसके विपरीत डेनमार्क में 'जुलेमांडेन' (सांता) बर्फ़ पर चलनेवाली गाड़ी- स्ले पर सवार होकर आता है। यह गाड़ी उपहारों से लदी होती है और इसे रेंडियर खींच रहे होते हैं। नॉर्वे के गाँवों में कई सप्ताह पहले ही क्रिसमस की तैयारी शुरू हो जाती है। वे इस अवसर पर एक विशेष प्रकार की शराब तथा लॉग केक (लकड़ी के लठ्ठे के आकार का केक) घर पर ही बनाते हैं। त्यौहार से दो दिन पहले माता-पिता अपने बच्चों से छिपकर जंगल से देवदार का पेड़ काटकर लाते हैं और उसे विशेष रूप से सजाते हैं। इस पेड़ के नीचे बच्चों के लिए उपहार भी रखे जाते हैं। क्रिसमस के दिन जब बच्चे सोकर उठते हैं तो क्रिसमस ट्री तथा अपने उपहार देखकर उन्हें एक सुखद आश्चर्य होता है। डेनमार्क के बच्चे परियों को 'जूल निसे' के नाम से जानते हैं और उनका विश्वास है कि ये पारियाँ उनके घर के टांड पर रहती हैं। फिनलैंड के निवासियों के अनुसार सांता उत्तरी ध्रुव में 'कोरवातुनतुरी' नामक स्थान पर रहता है। दुनिया भर के बच्चे उसे इसी पते पर पत्र लिख कर उसके समक्ष अपनी अजीबोग़रीब माँगे पेश करते हैं। उसके निवास स्थान के पास ही पर्यटकों के लिए क्रिसमस लैंड नामक एक भव्य थीम पार्क बन गया है। यहाँ के निवासी क्रिसमस के एक दिन पहले सुबह को चावल की खीर खाते हैं तथा आलू बुखारे का रस पीते हैं। इसके बाद वे अपने घरों में क्रिसमस ट्री सजाते हैं। दोपहर को वहाँ रेडियो पर क्रिसमस के विशेष शांति-पाठ का प्रसारण होता है।


गरीबों को दान


इंग्लैंड में इस त्यौहार की तैयारियाँ नवंबर के अंत में शुरू हो जाती हैं। बच्चे बड़ी बेताबी से क्रिसमस का इंतज़ार करते हैं और क्रिसमस का पेड़ सजाने में अपने माता-पिता की सहायता करते हैं। २४ दिसंबर की रात को वे पलंग के नीचे अपना मोजा अथवा तकिये का गिलाफ़ रख देते हैं, ताकि 'फादर क्रिसमस' आधी रात को आकर उन्हें विभिन्न उपहारों से भर दें। जब वे अगले दिन सोकर उठते हैं तो उन्हें अपने पैर के अंगूठे के पास एक सेब तथा ऐड़ी के पास एक संतरा रखा हुआ मिलता है। इस अवसर पर बच्चे पटाखे भी जलाते हैं। यहाँ क्रिसमस के अगले दिन 'बॉक्सिंग डे' भी मनाया जाता है, जो सेंट स्टीफेन को समर्पित होता है। कहते हैं कि सेंट, स्टीफेन घोड़ों को स्वस्थ रखते हैं। यहाँ बाक्सिंग का मतलब घूसेबाजी से नहीं है, बल्कि उन 'बाक्स' (डिब्बों) से है, जो गिरजाघरों में क्रिसमस के दौरान दान एकत्र करने के लिए रखे जाते थे। २६ दिसंबर को इन दानपेटियों में एकत्र धन गरीबों में बाँट दिया जाता था। रूस में इन दिनों भयंकर बर्फ़ पड़ी रही होती है, फिर भी लोगों के उत्साह में कोई कमी नहीं आती। वे २३ दिसंबर से ५ जनवरी तक इस त्यौहार को मनाते हैं।


बर्फ़ ही बर्फ़


उत्सवों के नगर सिंगापुर में भी इस त्यौहार का विशेष महत्व है। यहाँ महीनों पहले से ही इसकी तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं और सभी बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल में सजावट तथा रोशनी के मामले में परस्पर होड़ लग जाती है। अगर इन दिनों आप कभी सिंगापुर आएँ तो चांगी हवाई अडडे पर उतरते ही वहाँ सजे क्रिसमस ट्री देखकर आपको यह अहसास हो जाएगा कि यहाँ क्रिसमस की बहार शुरू हो गई है। हर साल यहाँ क्रिसमस के लिए कोई नई थीम ली जाती है, मसलन पिछले साल की थीम थी 'बर्फ़ीली क्रिसमस' जिसकी जगह से पूरे सिंगापुर में इस दौरान चारों तरफ़ सजावट तथा रोशनी में बर्फ़ का ही अहसास होता था। सिंगापुर की ही तरह मकाऊ तथा हांगकांग में भी हमने क्रिसमस की अनोखी सजावट देखी, जिस पर हर साल लाखों डालर खर्च किए जाते हैं। अमरीका में सांता क्लाज के दो घर हैं - एक कनेक्टीकट स्थित टोरिंगटन में तथा दूसरा न्यूयार्क स्थित विलमिंगटन में। टोरिंगटन में सांता क्लाज अपने 'क्रिसमस गाँव' में आनेवाले बच्चों को अपनी परियों के साथ मिलकर उपहार देता है। इस अवसर पर इस गाँव को स्वर्ग के किसी कक्ष की तरह सजाया जाता है। व्हाइटफेस पर्वत के निकट विलिंगटन में सांता का स्थायी घर है। इस गाँव में एक गिरजाघर तथा एक डाकघर है। यहाँ एक लुहार भी रहता है। हर साल एक लाख से अधिक लोग इस गाँव के दर्शन करने आते हैं। अमरीका में सांता क्लाज नामक एक नगर भी है, जिसमें सांता की एक २३ फीट ऊँची मूर्ति है। सांता के नाम लिखे अमरीकी बच्चों के सभी पत्र यहीं आते हैं।

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