इतिहास ब्लाग में आप जैसे जागरूक पाठकों का स्वागत है।​

Website templates

Tuesday, November 3, 2009

नष्ट होने को है महान सम्राट अशोक का एक शिलालेख

     सर्वविदित है कि अशोक ने धर्म प्रचार और प्रशासन के निमित्त देश-विदेश में तमाम अभिलेख व शिलालेख खुदवाकर महत्वपूर्ण स्थलों पर रखवाए थे। तब ये शिलालेख-अभिलेख उसके सुशासन में मदद किए और कालान्तर में प्राचीन भारत का इतिहास लिखने में भी इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी तरह का एक लघुलेख बिहार के कैमूर जिले में एक पहाड़ी पर अवस्खित मगर कुछ विवाद के कारण इसके नष्ट होने की आशंका पैदा हो गई है। सवाल हैदा हो गया है कि इतिहास की कड़ियों को जोड़ने वाले इस ऐतिहासिक साक्ष्य को कैसे बचाया जाए।

      बिहार में कैमूर पहाड़ी पर मौजूद है मौर्य सम्राट अशोक महान का लघु शिलालेख । ब्राह्मी लिपि में इस पर उत्कीर्ण लेख है--एलेन च अंतलेन जंबुदीपसि। इस पंक्ति का अर्थ है- जम्बू द्वीप [भारत] में सभी धर्मो के लोग सहिष्णुता से रहें। आज यह शिलालेख पहाड़ी पर वर्षो से ताले में कैद है।

      इतिहासकार, पुरातत्वविद् व पर्यटक शिलालेख को पढ़ने की चाहत में पहाड़ी पर पहुंचने के बाद वहा से निराश होकर लौटते हैं। खासकर बौद्ध पर्यटक ज्यादा निराश होते हैं। सासाराम से सटी चंदतन पीर नाम की पहाड़ी पर अशोक महान के इस शिलालेख को लोहे के दरवाजे में कैद कर दिया गया है। इस पर इतनी बार चूना पोता गया है कि इसका अस्तित्व ही मिटने को है। यह स्थल पुरातत्व विभाग के अधीन है, पर इस पर दावा स्थानीय मरकजी दरगाह कमेटी का है, कमेटी ने ही यह ताला जड़ा है।

     जिला प्रशासन से लेकर राज्य सरकार तक से गुहार लगाकर थक चुके पुरातत्व विभाग ने अब इस विरासत से अपने हाथ खड़े कर लिए हैं। इतिहास गवाह है कि सम्राट अशोक महान ने तीसरी शताब्दी ई. पूर्व देशभर में आठ स्थानों पर लघु शिलालेख लगाए थे। इनमें से बिहार में एकमात्र शिलालेख सासाराम में है। शिलालेख उन्हीं स्थानों पर लगाए गए थे, जहा से होकर व्यापारी या आमजन गुजरते थे। सम्राट अशोक ने यहा रात भी गुजारी थी।

   व्यूठेना सावने कटे 200506 सत विवासता। इस पंक्ति में कहा गया है कि अशोक ने जनता के दुखदर्द को जानने के लिए कुल 256 रातें महल से बाहर गुजारी थीं। पुरातत्व विभाग के अधिकारी नीरज कुमार बताते हैं कि चार वर्ष पूर्व आए कुछ बौद्ध पर्यटकों ने तत्कालीन डीएम विवेक कुमार सिंह से मिलकर बंद ताले पर विरोध जताया था। डीएम ने इस पर पुरातत्व विभाग से ब्योरा देने के लिए कहा था। रिपोर्ट मागने पर विभाग ने पूरी स्थिति स्पष्ट की थी। मई 2009 में पुरातत्व विभाग, पटना ने सासाराम के डीएम, एसपी, एसडीओ को पत्र लिखकर शिलालेख के संरक्षण की माग की थी। अफसरों ने वस्तुस्थिति का जायजा लेकर हर पक्षों को सुना था, परंतु मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। फिलहाल वहा पुरातत्व का एक बोर्ड तक नहीं है। तालाबंदी के पीछे मरकजी दरगाह कमेटी के अपने तर्क हैं। ( साभार -याहू जागरण )



इतिहास के आईने में महान सम्राट अशोक

अपने भाइयों के रक्त से रंजित मगध के सिंहासन पर आरूढ़ होकर अशोक ने अपना साम्राज्य शुरू किया था, किंतु कलिंग विजय के पश्चात इसके जीवन में एक ऐसा मोड़ आया। जिसमें उसके संपूर्ण जीवन-दर्शन को बदल दिया। उसे अपनाकर वह बना ‘प्रियदर्शी’ और हृदय सम्राट-महान अशोक !
अशोक की महत्वाकांक्षा कलिंग विजय के बाद क्षत-विक्षत हो गई। इस विजय से अशोक का हृदय हिल उठा। रही-सही कसर महारानी विदिशा के उस पुत्र ने पूरी कर दी, जिसमें उसने लिखा था-‘हिंसा का मार्ग अपनाकर क्योंकि आप अपने वचन से हट गये हैं, इसलिए मैं आपका और आपकी संतान का त्याग करती हूं।’ अभी अशोक इन अघातों से उभर ही नहीं पाए थे कि उस बालभिक्षु की बातों ने, जो उसका भतीजा था- जिसके पिता की हत्या अशोक ने की थी, सम्राट के दिलो-दिमाग को बुरी तरह मथ दिया और वे भी बुद्ध की शरण में चले गए। देश-विदेश में बौद्धधर्म का प्रचार अशोक ने जिस तरह से किया, उसकी बराबरी इतिहास में नहीं मिलती। पहले संक्षेप में देखें अशोक के जीवन के घटनाक्रम जिसने खुद उनका जीनदर्शन और भारत के इतिहास को नया आयाम दिया।

अशोक (२७३ ई. पू. से २३६ ई. पू.)

     राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष लगे । इस कारण राज्यारोहण चार साल बाद २६९ ई. पू. में हुआ था । वह २७३ ई. पू. में सिंहासन पर बैठा । अभिलेखों में उसे देवाना प्रिय एवं राजा आदि उपाधियों से सम्बोधित किया गया है । मास्की तथा गर्जरा के लेखों में उसका नाम अशोक तथा पुराणों में उसे अशोक वर्धन कहा गया है । सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने ९९ भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था, लेकिन इस उत्तराधिकार के लिए कोई स्वतंत्र प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ है ।
     दिव्यादान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी है, जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी । सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जयिनी जाते समय अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने श्रेष्ठी की पुत्री देवी से विवाह किया जिससे महेन्द्र और संघमित्रा का जन्म हुआ । दिव्यादान में उसकी एक पत्नीस का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है । उसके लेख में केवल उसकी पत्नी् का नाम करूणावकि है जो तीवर की माता थी । बौद्ध परम्परा एवं कथाओं के अनुसार बिन्दुसार अशोक को राजा नहीं बनाकर सुसीम को सिंहासन पर बैठाना चाहता था, लेकिन अशोक एवं बड़े भाई सुसीम के बीच युद्ध की चर्चा है ।

अशोक का कलिंग युद्ध

अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष २६१ ई. पू. में कलिंग पर आक्रमण किया था । आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद २६९ ई. पू. में उसका विधिवत्‌ अभिषेक हुआ । तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख ५० हजार व्यक्तिु बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी । सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा । इससे द्रवित होकर अशोक ने शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया ।
कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया । उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया । उसने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की । यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग शुरू हुआ । उसने बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया ।
   सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी । तत्पश्चाषत्‌ मोगाली पुत्र निस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था । दिव्यादान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुक को जाता है । अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी । तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी तथा लुम्बिनी ग्राम को करमुक्तस घोषित कर दिया था ।

अशोक एवं बौद्ध धर्म

कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने व्यक्ति गत रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया । अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की । इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्नी देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया ।
दिव्यादान में उसकी एक पत्नीज का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है । उसके लेख में केवल उसकी पत्नीी करूणावकि है । दिव्यादान में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगताशोक का नाम का उल्लेख है ।  विद्वानों अशोक की तुलना विश्वि इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस, अकबर, सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है ।
     अशोक ने अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वनविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं । एच. जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है ।" अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया ।

अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-

(अ) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ, (ब) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्तिे, (स) धर्म महापात्रों की नियुक्तिन, (द) दिव्य रूपों का प्रदर्शन, (य) धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था, (र) लोकाचारिता के कार्य, (ल) धर्मलिपियों का खुदवाना, (ह) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि ।
    अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया । वह अभिषेक के १०वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया । कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी । अपने अभिषेक २०वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की । नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई । बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त किया । स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया । अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे धर्म महापात्र कहा गया था । इसका कर्य विभिन्न् धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था ।

अशोक के शिलालेख

अशोक के १४ शिलालेख विभिन्न लेखों का समूह है जो आठ भिन्नध-भिन्नक स्थानों से प्राप्त किए गये हैं-

(१) धौली- यह उड़ीसा के पुरी जिला में है ।

(२) शाहबाज गढ़ी- यह पाकिस्तान (पेशावर) में है ।

(३) मान सेहरा- यह हजारा जिले में स्थित है ।

(४) कालपी- यह वर्तमान उत्तरांचल (देहरादून) में है ।

(५) जौगढ़- यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है ।
(६) सोपरा- यह महराष्ट्र के थाणे जिले में है ।

(७) एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है ।

(८) गिरनार- यह काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास है ।

अशोक के लघु शिलालेख

अशोक के लघु शिलालेख चौदह शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं है जिसे लघु शिलालेख कहा जाता है । ये निम्नांकित स्थानों से प्राप्त हुए हैं-

(१) रूपनाथ- यह मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में है ।

(२) गुजरी- यह मध्य प्रदेश के दतुया जिले में है ।

(३) भबू- यह राजस्थान के जयपुर जिले में है ।

(४) मास्की- यह रायचूर जिले में स्थित है ।

(५) सहसराम- यह बिहार के शाहाबाद जिले में है ।
     धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अशोक ने मानव व पशु जाति के कल्याण हेतु पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मानव तथा पशु के लिए अलग चिकित्सा की व्य्वस्था की । अशोक के महान पुण्य का कार्य एवं स्वर्ग प्राप्ति का उपदेश बौद्ध ग्रन्थ संयुक्त निकाय में दिया गया है ।
अशोक ने दूर-दूर तक बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु दूतों, प्रचारकों को विदेशों में भेजा अपने दूसरे तथा १३वें शिलालेख में उसने उन देशों का नाम लिखवाया जहाँ दूत भेजे गये थे । दक्षिण सीमा पर स्थित राज्य चोल, पाण्ड्या, सतिययुक्तर केरल पुत्र एवं ताम्रपार्णि बताये गये हैं ।

अशोक के अभिलेख

अशोक के अभिलेखों में शाहनाज गढ़ी एवं मान सेहरा (पाकिस्तान) के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण हैं । तक्षशिला एवं लघमान (काबुल) के समीप अफगानिस्तान अभिलेख आरमाइक एवं ग्रीक में उत्कीर्ण हैं । इसके अतिरिक्त् अशोक के समस्त शिलालेख लघुशिला स्तम्भ लेख एवं लघु लेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं । अशोक का इतिहास भी हमें इन अभिलेखों से प्राप्त होता है ।
अभी तक अशोक के ४० अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं । सर्वप्रथम १८३७ ई. पू. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता हासिल की थी ।
रायपुरबा- यह भी बिहार राज्य के चम्पारण जिले में स्थित है ।
प्रयाग- यह पहले कौशाम्बी में स्थित था जो बाद में मुगल सम्राट अकबर द्वारा इलाहाबाद के किले में रखवाया गया था ।

अशोक के लघु स्तम्भ लेख

सम्राट अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है जो निम्न स्थानों पर स्थित हैं-

१. सांची- मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में है ।

२. सारनाथ- उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में है ।

३. रूभ्मिनदेई- नेपाल के तराई में है ।

४. कौशाम्बी- इलाहाबाद के निकट है ।

५. निग्लीवा- नेपाल के तराई में है ।

६. ब्रह्मगिरि- यह मैसूर के चिबल दुर्ग में स्थित है ।

७. सिद्धपुर- यह ब्रह्मगिरि से एक मील उ. पू. में स्थित है ।

८. जतिंग रामेश्वैर- जो ब्रह्मगिरि से तीन मील उ. पू. में स्थित है ।

९. एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है ।

१०. गोविमठ- यह मैसूर के कोपवाय नामक स्थान के निकट है ।

११. पालकिगुण्क- यह गोविमठ की चार मील की दूरी पर है ।

१२. राजूल मंडागिरि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है ।

१३. अहरौरा- यह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है ।

१४. सारो-मारो- यह मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में स्थित है ।

१५. नेतुर- यह मैसूर जिले में स्थित है ।

अशोक के गुहा एवं स्तम्भ लेख

दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित बराबर नामक तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण प्राप्त हुए हैं । इन सभी की भाषा प्राकृत तथा ब्राह्मी लिपि में है । केवल दो अभिलेखों शाहवाजगढ़ी तथा मान सेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है । यह लिपि दायीं से बायीं और लिखी जाती है ।
तक्षशिला से आरमाइक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख कन्धार के पास शारे-कुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमाइक द्विभाषीय अभिलेख प्राप्त हुआ है ।



अशोक के स्तम्भ लेख

अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या सात है जो छः भिन्नन स्थानों में पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं । इन स्थानों के नाम हैं-

(१) दिल्ली तोपरा- यह स्तम्भ लेख प्रारंभ में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में पाया गया था । यह मध्य युगीन सुल्तान फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया । इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं ।

(२) दिल्ली मेरठ- यह स्तम्भ लेख भी पहले मेरठ में था जो बाद में फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया ।

(३) लौरिया अरराज तथा लौरिया नन्दगढ़- यह स्तम्भ लेख बिहार राज्य के चम्पारण जिले में है ।

विराट नगर में अशोक के शिलालेख

राजस्थान के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग ने महाभारतकालीन विराटनगर में पहाड़ी चट्टान पर उत्कीर्ण सम्राट अशोक धर्मलेख को संरक्षित स्मारक घोषित किया है। जयपुर जिले के विराटनगर में भीम की डूँगरी के तले एक स्वतंत्र चट्टान पर यह धर्मलेख मौजूद है। इसके निकट ही अकबरी दरवाजा या मुगल गेट है, जिसमें मुगल कालीन भिति चित्रकारी है। कुछ माह पूर्व ही इस ऐतिहासिक स्थल को संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है। पानी इत्यादि से सुरक्षा के उपायों के साथ ही इसके निकट एक दरवाजा लगाया गया है। इस चट्टान पर उत्कीर्ण आलेख को हिंदी और अंग्रेजी में अनूदित करके एक पृथक पट्ट भी शीघ्र लगाया जाएगा। अभी तक यह शिलालेख केन्द्र या राज्य सरकार की ओर से संरक्षित नहीं था। शिरोरेखाविहीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण एवं पाली भाषा में लिखित इस अभिलेख में आठ पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इसमें सम्राट प्रियदर्शी अशोक ने अपने बारे में कहा है 'अढ़ाई वर्ष से अधिक हुए हैं, मैं उपासक हुआ।' दरअसल यह धर्मलेख सम्राट अशोक के रूपनाथ एवं सहसराम लेख का विराटनगर संस्करण माना जाता है।

    वर्ष 1871-72 में कारलायल ने अपनी शोधयात्रा के दौरान इस शिलालेख को खोज निकाला था। बीच में पर्याप्त घिसा हुआ होने के कारण कारलायल ने भ्रमवश इसे दो भिन्न लेखों के रूप में मान लिया, लेकिन कालांतर में कनिघम ने इसका निराकरण कर दिया। ऐतिहासिक विराटनगर में अशोक महान के दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं। राजस्थान में प्राप्त यह प्राचीनतम अभिलेख बौद्ध धर्म के इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। अपने जमाने में विराटनगर की बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र के नाते पहचान थी।

भारत में ब्रिटिशकाल में कैप्टन बर्ट ने 1837 में विराटनगर से 12 मील उत्तर में स्थित भाब्रू गाँव से सम्राट अशोक का अभिलेखयुक्त शिलाफलक खोजा था। इसका आकार दो फुट गुणा दो फुट गुणा डेढ़ फुट है। यह माना जाता है कि मूलतः शिलाफलक बीजक की पहाड़ी से मिला था, जो कालांतर में भाब्रू पहुँच गया। बाद में यह सम्राट अशोक के भाब्रू बैराठ कोलकाता अभिलेख के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यह कोलकाता में बंगाल एशियाटिक सोसायटी के भवन में जेम्सप्रिंसेप की मूर्ति के सामने लगा हुआ है।

अशोक ने इस अभिलेख के आरंभ में बौद्ध धर्म के त्रिरत्न बुद्ध धर्म और संघ में अपनी निष्ठा का उल्लेख किया है। सम्राट ने गर्व के साथ यह भी घोषणा की है कि भगवान बुद्ध ने जो कुछ कहा है, वह सब अच्छा ही कहा है। अभिलेख में बौद्ध धर्म के सात उद्धरणों के नाम भी गिनाए हैं।
राजस्थान के जयपुर जिले में शाहपुरा से 25 किलोमीटर दूर विराटनगर कस्बा अपनी पौराणिक ऐतिहासिक विरासत को आज भी समेटे हुए है। यह स्थल राजा विराट के मत्स्य प्रदेश की राजधानी के रूप में विख्यात था। यही पर पांडवों ने अपने अज्ञातवास का समय व्यतीत किया था। महाभारत कालीन स्मृतियों के भौतिक अवशेष तो अब यहां नहीं रहे किंतु यहां ऐसे अनेक चिन्ह हैं जिनसे पता चलता है कि यहां पर कभी बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय के अनुयायियों का विशेष प्रभाव था। विराट नगर, जिसे पूर्व में वैराठ के नाम से भी जाना जाता था, के दक्षिण की ओर बीजक पहाड़ी है।विराट नगर की बुद्ध-धाम बीजक पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक चट्टान है जिस पर भब्रू बैराठ शिलालेख उत्कीर्ण है। इसे बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों के अलावा आम लोग भी पढ़ सकते थे। इस शिलालेख को भब्रू शिलालेख के नाम से भी जाना जाता था। यह शिलालेख पाली व ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ था।

    इसे सम्राट अशोक ने स्वयं उत्कीर्ण करवाया था ताकि जनसाधारण उसे पढ़कर तदनुसार आचरण कर सके। इस शिला लेख को कालान्तर में 1840 में ब्रिटिश सेनाधिकारी कैप्टन बर्ट द्वारा कटवा कर कलकत्ता के संग्रहालय में रखवा दिया गया। आज भी विराटनगर का यह शिलालेख वहां सुरक्षित रखा हुआ है। इसी प्रकार एक और शिला लेख भीमसेन डूंगरी के पास आज भी स्थित है। यह उस समय मुख्य राजमार्ग था।

    बीजक की पहाड़ी पर बने गोलाकार मन्दिर के प्लेटफार्म के समतल मैदान से कुछ मीटर ऊंचाई पर पश्चिम की तरफ एक चबूतरा है जिसके सामने भिक्षु बैठकर मनन व चिन्तन करते थे। यहीं पर एक स्वर्ण मंजूषा थी जिसमें भगवान बुद्ध के दो दांत एवं उनकी अस्थियां रखी हुई थीं। अशोक महान बैराठ में स्वयं आए थे। यहां आने के पहले वे 255 स्थानों पर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार कर चुके थे। बैराठ वर्षों तक बुद्धम् शरणम् गच्छामी, धम्मम् शरणम् गच्छामी से गुंजायमान रहा है।
अशोक ने बनवाया बोधगया का पहला मंदिर

महाबोधि मंदिर परिसर भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित चार पवित्र स्थलों में से एक और विशेष रूप से उनके बुद्धत्व की प्राप्ति का स्थल है. पहला मंदिर सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व 3 री शताब्दी में बनवाया था, और वर्तमान मंदिर 5 वीं से 6 वीं शताब्दी का है. यह भारत में पूर्ण रूप से ईंटों से बने शुरुआती बौद्ध मंदिरों में से एक है, यह गुप्त काल के अंतिम समय का है और आज भी विद्यमान है.

अभिलेख की प्रामाणिकता

मापदंड (i): विशाल 50 मीटर ऊँचा महाबोधि मंदिर 5 वीं से 6 ठी शताब्दी का है, और भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद प्राचीनतम मंदिरों में से एक है. यह मंदिर उस युग में ईंट से बने पूर्ण रूप से विकसित मंदिरों के भारतीय स्थापत्य की निपुणता के कुछ उदाहरणों में से एक है.
मापदंड (ii) महाबोधि मंदिर, भारत के ईंट से बने शुरुआती मंदिरों में से बचे हुए मंदिरों में से एक है, शताब्दियों तक स्थापत्य के विकास में इसका बहुत प्रभाव रहा है. मापदंड (iii) महाबोधि मंदिर स्थल बुद्ध के जीवन और उसके बाद, सम्राट अशोक ने पहला मंदिर, जंगला और स्मारक स्तंभ बनाया तब से पूजा से संबंधित घटनाओं का अभिलेख है.

मापदंड (iv) वर्तमान मंदिर प्राचीनतम में से एक हैं और गुप्त काल के उत्तराद्ध में पूरी तरह से ईंट की बनी सबसे प्रभावशाली संरचना है. तराशा गया पत्थर का जंगला पत्थर में शिल्प का प्रारंभिक उत्कृष्ट उदाहरण है.

मापदंड (vi) बोधगया का महाबोधि मंदिर परिसर का भगवान बुद्ध के जीवन से सीधा संबंध है, यही वह स्थान भी है जहाँ उन्होंने बुद्धत्व को प्राप्त किया था.
 
नेपाल के बौद्धस्तूप



भारतीय कैलेंडर की विकास यात्रा


प्राचीन भारत की झलक


धूमधाम से मनी सम्राट अशोक जयंती


बिहार और अशोक


इतिहास के पन्नों में बिहार


सफलता और उद्यम – अशोक का शिलालेख


इंस्क्रिप्‍शन्‍स ऑफ अशोक


Ashoka the Great


सम्राट अशोक



  

3 comments:

Naveen Tyagi said...

sarkaar ko salaar gaji,afjalke alaawa sabhi muslim aakraantaon kee kabron ko sawaarne se hi fursat nahi hai.

Dr Mandhata Singh said...

सच कहा आपने। सरकारों को वोट के लिए तुष्टिकरण से ही फुर्सत नहीं है।

शरद कोकास said...

नमस्कार डॉ.मान्धाता सिंह । आज आप्के ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा । बहुत उपयोगी जानकारी आप दे रहे है। मै भी यह काम फिक्शन के माध्यम से कर रहा हूँ । कृपया इस ब्लॉग पर भी आयें ।
"पुरातत्ववेत्ता"
http://sharadkokas.blogspot.com

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...